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मेरे भइया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन…

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रक्षाबंधन पर विशेष

मेरे भइयामेरे चंदामेरे अनमोल रतन… हिंदी सिनेमा में राखी यानी रक्षाबंधन को लेकर बहुत भावुक और दिल को छू लेने वाले कई लोकप्रिय गीत फ़िल्माए गए हैं। 1965 में रिलीज ‘काजल’ फ़िल्म का साहिर लुधियानवी का लिखा और रवि की धुन पर आशा भोसले का गाया यह गाना बेमिसाल अदाकारा मीना कुमारी पर फिल्माया गया है। यह कर्णप्रिय गाना भाई-बहन के रिश्तों को बेहद भावना प्रधान ही नहीं बनाता बल्कि सीधे दिल को स्पर्श करता है। इस तरह के अनगिनत गीत रक्षाबंधन के पर्व को ख़ूबसूरत और ख़ुशगवार बनाते हैं।

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भारत त्यौहारों का गुलिस्तां
दरअसल, भारत त्यौहार रूपी मोती से बना ख़ूबसूरत गुलिस्तां है। रक्षाबंधन भी इन्हीं अनगिनत मोतियों में से एक है। इस पर्व को भाई-बहनों के बीच प्रेम का प्रतीक माना जाता है। देश की हर लड़की या स्त्री रक्षाबंधन के दिन अपने भाई के की कलाई में रक्षा का धागा बांधती है। जिनके भाई दूर हैं, वे स्त्रियां कोरियर या दूसरे माध्यम से अपने भाई तक राखी पहुंचाती हैं। जिन स्त्रियों के भाई नहीं होते, वे स्त्रियां आज के दिन थोड़ी उदासी महसूस करती हैं। भाई की कमी महसूस करती हैं। मन को दिलासा देने के लिए किसी मुंहबोले भाई को राखी बांध कर इस परंपरा का निर्वहन करती हैं। प्राचीनकाल से यह परंपरा यूं ही चली आ रही है।

विकास ने बनाया जन-जन में लोकप्रिय
पहले यह त्यौहार इतना प्रचलित नहीं था। परंतु टीवी, सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यम, बाज़ारवाद और बेहतर ट्रांसपोर्ट मोड ने इसे जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। रक्षाबंधन बारिश में श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं। हो सकता है इन पंक्तियों के लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो। लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही कुछ हुआ होगा। यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और पवित्र-प्रेम को दर्शाता है। भारत के कई हिस्सों में इस त्यौहार को ‘राखी-पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है।

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वामनावतार कथा में राखी का वर्णन
स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता जैसे पौराणिक ग्रंथों में राखी का प्रसंग मिलता है। इसका मतलब या है कि राखी का त्यौहार तीन हज़ार साल पुराना है। वामनावतार कथा में इसका वर्णन मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण करके स्वर्ग का राज्य इंद्र से छीनने की कोशिश की, तब इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। लिहाज़ा, विष्णु वामन अवतार लेकर राजा बलि से भीक्षा मांगने पहुंचे। बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। विष्णु ने तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया। इस तरह विष्णु ने राजा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर दिया। इसीलिए यह त्यौहार बलेव नाम से भी मशहूर है। विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर चारों वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। इसीलिए हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

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इंद्राणी ने बांधा था रेशम का धागा
भविष्य पुराण के मुताबिक सुर-असुर संग्राम में जब दानव देवताओं पर हावी होने लगे, तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गए। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के हाथ पर बांध दिया। धागा बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया था। येन बद्धो बलिराजा दानवेंद्रो महाबल:। तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ इस श्लोक का भावार्थ है, जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेंद्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बांधती हूं। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। मान्यता है कि लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से इंद्र विजयी हुए। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई।

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महाभारत में रंक्षाबंधन का उल्लेख
महाभारत में भी रंक्षाबंधन का उल्लेख है। जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं? तब भगवान कृष्ण ने उन्हें अपना और अपनी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट लग गई। उस समय द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर कृष्ण की उंगली पर पट्टी बांध दी और ज़ख्म भर गया। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।

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कर्मावती ने हुमायूं को भेजी थी राखी 
प्राचीन काल और मध्य काल में राजपूत राजा जब लड़ाई पर जाते थे तब रानी और राजभवन की महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाती तीं और उनके हाथ में रक्षा धाना धागा बांधती थी। इस भरोसे के साथ कि रक्षा धागा राजा को सलामत रखेगा और उन्हें विजयश्री दिलाएगा। सोलहवीं शताब्दी में मेवाड़ की रानी कर्मावती को जब बहादुर शाह के मेवाड़ पर संभावित हमले की सूचना मिली, तो रानी कर्मावती ने तत्कालीन मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर उनसे रक्षा की गुहार की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुर शाह को हराकर रानी कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की।

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सिकंदर की जान बची थी राखी से
एक अन्य प्रसंग के अनुसार सिकंदर महान ने जब भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया तो एक समय ऐसा आया जब उसकी जान संकट में पड़ गई। उसकी की पत्नी ने जब देखा कि उसके पति की जान पर संकट में है, तब पति की र7 के लिए हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर उन्हें मुंहबोला भाई बना लिया और उनसे युद्ध के समय अपने पति यानी सिकंदर का वध न करने का वचन ले लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया और उसकी हत्या नहीं की। इस तरह सिकंदर की जान बच गई।

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स्वतंत्रता आंदोलन में बना जागरण का माध्यम 
स्वतंत्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवींद्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘मातृभूमि वदना’ का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं, हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल – सब पावन हों; है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।

प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा
राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बांधती हैं परंतु कई समाज में छोटी लड़कियां अपने संबंधियों या करीबियों को भी राखी बांधती हैं। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता, प्रतिष्ठित व्यक्ति या सीमा पर तैनात जवानों को भी महिलाएं राखी बांधने जाती हैं। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी शुरू हो गई है। यह निश्चित रूप से प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का एक शानदार प्रयास है। ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि हमारा पर्यावरण महफूज़ रहे।

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रक्षाबंधन को पूरी होती है अमरनाथ यात्रा
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहां का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है। हालांकि इस साल कोरोना संक्रमण के चलते अमरनाथ यात्रा रद्द कर दी गई।

महाराष्ट्र में है नारियल पूर्णिमा 
महाराष्ट्र में यह त्यौहार नारियल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन लोग नदी या समुद्र तट पर अपने जनेऊ बदलते हैं और सागर पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं। इस साल रक्षाबंधन का त्यौहार सोमवार को मनाया जा रहा। रक्षाबंधन इस बार बेहद खास रहने वाला है, क्योंकि सोमवार को सावन पूर्णिमा, अन्न वाधन, वेद माता गायत्री जयंती, यजुर्वेद उपाकर्म, नारली पूर्णिमा, हयग्रीव जयंती, संस्कृत दिवस और सावन का पांचवां और अंतिम सोमवार भी है। हिंदू धर्म में राहुकाल और भद्रा के समय को शुभ नहीं माना जाता है। इस खास समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। भद्रा में राखी न बंधवाने के पीछ जो पौराण‍िक मान्‍यता बताई जाती है उसके अनुसार लंकापति रावण ने भी अपनी बहन से भद्रा काल में ही राखी बंधवाई थी। इसके बाद एक साल के भीतर ही उसका विनाश हो गया था। यही वजह है कि इस समय को छोड़कर बहनें अपने भाई के राखी बांधती हैं। इस बार कुछ समय भद्राकाल रहेगा।

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राखी की सटीक व प्रमाणिक जानकारी नहीं
गहन रिसर्च के बावजूद रक्ष बंधन कब शुरू हुआ, इसकी सटीक और प्रमाणिक जानकारी नहीं मिल सकी। लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व स्थापित हुआ, तब स्त्री की रक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी। मकसद यह रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र रिश्ता कायम किया जाए। गहन चिंतन-मनन से यह भी लगता है कि निश्चित रूप से रक्षाबंधन त्यौहार की शुरुआत असुरक्षा के माहौल में हुई होगी। यानी पहले समाज को स्त्री के लिए असुरक्षित बनाया गया होगा, फिर स्त्री की रक्षा का कॉन्सेप्ट विकसित किया गया। मतलब, धीरे धीरे समाज ऐसा होता गया होगा, जहां लड़कियां या महिलाएं असुरक्षित होती गईं। तब उनकी रक्षा की नौबत आई होगी। आज से दस हज़ार साल पहले, जब मानव झुंड में गुफाओं और जंगलों में रहता था। तब झुंड की मुखिया स्त्री हुआ करती थी। उस समय स्त्री को किसी रक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि तब सब लोग नैसर्गिक जीवन जीते थे और अपनी रक्षा स्वतः कर लेते थे।

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मानव सभ्यता के विकास से ही शुरुआत
मानव सभ्यता के विकास क्रम में जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया और झुंड के मुखिया का पद पुरुषों ने ताक़त के बल पर स्त्रियों से छीन लिया। पुरुष ने समाज पर अपना एकाधिकार बनाने के लिए स्त्री को भोग की वस्तु बना दिया। स्त्री को लेकर संघर्ष होने लगा। लिहाज़ा, स्त्री असुरक्षित हो गई। कालांतर में पुरुष ने स्त्री पर वर्चस्व बनाने के लिए उसके साथ साज़िश की। कह दिया स्त्री “इज़्जत” की प्रतीक है। अगर उसे कोई छू देगा तो वह इज़्ज़त गंवा बैठेगी। यह इज़्ज़त, जिसकी रक्षा स्त्री जीवन भर करती है और समाज में दयनीय हो जाती है, पूरी तरह मनोवैज्ञानिक सोच है। इज़्ज़त की रक्षा करने के चक्कर में वह हमेशा असुरक्षित महसूस करती है। कह सकते हैं कि इस चक्कर में स्त्री बिंदास जीवन ही नहीं जी पाती, जबकि पुरुष इस इज़्ज़त नाम की वैज्ञानिक सोच से परे होता है और मस्ती से जीवन जीता है। इस इज़्ज़त की रक्षा के चक्कर में स्त्री पुरुष से पिछड़ जाती है। उस अपनी इज़्ज़त की रक्षा के लिए पुरुष की ज़रूरत पड़ती है।

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स्त्री को अपना फैसला लेने का हक मिले
बचपन से यौवन तक स्त्री वह पुरुष, जिसे स्त्री ‘भाई’ कहती है, उसकी रक्षा करता है। बाद में यही काम दूसरा पुरुष, जिसे वह ‘पति’ कहती है, करता है। वह पुरुष केवल स्त्री की मांग में सिंदूर भर कर या मंगलसूत्र पहनाकर या निकाह कबूल है, कहकर स्त्री का स्वामी बन जाता है। पुरुष स्त्री की रक्षा करने के नाम पर उसका भयानक शोषण करता है। उसका मन चाहा इस्तेमाल करता है। एक तरह से उस घर में ग़ुलाम बनाकर रखता है। पुरुष ख़ुद तो बिंदास जीवन जीता है, लेकिन इज़्ज़त की रखवाली की ज़िम्मेदारी स्त्री पर छोड़ देता है। कहा जा सकता है कि यह तो स्त्री की रक्षा नहीं हुई। पतिरूपी पुरुष से स्त्री की रक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए ज़रूरत है, ऐसे प्रावधान किए जाएं, कि स्त्री को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े। समाज ऐसा हो कि पुरुष की तरह स्त्री भी उसमें बिंदास सांस ले सके। इसके लिए स्त्री को बताना होगा, कि जीवनचक्र के लिए वह महत्वपूर्ण कड़ी है। लिहाज़ा, उसे स्वतंत्र माहौल की ज़रूरत है। जहां वह इज़्ज़त के बोझ से परे होकर अपने बारे में सोचे और अपने बारे में हर फ़ैसले वह ख़ुद करे, न कि पिता, भाई या पति के रूप में उसके जीवन में आने वाला पुरुष उसके बारे में हर फ़ैसला ले।

स्त्री सशक्त व करियरओरिएंटेड बने
कहने का मतलब स्त्री को करियर ओरिएंटेड बनाने की ज़रूरत है। उसे बताया जाए कि उसके लिए लिए पति यानी हसबैंड से ज़्यादा ज़रूरी उसका अपना करियर है। कहने का मतलब स्त्री को सशक्त और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की ज़रूरत है। आज स्त्री-पुरुष संबंधों को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। जब इस संबंध की शुरुआत हुई थी, तब समाज आज जैसा विकसित नहीं था। तब सूचना क्रांति नहीं हुई थी। आज की तरह दुनिया एक बस्ती में तब्दील नहीं हुई थी। ऐसे में, जब हर चीज़ नए सिरे से परिभाषित हो रही है, तो स्त्री-पुरुष संबंध भी क्यों न फिर से विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए विकास के मुताबिक परिभाषित किया जाएं। अगर ऐसा किया जाता है, तो स्त्री अपने आप सुरक्षित हो जाएगी।

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स्त्री को भी पुरुष जितनी आज़ादी मिले
लब्बोलुआब यह कि स्त्री को पूरी आज़ादी देने की ज़रूरत है। जितना आजाद पुरुष है, उतनी ही आज़ादी स्त्री को भी मिलनी चाहिए। स्त्री चाहे अकेले रहे या किसी पुरुष के साथ। या ऐसे पुरुष के साथ रहे, जिसके साथ वह सहज महसूस करे। यानी स्त्री अपने लिए पति नहीं, बल्कि जीवनसाथी चुने और ख़ुद चुने और स्वीकार करे, न कि उसके जीवनसाथी का चयन उसका पिता या भाई करें। ख़ुद जीवनसाथी के चयन में अगर लगे कि उसने ग़लत पुरुष चयन कर लिया है, तो वह उसका परित्याग कर दे और अगर उसके जीवन में उसे समझने वाला कोई पुरुष आता है तो उसके साथ रहने के लिए वह स्वतंत्र हो। इसके लिए स्त्री को उसकी आबादी के अनुसार नौकरी देने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है, पुरुष यह सब नहीं करेगा।

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नए दौर के फिल्मों से ग़ायब होती राखी
आजकल नए दौर के पश्चिम से इम्प्रेस्ड फ़िल्मकारों ने अब इस त्यौहार को लगभग भुला ही दिया है, लेकिन पुरानी फिल्में आज भी इस पवित्र त्यौहार को खूबसूरत बना देती हैं। इसीलिए आज भई हमें राखी के त्यौहार के यादगार गीत सुनने को मिलते हैं। अगर भारतीय सिनेमा में राखी की प्रासंगिकता की बात करें तो, सिनेमा के 107 साल के इतिहास में हज़ारों की संख्या में फिल्में बनी। इनमें दर्जनों फिल्मों में भाई-बहन के बीच प्यार की कथानक और गीत शामिल किए गए।

भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना…
1959 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘छोटी बहन’ का गीत भैया मेरे राखी के बंधन को निभानाभैया मेरी छोटी बहन को ना भुलाना… भाई-बहन के रिश्ते की मज़ूबत डोर को बयां करता है। सरल ज़बान में गहरे अर्थ लिए इस गीत को गीतकार शैलेंद्र ने क़लमबंद किया है। संगीतकार शंकर-जयकिशन की धुन से सजे इस गीत को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ देकर यादगार बना दिया। यह नायाब गीत बलराज साहनी और नंदा पर फ़िल्माया गया है। इस गीत में नंदा अपने भाई यानी बलराज साहनी से राखी के रिश्ते को निभाने को कहती हैं।

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फूलों का तारों का…
1971 में रिलीज़ ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ फ़िल्म का गाना फूलों का तारों का ऐसा गीत है जिसे आज भी भाई अपनी बहन के प्रति स्नेह दिखाने के लिए उपयोग करते हैं। इस गाने में भाई-बहन के खट्टे-मीठे रिश्ते को दिखाया गया है। आनंद बख्शी के लिखे इस गीत को बेमिसाल धुन में ढाल कर आरडी बर्मन ने लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड करके यादगार बना दिया था।

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चंदा रे मेरे भैया से कहना…
राखी का ज़िक्र हो और चंदा रे मेरे भैया से कहनाबहना याद करे… चर्चा न करें तो चर्चा अधूरी रहेगी। 1971 में प्रदर्शित चंबल की कसम का साहिर लुधियानवी का लिखा और खय्याम का संगीतबद्ध किया यह गाना लता मंगेशकर की आवाज़ पाकर असाधारण कर्णप्रिय गीत की शक्ल ले लेता है। अभिनेत्री फरीदा जलाल और राज कुमार पर फिल्माया गाना यह गीत दिल को बेहद सुकून देता है। इसमें बहन की भाई के लिए फिक्र को शिद्दत से उबारा गया है।

राखी के शुभ अवसर पर सभी बहनों को शुभकामनाएं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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अमिताभ बच्चन अंत तक अमर सिंह को माफ नहीं कर पाए 

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भारतीय राजनीति के मास्टर खिलाड़ी रहे ठाकुर अमर सिंह के निधन पर सब लोग कभी उनके बहुत क़रीबी दोस्त रहे सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। कई लोग, ख़ासकर मीडिया से जुड़े लोग तो बार-बार अमिताभ का ट्विटर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग अकाउंट खोल रहे थे। लेकिन शाम तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना भी शुरू कर दिया। लेकिन शाम 7.14 बजे अमिताभ ने ट्विटर पर अपना सिर झुकाया हुआ फोटो पोस्ट किया। बिग बी ने इस फोटो को कोई कैप्शन नहीं दिया। लेकिन लोगों को लगा कि अमिताभ का सिर झुकाए हुए यह पोस्ट स्वर्गीय अमर सिंह के लिए ही है। हालांकि अमिताभ ने बाद में वही फोटो अपने ब्लॉग पर शेयर किया और उसके साथ लिखा।
‘‘शोक ग्रस्त, मस्तिष्क झुका, प्रार्थनाएं केवल रहीं,
निकट प्राण, संबंध निकट, वो आत्मा नहीं रही !’’

