भारतीय शास्त्रीय संगीत वेदों से निकली विधा मानी जाती है। सामवेद में तो संगीत की विस्तृत से चर्चा है। संगीत का आरंभ जीवन के अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ के साधन के रूप में हुई। इसकी महत्ता इस बात से भी स्पष्ट हो जाती है कि भारतीय आचार्यों ने इसे ‘पंचम वेद’ और ‘गंधर्व वेद’ की संज्ञा दी है। भरतमुनि का ‘नाट्यशास्त्र’ भारतीय संगीत इतिहास का प्रथम लिखित ग्रंथ माना जाता है। भारतीय संगीत को वैज्ञनिक दृष्टिकोण से भी सही माना जाता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की साख़ पूरी दुनिया में है, क्योंकि यह आध्यात्मिकता से ख़ासा प्रभावित रहा है। अतीत में कई भारतीय संगीत मर्मज्ञों ने अपनी संगीत साधना से शास्त्रीय संगीत को वैश्विक बुलंदी पर पहुँचाया। भारतीय शास्त्रीय संगीत की उसी परंपरा के प्रतिनिधि हैं पंडित श्यामरंग शुक्ल (Pandit Shyamrang Shukla) उर्फ गुरुजी, जो आजीवन संगीत की शिक्षा का दान करते रहे।
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संगीत को लेकर एकदम नई सोच रखने वाले गुरुजी हमारी परंपराओं के विरोधी भी नहीं हैं। बल्कि वह इतना ज़रूर कहते हैं कि हमारी गौरवशाली परंपराओं और विरासतों को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। साथ ही साथ संगीत के क्षेत्र में निरंतर हो रहे बदलाव को स्वीकार करके उसके साथ चलने की कोशिश करने की भी ज़रूरत है। इतना वह ज़रूर कहते हैं कि परंपराओं के नाम पर किसी तरह के पलायन का बेशक मुख़ालफ़त की जानी चाहिए। गुरुजी के पिता गायनाचार्य पंडित राजाराम शुक्ल गुसाईं घराने के अग्रणी संगीत मर्मज्ञ थे। इसलिए कालांतर में गुरुजी भी गुसाईं घराने के सच्चे प्रतिनिधि बन गए। वस्तुतः घराना, भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह परंपरा है जो एक ही श्रेणी की कला को कुछ विशेषताओं के कारण दो या अनेक उपश्रेणियों में बाँटती है। गुसाईं घराना भारतीय शास्त्रीय संगीत और गायन की हिंदुस्तानी ख़याल गायकी की परंपरा को वहन करने वाले प्रमुख हिंदुस्तानी घरानों में से एक है।
गुसाईं घराने का नामकरण बीसवीं सदी में किया गया। गुरुजी के पिता गुसाईं घराने और गुसाईं संगीत शैली को नई ऊँचाइयों पर लेकर गए। इसीलिए उन्हें गुसाईं घराना परंपरा का सबसे दक्ष संगीत मनीषी कहा जाता है, क्योंकि संगीत उनके रोम-रोम में समाया था। इतना ही नहीं अपने दौर में वह गुसाईं घराने के साथ साथ भारतीय शास्त्रीय परंपरा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारतीय संगीतज्ञ माने जाते थे। वह संगीत की बारीक़ियों को बहुत बेहतरीन ढंग से समझाते थे। वह शास्त्रीय संगीत विधा से जन-जन से अवगत कराने और यह हुनर अगली पीढ़ी तक पहुंचाने के ख़्वाहिशमंद थे। इसी मकसद से उन्होंने अपने जीते जी संगीत, राग और धुन की अलग-अलग विधाओं पर पांच-पांच क़िताबों की पांडुलिपि तैयार कर ली थी। लेकिन उनकी अब तक केवल एक किताब ही प्रकाशित हो सकी है। बाक़ी पांडुलिपियाँ जस की तस रह गई हैं। अब गुरुजी ख़ुद अपने पिताश्री के बाक़ी क़िताबों को प्रकाशित करने के अभियान में जुटे हुए हैं। पिता की दूसरी पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित होने की संभावना है।
