कैंसर सरवाइवर – दो
अगर आप या आपका कोई रिश्तेदार अथवा परिचित कैंसर से संघर्ष कर रहा है तो, हिम्मत कतई न हारें। मेडिकल साइंस ने इस रोग का सफल इलाज़ खोज लिया है। बेहतर इलाज उपलब्ध हो जाने से लोग कैंसर को मात देने लगे हैं। अनेक बहादुर और हिम्मती लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने कैंसर को मात देकर नए सिरे से जीवन की शुरुआत की है। इस बार चर्चा की गई है, मॉडल-एक्ट्रेस लीज़ा रानी रे की ब्लड कैंसर से लड़ने की कहानी।
हरी आंखों में अजीब-सी कशिश वाली चमक, होंठों पर दिलकश मुस्कान और पर्सनालिटी में ढेर सारी ख़ूबसूरती समेटे छरहरी काया की मलिका अभिनेत्री लीज़ा रानी रे के पास शोहरत थी, दौलत थी और मीडिया अटेंशन भी भरपूर था। काम की भी कोई कमी नहीं थी। कई फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी थीं, एक रिलीज़ होने वाली थी। कई फ्लोर पर थीं। अनेक दूसरे प्रॉजेक्ट्स भी हाथ में थे। कुल मिलाकर उनकी ज़िंदगी बड़ी ही ख़ूबसूरती से आगे बढ़ रही थी। तभी, अचानक ऐसा हुआ कि जिससे लगा, ज़िंदगी अब निश्चित ही ख़त्म हो जाएगी, लेकिन मज़बूत विलपॉवर की लीज़ा रे ने हार नहीं मानी और मौत रूपी ब्लड कैंसर को मात देने का कारनामा कर दिखाया।
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दरअसल, चार अप्रैल 1972 को कनाडा के टोरंटो शहर में जन्मी और वहीं पली-बढ़ी बॉलीवुड एक्ट्रेस-मॉडल लीज़ा टीनएज यानी महज़ 16 साल की उम्र में फैशन की दुनिया की तब क्वीन बन गई जब पत्र-पत्रिकाओं में बॉम्बे डाइंग का ऐड करती हुई दिखीं। ऐड में वह हाई-कट वाली काले रंग की बिकनी पहनी हुई थीं। फिर वह ग्लैडरैग्स के कवर पेज पर लाल रंग की बेवाच-शैली वाली बिकनी पहनी हुई दिखाई दीं। बंगाली ब्राह्मण पिता सलील रे और पोलिश मां बारबरा (पोलिश भाषा में बसिया) की बेटी लीज़ा इस ऐड के बदौलत रातोंरात स्टार बन गई थीं। उन्होंने भले ही मॉडलिंग से करियर की शुरुआत की लेकिन जल्द ही वह अभिनय की ओर चली गईं। उनकी सबसे पहली फिल्म तमिल फिल्म ‘नेताजी’ थी, जो 1994 में रिलीज़ हुई।
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लीज़ा रे काम के सिलसिले में 2004 से ही ज़्यादातर समय बाहर रहती थीं। मगर उनको 2008 में मां के निधन के चलते कनाडा लौटना पड़ा था। कुछ महीने बाद वह सदमे से उबरने लगी थीं। 2009 की गर्मियों के मौसम में अचानक उन्हें लगने लगा कि उनके शरीर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। वह मन ही मन बुदबुदाईं, “समथिंग इज़ नॉट गुड…” अचानक उन्हें थकान ज़्यादा ही महसूस होने लगी थी, सिर में भारीपन और दर्द के साथ कमज़ोरी भी लगने लगी थी। बिना किसी वजह के धीरे-धीरे वज़न भी घटने लगा था और यदा-कदा खांसी आने लगी थी। लीज़ा को चिंता हुई कि आख़िर अचानक उनकी बॉडी में ऐसा हुआ क्या है, जो उन्हें ही ख़ुद ठीक नही लग रहा है। उन्हें लगने लगा कि ऐसा कुछ ज़रूर हो रहा है, जिसके बारे में ख़ुद वह भी नहीं जानती हैं।
लीज़ा फौरन फ़ैमिली डॉक्टर के पास गईं और अपनी परेशानी और बेचैनी बयान कर दी। उन्होंने शरीर में हो रहे हर बदलाव के बारे में भी बताया। उनकी बात सुनकर डॉक्टर अचानक ख़ुद तनाव में आ गए। बीमारी का जो लक्षण बता रही थीं, वे भयावह थे। वे सभी लक्षण ब्लड कैंसर के थे। लिहाज़ा, लीज़ा के ख़ून की जांच कराई गई। हफ़्तेभर बाद रिपोर्ट आ गई, डॉक्टर ने रिपोर्ट देखने के लिए लीज़ा को उनके डैड सलील के साथ बुलाया। डॉक्टर पहले उनके डैड से मिले। डैड ने ही बताया कि उनकी बेटी बहादुर लड़की है, लिहाज़ा उसे बताने में कोई हर्ज़ नहीं है। फिर लीज़ा अंदर डॉक्टर के पास पहुंचीं।
थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद डॉक्टर बोले, “लीज़ा तुम्हें ब्लड कैंसर है। कैंसर भी ऐसा है, जो ठीक ही नहीं हो सकता।” उनकी सर्द आवाज़ लीज़ा को अंदर तक हिला गई और आसपास का मंज़र घूमता हुआ नज़र आया, मगर वह बैठी तो ख़ामोश थी। उन्हें उस समय यही लगा जैसे ईश्वर की अदालत ने बिना किसी ग़ुनाह के ही उनके लिए मौत की सज़ा मुकर्रर कर दी हो। वह ख़ामोश बैठी थीं, उनके चहरे पर तनाव का नामोनिशान नहीं था। बस वह सोचे जा रही थीं। अलबत्ता, ब्लड कैंसर की जानकारी जब डॉक्टर ने दी, तब लीज़ा को रोना नहीं आया।
“यानी ज़िंदगी चंद महीने में ख़त्म, है न?” लीज़ा बहादुरी से बोली। हालांकि हलक से यही अल्फ़ाज़ निकल सके थे, बाक़ी अंदर ही फंसे रह गए।
“नहीं-नहीं, यू कैन डिफीट द कैंसर!” डॉक्टर बोले थे। उनके अल्फ़ाज़ कमज़ोर थे।
“एस डॉक्टर, आई शैल किल द कैसर!” लीज़ा के शब्दों में अचानक ग़जब का आत्मविश्वास आ गया था।
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बहरहाल, डेढ़ महीने बाद लीज़ा ने ख़ुद अपने ब्लॉग ‘येलो डायरीज़’ में ही खुलासा किया कि उसे ब्लड कैंसर है। आठ सितंबर को ब्लॉग पर लिखा- “23 जून को मुझे मल्टीपल मायलोमा डिसीज़ डिटेक्ट हुआ है। यह ब्लड कैंसर लाइलाज है। वैसे दो जुलाई से मेरा ट्रीटमेंट शुरू हो गया है।” लीज़ा ने तीन सितंबर से ही ब्लॉग लिखना शुरू किया था और और पांच दिन बाद ही कैंसर की बीमारी को शेयर कर दिया। लोगों को अपनी ज़िंदगी की हक़ीक़त बताने के लिए ही उन्होंने ब्लॉग शुरू किया। तब उन्होंने ही कहा था, “येलो डायरी वह जगह है, जहां मैं अपनी पर्सनल ज़िंदगी के बारे में लिखूंगी।”
लीज़ा ने विश्वास पूर्वक लिखा कि बीमारी ठीक हो जाएगी। दोस्त और रिश्तेदार कैंसर की ख़बर से ज़रूर सदमे में थे। लीज़ा की ज़बरदस्त विलपावर आशा की किरण बनकर आई थी। इसके बाद उन्हें कनाडा के हैमिल्टन शहर के हेंडर्सन कैंसर हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। वहां लीज़ा का स्टेम सेल ट्रांसप्लांट शुरू हुआ। इलाज के दौरान भी लीज़ा बराबर कहती रहती थीं, “आई विल बीट कैंसर।” उनमें आत्मविश्वास और सिर्फ़ आत्मविश्वास था। इसी के बूते वह कैंसर से लड़ पाईं और आख़िरकार उसे शिकस्त देने में सफल रहीं। स्टेम सेल ट्रांसप्लांट क़रीब साल भर चला और सफल रहा।
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उन दिनों को याद कर लीज़ा कहती हैं, “डैड का प्यार और प्रोत्साहन निःस्वार्थ था जो मुझे भावविह्वल कर देता है। वह मेरे लंबे स्टेमसेल थेरपी के दौरान अस्पताल के कमरे में मेरे बग़ल की चारपाई पर सोते थे। मेरे डैड बहुत अच्छे इंसान हैं, मैं उनका सदा सम्मान करती रहूंगी। मुझे गर्व है कि वह मेरे डैड हैं।” दरअसल, पिता के प्यार और प्रोत्साहन के अलावा लीज़ा को दुनिया भर के लोगों, ख़ासकर भारत के लोगों का जो प्यार, प्रोत्साहन, सहयोग और समर्थन मिला, उसने लीज़ा को ब्लड कैंसर से लड़ने के लिए बहुत ज़्यादा प्रेरित किया।