लिहाज़ा, इसके बाद लोगों ने इसे अमिताभ की अमर सिंह के निधन पर अधिकृति प्रतिक्रिया मान लिया। हालांकि कई लोगों को सोशल मीडिया पर अक्सर लोगों का नाम लेकर तारीफ़ करने वाले अमिताभ बच्चन द्वारा अपने दोस्त के बारे में इस तरह का रिएक्शन हजम नहीं हो रहा है। लोग मन ही मन सवाल कर रहे हैं कि अमिताभ बच्चन ने अमर सिंह का नाम क्यों नहीं लिखा? उनके साथ अपनी फोटो शेयर करते हुए श्रद्धांजलि क्यों नहीं दी? निधन की ख़बर सुनने के बाद इतना साहित्यिक और रहस्यमय प्रतिक्रिया क्यों दी। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत राजनीति, उद्योग-जगत और बॉलीवुड के हर शख्स ने अमर सिंह का नाम लेकर या अपना उनके साथ पोटो या केवल उनका फोटो शेयर करते हुए दिवंगत आत्मा को श्रद्धा सुमन अर्पित किया।

यहां तक कि अमर सिंह को एकदम नापसंद करने वाले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी अमर सिंह के निधन पर उनके और मुलायम सिंह यादव के साथ अपनी फोटो को ट्विट करते हुए लिखा “श्री अमर सिंह जी के स्नेह-सान्निध्य से वंचित होने पर भावपूर्ण संवेदना एवं श्रद्धांजलि।“ जबकि यह सर्व विदित है कि तीन साल पहले जब समाजवादी पार्टी में कलह मची तो अखिलेश ने कलह के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार ठहराया था। इसके बावजूद अमर सिंह के निधन पर अखिलेश ने शिष्टाचार वश उनकी फोटो शेयर करते हुए उन्हें याद किया। लेकिन सदी के महानायक ने इतना भी नहीं किया। जबकि कोरोना के चलते नानावटी कोरोना अस्पताल में भर्ती होने के बाद भी अमिताभ बच्चन की सोशल मीडिया पर सक्रियता में कोई कमी नहीं आई है।

वह कोरोना से संक्रमित होने के बावजूद सोशल मीडिया पर उतनी ही शिद्दत से सक्रिय हैं और अक्सर कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं। कुछ दिनों पहले एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल पर जब ख़बर चलने लगी कि अमिताभ बच्चन जल्दी ही नानावटी अस्पताल से डिस्चार्ज होकर अपने घर जाने वाले हैं। तो पिछले तीन हफ़्ते से ज़्यादा समय से नानावटी अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में भर्ती अमिताभ बच्चन ने खुद ट्विट करके उस ख़बर को फेक यानी ग़लत बताया था और यह भी कहा कि अभी उनके डिस्चार्ज होने की कोई ख़बर नहीं है। हालांकि अमर सिंह के निधन के एक दिन बाद यानी 2 अगस्त की शाम कोरोना टेस्ट निगेटिव आने पर अमिताभ को नानावटी अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।

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हैरान करने वाली बात है कि पहली अगस्त को ही अमिताभ बच्चन ने शनिवार की सुबह अपने ट्विटर अकाउंट पर दो और पोस्ट शेयर किया था, मतलब दोनों का समान ही था। दोनों पोस्ट का मतलब और इशारा ऐसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के बारे में था, जो किसी के किसी के बारे में कुछ बोल कर उससे संबंध ख़राब कर लेते हैं। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि अमिताभ ने यह पोस्ट किसके लिए शेयर किया था। पहला पोस्ट सुबह 7.51 बजे का है, जबकि दूसरा पोस्ट सुबह 11.35 बजे का। यह संयोग ही है कि दोनों पोस्ट के कुछ घंटे बाद अमर सिंह के निधन की ख़बर आ गई।

पहले पोस्ट में अमिताभ बच्चन ने लिखा “जीभ पर लगी चोट जल्दी ठीक हो जाती है, लेकिन जीभ से लगी चोट कभी ठीक नहीं होती..!!” यह पोस्ट अमर सिंह पर एकदम फिट बैठता है। इसी तरह दूसरे पोस्ट में पहले एक श्लोक ‘वचनैरसतां महीयसो न खलु व्येति गुरुत्वमुद्धतैः। किमपैति रजोभिरौर्वरैरवकीर्णस्य मणेर्महार्घता।। (शिशुपालवधम्, १६.२७)’ लिखा। फिर उसका हिंदी अनुवाद ‘दुर्जनों के वचन से सज्जनों का गौरव कम नहीं होता। पृथ्वी की धूलि से ढके हुए रत्न की बहुमूल्यता कभी नष्ट नहीं होती।’ गौरतलब है कि संबंध ख़राब होने के बाद अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन को बहुत भला-बुरा कहा था, लेकिन अमिताभ ने सौम्यता का परिचय देते हुए कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी।

वह पिछले 23 दिन से नानावटी अस्पताल में थे। दरअसल, भारतीय राजनीति और सिनेमा जगत में अमिताभ बच्चन और अमर सिंह की दोस्ती काफी चर्चा में थी। यह दोस्ती तब शुरू हुई जब अमिताभ बच्चन गंभीर आर्थिक संकट में थे। बात 1990 के दशक की है जब अमिताभ अपने करियर के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे थे। उनकी कंपनी अमिताभ बच्चन कॉरपोरेशन लिमिटेड दिवालिया हो चुकी थी। नौबत अमिताभ बच्चन के बंगले की नीलामी तक पहुंच गई थी। उसी समय अमर सिंह उनकी जिंदगी में फरिश्ता बनकर आ गए। कहा जाता है कि उस वक़्त उन्होंने अमिताभ को डूबने से बचाया था। इस दौरान अमर सिंह ने सहारा ग्रुप के मालिक सुब्रत राय समेत कई बड़े लोगों से अमिताभ की दोस्ती करवाई थी।

वस्तुतः दोनों के रिश्ते बिगड़ने उस वक्त शुरू हुए जब समाजवादी पार्टी में अखिलेश का कद बढ़ने लगा और अमर सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। लेकिन उस समय बच्चन परिवार अमर सिंह के साथ खड़ा नहीं हुआ। अमर सिंह उम्मीद कर रहे थे कि उनके साथ जया बच्चन भी समाजवादी पार्टी छोड़ देंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उल्टे जया ने अमर सिंह को ही निशाने पर ले लिया। इसके बाद अमर सिंह अमिताभ से नाराज़ हो गए। उन्होंने न सिर्फ जया बच्चन और ऐश्वर्या राय के रिश्तों को लेकर बच्चन परिवार पर निशाना साधा, बल्कि एक वीडियो जारी करके ट्विटर पर जया को उनके संसद में दिए गए उनके बयान के लिए घेरा था और इसके बाद कई बार बच्चन परिवार को खरी-खोटी सुनाते रहे।

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हालांकि कुछ साल पहले अमर सिंह एक घोटाले में गिरफ़्तार हो गए और सबने उनसे मुंह मोड़ लिया। इसके चलते वह बीमार हो गए और उनका किडनी का ट्रांसप्लांट भी हुआ। वह इस साल जनवरी से फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में इलाज करवा रहे थे। उसी दौरान फरवरी में उन्होंने वीडियो जारी कर अमिताभ से माफी मांगी। उन्होंने कहा था, ‘आज मेरे पिता की पुण्यतिथि है और मुझे इसके बारे में अमितजी का मैसेज आया। अपने जीवन के इस पड़ाव पर जब मैं ज़िंदगी और मौत से जूझ रहा हूं, मुझे अमित जी और उनके परिवार के लिए हद से ज़्यादा बोल जाने का गहरा पश्चाताप हो रहा है। भगवान उनके परिवार को अच्छा और कुशल रखे। हालांकि अमिताभ बच्चन ने अमर सिंह के माफ़ीनामे पर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी।

कहा जा रहा है कि अमिताभ बच्चन अमर सिंह के बचकाने बयान से बहुत अधिक हर्ट हुए थे। उन्होंने अमर सिंह के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। परंतु उन्हें कभी माफ़ नहीं किया। संभवतः इसीलिए पहली अगस्त को पोस्ट किया कि जीभ पर लगी चोट तो जल्दी से ठीक हो जाती है, लेकिन जीभ से लगी चोट कभी ठीक नहीं होती। वह हमेशा बनी रहती है। यानी अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन परिवार के बारे में सार्वजनिक तौर पर बयान देकर अपनी जीभ से जो चोट पहुंचाई थी, उस चोट का ज़ख्म कभी भरा ही नहीं। संभवतः बिग बी ने शिष्टाचार वश अमर सिंह के निधन पर शोक व्यक्त कर दिया, लेकिन ज़्यादा कुछ नहीं लिखा। इससे यही प्रतीत होता है कि अमर सिंह के माफ़ी मांगने के बाद भी अमिताभ उन्हें माफ़ नहीं कर पाए।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मोहब्बत की झूठी कहानी…

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
लोग चाहे जो कहें, लेकिन अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की असामयिक मौत और उसके बाद के घटे घटनाक्रम में ले देकर केवल और केवल मोहब्बत की ही रुसवाई हुई है। मोहब्बत जो कभी चाहत, स्नेह, फिक्र, त्याग और समर्पण की प्रतीक हुआ करती थी। जिस मोहब्बत की एकदम सही परिभाषा आज तक किसी भी विशेषज्ञ, विद्वान या दार्शनिक द्वारा नहीं गढ़ी जा सकी, उसी मोहब्ब्त को अब तरह-तरह के नाम दिए जा रहे हैं। वही मोहब्बत इन दिनों बॉलीवुड में सबसे बड़ी विलेन बन गई है। लिहाज़ा, वह मोहब्बत अब सबके निशाने पर है। सुशांत की ख़ुदकुशी या हत्या (जो भी हो) के लिए केवल और केवल मोहब्बत को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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मोहब्बत बेचारी बन गई है। मोहब्बत की फ़ज़ीहत कुछ दिन पहले तब शुरू हुई। जब अचानक ख़बर आई कि सुशांत सिंह के पिता केके सिंह ने घटना के तक़रीबन डेढ़ महीने बाद अपने बेटे की गर्लफ्रेंड रही रिया चक्रवर्ती और उनके परिजनों को सुशांत की मौत के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए उनके ख़िलाफ़ पटना के एक पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराई है। कहना न होगा कि उसी समय से पूरे देश के लोग बेचारी मोहब्बत की लानत-मलानत कर रहे हैं। लोग मोहब्बत की ऐसी की तैसी कर रहे हैं। मोहब्बत को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।


यहां तो यही लग रहा है कि जैसे सुशांत सिंह राजपूत की मौत, आत्महत्या थी या हत्या, इसकी गहन तहक़ीकात की ज़रूरत है, वैसे ही सुशांत सिंह और अंकिता लोखंडे या फिर सुशांत और रिया चक्रवर्ती के बीच मोहब्बत थी या नहीं, इसकी भी गहन तहक़ीकात की जरूरत लग रही है। सबसे रोचक पहलू यह है कि जहां पहले सुशांत सिंह की मौत के लिए किसी बड़ी साज़िश और बॉलीवुड में माफ़िया का रूप ले चुके ‘नेपोटिज़्म’ को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा था और मामले की सीबीआई जांच की मांग ज़ोर-शोर से की जा रही थी, वहीं नई एफ़आईआर ने मामले का पूरा फ़ोकस ही बदल दिया है। सीबीआई जांच की मांग तो साइड में चली गई है, लोग यह जानने के लिए ज़्यादा उत्सुक लग रहे हैं कि क्या वाक़ई रिया प्रेमिका के रूप में सुशांत की मौत बन कर आई थी। अगर हां, तो कैसे। लोगों की यही उत्सुकता टीवी न्यू चैनलों को मसाला और टीआरपी दोनों दे रही है।

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सबसे चौंकाने वाला पक्ष है, सुशांत के पिता, उनके भाई, उनकी बहन और उनके परिजनों का स्टैंड। सुशांत राजपूत का परिवार महीने भर से ज़्यादा समय तक सुसुप्तावस्था में था। इस परिवार का हर सदस्य तब सक्रिय हुआ, जब उन्हें किसी सूत्र से जानकारी मिली कि सुशांत के बैंक खाते में तो 17 करोड़ रुपए की मोटी रकम थी और 15 करोड़ रुपए पर रिया ने हाथ साफ़ कर दिया और अपने किसी परिजन के नाम ट्रांसफ़र कर दिया। अगर सुशांत सिंह के परिजनों का आरोप सच साबित होता है तो इसका यही मतलब होगा कि इस अभिनेत्री ने अपनी मोहब्बत को केवल धोखा (बॉलीवुड की भाषा में डिच) ही नहीं दिया बल्कि उसकी बड़ी कीमत भी वसूल ली। लग तो यही रहा है कि इन नवोदित अभिनेत्री ने मोहब्बत को हानि-लाभ यानी सौदा बना दिया।

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दरअसल, 110 साल के इतिहास में फिल्मों में मोहब्बत केवल चाहत, स्नेह, फिक्र, त्याग या समर्पण ही बयां करती थी। ‘राजा हरिश्चंद्र’ से 1913 में फ़िल्मों का दौर शुरू होने, 1931 में ‘आलम आरा’ से उसे आवाज़ मिलने और 1937 में ‘किसन कन्हैया’ से चित्रों को रंग मिल जाने के बाद जिस भी फ़िल्म को देखिए, उसमें मोहब्बत के इसी चेहरे का दीदार होता है। ‘लैला मजनूं’ ने तो मोहब्बत को शहादत का दर्जा दे दिया था। फिल्मों में मोहब्बत के व्यापारित पक्ष की कल्पना पहली बार 1983 में देखने को मिली। यह फ़िल्म थी सहाबहार अभिनेता जीतेंद्र, राज बब्बर, रीना रॉय और परवीन बॉबी की ‘अर्पण’। फिल्म में एक लोकप्रिय गाना मोहब्बत अब तिजारत बन गई है, तिजारत अब मोहब्बत बन गई है था। आनंद बक्शी के लिखे इस गाने को लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की म्यूजिक पर गाया था अनवर ने। इस फ़िल्म में पहली बार इस बात की परिकल्पना की गई थी, कि मोहब्बत आजकल तिजारत यानी व्यापार बनती जा रही है।

रिया चक्रवर्ती के सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए इमोशनल थॉट्स और अंतरंग फोटोग्राफ यही कहानी कहते हैं कि यह अभिनेत्री कभी सुशांत से बेइंतहां मोहब्बत करती थी। उसके साथ इतनी गहराई तक इनवॉल्व हो गई थी, कि उसके बिना रह नहीं सकती थी। मगर सुशांत की मौत के बाद अब राज़ खुल रहा है कि वह तो मोहब्बत थी ही नहीं। वह तो तिजारत यानी व्यापार थी। अब अब तक सामने आई सूचनाएं सच हैं, तो यही लगता है, रिया लाभ अर्जित करने के लिए सुशांत के जीवन में आई थी। लाभ अर्जन बुरी बात नहीं, लेकिन लाभ अर्जन की दीवानगी इस कदर भी नहीं होनी चाहिए, कि जीवन की क़ीमत लाभ अर्जन से भी कम हो जाए। आप किसी से इतना लाभ लेने की उम्मीद पाल बैठें कि उसकी जान की कोई कीमत ही न रहे जाए, यह सोच या कार्य अमानवीयता है।

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यही वजह है कि उनकी मोहब्बत की कहानी सुशांत की मौत के बाद अब उस मोड़ पर पहुंच गई है, जहां उसी मोहब्बत के कारण अब रिया चक्रवर्ती के ऊपर गिरफ़्तारी की तलवार लटक रही है। कभी सुशांत के प्यार की गिरफ़्त में रही यह अभिनेत्री अब गिरफ़्तारी से डर रही है। लिहाज़ा, उसकी हवाइयां उड़ रही है। वह अपने बचाव के लिए ख़ूब हाथ-पैर मार रही है। सबसे महंगा वकील लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है। अब तक सुशांत की मौत की सीबीआई जांच कराने वाली रिया को अब बिहार पुलिस की जांच से भी शिकायत है। वह चाहती है पूरे प्रकरण की जांच वही मुंबई पुलिस करे, जिसके ऊपर लेट-लतीफ़ी और मामले को दबाने के गंभीर आरोप लग रहे हैं। बचाव के चक्कर में रिया वह बात कह रही है, जो बात रिलेशनशिप में रहने के दौरान कहने की कल्पना भी नहीं की होगी। यह मोहब्बत के तिजारत वाले पक्ष से भी बदसूरत और ख़तरनाक है।

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और, देश के टीवी न्यूज़ चैनलों ने तो मोहब्बत को पूरा का पूरा तमाशा बना दिया है। इस संपूर्ण प्रकरण पर तरह-तरह की ख़बरें चला कर पूरे मामले को ही मज़ाक़ में बदल दिया है। बेशक उनको बिज़नेस देने वाली टीआरपी मिल रही है, लेकिन यह बहुत ज़्यादा लग रहा है। लग तो यही रहा है कि सुशांत सिंह की मोहब्बत, जो निश्चित रूप से उसके लिए बहुत निजी रही होगी, उसकी प्राइवेसी रही होगी, अब वही मोहब्बत एक उत्सव बन गई है। केवल सुशांत की मोहब्बत ही नहीं, बल्कि सुशांत का पूरा जीवन ही तमाशा बन गया है। सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती भले कभी लवबर्ड रहे होंगे, लेकिन इन दिनों इनका संबंध चपचटा मसाला बन गया है। सुशांत की मौत और रिया का धोखा में ज़बरदस्त मसाला पैदा हो गया है। वह मसाला ख़बर बेचने का ज़रिया बन गया है।

ट्रेजेडी केवल सुशांत-रिया की मोहब्बत के साथ नहीं हो रही है, बल्कि वही ट्रेजेडी सुशांत-अंकिता की मोहब्बत की भी हुई है। कभी सुशांत की हमनवा रहीं अंकिता लोखंडे आजकल घूम-घूम कर सारे टीवी चैनलों को ‘एक्सक्लूसिव लाइव इंटरव्यू’ दे रही हैं और दावा कर रही हैं कि सुशांत तो बहुत बहादुर लड़का था, वह ख़ुदकुशी कर ही नहीं सकता। यानी उसकी हत्या हुई अथवा उसका इतना मानसिक शोषण किया गया कि उसने मौत का आलिंगन कर लिया। सबसे बड़ी बात अंकिता के चेहरे पर मोहब्बत छिन जाने का ज़रा भी शिकन नहीं दिख रहा है। उलटे लाइव जवाब के दौरान वह हंस भी देती है। यह भी मोहब्बत का तमाशाई पक्ष हो सकता है। कहना न होगा कि तमाशा बेचने वाले तमाशबीनों के लिए मोहब्बत के सनसनीखेज़ तमाशे निकाल-निकाल कर बेच रहे हैं।

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इतना तो तय है कि इस हुआं-हुआं में सुशांत के मौत की असली वजह दब कर रह गई। यह बहुत दुखद है। महाराष्ट्र सरकार और बिहार सरकार राजनीति में उलझ गई हैं और इस पूरे प्रकरण से राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में राजनेता भी इसमें पिल पड़े हैं। ऐसे में यही कहना होगा कि अगर सुशांत की हत्या हुई या उसे इतना शोषित किया गया कि उसने मौत को गले लगा लिया तो इसकी उच्च स्तर पर जांच होनी चाहिए और सीबीआई इसके लिए सबसे उपयुक्त एजेंसी हो सकती है और अगर सुशांत ने बॉलीवुड की पॉलिटिक्स से तंग आकर मौत को गले लगा लिया तो उसने ग़लत किया। उसे हार मानने की बजाय लड़ना चाहिए था, संघर्ष करना चाहिए था।

पूरे प्रकरण पर बेग़म अख़्तर का गाया यह गाना बहुत सामयिक लग रहा है।
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया…

और बेग़म अख़्तर का ही गया यह गाना भी।

Begum Akhtar – Aey mohabbat tere anajam
मेरे हमनफ़स मेरे हमनमा मुझे दोस्त बनकर दग़ा न दे…

Begum Akhtar Mere Hum nafas mere hum

अमर सिंह ने मुलायम सिंह की साधना गुप्ता से शादी करवाने में अहम भूमिका निभाई थी

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अमर सिंह को भावपूर्ण श्रद्धांजलि

अपने हाईप्रोफाइल कनेक्शन के चलते हमेशा चर्चा में रहने वाले राज्यसभा सदस्य ठाकुर अमर सिंह गजब के लड़ाकू और ज़िंदादिल तबियत के इंसान थे। दोस्ती तो वह बड़ी शिद्दत से निभाते थे। मुलायम सिंह यादव से लेकर अमिताभ बच्चन तक, अनिल अंबानी से लेकर कुमार मंगलम बिड़ला तक से उनके मधुर संबंध रहे। अमर सिंह ने हर किसी की किसी न किसी रूप मे मदद की। कह सकते हैं कि वह सुख में ही नहीं, बल्कि दुख में भा साथ निभाते थे। वह अपने घर आने वाले किसी भी ज़रूरतमंद को वापस नहीं करते थे।

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अमर सिंह का जन्म 27 जनवरी 1956 को पूर्वांचल उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में राजपूत परिवार हरीश चंद्र सिंह और श्रीमती शैल कुमारी सिंह के घर हुआ। यह पिरवार मूल रूप से आजमगढ़ का रहने वाला था। अमर सिंह कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक और एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज और यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ लॉ कोलकाता में शिक्षा ली। खुद सियासत में छाए रहने वाले अमर सिंह अपने परिवार को लाइम लाइट से दूर रखते थे। उनकी दो जुड़वा बेटियां हैं। उनका नाम दृष्टि और दिशा है। अमर सिंह की शादी पंकजा कुमारी सिंह से 1987 में हुई थी। लेकिन औलाद के लिए उनको 14 साल तक इंतजार करना पड़ा था। दोनों बेटियों दृष्टि और दिशा का जन्म वर्ष 2001 में हुआ।

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अमर सिंह के कभी बहुत क़रीबी दोस्त रहे अमिताभ बच्चन ने अमर सिंह के निधन आने के बाद नानावटी अस्पताल के  आइसोलेशन वार्ड से ही अमर सिंह को श्रद्धांजलि दी। पहली अगस्त की शाम अपने ब्लॉग और ट्विटर फोटो साझा की, जिसमें वह गर्दन झुकाए दिख रहे हैं। ट्विटर पर तो कोई कैप्शन नहीं है, लेकिन ब्लॉग पर दो इमोशनल लाइन लिखी हैं।
‘‘शोक ग्रस्त, मस्तिष्क झुका, प्रार्थनाएं केवल रहीं,
निकट प्राण, संबंध निकट, वो आत्मा नहीं रही !’’