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जौनपुर के बदलापुर तहसील से कुछ दूर सुरतान गांव में जन्में गुरुजी पर महज पाँच वर्ष की आयु में सारेगमपधनी रटने की धुन सवार हो गई। बाल्यकाल में ही उनके व्यक्तित्व में संगीत की असाधारण प्रतिभा के संकेत दिखने लगे थे। इसीलिए मर्मज्ञ संगीताकार पिता दस वर्ष की आयु में ही बेटे को मौसिकी की तालीम देने लगे। किशोरावस्था में ही गुरुजी हारमोनियम और तबला को पूर्ण अधिकार के साथ बजाने लगे थे। गुरुजी कहते हैं, “मैंने बचपन से ही संगीत की तालीम लेनी शुरू कर दी थी। चूंकि मेरे पिता गयानाचार्य पंडित राजाराम शुक्ल शास्त्रीय संगीत के शिखर पुरुष थे, इसलिए मुझे घर में ही ऐसा माहौल मिला था जिसने मेरे अंदर गायन के प्रति रुचि बढ़ाई। मेरे पिता ही मेरे संगीत गुरु भी हैं। मैंने उनसे ही इस कला की तालीम ली।” बहरहाल, गांव के पास के कॉलेज से ही बारहवीं करने के बाद स्नातक की पढ़ाई के लिए जौनपुर के तिलकधारी कॉलेज में एडमिशन ले लिया। बेटे के अंदर संगीत की ललक देखकर पिताश्री ने बीए में तबला वादन की एक विषय के रूप में लेने की नसीहत दी और उस्ताद ने दूसरा और तीसरा विषय संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य लिया।
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गुरुजी के संगीतकार पिता उन दिनों गिरगांव चौपाटी में रहा करते थे। बस क्या था टीडी कॉलेज में ग्रेजुएशन फाइनल ईयर की परीक्षा देने के बाद काशी एक्सप्रेस से देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पहुंच गए और पिता जी के सानिध्य में संगीत का बारीक़ियाँ सीखने लगे। उसी दौरान संगीत से स्नातकोत्तर किया और इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़, छत्तीसगढ़ से ‘कजरी, चैती और पूर्वी लोकगीतों का संगीत पक्ष’ विषय पर पीएचडी शुरू किया। उनकी थीसिस बेहद पसंद की गई और वह श्यामरंग शुक्ल से डॉ. श्यामरंग शुक्ल हो गए। पीएचडी करते ही केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक की नौकरी मिल गई। केंद्र सरकार की नौकरी मिलने के बाद संगीत अध्यापक के रूप में पहली पोस्टिंग रायगड़ ज़िले के उरण के पास करंजा कस्बे में हुई और बच्चों को संगीत की तालीम देने लगे।
कुछ साल बाद करंजा से मुंबई के कोलाबा केंद्रीय विद्यालय में ट्रांसफऱ हो गया। कुलाबा 20 साल तक रहे। उन दिनों यहाँ जनसत्ता के तत्कालीन स्थानीय संपादक राहुल देव से मुलाकात हुई। राहुल देव ने उनसे जनसत्ता के लिए संगीत समीक्षा और संगीत की गतिविधियों पर लिखने का आग्रह किया। गुरुजी का कॉलम इतना पढ़ा जाने लगा और इतनी चिट्ठियां आने लगीं कि सप्ताह में तीन-तीन लेख छपने लगे। इसके अलावा जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका सबरंग और सांध्य संस्करण संझा जनसत्ता में भी लिखने लगे। इस दौरान संगीत पर उन्होंने हज़ारों लेख लिख डाले। बहरहाल, लेखन का सिलसिला बहुत लंबे समय तक चलता रहा। बीच में गुरुजी का तबादला असम कर दिया गया। बहरहाल, विशेष आग्रह पर उनका तबादला टल गया और उन्हें कच्छ के एक केंद्रीय विद्यालय में नियुक्ति दी गई। संयोग से गुरुजी उसी समय कच्छ पहुँचे जब वहां महाविनाशकारी भूकंप आया था। कच्छ की धरती के हिलने के बाद वहां का भयावह मंजर का याद करके वह आज भी सिहर उठते हैं। गुजरात में दो साल तक रहे। अंत में दस साल लोनावला में भी अध्यापन कार्य किया।