लीज़ा रे कहती हैं, “दुआओं में मेरी अटूट आस्था है। जीवन मेरे पक्ष में है, मेरे ख़िलाफ़ नहीं। मैं बचपन से ज़िद्दी रही हूं, मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं मर भी सकती हूं। मैंने तय कर लिया था कि मौत से हार नहीं मानूंगी, हालांकि यह सब बहुत आसान भी नहीं था। मैंने कड़ी मेहनत की। मेडिटेशन और योग का भी सहारा लिया। इलाज का वक़्त बहुत ही कठिन था, लेकिन ह्यूमर और लेखन ने मुझे भयानक दर्द से बाहर निकलने और उसे भूलने में बड़ी मदद की। कई बार दर्द को मन से बाहर निकालने के लिए ज़ोर-ज़ोर से रोती थी। दर्द से छुटकारा पाने के लिए अल्टरनेटिव थेरेपी का भी सहारा लिया।”
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जुलाई 2010 में अंततः हैंडर्सन हॉस्पिटल के डॉक्टरों द्वारा कैंसर से पूरी तरह मुक्त घोषित किए जाने के बाद लीज़ा ने कहा, “कैंसर को हराने के बाद में राहत महसूस कर रही हूं।” अब लीज़ा देश में ही कैंसर पीड़ित लोगों की मदद कर रही हैं। वह कैंसर संस्थान खोलना चाहती हैं। वह कैंसर के बारे में लोगों को जागरूक कर रही हैं। वह कहती हैं कि उनकी योजना कैंसर शोध के लिए काम करने वाले शिलादित्य सेनगुप्ता से हाथ मिलाने की है। शिलादित्य सन् 2009 में डीओडी बेस्ट कैंसर रिसर्च प्रोगाम कोलैबोरैटिव इनोवेटर्स अवार्ड पा चुके हैं। लीज़ा भारत में बोस्टन के डाना-फरबर कैंसर इंस्टिटूट की तरह का संस्थान खोलना चाहती हैं।
बहरहाल, सन् 2005 में दीपा मेहता की ऑस्कर के लिए नॉमिनेटेड फिल्म ‘वॉटर’ में विधवा स्त्री कल्याणी बनकर फिल्म प्रेमियों के भी मन में समाने वाली लीज़ा के लिए कैंसर से उबरने के बाद 20 अक्टूबर 2012 का दिन यादगार रहा, जब उन्होंने अपने बॉयफ्रेंड बैंकर जैसन देहनी के साथ सात फेरे ले लिए। उनकी शादी उसी नापा वैली में हुई, जहां उनकी मंगनी हुई थी। 2018 में सरोगेसी के ज़रिए वह दो जुड़वा बेटियों की मां बन गईं।
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महेश भट्ट कैंप की 2001 में आई ‘कसूर’ में अपने ख़ूबसूरत बोल्ड अंदाज़ से लीज़ा ने सशक्त अभिनय का परिचय दिया था। लीज़ा ने टीनएज में ही मॉडलिंग शुरू कर दी थी। बॉलीवुड के साथ हॉलीवुड की कई हॉट फिल्में आईं। ‘आई कैन नॉट थिंक स्ट्रेट’ तो कैंसर के ट्रीटमेंट के दौरान ही रिलीज़ हुई। इसमें लीज़ा का लेस्बियन का रोल था। लीज़ा को लोग रीयल लाइफ हिरोइन कहते हैं क्योंकि उन्होंने जिस बहादुरी से कैंसर से लड़ाई लड़ी है और उससे जीत कर अपनी जिंदगी में वापस आयी है उसे करना हर किसी के बस में नहीं होता है।
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लीज़ा लाइफ स्टाइल चैनल टीएलसी के साथ ट्रैवल शो की एंकरिंग करती नज़र आ चुकी हैं, इस शो में वह अलग-अलग शहरों की ख़ूबसूरती को उभारकर पर्यटन प्रेमियों के लिए प्रस्तुत किया। लीज़ा के प्रशंसकों उन्हें डॉक्यूमेंट्री ‘1 ए मिनट’ में भी देख चुके हैं, जिसमें उनके कैंसर से ही लड़ने की दास्तान है। वैंकूवर में वॉटर में अभिनय के लिए क्रिटिक सर्कल में बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड जीतने वाली लीज़ा भोजन में जूस, सॉफ्ट आहार और दूसरे वेजेटेरियन फूड्स लेती हैं। बहरहाल, कैंसर से उबरने के बाद वह काम में पहले की तरह सक्रिय हैं।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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