 

हैरानी की बात है कि पहली अगस्त को ही अमिताभ बच्चन के ट्विटर पर दो और पोस्ट शेयर किया था, दोनों का मतलब समान ही था। दोनों पोस्ट किसी के किसी के बारे में कुछ बोल देने के बारे में था, लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि अमिताभ ने यह पोस्ट किसके लिए शेयर किया। पहला पोस्ट सुबह 7.51 बजे का है, जबकि दूसरा पोस्ट सुबह 11.35 बजे का। यह संयोग ही है कि दोनों पोस्ट के कुछ घंटे बाद अमर सिंह के निधन की ख़बर आ गई।

भारतीय राजनीति में अमर सिंह को एक पोलिटिकल मैनेजर के रूप में हमेशा याद किए जाएंगे। मुलायम सिंह अमर सिंह पर बहुत भरोसा करते थे। राजनीति में जिस तरह की जरूरतें रहती हैं, चाहे वो संसाधन जुटाने की बात हो या जोड़ तोड़ यानी नेटवर्किंग का मसला हो, उन सबको देखते हुए वह अमर सिंह को पार्टी के लिए उपयुक्त मानते थे। इसलिए उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपी थी। ये बात भी अपनी जगह एकदम सही है कि अमर सिंह नेटवर्किंग के बादशाह रहे थे। समाजवादी पार्टी की आज जो हैसियत है, उसे इस मुकाम पर लाने का काफी कुछ श्रेय अमर सिंह को भी जाता है। अमर सिंह समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के साथ अपना दोस्ती का बड़े साहसिक तरीक़े से निभाया था और मुलायम सिंह की उनकी लंबे समय से प्रेमिका रहीं साधन गुप्ता से शादी करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

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यही वजह है कि समाजवादी पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव ने अमर सिंह को कभी पसंद नही किया। एक तरह से वह अपने दल के पोलिटिकल मैनेजर से चिढ़ते थे। दरअसल, अखिलेश अपने पिता की दूसरी के बाद अमर सिंह से सदा के लिए दूरी बना ली थी। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव का दबदबा जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे अमर सिंह पार्टी से अलग-थलग पड़ने लगे और अतंतः समाजवादी पार्टी से ही बाहर हो गए।

2015 में मुलायम सिंह यादव पहले अपने राजनीतिक जीवन के सबसे नाजुक दौर से गुज़र रहे हैं। लोग देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के महाभारत के लिए अमर सिंह को ही जिम्मदार मानते थे। यही वजह थी कि मुलायम का अपना बेटा ही उनके सामने खड़ा हो गया था। हालांकि उस समय समाजवादी पार्टी में जो कुछ हो रहा था, ऊपर से लगा था कि मुलायम और अखिलेश यादव के बीच संघर्ष है। जो घमासान चला, उसकी जड़ें महीने या साल दो साल नहीं, बल्कि तीन दशक से ज़्यादा पुरानी थीं।

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वह संघर्ष चाचा-भतीजे यानी अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच की वर्चस्व की लड़ाई भी नहीं थी। दरअसल, शतरंज के उस खेल में शिवपाल तो महज़ एक मोहरा भर थे, जिन्हें अपने बेटे पर अंकुश रखने के लिए नेताजी इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे अहम बात यह थी कि मुलायम अपनी इच्छा से यह सब नहीं कर रहे थे, बल्कि उनसे यह सब करवाया जा रहा था। मुलायम जैसी शख़्सियत से यह सब कराने की क्षमता किसके पास थी। यह भी समझने की बात थी।

गौरतलब बात यह रही कि उस समय अमर सिंह पूरी तरह ख़ामोश थे, इसके बावजूद समाजवादी पार्टी के संकट में उनका नाम बार-बार आ रहा था। ऐसे परिवेश में आम लोगों के मन में यह सहज सवाल उठ रहा था कि आख़िर अखिलेश अपने पिता के जिगरी दोस्त से इतना चिढ़ते क्यों हैं। इसका उत्तर जानने के लिए अस्सी के दौर में जाना पड़ेगा, जब समाजवादी पार्टी या जनता दल का अस्तित्व नहीं था और तब मुलायम सिंह यादव लोकदल के नेता हुआ करते थे।

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1967 में बतौर विधान सभा सदस्य राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले मुलायम सिंह अस्सी के दशक तक राज्य के बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली नेता बन गए। चौधरी चरण सिंह के बाद संभवतः वह उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग और यादवों के सबसे ज़्यादा कद्दावर नेता रहे। राजनीतिक सफ़र में नेताओं के जीवन में महिलाएं आती रहीं। जब मुलायम उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे तो उनके जीवन में अचानक उनकी फ़िलहाल दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की एंट्री हुई।

मुलायम सिंह और साधना गुप्ता की प्रेम कहानी कब शुरू हुई, इस बारे में अधिकृत ब्यौरा किसी के पास नहीं है। कहा जाता है कि 1982 में जब मुलायम लोकदल के अध्यक्ष बने तब एक दिन उनकी नज़र अचानक पार्टी की नई युवा पदाधिकारी साधना पर पड़ी। 20 साल की तरुणी साधना इतनी ख़ूबसूरत कि जो भी उन्हें देखता, बस देखता ही रह जाता था। मुलायम भी अपवाद नहीं थे। पहली मुलाक़ात में वह उम्र में 23 साल छोटी साधना गुप्ता को दिल दे बैठे। यहीं से मुलायम-साधना की अनोखी प्रेम कहानी शुरू हुई, जो तीस-बत्तीस साल बाद अंततः देश के सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार में विभाजन की वजह बनी।

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अस्सी के दशक में साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के बीच क्या चल रहा है, इसकी भनक लंबे समय तक किसी को नहीं लगी। मुलायम के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति वाले मामले की जांच के दौरान सीबीआई की स्टेट्स रिपोर्ट में दर्ज है कि साधना गुप्ता और फर्रुखाबाद के चंद्रप्रकाश गुप्ता की शादी 4 जुलाई 1986 को हई थी। अगले साल 7 जुलाई 1987 को प्रतीक गुप्ता (अब प्रतीक यादव) का जन्म हुआ था। बहरहाल, 1962 में जन्मी औरैया जिले की साधना गुप्ता का मुलायम के चलते पति चंद्रप्रकाश गुप्ता से साल 1990 में औपचारिक तलाक हो गया। इसी दौरान 1987 में साधना ने एक पुत्र प्रतीक गुप्ता  को जन्म दिया। कहते हैं कि साधना गुप्ता के साथ प्रेम संबंध की भनक मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां मालती देवी को लग गई। वह बहुत ही आकर्षक और दान-धर्म में यक़ीन करने वाली महिला थीं। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मुलायम का पूरा परिवार अगर एकजुट बना रहा है तो इसका सारा श्रेय मालती देवी को ही जाता है। मुलायम राजनीति में सक्रिय थे। उस दौरान वे एक-दूसरे को शायद ही कभी-कभार देख पाते थे, लेकिन मालती देवी अपने परिवार और 1973 में जन्मे बेटे अखिलेश यादव का पूरा ख़्याल रख रही थीं।

नब्बे के दशक (दिसंबर 1989) में जब मुलायम मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे बात फैलने लगी कि उनकी दो पत्नियां हैं, लेकिन वह इतने ताक़तवर थे कि किसी की मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। अलबत्ता सीबीआई को प्रतीक के रिकॉर्ड से पता चला है कि उन्होंने 1994 में अपने घर का पता मुलायम के आधिकारिक निवास को बताया था। नब्बे के दशक के अंतिम दौर में अखिलेश को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता के बारे में पता चला। उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन बात सच थी। उस समय मुलायम साधना गुप्ता की कमोबेश हर बात मानने लगे थे। आरोप लगता है कि मुलायम के शासन (1993-2007) में साधना गुप्ता ने अकूत संपत्ति बनाई। आय से अधिक संपत्ति का उनका केस आयकर विभाग के पास लंबित है। 2003 में अखिलेश की मां मालती देवी का बीमारी से निधन हो गया और मुलायम का सारा ध्यान साधना गुप्ता पर आ गया। हालांकि वह इस रिश्ते को स्वीकार करने की स्थिति में तब भी नहीं थे।

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मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा जिगरी दोस्त अमर सिंह को थी। मालती देवी के निधन के बाद साधना चाहने लगी कि मुलायम उन्हें अपनी आधिकारिक पत्नी मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश के चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चहते थे। इस बीच साधना 2006 में अमर सिंह से मिलने लगीं और उनसे आग्रह करने लगीं कि वह नेताजी को मनाएं। लिहाज़ा, अमर सिंह नेताजी को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता को अपनाने के लिए मनाने लगे। 2007 में अमर सिंह ने सार्वजनिक मंच से मुलायम से साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया और इस बार मुलायम उनकी बात मानने के लिए तैयार हो गए।

जो भी हो, अमर सिंह के बयान से मुलायम परिवार में खलबली मच गई। लोग साधना को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं थे। बहरहाल, अखिलेश के विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए मुलायम ने अपने ख़िलाफ़ चल रहे आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र दिया, जिसमें उन्होंने साधना गुप्ता को पत्नी और प्रतीक को बेटे के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद साधना गुप्ता साधना यादव और प्रतीक गुप्ता प्रतीक यादव हो गए। अखिलेश साधना गुप्ता के अपने परिवार में एंट्री के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार मानते हैं। तभी से वह अमर सिंह से चिढ़ने लगे थे। वह मानते हैं कि साधना गुप्ता और अमर सिंह के चलते उनके पिताजी ने उनकी मां के साथ न्याय नहीं किया।

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बहरहाल, मार्च सन् 2012 में मुख्यमंत्री बनने पर अखिलेश यादव शुरू में साधना गुप्ता को कतई घास नहीं डालते थे। इससे मुलायम नाराज़ हो गए और अखिलेश को झुकना पड़ा। इस तरह साधना गुप्ता ने मुलायम के ज़रिए मुख्यमंत्री पर शिकंजा कस दिया और अपने चहेते अफ़सरों को मनपसंद पोस्टिंग दिलाने लगीं। ‘द संडे गार्डियन’ ने सितंबर 2012 में साधना गुप्ता की सिफारिश पर मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त छाप दी, तब साधना गुप्ता पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आईं।

इसके बाद यह साफ़ हुआ कि मुलायम की विरासत को लेकर चल संघर्ष में अखिलेश की लड़ाई सीधे लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाले अपने सौतेले भाई प्रतीक यादव से थे। लखनऊ में रियल इस्टेट के बेताज बादशाह बन चुके प्रतीक को अपनी माता साधना गुप्ता का समर्थन मिल रहा था। चूंकि साधना नेताजी के साथ रहती थीं और उनकी बात मुलायम टाल ही नहीं सकते थे। यानी बाहरवाली से घरवाली बनी साधना गुप्ता की बात टालना फ़िलहाल मुलायम सिंह के वश में नहीं था।

उस समय लखनऊ के गलियारे में साधना गुप्ता को कैकेयी कहा जा रहा था। आमतौर पर परदे के पीछे रहने वाली साधना अखिलेश से तब से बहुत ज़्यादा नाराज़ चल थीं, जब अखिलेश ने उनके आदमी गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। दरअसल, प्रतीक के बहुत ख़ासमख़ास गायत्री प्रजापति को मुलायम के कहने पर खनन जैसा मलाईदार महकमा दिया गया था। वह विभाग हुक्मरानों को हर महीने दो सौ करोड़ की अवैध उगाही करवाते थे। जब इसकी भनक अखिलेश को लगी तो वह प्रतीक के रसूख और कमाई के स्रोतों पर हथौड़ा चलाने लगे। यह बात साधना को बहुत बुरी लगी। नाराज़ साधना गुप्ता को मनाने के लिए ही मुलायम ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी अखिलेश से छीनकर साधना खेमे के शिवपाल यादव को दे दी। उसी के चलते बाप-बेटे यानी अखिलेश और मुलायम आमने-सामने आ गए थे।

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इटावा जिले के सैफई में स्व. सुघर सिंह यादव और स्व. मूर्ति देवी के यहां 22 नवंबर, 1939 को जन्में और पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ किया तो केवल और केवल अपने परिवार के लिए किया। परिवार को उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतना ताक़तवर बना दिया कि आने वाले साल में उनके कुटुंब के सैकड़ों लोग सांसद या विधायक होंगे। फ़िलहाल मुलायम समेत उनके परिवार में छह सांसद और तीन विधायक समेत 21 लोग महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ रहे। भारतीय राजनीति में वंशवाद का तोहमत कांग्रेस पर लगता है, लेकिन यूपी में मुलायम परिवार ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया।

 

अखिलेश यादव से अमर सिंह भी नाराज़ रहते थे। एक बार खुलासा करते हुए कहा था कि अखिलेश की शादी डिंपल से नहीं बल्कि लालूप्रसाद यादव की बेटी से होने जा रही थी। हालांकि, उन्‍होंने यह नहीं बताया कि शादी लालू की किस बेटी से होने वाली थी। अमर सिंह ने कहा कि अखिलेश को उनका एहसानमंद होना चाहिए, क्योंकि अगर वह नहीं होते तो उनके जीवन में डिंपल नहीं आती हैं, न ही उनका प्रेम होता और न ही मनपंसद शादी हो पाती।

वैसे अमर सिंह ने राजनीति सफर कांग्रेस से शुरू किया था। जिला कांग्रेस कमेटी, कलकत्ता के सचिव रहे। कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के कार्यकाल में 1996 में हुए कांग्रेस महाअधिवेशन में वह व्यवस्थापन समिति के सदस्य थे। बाद में वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और पार्टी में नंबर दो की पोजिशन पा गए। अमर सिंह राज्य सभा सदस्य थे। वह अपने हिन्दी ज्ञान और राजनैतिक सम्बंधों भी जाने जाते थे। उन पर भ्रष्टाचार के विभिन्न मामले लम्बित थे। जिसके चलते उनकी इमैज ख़राब हुई। समाजवादी पार्टी के महासचिव रह चुके अमर सिंह ने 6 जनवरी 2010 को समाजवादी पार्टी के सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्हें सपा से निष्कासित कर दिया। वर्ष 2011 में संसद घोटाले में वह गिरफ़्तार भी हुए और लंबे समय तक न्यायिक हिरासत में रहे। बाद में उन्होंने राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी। संन्यास की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा, “मैं अपनी पत्नी और अपने परिवार को अधिक समय देना चाहता हूं। फ़िलहाल वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में आए दिन बयान दे रहे थे और उन्होंने अखिलेश यादव को नमाज़वादी भी कह दिया था।

अमर सिंह ने 2011 में अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी राष्ट्रीय लोक मंच की शुरुआत की और 2012 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से 360 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए। हालांकि, उनकी पार्टी ने इन चुनावों में एक भी सीट नहीं जीती। वे मार्च 2014 में राष्ट्रीय लोकदल पार्टी में शामिल हुए, उस वर्ष फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश से आम चुनाव लड़े और हार गए। अमर सिंह का अमिता बच्चन समेत बॉलीवुड के कई सितारों से मधुर संबंध रहे। उन्होंने सन् 2000 में रिलीज हिंदी फ़िल्म ‘हमारा दिल आपके पास है’ में अभिनय किया। इसके अतिरिक्त शैलेंद्र पांडे की निर्देशित आगामी फ़िल्म जेडी में भी इन्होंने एक राजनीतिज्ञ का अभिनय किया है। कुछ महीने पहले अमर सिंह ने अमिताभ और दूसरे लोगों से माफ़ी मांग ली थी। एक वीडियो जारी करके अमर सिंह ने कहा था, “आज मेरे पिता जी की पुण्यतिथि है और बच्चन जी की तरफ़ से मुझे संदेश आया। मैं जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ रहा हूं। मैंने अमित जी और उनके परिवार के प्रति जो भी शब्द कहे थे, उसके लिए पश्चाताप कर रहा हूं। ईश्वर उन सभी को अच्छा रखे। उन्होंने कहा था, आज के दिन मेरे पिता का निधन हुआ और उनकी पुण्यतिथि पर पिछले एक दशक से बच्चन जी मेरे पिता जी को श्रद्धा संदेश भेजते हैं।

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1990 के दशक में अमिताभ बच्चन अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे थे। एक के बाद एक लगातार फ्लॉप फिल्मों और उनकी कंपनी एबीसीएल के डूबने के चलते लगातार आयकर विभाग के नोटिस मिल रहे थे। उस समय केवल 4 करोड़ रुपए न चुकाने के चलते उनके बंगले के बिकने और उनके दिवालिया होने की नौबत तक आ गई थी। तब अमर सिंह ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और अमिताभ बच्चन को कर्जे से उबारा। फिर यह दोस्ती लंबी चली और बॉलीवुड से लेकर राजनीतिक गलियारों तक में चर्चा का विषय रही।

जया बच्चन और जया प्रदा को राजनीति में लाने का श्रेय अमर सिंह को ही है। कुछ साल पहले अभिनेत्री बिपाशा बसु और अमर सिंह के बीच रसीली बातों वाली ऑडिया लीक हो गई थी। वैसे अमर सिंह के फिल्म दुनिया में अच्छे कनेक्शन थे।पिछले करीब छह महीने से अमर सिंह का सिंगापुर में  किडनी का इलाज चल रहा था।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

जब अनाथाश्रम में नवजात मीना कुमारी को चीटियां काट रही थीं

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ट्रैजेडी क्वीन के जन्मदिन पर विशेष

लाजवाब और अपने जीवंत अभिनय के लिए चार बार फिल्मफेयर पुरस्कार पाने वाली समर्थ अभिनेत्री मीना कुमारी का जीवन बचपन से जवानी तक संघर्ष भरा था। इसीलिए उनको दुखांत फ़िल्मों में यादगार किरदार निभाने के लिए याद किया जाता है। भारतीय सिनेमा का ट्रैजेडी क्वीन मीना कुमारी उम्दा शायर और सिंगर भी थीं। मीना पर किताब लिखने वाले विनोद मेहता के अनुसार, “एक फिल्मकार ने बताया था कि दिलीप कुमार जैसे अभिनेता को भी मीना कुमारी के सामने अभिनय करने में मुश्किल होती थी। मधुबाला ने कहा था कि उनकी जैसी आवाज़ दूसरी अभिनेत्री के पास नहीं है। राज कपूर तो उनके आगे अपने डायलॉग ही भूल जाते थे। सबसे बड़ी बात मीना डायलॉग याद नहीं करती थीं। लंबे-लंबे डायलॉग भी उन्हें सुनने से याद हो जाते थे। सत्यजीत रे ने एक बार मीना के बारे में कहा था कि निश्चित रूप से वह बहुत ऊंची योग्यता वाली समर्थ अभिनेत्री हैं।”

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बंबई में पहली अगस्त 1933 को पैदा हुई मीना कुमारी का असली नाम महजबीं बानो था। पिता अली बक्श पारसी रंगमंच के बड़े कलाकार थे और फ़िल्म ‘शाही लुटेरे’ में संगीत भी दिया था। माता प्रभावती देवी हिंदू थीं पर शादी के बाद इक़बाल बानो बन गईं। वह भी मशहूर नृत्यांगना-अदाकारा थीं। मीना की दोनों बहने ख़ुर्शीद (बड़ी) और बेबी माधुरी (छोटी) भी अभिनेत्री थीं। उनकी नानी हेमसुंदरी मुखर्जी भी पारसी रंगमंच से जुड़ी थीं। बंगाल के रवींद्रनाथ टैगोर परिवार के जदुनंदन टैगोर ने परिवार की मर्जी के विरूद्ध हेमसुंदरी से विवाह कर लिया। 1862 में जदुनंदन की मौत के बाद हेमसुंदरी बंगाल से मेरठ आ गईं और नर्स की नौकरी करते हुए उर्दू पत्रकार प्यारेलाल शंकर मेरठी से शादी कर लिया और ईसाई धर्म अपना लिया। हेमसुंदरी को प्रभावती समेत दो पुत्रियां हुईं।

