भारत में जनसंख्या (Population) नासूर बन गई है। हर जगह इंसानों की भीड़ बढ़ रही है। रेलवे स्टेशन हो, बस स्टॉप हो या फिर सड़क, हर जगह इंसान ही इंसान दिखते हैं। देश में इंसान इतने ज़्यादा पैदा हो गए हैं कि धरती छोटी पड़ने लगी है। भारत में तो जनसंख्या सभी समस्याओं की जननी (Population is mother of all problems) बन गई है। उदाहरण के लिए ग़रीबी, कुपोषण, बेरोज़गारी, अपराध, नक्सलवाद, आतंकवाद, आवासहीनता, धार्मिक उन्माद और स्कूल-कॉलेज में सीटों की कमी जैसी देश की हर छोटी बड़ी समस्या जनसंख्या की नाभि से ही पैदा हो रही हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि जनसंख्यावृद्धि सभी योजनाओं, नीतियों और प्रोग्राम्स की हवा निकाल रही है।
जनसंख्या वृद्धि का आलम यह है कि पिछले साल 14 अप्रैल को वैशाखी के दिन भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे अधिक मानव आबादी वाला देश बन गया। संयुक्त राष्ट्रसंघ (United Nations) ने भारत की जनसंख्या 143 करोड़ से अधिक बताई है। दुर्भाग्य से क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत रूस, कनाडा, चीन अमेरीका, ब्राज़ील और ऑस्ट्रेलिया के बाद सातवें नंबर पर है। भारत के पास विश्व की समस्त भूमि का केवल 2.4 फ़ीसदी हिस्सा ही है, जबकि विश्व की आबादी का 16.7 फ़ीसदी हिस्सा यहां रहता है। देश की आबादी 1,430,877,989 है। पुरुषों की संख्या 738,800,084 और महिलाओं की संख्या 692,077,905 है। चीन का क्षेत्रफल भारत से तीन गुना है। लेकिन मानव आबादी के मामले में वह अब भारत से पीछे हो गया है।
आबादी में इज़ाफ़े से पर्यावरण का संतुलन भी गड़बड़ा रहा है। मनुष्यों द्वारा छोड़ी गई कार्बनडाईआक्साइड भी बढ़ रही है। उसे ऑक्सीजन में बदलने वाले पेड़ कम पड़ रहे हैं। मनुष्य अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए पेड़ काट रहा है। इससे वातावरण में कार्बनडाईआक्साइड ज़रूरत से ज़्यादा हो रही है और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इंसानों की आबादी बढ़ने से वन्यजीवों की संख्या पिछले 40 साल में घटकर आधी रह गई है। आबादी के कारण दुनिया में भारत का परिचय नकारात्मक देश के रूप में होता है। जहां दुनिया के बाक़ी देशों में लोग बेहतर जीवन जी रहे हैं, वहीं भारत में लोग थोक के भाव बच्चे पैदा करके ख़ुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं। इसीलिए देश में आबादी पर सख़्ती से अंकुश लगाने का समय आ गया है।
आबादी पर नज़र रखने वाली सरकार की अधिकृत बेवसाइट सेंसस इंडिया (Census India) के मुताबिक़ देश में हर घंटे 3080 से ज़्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं, जबकि मृत्यु दर प्रति घंटे 1099 से भी कम है। यानी आबादी की भीड़ में क़रीब दो हज़ार लोग हर घंटे बढ़ रहे हैं, जो किसी बड़ी कंपनी में कर्मचारियों की संख्या के बराबर है। हर घंटे पैदा हो रहे बच्चों के लिए भविष्य में रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ, शिक्षा और रोज़गार की व्यवस्था करना बहुत बड़ी गंभीर समस्या बन रही है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट ‘वर्ल्ड पॉप्युलेशन प्रोस्पेक्ट्स-दी 2012 रिवाइज्ड’ में कहा गया था कि 2028 तक भारत की आबादी चीन से ज़्यादा हो जाएगी। लेकिन भारतीयों ने पांच साल पहले ही वह ‘कारनामा’ कर दिखाया।
