परशुराम जयंती पर विशेष
हरिगोविंद विश्वकर्मा
जगत के पालनहार भगवान विष्णु, शास्त्रों के अनुसार, त्रेतायुग में वैशाख माह में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को परशुराम के रूप में पृथ्वी लोक पर अवतरित हुए थे। अक्षय तृतीया के दिन जन्म लेने के कारण ही भगवान परशुराम की शक्ति भी अक्षय थी। भार्गव वंश में जन्मे परशुराम को विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार माना जाता है। वह वामन के बाद और मर्यादापुरुषोत्तम राम से पहले अवतरित हुए थे। उनका भी नाम राम था, किंतु वह शिव के परम भक्त थे।
शंकर से उन्हें कई अद्वितीय शस्त्र भी प्राप्त हुए इन्हीं में से एक था शंकर का अमोघ अस्त्र परशु। उसे फरसा या कुल्हाड़ी भी कहते हैं। यह इन्हें बहुत प्रिय था। इसलिए वह उसे हमेशा साथ रखते थे। परशु धारण करने के कारण ही इन्हें परशुराम कहा गया। शास्त्रों में उन्हें अमर माना गया है। कई ग्रंथों में परशुराम को शिव और विष्णु का संयुक्त अवतार माना जाता है। शिव से उन्होंने संहार लिया और विष्णु से उन्होंने पालक के गुण प्राप्त किए।
परशुराम भी दुर्वासा ऋषि की भांति अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात थे। वाल्मिकि रामायण में उनके क्रोध की पराकाष्ठा का वर्णन मिलता है। वाल्मीकि रामायण के एक प्रसंग के अनुसार, प्राचीन काल में महिष्मती (वर्तमान महेश्वर) नगर के क्षत्रिय राजा कार्तवीर्य अर्जुन था। उसने सभी सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं। उसने भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न करके वरदान स्वरूप उनसे एक सहस्त्र भुजाएं मांग ली। इससे उसका नाम कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु हो गया। वह बड़ा प्रतापी तथा शूरवीर था। सहस्त्रबाहु ने परशुराम के पिता जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय मांगी थी। जमदग्नि के इनकार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ लेकर चले गए। बाद में परशुराम को सारी घटना विदित हुई, तो वह बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का नाश कर दिया। पहले सहस्त्रबाहु की भी वध कर दिया।
इसके बाद प्रतिशोध की भावना के चलते कार्तवीर्य के संबंधी क्षत्रियों ने जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। हालांकि हर बार हताहत क्षत्रियों की पत्नियां जीवित रहीं और नई पीढ़ी को जन्म देती रहीं। इस नरसंहार से समंत पंचक क्षेत्र में पांच रुधिर के कुंड भर गए। क्षत्रियों के रुधिर से परशुराम ने अपने पितरों का तर्पण किया। उस समय ऋचीक साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने परशुराम को ऐसा कार्य करने से रोका। ऋत्विजों को दक्षिणा में पृथ्वी प्रदान की। ब्राह्मणों ने कश्यप की आज्ञा से उस वेदी को खंड-खंड करके बांट लिया। अतः वे ब्राह्मण जिन्होंने वेदी को परस्पर बांट लिया था, खांडवायन कहलाए।
अंततः परशुराम ने तपस्या की ओर ध्यान लगाया। रामावतार में रामचंद्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर वह बहुत क्रोधित हुए थे। वाद-विवाद के बाद उन्होंने राम की परीक्षा लेने के लिए अपना धनुष रामचंद्र को दिया। जब राम ने धनुष पर कमान चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि राम भगवान विष्णु के अवतार हैं। इसलिए उनकी वंदना करते हुए वह तपस्या करने चले गए। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में इस प्रसंग एक चौपाई लिखी गई है। कहि जय जय रघुकुल केतू। भुगुपति गए बनहि तप हेतू।।’
एक अन्य प्रसंग के अनुसार राम का पराक्रम सुनकर परशुराम अयोध्या गए। दशरथ ने स्वागतार्थ रामचंद्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज़ पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज़ को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज़ पुनः प्राप्त किया।
परंपराओं और पौराणिक कथाओं के अनुसार क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने परशुराम के रूप में अवतार लिया था। भृगु के वंशज परशुराम राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र थे। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये ‘जामदग्न्य’ भी कहे जाते हैं। दरअसल, भृगु ने अपने पुत्र के विवाह के विषय में जाना तो बहुत प्रसन्न हुए तथा अपनी पुत्रवधु से वर मांगने को कहा। उनसे सत्यवती ने अपने तथा अपनी माता के लिए पुत्र जन्म की कामना की।
भृगु ने उन दोनों को ‘चरु’ भक्षणार्थ दिए और कहा कि ऋतुकाल के उपरांत स्नान करके सत्यवती गूलर के पेड़ और उसकी माता पीपल के पेड़ का आलिंगन करे तो दोनों को पुत्र प्राप्त होंगे। माँ-बेटी के चरु खाने में उलट-फेर हो गई। दिव्य दृष्टि से देखकर भृगु पुनः वहां पधारे तथा उन्होंन सत्यवती से कहा कि तुम्हारी माता का पुत्र क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मणोचित व्यवहार करेगा तथा तुम्हारा बेटा ब्राह्मणोचित होकर भी क्षत्रियोचित आचार-विचार वाला होगा। बहुत अनुनय-विनय करने पर भृगु ने मान लिया कि सत्यवती का बेटा ब्राह्मणोचित रहेगा किंतु पोता क्षत्रियों की तरह कार्य करने वाला होगा।
अंततः सत्यवती के पुत्र जमदग्नि मुनि हुए। उन्होंने राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका से विवाह किया। रेणुका के पाँच पुत्र रुमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु तथा परशुराम हुए। परशुराम क्षत्रियोचित वयवहार करने वाले पुत्र थे। एक बार उनकी मां रेणुका कलश लेकर जल भरने के लिए नदी पर गई थीं। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गईं। जलक्रीड़ा देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया और यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उनके आश्रम पहुंचने पर मुनि को दिव्य ज्ञान से समस्त घटना ज्ञात हो गई।
जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़बुद्ध होने का शाप दिया। भगवान परशुराम ने तुरंत पिता की आज्ञा का पालन किया और मां रेणुका की हत्या कर दी। इससे जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर मांगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से मां का पुनर्जीवन मांगा और फिर अपने भाइयों को क्षमा कर देने के लिए कहा। जमदग्नि ऋषि ने परशुराम को अमर होने का वरदान दिया।
असम राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमा में जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है, वहीं परशुराम कुंड है, जहां तप करके उन्होंने शिव से परशु प्राप्त किया था। वहीं पर उसे विसर्जित भी किया। परशुराम भी सात चिरंजीवियों में से एक हैं। कहते हैं कि इनका पाठ करने से दीर्घायु प्राप्त होती है। परशुराम कुंड नामक तीर्थस्थान में पाँच कुंड बने हुए हैं। परशुराम ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा अपने पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रिय संहार के पाप से मुक्त हो जाएंगे। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊंची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।
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