कहा जाता है कि ग़रीबी के कारण मीना के पैदा होने पर पिता अली बक़्श घर लाने की बजाय उन्हें ऑर्फनेज में छोड़ दिया। जब वापस आने लगे तो नवजात शिशु के रोने की आवाज सुनाई दी। वह वापस आए तो देखा कि नन्ही मीना को चीटियां काट रहीं थीं। उन्होंने झट से बच्ची को साफ़ किया और सीने से लगा लिया। बहरहाल महजबीन पहली बार 1939 में निर्देशक विजय भट्ट की फिल्म ‘लैदरफेस’ में बाल कलाकार के रूप में नज़र आईं। 1940 की ‘एक ही भूल’ में उनका नाम बेबी महजबीं से बदलकर बेबी मीना कर दिया गया। 1946 में ‘बच्चों का खेल’ से बेबी मीना 13 वर्ष की आयु में मीना कुमारी बन गईं। इसी दौरान मार्च 1947 में लंबी बीमारी के बाद मां की मौत हो गई। उनकी शुरुआती फिल्में पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं, जिनमें ‘हनुमान पाताल विजय’, ‘वीर घटोत्कच’ और ‘श्रीगणेश महिमा’ प्रमुख हैं। उन्हें पहचान में सुपरहिट फिल्म ‘बैजू बावरा’ से, जो 1952 में रिलीज़ हुई। इस फिल्म से मीना के अभिनय करियर में नए पंख लग गए। गौरी के किरदार ने तो मीना घर-घर पहुंच गईं। फिल्म 100 हफ्तों तक परदे पर रही और 1954 में उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का पहला फिल्मफेयर अवार्ड मिला।

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1953 आते-आते मीना कुमारी की ‘दायरा’, ‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘परिणीता’ जैसी हिट फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। परिणीता से मीना कुमारी ने अभिनय के एक नए युग की शुरुआत की। उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को ख़ासा प्रभावित किया। फिल्म में भारतीय नारी की आम ज़िंदगी की कठिनाइयों का चित्रण हुआ था। उनके अभिनय की ख़ास शैली और मोहक आवाज़ का जादू दर्शकों ही नहीं फिल्म समीक्षकों पर भी छाने लगा और लगातार दूसरी बार उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का पुरस्कार मिला। 1954 से 1956 के दौरान मीना कुमारी ने कई तरह के किरदार निभाया। जहां चांदनी चौक (1954) और एक ही रास्ता (1956) जैसी फिल्में समाज की कुरीतियों पर प्रहार करती थीं। वहीं अद्ल-ए-जहांगीर (1955) और हलाकू (1956) जैसी फिल्में ऐतिहासिक कथाओं पर आधारित थीं। आज़ाद मीना की दिलीप कुमार के साथ दूसरी फिल्म थी। ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन के नाम से प्रसिद्ध दिलीप-मीना के हास्य प्रधान फ़िल्म ने दर्शकों की खूब वाहवाही लूटी। इसके गाने अपलम चपलम और ना बोले ना बोले आज भी चाव से सुने जाते हैं।

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1957 में मीना कुमारी दो फिल्मों में रूपहले परदे पर नज़र आईं। ‘मिस मैरी’ में मीना ने तमिल अभिनेता जेमिनी गणेशन और किशोर कुमार के साथ काम किया, जबकि राज कपूर के साथ ‘शारदा’ ने उन्हें भारतीय सिनेमा का ट्रेजेडी क्वीन बना दिया। मज़ेदार बात थी कि सभी अभिनेत्रियों ने उस किरदार को निभाने से मना कर दिया था। लेकिन मीना ने चुनौती स्वीकार किया। 1958 में लेखराज भाखरी निर्देशित ‘सहारा’ और बिमल रॉय निर्देशित ‘यहूदी’ में मीना ने यादगार किरदार निभाया। यहूदी रोमन साम्राज्य में यहूदियों के उत्पीड़न के बारे में, पारसी-उर्दू रंगमंच में क्लासिक, आगा हाशर कश्मीरी कृत यहूदी लड़की की कहानी पर आधारित थी। फ़िल्म में मुकेश का गाया ये मेरा दीवानापन है गाना सुपरहिट रहा। इसी तरह ‘फरिश्ता’ और ‘सवेरा’ में मीना कुमारी अशोक कुमार के साथ थीं।

1959 में रिलीज देवेंद्र गोयल की ‘चिराग कहां रोशनी कहां’ में मीना कुमारी राजेंद्र कुमार के साथ दिखीं। ख्वाजा अहमद निर्देशित ‘चार दिल चार राहें’ में वह, राज कपूर, शम्मी कपूर और कुमकुम के साथ थीं। इसी साल ‘शरारात’ में किशोर कुमार, राज कुमार और कुमकुम के साथ काम किया। किशोर का यादगार गीत हम मतवाले नौजवान आज भी याद किया जाता है। 1960 में रिलीज ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ में मीना कुमारी ने नर्स का किरदार निभाया। यह मीना के करियर के चर्चित पात्रों में है। फिल्म का गाना अजीब दास्तान है ये बेहद चर्चित हुआ। इसे शंकर जयकिशन की धुन पर लता मंगेशकर ने गया है। 1961 के फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक की कैटेगरी में नौशाद के ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को हराकर जीता। इसी तरह इस साल ‘बहाना’ और ‘कोहिनूर’ भी हिट रहीं।

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1961 में प्रदर्शित ‘भाभी की चूड़ियां’ पारिवारिक फिल्म थी। इसमें मीना कुमारी और बलराज साहनी हैं। यह मीना की यादगार फिल्म है। लता का गाया ज्योति कलश छलके गाना सुपरहिट रहा। यह फिल्म उस साल बॉक्स ऑफिस पर सबसे अधिक कमाई वाली फिल्म थी। उसी साल राजेंद्र कुमार के साथ उनकी फिल्म ‘ज़िंदगी और ख्वाब’ भी सफल रही। 1962 में रिलीज गुरु दत्त की बिमल मित्र के बंगाली उपन्यास पर आधारित ‘साहिब बीबी और गुलाम’ ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिया। इसमें मीना के साथ गुरु दत्त और वहीदा रहमान भी थीं। गीता दत्त के गाए दो गाने ना जाओ सइयां छुड़ा के बइयां और पिया ऐसो जिया को आम लोग गुनगुनाने लगे थे। संगीत हेमंत कुमार मुखर्जी और गीत शकील बदायूंनी के थे। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री अवार्ड समेत चार फिल्म फेयर पुरस्कार मिले। इसे 13वें बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बियर के लिए नामित किया गया, जहां मीना कुमारी प्रतिनिधि चुनी गईं थी। फिल्म ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भी चुनी गई। इसी साल फणी मजूमदार निर्देशित ‘आरती’ में मीना कुमारी अशोक कुमार और प्रदीप कुमार के साथ और ए भीमसिंह निर्देशित ‘मैं चुप रहुंगी’ में  सुनील दत्त के साथ थीं।

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1963 में आई ‘दिल एक मंदिर’ और ‘किनारे किनारे’ में मीना के साथ देव आनंद थे। अगले साल रिलीज हृषिकेश मुखर्जी की ‘सांझ और सवेरा’ में मीना कुमारी ने गुरुदत्त के साथ अभिनय किया। यह गुरु दत्त की अंतिम फ़िल्म साबित हुई। उसी साल रिलीज मीना कुमारी की ‘बेनज़ीर’ और ‘चित्रलेखा’ हिट रहीं। चित्रलेखा का गाना मन रे तू कहे जन-जन तक चर्चित हुआ। उसी साल की उकी ‘गजल’ और ‘मैं भी लड़की हूं’ जैसी चर्चित फिल्में भी रहीं। 1965 में रिलीज ‘काजल’ में मीना ने बेमिसाल अभिनय किया, जिसके बाद उन्हें चौथी बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। फिल्म गुलशन नंदा के उपन्यास ‘माधवी’ पर आधारित थी। उस साल अशोक कुमार और प्रदीप कुमार के साथ उनकी फिल्म ‘भीगी रात’ सुपरहिट रही। इसी साल नरेंद्र सूरी निर्देशित ‘पूर्णिमा’ में मीना कुमारी और धर्मेंद्र थे। फिल्म का गाना तुम्हें ज़िंदगी के उजाले मुबारक अंधेरे हमें आज रास आ गए हैं, आज भी दिलजले सुनते हैं।

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1966 में प्रदर्शित ओपी रल्हन निर्देशित ‘फूल और पत्थर’ में मीना कुमारी और धर्मेंद्र ने यादगार अभिनय किया। फिल्म ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। उसी साल ‘पिंजरे की पंछी’ में भी मीना अहम रोल में थीं। अगले साल आई हृषिकेश मुखर्जी की ‘मझली दीदी’ में मीना के साथ धर्मेंद्र थे। ‘बहू बेगम’, ‘नूरजहां’ और ‘चंदन का पलना’ में भी मीना ने बेमिसाल अभिनय किया। 1968 में सस्पेंस थ्रिलर ‘बहारों की मंज़िल’ मीना-धर्मेंद्र जोड़ी की सुपरहिट फिल्म रही। उसी साल अमित बोस की ‘अभिलाषा’ में भी मीना ने संजय खान और नंदा के साथ यादगार अभिनय किया। 1970 के दशक में मीना ने एक्टिंग और कैरेक्टर ओरिएंटेड भूमिकाओं पर ज़्यादा फोकस किया। यह उनकी अंतिम छह फिल्मों में साफ़ नज़र आता है। ‘जबाव’, ‘सात फेरे’, ‘मेरे अपने’, ‘दुश्मन’, ‘पाकीज़ा’ और ‘गोमती के किनारे’ में से केवल पाकीज़ा में उन्होंने मुख्य किरदार निभाया। मेरे अपने और गोमती के किनारे में तो यादगार रोल में दिखीं। जवाब में जीतेंद्र, लीना चंदावरकर और अशोक कुमार, तो सात फेरे में प्रदीप कुमार और मुकरी के साथ थीं। 1971 में निर्देशक-लेखक गुलज़ार की ‘मेरे अपने’ में मीना विनोद खन्ना और शत्रुघ्न के साथ थीं, जबकि ’दुश्मन’ में उनके साथ मुमताज और राजेश खन्ना थे। यह फिल्म सुपरहिट रही। अगले साल सावन कुमार टाक की ‘गोमती के किनारे’ में उन्होंने संजय खान और मुमताज़ के साथ अभिनय किया। यह फ़िल्म मीना कुमारी की मृत्यु के बाद रिलीज़ हुई थी। अपने क़रीब 33 साल के करियर में उन्होंने 90 से ज्यादा फिल्मों में काम किया।

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मीना कुमारी की कमाल अमरोही से मुलाकात 1951 में तमाशा के सेट पर हुई। अमरोही के बारे में उन्होंने एक बार अंग्रेजी मैगजीन पढ़ा था। ‘महल’ जैसी सुपरहिट फिल्म बनाने वाले अमरोही तब हिंदी सिनेमा के जाने-माने राइटर-डायरेक्टर थे। मीना उनके व्यक्तित्व, पढ़ाई-लिखाई और सोच से प्रभावित थी। अमरोही ने भी मीना के बारे में सुना था। वह अपनी प्रस्तावित फिल्म ‘अनारकली’ की नायिका तलाश रहे थे। मीना अभिनय के लिए तैयार हो गईं। शूटिंग शुरू होने से पहले महाबलेश्वरम के पास सड़क हादसे में उनकीछोटी अंगुली सदा के लिए मुड़ गई। वह दो महीने अस्पताल में रहीं। अमरोही हालचाल पूछने रोज़ पहुंचते थे। दोनों के बीच पहले आकर्षण हुआ। एक-दूसरे को ख़त लिखने लगे। पूरी-पूरी रात फोन पर बातें करने लगे। लेकिन मीना उनसे शादी नहीं कर सकती थीं, क्योंकि उम्र में दोगुने अमरोही शादीशुदा और दो बच्चों के बाप थे। उनकी दो-दो शादियां हो चुकी थीं। इसके बावजूद उन्होंने गुपचुप शादी करने का फैसला किया। मीना के पिता अली बख़्श उन पर सख्त नज़र रखते थे। 1952 में वेलेंटाइन डे के दिन वह मीना कुमारी को रात साढ़े आठ बजे को फिजियोथेरेपी क्लीनिक पर छोड़ा। माधुरी को भी क्लीनिक में बैठा दिया। लेकिन उनके जाते ही अमरोही अपने मित्रों के साथ आए और 19 वर्षीय मीना कुमारी के साथ गोपनीय तरीक़े से निक़ाह कर लिया।

निकाह की ख़बर किसी को नहीं लगी। लेकिन जब अली बख़्श को पता चला तो उन्होंने मीना पर तलाक के लिए दबाव डाला और कहा, “अमरोही जब तक दो लाख रुपए नहीं देंगे, तुम उनके साथ बीवी के रूप में नहीं रह सकोगी।” अली बक़्श ने महबूब खान की फिल्म ‘अमर’ की शूटिंग के लिए डेट्स दे दीं, परंतु मीना पति अमरोही की फिल्म ‘दायरा’ में काम करना चाहतीं थीं। पिता ने चेतावनी दी, अमरोही की फिल्म में काम किया तो नाता तोड़ लेंगे। बहरहाल, मेहबूब के साथ पांच दिन शूटिंग के बाद मीना दायरा की शूटिंग करने चलीं गईं। उस रात पिता ने उन्हें घर में घुसने नहीं दिया। मजबूरी में वह अमरोही के घर चली गईं। दो दिन बाद उनकी शादी की ख़बर मीडिया में लीक हो गई। शादी के बाद अमरोही ने उन पर तरह तरह की बंदिशें लगा दी। पुरुषों से मिलने पर रोक लगा दी। किसी भी क़ीमत पर शाम साढ़ें छह बजे तक अपनी कार से घर लौटने को कहा। मीना को यह बंधन रास नहीं आया, सो शर्ते टूटती रहीं। ‘साहिब बीबी और गुलाम’ के निर्देशक अबरार अल्वी के अनुसार कमाल अमरोही मीना कुमारी की जासूसी भी करवाते थे।

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मीना कुमारी को 1963 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में जाना था। तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री सत्य नारायण सिन्हा ने पति-पत्नी के लिए दो टिकटों की व्यवस्था की। लेकिन अमरोही ने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया। तब मीना भी कभी गईं। एक बार इरोस सिनेमा में प्रीमियर के दौरान सोहराब मोदी ने मीना कुमारी और कमाल अमरोही को राज्यपाल से परिचय करवाते हुए कहा, ‘ये मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी हैं और ये उनके पति कमाल अमरोही हैं।’ लेकिन अमरोही तुरंत बोल, ‘नहीं, मैं कमाल अमरोही हूं और यह मेरी पत्नी मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी हैं।’ इसके बाद वह हाल से निकल गए। कहा जाता है कि इसके बाद अमरोही मीना कुमारी को टॉर्चर करने लगे। उनकी जीवनी लेखक विनोद मेहता के अनुसार, मीना कुमारी वाक़ई में पति के अत्याचार से पीड़ित थीं।

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दरअसल, मीना कुमारी की मौत के बाद नरगिस ने एक उर्दू पत्रिका में लेख लिखा। जिसमें बताया कि ‘मैं चुप रहूंगी’ के आउटडोर शूट पर जब मीना ने मेकअप रूप में गुलज़ार को आने की अनुमति दे दी तो अमरोही के सहायक बाकर अली ने उनको थप्पड़ मार दिया और उनका चेहरा सूज़ गया। इसके बाद उनके संबंध ख़राब हो गए। वह सीधे अपनी बहन माधुरी के घर चली गईं। जब अमरोही लेने गए, उनसे बात भी नहीं की। वह 1964 में अमरोही से अलग हो गईं। अपनी असफल वैवाहिक जीवन की वजह से वह काफी ड्रिंक करने लगी थीं। इससे उनका स्वास्थ बिगड़ता चला गया।

पाक़ीज़ा में उनके किरदार को लोग आज भी सराहते हैं। शर्मीली मीना की लिखी कुछ उर्दू की कविताएं नाज़ के नाम से बाद में छपी थीं। बहरहाल, पाक़ीज़ा के रिलीज़ होने के तीन हफ़्ते बाद उनकी तबीयत ख़राब हो गई। 28 मार्च 1972 को सेंट एलिज़ाबेथ अस्पताल में भर्ती कराया गया। 31 मार्च 1972 को गुड फ्राइडे के दिन महज़ 38 वर्ष की आयु में मीना कुमारी ने इस दुनिया को अलविदा कर दिया। 1979 में ‘मीना कुमारी की अमर कहानी’ फिल्म बनी जिसका निर्देशन सोहराब मोदी ने किया। फिल्म का संगीत खय्याम ने बनाया। अगले वर्ष शायरा शीर्षक से मीना कुमारी पर लघु वृत्तचित्र बनी। मीना कुमारी के सम्मान में भारतीय डाक ने पांच रुपए का डाक टिकट 13 फरवरी 2011 को जारी किया। मीना कुमारी के जीवन पर विनोद मेहता ने उनकी मृत्यु के बाद मीना कुमारी – द क्लासिक बायोग्राफी नाम की किताब लिखी। जो 2013 में फिर से प्रकाशित हुई।

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कहा जाता है कि उर्दू सीखने के अलावा उनकी औपचारिक स्कूली पढ़ाई नहीं हुई थी, इसके बावजूद वह कई भाषाएं जानती थीं और बहुत सारी किताबें पढ़ती थीं। उन्हें शायरी और कविताएं लिखने का बहुत शौक था। कैफ़ी आज़मी से भी उन्होंने लेखन सीखा। वह गुलज़ार के लेखन की मुरीद थीं, अपने इंतकाल के बाद वह अपनी लेखनी और बहुत सी कविताएं और दूसरे कंटेंट गुलज़ार के पास छोड़ गईं थीं। मीना कुमारी के धर्मेंद्र के साथ रोमांस की ख़बरें आए दिन मीडिया की सुर्खियां बनती थीं। कहा जाता है कि धर्मेंद्र का करियर बनाने में मीना कुमारी का अहम किरदार रहा है। बहरहाल, बेमिसाल अदाकार मीना कुमारी श्रद्धांजलि।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

कोरोना संक्रमण काल में गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल

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कपिल पाटील

मरकज़ के नाम पर न जाने कितना शोर मचाया गया, कितनी नफरत फैलाई गई। एक बार शक का कीड़ा तो हमारे मन में भी पनपने लगा था। अहमदाबाद की ट्रम्प यात्रा देश को कोरोना देकर गई, लेकिन इस बात को दबा दिया गया। दाढ़ी वालों के नाम पर आग लगाने में तो वो लोग हमेशा ही आगे रहते हैं। लेकिन जब कोविड ग्रस्त हिन्दू लाशों का अंतिम क्रियाकर्म करने की परिवार वालों की हिम्मत नहीं थी, तब मुंबई के प्रसिद्ध बड़े कब्रिस्तान से मुसलमान आगे आए। एक-दो नहीं, बल्कि 300 से ज़्यादा हिंदू लाशों का अंतिम संस्कार उन मुस्लिम कार्यकर्ताओं ने किया। बिल्कुल हिन्दू रीति रिवाज़ों से। गले में तुलसी की माला पहनकर। अर्थी सजाकर, चिता रचकर। छेद वाले मटके से पानी की धार बहाकर… प्रदक्षिणा लगाकर। इसके बाद महानगर पालिका की प्रोटोकॉल के अनुसार विद्युत शवदाह गृह में मुखाग्नि दिया। मंत्रोच्चार किया। मोबाइल पर Whatsapp Video Call पर उनके परिवार को अंतिम क्रियाकर्म दिखाया। अगर किसी ने विनती की तो अस्थि विसर्जन भी कर दिया। जिन्होंने मांगा, उनके घर अस्थि भी पहुंचाई। और इन सबके लिए उन्होंने एक भी पैसा नहीं लिया। उल्टे पंडित जी को दान दक्षिणा भी दिया। सुरक्षित अंतर रखकर पंडित जी निर्देश देते रहे और नमाजी टोपीधारी मुसलमान मंत्रोच्चारण करके अंतिम संस्कार करते रहे।

कूपर हॉस्पिटल से हिन्दू लाश लेकर टिपिकल मुसलमानी पहनावे में जब 6 लोग ओशिवरा श्मशान भूमि में पहली बार पहुंचे, तो श्मशान के कर्मचारी डर गए। पर उनके पास बाक़ायदा मृत्यु प्रमाण पत्र था। हॉस्पिटल का पत्र था और परिवार का वीडियो मैसेज भी था। श्मशान के कर्मचारी तैयार हो गए। पहले दिन उन मुसलमान कर्मचारियों को सब कुछ नया होने के कारण अड़चन ज़रूर आई, लेकिन सब पूछ-पूछ कर उन्होंने अंतिम संस्कार किया। हिन्दुओं में भी, एक नहीं, अनेक मान्यताएं, प्रथाएं हैं। उन्होंने परिवार द्वारा बताई गई हर प्रथा हर संस्कार का पालन किया। एक परिवार में तो केवल एक बेटी थी। कोई भी रिश्तेदार आने को तैयार नहीं था। इक़बाल ममदानी उस लड़की को लेकर बाणगंगा गए। श्रीराम द्वारा वनवास के समय यहां आने की कथा प्रचलित है। उनके तीर से ही यहां गंगा अवतरित हुई थी, ऐसी दन्तकथा है। उस बाणगंगा पर इक़बाल भाई ने लड़की के पिता का विधिवत अस्थि विसर्जन किया।

