देश को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए लंबा आंदोलन चला। जहां महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चला तो सरदार भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रेशेखर आज़ाद के नेतृत्व में हिंसक आंदोलन भी चलता रहा। देश के लिए अहिंसक आंदोलन चलाने वालों ने स्वतंत्रता का सुख भोगा। मसलन, महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा मिला तो जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। लेकिन देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वोच्च बलिदान यानी अपनी जान दे देने वालों को कुछ भी नहीं मिला। इसलिए आज़ाद भारत का नागरिक होने के कारण हम सब का नैतिक दायित्व है कि उन श्रद्धेय लोगों को याद करें और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करें। इसी क्रम में चर्चा करते हैं, दुनिया भर में मशहूर काकोरी कांड का जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल समेत चार क्रांतिकारी भारत माता की जय कहते हुए फ़ांसी के फंदे पर झूल गए थे।
देश के आम नागरिक हर साल 9 अगस्त को अगस्त क्रांति की सालगिरह मनाते समय यह कह देते हैं कि अंग्रज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का आयोजन काकोरी कांड की वर्षगांठ पर किया गया था। काकोरी कांड के बारे में इससे ज़्यादा आम लोग कुछ न जानते हैं और न ही कोई चर्चा करते हैं। तो आइए जाने क्या था कोकोरी कांड और दुनिया भर में यह इतना अधिक चर्चित क्यों हुआ?
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में काकोरी कांड स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। क्रांतिकारियों ने इस घटना को अंजाम देकर अंग्रेजों के विरुद्ध नई क्रांति के बिगुल फूंक दिया था। 10 क्रांतिकारियों ने उस समय तो केवल 4600 रुपए लूटा था। लेकिन उस घटना से उन शहीदों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव को किस कद्र हिला दिया था, क्रांतिकारियों को पकडऩे के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने, मुक़दमा चलाने और फांसी देने में तक़रीबन 10 लाख रुपये खर्च किए थे।
दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक गरज से हथियार खरीदने हेतु ब्रिटिश सरकार का खजाना लूट लेने की चर्चित घटना को 9 अगस्त 1925 को अंजाम दिया गया। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाए गए थे। इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुंदा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को परिणाम दिया था।
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अंग्रेजी सत्ता ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन के कुल 40 क्रांतिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने और यात्रियों की हत्या का मुक़दमा चलाया जिसमें राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान तथा ठाकुर रोशन सिंह को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई। इस प्रकरण में 16 अन्य क्रांतिकारियों को न्यूनतम 4 वर्ष और अधिकतम काला पानी की सज़ा हुई।
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आंदोलन के लिए धन की ज़रूरत और अधिक बढ़ गई। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी और 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियां डालीं तो परंतु उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका। दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल को बहुत ग्लानि हुई। उन्होंने निश्चय किया कि अब केवल सरकारी खजाना ही लूटा जाएगा। हिंदुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल नहीं डालेंगे।
क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन की जरूरत थी। 8 अगस्त शाहजहांपुर की बैठक में राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेज सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई। योजनानुसार 9 अगस्त 1925 को बिस्मिल के साथ अशफाक उल्ला खान, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेंद्र लाहिडी, शचींद्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, चंद्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त और मुकुंदी लाल लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। लाहिडी ने चेन खींचकर रोका और क्रांतिकारियों लोगों ने सरकारी खजाना लूट लिया।
क्रांतिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुंदा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की एके 47 रायफल की तरह खौफनाक होते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और रक्षक के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की प्रयास किया गया किंतु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।
मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश यात्री का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के यात्री को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चांदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बांधकर वहां से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन समाचार पत्रों के माध्यम से यह समाचार पूरे संसार में फैल गया। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गंभीरता से लिया। उधर इस घटना उत्साहित जनता की क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति और गहरी हो गई थी। जिससे क्रांतिकारियों को पकड़ने में पुलिस को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी आरए हार्टन को इस घटना की विवचेना का इंचार्ज बनाया गया। आठ डाउन ट्रेन के यात्रियों के बयान और घटना के स्वरूप को देख हार्टन को शुरू से ही यह समझ में आ गया था कि, इस घटना को क्रांतिकारियों ने ही अंजाम दिया है।
खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और जांच पड़ताल करके ब्रिटिश सरकार को बताया कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रांतिकारियों की सुनियोजित साज़िश थी। पुलिस ने काकोरी कांड के संबंध में जानकारी देने और षड़यंत्र में शामिल व्यक्तियों के जानकारी देने के लिए पांच हज़ार रुफए पुरस्कार की घोषणा की। यह विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिए जिसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल से बरामद चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि वह शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहांपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साथी बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने डकैती का सारा भेद ले लिया। यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त की शाहजहांपुर बैठक के सिलसिले आने-जाने वालों का ब्यौरा प्राप्त कर लिया। जब खुफिया तौर से डकैती में शामिल होने पुष्टि होने पर बिस्मिल समते 40 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई।