2011 की जनगणना पर गौर करें तो आबादी एक दशक में 18.1 करोड़ बढ़ गई। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में इस भूभाग (तब भारत नहीं ब्रिटिश इंडिया था) की आबादी ही क़रीब 17 करोड़ थी, लेकिन अब उससे ज़्यादा लोग दस साल में बढ़ रहे हैं। 1901 में ब्रिटिश इंडिया की आबादी 23.84 करोड़ थी जो 1911 में 25.21 करोड़ हो गई। लेकिन 1921 में घटकर 25.13 करोड़ हो गई। मगर 1931 और 1941 में जनसंख्या क्रमशः 27.89 और 31.86 करोड़ पहुंच गई। जनसंख्या वृद्धि में बूम आज़ादी के बाद आया। 1951 की जनगणना में पता चला कि भारत की आबादी 36 करोड़ पार कर गई। 1961 में और उछली और 43.9 करोड़ को टच कर गई। सत्तर के दशक में लगा कि लोगों में बच्चे पैदा करने की होड़ मच गई है। दस साल में 11 करोड़ लोग बढ़ गए और आबादी 54 करोड़ हो गई। इसके बाद तो मानो आबादी को पंख लग गए। 1981 में 68.3 करोड़ तो 1991 में 84.6 करोड़। अगले 10 साल में क़रीब 16 करोड़ लोग बढ़ गए तो न्यू मिलेनियम में तो जन्मदर के सारे रिकॉर्ड टूट गए। एक दशक में 21 करोड़ बच्चे पैदा हुए और 2011 में आबादी 1.21 करोड़ हो गई। जनसंख्या-वृद्धि बदस्तूर जारी है।
आज़ादी के बाद से ही केंद्र और सभी राज्य सरकारें कोशिश कर रही हैं कि इस पर अंकुश लगाया जाए लेकिन हर कोशिश टांय-टांय फिस्स हो रही है। एक नहीं दो-दो बार जनसंख्या नीति बनाई जा चुकी है। तय हुआ कि जनसंख्या विस्फोट पर अंकुश लगेगी और छोटे परिवार को प्रमोट किए जाएंगे। सन् 2000 से जनसंख्या आयोग भी अस्तित्व में है। फिर भी यह थमने का नाम नहीं ले रही है। पचास के दशक में भारत में चीन से पहले नसबंदी शुरू की गई लेकिन 65 साल में कोई ख़ास नतीजा नहीं निकला। नसबंदी योजना कैसे काम करती है, इसकी मिसाल प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में मिली। जनवरी 2020 में ज़िला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर चिरईगांव के हेल्थसेंटर के बाहर 73 महिलाओं की ज़मीन पर लिटाकर नसबंदी की गई। चूंकि अस्पताल में बिस्तर की व्यवस्था नहीं थी; लिहाज़ा, खुले आसमान के नीचे ज़मीन बेड बना दी गई। यह घटना ग्रामीण स्वास्थ केंद्रों की बदहाली की कहानी कहती है।
भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (INFHS) के अब तक 1991-92, 1998-99 और 2005-06 में तीन सर्वे हो चुके हैं। चौथा सर्वे चल रहा है। डेटाज़ के मुताबिक़ आबादी पर अंकुश लगाने की कोई युक्ति कारगर नहीं हो रही है। 1991-92 में मुस्लिम महिलाओं की कुल प्रजनन दर यानी टोटल फर्टिलिटी रेट 4.41 थी। यानी हर मुस्लिम महिला 4.41 बच्चे पैदा कर रही थी। इसी तरह तब हर हिंदू महिला 3.31 बच्चे जन रही थी। 1998-99 और 2005-06 में मुस्लिमों की प्रजनन दर 3.39 और 3.4 थी तो हिंदुओं की प्रजनन दर 2.78 और 2.59 थी। राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि की दर 18 फ़ीसदी है, परंतु मुसलमानों की आबादी 24 फ़ीसदी की दर से बढ़ रही है। 1991-2001 के दौरान तो मुस्लिम आबादी 29 फ़ीसदी की दर से बढ़ी थी, जो चिंता का विषय थी। INFHS की रिपोर्ट के मुताबिक जहां देश की हर महिलाएं औसतन 2.4 बच्चे पैदा कर रही हैं, वहीं मुस्लिम महिलाएं 3.6 बच्चे पैदा कर रही हैं। यही बात हिंदूवादी संगठनों और नेताओं को मुस्लिमों पर हमला करने का मौक़ा देती है।