एक महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास एक गाँव में एक हिन्दू वृद्ध की मृत्यु हो गई। उनकी लाश को अपने कंधों पर उठा कर, हाथ में अग्नि का घड़ा लेकर और ‘राम नाम सत्य है’ का जाप करते हुए मुसलमानों ने उनकी अंतिम यात्रा निकाली। लॉकडाउन के कारण अंतिम संस्कार में उनका कोई भी रिश्तेदार नहीं पहुंच सकता था। गाँव में सभी मुसलमान थे, केवल एक घर हिन्दू का था। उस घर में सभी लोग शहर में नौकरी करते थे। बूढ़े आदमी की देखभाल मुसलमान पड़ोसी ही करते थे। लेकिन प्रश्न ये था कि अंतिम संस्कार कैसे किया जाए। रिश्तेदारों ने कह दिया था कि आप लोग ही उनका अंतिम संस्कार कर दीजिए। आख़िर मुस्लिम युवक इकट्ठा हुए और उनका अंतिम संस्कार किया। उस वीडियो में आपने राम नाम सत्य है की ध्वनि सुनी होगी। लेकिन मुंबई में 300 लाशों के अंतिम संस्कार में राम नाम सत्य है की वही ध्वनि सुनी जा सकती थी। क्योंकि पास होकर भी कोरोनाग्रस्त लाश को कौन छूने को कोई भी तैयार नहीं था।

जलगाँव के एक शिक्षक की कोरोना से मौत हो गयी। उनका अंतिम संस्कार करने, उनकी अर्थी को कंधा देने कोई नहीं आया। सब लोग दूर से देख रहे थे। उनके बेटे ने अपने पिता के शव को अकेले अपने कंधों पर उठाया। उसने सब अकेले कैसे किया होगा, ये वही जानता होगा। लेकिन इक़बाल ममदानी और उनके सहयोगियों का साथ दिया बड़े कब्रिस्तान के चेयरमैन शोएब ख़तीब ने। कई लोगों के लिए तो उन्होंने कब्रिस्तान में जगह भी उपलब्ध कराई। हिंदुओं का अंतिम संस्कार करते समय अपना धर्म भ्रष्ट होगा, ऐसा विचार भी उनके मन में नहीं आया। उन्होंने न केवल हिंदुओं की लाशों का, बल्कि कुछ पारसियों और ईसाइयों की लाशों का भी उनके धार्मिक संस्कारों के अनुसार निस्तारण किया। पारसी भाइयों के रिवाज़ अलग हैं। ईसाई भाइयों के रिवाज़ अलग हैं। पर सारे संस्कार उनके धर्म के अनुसार ख़तीब और ममदानी की टीम ने निभाए।

इक़बाल ममदानी ने बताया, हम मुस्लिम लाशों को दफ़ना रहे थे। उन्हें विधिवत दफ़नाया जा रहा था। तभी हमारा ध्यान गया कि मुर्दाघर में कई लाशें पड़ी थीं। हमने डॉक्टर से पूछा। तो उन्होंने कहा, ये हिन्दुओं की लाशें हैं। कोई इन्हें ले जाने को तैयार नहीं है। महानगर पालिका के कर्मचारी भी अब कम पड़ रहे हैं। ममदानी ने उनसे पूछा, “अगर हम इनका अंतिम संस्कार करें तो चलेगा क्या?” हम इनका अंतिम संस्कार इनके रीति रिवाज़ के अनुसार ही करेंगे। डॉक्टर ने कहा, इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है,  बस आवश्यक अनुमतियाँ ले लें, तब आप ये कार्य कर सकते हैं।

उन सभी अनुमतियों को प्राप्त करने के बाद, अप्रैल, मई, जून और अब जुलाई में चार महीनों से लगातार ये टीम काम कर रही है। इस टीम में दो सौ युवा हैं। लेकिन जिन सात लोगों ने इस कार्य की शुरुआत की थी, उनके नामों का उल्लेख तो मुझे ज़रूर करना चाहिए। बड़ा कब्रिस्तान के चेयरमैन शोहेब ख़तीब, वरिष्ठ पत्रकार इक़बाल ममदानी, उद्यमी शाबिर निर्बन, एडवोकेट इरफ़ान शेख़, उद्यमी सलीम पारेख, उद्यमी सोहेल शेख़, सामाजिक कार्यकर्ता रफ़ीक सुरतीया। आज भी ये लोग ये कार्य कर रहे हैं। शुरूआत में परेशानी हुई, एंबुलेंस की, शववाहिनियों की।

कोविड ग्रस्तों के रिश्तेदार ही नहीं आ रहे थे, तो उन्हें एंबुलेंस कहाँ मिलेगा? ममदानी और ख़तीब ने तब एक तरीक़ा खोजा। उन्होंने बेकार और खराब पड़े एंबुलेंस का पता लगाया। उन्हें ठीक कराया। अब वे लगातार काम कर रहे हैं। ख़तीब भाई, इक़बाल भाई और उनकी पूरी टीम इस काम के लिए एक भी रुपया नहीं लेते। सभी ख़र्च वे स्वयं उठाते हैं। कुछ परोपकारी लोगों ने उनकी मदद की है। लेकिन वे रिश्तेदारों से एक भी पैसे नहीं लेते हैं। इक़बाल भाई का कहना है कि लॉकडाऊन के कारण लोग पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। ऐसे में उनसे अंतिम संस्कार के पैसे कैसे मांगें? ऐसा इक़बाल भाई का सवाल था। इक़बाल भाई, उनके सहयोगी और इस काम में शामिल 200 मुस्लिम युवा अपने परिवारों की परवाह किए बिना लगातार काम कर रहे हैं। इन लोगों को प्यार से गले लगाने की इच्छा आपकी भी हो रही होगी न।

देश में नफ़रत फैलाने वाले, हिंदू-मुस्लिम, हिंदू-मुस्लिम करनेवाले, व्हाट्सएप पर गंदी भाषा इस्तेमाल करनेवाले तारणहारों की कमी नहीं है। क्या वे कभी अपनी आंखों पर बंधी काली पट्टी हटाएंगे? क्या द्वेष और घृणा से भरे पित्त की उल्टी करके बाहर निकाल देंगे? क्या ममदानी, ख़तीब और उनके साथी से प्यार से गले मिलेंगे?  इस सवाल का जवाब हां होगा, ऐसी आशा है। आख़िर उम्मीद क्यों छोड़ें?

(लेखक महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य, राष्ट्र सेवा दल के कार्यकारी विश्वासपात्र और लोक भारती पक्ष के अध्यक्ष हैं।)

परदेसियों से ना अखियां मिलाना…

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मोहम्मद रफ़ी की पुण्यतिथि पर विशेष

परदेसियों से ना अखियां मिलाना… फ़िल्म ‘जब-जब फूल खिले’ का यह गाना केवल मोहब्बत करने वालों को ही आगाह या सचेत नहीं करता, बल्कि आम मानव को भी सचेत करता है कि जीवन तो क्षणभंगुर है। शरीर नश्वर है। लिहाज़ा, इससे बहुत ज़्यादा मोहब्बत मत कर, क्योंकि यह परदेसी है, जो एक न एक दिन बेवफ़ाई करके चला ही जाएगा। इसलिए, हे इंसान इस जीवन को पाकर बहुत अंहकार मत पाल, तू बस इंसान ही बना रह, क्योंकि तू जीवन जीने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। कहना न होगा कि कालजयी गायक मोहम्मद रफ़ी, जिन्हें दुनिया रफ़ी या रफ़ी साहब के नाम से बुलाती है, के शब्द रूपहले परदे पर शशि कपूर के लिए है, लेकिन आनंद बख्शी के लिखे इस गाने में मानव जीवन का फ़लसफा छुपा हुआ है।

हिंदी सिनेमा के श्रेष्ठतम गायकों की फ़ेहरिस्त में शीर्ष पर रखे जाने वाले मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ ऊंचाई और क्वालिटी का अहसास आसानी से कराती है। फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ का गीत ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले को सुनकर मन यह कहने के लिए मजबूर हो जाता है कि उनके सुर में यह बुलंदी केवल ख़ुदा की नेमत ही हो सकती है जो हर किसी को मयस्सर नहीं होती। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण कतई नहीं होगा कि रफ़ी साहब जैसा दूसरा गायक न ही पैदा हुआ और न ही भविष्य में पैदा होगा। यही वजह है कि संगीत के कद्रदान आज भी उनकी कमी शिद्दत से महसूस करते हैं। जब भी कभी उनके गीत कानों में गुंजते हैं, तो आदमी मंत्रमुग्ध होकर शिद्द्ट से सुनने लगता है।

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आवाज़ की यही ख़ुमारी बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले गाने में भी मिलती है। रफ़ी साहब ने साहिर लुधियानवी के इस गाने को रवि की धुन पर दिल की गहराई से गाया है। फ़िल्म ‘नील कमल’ के इस गाने को सुनकर ऐसा लगता है कि आवाज़ रूपहले परदे पर बिल्कुल बलराज साहनी के गले से ही निकल रही है। बेटी को विदा करते समय बाप की भावनाओं को बयान करने के लिए यह दर्दभरी आवाज़ मिसाल बन चुकी है। बहुत बाद में रफ़ी साहब ने कहा था कि इसे गाते वक़्त उन्हें अपनी बेटी की विदाई याद आ गई थी, इसलिए इस गाने में उनकी आवाज़ में जो दर्द उभरा, वह बिल्कुल असली और नैसर्गिक था। गायकी की हर कसौटी पर उनकी आवाज़ एकदम खरी उतरती थी। ख़ुदा ने उन पर सुरों की नेमत दिल खोल कर बरसाई थी। उनकी आवाज़ के साथ नगमों की रवानगी और रूपहले परदे पर अदायगी का अंदाज़ बदलता चला गया। पहले जो गीत क्लासिकल म्यूज़िक से बोझिल लगते थे। वे रफ़ी साहब के सुरों के सांचे में ढल कर लोगों के दिलों में उतरने लगे थे।

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वर्ष 1944 से 1970 की अवधि को फ़िल्म के जानकार भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग मानते हैं। कमोबेश यही दौर भारतीय फ़िल्म संगीत के लिए भी स्वर्ण युग माना जा सकता है। इस दौर में एक से बढ़कर एक गायक, गीतकार और संगीतकार भारतीय फलक पर अवतरित हुए। उस ज़माने में संगीतकार नौशाद, गीतकार शकील बदायूंनी और गायक मोहम्मद रफ़ी की तिकड़ी सुर की दुनिया पर राज किया करती थी। इस तिकड़ी का साथ जिस भी फ़िल्म को मिल जाता था, उसकी सफलता उसी समय सुनिश्चित हो जाती थी। इसी तिकड़ी का भजन मन तड़पत हरि दर्शन को आज भी एक मिसाल बना हुआ है। शकील का लिखा ‘बैजू बावरा’ का यह भजन भक्ति संगीत में मील का पत्थर है।

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कहा जाता है कि रफ़ी साहब ने अपने गाए सभी गीतों में 517 तरह के मूड बयान किए हैं। नफ़रत की दुनिया में उनकी आवाज़ प्यार के साज से सजी रहती थी। उनकी तान में अगर हुस्न अंगड़ाई लेता था, तो उसमें दर्द के मारों का गम भी झलकता था। सच कहा जाए तो रफ़ी की आवाज़ की शबनम में धुली होती थी। यही वजह है, बॉलीवुड में जैसे लता मंगेशकर को सुर सामाग्री, नूरजहां को मलिका-ए-तरन्नुम, दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट और अमिताभ बच्चन को महानायक कहा गया, उसी तरह रफ़ी को शहंशाह-ए-तरन्नुम कहा गया। हालांकि संगीत की बारीक़ियां समझने वाले रफ़ी को इस उपाधि से भी ऊपर रखते हैं। नौशाद ने संभवतः इसीलिए रफ़ी को ‘सुरों का पैगंबर’ की उपाधि दी थी। कई लोग उन्हें सुरों का शहंशाह भी कहते थे। जिस भी गाने को वह अपना सुर दे देते थे, वह अद्भुत हो जाता था। बेमिसाल हो जाता था। कर्णप्रिय हो जाता था। आम संगीतप्रेमी का गीत बन जाता था।

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फ़िल्म इंडस्ट्री में शायद ही कोई ऐसा रहा होगा, जो रफ़ी साहब के साथ काम करने के लिए लालायित और उत्साहित न रहा हो। नए गायक-गायिकाओं को उन्होंने ख़ुद प्रमोट किया। उनकी इसी आदत से एक बार लता मंगेशकर उनसे इतनी नाराज़ हुईं कि चार साल उनसे साथ गाना नहीं गाईं। दरअसल, साठ के दशक में रफ़ी सुमन कल्यानपुर और उषा टिमोथी जैसी नवोदित गायिकाओं को प्रमोट करने लगे। कई गाने रफ़ी ने इनके साथ रिकॉर्ड किए। अपने ज़माने की मशहूर गायिका उषा टिमोथी ने एक इंटरव्यू में लता-रफ़ी विवाद की असली वजह बताई। उषा टिमोथी कहा, “गाने की रॉयल्टी तो बहुत छोटा सा मामला था, हालांकि उसी के बहाने लता ने रफ़ी साहब अपनी भड़ास निकाल दी थी। इतनी बड़ी सिंगर होने के बाद भी लताजी दूसरों को प्रमोट नहीं करती थीं। उलटे जो लोग नए लोगों को मौक़ा देते थे, लता उन लोगों से नाराज़ हो जाती थीं।”

उषा टिमोथी कहती हैं, “नाराज़ लताजी अपनी भड़ास निकालने का कारण तलाश रही थी और 1961 में फ़िल्म ‘माया’ के गीत की रिकॉर्डिंग का मौक़ा मिल गया। रिकॉर्डिंग के बाद जब लताजी ने रॉयल्टी के बारे में रफ़ी साहब से उनकी राय पूछी, तो रफ़ी ने कहा कि रिकॉर्डिंग के बाद सिंगर्स को फीस का भुगतान हो जाता है। ऐसे में सिंगर को और पैसों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। बस क्या था, लताजी ने रफ़ी साहब के साथ गाने से साफ़ मना कर दिया। वह नाराज होकर चली गईं। रफ़ी साहब थे कि बस मुस्कराकर रह गए थे। पूरे चार साल तक दोनों का कोई युगल गीत रिकॉर्ड नहीं हुआ।” बहरहाल, बाद में अभिनेत्री नरगिस की मध्यस्थता के बाद उनमें सुलह हो गई। दोनो ने दोबारा साथ गाना शुरू किया और फ़िल्म ‘ज्वैल थीफ’ में दिल पुकारे गाना रिकॉर्ड करवाया जो बहुत लोकप्रिय हुआ।

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उस विवाद को लेकर लता के बयान पर भी काफी विवाद हुआ था। 2012 में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ छपे इंटरव्यू में लता ने कहा था कि रफ़ी मोहम्मद के साथ उनका विवाद रफ़ी के लिखित माफ़ीनामे के बाद ख़त्म हो गया था। लता के दावे पर रफ़ी के बेटे शाहिद रफ़ी ने तगड़ा विरोध जताया और कहा था, “लताजी झूठ बोल रही हैं, सच यह है कि मेरे वालिद (रफ़ी साहब) ने लताजी से कभी भी माफ़ी नहीं मांगी।” कहा जाता है कि लता दूसरी गायिकाओं को नापसंद करती थीं और उनके गाने छीन लेती थीं, यह ख़ुलासा एक बार मुबारक़ बेगम के इंटरव्यू में किया था। उन्होंने कहा था, ‘जब-जब फूल खिले’ का गाना परदेशियों से ना अंखियां मिलाना, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने 1964 में उनकी आवाज़ में रिकॉर्ड किया था, लेकिन जब दिसंबर 1965 में फ़िल्म रिलीज हुई तो, गाने में लता का स्वर सुन कर मैं हैरान रह गई।”

तेज़ गीतों में भी रफ़ी साहब की आवाज़ की रवानगी सुनते बनती थी। तेज़ गानों के उनके हीरो शम्मी कपूर थे। रफ़ी शम्मी के लिए गाने की बात सुनकर ख़ुश हो जाते थे। रफ़ी की आवाज़ शम्मी पर इतनी फ़बती थी कि वह अपनी हर फ़िल्म में अपने लिए रफ़ी की आवाज़ में गाना गवाने की ज़िद करते थे। शम्मी की दीवानगी इस कदर थी कि कभा-कभार फ़िल्म की शूटिंग को छोड़कर रिकॉर्डिंग स्टूडियो पहुंच जाते थे। सुन लो सुनाता हूं तुमको कहानी, रूठो ना हमसे ओ गुड़ियों की रानी। रे माम्मा रे माम्मा रे… इस गाने में रफ़ी साहब की आवाज़ की चंचलता, नटखटपन और बाल-सुलभ भावनाएं शम्मी कपूर जैसी ही हैं। शम्मी कपूर ही नहीं बल्कि जॉय मुखर्जी की पहचान रफ़ी का आवाज़ की ही बदौलत बनी थी।

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रफ़ी साहब की आवाज़ ने उस दौर के हर स्टार को सुपरस्टार बना दिया। हिंदी फिल्मों में जब रोमानी गीतों का चलन बढ़ा तो संगीतकारों को रफ़ी की आवाज़ से ज़्यादा मुफ़ीद किसी और गायक की आवाज़ नहीं लगती थी। राजेंद्र कुमार के क़रीब-क़रीब सभी गाने रफ़ी ही गाते थे। कहा तो यह भी जाता है कि राजेंद्र कुमार रूपहले परदे पर रफ़ी की आवाज़ में गाते हुए इतने हिट हुए, कि जुबली कुमार का टाइटिल पा गए। कई समीक्षक कहते हैं, ‘गीत’ फ़िल्म की सफलता में गानों का बड़ा योगदान था और गाने इसलिए हिट हुए कि उनमें आवाज़ रफ़ी की थी। तभी तो आनंद बख्शी के बोल कल्यानजी आनंदजी की धुन और रफ़ी की आवाज़ पाकर आ जा तुझको पुकारें मेरे गीत रे, मेरे गीत रे गीत में इतनी कशिश पैदा हुई कि यह गीत मोहब्बत करने वालों का सीधे दिल की टच करता है।

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मोहम्मद रफ़ी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को अमृतसर के पास कोटला सुल्तान सिंह में मध्यवर्गीय और इस्लाम के प्रति बहुत ही समर्पित मुस्लिम परिवार में हाजी अली मोहम्मद और अल्लाग राखी के यहां हुआ था। वह छह भाइयों मोहम्मद सफी, मोहम्मद दीन, मोहम्मद इस्माइल, मोहम्मद इब्राहिम और मोहम्मद सिद्दीकी में पांचवें नंबर पर थे। उनकी चिराग बीबी और रेशमा बीबी नाम की दो बड़ी बहनें भी थीं। उनकी स्कूल की पढ़ाई कोटला गांव में ही हुई। वह बचपन से ही बहुत शर्मीले स्वभाव के थे। करीब सात साल की उम्र में उनका परिवार रोज़गार के सिलसिले में अमृतसर से लाहौर आ गया। केश कर्तन से आजीविका चलाने वाले परिवार का संगीत से कोई सरोकार न था। जब रफ़ी छोटे थे तब बड़े भाई के हेयर कटिंग सैलून में ही उनका ज़्यादा वक्त गुज़रता था। उन्हें गाने की प्रेरणा एक फ़कीर से मिली थी। कहा जाता है कि दुकान से एक फ़कीर गाते हुए गुजरता था। रफ़ी उसे सुनते हुए उसके पीछे-पीछे दूर तक चले जाते थे। बाद में वह भी फ़कीर की नकल करके गाने लगे। उनकी नकल में अव्वलता को देखकर लोगों को उनकी आवाज़ भी पसंद आने लगी। सैलून में उनके गाने की तारीफ़ होती थी। लेकिन इससे रफ़ी को ख्याति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला।

