देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में पोलिटिकल ड्रामा अपने शबाब पर है। कोई कह रहा है कि ‘मुंबई किसी के बाप की नहीं’, तो कोई कह रहा है ‘मुंबई मराठी मानुस के बाप की है’, तब यह बताना ज़रूरी है कि मुंबई बहुत ख़ूबसूरत शहर है, इसे ‘बाप की संपत्ति’ जैसा विशेषण से जोड़कर इसकी तौहीन नहीं की जानी चाहिए। शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि आमची मुंबई राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास के सबसे बड़े विलेन पाकिस्तान के संस्थापक क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना को भी मुंबई (बंबई) बहुत पसंद थी। जिन्ना इस शहर से बेइंतहां मोहब्बत करते थे। उन्होंने अपने जीवन का सबसे लंबा हिस्सा इसी शहर में गुजारा।
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जिन्ना भले ही पाकिस्तान में हीरो माने जाते हों, लेकिन आम भारतीय उनसे बहुत ज़्यादा नफ़रत करता है और विभाजन के लिए केवल और केवल उन्हीं को ज़िम्मेदार मानता है। इसीलिए जिन्ना का नाम लेते ही सबकी भृकुटी तन जाती है। यह जिन्ना के प्रति लोगों के नफ़रत का ही परिणाम है कि लोग उनके मुंबई आवास जिसे ‘जिन्ना हाउस’ और ‘साउथ कोर्ट’ के नाम से जाना जाता है, को तोड़ने की बातें कर रहे हैं। उसी जिन्ना हाउस को लोग ज़मीदोंज़ देखना जिसमें जिन्ना रहना और मरना चाहते थे। उसी जिन्ना हाउस को, जिसे कभी जिन्ना ने बड़े जतन से बनवाया था।
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पाकिस्तान के निर्माण के बाद कराची जाते समय जिन्ना अपना सामान बंबई में अपने घर में ही छोड़कर गए थे, क्योंकि इस शहर में उनका दिल बसता था। देश के बंटवारे के कुछ अरसे बाद तक वह यही सोच रहे थे कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहतर होंगे और उनका मुंबई आना-जाना फिर शुरू होगा। लिहाज़ा, वह अपने शानदार बंगले में आकर सुकून से रहा करेंगे। कई इतिहासकार कहते हैं कि इसीलिए कराची जाते समय जिन्ना ने साउथ कोर्ट को पूरी तरह खाली करके नहीं गए थे। यह भी विडंबना ही है कि जिन्ना की एकमात्र संतान दीना ने पाकिस्तान बनने के बाद पिता के साथ पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया था। जिन्ना की प्रिय पत्नी रुतिन की मज़ार मुंबई में ही है। पाकिस्तान जाने से पूर्व जिन्ना ने मुंबई में उस कब्र पर अपना अंतिम गुलदस्ता रखा और हमेशा के लिए भारत छोड़कर चले गए।
पंडित जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना के बेहद क़रीबी रहे पाकिस्तान में भारत के पहले हाईकमिश्नर और 1956 से 62 तक महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे स्वतंत्रता सेनानी श्रीप्रकाश ने, कुछ साल पहले अंग्रेज़ी अख़बार ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में ‘अर्ली मेमरीज़ ऑफ पाकिस्तान’ से एक लेखमाला लिखी थी। जो बेहद चर्चित हुआ था। 23 अप्रैल 1963 के अंक में ‘गवर्नर जनरल के रूप में जिन्ना’ शीर्षक से प्रकाशित उस लेख में श्रीप्रकाश ने बंबई के ‘जिन्ना हाउस’ प्रकरण का जिक्र किया था। उस रोचक प्रसंग का यहां जिक्र करना समीचीन होगा।
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एक बार नेहरू ने पाकिस्तान में भारतीय हाईकमिश्नर श्रीप्रकाश को फोन करके उनसे कहा, “जिन्ना हाउस भारत सरकार के लिए परेशानी का सबब बन रहा है। जिन्ना से मिलकर पूछिए कि उनकी क्या इच्छा है और वह कितना किराया चाहते हैं।” नेहरू का संदेश सुनकर जिन्ना ने करीब-करीब चिरौरी करते हुए कहा, “श्रीप्रकाश, मेरा दिल न तोड़ो, जवाहरलाल को कहो कि वह मेरा दिल न तोड़े। मैंने इस मकान को एक-एक ईंट जोड़कर बनवाया है। इसके बरामदे कितने शानदार हैं। यह एक छोटा-सा मकान है जो किसी यूरोपियन परिवार या सुरुचिसंपन्न हिंदुस्तानी प्रिंस के रहने लायक है। आप नहीं जानते मैं मुंबई को कितना चाहता हूं। मैं अभी भी वहां वापस जाने की बाट जोह रहा हूं।”
