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क्या आप जानते हैं, क्या था काकोरी कांड?

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देश को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए लंबा आंदोलन चला। जहां महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसक आंदोलन चला तो सरदार भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल और चंद्रेशेखर आज़ाद के नेतृत्व में हिंसक आंदोलन भी चलता रहा। देश के लिए अहिंसक आंदोलन चलाने वालों ने स्वतंत्रता का सुख भोगा। मसलन, महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा मिला तो जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री बने। लेकिन देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वोच्च बलिदान यानी अपनी जान दे देने वालों को कुछ भी नहीं मिला। इसलिए आज़ाद भारत का नागरिक होने के कारण हम सब का नैतिक दायित्व है कि उन श्रद्धेय लोगों को याद करें और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करें। इसी क्रम में चर्चा करते हैं, दुनिया भर में मशहूर काकोरी कांड का जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल समेत चार क्रांतिकारी भारत माता की जय कहते हुए फ़ांसी के फंदे पर झूल गए थे।

देश के आम नागरिक हर साल 9 अगस्त को अगस्त क्रांति की सालगिरह मनाते समय यह कह देते हैं कि अंग्रज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का आयोजन काकोरी कांड की वर्षगांठ पर किया गया था। काकोरी कांड के बारे में इससे ज़्यादा आम लोग कुछ न जानते हैं और न ही कोई चर्चा करते हैं। तो आइए जाने क्या था कोकोरी कांड और दुनिया भर में यह इतना अधिक चर्चित क्यों हुआ?

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स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में काकोरी कांड स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। क्रांतिकारियों ने इस घटना को अंजाम देकर अंग्रेजों के विरुद्ध नई क्रांति के बिगुल फूंक दिया था। 10 क्रांतिकारियों ने उस समय तो केवल 4600 रुपए लूटा था। लेकिन उस घटना से उन शहीदों ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव को किस कद्र हिला दिया था, क्रांतिकारियों को पकडऩे के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने, मुक़दमा चलाने और फांसी देने में तक़रीबन 10 लाख रुपये खर्च किए थे।

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दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों द्वारा ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर युद्ध छेड़ने की खतरनाक गरज से हथियार खरीदने हेतु ब्रिटिश सरकार का खजाना लूट लेने की चर्चित घटना को 9 अगस्त 1925 को अंजाम दिया गया। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाए गए थे। इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुंदा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन के केवल दस सदस्यों ने इस पूरी घटना को परिणाम दिया था।

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अंग्रेजी सत्ता ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन के कुल 40 क्रांतिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने और यात्रियों की हत्या का मुक़दमा चलाया जिसमें राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान तथा ठाकुर रोशन सिंह को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई। इस प्रकरण में 16 अन्य क्रांतिकारियों को न्यूनतम 4 वर्ष और अधिकतम काला पानी की सज़ा हुई।

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आंदोलन के लिए धन की ज़रूरत और अधिक बढ़ गई। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी और 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियां डालीं तो परंतु उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका। दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारा गया। इससे बिस्मिल को बहुत ग्लानि हुई। उन्होंने निश्चय किया कि अब केवल सरकारी खजाना ही लूटा जाएगा। हिंदुस्तान के किसी भी रईस के घर डकैती बिल्कुल नहीं डालेंगे।

क्रांतिकारी आंदोलन के लिए धन की जरूरत थी। 8 अगस्त शाहजहांपुर की बैठक में राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेज सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई। योजनानुसार 9 अगस्त 1925 को बिस्मिल के साथ अशफाक उल्ला खान, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेंद्र लाहिडी, शचींद्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती, चंद्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त और मुकुंदी लाल लखनऊ के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। लाहिडी ने चेन खींचकर रोका और क्रांतिकारियों लोगों ने सरकारी खजाना लूट लिया।

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क्रांतिकारियों के पास पिस्तौलों के अतिरिक्त जर्मनी के बने चार माउजर भी थे जिनके बट में कुंदा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित रायफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता भी अधिक होती थी उन दिनों ये माउजर आज की एके 47 रायफल की तरह खौफनाक होते थे। लखनऊ से पहले काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और रक्षक के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो उसे खोलने की प्रयास किया गया किंतु जब वह नहीं खुला तो अशफाक उल्ला खाँ ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए।

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मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश यात्री का ट्रैगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के यात्री को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चांदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बांधकर वहां से भागने में एक चादर वहीं छूट गई। अगले दिन समाचार पत्रों के माध्यम से यह समाचार पूरे संसार में फैल गया। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गंभीरता से लिया। उधर इस घटना उत्साहित जनता की क्रांतिकारियों के प्रति सहानुभूति और गहरी हो गई थी। जिससे क्रांतिकारियों को पकड़ने में पुलिस को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा था। खुफिया विभाग के एक वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारी आरए हार्टन को इस घटना की विवचेना का इंचार्ज बनाया गया। आठ डाउन ट्रेन के यात्रियों के बयान और घटना के स्वरूप को देख हार्टन को शुरू से ही यह समझ में आ गया था कि, इस घटना को क्रांतिकारियों ने ही अंजाम दिया है।

खुफिया प्रमुख खान बहादुर तसद्दुक हुसैन ने पूरी छानबीन और जांच पड़ताल करके ब्रिटिश सरकार को बताया कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रांतिकारियों की सुनियोजित साज़िश थी। पुलिस ने काकोरी कांड के संबंध में जानकारी देने और षड़यंत्र में शामिल व्यक्तियों के जानकारी देने के लिए पांच हज़ार रुफए पुरस्कार की घोषणा की। यह विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिए जिसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल से बरामद चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चल गया कि वह शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। शाहजहांपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बिस्मिल के साथी बनारसीलाल से मिलकर पुलिस ने डकैती का सारा भेद ले लिया। यह भी पता चल गया कि 9 अगस्त की शाहजहांपुर बैठक के सिलसिले आने-जाने वालों का ब्यौरा प्राप्त कर लिया। जब खुफिया तौर से डकैती में शामिल होने पुष्टि होने पर बिस्मिल समते 40 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई।

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26 सितंबर को पूरे देश में गिरफ्तारियों का दौर चला। राम प्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह, प्रेम किशन खन्ना, हरगोविंद और तीन अन्य लोग शाहजहांपुर से पकड़े गए। सुरेश चंद्र भट्टाचार्य, दामोदर स्वरूप सेठ, मन्मथनाथ गुप्त, राम नाथ पांडेय और दो अन्य लोग बनारस से गिरफ्तार किए गए। गोविंद चरण कर और शचींद्रनाथ सान्याल लखनऊ से बंदी बनाए गए तो कानपुर से राम दुलारे त्रिवेदी को पुलिस ने उठाया। इसी तरह सारे आरोपी पकड़ लिए गए। सभी को लखनऊ जिला जेल लगाया गया। गिरफ्तारियों की भनक लगते ही अशफाक उल्ला खान और शचींद्रनाथ बख्शी फरार हो गए। जबकि, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी बम बनाने का प्रशिक्षण लेने के बाद कलकत्ता चले गए थे। पर जल्द ही वह आठ अन्य क्रांतिकारियों के साथ पड़के गए। स्वामी गोविंद प्रकाश उर्फ श्री राम कृष्ण खत्री को 18 अक्टूबर को पूणे से गिरफ्तार किया गया। बाद में फरार क्रांतिकारियों में से अशफाक उल्ला खान को दिल्ली से और शचींद्रनाथ बख्शी को भागलपुर से गिरफ़्तार किया गया। फरार योगेशचंद्र चटर्जी और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी दक्षिणेश्वर पहले ही गिरफ्तार किर लिए गए थे। काकोरी षड़यंत्र के सभी आरोपी लखनऊ जेल में थे।

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पहले इनके खिलाफ मुकदमा दिसंबर 1925 से अगस्त 1927 तक लखनऊ के रोशनद्दौला कचहरी में चला। इसके बाद रिंक थियेटर में मुकदमे की सुनवाई हुई। काकोरी षडयंत्र केस और पूरक केस। इस मुकदमे में एक खासबात यह थी कि इसमें उन केसों को भी शामिल कर लिया गया, जिनका काकोरी कांड से कोई संबंध नहीं था। मसलन 25 दिसंबर 1924 को पीलीभीत के बमरौला गांव , 9 मार्च 1925 को बिचुरी गांव और 24 मई 1925 को प्रतापगढ़ के द्वारकापुर गांव में किए गए एक्शन को भी मुक़दमे में शामिल कर लिया गया। कई गिरफ्तार क्रांतिकारी काकोरी कांड की घटना में शामिल नहीं थे, पर उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया।

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मुक़दमा चल रहा था इसी दौरान बसंत पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रांतिकारियों ने मिलकर तय किया कि बसंत पंचमी के दिन सब लोग पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर अदालत जाएंगे। इसके लिए बिस्मिल ने जोशीली कविता ‘मेरा रँग दे बसंती चोला….’ लिखी। मजेदार बात यह है कि ये लोग जब अदालत ले जाए जाते थे तब आते जाते और अदालत में सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है… गाते थे। इससे जज बहुत चिढ़ता था।

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काकोरी कांड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। जगत नारायण मुल्ला सरकारी वकील बनाए गए थे। वह अच्छे शायर भी थे। उन्होंने जिरह के दौरान आरोपियों के लिए ‘मुल्जिमान’ की जगह ‘मुलाजिम’ शब्द बोल दिया। इस पर बिस्मिल ने चुटकी ली और कहा, ‘मुलाजिम हमको मत कहिए, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहां तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आंधियों में भी चिराग अक्सर जलाए हैं।’ उनका आशय था, मुलाजिम बिस्मिल और अन्य नहीं, बल्कि मुल्ला हैं जिन् सरकार से वेतन मिलता है। वे लोग तो राजनीतिक बंदी हैं, लिहाज़ा, उनके साथ तमीज से पेश आया जाए। मुल्ला को पसीने छूट गए। चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिए।

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बिस्मिल की सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गई। मुल्ला ने सरकारी वकील की हैसियत से पैरवी करने में आनाकानी की। लिहाज़ा, अदालत ने बिस्मिल की ख़ुद अपनी पैरवी करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद बिस्मिल ने 76 पेज की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की जिस पर जजों ने आशंका जताई कि इसे बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवाई है। अंततोगत्वा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गई जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। यह अदालत और मुल्ला की मिली भगत से किया गया। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लडने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती।

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22 अगस्त 1927 को रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को फ़ासी और शचींद्र सान्याल को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई। अवध चीफ कोर्ट का फैसला आते ही यह खबर जंगल की आग की तरह समूचे देश में फैल गई। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेंट्रल लेजिस्लेटिव कॉउंसिल में काकोरी कांड के चारो मृत्युदंड प्राप्त कैदियों की सजाए कम करके उम्र-कैद में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। सेंट्रल कॉउंसिल के 78 सदस्यों ने वायसराय एडवर्ड फ्रेडरिक लिंडले वुड ज्ञापन दिया। उस पर प्रमुख रूप से मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एनसी केलकर, लाला लाजपत राय, गोविंद वल्लभ पंत के हस्ताक्षर थे किंतु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।

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बाद में मालवीय के नेतृत्व में पांच व्यक्तियों का प्रतिनिधि मंडल वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूंकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किए पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किंतु वायसराय ने फिर साफ मना कर दिया।

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अंततः बैरिस्टर मोहनलाल सक्सेना ने प्रिवी कॉउंसिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज तैयार करके इंग्लैंड के मशहूर वकील एसएल पोलक के पास भिजवाए, किंतु लंदन के न्यायाधीशों और सम्राट के सलाहकारों ने दलील दी कि इस षड़यंत्र का सूत्रधार रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। उसे यदि क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर कांड कर सकता है। उस स्थिति में ब्रिटिश सरकार को हुकूमत करना असंभव हो जाएगा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि क्षमादान की अपील भी खारिज हो गई।

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अंतिम दिनों में बिस्मिल को गोरखपुर जेल में रखा गया। 16 दिसंबर 1927 उन्होंने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूरा करके जेल से बाहर भिजवा दिया। १८ दिसबर को माता-पिता से अंतिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसंबर 1927 सुबह 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर जिला जेल में उन्हें फांसी दे दी गई। यह समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में लोग जेल के सामने जुट गए। जेल का मुख्य द्वार बंद ही रखा गया और फांसी घर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उनका अंतिम संस्कार कर दिया।

‘अगस्त क्रांति’ ही बनी देश के विभाजन की वजह

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मोहनदास करमचंद गांधी के आह्वान पर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 9 अगस्त 1942 को शुरू हुए भारत छोड़ो आंदोलन को ‘अगस्त क्रांति’ के नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन का लक्ष्य भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकना था। भारत छोड़ो आंदोलन सही मायने में जन-आंदोलन था जिसमें लाखों आम हिंदुस्तानी शामिल थे। इस आंदोलन ने युवाओं को बड़ी संख्या में अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपने कॉलेज छोड़कर जेल का रास्ता अपनाया। जहां इस आंदोलन से देश के लोगों को अंग्रज़ों से लड़ने की प्रेरणा मिली वहीं, इस आंदोलन का नतीजा बहुत भयावह हुआ, जो 1947 में देश के विभाजन का कारण बना।

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क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद गांधी जी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ तीसरा बड़ा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला लिया। उनके नेतृत्व में हुए इस आंदोलन से ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिल गईं। यह आंदोलन अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के बंबई अधिवेशन में शुरू किया गया। गांधी जी के आह्वान पर ग्वालिया टैंक मैदान पर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का प्रस्ताव पारित किया। यह भारत को तुरंत आजाद करने के लिए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक सविनय अवज्ञा आंदोलन था। भारत छोड़ो आंदोलन का आगाज दरअसल, अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ जनभावना का प्रतीक था।

ग्वालिया टैंक मैदान में गांधी जी का भाषण यादगार रहा। उन्होंने पहली बार आजादी के लिए कोशिश करने या फिर मर जाने की बात कही थी। गांधीजी ने कहा था, “मैं एक मंत्र देना चाहता हूं, जिसे आप सभी लोग अपने दिल में उतार लें और वह मंत्र ‘करो या मरो’ का है।” वहां मौजूद हर एक देशप्रेमी के दिल में भारत देश को आजाद कराने की भावना सातवें आसमान पर पहुंच गई थी। यहीं से सविनय अवज्ञा की शुरुआत हुई। लोग इस बात पर राजी हो गए कि अगर अंग्रेजी हुकूमत हमारी शर्तें नहीं मानेगी तो हम उसका ऑर्डर नहीं मानेंगे। यहां मुख्य शर्त ही सत्ता भारत के लोगों को सौंपने की थी, जो अंग्रेज करना नहीं चाहते थे।

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दरअसल, विश्व युद्ध में इंग्लैंड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। गांधी जी ने मौके की नजाकत को भांपते हुए 8 अगस्त की शाम ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ व भारतीयों को ‘करो या मरो’ का नारा दिया। वस्तुतः 9 अगस्त 1925 को ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में काकोरी की घटना हुई थी। उसकी यादगार ताजा रखने के लिए पूरे देश में हर साल 9 अगस्त को काकोरी कांड स्मृति-दिवस मनाने की परंपरा भगत सिंह ने शुरू की थी, क्योंकि इस दिन बिना बुलाए ही बहुत बड़ी संख्या में नौजवान एकत्र हो जाते थे। गांधी जी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत 9 अगस्त का दिन चुना था।

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बहरहाल, 9 अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू हो गया। बड़ी संख्या में लोग गवालिया टैंक मैदान पर इकट्टा हुए। अंग्रेजों ने आंदोलन को दबाने के लिए गिरफ्तारियां कीं। हजारों लोगों को जेल में डाल दिया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य 9 अगस्त को सुबह से पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे। कांग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दी गई। गांधी जी के साथ सरोजिनी नायडू यरवदा पुणे के आगा खान पैलेस, डॉ राजेंद्र प्रसाद पटना जेल और जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद समेत अन्य सभी सदस्यों को अहमदनगर के किले में नजरबंद किया गया था।

अंग्रेजी हुकूमत इतना डर गई थी कि उसने एक भी नेता को जेल से बाहर नहीं रहने दिया। अंग्रेजों की सोच थी कि बड़े नेताओं की गिरफ्तारी से आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा। लेकिन नेताओं की गिरफ्तारी के बाद लोगों ने ख़ुद आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। कांग्रेस में जयप्रकाश नारायण भूमिगत रहकर आंदोलन की गतिविधियों में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। इस आंदोलन को लालबहादुर शास्त्री सरीखे एक छोटे से व्यक्ति ने प्रचंड रूप दे दिया। आंदोलन देश के अलग अलग हिस्सों में फैलता गया। हालांकि यह आंदोलन पूरी तरह अंहिसक था, लेकिन आंदोलन के दौरान कई जगह आंदोलनकारियों ने रेलवे स्टेंशनों, पुलिस स्टेशनों सरकारी भवनों को निशाना बनाया गया।

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देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के ज़रिए आंदोलन चलाते रहे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस आंदोलन के दौरान हुई झड़प और गोलीबारी में 940 लोग मारे गए, 1630 लोग घायल हुए, 1800 लोग डीआईआर में नजरबंद हुए और 60229 लोग गिरफ्तार किए गए। ब्रिटिश सरकार ने हिंसा के लिए कांग्रेस और गांधी जी को जिम्मेदार ठहराया, लेकिन पर लोग अहिंसक तौर पर भी आंदोलन करते रहे। 19 अगस्त,1942 को शास्त्री भी गिरफ्तार कर लिए गए।