दरअसल, रफ़ी की गायक बनने के सपने के साकार होने में उनके बड़े भाई का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्होंने रफ़ी के मन में संगीत के प्रति गहरी रूझान को पहचान लिया था और संगीत की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। वह रफ़ी को उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास ले गए और उनसे रफ़ी संगीत की तालीम देने की गुजारिश की। इसके बाद रफ़ी संगीत की शिक्षा उनसे लेने लगे। साथ ही ग़ुलाम अली ख़ान से भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखना शुरू कर दिया। चंद साल में ही रफ़ी परिपक्व गायक बन गए। लेकिन कई साल तक कामयाबी के नाम पर सिफ़र ही रहे। इस बीच 1937 में रफ़ी का निकाह हो गया। रफी का पहला निकाह लाहौर में उनके चाचा की बेटी बशीरन बीबी से महज 13 साल की उम्र में हुआ था। दरअसल, देश के विभाजन की चर्चा 1940 के दशक में ही शुरू हो गई हुई थी। उनकी पत्नी चाहती थीं कि रफ़ी बंबई की बजाय लाहौर में सेटल हों, ताकि विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान में ही रहे।लेकिन रफ़ी साहब को हिदुस्तान और संगीत से बेपनाह मोहब्बत थी। लिहाज़ा, उन्होंने मुंबई को ही कर्मस्थली के रूप में चुना। लिहाज़ा, भारत नहीं छोड़ा, लेकिन उनकी बीवी उन्हें तलाक़ देकर चली गई। पहली पत्नी से रफ़ी को एक बेटा मोहम्मद सईद भी है। बाद में उनका दूसरा निकाह बिलकिस बानो के साथ हुआ और उनसे छह बच्चे हुए। बेटे खालिद, हमीद और शाहिद और बेटियां परवीन, यास्मिन और नसरीन हैं।

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सन् 1943 में एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर ने तब के मशहूर गायक-अभिनेता कुंदनलाल सहगल को गाना गाने के लिए आमंत्रित किया। सहगल को सुनने के लिए रफ़ी अपने भाई के साथ स्टूडियो में पहुंच गए। परंतु उसी समय बिजली चली गई। इससे माइक बंद हो गया। सहगल ने बिना माइक गाने से इनकार कर दिया। लिहाज़ा, उस समय रफ़ी के भाई ने फंक्शन प्रभारी से आग्रह किया कि दर्शकों की नाराज़गी से बचने के लिए रफ़ी को गाने का मौक़ा दिया जाए। इस तरह रफ़ी ने 13 वर्ष की आयु में पहली बार सार्वजनिक मंच पर गाना गाया। रफ़ी का गाना ख़त्म होते ही बिजली आ गई और गाने के लिए सहगल साहब मंच पर आ गए। लेकिन भीड़ वन्स मोर वन्स मोर चिल्लाती रही। यह देखकर सहगल साहब भी हैरान हुए और रफ़ी को शानदार गायन के लिए शाबासी दी।

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उस समय सहगल की शाबासी पाकर रफ़ी पूरे लाहौर में मशहूर हो गए और उन्हें लाहौर रेडियो स्टेशन में गाने का मौका मिलने लगा। संयोग से उस समय दर्शक दीर्घा में नामचीन संगीतकार श्यामसुंदर भी बैठे थे। वह रफ़ी की गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अपनी फिल्मों में गाने का न्यौता दिया। 1944 में रफ़ी ने पंजाबी फ़िल्म ‘गुल बलोच’ में श्याम सुंदर के संगीत निर्देशन मे रफ़ी ने अपना पहला गाना सोनियेनी हिरीये नी पार्श्व गायिका जीनत बेगम के साथ के साथ गाया। रफ़ी साल 1944 में अपने बड़े भाई के साथ मुंबई चले आए। उसी साल नौशाद के संगीत निर्देशन में उन्होंने अपना पहला हिंदी गाना पहले आप फ़िल्म ‘हिंदुस्तान के हम हैं’ में गाया। लेकिन कुछ अच्छा नहीं होता देख रफ़ी साहब वापस लाहौर लौट गए। लेकिन रफ़ी फिर मुंबई आए इस बार उनकी मुलाकात संगीतकार नौशाद हुई।

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सुरों की कसौटी पर खरे पाकर नौशाद ने उन्हें अपनी कोरस टीम में रख लिया। नौशाद ने उनकी आवाज़ में मौशकी का नाज देखा। लिहाज़ा, रफ़ी के बाद नौशाद दूसरे गायकों को बिसार दिए। उसी साल उन्हें संगीतकार नौशाद ने पहले आप नाम की फ़िल्म में गाने का मौका दिया। नौशाद का ही सुरबद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा  से रफ़ी को प्रथम बार हिंदी जगत में ख्याति मिली। यह गाना 1946 में रिलीज़ फ़िल्म अनमोल घड़ी का था। वर्ष 1949 मे नौशाद के ही संगीत निर्देशन में दुलारी फ़िल्म मे गाए गीत सुहानी रात ढल चुकी के जरिए वह सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच। कहा जाता है कि 1951 में जब नौशाद ‘बैजू बावरा’ के लिए गाने बना रहे थे, तो अपने पसंदीदा गायक तलत महमूद से गवाने की सोची थी, लेकिन कहीं उन्होंने तलत को धूम्रपान करते देखकर मन बदल लिया और स्टूडियों में रफ़ी को बुलवा लिया। ‘बैजू बावरा’ के गीत रफ़ी की आवाज़ में सबकी ज़बान पर चढ़ गए। रफ़ी की सहज आवाज़ के सहारे शास्त्रीय संगीत को आम दर्शकों के लायक बनाना उनके लिए आसान हो गया। गायकी की काम चलाऊ शिक्षा से ही रफ़ी की आवाज़ लोगों को भाने लगी। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को गायक के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद रफ़ी ने नौशाद का साथ अनगिनत गीत गाए।

इस तरह 1950 के दशक में ही संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन को उनकी आवाज़ पसंद आई। रफ़ी उनके लिए भी गाने लगे। शंकर जयकिशन तब राजकपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज सिर्फ़ मुकेश की आवाज़ पसंद करते थे। इसके बावजूद उन्होंने कई बार राज के गाने को रफ़ी से गवाया। जल्द ही रफ़ी की आवाज़ सचिन देव बर्मन और ओपी नैय्यर रास आने लगी। नैय्यर का नाम स्मरणीय रहेगा क्योंकि उन्होने अपने निराले अंदाज में रफ़ी के साथ आशा भोसले का किया और उनकी खनकती धुनें अन्य संगीतकारों से अलग एहसास देती हैं। ओपी के साथ रफ़ी को बहुत नाम मिला। इसके बाद रफ़ी साहब मदन मोहन, रवि, गुलाम हैदर, सलिल चौधरी और जयदेव जैसे दिग्गज संगीतकारों की पहली पसंद बन गए।

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मोहम्मद रफ़ी के शहीद, मेला और दुलारी जैसे यादगार फिल्मों में गाए नगमें आज भी लोगों की ज़बान पर रहते हैं। कई गानों को संगीत कभी ओपी नैय्यर ने दिया तो कभी शंकर जयकिशन ने पर आवाज़ हमेशा रफ़ी की ही रही। चाहे कोई मुझे जंगली कहे (जंगली), एहसान तेरा होगा मुझ पर (जंगली), ये चांद सा रोशन चेहरा (कश्मीर की कली), दीवाना हुआ बादल (आशा भोंसले के साथ, कश्मीर की कली) शम्मी कपूर के ऊपर फिल्माए गए लोकप्रिय गानों में शामिल हैं। धीरे-धीरे इनकी ख्याति इतनी बढ़ गई कि अभिनेता इन्हीं से गाना गवाने का आग्रह करने लगे।

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देश के विभाजन के समय रफ़ी ने भारत में ही रहना पसंद किया। उन्होने बेग़म विक़लिस से शादी की और उनकी चार बेटे तथा तीन बेटियां के रूप में सात संतान हुईं। रफ़ी व्यसनों से दूर रहने वाले आदमी थे। उनको उनके परमार्थो के लिए भी जाना जाता है। बेहद हंसमुख और दरियादिल रफ़ी हमेशा सबकी मदद के लिए तत्पर रहा करते थे। कई फिल्मी गीत उन्होंने बिना पैसे या कम पैसे लेकर गाए। अपने शुरुआती दिनों में संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के लिए बहुत कम पैसों में गाया। मुख्य धारा हिंदी गानों के अतिरिक्त रफ़ी ने ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गीत गाए।

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गायन का सिलसिला 1960 के दशक में भी चलता रहा। संगीतकार रवि ने रफ़ी का इस्तेमाल ख़ूब किया। 1960 में फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ के शीर्षक गीत चौदहवीं का चां हो के लिए रफ़ी को पहला फ़िल्म फेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद ‘घराना’ (1961), काजल (1965), दो बदन (1966) तथा नीलकमल (1968) जैसी फिल्मो में इन दोनो की जोड़ी ने कई यादगार नगमें दिए। 1961 में रफ़ी को दूसरा फ़िल्मफेयर आवार्ड फ़िल्म ‘ससुराल’ के गीत तेरी प्यारी प्यारी सूरत को के लिए मिला। संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपना आगाज़ ही रफ़ी के स्वर से किया और 1963 में फ़िल्म ‘पारसमणि’ के लिए बहुत सुंदर गीत बनाए। 1965 में ही फ़िल्म ‘दोस्ती’ का गाना चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे के लिए रफ़ी को तीसरा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। इसी दौरान 1965 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। 1965 में ‘जब-जब फूल खिले’ का कल्यानजी-आनंदजी का स्वरबद्ध रफ़ी का गाया गाना परदेसियों से ना अखियां मिलाना लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच गया था। 1966 में फ़िल्म ‘सूरज’ के गीत बहारों फूल बरसाओ बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसके लिए रफ़ी को चौथा फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला। 1968 में शंकर जयकिशन की धुन पर फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफेयर अवार्ड मिला।

1960 के दशक में अपने करियर के शीर्ष पर पहुंचने के बाद दशक का अंत उनके लिए सुखद नहीं रहा। 1969 में शक्ति सामंत अपनी फ़िल्म ‘आराधना’ बना रहे थे। संगीत का दायित्न दादा (सचिन देव बर्मन) को दिया था। परंतु सचिन दादा अचानक बीमार पड़ गए और उन्होने अपने पुत्र राहुल देव बर्मन (पंचमदा) से गाने रिकार्ड करने को कहा। उस समय रफ़ी हज करने गए थे। पंचमदा को किशोर कुमार से गवाने का अवसर मिल गया। फ़िल्म के दौ गाने रूप तेरा मस्ताना और मेरे सपनों की रानी गाने बहुत लोकप्रिय हुए और राजेश खन्ना की लोकप्रियता आसमां छूने लगी। साथ ही बतौर गायक किशोर कुमार संगीतकारों की पहली पसंद बन गए। रफ़ी के गायन का अवरोह यहीं से शुरू हुआ। हालांकि इसके बाद भी रफ़ी ने ये दुनिया ये महफिल, ये जो चिलमन है और तुम जो मिल गए हो जैसे कई हिट गाने दिए। 1977 में फ़िल्म ‘हम किसी से कम नहीं’ के गाना क्या हुआ तेरा वादा के लिए उन्हे छठां फ़िल्म फेयर एवॉर्ड मिला।

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रफ़ी की आवाज़ दुनिया को भले ही जादुई लगे लेकिन ख़ुद रफ़ी साहब के लिए इबादत की इल्तजा थी। इतने बड़े सिंगर बनने के बावजूद भी शोहरत का ग़ुमान रफ़ी को कभी नहीं रहा। कहते हैं कि अपने हर नए गीत की रिकॉर्डिंग से पहले किसी नौसिखिए की तरह रियाज़ किया करते थे, इसीलिए जब रिकॉर्डिंग स्टूडियों पहुंचते तो एक ही टेक में पूरा गीत रिकॉर्ड हो जाता था। बहुत कम लोगों को पता है कि रफ़ी पतंगबाज़ी के दीवाने थे। यह शौक उन्हें बचपन से था, जब वह लाहौर की गलियों में घूमा करते थे। पतंग उड़ाना उन्हें कितना प्रिय था, कि गानों की रिकार्डिंग के बीच थोड़ी सी भी मोहलत मिलती, तो वह छत पर चले जाते थे और वहां उड़ाने लगते थे।

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जब कोई यह प्रश्न करता है कि आपको रफ़ी का कौन सा गाना सबसे ज़्यादा पसंद है तो एक धर्मसंकट सा खड़ा हो जाता है। उनके गाए हज़ारों गानों में से किसी एक गाने को सबसे ज़्यादा अच्छा कहना वाक़ई मुमकिन नहीं है। रफ़ी साहब ने अपने संपूर्ण सिने कैरियर मे क़रीब 700 फिल्मों में लगभग 26 हज़ार गाने गाए जिनमें हर रंग, मिज़ाज़, मूड को उन्होंने इस बख़ूबी से अपनी आवाज़ में उतारा कि कोई भी संगीत प्रेमी बरबस उनकी आवाज़ के जादू में घिरा रह जाता है। आजकल भले ही कई गायक उनकी आवाज़ में गाते हों लेकिन उनकी आवाज़ का नकल कर पाना बहुत मुश्किल है। उनके गाए गीत आज भी लोग काफी पसंद करते हैं। लोगों के दिलों में उनके गाए गानों की रूमानियत आज भी बनी हुई है। उनकी गायकी का चमत्कार ही माना जाएगा कि उन्हें अब भी उसी शिद्दत से याद किया जाता है और उनके गाने को सुना जाता है जैसे उनका बिछड़ना अभी कल की ही बात हो।

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मोहम्मद रफी, सात सुरों के बादशाह, एक ऐसे गायक जिन्होंने अपनी रूहानी आवाज से लोगों के दिलों में सुकून भर दिया। वे जब गाते थे, तो मानो ये भागती-दौड़ती दुनिया थम सी जाती थी और एक चिर आनंद में डूब जाती थी। हज़ारों गीतों को अपने सुरों से सजाने वाले रफ़ी के लिए ‘आस पास’ फ़िल्म का गाना आख़िरी गीत साबित हुआ। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल थे। लक्षीकांत ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि वह तीन दशक से रफ़ी साहब के साथ काम कर रहे थे, लेकिन उन्होंने कभी जाते वक़्त नहीं बोला था कि जा रहा हूं। लेकिन इस गीत की रिकॉर्डिंग के बाद जाते समय यह बोलकर गए कि अब मैं चलता हूं। उनकी तबीयत 31 जुलाई की सुबह से ही खराब थी। रात आठ बजे अचानक सीने में तेज दर्द हुआ माहिम के पीडी हिंदुजा नेशनल अस्पताल में लाया गया। मगर उनकी दिल की धड़कनें थमने लगी थीं। उनको बॉम्बे अस्पताल ले जाया गया। वहां पेसिंग से राहत मिली, हालत में सुधार के लक्षण दिखने लगे थे, लेकिन रात में तीसरा दौरा पड़ा और रफ़ी साहब हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए। आवाज़ की दुनिया हमेशा के लिए सूनी हो गई। कहते हैं उस रात रात भर मुंबई का आसमान आंसू बहाता रहा। बहरहाल, रफ़ी साहब की जादूई आवाज़ हिंदुस्तान के करोड़ों दिलों में आज भी बसती है। उनके तराने जेहन में आज भी गूंजते हैं। दरअसल, रफ़ी साहब अपने पीछे गीतों का एक गुलिस्तां छोड़कर गए हैं, जो हिंदी सिनेमा को सदियों तक महकाता रहेगा।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया….

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1960 के दशक के बेहतरीन अदाकारा कुमकुम को विनम्र श्रद्धाजलि

तेरा जलवा जिसने देखा वो तेरा हो गया, मैं हो गई किसी की कोई मेरा हो गया लता मंगेशकर के गाए हसरत जयपुरी के गाने को शंकर-जयकिशन की संगीतकार जोड़ी ने इतनी खूबसूरती से बेहतरीन सुर में डाला है कि 1959 में रिलीज़ उजाला के इस गाने को हर संगीतप्रेमी गुनगुना चाहता है। रूपहले परदे पर इस गाने को अपने ज़माने की बेहतरीन अदाकारा और बहुत निपुण नृत्यांगना कुमकुम पर फिल्माया गया है। वही कुमकुम 28 जुलाई को बड़ी खामोशी से इस दुनिया को अलविदा कह गईं।

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घूंघट नहीं खोलूंगी पिया सैंया तोरे आगे… रूपहले परदे चंपा (कुमकुम) के इस शोख गाने को कौन भूल सकता है, जब वह रामू (राजेंद्र कुमार) को रिझाने के लिए गाती है। वर्ष 1957 में रिलीज सुपरडुपर हिट फिल्म ‘मदर इंडिया’ के इस बेमिसाल गाने को लोग शिद्दत याद करते हैं। नौशाद की धुन पर शकील बदायूंनी के इस गीत लता मंगेशकर ने गाया और रूपहले परदे पर इसे ब्लैक एंड ह्वाइट से इस्टमैन कलर के दौर की अभिनेत्री कुमकुम के लिए फिल्माया गया था।

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मेरा दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूंढ़ रहा है सन् 1962 में रिलीज ‘सन ऑफ इंडिया’ का यह गाना हर वह प्रेमी गा रहा था, जिसका दिल किसी न किसी वजह से टूटा था, लेकिन वह अपनी प्रियतम को भूल नहीं पाया था। नौशाल और शकील की जोड़ी ने इस गाने को लता और मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड किया गया, लेकिन रूपहले परदे पर इसे गाते हुए सिनेमा प्रेमियों ने कुमकुम को देखा। इसी तरह राजा और रंक का गाना मेरा नाम है चमेली, मैं हूं मालन अलबेली, चली आई हूं अकेली बीकानेर से… जब भी बजता है, तो संगीतप्रेमी कुमकुम के अंदर की शोख नायिका को याद करते हैं।

दो साल पहले धर्मेंद्र ने अपनी डेब्यू फिल्म को लेकर एक मजाकिया ट्विट किया था। धर्मेंद्र ने लिखा, “1960 में ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’ से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की थी। मगर फिल्म फ्लॉप रही।” धर्मेंद्र ने अपना और कुमकुम का फोटो शेयर करते हुए ट्वीट किया। कैप्शन लिखा- “मेरी मुख्तसर सी प्यारी सी हीरोइन कुमकुम अपनी पहली ही फिल्म में इनसे कह बैठा ‘दिल भी तेरा हम भी तेरे’, इनसे कुबूल ना हुआ, फिल्म फ्लॉप हो गई।”

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कुमकुम ने 1956 में रिलीज ‘मेमसाहेब’ में शम्मी कपूर के साथ साइड रोल किया, लेकिन 1959 में  प्रदर्शित फिल्म ‘चार दिल चार राहें’ में शम्मी कपूर के साथ उनकी नायिका का किरदार निभाया। किशोर कुमार के साथ 1964 में आई ‘मिस्टर एक्स इन बॉम्बे’ से कुमकुम को बतौर समर्थ अभिनेत्री पहचान मिली। बतौर अभिनेत्री कुमकुम लेखक-निर्देशक रामानंद सागर की पसंदीदा थीं। उन्होंने उन्हें 1968 में रिलीज़ ‘आंखें’ फिल्म में धर्मेंद्र की बहन की भूमिका दी थी। 1973 में रिलीज प्रकाश मेहरा की ब्लॉकबस्टर कॉमेडी फिल्म ‘एक कुंवारा एक कुंवारी’ में उन्होंने प्राण के अपोजिट का रोल किया। इसके अलावा गीत, ललकार और जलते बदन में भी कुमकुम ने लीड रोल किया था।

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वस्तुतः कुमकुम ने 1952 में बतौर डांसर बॉलीवुड में कदम रखा था। एक बार कुमकुम ने इंटरव्यू में ख़ुद बताया, “नौशाद साहब के आग्रह पर मैं 1952 में मुंबई आई। नौशाद साहब भी मूल रूप से लखनऊ के ही रहने वाले थे। मैं उन्हें बहुत अच्छी तरह जानती थी। जब मैं नौशाद साहब से मिली तो फिल्म दुनिया में यह चर्चा फैल गई कि एक बहुत अच्छी डांसर लड़की नौशाद साहब के संपर्क में आई है। उसी समय मुझे हिंदी फिल्मों में नृत्य करने के ऑफर्स मिलने लगे।
मैंने सबसे पहले शमशाद बेगम के सुर में रिकॉर्ड फिल्म शीशा के गाने अंगना बाजे शहनाई रे, आज मोरी जगमग अटरिया में नृत्य किया। शाहिद लतीफ निर्देशित ‘शीशा’ उसी साल यानी 1952 में रिलीज हुई। उस गाने की धुन तैयार की थी गुलाम मोहम्मद ने। इसमें सज्जाद और नरगिस मुख्य किरदार में थे। घर वाले उन्हें जेबा भी कहते थे। फिलमों में मुझे कुमकुम नाम मिला। 1954 में मुझे नूर महल और मिर्ज़ा ग़ालिब में नृत्य करने का मौक़ा मिला।

लिहाज़ा, कुमकुम के फिल्मों में मूक और बोलती फिल्मों के महान अभिनेता, निर्माता-निर्देशक सोहराब मोदी द्वारा ब्रेक दिए जाने की बात सही नहीं है। हालांकि सोहराब मोदी ने ने कुमकुम को 1954 में रिलीज अपनी ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्म ‘मिर्जा ग़ालिब’ में तवायफ का किरदार दिया। उस समय कुमकुम की माली हालत ख़राब थी इसलिए छोटे से रोल को करने के लिए तैयार हो गई और उस किरदार को कुमकुम ने बखूबी निभाया। उन दिनों को याद करते हुए एक बार एक इंटरव्यू में कुमकुम ने कहा था, “मैं सोच भी नहीं सकती थी, कि मैं फिल्मों में काम करूंगी, लेकिन अपने शौक को पूरा करने के लिए नहीं, मजबूरी में, बस पेट पालने के लिए।”

कुमकुल को भले ही सोहराब मोदी की मिर्ज़ा ग़ालिब में अभिनय का मौका मिला, लेकिन हिंदी सिनेमा के जीनियस फिल्मकार गुरुदत्त की खोज मानी जाती हैं। दरअसल, गुरुदत्त को अपनी फिल्म आर पार के गाने ‘कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र’ का फिल्मांकन एक्टर जगदीप पर किया था, लेकिन बाद में गुरुदत्त महिला पर फिल्माने की सोची। उस समय, कोई भी इतना छोटा सा गाना करने के लिए सहमत नहीं हुआ। तब आखिरकार गुरुदत्त ने कुमकुम पर इस गीत का चित्रण किया। बाद में गुरु दत्त ने अपनी फिल्म प्यासा में भी उन्हें छोटा सा किरदार दिया।

खुद एक बार कुमकुम ने बताया था, “आर पार रिलीज होने के लिए तैयार थी, रिलीज की तारीख़ भी मुकर्रर हो गई थी, लेकिन सेंसर बोर्ड ने शमशाद बेगम के गाए कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र पर आपत्ति जताई, क्योंकि वह जगदीप पर फिल्माया गया था। सेंसर बोर्ड ने ही इस गाने को किसी महिला कलाकार पर फिल्माने की सलाह दी। लिहाज़ा, गुरु दत्त जी के पास बहुत समय नहीं था, लिहाज़ा, उन्होंने मुझे स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया। मैं स्क्रीन टेस्ट में पास हो गई तो गुरु दत्त की कोरियोग्राफी में वह गाना मुझ पर फिल्माया गया। आर पार सुपर हिट रही और मेरे नृत्य और गाने की चर्चा फिल्म इंडस्ट्री में होने लगी।”

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कुमकुम का असली नाम ज़ैबुनिस्सा है। घरवाले उन्हें जेबा कहकर पुकारते थे। फिल्मों में उन्हें कुमकुम नाम दिया गया। इस अभिनेत्री ने अपने करियर में लगभग 115 फिल्मों में अभिनय किया। मदर इंडिया (1957), मिस्टर एक्स इन बॉम्बे (1964), सन ऑफ इंडिया (1962), कोहिनूर (1960), उजाला, नया दौर, श्रीमान फंटूश, एक सपेरा एक लुटेरा और राजा और रंक जैसी सुपरहिट और यादगार फिल्मों में कुमकुम ने शानदार अभिनय किया। उन्होंने अपने दौर के कई स्टार्स के संग काम किया, जिनमें गुरु दत्त और किशोर कुमार का भी नाम शामिल है। इनके अलावा कुमकुम पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियारी चढ़ाइबो’ (1963) में भी अभिनय किया था।

1955 में रिलीज फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज-55’ की चर्चा करते हुए एक बार कुमकुम ने कहा था, “मुझे पांच बच्चों की मां का किरदार दिया गया, जबकि मैं उस समय बहुत कम उम्र की थी। कोई 20-21 साल की थी। इसीलिए कैमरामैन वीके नूर्ति ने मुझे लेने का विरोध किया और कहा कि यह तो बच्ची लग रही है, लेकिन गुरु दत्त मुझे वह रोल देने के अपने फैसले पर अडिग रहे। यह फिल्म भी सुपरहिट रही और मुझे फिलम इंडस्ट्री में नृत्यांगना के साथ अच्छी अभिनेत्री के रूप में पहचान मिली।”

कुमकुम के निधन की ख़बर बहुत देर से तब सब को मिली जब कुमकुम के सहअभिनेता जॉनी वॉकर के बेटे नासिर ख़ान ने 1960 के दशक के बेहतरीन अभिनेत्री के निधन की ख़बर को अपने ट्विटर हैंडल पर पोस्ट किया। नासिर ने जॉनी वॉकर और कुमकुम की फोटो शेयर करते हुए लिखा, ‘बीते जमाने की एक्ट्रेस कुमकुम आंटी का निधन हो गया, वो 86 साल की थीं। बहुत सारी फिल्मों में गीत उन पर फिल्माए गए। कई गानों में उन्होंने डांस किया। उन्होंने पापा जॉनी वॉकर के अपोजिट भी कई फिल्में कीं। कुमकुम ने इसके अलावा हाउस नंबर 44 (1955), कुंदन (1955), फ़ंटूश (1956), बसंत बहार (1956), शरारत (1959), काली टोपी लाल रूमाल (1959), किंग कांग (1962), शेर खान (1962), लागी नहीं छुटे राम (1963, भोजपुरी), गंगा की लहरें (1964), गुनाह और कानून (1970), आन बान (1972), ललकार (1972), धमकी (1972) और जलते बदन (1973) में भी काम किया।

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बाद में अभिनेता जगदीप के बेटे नावेद जाफरी ने अपने भी ट्विट पर जताया शोक जताते हुए लिखा, ‘हमने एक और दिग्गज खो दिया। मैं उन्हें तब से जानता था जब मैं बहुत छोटा था। वो परिवार जैसी थीं। कमाल की आर्टिस्ट और शानदार इंसान। भगवान आपकी आत्मा को शांति दे कुमकुम आंटी’। नावेद ने अपने ट्वीट में कुमकुम के लिए एक दुआ भी लिखी।

आज़ादी से पहले बिहार में पटना के पास शेखपुरा में 22 अप्रैल 1934 को कुमकुम ज़ेबुन्निसा उर्फ जेबा के रूप में हुसैनाबाद के नवाब सैयद नवाब मंसूर हसन खान और खुशी बानो के घर पैदा हुईं। जब वह ढाई साल की थीं तो उनका परिवार पटना शिफ्ट हो गया। उनके पिता नवाब थे और उनके पास अपार दौलत थी। लेकिन आज़ादी से पहले ब्रिटिश सरकार उनकी सारी संपत्ति जब्त कर लिया और परिवार को दो जून की रोटी के लाले पड़ने लगे। मजबूरी में सैयद नवाब मंसूर हसन अपने परिवार के साथ कलकत्ता में शिफ्ट हो गए। उस समय कुमकुम केवल पांच साल की थीं। लेकिन कलकत्ता में उनका दिल किसी और स्त्री पर आ गया। उन्होंने उस महिला से निकाह करके परिवार को अनाथ छोड़ दिया और जब देश का विभाजन हुआ तो पूर्वी पाकिस्तान चले गए।

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कुमकुम को नृत्य का शौक बचपन से ही था, इसलिए स्कूल की पढ़ाई पूरी करके वह लखनऊ चली गई, जहां उन्होंने शंभू महाराज से कथक नृत्य शैली की तालीम ली। कथक नृत्य शैली के उस्दात पंडित शंभू महाराज कुमकुम को अपनी बेटी की तरह मानते थे। पंडित शंभू महाराज से ही ली थी। उन्होंने अपने नृत्या की नुमाइश कोहिनूर फिल्म में ‘मधुबन में राधिका नाचे रे…’ के दौरान की। पंडित शंभू महाराज ने कुमकुम की जरूरत के वक़्त बड़ी मदद की थी।

कुमकुम के बारे में एक और रोचक कहानी प्रचलित है कि वह अभिनेता गोविंदा की छोटी मौसी भी थीं। दरअसल, मशहूर कथक नृत्यांगना सितारा देवी ने एक इंटरव्यू में खुलासा किया था कि कुमकुम बनारस घराने के मशहूर तबला वादक वासुदेव महाराज बेटी थीं। कुमकुम की छोटी बहन राधा (फिल्म का नाम राधिका) भी अभिनेत्री थीं और उन्होंने ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’, ‘रात के राही’ ‘काला समुंदर’ और ‘लाल निशान’ जैसी सफल फिल्मों में काम भी किया। ‘रात के राही’ का गाना दाएं बाएं छुप छुप के कहा चले  राधिका और शम्मी कपूर पर फिल्माया गया है। यह गाना यूट्यूब पर उपलब्ध है।

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सितारा देवी के अनुसार कुमकुम अभिनेता गोविंदा की छोटी मौसी भी थीं, क्योंकि गोविंदा की मां और बेहतरीन सिंगर निर्मला देवी कुमकुम की सौतेली बहन थी। दोनों के पिता एक ही थे और उनके पिता का नाम वासुदेव नारायण सिंह उर्फ वासुदेव महाराज था। वह मशहूर तबलावादक थे। उनकी दो पत्नियां थीं। निर्मला देवी वासुदेव महाराज पहली पत्नी से पैदा हुईं थीं। जबकि कुमकुम और राधा उनकी मुस्लिम पत्नी से पैदा हुईं। वासुदेव महाराज गोविंदा के पुत्र और मशहूर तबला वादक लच्छू महाराज भी वासुदेव महाराज के पुत्र थे और उनका असली नाम लक्ष्मी नारायण सिंह था। गोविंदा अपने एक इंटटरव्यू में कुमकुम मौसी ने मुझे आदेश दिया है। इससे इस चर्चा का जन्म मिला। हालांकि इस विषय पर कुमकुम ने कभी ख़ुद कुछ नहीं कहा। न तो सितारा देवी के दावे का खंडन किया और न ही उसकी पुष्टि की। सबसे अहम यह है कि वासुदेव नारायण सिंह क्षत्रीय थे और एक जमीदार परिवार से ताल्लुक रखते थे।

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1975 में कुमकुम ने फिल्मों से संन्यास ले लिया और लखनऊ के बिजनेसमैन सज्जाद अकबर खान से निकाह कर लिया। कुमकुम ने ही बताया था, “सत्तर के दशक के बाद मैं फिल्मी दुनिया से बोर होने लगी। 1973 में किरण कुमार के साथ जलते बदन के रिलीज होने के बाद मैंने तय कर लिया कि इंडस्ट्री छोड़ दूंगी। हालांकि मेरी अंतिम फिल्म बॉम्बे बाई नाइट 1976 में प्रदर्शित हुई। यह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म थी, जिसमें हीरो संजीव कुमार थे। 1975 में मैंने शादी कर लिया। सज्जाद अकबर ख़ान से शादी कर ली। कुमकुम फिल्मी दुनिया को छोड़ने के बाद एक बार कहा था, “बदकिस्मत होते हैं वे लोग, बदकिस्मत नहीं बेवकूफ होते हैं, जो ज्यादा पैसे कमाने के चक्कर में सारा वक्त गंवा देते हैं। उन्हें पैसे तो मिलते हैं, लेकिन वे ज़िंदगी को जी नहीं पाते। इसलिए मैंने ज़िंदगी को जीने के लिए फिल्म लाइन छोड़ने का फ़ैसला किया।”

चूंकि उनके शौहर सज्जाद ख़ान सऊदी अरब में कारोबार करते थे, लिहाज़ा, कुमकुम भी शादी के बाद सऊदी अरब में शिफ्ट हो गईं। कुमकुम और सज्जाद की एक बेटी अंदलीब खान और एक बेटा हादी अली अबरार है। बहरहाल, 23 साल बाद 1995 में कुमकुम भारत बापस आ गईं और मुंबई में रहने लगीं। 2004 में कुमकुम ने पहली भोजपुरी मैगजीन शुरू किया था। कभी मुंबई में लिकिंग रोड पर उनके बंगले का नाम ही कुमकुम हुआ करता था। जिसे बाद में तोड़कर इमारत बना दी गई। बहरहाल, उस खूबसूरत अदाकारा को विनम्र श्रद्धांजलि।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत – सीबीआई जांच से झिझक क्यों?

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ऐसे समय जब अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के पिता केके सिंह ने अपने बेटे की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती और उनके परिजनों पर सुशांत को मौत को गले लगाने के लिए उकसाने का आरोप लगाते हुए कहा है कि मुंबई पुलिस की जांच पर उन्हें बिल्कुल भरोसा नहीं है, तो महाराष्ट्र सरकार को एक संवेदनशील सरकार होने के नाते इस गंभीर और संवेदनशील मामले की जांच देश की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से कराने की सिफ़ारिश कर देनी चाहिए। केके सिंह ने कहा है कि पिछले डेढ़ महीने से मुंबई पुलिस जिस तरह से जांच कर रही है, उससे यह लगता है कि उनके बेटे को इंसाफ़ नहीं मिल पाएगा।

दरअसल, सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत के बाद मुंबई पुलिस जिस तरह टेलीविज़न सीरियल की तरह एक-एक करके नामचीन हस्तियों को बुला रही है और उनके बयान दर्ज कर रही है। इससे सुशांत के पिता और दूसरे परिजनों का फेडअप हो जाना स्वाभाविक है। मुंबई पुलिस जिस रफ्तार से संबंधित लोगों को बुला रही है और उनके बयान दर्ज कर रही है, उससे साफ़ है कि बयान दर्ज करने की प्रक्रिया में ही साल-छह महीने लग सकते हैं। तब तक लोगों का ग़ुस्सा भी शांत हो जाएगा। इसका मतलब मुंबई पुलिस जांच कम इस मामले को अधिक से अधिक समय तक खींचने की कवायद ज़्यादा कर रही है। यशराज फिल्म्स के मालिक और प्रोड्यूसर आदित्य चोपड़ा, जानेमाने निर्माता निर्देशक महेश भट्ट और धर्मा प्रोडक्शन के सीईओ अपूर्व मेहता समेत कई लोगों से पूछताछ की जा चुकी है और कई लोगों से पूछताछ की जाने वाली है।

चूंकि सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत में नेपोटिज्म में शामिल रही बॉलीवुड की सेक्यूलर ब्रिगेड का नाम आने से ही मामला गड्डमड्ड हो गया है। इस बात की संभावना नहीं के बराबर है कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के आशीर्वाद से सत्ता सुख भोग रहे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे इस संवेदनशील केस की जांच सीबीआई से करवाने की सिफारिश करेंगे। चूंकि इस मामले में सुशांत सिंह के पिता केके सिंह ने पटना में एफआईआर दर्ज करवा दी है, लिहाज़ा, यह मामला अब केवल महाराष्ट्र का नहीं रह गया है। इसमें बिहार भी शामिल हो गया।

इसी बिना पर क़ानून के जानकार कहने लगे हैं कि जो केस बहुत विवादास्पद हो जाए और उसमें दो-दो जगह एफआईआर दर्ज हो जाएं, उस केस की जांच सीबीआई से कराना सबसे अधिक उपयुक्त होता है। फिर इस मामले में सुशांत के पिता ने रिया पर बहुत संगीन आरोप लगाए हैं। उन्होंने आरोप में कहा है कि सुशांत सिंह की एक बड़ी साज़िश के साथ हत्या की गई, जिसमें बॉलीवुड की दिग्गज हस्तियों के साथ साथ मुंबई के कई नामचीन मनोचिकित्सक भी शामिल है।

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केके सिंह ने आरोप लगाया है कि सुशांत अगर मनोचिकित्सक के पास जा रहा था तो, उसी मेडिकल हिस्ट्री की भी गहन जांच करने की जरूरत है, ताकि यह पता चल सके कि उसे कौन सी मानसिक बीमारी थी। वह किस डॉक्टर से इलाज करवा रहा था और उस डॉक्टर ने सुशांत को कौन-कौन सी दवा या टेबलेट्स कितनी मात्रा में लेने के लिए प्रेसक्राइब्ड किया था। इस बयान का मतलब यह भी है कि केके सिंह को आशंका है कि टेबलेट देकर उनके बेटे को साज़िशन पागल कर दिया गया, क्योंकि रिया से संबंध बनने से पहले सुशांत एकदम फिट थे।

भारतीय समाज में प्रचलित एक कहावत है, सांच को आंच नहीं होता। यानी जो सच है वह सच ही रहेगा, उसकी तहक़ीक़ात चाहे जो करे या जैसे भी करे और जितना भी कर ले। इसलिए अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत को लेकर अगर महाराष्ट्र सरकार या मुंबई पुलिस के मन में कोई खोट नहीं है, तो उन्हें ख़ुद सीबीआई जांच की पहल कर देनी चाहिए। सुशांत के परिवार के अलावा अभिनेता के फैन्स का एक बड़ा तबक़ा जब सीबीआई जांच की लिए ज़िद पकड़ लिया है तो उसे मान लेने में कोई हर्ज नहीं दिख रहा है।

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हां, अगर महाराष्ट्र सरकार या मुंबई पुलिस के मन में सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत को लेकर अगर कोई खोट तब बात दूसरी है। तब सरकार सीबीआई जांच में आना कानी कर सकती है। इसके लिए उसके पास संवैधानिक अधिकार भी है। इस बात को लेकर कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि अगर सुशांत रहस्यमय मौत आत्महत्या न होकर हत्या है, जैसा कि अभिनेता के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग दावा कर रहा है, तो यह बहुंत सीरियस मुद्दा है। यह राज्य की क़ानून व्यवस्था के सामने भी गंभीर प्रश्न है, जिसे हल करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।

बेहतर तो यह होता कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ख़ुद ही केंद्र सरकार से कह देते कि अगर लोगों को मुंबई पुलिस की जांच पर भरोसा नहीं है तो सीबीआई से जांच करवा लेनी चाहिए। लेकिन उन्होंने ऐसी पहल नहीं की। उलटे शिवसेना सांसद और प्रवक्ता संजय राऊत ने अपनी तरफ़ से ख़ुद दावा कर दिया कि सुशांत सिंह डिप्रेशन में थे, लिहाज़ा, वे देर-सबेर खुदकुशी करने ही वाले थे। इतना ही नहीं, संजय राऊत ने इस बात पर भी ऐताराज जताया था कि पुलिस दिग्ग्ज फिल्मी हस्तियों से दस-दस या बारह-बारह घंटे क्यों पूछताछ कर रही है। संजय राऊत का बयान सीधे राज्य के सत्तारूढ दल के एक सांसद का जांच को प्रभावित करने की कवायद है।

दरअसल, इस तरह का लेख लिखकर शिवसेना की ओर से मुंबई पुलिस पर दबाव भी बनाया जा रहा है कि दिग्गज फिल्मी हस्तियों से पूछताछ न करें और करे भी तो संक्षिप्त। शिवसेना सांसद संजय राऊत ने ‘सामना’ में अपने लेख में पुलिस की पूछताछ के तरीके पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा, “आखिर पुलिस इस मामले में लोगों से इतनी देर पूछताछ क्यों कर रही है? सुशांत की मौत को लगभग महीना हो गया लेकिन चर्चा थम ही नहीं रही है। सुशांत की मौत के बाद देश में और भी बहुत कुछ घटा है लेकिन इस पर किसी का ध्यान ही नहीं है। सारा फोकस सुशांत की मौत पर ही है।”