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मोहम्मद अली जिन्ना का निवेदन सुनकर श्रीप्रकाश ने कहा, “सच, मिस्टर जिन्ना, आप वाक़ई मुंबई जाना और रहना चाहते हैं। यह तो मुझे पता है कि मुंबई आपकी बहुत देनदार है, क्योंकि आपने इस ख़ूबसूरत शहर की बहुत अधिक सेवा की है। तो क्या मैं प्रधानमंत्री नेहरू को यह बता दूं कि आप वापस मुंबई जाना चाहते हैं।” इस पर जिन्ना ने बिना एक भी पल गंवाए हुए जवाब दिया, “हां, तुम नेहरू से कह सकते हैं श्रीप्रकाश। मैं वाक़ई बंबई जाना चाहता हूं, वहां रहना चाहता हूं। अपनी रुतिन से ग़ुफ़्तगू करना चाहता हूं।”
अपने संदेश में श्रीप्रकाश ने जिन्ना के जवाब से नेहरू को अवगत कराया। इसके बाद भारत सरकार ने भारत छोड़कर से पाकिस्तान जाने वाले लोगों की भारत में संपत्तियों को ‘’शत्रु संपत्ति’ घोषित कर दी, लेकिन नेहरू ने जिन्ना की भावना का सम्मान करते हुए जिन्ना हाउस को शत्रु संपत्ति घोषित नहीं किया। कुछ महीने बाद, श्रीप्रकाश को नेहरू का एक ज़रूरी टेलीफोन संदेश आया जिसमें उन्होंने कहा कि जिन्ना के मकान को अछूता छोड़ देने पर सरकार को लोगों की तीखी आलोचना सहनी पड़ रही है। सरकार अब और अधिक समय तक इसे सह नहीं सकती। इस मकान का अधिग्रहण करना ही होगा।
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दरअसल, नेहरू चाहते थे कि जिन्ना को इसकी सूचना दे दी जाए और उनसे पूछ लिया जाए कि वह मकान का कितना किराया लेना चाहेंगे। उन दिनों जिन्ना की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी। वह बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के पास हिल स्टेशन जियारत में स्वास्थ लाभ कर रहे थे। श्रीप्रकाश ने उन्हें तत्काल चिट्ठी भेजी, जिसके जवाब में जिन्ना ने लिखा कि उन्हें 3000 रुपए मासिक किराए की पेशकश की गई है। उन्हें उम्मीद है मकानदार के रूप में उनकी भावनाओं का ख़याल रखा जाएगा। बहरहाल, जिन्ना के आग्रह पर उनका मकान ब्रिटिश डिप्टी हाई कमिश्नर को किराए पर दे दिया गया। साथ में शर्त रखी गई कि जब जिन्ना अपने निजी उपयोग के लिए चाहेंगे किराएदार तुरंत मकान खाली कर देगा।
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श्रीप्रकाश ने साफ लिखा कि उन्हें यह जानकर बहुत ही विचित्र लगा कि जिन्ना ने अपना मकान एक यूरोपियन या हिंदुस्तानी राजकुमार को देना पसंद किया, लेकिन मुंबई के किसी मुसलमान रईस को देने का विचार तक भी नहीं किया। दरअसल, नमाज़ न पढ़ने, रोज़ा न रखने और सूअर का मांस खाने वाले जिन्ना हिंदुस्तानी मुसलमानों, वह भी कट्टरपंथियों और मौलवियों से बहुत धिक चिढ़ते थे और वह उन पर तनिक भी भरोसा नहीं करते थे। इसीलिए वह नहीं चाहते थे कि उनके घर में कोई कट्टरपंथी भारतीय मुसलमान रहे।
जिन्ना अपनी दूसरी पत्नी रुतिन से जिन्ना बेइंतहां मोहब्बत करते थे। उनका अपने पारसी व्यापारी मित्र दिनशॉ पेटिट के यहां बहुत ज़्यादा आना जाना था। इसी दौरान उनकी मुलाकात 16 साल की बेहद खूबसूरत बेटी रुतिन से होती थी। नियमित मुलाकात और बातचीत के बाद रुतिन अपने पिता की उम्र के 40 वर्षीय जिन्ना की विद्वता से इस कदर प्रभावित हुई कि उन्हें दिल दे बैठीं।
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अजीत जावेद की किताब ‘सेक्यूलर ऐंड नेशनलिस्ट जिन्ना’ के मुताबिक एक दिन जिन्ना ने दिनशा से पूछ लिया, “अंतर्धार्मिक विवाह को आप कैसा मानते हैं?” तो दिनशा ने कहा कि इससे राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलती है। उसी समय जिन्ना ने तपाक से कहा, “तो मैं आपकी बेटी रुतिन से शादी करना चाहता हूं।” लेकिन दिनशा तैयार नहीं हुए। विरोध के बावजूद दो साल के अफेयर के बाद जिन्ना ने रुतिन के 18 साल का होते ही शादी कर ली। दिनशा ने जिन्ना पर बेटी के अपहरण का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज कराई, तो मुकदमे की सुनवाई के दिन रुतिन ने अदालत में जाकर कहा, “जिन्ना ने मेरा अपहरण नहीं किया बल्कि मैंने ख़ुद जिन्ना का अपहरण किया।” इसके बाद जज ने मुक़दमा ख़ारिज़ कर दिया।