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कई जगह तो आंदोलन में शामिल लोगों ने स्वतंत्र सरकार, प्रतिसरकार का गठन कर लिया। उत्तर प्रदेश का बलिया, महाराष्ट्र का सतारा और अविभाजित बंगाल का हजारा आंदोलन के अहम केंद्र थे। बलिया में चित्तू पांडे की अगुवाई में स्वतंत्र सरकार का गठन हुआया। मेदिनीपुर और सतारा जिले में भी प्रतिसरकार की स्थापना कर दी गई थी। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया फ़िर भी इस विद्रोह को दबाने में सरकार को साल भर से ज्यादा समय लग गया।

इस आंदोलन का नकारात्मक पहलू यह रहा कि जब कांग्रेस नेता दो से तीन साल के लिए नजरबंद हुए तो मुस्लिम लीग को अपना जनाधार बड़ाने के मौका मिल गया। जो अंततः विभाजन का कारण बना। जिस दौरान कांग्रेस के नेता जेल में थे उसी समय मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के उनके साथी अपना प्रभाव क्षेत्र फ़ैलाने में लगे थे। इसी दौरान लीग को पंजाब और सिंध में अपनी पहचान बनाने का मौका मिला जहां तब तक उसका कोई खास वजूद नहीं था। कुल मिलाकर मुस्लिम लीग ने इस अवसर को ज़बरदस्त तरीक़े से भुनाया और लोगों, खासकर मुसलमानों को समझाने में सफल रही कि उनका हित पाकिस्तान बनने पर ही सुरक्षित रहेगा। बहरहाल, जून 1944 में जब विश्व युद्ध समाप्ति की ओर था तो गांधी जी को रिहा कर दिया गया। जेल से निकलने के बाद उन्होंने कांग्रेस और लीग के बीच फ़ासले को पाटने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना के साथ कई बार बातचीत की। लेकिन जिन्ना ने उनकी एक नहीं सुनी।

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पूरे देश में ऐसा माहौल बन गया कि भारत छोड़ो आंदोलन अब तक का सबसे विशाल आंदोलन साबित हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन का असर यह हुआ कि अंग्रेजों को लगने लगा कि अब उनका सूरज अस्त होने वाला है। पांच साल बाद 15 अगस्त 1947 को वो दिन आया जब अंग्रजों का प्रतीक यूनियन जैक इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है। बाद में ग्वालिया टैंक मैदान को अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाने लगा। 1945 में ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह सरकार भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में थी। उसी समय वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों के बीच कई बैठकों का आयोजन किया।

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1946 की शुरुआत में प्रांतीय विधान मंडलों के लिए नए सिरे से चुनाव कराए गए। सामान्य श्रेणी में कांग्रेस को भारी सफ़लता मिली। मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटों पर मुस्लिम लीग को भारी बहुमत मिला। राजनीतिक ध्रुवीकरण पूरा हो चुका था। 1946 की गर्मियों में कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को ऐसी संघीय व्यवस्था पर राज़ी करने का प्रयास किया जिसमें भारत के भीतर विभिन्न प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी जा सके।

कैबिनेट मिशन का यह प्रयास भी विफ़ल रहा। वार्ता टूट जाने के बाद जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए लीग की मांग के समर्थन में 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एंक्शन डे का आह्वान किया। उसी दिन कलकत्ता में खूनी संघर्ष शुरू हो गया। हिंसा कलकत्ता से ग्रामीण बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत और पंजाब तक फ़ैल गई। फ़रवरी 1947 में वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन वायसराय बनाए गए। उन्होंने सुलह कराने की कोशिश की लेकिन विफल रहे। लिहाज़ा, उन्होंने ऐलान कर दिया कि ब्रिटिश भारत को स्वतंत्रता दे दी जाएगी लेकिन उसका विभाजन भी होगा। औपचारिक सत्ता हस्तांतरण के लिए 15 अगस्त का दिन नियत किया गया। उस दिन भारत के विभिन्न भागों में लोगों ने जमकर खुशियां मनायीं। दिल्ली में जब संविधान सभा के अध्यक्ष ने गांधी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि देते हुए संविधान सभा की बैठक शुरू की तो बहुत देर तक करतल ध्वनि होती रही। असेंबली के बाहर भीड़ महात्मा गाँधी की जय के नारे लगा रही थी।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मोदी का अंधविरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा क्यों?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा कट्टरपंथी मुसलमानों के निशाने पर रहते हैं। यह सिलसिला जब तब से शुरू हुआ, जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री बनें और वहां 2002 भयानक दंगा हुआ। 18 साल पहले शुरू हुआ मोदी विरोध का सिलसिला अभी तक जारी है। दंगे या पक्षपात के आरोप समय-समय पर नेताओं पर लगते रहे हैं, लेकिन किसी नेता का इतने लंबे समय तक विरोध नहीं हुआ। मज़ेदार बात यह रही कि मुसलमानों का मोदी-विरोध नरेद्र मोदी के लिए शुभ साबित हुआ है। जब से मुसलमानों ने मोदी का विरोध करना शुरू किया है। तब से उनका राजनीतिक सफ़र आरोह क्रम में है। मुसलमानों के तीव्र विरोध के बावजूद वह लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रहे और दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने हैं।

अपने देश में नरेंद्र मोदी विरोध का आलम यह है कि अभी जब वह अयोध्या में भगवान राम के निर्माण की आधार शिला रखने के लिए अयोध्या जा रहे थे, तब भी ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने उनका भारी विरोध किया और यह भी कहा कि यह देश के प्रधानमंत्री पद की अवमानना है। अगर सोशल मीडिया या वॉट्सअप या दूसरे मेसेंजर्स पर पोस्ट हो रहे लेखों, विचारों या दूसरी सामग्रियों के कंटेंट पर गौर करें, तो एक तरफ़ से सारे मुसलमान नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहते हैं। केवल वही मुसलमान मोदी का समर्थन करते हैं, जो किसी न किसी तरह भाजपा या भाजपा नेताओं से जुड़े होते हैं। बाक़ी सब मोदी विरोधी खेमे में ही खड़े नज़र आ रहे हैं। चाहे अनपढ़ मजदूर मुसलमान हों या फिर उच्च शिक्षित मुस्लिम बुद्धिजीवी, चाहे राजनेता हों अथवा सामाजिक कार्यकर्ता, एक तरफ़ से सब के सब मोदी विरोध का परचम लहरा रहे हैं।

मोदी-विरोध इन लोगों पर इस कदर हावी है कि इन्हें मोदी नहीं मंजूर है, मोदी के अलावा हर कोई मंजूर है। चाहे वह कोई भी हो। यहां तक कि लोगों को रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे के विध्वंस के लिए कथित तौर पर सीधे ज़िम्मेदार लालकृष्ण आडवाणी से भी परहेज़ नहीं है। बस मोदी को हटाओ। मोदी को हराओ। किसी भी क़ीमत पर हराओ। मोदी और भाजपा आगे न बढ़ पाएं। मज़ेदार बात यह रही कि 2014 और 2019 के आम चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के विरोध के बावजूद मोदी जीत गए। नरेंद्र मोदी के इस अंधविरोध से आम आदमी ख़ासकर गैरमुस्लिम लोगों के मन में सवाल उठता है कि क्या अंध मोदी विरोध ही मुसलमानों का एकमात्र एजेंडा है? आख़िर मुस्लिम बुद्धिजीवी दूसरे ज़रूरी मुद्दों पर इतने सक्रिय क्यों नहीं रहते हैं? क्या आज मुस्लिम समाज के समक्ष मोदी विरोध के अलावा और कोई समस्या नहीं है?

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इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए भारतीय मुसलमानों की समस्याओं को लेकर समय-समय पर आईं तरह तरह की सरकारी रिपोर्ट्स पर गौर करना होगा। राजिंदर सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग और महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट पर गौर करना पड़ेगा। इन रिपोर्ट्स से पता चलता है कि आज की तारीख़ में मुस्लिम समाज के सामने सबसे ज़्यादा समस्या है। कोई दूसरा समाज आज इतनी समस्याओं से दो-चार नहीं है, जितना मुस्लिम समाज। सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट से सभी अवगत हैं। महाराष्ट्र में मुसलमानों की समस्या के लिए आज चर्चा करते हैं महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट्स की। दरअसल, 2006 में राजिंदर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट लोकसभा में पेश होने के बाद 2008 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने राज्य में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में छह सदस्यीय समिति का गठन किया। उसे महमूदुर रहमान समिति कहा गया। समिति ने रिपोर्ट अक्टूबर 2013 में कांग्रेस-एनसीपी सरकार को सौंप दी, लेकिन राज्य सरकार ने उसे सार्वजनिक नहीं किया।

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इस बीच रिपोर्ट मीडिया में लीक ज़रूर हो गई। महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेत, कुल सात विश्वसनीय संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेज़ और स्टडीज़ का हवाला दिया गया है। रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे में कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए। महाराष्ट्र में, देहात की बात छोड़ दें, मुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर अवस्था में है। मुसलमानों को बैंकें क़र्ज़ देने से कतराती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ महाराष्ट्र में 1.20 करोड़ मुसलमान हैं, जिनमें 15 साल तक की आबादी 37 फ़ीसदी है, जो ज़्यादा जन्म दर दर्शाती है। पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन 6.1 सदस्य हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में 4.9 सदस्य। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग़रीबी और उचित मेडिकेयर का अभाव मुस्लिम 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं। इसीलिए 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी महज़ 6.6 फ़ीसदी है। यह भी सीरियस रिपोर्ट है। लिहाज़ा इस पर बहुत गंभीर शोध की ज़रूरत है। ताकि मुसलमानों को असामयिक मौत से बचाया जा सके। यह बहुत भयावह निष्कर्ष है।

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समिति की रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में केवल 10 फ़ीसदी मुसलमान अपने खेत में कृषि कार्य करते हैं। 49 फ़ीसदी यानी क़रीब आधी मुस्लिम आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे गुज़र बसर करने मजबूर है जबकि पूरे देश में 34.4 फ़ीसदी मुसलमान ग़रीब तबके के हैं। राज्य में 20 फ़ीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड नहीं ही है। इसी तरह 59 फ़ीसदी मुसलमान स्लम और बहुत गंदी बस्तियों में रहते हैं। इनमें भी केवल 18 फ़ीसदी लोगों के घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम युवक बेरोज़गार हैं। 32.4 फ़ीसदी मुसलमान छोटे-मोटे काम करते हैं। शायद यही वजह है कि 45 फ़ीसदी मुसलमानों की परकैपिटा आमदनी महज़ 500 रुपए ही है। 34 फ़ीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हज़ार रुपए से भी कम है। 24 फ़ीसदी 10 से 20 हज़ार महीने कमाते हैं, जबकि 20 से 30 हज़ार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद 3.8 फ़ीसदी है। 30 से 40 हज़ार रुपए कमाने वाले मुसलमानों की तादाद केवल 1.0 फ़ीसदी है। यह रिपोर्ट मुसलमानों की विपन्नता दिखाती है।

महमूदुर रहमान की रिपोर्ट यह भी कहती है कि मुस्लिम समाज काफ़ी संपन्न लोग भी हैं। देश के बाक़ी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग ही बेहतर जीवन जी पाते हैं। यानी केवल 6.0 फ़ीसदी मुसलमान हर महीने 50 हज़ार या उससे ज़्यादा आमदनी करते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में महमूदुर रहमान की रिपोर्ट तक़रीबन सच्चर कमेटी जैसी ही है। शिक्षा में मुसलमानों की दशा बहुत दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फ़ीसदी है, वहीं मुसलमानों मे साक्षरता मात्र 67.6 फ़ीसदी हैं। महाराष्ट्र में यह 65.5 फ़ीसदी से भी नीचे है। हालांकि,प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फ़ीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचते हैं, तो मुसलमानों के 47 फ़ीसदी बच्चे स्कूल तक पहुंच जाते हैं। आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मज़दूर के रूप में काम करने लगते हैं। आर्थिक तंगी इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फ़ीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज़ 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। ज़ाहिर है, इसीलिए उच्च कक्षाओं में मुसलमान दिखते ही नहीं।

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रिपोर्ट के मुताबिक़, राज्य में मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा का आंकड़ा तो बेहद निराश करने वाला है। महज़ एक फ़ीसदी लडकियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने के कारण वे नौकरी वगैरह नहीं कर पाती और मजबूरी में पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर उनके विरोध के बावजूद एक से ज़्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वें के मुताबिक़, 2.55 फ़ीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां पाई गई थीं। मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितों, तलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज़्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टैटस महज़ 29 फ़ीसदी है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फ़ीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैं, तो शहरों में क़रीब आधे (49 फ़ीसदी) बच्चे उर्दू पढ़ते हैं। 96 फ़ीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज़ 4 फ़ीसदी ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकैशनल एजुकेशन का परसेंटेज 0.3 फ़ीसदी यानी नहीं के बराबर है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहीं, निजी क्षेत्र में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। अगर मीडिया में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की बात करें तो उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाक़ी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार देखने को मिलते हैं। महमूदुर रहमान कमेटी का साफ़ निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाक़ई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। कमोबेश यही तर्क देते हुए सच्चर कमेटी भी मुस्लिम समाज के विकास पर ख़ास ध्यान देने की बात कही थी। संभवतः इसी तरह की रिपोर्ट के आधार पर 2007 की रंगनाथ मिश्रा कमेटी ने नौकरी में मुसलमानों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने की पैरवी की थी।

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इन रिपोर्ट्स के आधार पर कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज आज ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी और स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। लेकिन कोई बुद्धिजीवी इन समस्याओं पर नहीं सोचता। सब ‘राग मोदी विरोध’ आलाप रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि मुसलमानों का मोदी विरोध 2014 चुनाव में भी ऐसा ही था। मुसलमान मोदी का विरोध तब से कर रहे हैं जब सितंबर 2013 में उन्हें भाजपा ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। इसके बाद अधिकांश खाते-पीते मुसलमान चुनाव में मोदी के विरोध में लंगोट बांध कर खड़े हो गए। कोई मोदी के सिर इनाम रख रहा था, तो कोई गला काटने की बात कर रहा था। कांग्रेस नेता इमरान मसूद ने तो मोदी को बोटी-बोटी काट डालने की धमकी दे डाली थी। लोग ऐसी हवा बना रहे थे कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तो मुसलमानों की शामत आ जाएगी। यह अंध विरोध अभियान नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। मुसलमानों के विरोध के बावजूद मोदी प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।

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सबसे अहम बात यह है कि पिछले पांच साल कै दौरान मुसलमानों के अहित को लक्ष्य करके मोदी सरकार ने कोई भी फ़ैसला नहीं लिया। ट्रिपल तलाक़ विरोधी अध्यादेश को मुस्लिम विरोधी कतई नहीं कहा जा सकता। मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक़ की विभीषिका से मुक्त कराना हर भारतीय का फ़र्ज़ है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। ऐसे में वह अध्यादेश समय की मांग है। मुसलमानों को भी यह स्वीकार करना होगा कि उनके यहां महिलाओं की हालत ज़्यादा दयनीय है। लिहाज़ा, मुस्लिम समाज को समझना होगा कि सबसे पहले उन समस्याओं को हल करने के लिए आगे आना होगा। उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं। यह सोचना होगा कि क्यों आतंकवाद इस्लाम के गर्भ से पैदा हो रहा है? क्यों दुनिया भर के जिहादी मुसलमान ही हैं? आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह कहकर इस समस्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस बारे में ‘बीइंग द अदर: द मुस्लिम इन इंडिया’ की लेखिका सईद नकवी लिखती हैं, “इस देश का मुसलमान दरअसल विकास की कीमत पर एक खास किस्म की मजहबी और सांस्कृतिक सनक का शिकार होकर रह गया है। इसके लिए मुसलमानों को तालीम देने वाले मुल्ले ही दोषी हैं।”

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लिहाज़ा मोदी विरोध से पहले मुल्लाओं और मुल्लापन को विरोध करना होगा। मुसलमानों को उन कारकों का विरोध करना होगा जो उनके सर्वांगीण विकास में बाधक है। मुसलमान सालों से भारतीय संस्कृति और देश का हिस्सा हैं और उन्हें अपने विकास के लिए इन जमीनी समस्याओं से अपनी आने वाली पीढ़ी को निजात दिलानी होगी। सरकारों की ओर से उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति की पड़ताल समस्याओं को सुलझाने के लिए की गई है ना की राजनीतिक औजार के रूप में उनका इस्तेमाल करने के लिए। बेहतर होगा कि देश के मुसलमान अपनी समस्याओं को आगे आकर समझें और उसका समाधान निकालें।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

कॉमन सिविल कोड – मोदी आम चुनाव से पहले भाजपा का तीसरा वादा भी पूरा कर देंगे

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भाजपा के तीन चुनावी वादे

• 5 अगस्त 2019 को पहला वादा – कश्मीर से अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा – पूर्ण
• 5 अगस्त 2020 को दूसरा वादा – अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण – पूर्ण
• भाजपा का तीसरा चुनावी वादा – देश में कानून कॉमन सिविल कोड  – शेष