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जनसंख्या वृद्धि में भारत की परंपराएं काफी ज़िम्मेदार हैं। देश में सोसल सिक्योरिटी नाम की चीज़ ही नहीं है। इसलिए लोग बुढ़ापे में बच्चों के साथ रहते हैं। तो लोग बुढ़ापे का ख़याल करके पुत्र चाहते हैं। मानते हैं कि बेटियां शादी के बाद दूसरे के घर चली जाती हैं, इसलिए बुढ़ापे में देखभाल के लिए पुत्र ज़रूरी है। इसलिए हर दंपत्ति एक बेटा चाहता है। इसीलिए दो बेटियां होने पर कई लोग बेटे के लिए तीसरा बच्चा पैदा करते हैं। दो बेटे पैदा हो जाने पर बेटी के लिए कोई तीसरी संतान पैदा नहीं करता। कभी-कभी बेटे की प्रतीक्षा ख़त्म ही नहीं होती और छह-सात बेटियां पैदा हो जाती हैं। पांच साल पहले पन्ना में एक हिंदू महिला ने पुत्र के इंतज़ार में 42 साल की उम्र में 14 वीं संतान को जन्म दिया। लेकिन आजकल बेटे भी बुढ़ापे में मां-बाप का ख़्याल नहीं रखते। पं मदनमोहन मालवीय की 90 साल की सगी पोती विजया पारिख मिसाल हैं जो नोएडा के सेक्टर 55 के वृद्धाश्रम में पांच साल से रह रही हैं, क्योंकि बच्चे नहीं चाहते कि वो उनके साथ रहें।
देश में 60 साल के लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। WHO और हेल्पेज के मुताबिक, 2026 में भारत में बूढ़ों की आबादी 17.32 करोड़ होने का अनुमान है। मज़ेदार यह है कि पुरुष महिलाओं से ज़्यादा हैं लेकिन बड़ी उम्र में स्त्रियां पुरुषों से ’ज़्यादा हैं। पॉप्युलेशन को उम्र के हिसाब से नज़र रखने वाली संस्था कंट्री मीटर्स की वेबसाइट के मुताबिक भारत में 65 साल या उससे ऊपर की आबादी 5.5 फ़ीसदी यानी सात करोड़ है। अनुमानतः 50 लाख लोग ऐसे होंगे, जिनके पास बुढ़ापे में कोई सहारा नहीं होगा। ऐसे लोगों को 65 साल की उम्र होने पर सरकार की ओर से 10 हज़ार रुपए महीने वेतन देने की योजना शुरू करनी चाहिए। वैसे भी सरकार कई फ़ालतू योजनाओं में लाखों करोड़ रुपए बर्बाद कर रही है। अगर वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की योजना शुरू की गई तो निश्तित रूप से लोगों में बेटे की चाहत कम होगी और आबादी पर अंकुश लगेगा।
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सत्तर के दशक में चीन में कमोबेश ऐसे हालात थे। लिहाज़ा, बेतहाशा बढ़ रही आबादी पर लगाम लगाने के लिए चीन ने 1979 में एक बच्चा नीति लागू की। शादी-शुदा जोड़ों को केवल एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त थी। दूसरा बच्चा पैदा करने पर माता-पिता के ख़िलाफ़ तो कार्रवाई होती ही थी, बच्चे को ‘गैरकानूनी’ बच्चा कहा जाता था। उसे पहचान पत्र जारी नहीं किया जाता, जिससे बच्चा निःशुल्क शिक्षा या सेहत संबंधी सुविधाएं नहीं ले सकता था। यही नहीं, बच्चा अपने ही देश में यात्रा नहीं कर सकता और किसी लाइब्रेरी का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। एक बच्चा नीति के लागू होने से पहले चीन में लोगों के औसतन चार बच्चे हुआ करते थे। एक संतान नीति लागू होने के बाद देश की आबादी पर तो अंकुश लगा ही, वहां ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई।
भारत में राजनीति के चलते चीन जैसा कठोर क़ानून बनाना संभव नहीं, लेकिन ऐसा कुछ क़दम उठाना ही होगा ताकि धड़ल्ले से बच्चे पैदा करने वालों के मन में ख़ौफ़ पैदा हो। जब तक भय पैदा नहीं किया जाएगा, आबादी पर अंकुश लगाना मुमकिन नहीं। इसके लिए सरकार को कुछ ऐसे कड़े क़ानून बनाने पड़ेंगे, जिन पर आसानी से अमल करके जनसंख्या पर अंकुश लगाया जा सके। जब तक दो से ज़्यादा बच्चा पैदा करने वालों को शर्मिंदा नहीं किया जाएगा, यह सिलसिला नहीं थमेगा। ऐसे लोगों को हतोत्साहित किया जाए। उन्हें एहसास कराया जाए कि दो से ज़्यादा बच्चे पैदाकर करके उन्होंने सामाजिक अपराध किया है। मसलन, दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वालों को इनकम टैक्स में मिलने वाली छूट ख़त्म की जा सकती है। सरकारी योजनाओं का लाभ केवल उन्हीं को दिया जाए जिनके पास केवल एक बच्चा है। जिनके पास केवल एक बेटी है, उन्हें अनिवार्य रूप से सरकारी नौकरी देने का प्रावधान भी कारगर हो सकता है। इसके अलावा एक संतान वाले दंपति को इनकम टैक्स स्लैब में पांच लाख रुपए तक की छूट देकर ऐसा करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा
(15 अप्रैल 2023 को अपडेट)
धर्म, मजहब या रिलिजन अफीम का नशा है और हर अनुयायी अफीमची
हरिगोविंद विश्वकर्मा
किसी ऐसी विचारधारा अथवा धर्म, मजहब या रिलिजन, चाहे वह कितनी भी सही या सामयिक हो, का अंधभक्त हो जाना, कोरी अज्ञानता, मूर्खता और पागलपन है। वजह यह है कि कोई भी विचारधारा या धर्म मानवता की विचारधारा और मानवता के धर्म के समकक्ष नहीं पहुंच सकती। दरअसल, जब किसी भी विचारधारा, मान्यता या धर्म का प्रतिपादन किया गया था तब, परिवहन, प्रौद्योगिकी या सूचना तकनीक आज जितनी विकसित नहीं थी। कहने का मतलब तब न सड़कें थीं, न मशीन और न ही संचार के साधन। लिहाज़ा, लोगों को एक जगह से दूसरे जगह जाने में कई साल और कभी कभी दशक तक लग जाते थे। लोग किसी की खोज खबर नहीं ले पाते थे।
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ऐसे परिवेश में हर संप्रदाय ने जीवन जीने की अपनी शैली विकसित की, जिसे धर्म कहा गया और वह शैली तब के माहौल के मुताबिक थी। वह धर्म या जीवन शैली बेशक सही थी, लेकिन आज वह सही नहीं है, उसमें उसी तरह फेरबदल यानी परिवर्तन की ज़रूरत है, जैसे समाज समय के साथ विकसित हो रहा है। मतलब इंसान पहले पैदल चलता था, फिर बैलगाड़ी विकसित हुई, इसी तरह वाहन के रूप में घोड़ागाड़ी, साइकल, रेलगांडी और विमान। लेकिन धर्म आज भी वहीं है।
सबसे दुखद बात यह है कि तमाम विचारधाराएं, मान्यताएं एवं धर्म जैसे विकसित हुई थीं, वैसी ही आज भी जारी हैं और लोग उन्हें आंख मूंद कर मान रहे हैं। कुछ लोग स्वेच्छा से मान रहे हैं, तो कुछ लोग मजबूरी वश। कुछ लोगों को ज़बरी मनवाया जा रहा है तो कुछ लोगों की उसे मानने से दुकान चल रही है। लिहाज़ा, ऐसे लोग चाहे वे वामपंथी हों, या दक्षिणपंथी, अपने कुतर्कों से व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया का नुक़सान करते हैं। इस वर्ग के लोग अगर थोड़ा पढ़े लिखे हैं, तो वे व्यक्ति, समाज, देश और दुनिया के लिए और भी घातक हो जाते हैं। फेसबुक, वॉट्सअप और दूसरी सोशल नेटवर्किंग साइउट्स पर आजकल ऐसे लोग सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं और वातावरण में ज़हर छोड़ रहे हैं।
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कुछ साल पहले मार्कंडेय काटजू पिछले साल सदी के महानायक अमिताभ बच्चन पर कमेंट करने के लिए सोशल मीडिया पर सबके निशाने पर आ गए थे। काटजू ने कहा था कि अमिताभ बच्चन दिमाग़ से एकदम ख़ाली हैं। जस्टिस काटजू ने लिखा था, ‘अमिताभ बच्चन ऐसे शख्स हैं जिनका दिमाग़ खाली है। ज़्यादातर मीडिया वाले उनकी तारीफ़ करते हैं, मैं समझता हूं कि प्रशंसा करने वाले लोगों का भी दिमाग़ एकदम खाली ही है।’ इसका अर्थ निकालने वाले कहने लगे कि काटजू ने सदी के महानायक को दिमाग़ से खाली यानी ‘मूर्ख’ की संज्ञा दी। कई लोग बतौर सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस काटजू की योग्यता पर ही उंगली उठाना शुरू कर दिए।