24 साल छोटी रुतिन से जिन्ना की शादी उस परंपरापंथी जमाने में बहुत विवादित रही। मौलवी जिन्ना की शादी को बर्दाश्त नहीं कर सके और उनकी निंदा करने लगे, लेकिन जिन्ना मौलवियों को बिल्कुल भाव नहीं देते थे। रुतिन फैशनेबल लड़की थीं। इस्लाम स्वीकार करने के बावजूद उन्होंने कभी बुरका या हिजाब जैसी मुस्लिम पोशाक नहीं पहनी। वह हमेशा यूरोपियन महिलाओं की तरह रहती थीं। रुतिन परदे की जगह ‘लो कट’ लिबास में मुस्लिम लीग की बैठकों में शिरकत करती थीं, जो कट्टर मुसलमानों को बहुत ज़्यादा नागवार गुजरता था। बहरहाल, 1929 में 29 साल की उम्र में रुतिन का निधन हो गया। जिन्ना रुतिन की जुदाई सहन नहीं कर पाए, उन्हें गहरा सदमा लगा। उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और लंदन चले गए और वहीं प्रीवी काउंसिल में प्रैक्टिस करने लगे।
वस्तुतः 1934 में चार साल के राजनीतिक वनवास से लौटने के बाद जिन्ना ने मुंबई के सबसे भव्य और पॉश इलाके दक्षिण मुंबई के मलाबार में समुद्र के किनारे तीन एकड़ जमीन पर अपने सपनों का घर बनाने का फैसला किया। इस भवन का डिजाइन मशहूर ब्रिटिश वास्तुकार क्लाउड बेटली ने यूरोपीय शैली में तैयार की। उनकी ही देखरेख में इसका निर्माण शुरू हुआ। निर्माण के समय खुद जिन्ना नियमित वहां जाते थे और पूरे निर्माण कार्य की व्यक्तिगत निगरानी करते थे।
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1936 में जिन्ना हाउस बनकर तैयार हो गया। दो मंजिले (ग्राउंड प्लस फर्स्ट फ्लोर) इमारत में तीन कांफ्रेंस हॉल और 14 कमरे हैं। इसके निर्माण पर तब दो लाख रुपए का खर्च आया था। इसमें अखरोट की महंगी लकड़ियों की पैनलिंग की गई है और इटैलियन संगमरमर के इस्तेमाल से शानदार बुर्ज और खूबसूरत खंभे हैं। कभी बेहद खूबसूरत रहे इस बंगले की खिड़कियों से समुद्र का नज़ारा साफ दिखाई देता है। माउंट प्लेज़ेंट रोड (अब भाउसाहब हीरे मार्ग) पर यूरोपियन स्टाइल में बना जिन्ना हाउस अब खंडहर हो चुका है मगर जब ये बना था तब पहली नजर में ही देखने वालों को मोहित कर लेता था।
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एसके धांकी की पुस्तक ‘लाला लाजपत राय एंड इंडियन नेशनलिज्म’ के मुताबिक, सरोजनी नायडू जिन्ना की बहुत इज्जत करती थीं और उन्हें महान धर्मनिरपेक्ष नेता और हिंदू मुस्लिम एकता का राजदूत कहती थी। जिन्ना से मिलने के लिए जिन्ना हाउस में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे बड़े नेता आया करते थे। पूर्व वित्तमंत्री जसवंत सिंह की चर्चित किताब “जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन इनडेपेंडेंस” के मुताबिक जिन्ना पाकिस्तान जाकर कभी सुकून से नहीं रहे। उनसे जो ब्लंडर हुआ था, उसको लेकर पछताते थे। जिन्ना मुंबई आकर रुतिन की मजार पर जाकर फूल चढ़ना चाहते थे।
एमएच सईद की किताब ‘द साउंड एंड फ्यूरी – ए पोलिटिकल स्टडी ऑफ मोहम्मद अली जिन्ना’ के मुताबिक कट्टर मुसलमान रुतिन से शादी करने के लिए जिन्ना को जीवन भर माफ नहीं कर पाए और उन्हें काफिर कहने लगे थे। जिन्ना के कायदे आजम बनने के बाद पाकिस्तान में यह शेर बड़ा प्रचलित हुआ- “इक काफिरा के वास्ते इस्लाम को छोड़ा, यह कायदे आजम है या काफिरे आजम।”
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जसवंत की किताब जिन्नाः इंडिया-पार्टिशन इनडेपेंडेंस के मुताबिक अपने देहांत से कुछ पूर्व मृत्यु शय्या पर पड़े जिन्ना का पाकिस्तान निर्माण के प्रति पूरी तरह मोह भंग हो गया था। उन्हें देश के बंटवारे की ‘महागलती’ का एहसास हो चुका था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और जिन्ना भारतीय इतिहास के सबसे बड़े खलनायक बन चुके थे। लिहाज़ा, वह लौटकर अपने मुंबई में नहीं आ सकते थे और मुंबई को देखे बिना ही वह दुनिया का अलविदा कह गए।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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