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉमन सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता (UCC) के बारे में ऐसा बयान दे दिया कि उसके बाद देश में की राजनीति अचानक गरमा गई है। 27 जून यानी मंगलवार को भोपाल में मोदी ने देश में समान नागरिक संहिता की वकालत करते हुए विपक्षी दलों पर निशाना साधा था। मोदी ने कहा था दो कानून होने से घर नहीं चलता है, ऐसे में दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा। मोदी के बयान पर हमला बोलते हुए कांग्रेस ने इसे विभाजनकारी राजनीति बताया था और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने कॉमन सिविल कोड (Uniform Civil Code) को लेकर देश और परिवार की तुलना को ग़लत बताया है।

दूसरी बार और अधिक बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने 5 अगस्त (2019) को जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के साथ अनुच्छेद 370 एवं अनुच्छेद 35 ए को ख़त्म करके कई दशक पुराना अपना वादा पूरा कर दिया। इसी तरह कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने की पहली सालगिरह यानी दूसरे 5 अगस्त (2020) को प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भगवान श्री राम मंदिर के निर्माण की आधारशिला रख करके भाजपा का दूसरा वादा भी पूरा कर दिया। इसके बाद लोग सवाल करने लगे कि क्या प्रधानमंत्री देश में समान नागरिक संहिता भी लागू कर देंगे? अब भोपाल में मोदी के बयान से तो यही लग रहा है कि 2024 के चुनाव से पहले देश को कॉमन सिविल कोड मिल जाएगा।

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, बल्कि भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद से ही इस दल के तीन प्रमुख मुद्दे रहे हैं। पहला जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए का खात्मा, दूसरा अयोध्या में भगवान श्री राम के मंदिर का निर्माण और तीसरा देश में समान नागरिक क़ानून यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना। पार्टी अपने हर चुनाव घोषणा पत्र में इस तीनों मुद्दों का ज़िक्र करती है। इस तीनों वादों में से नरेंद्र मोदी ने दो वादा पूरा कर दिया। अब केवल तीसरा वादा पूरा करना बाक़ी रह गया है। फ़िलहाल, कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए कॉमन सिविल कोड का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि मोदी को बहुमत देने वाली जनता आम राय से देश में कॉमन सिविल कोड चाहती है। ऐसे में जो लोग इस क़ानून का विरोध करेंगे, वे निश्चित रूप से अलग-थलग पड़ जाएंगे।

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सितंबर 2020 में गोवा के एक परिवार की संपत्ति के बंटवारे पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता का जिक्र किया था। देश की सबसे बड़ा अदालत ने इस बात पर निराशा जताई थी कि भारत में अब तक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे पहले अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई तलाक़ क़ानून में बदलाव की मांग करने वाली याचिका सुनते हुए केंद्र सरकार से कहा था कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बनी रहती है। इसलिए सरकार एक समान कानून बना कर इस विसंगति को दूर कर सकती है। यह अदालत चाहती है कि सरकार को यह काम कर देना चाहिए। हालांकि संविधान बनाते समय समान नागरिक संहिता पर विस्तृत चर्चा हुई थी। अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्व के तहत उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में ऐसा क़ानून बनाया जाएगा।

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आज़ादी मिलने के बाद देश में केवल हिंदुओं के लिए इस तरह का क़ानून बनाया गया। सन् 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिंदू कोड बिल लेकर आए। इसी आधार पर हिंदू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून जैसे क़ानून बनाए गए। देश में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के लिए विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे कानून संसद ने बना दिए, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर ही शादी, तलाक और उत्तराधिकार की परंपरा चलाने की छूट दी गई। हालांकि इस तरह की छूट नगा ट्राइबल समेत देश के कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है।

समान नागरिक संहिता का मतलब है विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम बनाना। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इसका मतलब परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर समानता। लिंग, जाति, धर्म, परंपरा के आधार पर कोई रियायत न देना। फ़िलहाल भारत में नागरिकों को धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियम मानने की छूट मिली हुई है। मसलन, किसी समुदाय में बच्चा गोद लेने पर रोक है, तो किसी समुदाय में पुरुषों को एक से अधिक शादी करने की इजाज़त है। कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम लागू है। समान नागरिकता क़ानून लागू होने पर किसी समुदाय विशेष के लिए अलग से कोई नियम नहीं होंगे। सबके लिए एक ही क़ानून होगा।

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जब भी यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात होती है, तब धार्मिक कट्टरपंथी मुसलमान इस क़दम को सीधे अपने धर्म पर हमले की तरह पेश करने लगते हैं, जिससे मुद्दा ही बदल जाता है। इस बार भी यही हो रहा है। दरअसल, यह समझने की बात है कि समान नागरिक संहिता का यह मतलब कतई नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवा पाएंगे। समान नागरिक संहिता लागू होने पर भी परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी। इतना ही नहीं नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत और रहन-सहन पर इसका कोई असर नहीं होगा। केवल धर्म के नाम पर जो अनाचार या अति की जाती है, कॉमन सिविल कोड लागू होने से वह बंद हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने भारतीय विधि आयोग (लॉ कमीशन) को समान नागरिक संहिता पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था। 31 अगस्त 2019 को दी गई अपनी लॉ कमीशन ने यूनिफार्म सिविल कोड और पर्सनल लॉ में सुधार पर सुझाव दिए थे। अलग-अलग लोगों से विस्तृत चर्चा और कानूनी, सामाजिक स्थितियों की समीक्षा करने के बाद लॉ कमीशन ने कहा था कि अभी देश में समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसलिए नया क़ानून लाने की बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए। इसके अलावा मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाने की ज़रूरत है। सभी समुदाय के बीच में समानता लाने से पहले एक समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने की कोशिश की जानी चाहिए।

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समझा जाता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार अगर समान नागरिक संहिता की तरफ़ आगे बढ़ती है तो केंद्र सरकार के इस कदम से राजनीतिक विवाद हो सकता है, क्योंकि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर राजनीतिक पार्टियां एकमत नहीं हैं। कांग्रेस समेत सेक्यूलरवादी राजनीतिक दल इसका शुरू से विरोध करते रहे हैं। समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क हैं। संसद समान नागरिक संहिता विधेयक को यदि पारित कर देती है तो देश भर में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू होगा। इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में चर्चा हो गई है कि सरकार का अगला कदम समान नागरिक संहिता लागू करना है।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

(29 जून 2023 को अपडेटेड)

हिंदुओं जैसी थी इस्लाम या ईसाई धर्म से पहले दुनिया भर में लोगों की जीवन शैली

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धर्म के बारे में हमेशा चर्चा होती रही है। सभी धर्मों का समय ज्ञात है कि वे कब अस्तित्व में आए, लेकिन हिंदू धर्म कब अस्तित्व में आया इसका सही-सही ब्यौरा कही उपलब्ध नहीं है। लेकिन कहा जाता है कि हिंदू धर्म सबसे पुराना है। कुछ लोग हिंदू धर्म को धर्म न कहकर मानव की जीवन शैली कहते हैं। तो आइए इतिहास और उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर जानने की कोशिश करते हैं कि धर्म का स्वरूप आदिकाल में कैसा था। दस्तावेज़ तो यही बताते हैं कि इस्लाम, ईसाई या यहूदी धर्म के अस्तित्व में आने से पहले धरती पर रहने वाले सभी लोगों का रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति एक जैसी थी।

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दुनिया भर में खुदाई से मिले दस्तावेजों के मुताबिक मूर्ति की पूजा का जिक्र सबसे पुरानी सुमेरी सभ्यता से लेकर सबसे नई रोम सभ्यता तक में नज़र आता है। इस आधार पर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि पूरी दुनिया भले हिंदू धर्म के अनुयायी न रहे हों, लेकिन उनका रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति हूबहू हिंदुओं जैसी ही थी। दरअसल, वेदों, पुराणों और उपनिषद जैसे धार्मिक ग्रंथों में त्रेता युग समेत चार युगों का वर्णन मिलता है। चारों युगों को मिलाकर चतुर्युग बनता है। हिंदू कालगणना चतुर्युग पर ही आधारित है। हर चतुर्युग की 43.2 लाख वर्ष बाद पुनरावृत्ति होती है। कलियुग 4.32 लाख वर्ष, द्वापर युग 8.64 लाख वर्ष, त्रेता युग 12.96 लाख वर्ष और सतयुग 17.28 लाख वर्ष का माना गया है। इन सबका ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। धार्मिक ग्रंथों में भी प्रमाण नहीं दिया गया है। केवल विष्णु, ब्रम्हा या शिव कहानियां सुनाते हैं। उन्हीं कहानियों में युगों का जिक्र आता है। राम और रामायण का समय भी त्रेतायुग है। इसके अनुसार राम का समय कलियुग और द्वापर से पहले त्रेता युग यानी 12.96 लाख और 25.88 लाख वर्ष के बीच होना चाहिए। यह निष्कर्ष अतिरंजनापूर्ण लगता है, क्योंकि धरती की उम्र 4 अरब 54 करोड़ वर्ष मानी जाती है और आधुनिक मानव जीवन तो महज 10 हज़ार वर्ष पुराना है।

दरअसल, 19वीं सदी तक पूर्व इतिहासकाल के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी थी। परंतु पुरातत्ववेत्ताओं यानी आर्कियोलॉजिस्ट के ज़रिए उन स्थानों पर खुदाई की गई, जहां किसी समय मानव के होने की संभावना थी। खुदाइयों में बर्तन, मनुष्यों एवं जानवरों की हड्डियां और अन्य अवशेष मिले। इनसे मिली जानकारी और हड्डियों के डीएनए टेस्ट के आधार पर पूर्व इतिहासकाल में मनुष्य के जीवन व्यतीत करने की शैली का अनुमान लगाया गया। इसी आधार पर मानव सभ्यता की अवधि का आकलन किया गया। अनुमान है कि धरती पर सबसे पहले मानव जैसे जीव लगभग 53 लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आए। धीरे-धीरे अन्य जीव भी पैदा हुए, परंतु कुछ समय बाद मानव जैसे जीव विलुप्त हो गए।

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कई विद्वानों का मत है कि पशु मानव का इतिहास क़रीब 40 लाख वर्ष पुराना है। जीव विज्ञान के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व में आना क्रमिक विकास का परिणाम है। विकास के क्रमबद्ध व्याख्या का श्रेय चार्ल्स डार्विन को जाता है। उसने सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट की अवधारणा दी। बहरहाल, पशु मानव यानी बंदर से 28-30 लाख वर्ष पहले आदि मानव अस्तित्व में आया। परंतु आज का मानव होमो सेपियंस (Homo Sapiens) का वंशज है। वह क़रीब 2 लाख वर्ष पहले धरती पर बंदर जैसे आदि मानव के रूप में अस्तित्व में आया। आदि मानव जीवन के इस लंबे काल में मनुष्य पेड़-पौधे और कंदमूल खाकर अथवा शिकार कर अपना पेट पालता था।

राहुल सांकृत्यायन ने मानव सभ्यता के इतिहास का गहन अध्ययन किया और पाया कि मानव इतिहास लब्बोलुआब 10 हजार वर्ष पुराना है। इसी टॉपिक पर ‘वोल्गा से गंगा’ की रचना की। किताब में मानव सभ्यता के विकास पर विस्तृत प्रकाश डाला। कहानी तब से शुरू होती है, जब मानव बिना कपड़े के नग्न अवस्था में झुंड में गुफाओं में रहता था। झुंड पर महिलाओं का वर्चस्व होता था। तब मानव के बीच आपसी रिश्ता विकसित नहीं हुआ था। सभी लोग केवल नर-मादा थे। पशुओं की तरह एक दूसरे से सेक्स करते थे। बच्चे पैदा होते थे और जीवन चक्र चलता रहता था। बहुत बाद में परिवार और शादी व्यवस्था अस्तित्व में आई और दुनिया के विभिन्न इलाकों में सभ्यताओं ने जन्म लिया। इन सभ्यताओं की अवधि पर गौर करें, तो सब कुछ 10 हज़ार वर्ष में सिमट जाता है। इसलिए ‘वोल्गा से गंगा’ में दिए गए तथ्य प्रमाणिक और वैज्ञानिक लगते हैं। रामायण काल और महाभारत काल अगर काल्पनिक नहीं हैं, तो इन्हीं दस हज़ार साल की अवधि के दौरान किसी समय अस्तित्व में रहे होंगे।

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फ़िलहाल कोई भी ज्ञात मानव सभ्यता आठ हज़ार साल से अधिक पुरानी नहीं है। मसलन सबसे पुरानी सुमेरी सभ्यता का समय ईसा पूर्व 2300-2150 वर्ष पहले यानी आज से 4170 से 4320 वर्ष के बीच है। इसी तरह बेबिलोनिया सभ्यता का समय ईसा पूर्व 2000-400 वर्ष यानी 2420 से 4020, ईरानी सभ्यता ईसा पूर्व 2000-250 यानी 2270 से 4020 वर्ष, मिस्र (इजिप्ट) सभ्यता ईसा पूर्व 2000-150 यानी 2170 से 4020 वर्ष, असीरिया सभ्यता ईसा पूर्व 1450-500 यानी 2520 से 3470 वर्ष, ग्रीस (यूनान) सभ्यता ईसा पूर्व 1450-150 यानी 2170 से 3470 वर्ष, रोम सभ्यता ईसा पूर्व 800-500 यानी 2520 से 2820 वर्ष और अमेरिका की माया सभ्यता सन् 250 ईसवी से 900 ईसवी के बीच माना जाता है।

इस अवधारणा को 19वीं सदी तक पूरी दुनिया मानती थी, लेकिन बीसवीं सदी के पहले दशक में खुदाई से निकली सिंधु घाटी सभ्यता ने पूरा इतिहास ही बदल दिया, क्योंकि हड़प्पा और मोहन जोदड़ो सभ्यता यानी सिंधु-सरस्वती घाटी सभ्यता का समय ईसा पूर्व 5000-3500 वर्ष यानी आज से 5520 से 7020 वर्ष के बीच का आंका गया। उस सभ्यता में मूर्ति पूजा का प्रचलन था, क्योंकि हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में असंख्य देवियों की मूर्तियां मिलीं। सिंधु घाटी सभ्यता को दुनिया की सबसे रहस्यमयी सभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसके पतन के कारणों का खुलासा नहीं हो सका है। वैसे मूर्ति की पूजा का जिक्र सुमेरी से लेकर रोम सभ्यता तक नज़र आता है। इसमें दो राय नहीं कि पूरी दुनिया भले हिंदू धर्म की अनुयायी न रही हो, लेकिन दुनिया के हर कोने में लोगों का रहन-सहन, रीति-रिवाज और पूजा की पद्धति हूबहू हिंदुओं जैसी ही थी।

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इस तरह कहा जा सकता है कि हिंदू धर्म भले ही एक धर्म के रूप में अस्तित्व में न रहा हो, लेकिन मानव जीवन शैली के रूप में पिछले सात-आठ हज़ार वर्ष से ज़रूर मौजूद रहा। इस सभ्यता के थोड़ा इधर-उधर वैदिक काल और महाभारत का समय माना जाता है। वैदिक काल में सभी वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों की रचना मानव द्वारा की गई। कहने का मतलब उस समय हिंदू धर्म भी अस्तित्व में था। हम कह सकते हैं कि धार्मिक ग्रंथों की रचना मानव समाज में आदर्श नागरिक और अच्छा-बुरा को परिभाषित करने और मानव की जीवन शैली को और बेहतर बनाने के लिए हुई होगी। धर्म ग्रंथों में उल्लेखित पात्रों का उदाहरण देकर मानव के संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश की गई होगी। यह बताने का प्रयास किया गया होगा कि हम जीवन शांतिपूर्ण कैसे गुजार सकते हैं।

दरअसल, ईसवी सन शुरू होने से पहले यानी आज से 2020 वर्ष पहले ही यूरोप और पश्चिम एशिया में यहूदी धर्म का अस्तित्व था। कई विद्वान यहूदी धर्म को 3500 से 3700 वर्ष पुराना बताते हैं। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मंदिर और प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। कमोबेश यही समय पारसी धर्म का भी है। ईसाई धर्म दो हज़ार वर्ष पहले अस्तित्व में आया और लगभग सन् 613 इसवी के आसपास मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेश देना आरंभ किया था। इसी घटना को इस्लाम का आरंभ माना जाता है। ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ जैसी कालजयी किताब लिखने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक इतिहासकार महेंद्र नाथ राय उर्फ नरेंद्र भट्टाचार्य ने लिखा है कि मक्का में जहां हज किया जाता था, वहां मुहम्मद साहब से पहले एक मंदिर था, जिसमें देवी-देवताओं की 300 मूर्तियां स्थापित थीं। उन्होंने लिखा है कि पहले दुनिया भर में मूर्तिपूजा की जीवन शैली ही अपनाई जाती थी। इन दोनों धर्मों के उत्थान से पहले हिंदू, यहूदी या पारसी जीवन शैली यानी मूर्ति पूजा का प्रचलन था। यह प्रचलन रामायण काल में भी अस्तित्व में था।

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पुराणों में वाल्मीकि रामायण का जिक्र तो मिलता है, लेकिन अयोध्या नगर के संबंध में कोई ख़ास ज़िक्र नहीं मिलता है। वेद में “अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या” श्लोक के माध्यम से अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। यहां भी राम का जिक्र नहीं किया गया है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। यह नगर सरयू तट पर बारह योजन और तीन योजन के क्षेत्र में बसा था। अलबत्ता रामायण में अयोध्या का उल्लेख कौशल नरेश राम की राजधानी के रूप में किया गया है।

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रामायण का मतलब ‘वाल्मीकि रामायण’ से है, जिसकी रचना आदिकवि वाल्मीकि ने लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले संस्कृत में की। कुछ विद्वान कहते हैं कि वाल्मीकि रामायण 600 ईसा पूर्व यानी आज से 2600 वर्ष पहले लिखा गया। उसके पीछे युक्ति यह है कि वाल्मीकि रामायण की रचना महाभारत से पहले हुई होगी। महाभारत में गौतम बुद्ध या बौद्ध धर्म का कोई वर्णन नहीं मिलता है। जबकि इस महाग्रंथ में जैन, शैव और पाशुपत जैसी परंपराओं का वर्णन मिलता है। इसका मतलब है कि वाल्मीकि रामायण गौतम बुद्ध काल से पहले लिखा गया। भाषा-शैली से भी यह महर्षि पाणिनि के समय से पहले का लगता है।

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वाल्मीकि ने इस ग्रंथ में दशरथ और कौशल्या के पुत्र राम की गाथा ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ के रूप में लिखी है। संस्कृत में होने के कारण वाल्मीकि रामायण की कथा की जानकारी आम जन तक नहीं पहुंच सकी। इसीलिए राम के चरित्र के बारे में बारहवीं सदी से पहले बहुत ज़्यादा कोई नहीं जानता था। राम की चर्चा तब शुरू हुई, जब वाल्मीकि रामायण को स्रोत मानकर गोस्वामी तुलसीदास समेत तमाम कवियों ने अलग-अलग काल और अलग-अलग भाषाओं में रामायण की रचना की। यह सिलसिला बारहवीं सदी से शुरू हुआ। हर रामायण का विषयवस्तु वाल्मीकि रामायण ही है। बारहवीं सदी में तमिल में कंपण रामायण, तेरहवीं सदी में थाई भाषा में लिखी रामकीयन और कंबोडियाई रामायण, पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में उड़िया रामायण और कृतिबास की बंगला रामायण लिखा गया। सोलहवीं सदी के अंत में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधि में रामायण की रामचरित मानस के रूप में रचना की। लेकिन इन सब में तुलसीदास का रामचरित मानस सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास से पहले जम्बूद्वीप (भारत या हिंदुस्तान) में हिंदू धर्म के अनुयायी फक्कड़ शंकर, नटखट कृष्ण, गणेश, सूर्य, दुर्गा, लक्ष्मी और काली की पूजा करते थे। लेकिन सबसे अधिक पूजा भोलेनाथ की होती थी। भारत में इस समय सबसे पुराना मंदिर बिहार के कैमूर जिले में स्थित मुंडेश्वरी देवी मंदिर को माना जाता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार इसका निर्माण संभवतः सन् 1008 में हुआ है। मुंडेश्वरी मंदिर भगवान शिव और देवी शक्ति को समर्पित है। यानी यह शिव मंदिर है। देश में हर जगह भगवान शिव के मंदिर इसके गवाह हैं, जबकि राम के मंदिर गिनती भर के हैं। इन मंदिरों के निर्माण का समय देखें तो तुलसी के दौर के बाद बनाए गए हैं।

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कहने का मतलब ऐतिहासिक तथ्यों के हवाले से कहा जा सकता है कि तुलसीदास से पहले भगवान राम का उतना क्रेज नहीं था। तुलसीदास ने रामचरित मानस रचकर राम को महिमामंडित और हिंदुओं के घर-घर में प्रतिष्ठित किया। तुलसीदास सन 1511 में पैदा हुए जबकि आगरा की गद्दी पर बाबर 1526 में बैठा। तब तुलसीदास की उम्र 16 वर्ष की थी। उन्होंने 71 वर्ष की उम्र में 1582 में रामचरित मानस लिखना शुरू किया और 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन में यह ग्रंथ पूरा हो गया। उस समय अकबर का शासन था। रामचरित मानस के प्रचलन में आने के बाद ही राम हिंदुओं के सबसे बड़े देवता बने।

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पारंपरिक इतिहास में अयोध्या कौशल राज्य की प्रारंभिक राजधानी बताई गई है। गौतम बुद्ध के समय कौशल के दो भाग हो गए थे। उत्तर कौशल और दक्षिण कौशल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट नई बस्ती बनाई गई जिसका नाम साकेत था। कई विद्वान अयोध्या और साकेत को एक ही नगर मानते हैं। कालिदास ने भी रघुवंश में दोनों को एक ही नगर माना है। इसका समर्थन जैन साहित्य में भी मिलता है। भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल और इतिहास के जनक सर अलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने भी अयोध्या और साकेत को एक ही नगर से समीकृत किया है। वहीं बौद्ध ग्रंथों में भी अयोध्या और साकेत को अलग-अलग नगरों के रूप में बताया गया है। चीनी यात्री हेनत्सांग सातवीं सदी में अयोध्या आया था। उसने यहां 20 बौद्ध मंदिरों और 3000 भिक्षुओं के रहने का जिक्र किया है, लेकिन उसने भी भगवान राम का जिक्र नहीं किया है।

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बहरहाल, इतिहास में राम का जिक्र न होने के बावजूद अयोध्या करोड़ों भारतीयों के आराध्य भगवान राम की जन्मस्थली के रूप में माना जाता है। मान्यता यह भी है कि यहीं भगवान राम ने अवतार लिया था। कहा जाता है कि इस नगर को मनु ने बसाया और इसे ‘अयोध्या’ का नाम दिया था, जिसका अर्थ होता है अ-युध्य अर्थात ‘जहां कभी युद्ध नहीं होता।’ अयोध्या मूल रूप से हिंदू मंदिरों का शहर है। यहां आज भी हिंदू धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत में कहा गया है कि चौबीस तीर्थंकरों में से पांच तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हुआ था। इसके अलावा जैन और वैदिक दोनों मतों के अनुसार भगवान राम का जन्म भी इसी भूमि पर हुआ। सभी तीर्थंकर और भगवान राम इक्ष्वाकु वंश के थे।

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अगर आज हमेशा के लिए ख़त्म हो रहे अयोध्या विवाद की बात करें तो वह अंग्रेज़ों के दिमाग़ की उपज है। अंग्रज़ों ने डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी सन् 1857 के विद्रोह के बाद बनाई। विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों ने भारत में लंबे समय तक शासन करने के लिए बांटों और राज करो की साज़िश रची। साज़िश का केंद्र बनाया गया हिंदुओं के सबसे अधिक पूजनीय आराध्य देव भगवान श्री राम को। राम की नगरी अयोध्या में श्री राम मंदिर को लेकर एक रणनीति के तहत रची गई भयानक और दीर्घकालीन साज़िश का नतीजा 1947 भारत के विभाजन और दुनिया के मानचित्र पर पाकिस्तान नाम का एक नया राष्ट्र अस्तित्व में आया।

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दरअसल, सन् 1857 के विद्रोह के पहले सन् 1856 में ब्रिटेन की लॉर्ड पॉमर्स्टन सरकार ने लॉर्ड कैनिंग यानी चार्ल्स जॉन कैनिंग को भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया। 1857 के गदर के बाद लॉर्ड कैनिंग ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड विस्काउंट पॉमर्स्टन को भेजी रिपोर्ट में कहा था कि अगर इंडिया में लंबे समय तक शासन करना है तो यहां की जनता के बीच धर्म के आधार पर मतभेद पैदा करना ही पड़ेगा और इसके लिए हिंदुओं के प्रमुख देवता राम की जन्मस्थली को विवाद में ला दिया जाए।

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नामचीन इतिहासकारों की लिखी इतिहास की कई चर्चित किताबों के मुताबिक 1857 के विद्रोह के बाद अयोध्या विवाद की साज़िश रची गई। इसके लिए अयोध्या के इतिहास से छेड़छाड़ भी की गई। दरअसल, इब्राहिम लोदी की बनाई गई मस्जिद को बाबरी मस्जिद का नाम दे दिया गया। दरअसल, मस्जिद में इब्राहिम लोदी के शिलालेख को नष्ट करने में ख़ास तौर पर फैजाबाद भेजे गए अंग्रेज़ अफ़सर एचआर नेविल और अलेक्ज़ैंडर कनिंघम ने अहम भूमिका निभाई।

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फ़ैज़ाबाद ज़िले का आधिकारिक गजेटियर तैयार करने वाला नेविल ही सारी ख़ुराफ़ात और साज़िश का सूत्रधार था। नेविल की साज़िश में दूसरा फ़िरंगी अफ़सर कनिंघम भी शामिल था, जिसे अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने हिंदुस्तान की तवारिख़ और पुरानी इमारतों की हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। कह सकते हैं, इंडियन सबकॉन्टिनेंट पर मुस्लिम देश बनाने की आधारशिला नेविल और कनिंघम ने रख दी थी। यह मुस्लिम देश पाकिस्तान के रूप में 14 अगस्त 1947 को अस्तित्व में भी आ गया।

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कालजयी लेखक कमलेश्वर के भारतीय और विश्व इतिहास पर आधारित चर्चित उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ में बाबरी मस्जिद पर इतिहास के हवाले से बहुत महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं। लेखक ने किताब के कई अध्यायों को अयोध्या मुद्दे को समर्पित किया है। सन 2000 में प्रकाशित ‘कितने पाकिस्तान’ को अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने बेहतरीन रचना करार देते हुए 2003 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया था। उस सरकार में तब विद्वान और अयोध्या मामलों के जानकार डॉ मुरली मनोहर जोशी मानव संसाधन विकास मंत्री थे।

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दरअसल, अयोध्या की मस्जिद (बाबरी मस्जिद नहीं) को बनाने के बाद उसमें एक शिलालेख भी लगा था, जिसका जिक्र ईमानदार अंग्रेज़ अफ़सर ए फ़्यूहरर ने कई जगह अपनी रिपोर्ट्स में किया है। फ़्यूहरर ने 1889 में आख़िरी बार उस शिलालेख को पढ़ा, जिसे बाद में उसी साज़िश के तहत अंग्रेज़ों ने नेविल और कनिंघम के ज़रिए नष्ट करवा दिया। शिलालेख में लिखा गया था कि अयोध्या में मस्जिद का निर्माण इब्राहिम लोदी के आदेश पर सन् 1523 में शुरू हुआ और सन् 1524 में मस्जिद बनकर तैयार हो गई। इतना ही नहीं, शिलालेख के मुताबिक, अयोध्या की मस्जिद का नाम कभी भी बाबरी मस्जिद नहीं था।

अंग्रेज़ अफ़सर नेविल और कनिंघम द्वारा बड़ी साज़िश के तहत गजेटियर में दर्ज किया गया। अदालत में अयोध्या विवाद पर सरकारी पक्ष ने उसी गजेटियर को सूचना का आधार बनाया। गजेटियर में लिखा कि 1528 में अप्रैल से सितंबर के बीच एक हफ़्ते के लिए बाबर अयोध्या आया और राम मंदिर को तोड़कर वहां बाबरी मस्जिद की नींव रखी थी। यह भी लिखा कि अयोध्या पर हमला करके बाबर की सेना ने एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं की हत्या कर दी। हम आज भी अकसर सुनते हैं कि बाबर की सेना सूबेदार मीरबाक़ी के नेतृत्व में अयोध्या में एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं की हत्या करने के बाद भगवान श्री राम के मंदिर को नष्ट करके वहां बाबरी मस्जिद के निर्माण की आधरशिला रखी।

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‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक, मज़ेदार बात यह है कि फ़ैज़ाबाद के गजेटियर में आज भी लिखा है कि अयोध्या में उस कथित लड़ाई के क़रीब साढ़े तीन सौ साल बाद 1869 में अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की कुल आबादी महज़ दस हज़ार थी। 12 साल बाद यानी 1881 में यह आबादी बढ़कर साढ़े ग्यारह हज़ार हो गई। सवाल उठता है कि जिस शहर की आबादी इतनी कम थी वहां बाबर और उसकी सेना ने इतने लोगों को हलाक़ कैसे कर दिया या फिर इतनी बड़ी संख्या में मरने वाले कहां से आ गए? यहीं इस के बारे में देश में बनी मौजूदा धारणा पर गंभीर सवाल उठता है।

बहरहाल, हैरान करने वाली बात यह है कि दोनों अफ़सरों नेविल और कनिंघम ने सोची-समझी नीति के तहत बाबर की डायरी बाबरनामा, जिसमें वह रोज़ाना अपनी गतिविधियां दर्ज करता था, के 3 अप्रैल 1528 से 17 सितंबर 1528 के बीच लिखे गए 20 से ज़्यादा पन्ने ग़ायब कर दिए और बाबरनामा में फारसी में लिखे ‘अवध’ यानी ‘औध’ को ‘अयोध्या’ कर दिया। ध्यान देने वाली बात यह है कि मस्जिद के शिलालेख का फ़्यूहरर द्वारा किए गए अनुवाद को ग़ायब करना अंग्रेज़ अफ़सर भूल गए। वह अनुवाद आज भी आर्कियोल़जिकल इंडिया की फ़ाइल में महफ़ूज़ है और ब्रिटिश अफ़सरों की साज़िश से परदा हटाता है।

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दरअसल, बाबर की गतिविधियों की जानकारी बाबरनामा की तरह बाबर के बेटे और उसके उत्तराधिकारी हुमायूं की दैनिक डायरी हुमायूंनामा में भी दर्ज है। लिहाज़ा, बाबरनामा के ग़ायब या नष्ट किए गए पन्ने से नष्ट हो चुकी सूचना को हुमायूंनामा देखी जा सकती है। हुमायूंनामा के मुताबिक 1528 में बाबर अफ़गान हमलावरों का पीछा करता हुआ घाघरा (सरयू) नदी तक अवश्य गया था, लेकिन उसी समय उसे अपनी बीवी बेग़म मेहम और अन्य रानियों एवं बेटी बेग़म ग़ुलबदन समेत पूरे परिवार के काबुल से अलीगढ़ आने की इत्तिला मिली।

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बाबर लंबे समय से युद्ध में उलझने की वजह से परिवार से मिल नहीं पाया था इसलिए वह अयोध्या पहुंचने से पहले की वापस हो लिया और अलीगढ़ रवाना हो गया। अलीगढ़ पहुंचकर पत्नी-बेटी और परिवार के बाक़ी सदस्यों को लेकर बाबर अपनी राजधानी आगरा आया और 10 जुलाई तक उनके साथ आगरा में ही रहा। उसके बाद बाबर परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिए धौलपुर चला गया। वहां से सिकरी पहुंचा, जहां सितंबर के दूसरे हफ़्ते तक परिवार समेत रहा।

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‘कितने पाकिस्तान’ के मुताबिक अयोध्या की मस्जिद बाबर के आक्रमण और उसके भारत आने से पहले ही मौजूद थी। बाबर आगरा की सल्तनत पर 20 अप्रैल 1526 को क़ाबिज़ हुआ जब उसकी सेना ने इब्राहिम लोदी को हराकर उसका सिर क़लम कर दिया। एक हफ़्ते बाद 27 अप्रैल 1526 को आगरा में बाबर के नाम का ख़ुतबा पढ़ा गया। मज़ेदार बात यह है कि ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी माना है कि अयोध्या में राम मंदिर को बाबर और उसके सूबेदार मीरबाक़ी ने 1528 में मिसमार करके वहां बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया। मीरबाक़ी का पूरा नाम मीरबाक़ी ताशकंदी था और वह अयोध्या से चार मील दूर सनेहुआ से सटे ताशकंद गांव का निवासी था।

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अयोध्या विवाद पर पिछले साल आया सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सबसे अहम है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने शिया वक़्फ़ बोर्ड की याचिका ख़ारिज़ करते हुए कहा था कि मीर बाक़ी ने बाबर के वक़्त बाबरी मस्जिद बनवाई थी। बाबरी मस्जिद को गैर-इस्‍लामिक ढांचे पर बनाया गया था। बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनी थी। भारतीय पुरातत्‍व विभाग (ASI) की रिपोर्ट से साबित हो गया कि मस्जिद खाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। पुरातत्‍व विभाग की रिपोर्ट को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसे खुदाई में इस्‍लामिक ढांचे के कोई सबूत नहीं मिले। 18वीं सदी तक वहां नमाज पढ़े जाने के सबूत कोई नहीं मिले हैं। लिहाज़ा, यह साबित हो गया है कि अंग्रेजों के आने से पहले ही हिंदू राम चबूतरे की पूजा करते थे।

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देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह भी कहा कि हिंदुओं की आस्था है कि राम का जन्म अयोध्या में हुआ। इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता। यह भी साबित हो गया कि 1885 से पहले राम चबूतरे पर हिंदुओं का अधिकार था। अहाते और चबूतरे पर हिंदुओं का अधिकार साबित होता है। सीता रसोई की भी पूजा अंग्रेजों के आने से पहले हिंदू करते थे। उस स्थल पर 1949 में दो मूर्तियां रखी गईं। बहरहाल, चंद लोगों और तंजीमों को छोड़ दें तो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को देश के आम मुसलमान ने स्वीकार कर लिया है। भले भारी मन से ही किया है।

अयोध्या का राम से संबंध हिंदुओं की आस्था का विषय है। उस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। उल्लेखनीय बात है कि भारतीय पुरातत्‍व विभाग को खुदाई से जो अवशेष मिले हैं, उनसे मंदिर जैसा ढांचा होने का निष्कर्ष निकाला जाता है। भारतीय पुरातत्‍व ने हमेशा दोहराया कि वहां खुदाई में जो अवशेष मिले, उनसे मंदिर जैसे ढांचे का आभास ज़रूर होता है। सबसे अहम बात यह कि जो अवशेष मिले हैं, वे सब के सब मध्य काल के लगते हैं, जबकि राम त्रेता युग में पैदा हुए थे। भगवान राम के बारे में ऐतिहासिक प्रमाण भले उपलब्ध न हों, पौराणिक सबूतों के अनुसार त्रेता युग था और उस युग में भगवान राम पैदा हुए थे।

रिसर्च एवं लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही…

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गायक किशोर कुमार के जन्मदिन पर विशेष…

मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू…., मेरे महबूब कयामत होगी, और मेरे सामने वाली खिड़की में… जैसे लोकप्रिय गीतों के लिए गायक किशोर कुमार हिंदी फिल्म-जगत के एक ऐसी धरोहर हैं, जिसे बनाने-संवारने में इंसान ही नहीं क़ुदरत को भी सदियों का समय लग जाता है। अपने गानों के माध्यम से संगीत के कद्रदानों को चीयरफुल, रोमांटिक एवं इमोशनल जर्नी पर ले जाने वाले किशोर सही मायने में हरफनमौला कलाकार थे। फ़िल्म की हर विधा में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले किशोर की डॉमिनेटिंग आवाज़ में वीररस जैसी बुलंदी थी तो, ग़म के मारों के लिए करुण रस भी बेशुमार था। यही वजह है कि मस्ती भरा ख़ुशरंग माहौल हो या फिर ग़मगीन तन्हाई, दोनों में उनके गाने हमारे हमसफ़र बनते हैं।

सत्तर-अस्सी का दशक हो या फिर आज का दौर, उनके गाए गाने हर समय के संगीतप्रेमियों की ज़बान पर रहते हैं। यह भी ख़ूबसूरत संयोग है कि किशोर ने जिन अभिनेताओं को अपने स्वर दिए, वे सुपरस्टार हो गए और रूपहले परदे पर उनका अभिनय अमर हो गया। किशोर की ख़ासियत यह थी कि उन्होंने देव आनंद की मोहक दंतहीन मुस्कान, राजेश खन्ना की आखें बंद करने वाली ख़ास अदा और अमिताभ बच्चन की एंग्री यंगमैन की इमैज के लिए अपनी आवाज़ दी और इन सभी अभिनेताओं पर उनकी आवाज़ ऐसी रची बसी मानो किशोर ख़ुद उनके अंदर मौजूद हों। इसीलिए कहा जाता है कि उनके जैसे ऑलराउंडर फ़नकार हमेशा पैदा नहीं हुआ करते हैं।

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दरअसल, किशोर कुमार के बड़े भाई अशोक कुमार गायक और ख़ुद किशोर अभिनेता बनने के लिए खंडवा से बंबई आए थे। दोनों भाइयों में गायन के साथ-साथ अभिनय की असाधारण प्रतिभा थी। यह संयोग देखिए कि हुआ इसके एकदम उल्टा। किशोर महान गायक बने और अशोक महान अभिनेता। किशोर कालजयी गायक कुंदनलाल सहगल के बहुत बड़े प्रशंसक थे, इसलिए शुरुआत में उनकी ही शैली में गाते और अभिनय करते थे। इससे शुरुआती सफलता के बावजूद उन्हें न तो पहचान मिली और न कोई ख़ास काम मिला। लिहाजा, सिनेमा जगत में किशोर का संघर्ष चलता रहा जबकि उनके भाई अशोक कुमार बतौर अभिनेता स्थापित हो गए। दरअसल, वह भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम दौर था। उस दौर में गुरु दत्त, दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, बलराज साहनी और रहमान जैसे समर्थ  अभिनेताओं के साथ संगीत में मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत महमूद और मन्ना डे जैसे दिग्गज गायकों का बोलबाला था।

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फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत किशोर कुमार ने बतौर अभिनेता फ़िल्म ‘शिकारी’ से की थी। 1946 में शुरू हुई और दो साल बाद 1948 में रिलीज़ बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्म ‘ज़िद्दी’ में किशोर ने 19 साल की उम्र में संगीतकार खेमचंद प्रकाश की धुन पर देव आनंद के लिए मरने की दुआ क्यों मांगू गाया था। फ़िल्म में अशोक कुमार लीड रोल में थे। फ़िल्म की सफलता के बावजूद 1950 तक किशोर को ज़्यादा कुछ नहीं हासिल हुआ। लिहाज़ा, वह 1950 में काम मांगने दादा यानी सचिनदेव बर्मन के पास गए। दादा ने ‘प्यार’ में गाने का मौक़ा दिया था। इसके बाद सचिनदा ने ‘बहार’ फ़िल्म का एक गाना गाने का भी अवसर दिया और गाना बहुत हिट हुआ। किशोर ने 1951 में फणी मजुमदार की फ़िल्म ‘आंदोलन’ में नायक का किरदार निभाया मगर फ़िल्म फ़्लॉप हो गई।

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शुरुआती वर्षों में संघर्ष के बाद अंततः संगीत निर्देशक सलिल चौधरी किशोर कुमार की आवाज़ में रिदम देखने में सफल रहे। 1954 में बिमल राय की ‘नौकरी’ में किशोर ने बेरोज़गार युवक की संवेदनशील भूमिका निभाकर अपनी असाधारण अभिनय प्रतिभा से भी परिचित किया। फ़िल्म में गीतकार शैलेंद्र के गीत को हेमंत कुमार और शैला बेले के साथ किशोर ने भी अपनी आवाज़ दी थी। छोटा सा घर होगा गाना किशोर का पहला सफल गीत था। 1955 में ‘बाप रे बाप’, 1956 में ‘नई दिल्ली’, 1957 में ‘मिस मेरी’ और ‘आशा’ और 1958 में ‘चलती का नाम गाड़ी’ में किशोर ने अपने दोनों भाइयों अशोक और अनूप के साथ काम किया। फिल्म में अभिनेत्री थीं हुस्न की मलिका मधुबाला। यह भी मज़ेदार कहानी है कि फ़िल्म ‘रागिनी’ एवं ‘शरारत’ में किशोर को मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ उधार दी तो मेहनताना सिर्फ़ एक रुपया लिया था।

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शुरू में किशोर कुमार को सचिनदा ही नहीं, बल्कि अन्य संगीतकारों ने भी अधिक गंभीरता से नहीं लिया और उनसे हल्के स्तर के गीत गवाए गए, लेकिन 1957 में ‘फंटूस’ में दुखी मन मेरे से ऐसी धाक जमाई कि तब संगीतकारों को उनकी गायन प्रतिभा का लोहा मानना पड़ा। इसके बाद दादा ने किशोर को और मौके दिए। उनके संगीत निर्देशन में किशोर ने ‘मुनीम जी’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘नौ दो ग्यारह’, ‘पेइंग गेस्ट’, ‘गाइड’, ‘ज्वेल थीफ़’, ‘प्रेम पुजारी’ और ‘तेरे मेरे सपने’ जैसी फ़िल्मों में अपनी जादुई आवाज़ से संगीतप्रेमियों को दीवाना बना दिया। ‘पड़ोसन’ में उन्होंने जिस मस्त मौला आदमी के किरदार को निभाया, कहते हैं वही किरदार वह ताउम्र अपनी असली ज़िंदगी में निभाते रहे। मधुबाला ने उनके साथ 1958 में रिलीज ‘चलती का नाम गाड़ी’ सहित कई फिल्मों में काम किया था। 1961 में बनी फ़िल्म ‘झुमरू’ में दोनों साथ काम किया था। यह फ़िल्म किशोर ने ही बनाई और निर्देशन किया था। 1962 में ‘हाफ टिकट’ में भी दोनों ने साथ काम किया। यह फ़िल्म किशोर की यादगार कॉमेडी के लिए भी जानी जाती है।

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राहुल देव बर्मन उर्फ पंचमदा और किशोर कुमार में अच्छी दोस्ती थी। 1969 में शक्ति सामंत ‘आराधना’ बना रहे थे। संगीत का दायित्व सचिन देव बर्मन को दिया था। परंतु सचिन दादा अचानक बीमार पड़ गए और उन्होने अपने पुत्र पंचमदा से गाने रिकार्ड करने को कहा। मेरे सपनों की रानी समेत सभी गाने मोहम्मद रफी गाने वाले थे, लेकिन उस समय वह हज करने गए थे। ऐसे में पंचमदा को मित्र किशोर से गवाने का अवसर मिल गया। फ़िल्म के दो गाने रूप तेरा मस्ताना और मेरे सपनों की रानी गाने बहुत लोकप्रिय हुए और राजेश खन्ना की लोकप्रियता आसमां छूने लगी। साथ ही बतौर गायक किशोर कुमार संगीतकारों की पहली पसंद बन गए।

किशोर कुमार सेल्फमेड टैलेंट थे और संगीत या अभिनय में उन्होंने बिना किसी प्रशिक्षण या तालीम के असाधारण सफलता हासिल की। अपने बॉलीवुड के चार दशक के अधिक के सफर में, उन्होंने ने 86 फिल्मों को अपने अभिनय से सजाया और 1,188 फिल्मों में गाने को अपनी आवाज़ दी। उन्होंने 18 फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। बहुमुखी फिल्मकार किशोर की बेजोड़ गायन प्रतिभा किंवदंती है। उनकी अदाकारी के बारे लोग वास्तव में बहुत कम बहुत कम बात करते हैं। वह बहुत अच्छे फ़िल्म निर्माता, संगीतकार, गीतकार, निर्माता और स्क्रीन लेखक भी थे। उनके प्रशंसकों सहित हिंदी फ़िल्म उद्योग में हर कोई उन्हें किशोर के रूप में जानता है, लेकिन उनका असली नाम आभास कुमार गांगुली था।

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किशोर कुमार ने हिंदी के अलावा भोजपुरी, बंगाली, मराठी, गुजराती, असमी, तमिल, कन्नड़, मलयालम, उड़िया और उर्दू सहित कई भारतीय भाषाओं में गाया। उन्होंने बेस्ट सिंगर का 8 फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीतकर बतौर सिंगर सबसे ज्यादा फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीतने का रिकॉर्ड बनाया। उन्हें पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार 1969 में ‘आराधना’ के गीत रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना के लिए मिला। 1975 में फिल्म ‘अमानुष’ के दिल ऐसा किसी ने मेरा, 1978 में ‘डॉन’ के खइके पान बना रसवाला, 1980 में ‘थोड़ी सी बेवफाई’ के हज़ार राहें मुड़के देखें, 1982 में ‘नमक हलाल’ के पग धूंधरू बांध के मीरा नाची थी, 1983 में ‘अगर तुम ना होते’ के हमें और जीने की चाहत न होती अगर तुम न होते, 1984 में ‘शराबी’ के मंज़िलें अपनी जगह और 1985 में ‘सागर’ के गाना सागर किनारे के लिए भी उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया। उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने लता मंगेशकर पुरस्कार दिया। मध्य प्रदेश सरकार ने हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए किशोर कुमार पुरस्कार शुरू किया है।

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मध्य प्रदेश के खंडवा शहर में 4 अगस्त 1929 को जाने माने वकील कुंजीलाल गांगुली के यहां जन्मे, हिंदी फ़िल्म उद्योग के इस दिग्गज स्टार के गायन और अभिनय में सहगल की झलक मिलती थी। वह अपने चार भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर थे। अशोक कुमार गांगुली सबसे बड़े थे। इकलौती बहन सती देवी थीं। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ने वाले किशोर की कॉलेज कैंटीन से उधार लेकर खुद खाने और दोस्तों को भी खिलाने आदत थी। वह ऐसा दौर था जब 10-20 पैसे की उधारी भी बहुत मायने रखती थी। किशोर पर जब कैंटीन वाले के पांच रुपए बारह आना उधार हो गया। तब कैंटीन मालिक जब उनसे पैसे चुकाने को कहता तो वह कैंटीन में टेबल पर गिलास और चम्मच बजा बजाकर पांच रुपया बारह आना गा-गाकर कई धुन निकालते थे और कैंटीन वाले की बात अनसुनी कर देते थे। बाद में उन्होंने अपने एक गीत में इस पांच रुपया बारह आना का बहुत ही ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया। शायद बहुत कम लोगों को पांच रुपया बारह आना वाले गीत की यह असली कहानी मालूम होगी।

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अपने जीवन के हर क्षण किशोर खंडवा को याद करते थे। जब भी किसी पब्लिक मंच पर या फंक्शन में गाना गाते थे, तो शान से कहते थे किशोर कुमार खंडवे वाले। जन्मभूमि और मातृभूमि के प्रति ऐसा ज़ज़्बा बहुत कम लोगों में दिखाई देता है। 1975 में इमरजेंसी के विरोध में किशोर ने सरकारी समारोह में गाने से मना कर दिया, तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ला ने आकाशवाणी से उनके गीतों के प्रसारण पर ही रोक लगा दिया था। उस समय उनके घर इनकम टेक्स का रेड पड़ा था। उन्होंने इमरजेंसी का समर्थन नहीं किया। लिहाज़ा, उनकी बनाई कई फ़िल्में आयकर विभाग ने ज़ब्त कर ली थीं, जिनमें कई अब तक अदृश्य भी हैं।

किशोर कुमार ने चार बार शादी की। उकी पहली पत्नी बंगाली गायिका-अदाकारा रूमा गुहा ठाकुरता उर्फ ​​रोमा घोष थीं। उनसे किशोर ने 1950 में शादी की। शादी के कुछ साल बाद उनका रूमा से रिश्ता तल्ख़ हो गया। इसी दौरान वह मशहूर सिने-तारिका मधुबाला के इश्क़ में दीवाने हो गए। जब मधुबाला के इश्क़ में गिरफ़्त हुए तब शादीशुदा थे। दरअसल, मधुबाला दिलीप कुमार के साथ लंबे समय तक रिलेशनशिप में रहीं। कहा जाता है कि दिलीप कुमार ने उनका दिल तोड़ दिया था, जिससे वह उबरने की कोशिश कर रही थीं। प्यार में चोट खाईं मधुबाला को ऐसे पुरुष की तलाश थी जो उन्हें टूटकर चाहे, उनसे प्यार करे, उनकी परवाह करे। किशोर उस वक्त मधुबाला के साथ फ़िल्मों में काम कर रहे हैं। एक दिन किशोर कुमार ने उन्हें प्रपोज़ किया। बस क्या था मधुबाला उनकी दूसरी पत्नी बनने के लिए तैयार हो गईं।

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कुछ लोग कहते हैं कि किशोर कुमार और मधुबाला ने बिना सोचे समझे 1960 में शादी कर ली थी। किशोर शादी करने की जल्दी में थे, परंतु रूमा से उनका तलाक लंबा खिंच रहा था। यह भी कहा जाता है कि इसीलिए 1960 में उन्होंने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया और अपना नाम बदल कर करीम अब्दुल कर लिया। हालांकि उन्होंने नमाज़ या रोज़ा जैसी इस्लामिक परपरा का निर्वहन कभी नहीं किया। इस्लाम धर्म कबूल करने के बाद उन्होंने मधुबाला से शादी कर ली। हालांकि उनके माता-पिता इस शादी के बहुत अधिक ख़िलाफ़ थे और शादी में आने से ही इनकार कर दिया। शादी से पहले भी किशोर को मधुबाला की बीमारी का पता था लेकिन वह इतनी गंभीर होगी, यह नहीं जानते थे। 27 साल की मधुबाला के दिल में छेद पाया गया था। मधुबाला को इलाज के लिए किशोर लंदन ले गए, जहां डॉक्टरों ने जवाब देते हुए कहा कि अब मधुबाला ज़्यादा से ज्यादा एक से दो साल ही जी पाएंगी।

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बहरहाल शादी के बाद किशोर कुमार के घर में तनाव पैदा हो गया, जिसके चलते मधुबाला शादी के महीने भर के भीतर बांद्रा में अपने बंगले में वापस चली गईं। कहा जाता है कि किशोर ने अंतिम समय में मधुबाला को तन्हा छोड़ दिया था, लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं है। दरअसल, शादी के तुरंत बाद किशोर मधुबाला को लेकर लंदन उस डॉक्टर के पास गए थे, जो मधुबाला का इलाज कर रहा था। डॉक्टर ने बताया कि मधुबाला दो साल से ज़्यादा नहीं जी पाएंगी। हालांकि मधुबाला दो साल नहीं, बल्कि नौ साल तक जीवित रहीं लेकिन जीवन के आख़िरी नौ साल उन्होंने बेहद एकाकी में गुज़ारे। लंदन के डॉक्टर ने यह भी कहा था, कि इन्हें किसी तरह का तनाव नहीं होना चाहिए। यह रोए भी न। किशोर इससे टूट से गए थे, क्योंकि वह मधुबाला से बहुत प्यार करते थे। जब वह बीमार मधुबाला से मिलने जाते तो वह उनसे मिलकर बहुत रोती थीं। दरअसल, मधुबाला जीना चाहती थीं, लेकिन यह उनके हाथ में ही नहीं था। रोने से मधुबाला की तबियत और ख़राब हो जाया करती थी। इसलिए किशोर महीने-दो महीने में ही उनसे मिलने जाते थे। हालांकि वह मधुबाला के इलाज का पूरा का पूरा ख़र्च ख़ुद वहन कर रहे थे। दरअसल, वह बिना मधुबाला के जीने के लिए अपने आपको मज़बूत कर रहे थे। वह चाहते थे कि मधुबाला उन्हें बेवफ़ा समझ लें और शांतिपूर्वक इस दुनिया से प्रस्थान करें। 23 फरवरी 1969 को मधुबाला की मौत हो गई और किशोर की ज़िंदगी में फिर से तन्हाई पसर गई।

मधुबाला के निधन के बाद आठ साल तक किशोर कुमार अकेले ही रहे। 1976 में उन्होंने तीसरी शादी अभिनेत्री योगिता बाली से की। यहां भी उनका दिल बुरी तरह टूटा, क्योंकि योगिता का दिल अचानक से तब के डिस्को डांसर मिथुन चक्रवर्ती पर आ गया था। लिहाज़ा, किशोर-योगिता से संबंध ख़राब हो गए और दो साल के भीतर उनकी शादी टूट गई। योगिता ने किशोर से तलाक़ लेकर मिथुन से शादी कर ली। दो साल तक किशोर कुमार तन्हा ही रहे। उनके साथ उनका रूमा से पैदा हुआ उनका बेटा अमित कुमार था। 51 वर्ष की उम्र में किशोर ने चौथी शादी 30 वर्षीय ख़ूबसूरत अदाकारा लीना चंद्रावरकर की। लीना उनकी चौथी बीवी हैं, जिनसे उन्होंने 1980 में शादी की। तब लीना उम्र में किशोर के बेटे अमित कुमार से महज़ दो साल बड़ी थीं। बहरहाल, लीना से उनको दूसरा बेटा सुमित कुमार पैदा हुआ।

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मनोज कुमार किशोर कुमार को लेकर एक यादगार किस्सा सुनाते हैं, “1966 में मैं ‘उपकार’ का कसमे वादे प्यार वफ़ा… गाना किशोरदा से गवाना चाहता था, लेकिन उन्होंने कहा कि केवल हीरो के लिए ही गाना गाते हैं, लिहाज़ा, विलेन पर फ़िल्माया जाने वाला गाना नहीं गा सकते। तब गाना मन्ना डे ने गाया। गाना हिट होने पर किशोर आए और कहा कि उन्होंने अच्छे गाने का मौका गंवा दिया। लेकिन उन्होंने यह स्वीकार भी किया कि मन्ना डे की तरह वह कई जन्म तक नहीं गा सकेंगे। वह उस गीत को गाते तो लोग इतने अच्छे गीत में मन्ना डे की खूबसूरत आवाज में सुनने से वंचित रह जाते।”

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किशोर कुमार ने 1988 में संगीतकार बप्पी लहरी की धुन पर फिल्म वक्त की आवाज़ में अपना अंतिम गाना गुरु-गुरु आशा भोसले के साथ मिथुन चक्रवर्ती के लिए गाया। किशोर ने वर्ष 1987 में फैसला किया कि फिल्म से सन्यास लेकर वह खंडवा लौट जाएंगे। वह कहा करते थे, ‘दूध जलेबी खाएंगे खंडवा में बस जाएंगे’। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। 18 अक्टूबर, 1987 को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और 58 साल की उम्र में वह ज़िंदगी के आख़िरी सफर पर निकल पड़े और दुनिया को अलविदा कह दिया था। हालांकि उनका अंतिम संस्कार मातृभूमि खंडवा में किया गया, जहां उनका मन बसता था। किशोर की सहगायिका आशा भोसले ने एक इंटरव्यू में कहा था, “किशोर कुमार एक तरह का था। उसने हर किसी को अपनी मज़ेदार आवाज के साथ घुमाया और यहां तक ​​कि उसके चारों ओर हर किसी को हमेशा खुश कर दिया।”

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

सुशांत की रहस्यमय मौत को और रहस्यमय बना रही है महाराष्ट्र सरकार

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एक विश्व प्रसिद्ध उपन्यास है क्राइम एंड पनिशमेंट। इस उपन्यास में नायक रोडियन रास्कोल्निकोव किसी की हत्या कर देता है। वास्तव में उसे हत्या करते किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसे हर वक़्त लगता था कि कोई उसे हत्या करते ज़रूर देख लिया है। बस वह हरदम डरा रहता है। कोई दरवाज़ा खटखटाता है तो उसे लगता है, कि शायद पुलिस उसे गिरफ़्तार करने आ गई। एक बार उसे किसी दूसरे काम से पुलिस थाने में बुलाती है। तब उसे पक्का यक़ीन हो जाता है कि अब वह शर्तिया गिरफ़्तार हो जाएगा। वह और भी अधिक डर जाता है और पूछने से पहले पुलिस से ख़ुद बता देता है कि उसने हत्या की है। पुलिस हक्का-बक्का रही जाती है और ख़ुश होती है कि उसे एक रहस्यमय हत्या का बिना किसी प्रयास के सुराग ही नहीं मिला बल्कि ग़ुनाहगार भी मिल गया।

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आजकल महाराष्ट्र सरकार की हालत हूबहू हत्या करने वाले रोडियन रास्कोल्निकोव जैसी ही है। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली यह सरकार अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत के बाद से ही ऐसे-ऐसे काम कर रही है, जिससे आम आदमी का संदेह गहराता जा रहा है कि सुशांत सिंह ने ख़ुदकुशी नहीं की, बल्कि शायद उसकी हत्या की गई। लोगों को अब यह भी लगने लगा है कि सुशांत सिंह की मौत की घटना के तार निश्चित रूप में सरकार में शामिल किसी बड़े व्यक्ति से जुड़ें हो सकते हैं, इसीलिए राज्य सरकार काम कर रही है, जिनके बारे में जो भी सुन रहा है, वही हैरान हो रहा है। सबसे ताज़ा क़दम है, सुशांत सिंह की मौत की जांच करने मुंबई पहुंचे आईपीएस अफसर विनय तिवारी को बीएमसी द्वारा क्वारटीन कर देना।

राज्य सरकार के इस क़दम से लोगों का शक पुख़्ता होने लगा है कि सुशांत सिंह की किसी बड़ी साज़िश के तहत हत्या की गई। उस हत्या पर परदा डालने के लिए अभिनेता के डिप्रेशन और आत्महत्या करने की झूठी कहानी गढ़ी गई। लोगों को यह भी लगने लगा है कि यह कहानी सरकार की मिली भगत से गढ़ी गई। लिहाज़ा, सरकार का वह प्रभावशाली व्यक्ति जो इस हत्याकांड के पीछे है, अपने फंसने के डर से इसकी जांच सीबीआई से नहीं होने देना चाहता। यही वजह है कि सरकार सुशांत की रहस्यमय मौत की सीबीआई जांच नहीं करवाना चाहती। सरकार उसी योजना के तहत बार-बार दोहरा रही है कि मुंबई पुलिस सही दिशा में जांच कर रही है, इसलिए सीबीआई जांच की कोई ज़रूरत नहीं। मज़ेदार बात यह है कि मुंबई पुलिस जांच से पहले सुशांत की मौत को ख़ुदकुशी मान लिया और अब उन परिस्थितियों का पता लगाने की कोशिश कर रही है, जिन परिस्थितियों के चलते अभिनेता को मौत को गले लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा था।

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ज़ाहिर सी बात है कि अगर राज्य सरकार का इस केस में कोई वेस्टेड इंटरेस्ट नहीं है, तो वह सीबीआई जांच से क्यों कतरा रही है। यदि सरकार इसे विशुद्ध आत्महत्या मानती है तो जांच करने देना चाहिए सीबीआई को, जांच के बाद अपने आप दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। जब सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत से सरकार में बैठे किसी प्रभावशाली व्यक्ति का कोई कनेक्कशन ही नहीं है, तो जांच कोई भी जांच एजेंसी करे, क्या फ़र्क़ पड़ता है। सबसे बड़ी बात इस मामले में पीड़ित पक्ष यानी सुशांत सिंह के पिता केके सिंह ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि मुंबई पुलिस की जांच पर उन्हें बिल्कुल भरोसा नहीं है। ऐसी परिस्थिति में महाराष्ट्र सरकार को जबरन मुंबई पुलिस से जांच कराने की बजाय इसकी जांच सीबीआई से कराने की सिफ़ारिश ख़ुद कर देनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। यह भी रहस्यमय है।

राज्य सरकार इतने पर ही नहीं रुकी, बल्कि पीड़ित पक्ष यानी सुशांत के पिता द्वारा पटना के पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई गई एफ़आईआर की तहक़ीक़ात के सिलसिले में मुंबई पहुंची बिहार पुलिस की टीम के साथ सहयोग करना तो दूर की बात, सरकार ख़ुद जांच में अड़ंगा डाल रही है। पटना के एसपी विनय तिवारी को क्वारंटीन के नाम पर 14 दिन के लिए घर में बंद कर देना तो प्रत्यक्ष तौर पर इस जांच को प्रभावित करने का सटीक मामला है। राज्य सरकार यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि यह बीएमसी का फ़ैसला है। बीएमसी या पुलिस सुशांत की मौत के मामले में बिना सरकार की अनुमति के कोई क़दम उठाना तो दूर की बात उठाने की सोच भी नहीं सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि जांच करने आए बिहार के आईपीएस अफसर को कोरोना संक्रमण के लिए बने नियम के तहत क्वांरटीन किया गया, क्योंकि पहले से आए चार अधिकारियों को क्वारंटीन नहीं किया गया।

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राज्य सरकार इंडियन पैनल कोड में वर्णित अवधारणा कि कोई पुलिस किसी एफ़आईआर की जांच जहां-जहां उसे तार जुड़े हों, वहां-वहां जा सकती है और जो भी संदिग्ध लगे उससे पूछताछ कर सकती है, का खुला उल्लंघन कर रही है। इसका मतलब यह है कि राज्य में विधि का शासन नहीं है। जिसका अर्थ यह भी होता है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल में दूसरे राज्य में दर्ज एफ़आईआर की निष्पक्ष विवेचना संभव नहीं है। यह तो देश के संविधान की बुनियाद पर प्रहार करने जैसा है। यहां उद्धव ठाकरे के खिलाफ़ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत मामला बनता दिख रहा है। अनुच्छेद 356 केंद्र सरकार को किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता या संविधान के स्पष्ट उल्लंघन की दशा में राज्य की सरकार को बर्खास्त करके उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार देता है।

सबसे अहम बिहार विधानसभा ने आम मत से प्रस्ताव पारित करके सुशांत सिंह की रहस्यमय मौत की सीबीआई जांच की मांग की है। अब केंद्र सरकार को दख़ल देना पड़ सकता है। सुशांत सिंह के परिजनों, रिश्तेदारों, अभिनेता के प्रशंसकों और आम लोगों के मन में पैदा हुई शंका का निवारण भी बहुत ज़रूरी है। यह शंका राज्य सरकार के रहस्यमय फैसले से पुख्ता होती जा रही है। ऐसे में सुशांत की मौत के समय उनके घर या आसपास मौजूद सभी लोगों से गहन इंटरोगेशन की ज़रूरत है। सुशांत वीआईपी इलाक़े में रहते थे, लिहाज़ा, वहां के तमाम सीसीटीवी फुटेज की जांच की भी ज़रूरत है। इतना ही नहीं, इस मामले में बांद्रा पुलिस स्टेशन में घटना के दिन ड्यूटी कर रहे पुलिस वालों से तहक़ीक़ात ज़रूरी है। अब यह तय हो गया है कि मुंबई पुलिस की इस केस की निष्पक्ष जांच नहीं कर सकती। केके सिंह पहले ही कह चुके हैं कि मुंबई पुलिस जिस तरह से जांच कर रही है, उससे यह लगता है कि उनके बेटे को इंसाफ़ नहीं मिल पाएगा।

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ऐसे में केंद्र सरकार कुछ ऐसे क़दम उठाने का राज्य सरकार को औपचारिक निर्देश देना चाहिए, ताकि सुशांत सिंह के परिजनों को न्याय मिले ही नहीं, बल्कि न्याय मिलता हुआ आम आदमी को दिखे भी। इन दिनों सोशल मीडिया पर पोस्ट या फॉरवर्ड की जा रही अपुष्ट ख़बरों का भी संज्ञान लेने की ज़रूरत है। इस बीच यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि सुशांत की गर्लफ्रेंड रिया चक्रवर्ती इन दिनों कहां है, क्योंकि उससे पूछताछ करने आई पटना पुलिस की टीम ने कहा है कि रिया उन्हें नहीं मिल रही है। रिया चक्रवर्ती और उनके परिजनों पर सुशांत को मौत को गले लगाने के लिए उकसाने का गंभीर आरोप सुशांत सिंह के पिता केके सिंह ने लगाया है। ऐसे में यह कहना समीचीन होगा कि महाराष्ट्र सरकार के मन में कोई खोट नहीं है, तो उसे ख़ुद सीबीआई जांच की पहल कर देनी चाहिए।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मेरे भइया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन…

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रक्षाबंधन पर विशेष

मेरे भइयामेरे चंदामेरे अनमोल रतन… हिंदी सिनेमा में राखी यानी रक्षाबंधन को लेकर बहुत भावुक और दिल को छू लेने वाले कई लोकप्रिय गीत फ़िल्माए गए हैं। 1965 में रिलीज ‘काजल’ फ़िल्म का साहिर लुधियानवी का लिखा और रवि की धुन पर आशा भोसले का गाया यह गाना बेमिसाल अदाकारा मीना कुमारी पर फिल्माया गया है। यह कर्णप्रिय गाना भाई-बहन के रिश्तों को बेहद भावना प्रधान ही नहीं बनाता बल्कि सीधे दिल को स्पर्श करता है। इस तरह के अनगिनत गीत रक्षाबंधन के पर्व को ख़ूबसूरत और ख़ुशगवार बनाते हैं।

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भारत त्यौहारों का गुलिस्तां
दरअसल, भारत त्यौहार रूपी मोती से बना ख़ूबसूरत गुलिस्तां है। रक्षाबंधन भी इन्हीं अनगिनत मोतियों में से एक है। इस पर्व को भाई-बहनों के बीच प्रेम का प्रतीक माना जाता है। देश की हर लड़की या स्त्री रक्षाबंधन के दिन अपने भाई के की कलाई में रक्षा का धागा बांधती है। जिनके भाई दूर हैं, वे स्त्रियां कोरियर या दूसरे माध्यम से अपने भाई तक राखी पहुंचाती हैं। जिन स्त्रियों के भाई नहीं होते, वे स्त्रियां आज के दिन थोड़ी उदासी महसूस करती हैं। भाई की कमी महसूस करती हैं। मन को दिलासा देने के लिए किसी मुंहबोले भाई को राखी बांध कर इस परंपरा का निर्वहन करती हैं। प्राचीनकाल से यह परंपरा यूं ही चली आ रही है।

विकास ने बनाया जन-जन में लोकप्रिय
पहले यह त्यौहार इतना प्रचलित नहीं था। परंतु टीवी, सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यम, बाज़ारवाद और बेहतर ट्रांसपोर्ट मोड ने इसे जन-जन में लोकप्रिय बना दिया। रक्षाबंधन बारिश में श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं। हो सकता है इन पंक्तियों के लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो। लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही कुछ हुआ होगा। यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और पवित्र-प्रेम को दर्शाता है। भारत के कई हिस्सों में इस त्यौहार को ‘राखी-पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है।

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वामनावतार कथा में राखी का वर्णन
स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता जैसे पौराणिक ग्रंथों में राखी का प्रसंग मिलता है। इसका मतलब या है कि राखी का त्यौहार तीन हज़ार साल पुराना है। वामनावतार कथा में इसका वर्णन मिलता है। दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण करके स्वर्ग का राज्य इंद्र से छीनने की कोशिश की, तब इंद्र ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। लिहाज़ा, विष्णु वामन अवतार लेकर राजा बलि से भीक्षा मांगने पहुंचे। बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। विष्णु ने तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया। इस तरह विष्णु ने राजा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर दिया। इसीलिए यह त्यौहार बलेव नाम से भी मशहूर है। विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर चारों वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। इसीलिए हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

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इंद्राणी ने बांधा था रेशम का धागा
भविष्य पुराण के मुताबिक सुर-असुर संग्राम में जब दानव देवताओं पर हावी होने लगे, तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गए। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के हाथ पर बांध दिया। धागा बांधते हुए स्वस्तिवाचन किया था। येन बद्धो बलिराजा दानवेंद्रो महाबल:। तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ इस श्लोक का भावार्थ है, जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेंद्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी सूत्र से मैं तुझे बांधती हूं। हे रक्षे (राखी)! तुम अडिग रहना। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। मान्यता है कि लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से इंद्र विजयी हुए। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई।

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महाभारत में रंक्षाबंधन का उल्लेख
महाभारत में भी रंक्षाबंधन का उल्लेख है। जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं? तब भगवान कृष्ण ने उन्हें अपना और अपनी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट लग गई। उस समय द्रौपदी ने अपनी साड़ी फाड़कर कृष्ण की उंगली पर पट्टी बांध दी और ज़ख्म भर गया। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया था।

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कर्मावती ने हुमायूं को भेजी थी राखी 
प्राचीन काल और मध्य काल में राजपूत राजा जब लड़ाई पर जाते थे तब रानी और राजभवन की महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाती तीं और उनके हाथ में रक्षा धाना धागा बांधती थी। इस भरोसे के साथ कि रक्षा धागा राजा को सलामत रखेगा और उन्हें विजयश्री दिलाएगा। सोलहवीं शताब्दी में मेवाड़ की रानी कर्मावती को जब बहादुर शाह के मेवाड़ पर संभावित हमले की सूचना मिली, तो रानी कर्मावती ने तत्कालीन मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर उनसे रक्षा की गुहार की। हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुर शाह को हराकर रानी कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की।

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सिकंदर की जान बची थी राखी से
एक अन्य प्रसंग के अनुसार सिकंदर महान ने जब भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया तो एक समय ऐसा आया जब उसकी जान संकट में पड़ गई। उसकी की पत्नी ने जब देखा कि उसके पति की जान पर संकट में है, तब पति की र7 के लिए हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर उन्हें मुंहबोला भाई बना लिया और उनसे युद्ध के समय अपने पति यानी सिकंदर का वध न करने का वचन ले लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया और उसकी हत्या नहीं की। इस तरह सिकंदर की जान बच गई।

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स्वतंत्रता आंदोलन में बना जागरण का माध्यम 
स्वतंत्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवींद्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘मातृभूमि वदना’ का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं, हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल – सब पावन हों; है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्तःस्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।

प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा
राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बांधती हैं परंतु कई समाज में छोटी लड़कियां अपने संबंधियों या करीबियों को भी राखी बांधती हैं। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता, प्रतिष्ठित व्यक्ति या सीमा पर तैनात जवानों को भी महिलाएं राखी बांधने जाती हैं। अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा भी शुरू हो गई है। यह निश्चित रूप से प्रकृति और पर्यावरण को बचाने का एक शानदार प्रयास है। ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि हमारा पर्यावरण महफूज़ रहे।

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रक्षाबंधन को पूरी होती है अमरनाथ यात्रा
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। अमरनाथ यात्रा गुरु पूर्णिमा से प्रारंभ होकर रक्षाबंधन के दिन संपूर्ण होती है। कहते हैं इसी दिन यहां का हिमानी शिवलिंग भी अपने पूर्ण आकार को प्राप्त होता है। इस उपलक्ष्य में इस दिन अमरनाथ गुफा में प्रत्येक वर्ष मेले का आयोजन भी होता है। हालांकि इस साल कोरोना संक्रमण के चलते अमरनाथ यात्रा रद्द कर दी गई।

महाराष्ट्र में है नारियल पूर्णिमा 
महाराष्ट्र में यह त्यौहार नारियल पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन लोग नदी या समुद्र तट पर अपने जनेऊ बदलते हैं और सागर पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिये नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। यही कारण है कि इस एक दिन के लिये मुंबई के समुद्र तट नारियल के फलों से भर जाते हैं। इस साल रक्षाबंधन का त्यौहार सोमवार को मनाया जा रहा। रक्षाबंधन इस बार बेहद खास रहने वाला है, क्योंकि सोमवार को सावन पूर्णिमा, अन्न वाधन, वेद माता गायत्री जयंती, यजुर्वेद उपाकर्म, नारली पूर्णिमा, हयग्रीव जयंती, संस्कृत दिवस और सावन का पांचवां और अंतिम सोमवार भी है। हिंदू धर्म में राहुकाल और भद्रा के समय को शुभ नहीं माना जाता है। इस खास समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। भद्रा में राखी न बंधवाने के पीछ जो पौराण‍िक मान्‍यता बताई जाती है उसके अनुसार लंकापति रावण ने भी अपनी बहन से भद्रा काल में ही राखी बंधवाई थी। इसके बाद एक साल के भीतर ही उसका विनाश हो गया था। यही वजह है कि इस समय को छोड़कर बहनें अपने भाई के राखी बांधती हैं। इस बार कुछ समय भद्राकाल रहेगा।

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राखी की सटीक व प्रमाणिक जानकारी नहीं
गहन रिसर्च के बावजूद रक्ष बंधन कब शुरू हुआ, इसकी सटीक और प्रमाणिक जानकारी नहीं मिल सकी। लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व स्थापित हुआ, तब स्त्री की रक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी। मकसद यह रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र रिश्ता कायम किया जाए। गहन चिंतन-मनन से यह भी लगता है कि निश्चित रूप से रक्षाबंधन त्यौहार की शुरुआत असुरक्षा के माहौल में हुई होगी। यानी पहले समाज को स्त्री के लिए असुरक्षित बनाया गया होगा, फिर स्त्री की रक्षा का कॉन्सेप्ट विकसित किया गया। मतलब, धीरे धीरे समाज ऐसा होता गया होगा, जहां लड़कियां या महिलाएं असुरक्षित होती गईं। तब उनकी रक्षा की नौबत आई होगी। आज से दस हज़ार साल पहले, जब मानव झुंड में गुफाओं और जंगलों में रहता था। तब झुंड की मुखिया स्त्री हुआ करती थी। उस समय स्त्री को किसी रक्षा की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि तब सब लोग नैसर्गिक जीवन जीते थे और अपनी रक्षा स्वतः कर लेते थे।

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मानव सभ्यता के विकास से ही शुरुआत
मानव सभ्यता के विकास क्रम में जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया और झुंड के मुखिया का पद पुरुषों ने ताक़त के बल पर स्त्रियों से छीन लिया। पुरुष ने समाज पर अपना एकाधिकार बनाने के लिए स्त्री को भोग की वस्तु बना दिया। स्त्री को लेकर संघर्ष होने लगा। लिहाज़ा, स्त्री असुरक्षित हो गई। कालांतर में पुरुष ने स्त्री पर वर्चस्व बनाने के लिए उसके साथ साज़िश की। कह दिया स्त्री “इज़्जत” की प्रतीक है। अगर उसे कोई छू देगा तो वह इज़्ज़त गंवा बैठेगी। यह इज़्ज़त, जिसकी रक्षा स्त्री जीवन भर करती है और समाज में दयनीय हो जाती है, पूरी तरह मनोवैज्ञानिक सोच है। इज़्ज़त की रक्षा करने के चक्कर में वह हमेशा असुरक्षित महसूस करती है। कह सकते हैं कि इस चक्कर में स्त्री बिंदास जीवन ही नहीं जी पाती, जबकि पुरुष इस इज़्ज़त नाम की वैज्ञानिक सोच से परे होता है और मस्ती से जीवन जीता है। इस इज़्ज़त की रक्षा के चक्कर में स्त्री पुरुष से पिछड़ जाती है। उस अपनी इज़्ज़त की रक्षा के लिए पुरुष की ज़रूरत पड़ती है।

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स्त्री को अपना फैसला लेने का हक मिले
बचपन से यौवन तक स्त्री वह पुरुष, जिसे स्त्री ‘भाई’ कहती है, उसकी रक्षा करता है। बाद में यही काम दूसरा पुरुष, जिसे वह ‘पति’ कहती है, करता है। वह पुरुष केवल स्त्री की मांग में सिंदूर भर कर या मंगलसूत्र पहनाकर या निकाह कबूल है, कहकर स्त्री का स्वामी बन जाता है। पुरुष स्त्री की रक्षा करने के नाम पर उसका भयानक शोषण करता है। उसका मन चाहा इस्तेमाल करता है। एक तरह से उस घर में ग़ुलाम बनाकर रखता है। पुरुष ख़ुद तो बिंदास जीवन जीता है, लेकिन इज़्ज़त की रखवाली की ज़िम्मेदारी स्त्री पर छोड़ देता है। कहा जा सकता है कि यह तो स्त्री की रक्षा नहीं हुई। पतिरूपी पुरुष से स्त्री की रक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इसलिए ज़रूरत है, ऐसे प्रावधान किए जाएं, कि स्त्री को रक्षा की ज़रूरत ही न पड़े। समाज ऐसा हो कि पुरुष की तरह स्त्री भी उसमें बिंदास सांस ले सके। इसके लिए स्त्री को बताना होगा, कि जीवनचक्र के लिए वह महत्वपूर्ण कड़ी है। लिहाज़ा, उसे स्वतंत्र माहौल की ज़रूरत है। जहां वह इज़्ज़त के बोझ से परे होकर अपने बारे में सोचे और अपने बारे में हर फ़ैसले वह ख़ुद करे, न कि पिता, भाई या पति के रूप में उसके जीवन में आने वाला पुरुष उसके बारे में हर फ़ैसला ले।

स्त्री सशक्त व करियरओरिएंटेड बने
कहने का मतलब स्त्री को करियर ओरिएंटेड बनाने की ज़रूरत है। उसे बताया जाए कि उसके लिए लिए पति यानी हसबैंड से ज़्यादा ज़रूरी उसका अपना करियर है। कहने का मतलब स्त्री को सशक्त और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने की ज़रूरत है। आज स्त्री-पुरुष संबंधों को फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत है। जब इस संबंध की शुरुआत हुई थी, तब समाज आज जैसा विकसित नहीं था। तब सूचना क्रांति नहीं हुई थी। आज की तरह दुनिया एक बस्ती में तब्दील नहीं हुई थी। ऐसे में, जब हर चीज़ नए सिरे से परिभाषित हो रही है, तो स्त्री-पुरुष संबंध भी क्यों न फिर से विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए विकास के मुताबिक परिभाषित किया जाएं। अगर ऐसा किया जाता है, तो स्त्री अपने आप सुरक्षित हो जाएगी।

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स्त्री को भी पुरुष जितनी आज़ादी मिले
लब्बोलुआब यह कि स्त्री को पूरी आज़ादी देने की ज़रूरत है। जितना आजाद पुरुष है, उतनी ही आज़ादी स्त्री को भी मिलनी चाहिए। स्त्री चाहे अकेले रहे या किसी पुरुष के साथ। या ऐसे पुरुष के साथ रहे, जिसके साथ वह सहज महसूस करे। यानी स्त्री अपने लिए पति नहीं, बल्कि जीवनसाथी चुने और ख़ुद चुने और स्वीकार करे, न कि उसके जीवनसाथी का चयन उसका पिता या भाई करें। ख़ुद जीवनसाथी के चयन में अगर लगे कि उसने ग़लत पुरुष चयन कर लिया है, तो वह उसका परित्याग कर दे और अगर उसके जीवन में उसे समझने वाला कोई पुरुष आता है तो उसके साथ रहने के लिए वह स्वतंत्र हो। इसके लिए स्त्री को उसकी आबादी के अनुसार नौकरी देने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है, पुरुष यह सब नहीं करेगा।

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नए दौर के फिल्मों से ग़ायब होती राखी
आजकल नए दौर के पश्चिम से इम्प्रेस्ड फ़िल्मकारों ने अब इस त्यौहार को लगभग भुला ही दिया है, लेकिन पुरानी फिल्में आज भी इस पवित्र त्यौहार को खूबसूरत बना देती हैं। इसीलिए आज भई हमें राखी के त्यौहार के यादगार गीत सुनने को मिलते हैं। अगर भारतीय सिनेमा में राखी की प्रासंगिकता की बात करें तो, सिनेमा के 107 साल के इतिहास में हज़ारों की संख्या में फिल्में बनी। इनमें दर्जनों फिल्मों में भाई-बहन के बीच प्यार की कथानक और गीत शामिल किए गए।

भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना…
1959 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘छोटी बहन’ का गीत भैया मेरे राखी के बंधन को निभानाभैया मेरी छोटी बहन को ना भुलाना… भाई-बहन के रिश्ते की मज़ूबत डोर को बयां करता है। सरल ज़बान में गहरे अर्थ लिए इस गीत को गीतकार शैलेंद्र ने क़लमबंद किया है। संगीतकार शंकर-जयकिशन की धुन से सजे इस गीत को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ देकर यादगार बना दिया। यह नायाब गीत बलराज साहनी और नंदा पर फ़िल्माया गया है। इस गीत में नंदा अपने भाई यानी बलराज साहनी से राखी के रिश्ते को निभाने को कहती हैं।

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फूलों का तारों का…
1971 में रिलीज़ ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ फ़िल्म का गाना फूलों का तारों का ऐसा गीत है जिसे आज भी भाई अपनी बहन के प्रति स्नेह दिखाने के लिए उपयोग करते हैं। इस गाने में भाई-बहन के खट्टे-मीठे रिश्ते को दिखाया गया है। आनंद बख्शी के लिखे इस गीत को बेमिसाल धुन में ढाल कर आरडी बर्मन ने लता मंगेशकर और किशोर कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड करके यादगार बना दिया था।

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चंदा रे मेरे भैया से कहना…
राखी का ज़िक्र हो और चंदा रे मेरे भैया से कहनाबहना याद करे… चर्चा न करें तो चर्चा अधूरी रहेगी। 1971 में प्रदर्शित चंबल की कसम का साहिर लुधियानवी का लिखा और खय्याम का संगीतबद्ध किया यह गाना लता मंगेशकर की आवाज़ पाकर असाधारण कर्णप्रिय गीत की शक्ल ले लेता है। अभिनेत्री फरीदा जलाल और राज कुमार पर फिल्माया गाना यह गीत दिल को बेहद सुकून देता है। इसमें बहन की भाई के लिए फिक्र को शिद्दत से उबारा गया है।

राखी के शुभ अवसर पर सभी बहनों को शुभकामनाएं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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अमिताभ बच्चन अंत तक अमर सिंह को माफ नहीं कर पाए 

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भारतीय राजनीति के मास्टर खिलाड़ी रहे ठाकुर अमर सिंह के निधन पर सब लोग कभी उनके बहुत क़रीबी दोस्त रहे सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। कई लोग, ख़ासकर मीडिया से जुड़े लोग तो बार-बार अमिताभ का ट्विटर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग अकाउंट खोल रहे थे। लेकिन शाम तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना भी शुरू कर दिया। लेकिन शाम 7.14 बजे अमिताभ ने ट्विटर पर अपना सिर झुकाया हुआ फोटो पोस्ट किया। बिग बी ने इस फोटो को कोई कैप्शन नहीं दिया। लेकिन लोगों को लगा कि अमिताभ का सिर झुकाए हुए यह पोस्ट स्वर्गीय अमर सिंह के लिए ही है। हालांकि अमिताभ ने बाद में वही फोटो अपने ब्लॉग पर शेयर किया और उसके साथ लिखा।
‘‘शोक ग्रस्त, मस्तिष्क झुका, प्रार्थनाएं केवल रहीं,
निकट प्राण, संबंध निकट, वो आत्मा नहीं रही !’’

लिहाज़ा, इसके बाद लोगों ने इसे अमिताभ की अमर सिंह के निधन पर अधिकृति प्रतिक्रिया मान लिया। हालांकि कई लोगों को सोशल मीडिया पर अक्सर लोगों का नाम लेकर तारीफ़ करने वाले अमिताभ बच्चन द्वारा अपने दोस्त के बारे में इस तरह का रिएक्शन हजम नहीं हो रहा है। लोग मन ही मन सवाल कर रहे हैं कि अमिताभ बच्चन ने अमर सिंह का नाम क्यों नहीं लिखा? उनके साथ अपनी फोटो शेयर करते हुए श्रद्धांजलि क्यों नहीं दी? निधन की ख़बर सुनने के बाद इतना साहित्यिक और रहस्यमय प्रतिक्रिया क्यों दी। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत राजनीति, उद्योग-जगत और बॉलीवुड के हर शख्स ने अमर सिंह का नाम लेकर या अपना उनके साथ पोटो या केवल उनका फोटो शेयर करते हुए दिवंगत आत्मा को श्रद्धा सुमन अर्पित किया।

यहां तक कि अमर सिंह को एकदम नापसंद करने वाले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी अमर सिंह के निधन पर उनके और मुलायम सिंह यादव के साथ अपनी फोटो को ट्विट करते हुए लिखा “श्री अमर सिंह जी के स्नेह-सान्निध्य से वंचित होने पर भावपूर्ण संवेदना एवं श्रद्धांजलि।“ जबकि यह सर्व विदित है कि तीन साल पहले जब समाजवादी पार्टी में कलह मची तो अखिलेश ने कलह के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार ठहराया था। इसके बावजूद अमर सिंह के निधन पर अखिलेश ने शिष्टाचार वश उनकी फोटो शेयर करते हुए उन्हें याद किया। लेकिन सदी के महानायक ने इतना भी नहीं किया। जबकि कोरोना के चलते नानावटी कोरोना अस्पताल में भर्ती होने के बाद भी अमिताभ बच्चन की सोशल मीडिया पर सक्रियता में कोई कमी नहीं आई है।

वह कोरोना से संक्रमित होने के बावजूद सोशल मीडिया पर उतनी ही शिद्दत से सक्रिय हैं और अक्सर कुछ न कुछ पोस्ट करते रहते हैं। कुछ दिनों पहले एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल पर जब ख़बर चलने लगी कि अमिताभ बच्चन जल्दी ही नानावटी अस्पताल से डिस्चार्ज होकर अपने घर जाने वाले हैं। तो पिछले तीन हफ़्ते से ज़्यादा समय से नानावटी अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में भर्ती अमिताभ बच्चन ने खुद ट्विट करके उस ख़बर को फेक यानी ग़लत बताया था और यह भी कहा कि अभी उनके डिस्चार्ज होने की कोई ख़बर नहीं है। हालांकि अमर सिंह के निधन के एक दिन बाद यानी 2 अगस्त की शाम कोरोना टेस्ट निगेटिव आने पर अमिताभ को नानावटी अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।

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हैरान करने वाली बात है कि पहली अगस्त को ही अमिताभ बच्चन ने शनिवार की सुबह अपने ट्विटर अकाउंट पर दो और पोस्ट शेयर किया था, मतलब दोनों का समान ही था। दोनों पोस्ट का मतलब और इशारा ऐसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के बारे में था, जो किसी के किसी के बारे में कुछ बोल कर उससे संबंध ख़राब कर लेते हैं। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि अमिताभ ने यह पोस्ट किसके लिए शेयर किया था। पहला पोस्ट सुबह 7.51 बजे का है, जबकि दूसरा पोस्ट सुबह 11.35 बजे का। यह संयोग ही है कि दोनों पोस्ट के कुछ घंटे बाद अमर सिंह के निधन की ख़बर आ गई।

पहले पोस्ट में अमिताभ बच्चन ने लिखा “जीभ पर लगी चोट जल्दी ठीक हो जाती है, लेकिन जीभ से लगी चोट कभी ठीक नहीं होती..!!” यह पोस्ट अमर सिंह पर एकदम फिट बैठता है। इसी तरह दूसरे पोस्ट में पहले एक श्लोक ‘वचनैरसतां महीयसो न खलु व्येति गुरुत्वमुद्धतैः। किमपैति रजोभिरौर्वरैरवकीर्णस्य मणेर्महार्घता।। (शिशुपालवधम्, १६.२७)’ लिखा। फिर उसका हिंदी अनुवाद ‘दुर्जनों के वचन से सज्जनों का गौरव कम नहीं होता। पृथ्वी की धूलि से ढके हुए रत्न की बहुमूल्यता कभी नष्ट नहीं होती।’ गौरतलब है कि संबंध ख़राब होने के बाद अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन को बहुत भला-बुरा कहा था, लेकिन अमिताभ ने सौम्यता का परिचय देते हुए कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी।

वह पिछले 23 दिन से नानावटी अस्पताल में थे। दरअसल, भारतीय राजनीति और सिनेमा जगत में अमिताभ बच्चन और अमर सिंह की दोस्ती काफी चर्चा में थी। यह दोस्ती तब शुरू हुई जब अमिताभ बच्चन गंभीर आर्थिक संकट में थे। बात 1990 के दशक की है जब अमिताभ अपने करियर के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे थे। उनकी कंपनी अमिताभ बच्चन कॉरपोरेशन लिमिटेड दिवालिया हो चुकी थी। नौबत अमिताभ बच्चन के बंगले की नीलामी तक पहुंच गई थी। उसी समय अमर सिंह उनकी जिंदगी में फरिश्ता बनकर आ गए। कहा जाता है कि उस वक़्त उन्होंने अमिताभ को डूबने से बचाया था। इस दौरान अमर सिंह ने सहारा ग्रुप के मालिक सुब्रत राय समेत कई बड़े लोगों से अमिताभ की दोस्ती करवाई थी।

वस्तुतः दोनों के रिश्ते बिगड़ने उस वक्त शुरू हुए जब समाजवादी पार्टी में अखिलेश का कद बढ़ने लगा और अमर सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया। लेकिन उस समय बच्चन परिवार अमर सिंह के साथ खड़ा नहीं हुआ। अमर सिंह उम्मीद कर रहे थे कि उनके साथ जया बच्चन भी समाजवादी पार्टी छोड़ देंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उल्टे जया ने अमर सिंह को ही निशाने पर ले लिया। इसके बाद अमर सिंह अमिताभ से नाराज़ हो गए। उन्होंने न सिर्फ जया बच्चन और ऐश्वर्या राय के रिश्तों को लेकर बच्चन परिवार पर निशाना साधा, बल्कि एक वीडियो जारी करके ट्विटर पर जया को उनके संसद में दिए गए उनके बयान के लिए घेरा था और इसके बाद कई बार बच्चन परिवार को खरी-खोटी सुनाते रहे।

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हालांकि कुछ साल पहले अमर सिंह एक घोटाले में गिरफ़्तार हो गए और सबने उनसे मुंह मोड़ लिया। इसके चलते वह बीमार हो गए और उनका किडनी का ट्रांसप्लांट भी हुआ। वह इस साल जनवरी से फिर सिंगापुर के एक अस्पताल में इलाज करवा रहे थे। उसी दौरान फरवरी में उन्होंने वीडियो जारी कर अमिताभ से माफी मांगी। उन्होंने कहा था, ‘आज मेरे पिता की पुण्यतिथि है और मुझे इसके बारे में अमितजी का मैसेज आया। अपने जीवन के इस पड़ाव पर जब मैं ज़िंदगी और मौत से जूझ रहा हूं, मुझे अमित जी और उनके परिवार के लिए हद से ज़्यादा बोल जाने का गहरा पश्चाताप हो रहा है। भगवान उनके परिवार को अच्छा और कुशल रखे। हालांकि अमिताभ बच्चन ने अमर सिंह के माफ़ीनामे पर भी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी।

कहा जा रहा है कि अमिताभ बच्चन अमर सिंह के बचकाने बयान से बहुत अधिक हर्ट हुए थे। उन्होंने अमर सिंह के बारे में कभी कुछ नहीं कहा। परंतु उन्हें कभी माफ़ नहीं किया। संभवतः इसीलिए पहली अगस्त को पोस्ट किया कि जीभ पर लगी चोट तो जल्दी से ठीक हो जाती है, लेकिन जीभ से लगी चोट कभी ठीक नहीं होती। वह हमेशा बनी रहती है। यानी अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन परिवार के बारे में सार्वजनिक तौर पर बयान देकर अपनी जीभ से जो चोट पहुंचाई थी, उस चोट का ज़ख्म कभी भरा ही नहीं। संभवतः बिग बी ने शिष्टाचार वश अमर सिंह के निधन पर शोक व्यक्त कर दिया, लेकिन ज़्यादा कुछ नहीं लिखा। इससे यही प्रतीत होता है कि अमर सिंह के माफ़ी मांगने के बाद भी अमिताभ उन्हें माफ़ नहीं कर पाए।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मोहब्बत की झूठी कहानी…

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
लोग चाहे जो कहें, लेकिन अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की असामयिक मौत और उसके बाद के घटे घटनाक्रम में ले देकर केवल और केवल मोहब्बत की ही रुसवाई हुई है। मोहब्बत जो कभी चाहत, स्नेह, फिक्र, त्याग और समर्पण की प्रतीक हुआ करती थी। जिस मोहब्बत की एकदम सही परिभाषा आज तक किसी भी विशेषज्ञ, विद्वान या दार्शनिक द्वारा नहीं गढ़ी जा सकी, उसी मोहब्ब्त को अब तरह-तरह के नाम दिए जा रहे हैं। वही मोहब्बत इन दिनों बॉलीवुड में सबसे बड़ी विलेन बन गई है। लिहाज़ा, वह मोहब्बत अब सबके निशाने पर है। सुशांत की ख़ुदकुशी या हत्या (जो भी हो) के लिए केवल और केवल मोहब्बत को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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मोहब्बत बेचारी बन गई है। मोहब्बत की फ़ज़ीहत कुछ दिन पहले तब शुरू हुई। जब अचानक ख़बर आई कि सुशांत सिंह के पिता केके सिंह ने घटना के तक़रीबन डेढ़ महीने बाद अपने बेटे की गर्लफ्रेंड रही रिया चक्रवर्ती और उनके परिजनों को सुशांत की मौत के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए उनके ख़िलाफ़ पटना के एक पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज कराई है। कहना न होगा कि उसी समय से पूरे देश के लोग बेचारी मोहब्बत की लानत-मलानत कर रहे हैं। लोग मोहब्बत की ऐसी की तैसी कर रहे हैं। मोहब्बत को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।


यहां तो यही लग रहा है कि जैसे सुशांत सिंह राजपूत की मौत, आत्महत्या थी या हत्या, इसकी गहन तहक़ीकात की ज़रूरत है, वैसे ही सुशांत सिंह और अंकिता लोखंडे या फिर सुशांत और रिया चक्रवर्ती के बीच मोहब्बत थी या नहीं, इसकी भी गहन तहक़ीकात की जरूरत लग रही है। सबसे रोचक पहलू यह है कि जहां पहले सुशांत सिंह की मौत के लिए किसी बड़ी साज़िश और बॉलीवुड में माफ़िया का रूप ले चुके ‘नेपोटिज़्म’ को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा था और मामले की सीबीआई जांच की मांग ज़ोर-शोर से की जा रही थी, वहीं नई एफ़आईआर ने मामले का पूरा फ़ोकस ही बदल दिया है। सीबीआई जांच की मांग तो साइड में चली गई है, लोग यह जानने के लिए ज़्यादा उत्सुक लग रहे हैं कि क्या वाक़ई रिया प्रेमिका के रूप में सुशांत की मौत बन कर आई थी। अगर हां, तो कैसे। लोगों की यही उत्सुकता टीवी न्यू चैनलों को मसाला और टीआरपी दोनों दे रही है।

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सबसे चौंकाने वाला पक्ष है, सुशांत के पिता, उनके भाई, उनकी बहन और उनके परिजनों का स्टैंड। सुशांत राजपूत का परिवार महीने भर से ज़्यादा समय तक सुसुप्तावस्था में था। इस परिवार का हर सदस्य तब सक्रिय हुआ, जब उन्हें किसी सूत्र से जानकारी मिली कि सुशांत के बैंक खाते में तो 17 करोड़ रुपए की मोटी रकम थी और 15 करोड़ रुपए पर रिया ने हाथ साफ़ कर दिया और अपने किसी परिजन के नाम ट्रांसफ़र कर दिया। अगर सुशांत सिंह के परिजनों का आरोप सच साबित होता है तो इसका यही मतलब होगा कि इस अभिनेत्री ने अपनी मोहब्बत को केवल धोखा (बॉलीवुड की भाषा में डिच) ही नहीं दिया बल्कि उसकी बड़ी कीमत भी वसूल ली। लग तो यही रहा है कि इन नवोदित अभिनेत्री ने मोहब्बत को हानि-लाभ यानी सौदा बना दिया।

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दरअसल, 110 साल के इतिहास में फिल्मों में मोहब्बत केवल चाहत, स्नेह, फिक्र, त्याग या समर्पण ही बयां करती थी। ‘राजा हरिश्चंद्र’ से 1913 में फ़िल्मों का दौर शुरू होने, 1931 में ‘आलम आरा’ से उसे आवाज़ मिलने और 1937 में ‘किसन कन्हैया’ से चित्रों को रंग मिल जाने के बाद जिस भी फ़िल्म को देखिए, उसमें मोहब्बत के इसी चेहरे का दीदार होता है। ‘लैला मजनूं’ ने तो मोहब्बत को शहादत का दर्जा दे दिया था। फिल्मों में मोहब्बत के व्यापारित पक्ष की कल्पना पहली बार 1983 में देखने को मिली। यह फ़िल्म थी सहाबहार अभिनेता जीतेंद्र, राज बब्बर, रीना रॉय और परवीन बॉबी की ‘अर्पण’। फिल्म में एक लोकप्रिय गाना मोहब्बत अब तिजारत बन गई है, तिजारत अब मोहब्बत बन गई है था। आनंद बक्शी के लिखे इस गाने को लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की म्यूजिक पर गाया था अनवर ने। इस फ़िल्म में पहली बार इस बात की परिकल्पना की गई थी, कि मोहब्बत आजकल तिजारत यानी व्यापार बनती जा रही है।

रिया चक्रवर्ती के सोशल मीडिया पर पोस्ट किए गए इमोशनल थॉट्स और अंतरंग फोटोग्राफ यही कहानी कहते हैं कि यह अभिनेत्री कभी सुशांत से बेइंतहां मोहब्बत करती थी। उसके साथ इतनी गहराई तक इनवॉल्व हो गई थी, कि उसके बिना रह नहीं सकती थी। मगर सुशांत की मौत के बाद अब राज़ खुल रहा है कि वह तो मोहब्बत थी ही नहीं। वह तो तिजारत यानी व्यापार थी। अब अब तक सामने आई सूचनाएं सच हैं, तो यही लगता है, रिया लाभ अर्जित करने के लिए सुशांत के जीवन में आई थी। लाभ अर्जन बुरी बात नहीं, लेकिन लाभ अर्जन की दीवानगी इस कदर भी नहीं होनी चाहिए, कि जीवन की क़ीमत लाभ अर्जन से भी कम हो जाए। आप किसी से इतना लाभ लेने की उम्मीद पाल बैठें कि उसकी जान की कोई कीमत ही न रहे जाए, यह सोच या कार्य अमानवीयता है।

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यही वजह है कि उनकी मोहब्बत की कहानी सुशांत की मौत के बाद अब उस मोड़ पर पहुंच गई है, जहां उसी मोहब्बत के कारण अब रिया चक्रवर्ती के ऊपर गिरफ़्तारी की तलवार लटक रही है। कभी सुशांत के प्यार की गिरफ़्त में रही यह अभिनेत्री अब गिरफ़्तारी से डर रही है। लिहाज़ा, उसकी हवाइयां उड़ रही है। वह अपने बचाव के लिए ख़ूब हाथ-पैर मार रही है। सबसे महंगा वकील लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है। अब तक सुशांत की मौत की सीबीआई जांच कराने वाली रिया को अब बिहार पुलिस की जांच से भी शिकायत है। वह चाहती है पूरे प्रकरण की जांच वही मुंबई पुलिस करे, जिसके ऊपर लेट-लतीफ़ी और मामले को दबाने के गंभीर आरोप लग रहे हैं। बचाव के चक्कर में रिया वह बात कह रही है, जो बात रिलेशनशिप में रहने के दौरान कहने की कल्पना भी नहीं की होगी। यह मोहब्बत के तिजारत वाले पक्ष से भी बदसूरत और ख़तरनाक है।

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और, देश के टीवी न्यूज़ चैनलों ने तो मोहब्बत को पूरा का पूरा तमाशा बना दिया है। इस संपूर्ण प्रकरण पर तरह-तरह की ख़बरें चला कर पूरे मामले को ही मज़ाक़ में बदल दिया है। बेशक उनको बिज़नेस देने वाली टीआरपी मिल रही है, लेकिन यह बहुत ज़्यादा लग रहा है। लग तो यही रहा है कि सुशांत सिंह की मोहब्बत, जो निश्चित रूप से उसके लिए बहुत निजी रही होगी, उसकी प्राइवेसी रही होगी, अब वही मोहब्बत एक उत्सव बन गई है। केवल सुशांत की मोहब्बत ही नहीं, बल्कि सुशांत का पूरा जीवन ही तमाशा बन गया है। सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती भले कभी लवबर्ड रहे होंगे, लेकिन इन दिनों इनका संबंध चपचटा मसाला बन गया है। सुशांत की मौत और रिया का धोखा में ज़बरदस्त मसाला पैदा हो गया है। वह मसाला ख़बर बेचने का ज़रिया बन गया है।

ट्रेजेडी केवल सुशांत-रिया की मोहब्बत के साथ नहीं हो रही है, बल्कि वही ट्रेजेडी सुशांत-अंकिता की मोहब्बत की भी हुई है। कभी सुशांत की हमनवा रहीं अंकिता लोखंडे आजकल घूम-घूम कर सारे टीवी चैनलों को ‘एक्सक्लूसिव लाइव इंटरव्यू’ दे रही हैं और दावा कर रही हैं कि सुशांत तो बहुत बहादुर लड़का था, वह ख़ुदकुशी कर ही नहीं सकता। यानी उसकी हत्या हुई अथवा उसका इतना मानसिक शोषण किया गया कि उसने मौत का आलिंगन कर लिया। सबसे बड़ी बात अंकिता के चेहरे पर मोहब्बत छिन जाने का ज़रा भी शिकन नहीं दिख रहा है। उलटे लाइव जवाब के दौरान वह हंस भी देती है। यह भी मोहब्बत का तमाशाई पक्ष हो सकता है। कहना न होगा कि तमाशा बेचने वाले तमाशबीनों के लिए मोहब्बत के सनसनीखेज़ तमाशे निकाल-निकाल कर बेच रहे हैं।

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इतना तो तय है कि इस हुआं-हुआं में सुशांत के मौत की असली वजह दब कर रह गई। यह बहुत दुखद है। महाराष्ट्र सरकार और बिहार सरकार राजनीति में उलझ गई हैं और इस पूरे प्रकरण से राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में राजनेता भी इसमें पिल पड़े हैं। ऐसे में यही कहना होगा कि अगर सुशांत की हत्या हुई या उसे इतना शोषित किया गया कि उसने मौत को गले लगा लिया तो इसकी उच्च स्तर पर जांच होनी चाहिए और सीबीआई इसके लिए सबसे उपयुक्त एजेंसी हो सकती है और अगर सुशांत ने बॉलीवुड की पॉलिटिक्स से तंग आकर मौत को गले लगा लिया तो उसने ग़लत किया। उसे हार मानने की बजाय लड़ना चाहिए था, संघर्ष करना चाहिए था।

पूरे प्रकरण पर बेग़म अख़्तर का गाया यह गाना बहुत सामयिक लग रहा है।
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया…

और बेग़म अख़्तर का ही गया यह गाना भी।

Begum Akhtar – Aey mohabbat tere anajam
मेरे हमनफ़स मेरे हमनमा मुझे दोस्त बनकर दग़ा न दे…

Begum Akhtar Mere Hum nafas mere hum