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दरअसल, गुरुजी की ख़ासियत यह है कि वह अपने शिष्यों की आवाज़ को निखार देते हैं। गले को किस तरह से ठीक और सुरीला बनाए रखें, इसकी टिप्स वह बहुत बढ़िया देते हैं। केवल पांच मिनट सुर लगवा कर वह गले को सामान्य कर देते हैं। यह जादू जैसा हुनर है, जिसका अनुभव उनके सानिद्य में सुर साधने वाले साधक ही कर सकते हैं। उनकी ख़ासियत यह है कि हाई पिच पर भी वह कंट के माधुर्य को बरक़रार रखवाते हैं। मंद्र सप्तक से लेकर तार सप्तक तक छू सकते हैं। जब वह सुर लगवाते हैं तो ध्यान से सीखने वाले शिष्य को सीखने को लिए बहुत कुछ मिलता है। इससे आवाज़ की बारीक़िया सीखने को मिलती है। कंठ को और सुरीला बनाने में मदद मिलती है।
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गुरुजी संगीत चिकित्सा से डिप्रेशन का इलाज भी करते रहे हैं। वह कहते हैं, “संगीत मन ही नहीं शरीर पर गहरा असर डालता है। ऐसे में इसका असर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ना लाजिमी है। संगीत चिकित्सा यानी म्यूज़िक थेरेपी में एक ख़ास तरह का म्यूज़िक उपयोग में लाया जाता है। मरीज को संगीत सुनाने पर संगीत की तरंगों का संपर्क उसके शरीर से होता है। कंपन धीरे-धीरे शरीर में प्रवेश करते हैं। इससे शरीर और दिमाग़ भी कंपित होने लगते हैं। कंपन की वजह से उस ख़ास अंग और उसके आसपास सक्रियता बढ़ जाती है। उन वहां ब्लड सर्क्यूलेशन सामान्य होने लगता हैं। ज़्यादा ब्लड और ऑक्सीजन उस ख़ास अंग पर सकारात्मक असर डालता है और उसकी हीलिंग शुरू हो जाती है। इस प्रॉसेस में शरीर शिथिल होने लगता है जिससे आराम मिलता है।”
वह कहते हैं कि एक ही फ्रीक्वेन्सी की ध्वनि तरंगों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की शारीरिक समस्याओं को दूर करने के लिए होता है। अच्छे और सुर में गाने वाले का गायन सुनकर मन को सुकून मिलता है। शरीर का ब्लड प्रेशर और दिल की धड़कन सामान्य हो जाती है। इसलिए अच्छे गायक हीलिंग का कार्य करते हैं। म्यूज़िक का ज़्यादातर प्रभाव मानसिक अवस्था पर पड़ता है। यह थेरेपी अल्टरनेट थेरेपी है। आधुनिक युग में म्यूज़िक थेरेपी एक अच्छा विकल्प बन कर उभर रहा है। तभी तो इस थेरेपी का उपयोग अब कई अस्पतालों में भी होने लगा है। म्यूज़िक कैंसर, पार्किंसंस, अवसाद, अन्य मानसिक समस्या जैसी कई असाध्य बीमारियों को ठीक करने में कारगर साबित हुआ है।
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गुरुजी शुरू से बेहद सक्रिय रहे हैं। अब भी उनसे संगीत सीखने वालों का तांता लगा रहता है। सुर तो सात ही है, लेकिन उन सात सुरों को कैसे साधा जाए, यह गायक या उसे संगीत की तालीम देने वाले उस्ताद पर निर्भर करता है। अब तक दो सौ से अधिक गीतों को कंपोज़ कर चुके गुरुजी कहते हैं कि संगीत को करियर बनाने वालों को शास्त्रीय संगीत साधना है। इसमें कामयाबी के लिए कोई शॉर्टकट नहीं है। जो भी इस कला में पारंगत होना चाहता है तो उसे रियाज़ करना ही होगा और धैर्य से रियाज़ करना ही होगा।
लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा
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