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लेख में राऊत ने दावा किया कि “निराशा की चपेट में आकर सुशांत ने मौत को गले लगा लिया। क्या उनके डिप्रेशन का कारण वास्तव में कमर्शियल था? यह 100 फीसदी सही नहीं है। एक निर्माता ने कहा कि वह पहले से ही जानता था कि सुशांत आत्महत्या करेगा। उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं था। वह सेट पर भी अजीब तरह की हरकतें करता था, जिससे यूनिट के लोगों को बहुत परेशानी होती थी।” संजय का कहना है कि वह जॉर्ज फर्नांडीस की बायोपिक बना रहे थे, जिसमें सुशांत को लेना चाहते थे। लेकिन जब कई लोगों से सुना कि उसका मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। तो उन्होंने इरादा बदल दिया।

वैसे संजय राऊत ने अपने लेख में जो बातें लिखीं हैं, वही आरोप सुशांत सिंह के पिता ने लगाया है। केके सिंह ने अपनी तहरीर में कहा है कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत से कहा था, “अगर तुम मेरी बातें नहीं मानोगे तो मैं तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट को मीडिया में सार्वजनिक कर दूंगी और सबको बता दूंगी की तुम पागल हो गए। इसके बाद तुम्हें कोई काम नहीं देगा।” संजय राऊत ने यह स्वीकार किया है कि उन्होंने कई लोगों से सुना कि सुशांत का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है। तो उन्होंने जॉर्ज फर्नांडीस की बायोपिक पर बनने वाली फिल्म में सुशांत को लेने का इरादा बदल दिया।

वैसे सोशल मीडिया पर पोस्ट की जा रही ख़बरों, जिनका इंडिया व्यूपॉइंट पुष्टि नहीं करता, में कहा गया है कि सुशांत आत्महत्या से पहले आदित्य ठाकरे की बर्थडे पार्टी में शामिल हुए थे। पार्टी में उनकी सूरज पंचोली के साथ कोई विवाद हो गया। इस पर सुशांत ने कहा था कि उसे पता है कि सूरज पंचोली ने उनकी पूर्व मैनेजर दिशा सालियन के साथ क्या किया था। इस बात पर सलमान खान नाराज हुए थे और पार्टी में ही सुशांत को जमकर लताड़ा था। सोसल मीडिया की पोस्ट में यह भी दावा किया जा रहा है कि सूरज पंचोली दिशा सालियन को डेट कर रहे थे और दिशा दिशा प्रेग्नेंट हो गई थी सुशांत को इस बात की जानकारी थी। लिहाजा और वह दिशा की मदद करना चाहते थे। लेकिन इस बीच ख़बर आई कि दिशा ने कथित तौर पर बिल्डिंग से कूदकर आत्महत्या कर ली। कई लोग तो कह रहे हैं कि दिशा ने खुदकुशी नहीं की बल्कि उसे नीचे फेंक दिया गया था। कई लोग दिशा और सूरज का हग करते हुए फोटो पोस्ट किया है। सोशल मीडिया का निष्कर्ष यह है कि सुशांत के पास कोई बड़ा राज़ था, जिसे दबाने के लिए सुशांत की साज़िश के तहत हत्या कर दी गई।

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मुंबई देश की आर्थिक राजधानी ही नहीं बल्कि मायानगरी भी है। यह लोगों के सपने को साकार करती है। इसीलिए देश-दुनिया के कोने-कोने से लोग अपने सपने को साकार करने के लिए ही मुंबई मायानगरी में क़दम रखते हैं। या दीगर बात है कि यहां आधा फ़ीसदी से भी बहुत कम लोग अपने सपने को साकार कर पाते हैं। बाक़ी सभी जीवन भर स्ट्रल  करते रहते हैं और उनके सपने रेत के महल की तरह भरभरा कर गिरते रहते हैं और वे लोग मजबूरी में दूसरे काम करने लगते हैं, जिनसे दो जून की रोटी मिलती है।

सफल होने वाले यहां स्ट्रल करके अपना एक अगल मुकाम बनाते हैं। स्टारडम, शोहरत और कामयाबी हासिल करते हैं। धन-दौलत कमाकर अपने लिए ऐशो आराम की हर चीज़ जुटाते हैं। सुशांत सिंह भी एक सपना लेकर 2008 में मुंबई आया था। वह उन भाग्यशाली लोगों में था, जिन्हें मौक़ा मिल गया। सुशांत ने मौके को भुनाया और स्टार बन गया। उसके पास स्टारडम था, शोहरत था, वह कामयाब था, ख़ूब धन-दौलत कमाकर अपने लिए ऐशो आराम की हर चीज़ जुटा रहा था। साथ ही साथ वह स्टार से सुपरस्टार बनने की सीढ़ियां तेज़ी से चढ़ रहा था।

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इसी बीच 14 जून 2020 को अचानक वह ख़बर आई जिस पर किसी को यक़ीन ही नहीं हुआ। ख़बर यह थी कि सुशांत ने अपने ही घर की छत में लगे सीलिंग फैन से लटककर फ़ांसी लगा ली और मौत को गले लगा लिया। सबसे बड़ी बात सुशांत के क़रीबी लोगों ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने से पहले ही कहना शुरू कर दिया कि सुशांत डिप्रेशन में था, लिहाज़ा, अचानक जीवन से ऊब कर मौत को गले लगा लिया। यह थ्योरी किसी को हजम नहीं हुई। सुशांत के परिवार वाले और उसके फैन्स मानने के लिए तैयार ही नहीं हुए कि शाहरूख ख़ान की तरह बुद्धू बक्से से अभिनय का करियर शुरू करके चंद साल में ही बड़े परदे पर छा जाने वाला कलाकार अचानक अपनी ईहलीला क्योंकर ख़त्म करेगा। इसीलिए डिप्रेशन और आत्महत्या की थ्योरी किसी के गले नहीं उतर रही है।

टीवी सीरियल बेहद चर्चित सीरियल्स में से एक ‘पवित्र रिश्ता’ से अभिनय के करियर की शुरुआत करने और सफलता की सीढ़ियां चढ़ने वाले वाले सुशांत सिंह राजपूत के फैन्स जब से उसकी मौत की ख़बर सुने हैं, तब से सभी लोग बेचैन हैं और सोशल मीडिया पर केवल और केवल सीबीआई जांच की माग कर रहे हैं। लोगों के कमेंट से यह निष्कर्ष निकलता है कि उनका मन मान ही नहीं रहा है कि सुशांत ने ख़ुदकुशी कर ली। ऐसे में इस चर्चित मौत की निष्पक्ष जांच समय की मांग है।

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दिवंगत बॉलीवुड एक्टर चाहने वालों का कहना है कि कई सफल फिल्में देने के बाद सुशांत बॉलीवुड के सफल नवोदित अभिनेताओं की फेहरिस्त में थे। वह हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में एक बड़ा नाम बन चुके थे। उनके पास काम की कोई कमी नहीं थी। ऐसे में वह ख़ुद ही अपनी जीवन ख़त्म करना तो दूर, ख़त्म करने की सोच भी नहीं सकते थे। इसी बिना पर लोगों का मानना है कि सुशांत की सुनियोजित तरीक़े से हत्या की गई है। इसलिए इस एंगल पर जांच जरूरी है।

इस बीच कई घोटालों से पर्दाफाश करने वाले भाजपा के राज्य सभी सदस्य डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर उनसे आग्रह किया है कि सुशांत की मौत की सीबीआई जांच समय की मांग है। डॉ. स्वामी ने का, “जिस तरह से दुनिया के कोने-कोने में सुशांत के फैंन्स मुंबई पुलिस की जांच पर उंगली उठा रहे हैं। अस हालात में अभिनेता की मौत की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई से करना ही समीचीन होगा। इससे लोगों का हमारे सिस्टम के साथ बॉलीवुड से जो विश्वास उठा है, वह फिर से बहाल हो सकता है।

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सुशांत सिंह राजपूत के फैन्स कहते हैं कि मुंबई पुलिस जिस तरह से लेट-लतीफी और बिना कोई बयान जारी किए इस रहस्यमय मोत की जांच कर रही है और स्कॉटलैंड यार्ड के समकक्ष मानी जाने वाली मुंबई पुलिस की ओर से राज्य के गृहमंत्री अनिल देशमुख आत्महत्या की थ्योरी को ही स्टेब्लिश्ड करने के लिए तर-तरह के बयान दे रहे हैं। उससे सुशांत सिंह के चाहने वालों के मन में पैदा हुई शंका बड़ा आकार लेती जा रही है। लोग मानने लगे हैं, कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ी ज़रूर है। जो मुंबई पुलिस लोगों के संज्ञान में नहीं लाने देना चाहती।

इतना ही नहीं सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत की सीबीआई जांच लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और सांसद चिराग पासवान कर रहे हैं। वह मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मिल भी चुके हैं। उधर उपमुख्यमंत्री अजित पवार के पुत्र पार्थ पवार ने भी उद्धव ठाकरे को पत्र लिखकर केस की जांच सीबीआई से कराने की मांग कर चुके हैं। अब तो ढेर सारे लोग सामने आ रहे हैं, जिन्हें लगता है कि मुंबई पुलिस की जांच उम्मीद के मुताबिक नहीं हो रही है। इसलिए यह केस सीबीआई को सौंप दी जानी चाहिए।

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रिसर्च एंड एनालिसिस विंगं (रॉ) के पूर्व प्रमुख विक्रम सूद ने तो सीधा आरोप लगाया है कि फूलप्रूफ साजिश के तहत माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम ने सुशांत सिंह की उनके ही घर पर हत्या करवाई। यूट्यूब पर अपलोड अपने विडियो विक्रम सूद ने सुशांत के नौकर और उनके क़रीबी दोस्त संदीप सिंह को कठघरे में खड़ा किया है। उन्होंने आशंका जताई है कि संदीप ने ही कुछ लोगों के साथ मिलकर सुशांत की हत्या की होगी। ऐसे में संदीप का इंटरोगेशन बहुत ज़रूरी है, जो मुंबई पुलिस नहीं कर रही है।

दरअसल, दाऊद की पकड़ बॉलीवुड में कितने अंदर तक है इसका अंदाज़ा फिल्म ‘चोरी चोरी चुपके चुपके’ से लगाया जा सकता है। जब सलमान की यह फिल्म रिलीज हुई तो तभी खबर आईं कि इसमें दाऊद का पैसा लगा है। सलमान ख़ान का दाऊद से कनेक्शन सुर्खियों में रहा। फिल्म के निर्माता नादिम रिजवी, सह निर्माता अब्दुल रहीम अल्लाबख्श और फाइनेंसर भरत शाह मकोका के तहत गिरफ्तार कर लिए गए और बहुत लंबे समय तक जेल में रहे। इसके बाद सलमान के भी गिरफ्तारी की चर्चा हुई, लेकिन वह बाल बाल बच गए। कहा जा रहा है कि किसी सोसलाइट पार्टी में सुशांत और जिया खान आत्महत्या के केस में गिरफ्तार सूरज पंचोली के बीच तकरार हो गई थी, तो सलमान ने सुशांत को बुलाकर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी।

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इसीलिए सुशांत सिंह राजपूत की मौत से फैन्स लगातार सोशल मीडिया पर रहस्यमय हत्या की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। इस तरह की जांच की मांग करने वालों में कंगना राणवत और शेखर कपूर समेत कई सेलेब्स भी शामिल हैं। डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी का सीबीआई जांच के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखना अहम घटना है। एडवोकेट इशकरण सिंह भंडारी के अनुसार प्रधानमंत्री ने केस की सीबीआई जांच के लिए दिए गए पत्र को स्वीकार कर लिया है। इस बीच बॉलीवुड में नेपोटिज्म और फेवरेटिज्म को लेकर सेलेब्स के बीच बहस जारी है। हाल ही में सुशांत की आख़िरी फिल्म ‘दिल बेचारा’ ओटीटी प्लैटफॉर्ट पर रिलीज हुई है, जो बहुत हिट साबित हो रहा है।

सुशांत की आख़िरी फिल्म ‘दिल बेचारा’ के संगीतकार ए. आर. रहमान ने कहा है कि बॉलीवुड में एक माफिया सक्रिय है और लोगों के बारे में मीडिया झूठी अफवाहें फैला कर लोगों का करियर ख़राब करता है। आस्कर सम्मान पा चुके रहमान ने कहा है कि बॉलीवुड में उनके बारे में अफवाहें फैलाने वाला गिरोह उन्हें काम पाने से रोक रहा है। रेडियो मिर्ची से बातचीत में रहमान ने कहा, ‘मैं अच्छी फिल्मों को ना नहीं कहता, लेकिन मुझे लगता है कि एक गिरोह है, जो मेरे बारे में गलतफहमी के कारण कुछ गलत अफवाहें फैला रहा है।’

सुशांत को ब्लैकमेल कर रही थी रिया चक्रवर्ती

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अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के पिता केके सिंह के सब्र का बांध खिरकार टूट ही गया। उन्होंने बॉलीवुड स्टार की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती पर अपने बेटे को ब्लैकमेल करने का सनसनीखेज़ आरोप लगाते हुए पटना राजीवनगर थाने में रिया के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है। कहा जा रहा है कि यह प्राथमिकी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर दर्ज हुई है। इसके बाद सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत के मामले में नया मोड़ आ गया है।

पटना पुलिस ने रविवार को ही भारतीय दंड संहिता की धारा 341, 342, 380, 406, 420, 306, 506 और 120बी के तहत एफआईआर दर्ज कर ली थी और पटना पुलिस की चार सदस्सीय टीम रिया से पूछताछ करने के लिए मुंबई पहुंच चुकी है। समझा जा रहा है कि रिया किसी भी समय गिरफ़्तार हो सकती है। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र सरकार की लेटलतीफ़ी और मुंबई पुलिस की संदिग्ध जांच से असंतुष्ट नीतीश कुमार सुशांत की कथित आत्महत्या की सच्चाई सामने लाने के लिए सुशांत का साथ दे रहे हैं।

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सुशांत सिंह के पिता ने रिया चक्रवर्ती और उसके परिजनों पर भी गंभीर आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज कराया है। केके सिंह के मुताबिक रिया ने सुशांत को धोखा दिया और उसके पैसे हड़प लिए। इसके अलावा, परिवार से सुशांत को पूरी तरीके से काट दिया। केस की जांच के लिए चार सदस्सीय टीम बनाई गई है। पुलिस रिया चक्रवर्ती एवं उनकी फैमली से पूछताछ करेगी। साथ ही शक के घेरे में आए अन्य सिनेता जगत के दिग्गजों से भी पूछताछ करेगी। रिया चक्रवर्ती के खिलाफ एफआईआर सुशांत के पिता केके सिंह के बयान पर दर्ज किया गया है। बेटे की मौत के बाद से ही केके सिंह लगातार परेशान थे। उन्होंने कुछ दिनों पहले पटना पुलिस के बड़े अधिकारी से मुलाकैत करेके उनके समक्ष अपनी बात रखी थी।

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केके सिंह ने कहा कि उन्हें न तो महाराष्ट्र की सरकार पर भरोसा है और न ही मुंबई पुलिस की जांच पर। लिहाज़ा, उन्होंने सुशांत की मौत की जांच पटना पुलिस से कराने की मांग की है। पटना पुलिस के अनुसार रिया चक्रवर्ती के पर सुशांत के पिता ने बेहद गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने रिया पर सुशांत को अपने परिवार से अलग करने का भी आरोप लगाया है। केके सिंह के अनुसार रिया ने सुशांत को पूरी तरह से अपने कब्जे में कर रखा था। वह सुशांत के बैंक अकाउंट को भी मैनेज करती थी और उसने सुशांत के खाते से करोडों रुपए दूसरे खाते में ट्रांसफर करवाए। रिया ने कुछ महीने के अंदर सुशांत के अकाउंट से करीब 15 करोड़ रुपये निकाल लिए गए।

पटना के राजीव नगर के थानेदार निशांत सिंह को इस केस का जांच अधिकारी नियुक्त किया गया है। इसके बाद पटना पुलिस की तरफ से एक टीम बनाई गई। जिसमें केस के आईओ के साथ ही इंस्पेक्टर मोहम्मद कैसर आलम, मनोरंजन भारती और एक अन्य इंस्पेक्टर शामिल हैं। सीनियर अधिकारी से परमिशन मिलते ही टीम मुंबई पहुंच गई। जांच दल हर पहलू की जांच करेगा।

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दरअसल, इस मामले में सुशांत के पिता केके सिंह ने अपने आवेदन में लिखा है कि मुंबई पुलिस की जांच पर उन्हें भरोसा नही हैं. इसलिए पटना पुलिस से इस मामले में जांच करने को कहा गया है। सुशांत सिंह के पिता ने अपने बयान में कहा कि उनका बेटा सुशांत फिल्म लाइन छोड़ कर केरल में ऑर्गेनिक खेती करना चाहता था, लेकिन रिया ने इसका विरोध किया और बोली कि तुम (सुशांत) कहीं नहीं जाओगे।

सुशांत के पिता ने अपनी प्राथमिकी में सात सवाल उठाए हैं। ये सवाल सोचने पर मजबूर कर देते हैं, कि वाकई रिया चक्रवर्ती ने सुशांत का मानसिक और आर्थिक शोषण किया। उन्होंने अपनी शिकायत में कहा कि रिया से मिलने से पहले सुशांत मानसिक रूप से ठीक था। आखिर ऐसा क्या हुआ कि रिया के संपर्क में आने के बाद सुशांत मानसिक रूप से डिस्टर्ब हो गया? केके सिंह ने अपनी शिकायत में कहा कि रिया ने सुशांत पर अपना मोबाइल नंबर बदलने के लिए दबाव बनाया था ताकि वह अपने करीबी लोगों से बात न कर सके। रिया यहीं नहीं रुकी, बल्कि उसने सुशांत के करीबी स्टाफ को भी बदला दिया।

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केके सिंह ने पत्र में कहा है, रिया चक्रवर्ती ने सुशांत से कहा कि अगर तुमने मेरी बातें नहीं मानोगे तो मैं तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट को मीडिया में सार्वजनिक कर दूंगी और सबको बता दूंगी की तुम पागल हो गए। इसके बाद तुम्हें कोई काम नहीं देगा। जब रिया को लगा कि सुशांत उसकी बात नहीं मान रहा है, उसका बैंक बैलेंस भी बहुत कम रह गया है, तो रिया ने सोचा कि अब सुशांत किसी काम का नहीं है। लिहाजा, 8 जून को रिया चक्रवर्ती सुशांत के घर से सामान, कैश, जेवरात, लैपटॉप, क्रेडिट कार्ड, दूसरे दस्तावेज, उपचार के सारे कागजात लेकर चली गई।

सुशांत सिंह के पिता ने प्राथमिकी में कहा, “घर से जाने के बाद रिया ने मेरे बेटे सुशांत का फोन नंबर ब्लॉक कर दिया। इसके बाद सुशांत ने अपनी बहन (मेरी बेटी) को फोन करके बताया कि रिया मुझे कहीं फंसा देगी, वह यहां से काफी सामान लेकर चली गई है और मुझे धमकी देकर गई है कि अगर तुमने मेरी बात नहीं मानीं तो तुम्हारे इलाज के सारे कागज मीडिया को दे दूंगी।” मिली जानकारी के मुताबिक पटना के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक उपेंद्र शर्मा ने राजीव नगर थाना प्रभारी को केस का जांच अधिकारी बनाया गया।

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रिया चक्रवर्ती के खिलाफ एफआईआर का विवरण

  • एफआईआर में आरोप लगाया गया कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत से पैसे लिए और उसे आत्महत्या करने पर मजबूर किया।
  • दिवंगत अभिनेता के पिता ने यह भी दावा किया कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत का आर्थिक शोषण किया और बेटे को अपने ही परिवार से दूर कर दिया।
  • सुशांत के पिता ने रिया पर आरोप लगाया कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत के विश्वास को तोड़ दिया, उसे धोखा दिया और अभिनेता को आत्महत्या करने के लिए उकसाया।
  • दिवंगत अभिनेता के पिता ने यह भी दावा किया है कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत को उसकी मानसिक बीमारी के विवरण सार्वजनिक करके मीडिया में लाने की धमकी दी थी।
  • सुशांत के पिता ने दावा किया है कि रिया चक्रवर्ती ने सुशांत की सफलता का इस्तेमाल अपने बॉलीवुड करियर को आगे बढ़ाने के लिए एक सीढ़ी के रूप में कर रही थी।
  • दिवंगत अभिनेता के पिता ने एफआईआर में आरोप लगाया है कि रिया चक्रवर्ती सुशांत के डेबिट और क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करती थी और उसने सुशांत का आर्थिक शोषण किया।