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26 सितंबर को पूरे देश में गिरफ्तारियों का दौर चला। राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, प्रेम किशन खन्ना, हरगोविंद और तीन अन्य लोग शाहजहांपुर से पकड़े गए। सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, दामोदर स्वरूप सेठ, मन्मथनाथ गुप्त, राम नाथ पांडेय और दो अन्य लोग बनारस से गिरफ्तार किए गए। गोविंद चरण कर और शचींद्रनाथ सान्याल लखनऊ से बंदी बनाए गए तो कानपुर से राम दुलारे त्रिवेदी को पुलिस ने उठाया। इसी तरह सारे आरोपी पकड़ लिए गए। सभी को लखनऊ जिला जेल लगाया गया। गिरफ्तारियों की भनक लगते ही अशफाक उल्ला खान और शचींद्रनाथ बख्शी फरार हो गए। जबकि, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी बम बनाने का प्रशिक्षण लेने के बाद कलकत्ता चले गए थे। पर जल्द ही वह आठ अन्य क्रांतिकारियों के साथ पड़के गए। स्वामी गोविंद प्रकाश उर्फ श्री राम कृष्ण खत्री को 18 अक्टूबर को पूणे से गिरफ्तार किया गया। बाद में फरार क्रांतिकारियों में से अशफाक उल्ला खान को दिल्ली से और शचींद्रनाथ बख्शी को भागलपुर से गिरफ़्तार किया गया। फरार योगेशचंद्र चटर्जी और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर पहले ही गिरफ्तार किर लिए गए थे। काकोरी षड़यंत्र के सभी आरोपी लखनऊ जेल में थे।
पहले इनके खिलाफ मुकदमा दिसंबर 1925 से अगस्त 1927 तक लखनऊ के रोशनद्दौला कचहरी में चला। इसके बाद रिंक थियेटर में मुकदमे की सुनवाई हुई। काकोरी षडयंत्र केस और पूरक केस। इस मुकदमे में एक खासबात यह थी कि इसमें उन केसों को भी शामिल कर लिया गया, जिनका काकोरी कांड से कोई संबंध नहीं था। मसलन 25 दिसंबर 1924 को पीलीभीत के बमरौला गांव , 9 मार्च 1925 को बिचुरी गांव और 24 मई 1925 को प्रतापगढ़ के द्वारकापुर गांव में किए गए एक्शन को भी मुक़दमे में शामिल कर लिया गया। कई गिरफ्तार क्रांतिकारी काकोरी कांड की घटना में शामिल नहीं थे, पर उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया।
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मुक़दमा चल रहा था इसी दौरान बसंत पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रांतिकारियों ने मिलकर तय किया कि बसंत पंचमी के दिन सब लोग पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर अदालत जाएंगे। इसके लिए बिस्मिल ने जोशीली कविता ‘मेरा रँग दे बसंती चोला….’ लिखी। मजेदार बात यह है कि ये लोग जब अदालत ले जाए जाते थे तब आते जाते और अदालत में सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है… गाते थे। इससे जज बहुत चिढ़ता था।
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काकोरी कांड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। जगत नारायण मुल्ला सरकारी वकील बनाए गए थे। वह अच्छे शायर भी थे। उन्होंने जिरह के दौरान आरोपियों के लिए ‘मुल्जिमान’ की जगह ‘मुलाजिम’ शब्द बोल दिया। इस पर बिस्मिल ने चुटकी ली और कहा, ‘मुलाजिम हमको मत कहिए, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहां तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आंधियों में भी चिराग अक्सर जलाए हैं।’ उनका आशय था, मुलाजिम बिस्मिल और अन्य नहीं, बल्कि मुल्ला हैं जिन् सरकार से वेतन मिलता है। वे लोग तो राजनीतिक बंदी हैं, लिहाज़ा, उनके साथ तमीज से पेश आया जाए। मुल्ला को पसीने छूट गए। चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिए।
बिस्मिल की सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गई। मुल्ला ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। लिहाज़ा, अदालत ने बिस्मिल की ख़ुद अपनी पैरवी करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद बिस्मिल ने 76 पेज की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिस पर जजों ने आशंका जताई कि इसे बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवाई है। अंततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गई जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह अदालत और मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।
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22 अगस्त 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को फ़ासी और शचींद्र सान्याल को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई। अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर जंगल की आग की तरह समूचे देश में फैल गई। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल में काकोरी कांड के चारो मृत्युदंड प्राप्त कैदियों की सजाए कम करके उम्र-कैद में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। सेंट्रल कॉउंसिल के 78 सदस्यों ने वायसराय एडवर्ड फ्रेडरिक लिंडले वुड ज्ञापन दिया। उस पर प्रमुख रूप से मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एनसी केलकर, लाला लाजपत राय, गोविंद वल्लभ पंत के हस्ताक्षर थे किंतु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।
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बाद में मालवीय के नेतृत्व में पांच व्यक्तियों का प्रतिनिधि मंडल वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूंकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किए पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किंतु वायसराय ने फिर साफ मना कर दिया।
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अंततः बैरिस्टर मोहनलाल सक्सेना ने प्रिवी कॉउंसिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैंड के मशहूर वकील एसएल पोलक के पास भिजवाए, किंतु लंदन के न्यायाधीशों और सम्राट के सलाहकारों ने दलील दी कि इस षड़यंत्र का सूत्रधार रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर कांड कर सकता है। उस स्थिति में ब्रिटिश सरकार को हुकूमत करना असंभव हो जाएगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि क्षमादान की अपील भी खारिज हो गई।
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अंतिम दिनों में बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया। 16 दिसंबर 1927 उन्होंने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूरा करके जेल से बाहर भिजवा दिया। १८ दिसबर को माता-पिता से अंतिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसंबर 1927 सुबह 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर जिला जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। यह समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में लोग जेल के सामने जुट गए। जेल का मुख्य द्वार बंद ही रखा गया और फांसी घर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया।