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ऋण लेने वालों की मजबूरी का फायदा उठा रही हैं बैंक

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मोरेटोरियम विंडो राहत नहीं मुसीबत!

हम बचपन में सुना करते थे कि महामारी के दिनों में उन साहूकारों और शव के अंतिम संस्कार से जुड़े लोगों की चांदी हो जाया करती थी, जो कफ़न, शव जलाने की लकड़ियां और दूसरी सामग्रियां बेचा करते थे, क्योंकि अधिक मौत होने पर उनका मुनाफ़ा कई गुना बढ़ जाता था। यानी महामारी का मौसम भी उनके लिए पैसे बनाने और लाभ कमाने की ऋतु होती थी। यही बात इन दिनों भारतीय बैंकों पर लागू हो रही है। कोरोना के संक्रमण काल में, जहां लोगों को अपनी जान बचाने की पड़ी है, जिसे जहां जीवित रहने की गुज़ाइश दिख रही है, वह वहीं भाग रहा है, लेकिन भारतीय बैंकों के लिए कमाने और अपनी तिजोरी भरने का यह सर्वोत्तम मौसम है।

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कहने को तो भारतीय रिज़र्व बैंक ने सभी तरह के लोन, जैसे कि टर्म लोन, पर्सनल लोन, ऑटो लोन और कृषि टर्म लोन के भुगतान पर मोरेटोरियम अवधि 31 अगस्त तक बढ़ा दी है। सरकार ज़ोर-शोर से यह प्रचारित कर रही है कि कोरोना संक्रमण से परेशान लोगों को छह महीने की मोहलत दे दी है। और अब कर्ज़ लेने वाले लोग मोरेटोरियम का लाभ लेकर, सितंबर महीने से EMI का भुगतान कर सकते हैं।

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लेकिन याद रखिए।

यह राहत तो बिल्कुल नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी मुसीबत है। यह जैसा दिख रहा है या जिस तरह से पेश किया जा रहा है, वैसा बिल्कुल भी नहीं है। अगर कहें कि संकट की घड़ी में मजबूर और लाचार नागरिकों को लूटने की यह सरकार की अमानवीय और अवसरवादी साज़िश है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा। इसलिए जो लोग मोरेटोरियम जैसी योजना का फायदा उठाने की सोच रहे हैं, वे सरकार और बैंकों के हिडेन एजेंडे को अच्छी तरह समझ लें। वस्तुतः मोरेटोरियम का लाभ लेने पर आपकी EMI में एक निश्चित राशि जोड़ दी जाएगी, जो क़र्ज़ की अंतिम किस्त चुकाने तक जारी रहेगी। इससे यह भी संभव हो कि आपके लिए EMI का भुगतान ही मुश्किल हो जाए।

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मसलन, अगर आपने किसी बैंक या वित्तीय संस्थान से 25 लाख रुपए का कर्ज़ ले रखा है और हर महीने 25 हज़ार रुपए के आसपास EMI भरते हैं, तो छह महीने यानी मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई और अगस्त तक मोरेटोरियम का लाभ लेने पर, सितंबर से आपकी EMI 26 हजार रुपए के लगभग हो जाएगी यानी सितंबर से आपको हर महीने कर्ज चुकाने तक एक हज़ार रुपए अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा। यह धनराशि आपकी तीन EMI से भी अधिक होगी। इसके अलावा कर्ज़ अदा करने की अवधि भी छह महीने आगे खिसक जाएगी। इसे आप दिए गए चार्ट की सहायता से और अच्छी समझ सकते हैं और अपनी वित्तीय स्थिति के अनुसार उचित फ़ैसला ले सकते हैं।

लेखक – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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चमत्कार – ईद के दिन आया नदीम ख़ान को होश, पार्वती खान ने दिया दुआ करने वालों को धन्यवाद

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इंडिया व्यूपॉइंट

मुंबईः बॉलीवुड के नामचीन फ़ोटो डायरेक्टर और कालजयी साहित्यकार डॉ. राही मासूम रज़ा के पुत्र नदीम ख़ान (Nadeem Khan) को 22 दिन बाद अचानक ईद के दिन होश आ गया। पिछली 4 मई को अपनी बिल्डिंग की सीढ़ी उतरते समय सीढ़ी पर ही गिर जाने से नदीम ख़ान बेहोश हो गए थे और तब से बांद्रा पश्चिम के लीलावती अस्पताल में के आईसीसीयू में अवचेतन अवस्था में थे, लेकिन ईद के दिन शाम हो उनको होश आ गया।

नदीम ख़ान की पत्नी और अपने ज़माने की चर्चित पॉप सिंगर और बाबा भोलेनाथ की भक्त पार्वती ख़ान (Parvati Khan) ने बताया, “ईद के मुकद्दस दिन अस्पताल में शाम साढ़े चार बजे अचानक नदीम खान ने आंखें खोली। क़रीब पांच बजे फिर आंखें खोली और बायां हाथ भी हिलाया।”

पार्वती ख़ान ने बताया, “अस्पताल में नदीम ख़ान ने जैसे ही आंखें खोली, आईसीसयू से आकर एक नर्स ने बताया और वहां मौजूद पार्वती और उनके बेटे जतिन तुरंत आईसीसीयू में गए। डॉक्टर ने कहा, “यह तो चमत्कार है। अब नदीम जल्दी ही ठीक होकर घर लौटेंगे।”

बाद में ईद के दिन हुए इस चमत्कार के बाद पार्वती खान ने नदीम ख़ान के लिए दुआ करने वालों को दिल से धन्यवाद दिया और कहा कि यह दुआओं का असर है कि नदीम को होश आ गया। पार्वती ने बताया, “आज (26 मई) सुबह भी नदीम ने आखें खोली। फिलहाल अभी बातचीत नहीं कर पा रहे हैं और डॉक्टर अभी उन्हें आईसीसीयू में ही रखेंगे।”

पार्वती ख़ान ने बताया कि 4 मार्च को अपने बैंड स्टैंड (बांद्रा) में अपनी बिल्डिंग से उतरते समय सीढ़ियों पर ही गिर पड़े थे। जिससे सिर पर बहुत गंभीर चोट लगी थी और तब से ही अस्पताल में बहोश थे। इसी दौरान छह मई को उनकी सर्जरी की गई थी।

पार्वती ख़ान ने लोगों से अपील कि के नदीम के लिए दुआएं करते रहें।

Lilavati-Hospital चमत्कार –  ईद के दिन आया नदीम ख़ान को होश, पार्वती खान ने दिया दुआ करने वालों को धन्यवाद

पार्वती ख़ान ने इस बात पर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा, “उत्तर प्रदेश के प्रमुख अख़बार ने अपने डिजिटल एडिशन में नदीम के बारे में ग़लत ख़बर चलाई और ग़लत समाचार लिखा कि इलाज के लिए हम लोगों को मदद की ज़रूरत है। यह हमारी छवि को ख़राब करने का कुप्रयास है।”

उत्तरांचल से कैरेबियन द्वीप त्रिनिडाड में बस गए भारतीय परिवार में जन्मी पार्वती महाराज सिंगिंग के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए अस्सी के दशक में भारत आई थीं। बाद में बॉलीवुड के फोटो डायरेक्टर नदीम ख़ान से प्रेम-विवाह कर लिया।

भगवान शिव में पार्वती ख़ान की अपार श्रद्धा है। वह भजन गाती हैं। देश के सभी 12 ज्योतिर्लिंगों का दर्शन कर चुकी हैं। काशी विश्वनाथ में उनका दर्शन बहुत अधिक सुर्खियों में रहा। 2004 में वह महाशिवरात्रि के दिन ही वाराणसी पहुंच गई थीं। सरकारी रोक के बावजूद गोपनीय तरीक़े से आठ दिन तक वाराणसी में रहीं। इस दौरान वह महाशिवरात्रि के दिन बनारस की मशहूर शिव बारात में शामिल हुईं और उन्होंने आठ दिन रोज़ाना बाबा विश्वनाथ का दर्शन-पूजन और सवा लाख महामृत्युंजय जाप भी किया था। उनकी शिवभक्ति को देखते हुए ही बनारस के कई लोगों ने दर्शन करने ने उनकी मदद की थी। बहरहाल, पार्वती के बनारस से मुंबई लौटने पर एक समाचार एजेंसी ने न्यूज़ ब्रेक कर दी। पार्वती का काशी विश्वनाथ में दर्शन करना पूरे देश में चर्चित हुआ था।

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कविता : चित्रकार की बेटी

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तुम बहुत अच्छे इंसान हो
धीर-गंभीर और संवेदनशील
दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने वाले
बहुत कुछ मेरे पापा की तरह
तुम्हारे पास है बहुत आकर्षक नौकरी
कोई भी युवती सौभाग्य समझेगी अपना
तुम्हारी जीवन-संगिनी बनने में
मैं भी अपवाद नही हूं
तभी तो
अच्छा लगता है मुझे सान्निध्य तुम्हारा
इसे प्यार कह सकते हो तुम
हां, तुममें जो पुरुष है
उससे प्यार करने लगी हूं मैं
स्वीकार नहीं कर पा रही हूं
फिर भी
परिणय प्रस्ताव तुम्हारा
तुम एक चित्रकार हो
और मैं चित्रकार की बेटी
तुम्हारे अंदर देखती हूं मैं
अपने चित्रकार पापा को
एक ऐसा इंसान
जो पूरी ज़िंदगी रहा
दीन-हीन और पराजित
अपराधबोध से ग्रस्त
अपनी बेटी-पत्नी से डरता हुआ
पैसे-पैसे के लिए
संघर्ष करता हुआ
हारता हुआ
ज़िंदगी के हर मोर्चे पर
तमाम उम्र जो ओढ़े रहा
स्वाभिमान की एक झीनी-सी चादर
उसके स्वाभिमान ने
उसके सिद्धांत ने
बनाए रखा उसे
तमाम उम्र कंगाल
और छीन लिया मुझसे
मेरा अमूल्य बचपन
मेरी मां का यौवन
मेरी मां सहेजती रही
उस चित्रकार को
पत्नी की तरह ही नहीं
एक मां की तरह भी
एक संरक्षक की तरह भी
उसे खींचती रही
मौत के मुंह से
सावित्री की तरह
फिर भी वह चला गया
ख़ून थूकता हुआ
मां को विधवा और मुझे अनाथ करके
बेशक वह था
एक महान चित्रकार
एक बेहद प्यार करने वाला पति
एक ख़ूब लाड़-दुलार करने वाला पिता
लेकिन वह चित्रकार था
एक असामाजिक प्राणी भी
समाज से पूरी तरह कटा हुआ
आदर्शों और कल्पनाओं की दुनिया में
जीने वाला चित्रकार
कभी न समझौते न करने वाला
ज़िद्दी कलाकार
लेकिन जब वह बिस्तर पर पड़ा
भरभरा कर गिर पड़ीं सभी मान्यताएं
बिखर गए तमाम मूल्य
अंततः दया का पात्र बनकर
गया वह इस दुनिया से
उसके भयावह अंत ने
ख़ून से सनी मौत ने
हिलाकर रख दिया
बहुत अंदर से मुझे
नफ़रत सी हो गई मुझे
दुनिया के सभी चित्रकारों से
मेरे अंदर आज भी
जल रही एक आग
जब मैं देखती हूं अपनी मां को
ताकती हूं उसकी आंखों में
तब और तेज़ी से उठती हैं
आग की लपटें
पूरी ताक़त लगाती हूं मैं
ख़ुद को क़ाबू में रखने के लिए
ख़ुद को सहज बनाने में
इसीलिए
तुमसे प्यार करने के बावजूद
तुम्हारे साथ
परिणय-सूत्र में नहीं बंध सकती मैं
जो जीवन जिया है मेरी मां ने
एक महान चित्रकार की पत्नी ने
मैं नहीं करना चाहती उसकी पुनरावृत्ति
तुम्हारी जीवनसंगिनी बनकर
नहीं दे पाऊंगी तुम्हें
एक पत्नी सा प्यार
इसलिए मुझे माफ़ करना
हे अद्वितीय चित्रकार

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं…

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ईमानदारी से कहूं तो मेरे मां-बाप ने केवल मज़े लेने के लिए सेक्स किए थे और मैं पैदा हो गया। लिहाज़ा, मेरे पैदा होने में न तो मेरा कोई योगदान था और न ही मेरा कोई वश। जहां और जिस हाल में मेरे मां-बाप रहते थे, मैं वहीं पैदा हो गया। इस देश, या कहें ब्रह्मांड के हर प्राणी की तरह, मेरे भी पैदा होने पर मेरा किसी तरह का नियंत्रण या मेरी इच्छा नहीं थी। मेरा ज़रा भी नियंत्रण होता या मेरी ज़रा भी इच्छा होती, तो ऐसा जीवन जीने के लिए मैं पैदा ही न हुआ होता। पैदा होने से ही इनकार कर देता। बोल देता, “आप ग़रीब हैं, आपके यहां पैदा होकर जीवन भर रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। इसलिए मैं आपके यहां पैदा होने से साफ़ इनकार करता हूं।” परंतु पैदा होने पर मेरा कोई वश नहीं था। लिहाज़ा, किसी द्वारा पैदा कर दिए जाने के बाद अब अपना पूरा जीवन, 30-40, 50-60, 70-80 या 90-100 साल, जो भी हो, जीने के लिए अभिशप्त हूं। क्योंकि मैं मजदूर हूं।

अवांछित रूप से पैदा होने का यह अभिशाप ही मुझे फ़िलहाल उस जगह ले जा रहा था, जहां कोरोना वायरस के संक्रमण काल में कम से कम दो जून की रोटी के मिलने की संभावना मौजूदा जगह से शर्तिया अधिक है। और ज़ाहिर तौर पर वह जगह है, मेरा गांव, जहां मैं या मेरे बाप-दादा पैदा हुए थे। वही गांव, जहां संकट के समय ज़िंदा रहने की संभावना सबसे अधिक होती है, क्योंकि अन्न केवल उस गांव के खेतों में पैदा होता है। जिस अन्न को खाकर हर इंसान ज़िंदा रहता है।

वही गांव, जहां पहले केवल और केवल भाई-चारा और प्रेम का बसेरा रहता था, लेकिन जवाहर रोजगार योजना और मनरेगा जैसी पैसे बनाने वाली योजनाएं शुरू होने के बाद, उस भाई-चारे और प्रेम की जगह राजनीति ने ले ली है। वही गांव, जो सदैव दीन-हीन हाल में ही रहा। फिर भी वह गांव शहर के मुक़ाबले भोजन देने में अधिक उदार है। गांव में सरवाइवल फॉर द फीटेस्ट, सरवाइवल फॉर द रिचेस्ट और सरवाइवल फॉर द लकिएस्ट का फॉर्मूला लागू नहीं होता। गांव में सरवाइवल फॉर द ऑल का नियम चलता है। इसलिए केवल मैं ही नहीं, बल्कि, मेरे जैसे सभी के सभी मजदूर बस अपने-अपने गांव भागे चले जा रहे हैं।
Migrant-Labour-300x225 मैं मजदूर हूं, इसलिए चला जा रहा हूं...
दरअसल, मैं कोरोना महामारी और उसके असली असर को समझ ही नहीं पाया। इसलिए जब कहा गया कि ताली बजाओ तो मैंने ताली बजाई। जब कहा गया कि लाइट बुझाकर दीप जलाओ तो मैंने दीप जलाया। जब कहा गया कि लॉकडाउन है, घर में ही रहो, तो मैं घर में क़ैद हो गया। जब पहली बार लॉकडाउन की घोषणा हुई, तो मुझे लगा हफ़्ते-दो हफ़्ते की बात है। वक़्त किसी तरह गुज़ार लूंगा। जो कुछ घर में है, उससे ही काम चला लूंगा। लेकिन जब महीना बीत गया। दूसरा महीना शुरू हो गया। पैसे ख़त्म होने लगे, राशन ख़त्म होने लगा और ऊपर से मकान मालिक किराया मांगने लगा, तो मैं हतप्रभ रह गया। मुझे पहली बार लगा कि मैं तो फंस गया। फंस क्या गया, मैं तो बुरी तरह फंस गया। क्या करूं अब, यह लॉकडाउन तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है।

जैसे-जैसे राशन कम होता गया, वैसे-वैसे मेरी बदहवाशी बढ़ती गई। बाद में मेरी हवाइयां उड़ने लगीं। दिमाग़ ने पूरी तरह काम करना बंद कर दिया। इधर-उधर मदद के लिए देखने लगा। लेकिन मदद का कोई भी हाथ मेरी ओर नहीं आया। टीवी पर सुना कि शहर में राशन बंट रहा है। बाहर निकला, इधर-उधर गया। पर कुछ नहीं दिखा। मतलब, राशन लेने का मेरा नंबर आया ही नहीं। पूरे शहर में बंदर-बांट मची थी। हर जगह “उन्हीं को मौत की कीमत मिल रही थी, जिन पर नेता-हाकिम मेहरबान थे” का आलम पसरा था।

मुझे लगा, यहां रहूंगा तो कोरोना से भले बच जाऊं, पर भूख तो शर्तिया मुझे मार डालेगी। बस सोचने लगा, अपने गांव जाने की। गांव ही एकमात्र वह जगह है, जहां मैं कोरोना से बचने के बाद ज़िंदा रह सकता था। बस मकान मालिक से बचकर किसी तरह घर से निकल लिया। बाहर हज़ारों लोगों की भीड़ थी। थोड़ी तसल्ली हुई कि अकेले नहीं हूं। जो सबका होगा, वही मेरा भी होगा। हम लोग जिधर निकलते थे उधर ही रोका जाता था। कहीं-कहीं हम पर लाठीचार्ज भी हो रहा था। फिर भी हम लोग आगे बढ़ते रहे। कहीं मुर्गा बनना पड़ा तो मुर्गा बन गए। लाठी खानी पड़ी तो लाठी खा लिए, लेकिन चलते रहे।

मेरे साथ हर तरह के लोग थे। भाग्यशाली और दुर्भाग्यशाली। जो भाग्यशाली थे, उनको ट्रेन मिल गई। जो कुछ कम भाग्यशाली थे, उनमें से कुछ को टैक्सी मिल गई, तो कुछ ऑटोरिक्शा से चले गए। जो और कम भाग्यशाली थे, वे अपनी या दूसरे की मोटरसाइकल से ही चले गए, जबकि कुछ साइकल से ही निकल लिए। जो लोग सबसे कम भाग्यशाली थे, उन्हें ट्रक या टैंपों में ठूंस दिया गया। और जो लोग बिल्कुल भाग्यशाली नहीं थे, वे अकेले या परिवार समेत पैदल ही चले जा रहे थे। मैं भी बिल्कुल भाग्यशाली नहीं था, सो दुर्भाग्यशाली लोगों के साथ पैदल ही चला जा रहा था। पैदल जाना ही मेरी नियति थी। हम सबकी नियति थी।

रास्ते में यदा-कदा समाजसेवा करने के शौक़ीन लोग मिल रहे थे। कोई हम बदनसीबों को पानी दे दे रहा था, तो कोई खाने की कोई चीज़। खाने-पीने की चीज़ों पर हम बदनसीब लोग टूट पड़ते थे। यह भूल जाते थे कि हमें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना है। रोटी की मांग या मजबूरी के आगे दरअसल, सारी प्राथमिकताएं गौण हो जाती थीं। यहां भी लक्ष्य था, कुछ खाने की चीज़ हाथ में आ जाए। इस छीना-झपटी में कुछ खाद्य पदार्थ नष्ट हो जाते थे, जो बचते थे, उसे हम मजदूर अपने पेटों में ठूंस लेते थे। और, फिर आगे चल देते थे।

दरअसल, हम उस समाज में पैदा हो गए थे, जहां सेक्स को ही गंदी चीज़ माना जाता है। सेक्स को चरित्र से जोड़ा जाता है। यानी किसी ने सेक्स कर लिया तो चरित्रहीन हो गया या हो गई। महिलाओं के लिए तो बक़ायदा ‘कुलटा’ शब्द खोज लिया गया। लिहाज़ा, सेक्स को लेकर लोगों में एक शर्म सी पसर गई थी, हर किसी के मन में या कहें कि पूरे समाज में। सेक्स करना ही नहीं, बल्कि सेक्स की चर्चा से भी संकोच करते थे।
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सेक्स को चरित्र से जोड़ने का नतीजा यह हुआ कि सब चरित्रवान बने रहना चाहते हैं। इसलिए ऊपर से दिखाते हैं कि वे सेक्स नहीं करते, जबकि हक़ीक़त में सब लोग सेक्स करते हैं। हां, यह ध्यान रखते हैं कि उनके सेक्स करने के बारे में किसी को भनक न लगे। छुपाने की यही मानसिकता उन्हें मेडिकल स्टोर जाकर कंडोम या निरोध ख़रीदने से रोकती है। मेडिकल वाले से कंडोम मांगेंगे तो वह सोचेगा, “अरे यह आदमी सेक्स करने के लिए कंडोम मांग रहा है।” यही न… फिर हंस देगा। मेडिकल वाले की इसी हंसी का डर सेक्स करने से पहले निरोध नहीं ख़रीदने देता था। यह झिझक आज भी 25-30 या 40-50 साल पहले तो और भी अधिक थी।

लिहाज़ा, बाप-दादा ने सेक्स तो किए गए मज़े लेने के लिए, लेकिन उससे हमारे जैसे लोग पैदा होते रहे। पैदा होकर हम जीवन जीने के लिए देश की भीड़ में शामिल होते रहे। परिवार वाले पैदा हुए हम अवांछित लोगों को कमाने के लिए मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता भेजते रहे। इसी तरह थोक के भाव हमारे जैसे लोग पैदा होते रहे। हम देश के लिए भार और परिवार के लिए कमाने वाला बनते रहे। परिवार का पेट पालने के लिए शहर भेजे जाते रहे। इस देश का यही फलसफा है।

मैं जब से पैदा हुआ हूं, मुझे दिन में तीन-चार बार भूख लगती है। पेट खाने को कुछ न कुछ मांगता ही रहता है। इस भूख पर भी मेरा कोई ज़ोर नहीं। जी हां, जैसे पैदा होने पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था, वैसे ही भूख पर भी मेरा कोई ज़ोर नहीं है। लिहाज़ा, हर कुछ घंटे बाद पेट में भकोसने के लिए किसी खाने लायक वस्तु की तलाश करता रहता हूं। जहां भूख को शांत करने की संभावना दिखती है, वहीं क़तारबद्ध हो जाता हूं। कहीं कुछ मिल जाता, कहीं कुछ भी नहीं मिल पाता है। लेकिन उससे रुकना नहीं है। बस चलते ही रहना है।

20-25 दिनों से लगातार चल रहा हूं। कहां पहुंचा हूं, पता नहीं। शायद आधा से अधिक रास्ता पार कर गया हूं। नही, आधे से कम होगा अभी। रास्ते में लोग मिलते हैं, कहते हैं, “पैदल क्यों जा रहे हो, सरकार ने तुम लोगों के लिए ट्रेन शुरू कर दी है।” फिर कहते हैं, “टिकट की बुकिंग ऑनलाइन हो रही है।” मेरा ही नहीं मेरे साथ चल रहे सब लोगों का मोबाइल फोन कब का डिस्चार्ज हो चुका है। कुछ लोगों के पास स्मार्ट फोन है, पर उनका भी फोन बंद हो गया है। लिहाज़ा, मैं लोगों के साथ पैदल ही चला जा रहा हूं।

ख़ूब चलने पर भी देर रात तक 50-55 किलोमीटर से ज़्यादा नहीं चल पाता। इसलिए जहां छांव मिलता है, या जहां खाना बंट रहा होता है, वहां थोड़ी देर आराम कर लेता हूं। पहले दिन तो उत्साह में दिन भर में 70 किलोमीटर चल लिया, लेकिन पैर ही नहीं शरीर टूटने लगा। दूसरे दिन बमुश्किल 15 किलोमीटर चल पाया। तीसरे 20 किलोमीटर। इसी तरह गति को बढ़ाता रहा। जैसे जीवन भर मजदूरी करने की आदत पड़ गई थी, अब पैदल चलने की आदत पड़ गई है।

रास्ते में ऐसे भी लोग मिलते हैं, जो कहते हैं, “पैदल मत जाओ। बस शुरू हो रही है। एक पोलिटिकल पार्टी ने एक हज़ार बस की व्यवस्था की है।“ थोड़ी उम्मीद बंधती है, कि शायद इन पांवों को और चलने की जहमत न उठानी पड़े। बसें आ जाएंगी तो थोड़ी राहत मिल जाएंगी। अपने गांव जल्दी पहुंच जाऊंगा।

लेकिन किसी दूसरे राहगीर ने बताया, “बस नहीं चलेगी। पार्टी ने एक हज़ार बस का वादा किया था, लेकिन नौ सौ पचास बसों की ही सूची दे सकी। इसलिए सरकार ने कहा कि चलेगी तो पूरे एक हज़ार बसें चलेगी। वरना एक भी नहीं चलेगी। पूरी योजना टांय-टांय फिस्स!”
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सरकार को बसें चलाना चाहिए था, भले नौ सौ पचास बसें ही थीं। अरे सौ रही होतीं, तो भी चलाना चाहिए था। मैं सोचता हुआ चला जा रहा था।

फिर तीसरे राहगीर ने बताया, “सरकार ने बस चलाने का परमिसन नहीं दिया। बसों के पास परमिट नहीं था। इसलिए अब कोई बस नहीं चलेगी।”

मैंने उस राहगीर से पूछा, “बसों के पास परमिट नहीं था, डीज़ल तो था न भाई?”

राहगीर ने कहा, “हां, डीज़ल तो था, परतुं परमिट नहीं था।”

मैं मन ही मन बुदबुदाया, “इस संक्रमणकाल में, जब ज़िंदा रहने के लिए लोग सुरक्षित स्थानों पर भाग रहे हैं, तब भी बसों के चलने के लिए डीज़ल से ज़्यादा परमिट क्यों ज़रूरी है भगवान? इस घनघोर संकट के समय भी सियासत!”

और आगे चलने पर किसी और राहगीर ने बताया कि 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा हुई है। मुझे पूरा यक़ीन था, वह 20 लाख करोड़ रुपए कम से कम किसी बस को चलाने के लिए नहीं हैं। इसलिए उस पैकेज से कोई उम्मीद पालना बेकार है।

बस मैं चलता रहा। मुझे पता है, गांव वाले भी गांव में घुसने नहीं देंगे। यह भी जानता था, कि क्वारंटीन कर देंगे, लेकिन खाना तो देंगे। खाने का नाम सुनकर शरीर में ऊर्जा आ गई और मैं तेज़ी से आगे बढ़ने लगा। अपने गांव की ओर।

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेकाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

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क्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ह्वाइट हाउस में रहने की बजाय अपने निजी बंगले से अमेरिकी प्रशासन चला सकते हैं? क्या भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 7 रेसकोर्स रोड के प्रधानमंत्री आवास की बजाय अहमदाबाद में अपने निजी घर से प्रधानमंत्री के दायित्व का निर्वहन कर सकते हैं? क्या देश के किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपने सरकारी सीएम आवास की बजाय अपने निजी आवास से राज्य की बाग़डोर संभाल सकता है? तीनों सवालों का एकलौता जवाब है ‘नहीं’। लेकिन महाराष्ट्र भारत का इकलौता राज्य है, जहां यह सवाल आजकल ‘हां’ में तब्दील हो गया है।

जी हां, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का तकरीबन छह दशक (57 साल) से आधिकारिक आवास रहा वर्षा बंगला मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नाम बेशक आवंटित है, लेकिन वह उस बंगले में नहीं, बल्कि अपने निजी आवास मातोश्री में ही रहते हैं और महाराष्ट्र पर टूटे 60 साल से सबसे भीषणतम कहर कोरोना वायरस संक्रमण के दौरान भी वह वर्षा से नहीं, बल्कि मातोश्री से हालात की निगरानी कर रहे हैं और नई वैश्विक महामारी को संभालने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कोरोना है कि उनसे संभलने का नाम ही नहीं ले रहा है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि महाराष्ट्र कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या और कोरोना मौत के मामले में पूरे देश में शीर्ष पर ही नहीं है, बल्कि 5 मई 2020 तक देश में 1,07,000 (1.7 लाख) कोरोना संक्रमित मरीज़ थे। इसमें महाराष्ट्र का योगदान 37136 (37 हजार से अधिक) था, जो कि 35 फीसदी है। इसी तरह देश में अब तक कोरोना से 3303 मौतें हुई हैं, जबकि महाराष्ट्र में 1249 लोगों की कोरोना से जान जा चुकी है। यह क़रीब 37 फ़ीसदी होता है। कहने का मतलब महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेक़ाबू हो चुका है। राज्य में कोरोना को संभालने के लिए कारगर नेतृत्व का अभाव साफ दिख रहा है।

राज्य में अब तक 1328 से अधिक पुलिस वाले भी कोरोना की चपेट में आए हैं। इनमें से 52 पुलिसकर्मियों की कोरोना संक्रमण के चलते अकाल मौत हो चुकी है। लगता है मुम्बई के हालात धीरे-धीरे अमेरिका के न्यूयार्क जैसे होते जा रहे हैं। यहां 22563 लोग कोरोना से संक्रमित हैं, जिनमें 813 लोगों की मौत हो चुकी है। कहने का मतलब देश की आर्थिक राजधानी में कोरोना का नंगा नाच हो रहा है। लॉकडाउन का पालन करने के लिए राज्य में बुलाई गई सीआरपीएफ की 10 कंपनियों में से पांच को मुंबई में ही तैनात किया गया है।

Uddhav-Thackeray महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण बेकाबू, पर सूना है राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला ‘वर्षा’

मुंबई में संक्रमित मरीज़ों के संपर्क में आए लोगों की तादाद इतनी अधिक है कि सबको अलग अलग क्वारंटीन सेंटर में रखना संभव नहीं है। इसीलिए बीएमसी ने 19 मई को दिशा निर्देश जारी किया कि जिन इमारतों में कोरोना पॉज़िटव मरीज़ मिलेगा, वहां अब पूरी बिल्डिंग को नहीं बल्कि उस मंज़िल विशेष को ही सील किया जाएगा। मुंबई में संक्रमित मरीज़ों की बढ़ती संख्या से अस्पतालों में बेड कम पड़ रहे हैं। ऐसे में बीएमसी ने मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम को टेकओवर करने के लिए मुंबई क्रिकेट असोसिएशन को पत्र लिखा है।

जहां कोरोना वायरस से संक्रमण के समय संपूर्ण राज्य का कोरोना नियंत्रण कक्ष मुख्यमंत्री की देखरेख में उनके आधिकारिक आवास वर्षा बंगले में होना चाहिए था, वहीं राज्य का सबसे शक्तिशाली बंगला वर्षा इन दिनों खाली और सूनसान पड़ा है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि कभी राज्य का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण आवास रहा वर्षा उद्धव बाल ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो गया है और इन दिनों तो एकदम से मरघट की तरह गहरे सन्नाटे में पड़ा हुआ है। और राज्य में कोरोना का संक्रमण का विस्तार रोके नहीं रुक रहा है।

सत्ता परिवर्तन के बाद जब राज्य में शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और राष्ट्रीय कांग्रेस के महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी तो लगभग 60 साल के उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और वर्षा बंगला 2 दिसंबर 2019 को उनके नाम आवंटित भी हो गया, लेकिन उद्धव ठाकरे अपने मंत्री बेटे आदित्य ठाकरे, पत्नी रश्मि ठाकरे और दूसरे बेटे तेजस ठाकरे के साथ बांद्रा पूर्व उपनगर के स्थित अपने पिता के निजी आवास मातोश्री में ही रहते हैं। कोरोना संक्रमण से पहले उद्धव ठाकरे महीने में एकाध बार किसी बैठक में भाग लेने के लिए वर्षा चले जाते थे, लेकिन कोरोना के चलते जब से लॉकडाउन की घोषणा की गई है, तब से वह अपने निजी बंगले मातोश्री से ही कम निकलते हैं, लिहाज़ा, वर्षा में उनका आना-जाना क़रीब-क़रीब बंद सा ही हो गया है।

दरअसल, 1960 में राज्य के गठन के बाद सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण सरकारी आवास सह्याद्रि हुआ करता था, लेकिन 5 दिसंबर 1963 को जब तत्कालीन मारोतराव कन्नमवार के आकस्मिक निधन के बाद वसंतराव नाईक ने राज्य के सत्ता की बाग़डोर संभाली तब से 12000 वर्गफीट में फैला वर्षा राज्य का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण आवास का दर्जा पा गया। तब से देवेंद्र फड़णवीस के कार्यकाल तक वर्षा राज्य में सत्ता का केंद्र हुआ करता था, लेकिन फड़णवीस की विदाई के साथ वर्षा बंगले की शान और शक्ति की भी विदाई हो गई। यह बंगला अचानक से अप्रासंगिक हो गया।

वस्तुतः इस बंगले को बॉम्बे प्रेसिडेंसी बनने के साथ अंग्रेज़ों ने बनवाया था। तब इसका नाम डग बीगन बंगला हुआ करता था। 1936 तक यह बंगला ब्रिटिश इंडिया के अंग्रेज़ अफसरों का सरकारी आवास हुआ करता था। स्वतंत्रता मिलने के बाद यह द्विभाषी बॉम्बे के अधीन आ गया। 1956 में यह बंगला द्विभाषी राज्य के राजस्व और सहकारिता मंत्री वसंतराव नाईक को आवंटित किया गया। नाईक अपने बेटे अविनाश के जन्मदिन पर 7 नवंबर, 1956 को रहने के लिए डग बीगन बंगले में आ गए।

राज्यों के पुनर्गठन के बाद जब महाराष्ट्र राज्य अस्तित्व में आया तो वसंतराव नाईक राज्य के पहले कृषि मंत्री बनाए गए। बहरहाल, उनकी पत्नी वत्सलाबाई नाईक जब अपने बंगले की तुलना सह्याद्रि बंगले से करतीं तो उन्हें उनका बंगला बहुत मामूली लगता था। वह पति से शिकायत करती थीं कि कैसा साधारण सा रौनक विहीन बंगला उन्हें आवंटित किया गया है। इसके बाद वसंतराव नाईक ने न्यूनतम खर्च में बंगले का पूरी तरह से जीर्णोद्धार करवा दिया और इसमें आम, नींबू, सुपारी वगैरह के अनेक पेड़ लगवा दिए। वह बंगले का नामकरण करना चाहते थे और अपने आवास का नाम ‘वी’ से रखना चाहते थे। वसंतराव का बारिश बहुत ही अंतरंग विषय था। कवि पांडुरंग श्रवण गोरेका पसंदीदा गीत ‘शेतकार्यंचे गाने’ उन्हें बेहद पसंद था। उन्होंने वसंत-वत्सला-वर्षा को मिलाते हुए 1962 में डग बीगन बंगले का नाम ‘वर्षा’ रख दिया।

1963 में जब वह राज्य के मुख्यमंत्री बने तो मंत्रिमंडल की पहली बैठक खत्म करने के बाद वर्षा पहुंचे और वर्षा में अपना आवासीय दफ्तर बनवाया। इस तरह 1963 से वर्षा बंगले को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का आधिकारिक आवास का दर्जा मिल गया। अगले साल यानी 1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू महाराष्ट्र के दौरे पर आए थे. वह राजभवन में ही ठहरे, लेकिन नाईक के आमंत्रण पर रात का भोजन करने के लिए तत्कालीन राज्यपाल और अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित के साथ वर्षा के लॉन में आए और यहीं भोजन किया।

वसंतराव नाइक ने 20 फरवरी, 1975 को बंगला खाली कर दिया। इसके बाद जो भी राज्य का मुख्यमंत्री बना, उसका सरकारी आवास वर्षा बंगला ही रहा। शंकरराव चव्हाण, शरद पवार, अब्दुल रहमान अंतुले, बाबासाहेब भोसले, वसंतदादा पाटिल, शिवाजीराव पाचिल निलंगेकर, सुधाकरराव नाईक, मनोहर जोशी, नारायण राणे, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे, अशोक चव्हाण, पृथ्वीराज चव्हाण और देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री का कामकाज इसी बंगले में रहकर किया। लेकिन उद्धव ठाकरे के शासनकाल में यह ऐतिहासिक बंगला सूना पड़ा है।

लोगों का कहना है कि ऐसे समय जब राज्य अपने 60 साल के इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है। कोरोना संक्रमण महाराष्ट्र में तेज़ी से बढ़ रहा है, तब मुख्यमंत्री आवास होने के नाते वर्षा के रूप में राज्य के पास एक औपचारिक नियंत्रण केंद्र होना चाहिए था, जहां से राज्य के सभी 36 ज़िलों, 27 महानगर पालिकाओं, 3 महानगर परिषदों और 34 जिला परिषदों के साथ साथ पूरे राज्य के प्रशासन का संचालन और निगरानी होनी चाहिए थी, लेकिन राजनीतिक अदूरदर्शिता और अपरिपक्वता के कारण वर्षा बंगला भूतखाना बना हुआ है और कोरोना राज्य में शिव तांडव कर रहा है।

राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए वर्षा को हर प्रशासनिक गतिविधि का केंद्र होना चाहिए था। दक्षिण मुंबई में राजभवन ही नहीं राज्य का मंत्रालय भवन और बीएमसी मुख्यालय, मुंबई पुलिस मुख्यालय, महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय और भारतीय नौसेना मुख्यालय और दूसरे अन्य प्रमुख संस्थान वर्षा के आसपास चार से पांच किलोमीटर के ही दायरे में हैं। वहां से प्रशासनिक संचालन और दिशा-निर्देश जारी करने में आसानी होती लेकिन प्रशासनिक कार्य के लिए अनुभवहीन उद्धव ठाकरे यही ग़लती कर बैठे।

जब से उद्धव ठाकरे के बंगले में पहले चायवाला कोरोना संक्रमित पाया गया और उसके बाद मुख्यमंत्री की सुरक्षा में तैनात कई पुलिस वाले कोरोना से संक्रमित हुए तब से उद्धव बहुत मुश्किल से अपने घर से बाहर निकलते हैं। वह कोरोना संक्रमण से इतने आशंकित है कि अपनी कार सरकारी ड्राइवर से ड्राइव करवाने की बजाय ख़ुद ही ड्राइव करते हैं। कहने का मतलब राज्य में जिस तरह की अफरा-तफरी का माहौल है, उसमें कोरोना जैसी महामारी से निपटने में राज्य को भारी मुश्किलात का सामना करना पड़ रहा है।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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गीत – यूं ही सबके सामने!

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गीत – यूं ही सबके सामने!

राज़-ए-दिल क्यूं पूछते हो यूं ही सबके सामने
दिल की बातें क्या बताएं यूं ही सबके सामने

तुम अनाड़ी ही रह गए गुफ़्तगू के मामले में
दिल की बातें नहीं पूछते यूं ही सबके सामने

बिना किसी ज़ुर्म के हम तो बदनाम हो गए
इस तरह इशारे ना करो यूं ही सबके सामने

मन बहुत उदास है दुनियावालों की बातों से
लगता है रो ही देंगे अब यूं ही सबके सामने

किसी को क्या गिला मेरे किसी से बोलने से
पर बाज आते नहीं लोग यूं ही सबके सामने

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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गीत – किस्मत से ज़ियादा

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गीत

टूटा है कहर सब पर किस्मत से ज़ियादा
नफरत भरी है यहां मोहब्बत से ज़ियादा

दिल का कदर क्या वह खाक करेगा
जिसके लिए प्यार नहीं तिजारत से ज़ियादा

भाई-चारे का घटना गर यूं ही जारी रहा
खून-खराबा होगा महाभारत से ज़ियादा

खौफज़दा है सारा मुल्क उस शख्स से आज
जो जानता नहीं कुछ शरारत से ज़ियादा

जब तक ना आया था ऊंट पहाड़ के नीचे
समझता था ख़ुद को ऊंचा पर्वत से ज़ियादा

किसी के पास कुछ देख बेशुमार ना कहो
हर चीज मिली सबको ज़रूरत से ज़ियादा

आखिर ख़ुदा बरक्कत करे तो कैसे करे
झूठ बोलता है आदमी इबादत से ज़ियादा

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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गीत – आ गए क्यों उम्मीदें लेकर

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आ गए क्यों उम्मीदें लेकर
करूं तुम्हें विदा क्या देकर…

लाख मना की पर ना माने
क्यों रह गए तुम मेरे होकर…

अपना लेते किसी को तुम भी
आखि‍र क्यों रहे खाते ठोंकर…

जी ना सके इस जीवन को
क्या पाए खुद को जलाकर…

अब तो मेरी तमाम उम्र में
रहोगे चुभते कांटे बनकर…

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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संस्मरणः सचमुच बहुत कठिन होता है सोनिया से मिलना

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कांग्रेस से बीजेपी में आए सांसद जगदंबिका पाल सिंह ने एक बार कहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलना सचमुच बहुत कठिन होता है। उनकी बात सौ फ़ीसदी सच है। चंद लोगों को छोड़कर आम कांग्रेसियों से भी सोनिया गांधी बमुश्किल ही मिल पाती हैं।

1999 की गर्मियों में जब शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर काग्रेस से बग़ावत की थी, तब कांग्रेस संकट में थी। उस समय मैंने भी सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी। दरअसल, मैं सोनिया का इंटरव्यू लेना चाहता था। सो मिलने की हिमाकत की। हालांकि तब मेरे जैसे छोटे से पत्रकार के लिए यह असंभव सा कार्य था, फिर भी मैंने मिलने को ठान लिया था।

बहुत कोशिश के बाद मिला तो, लेकिन अंततः उनका औपचारिक इंटरव्यू नहीं मिल सका। दरअसल, रिपोर्टिंग के दौरान मैं हर जगह अपना सूत्र बना लेता था। 10 जनपथ में भी एक सूत्र बना लिया था। अपने उस सूत्र के ज़रिए कई दिन लगातार फ़ील्डिंग करता रहा। जब सूत्र बोलता था, तब फोन करता था। क़रीब 10 दिन की अनवरत मेहनत के बाद मौक़ा मिल ही गया। 27 या 28 मई 1999 की शाम थी वह। सूत्र ने कहा था कि 4 बजे 10 जनपथ के मेन गेट पर पहुंच जाना। मैं निर्धारित समयसे पहले ही गेट पर पहुंच गया। वहां तैनात गार्डों को बताया कि मुझे सोनिया गांधी से मिलना है। सब के सब हंसने लगे। वे लोग हैरानी से मुझे देखने लगे, क्योंकि तब जो भी सोनिया से मिलने आते थे, सब वीआईपी टाइप लोग होते थे और बहुत महंगी कार में सवार होकर आते थे। उनके पास मोबाइल फोन होते थे। तब मोबाइल स्टैटस सिंबल के रूप में भारत में आ चुका था, लेकिन मेरे पास न तो मोबाइल था, न ही कार थी। महंगी कार की बजाय, मैं डीटीसी की बस से उतर कर पैदल ही 10 जनपथ के गेट तक गया था। मुझे पैदल आते गार्डों ने भी देख लिया था।

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बहरहाल, मेरे दोबारा आग्रह पर गोर्डों ने मुलाकातियों की सूची देखी तो उसमें मेरा भी नाम था।

अपना नाम सूची में देखकर मुझे विश्वास हो गया कि आज मैडम से मुलाक़ात हो जाएगी। वरना अपने सूत्र पर भी बहुत भरोसा नहीं था मुझे। इसके बावजूद गार्डों ने मुझे गोट पर ही रोक कर रखा। शाम शार्प 4 बजे मुझे अंदर जाने की इजाज़त मिली। गेट के अंदर जाने वाला मैं इकलौता विजिटर था।

गेट की सुरक्षा केबिन में मेरी बहुत ही सघन तलाशी हुई थी। मेरी बॉलपेन तक को भी बहुत बारीक़ी से चेक किया गया था। शायद उनको लगा होगा कि कहीं मेरे पास कोई कैप्सूल बम तो नहीं है। खैर, जब अंदर प्रवेश किया तो, कैंपस में एक बहुत बड़ा लॉन नज़र आया। बंगले के कोई 50 मीटर पहले वहीं मुझे रुककर इंतज़ार करने को कहा गया। मैं रुक कर इंतज़ार करने लगा।

मैंने देखा कि दिल्ली कांग्रेस के बहुत बड़े-बड़े नेता लॉन में इंतज़ार कर रहे हैं। मैंने दाढ़ी के कारण सज्जन कुमार को पहचान लिया। दूसरे किसी नेता को पहचान नहीं सका। बहरहाल, 20 मिनट इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि सुरक्षा गार्डों से घिरी सोनिया गांधी आ रही थीं। उनके साथ उनके निजी सहायक विंस्टन जार्ज और कांग्रेस नेता (जिन्हे मैंने बाद में पहचान सका) इमरान किदवई भी थे, हालांकि तब मैं दोनों को पहचानता नहीं था।

वहां मौजूद सभी लोग अचानक एक लाइन से खड़े हो गए। कांग्रेस के लोग भी उसी क़तार में खड़े हो गए। मुझे उस समय यह हैरानी हुई कि कांग्रेस के लोग भी मैडम से इस तरह मिलते हैं, क्योंकि तब तक मैं सोचता था कि कांग्रेस के धुरंधर नेता उनसे अकेले मिलते होंगे।

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बहरहाल, सोनिया गांधी मेरी बाईं ओर से लोगों से मिलते हुए आ रही थीं। विंस्टन जार्ज और इमरान किदवई के अलावा पांच सुरक्षा गार्ड (कमांडो) भी थे। दो सुरक्षा गार्ड सोनिया गांधी के साथ थे, जबकि दो कमांडो खड़े लोगों के पीछे चल रहे थे। इसके अलावा एक सुरक्षा गार्ड पंक्ति में खड़े लोगों के पीछे पीछे क़रीब से फ़लो कर रहा था। एक कैमरामैन भी था जो हर मुलाक़ाती और सोनिया गांधी की फोटो खींच रहा था।

क़तार में मुझसे ठीक पहले एक महिला खड़ी थी। शायद वह भी दिल्ली कांग्रेस की नेता थी। कम से कम वह शीला दीक्षित नहीं थीं। बहरहाल, जब सोनिया उसके पास पहुंचीं तो वह बहुत भावुक हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। दरअसल, बग़ावत के बाद सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत अधिक सहानुभूति थी। कांग्रेसियों के अनुसार सोनिया गांधी ने भारतीय परंपरा को अपना लिया था और साड़ी का पल्लू बहू की तरह सिर पर रखती थीं, पर पवार, संगमा और तारिक के अलावा भाजपा के लोग भी उन्हें विदेशी कहते थे।

बहरहाल, सोनिया ने उस महिला को गले लगा लिया था। वह सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ बग़ावत से बहुत दुखी लग रही थी। तब सोनिया गांधी हिंदी नहीं बोल पाती थीं। लिहाज़ा, मैंने सुना कि वह अंग्रेज़ी में ही महिला को सांतवना दे रही हैं, लेकिन महिला थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सोनिया गांधी क़रीब 10 मिनट उसके पास खड़ी रहीं और ढांढस बंधाती रही। मुझे लगा वाक़ई सोनिया गांधी सच्ची भारतीय बहूं हैं, वरना वहां इतनी देर क्यों रुकतीं। मैंने सोनिया गांधी को भी भावुक होते देखा। 10 मिनट बाद सोनिया गांधी के चुप कराने पर वह महिला शांत हो गई। मुझे उसी समय लगा सोनिया गांधी नेता चाहे जैसी हो, बहुत अच्छी महिला हैं, भावुक किस्म की महिला, जिसमें इंसानिया भरा है।

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मैं भी बेसब्री से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। बहरहाल जब वह मेरे पास पहुंची तो मैंने बहुत साहस करके पूछ ही लिया. “मैंडम, विल यू विकम द प्राइम मिनिस्टर, इफ गेट मेज़ारिटी इन द इलेक्शन? वीकॉज दं पीपुल ऑफ इंडिया सी यू एज अ बहू, डाटर-इन-लॉ।”

जैसे ही मैंने यह सवाल किया सब लोग टेंशन में आ गए। मैं ख़ुद बहुत टेंशन में था। पसीना छूट रहा था।

सोनिया गांधी हैरान होकर कुछ सेकेंड मुझे देखती रहीं। शायद वह जानने की कोशिश कर रही थीं, कि मैं कौन हूं, जो उनसे इस तरह का सवाल पूछने की कोशिश की।

क़रीब 20-25 सेकेंड बाद उन्होंने बहुत धीरे से “नो” कहा।

मैं कुछ और सवाल पूछ पाता, उससे पहले ही उन्होंने इमरान किदवई को बुलाया और कहा, “आई नीड सच पीपल, जस्ट टाक टू हिम ऐंड इफ़ ही इज़ इंटरेस्टेड आस्क हिम टू वर्क फ़ॉर पार्टी।”

इमरान किदवई ने मुझसे कहा कि आप मैडम से अलग से मिल लीजिएगा। अभी मैडम को लोगों से मिलने दीजिए।

उसी दौरान फोटोग्राफर ने सोनिया गांधी से मिलते हुए मेरी फोटो भी खींची। बहरहाल, एक मिनट और कुछ सेकेंड की उस मुलाकात के बाद सोनिया गांधी आगे बढ़ गईं।

मज़ेदार बात यह रही कि जब में सोनिया गांधी से बात कर रहा था, तो पीछे के गार्ड ने आहिस्ता से मेरी पैंट की बेल्ट पीछे से पकड़ ली थी, ताकि मैं सोनिया गांधी की ओर और अधिक न बढ़ सकूं।

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बहरहाल, मुलाक़ात करने वाले 30-35 लोग थे। सबसे मिलने में शाम के सवा छह बज गए। जब मुलाक़ात का दौर ख़त्म हो गया तो सोनिया गांधी अंदर चली गईं। जाते समय उन्होंने इमरान किदवई को शायद मुझसे मिलने को कहा, क्योंकि सोनिया गांधी के अंदर जाते के फ़ौरन बाद फिर इमरान किदवई मेरे पास आ गए।

मुझसे बिना कुछ पूछे ही उन्होंने कहा, “आप कल 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय) आइए. आपसे बात करनी है।”

उस समय मुझे लगा, वाकई सोनिया गांधी का इंटरव्यू मिल जाएगा। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

सो दूसरे दिन 24 अकबर रोड पहुंच गया। वहां तो बहुत अधिक इंतज़ार करवाने के बाद इमरान मुझसे मिले और मुझे जनार्दन द्विवेदी से मिलने को कहा। मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू चाहिए था, सो जनार्दन द्विवेदी के पास गया। कहा जाता है कि उन दिनों वह सोनिया गांधी का भाषण लिखा करते थे। वह मुझसे नहीं मिले। अपने सहायक से दूसरे दिन आने को कहलवा दिया। मैं दूसरे दिन भी गया पर वह नहीं मिले। उनके सहायक ने अगले दिन आने को कहा। पांच बार टालने के बाद आख़िरकार वह मुझसे मिले ज़रूर, लेकिन बहुत अनिच्छा के साथ। उस समय मुझे साफ़ लगा कि सोनिया गांधी का इंटरव्यू नहीं मिल सकता, क्योंकि उनके आसपास चमचों का बहुत स्ट्रांग घेरा होता है।

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लिहाज़ा, मैंने व्यर्थ का चक्कर लगाना छोड़ दिया। क़रीब दो साल तक मैं दिल्ली में रहा। इस दौरान दिल्ली की हर प्रमुख शख़्सियत चाहे वह साहित्यकार हो, पत्रकार हो, कलाकार हो या राजनेता हो, से मिला। कमलेश्वर से मिलने उनके बंगले पर पहुंच गया। बहुत प्रेम से मिले और अपने बैठक में बिठाया और शरबत पिलाया। अटलबिहारी वाजपेयी तब प्रधानमंत्री थे, मैं उनसे मिलने 7 रेसकोर्स पहुंच गया। उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। उन्हें एक पत्र दिया। बाद में पीएमओ से उस पत्र का जबाव आया, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हुई। उसी दौरान तब शरद पवार, वीवी सिंह, कांशीराम समेत क़रीब-क़रीब सभी शीर्ष नेताओं से उनके बंगलों पर मिला। कई लोगों से मिल भी नहीं पाया, लेकिन कोशिश सबसे मिलने की की।

वयोवृद्ध सीताराम केसरी तो मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे। उनके निजी सहायक नन्हकी और टेलीफोन ऑपरेटर शिवजी और बंगले के सभी कर्मचारियों से घनिष्ठ रिश्ता सा बन गया था। केसरी के यहां से मेरे कार्यालय में अकसर फोन आता था। उसी दौरान मेरे सीनियर पत्रकार अनिल ठाकुर जी को केसरी का एक इंटरव्यू चाहिए था, पर केसरी किसी को इंटरव्यू नहीं देते थे। तो अनिल जी का इंटरव्यू मैंने ही किया। जिसका मुझे 400 रुपए पारिश्रमिक मिला।

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मगर दुर्भाग्य से तंगी के उस दौर में 400 रुपए पर डीटीसी बस में किसी पाकेटमारों ने हाथ साफ़ कर दिया. बहरहाल, जब केसरी बीमार होकर एम्स में भर्ती हुए तो मुझे अख़बार पढ़कर सुनाने के लिए बुलावाते थे। वह बमुश्किल उठ पाते थे। केसरी के पुराना किला रोड के बंगले पर मेरी कई कांग्रेस नेताओं से मुलाकात हुई, जिनमें स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट भी थे। विलासराव देशमुख भी केसरी से मिलने उनके बंगले पर आते थे। सिंधिया केसरी को बहुत मानते थे क्योंकि नरसिंह राव के समय कांग्रेस छोड़ने के बाद केसरी ही उन्हें और विलासराव देशमुख को वापस कांग्रेस में लेकर आए थे।

इन लोगों से मेरी पुराना किला वाले बंगले पर कई मुलाक़ात हुई, क्योंकि मैं केसरी के बंगले पर अक्सर चला जाता था। वह लोगों की बड़ी मदद करते थे। केसरी के बंगले पर कई बहुत ही बड़े पत्रकारों को भी आते मैं देखता था। कई लोगों को देखकर मुझे हैरानी भी होती थी। बहरहाल, उन्हीं दिनों अचानक घर से फोन आने पर वापस मुंबई चला आया। मुंबई में उसी साल यूएनआई में नौकरी मिल गई और फिर कभी दिल्ली गया ही नहीं।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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गीत – मेरा क्या कर लोगे ज़्यादा से ज़्यादा

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गीत
मेरा क्या कर लोगे ज़्यादा से ज़्यादा,
गुफ़्तगू ना करोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
पता है वसूलों से समझौते की कीमत,
मालामाल कर दोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
ना जाऊंगा मसजिद ना करूंगा पूजा,
तुम काफ़िर कहोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
फ़साद में तुम्हारा साथ दे सकता नहीं,
मेरा घर जला दोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
ग़लत को ग़लत सदा कहता ही रहूंगा,
मुझे क़त्ल कर दोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
कभी भी ना छोड़ूगा सत्य का दामन,
बोटी-बोटी कर दोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
कभी न जाऊंगा देशद्रोहियों के साथ,
कोई नाम दे दोगे ज़्यादा से ज़्यादा।
हरिगोविंद विश्वकर्मा