दरअसल, जस्टिस काटजू ने कार्ल मार्क्स को कोट करते हुए कहा था, “कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म जनसमुदाय के लिए अफीम की तरह है जिसका इस्तेमाल शासक वर्ग लोगों को शांत रखने के लिए ड्रग्स की तरह करता है ताकि वे विद्रोह नहीं कर सकें। हालांकि, भारतीय जनसमुदाय को शांत रखने के लिए कई तरह के ड्रग्स हैं। धर्म इनमें से एक है। इसके अलावा फिल्म, मीडिया, क्रिकेट, बाबा आदि भी हैं।“ इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है। वस्तुतः मानव समाज को ख़तरा धर्म को मामने वाले मूर्खों से है। धर्म उनकी तार्किक क्षमता को शून्य कर देता है और वे साइंस के युग में भी मानने लगते हैं कि ऊपरवाला ही सबको कंट्रोल कर रहा है।
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कार्ल मार्क्स की ढेर सारी बातों से कई लोग सहमत नहीं होंगे, क्योंकि मार्क्स भले मजदूरों के हितों की बात करता था, लेकिन वह जर्मनी के बहुत विकसित समाज का प्रतिनिधि था और वह हर चीज़ों की व्याख्या अपनी हैसियत के अनुसार ही करता था। हां, धर्म के बारे में कार्ल मार्क्स की व्याख्या से हर समझदार और बुद्धिजीवी सहमत होगा। मार्क्स ने कहा है, “धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है। जिस तरह लोग अफीम खाकर नशे में मस्त रहते हैं, जिससे उनकी विद्रोह करने की क्षमता ख़त्म हो जाती है, उसी तरह धर्म को मानने वाले लोग अपने धर्म को लेकर मस्त रहते हैं और शासक वर्ग के लोग उसी धर्म का इस्तेमाल करके उन पर शासन करते हैं।“ यहां मार्क्स की व्याख्या एकदम सही है। शासक वर्ग जनसमुदाय को अफीम रूपी धर्म की घुट्टी पिलाकर मस्त कर देता है, फिर उनका हक़ मारते हुए उन पर शासन करता है और धर्म के चक्कर में जनसमुदाय मस्त रहता है।
अगर मार्क्स की व्याख्या को आगे बढ़ाते हुए भारतीय संदर्भ की बात करें तो सत्तावर्ग के लोग यहां धर्म के अलावा फिल्म्, मीडिया, क्रिकेट, साधु आदि का इस्तेमाल करके जनता को उसका आदी बनाते हैं और उस पर शासन करते हैं। वही बात तो जस्टिस काटजू ने कही है। दरअसल, आधुनिकता के दौर में जनता की याददाश्त कमज़ोर होती जा रही है। अमिताभ अभी अप्रैल में अपने जीवन के सर्वाधिक कठिन घड़ी में थे। जब पनामा लीक्स का विस्फोट हुआ था और उसमें अमिताभ और उनकी बहू ऐश्वर्या राय का नाम आया था।
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पनामा पेपर्स सफ़ेदपोश आर्थिक अपराध की दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा पर्दाफ़ाश था। पत्रकारों की संस्था ‘ इंटरनेशनल कंसोर्टियम आफ इंवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स ‘ के खुलासे से अमिताभ गोपनीय कंपनी के ज़रिए पैसा लगाने के विवादों में आ गए थे। पनामा की क़ानूनी सहायता संस्था मोजाक फोंसेका के लीक हुए पेपर्स में दुनिया भर के कई हस्तियों के नाम थे। पनामा पेपर्स के नाम के इस लीक के जरिये खुलासा हुआ था कि अमिताभ समेत कई दिग्गजों ने टैक्स हेवन देशों में सीक्रेट फर्म खोली। पर्दे पर अग्निपथ के इस यात्री को उम्र के 73वें साल में अब वास्तविक जीवन के अग्निपथ से गुज़रना था। उन पर आर्थिक भ्रष्टाचार के ठोस आरोप लगे हैं।
इतने गंभीर आरोप की क़ायदे से जांच हो तो मुमकिन है अमिताभ को भी जेल जाना पड़ सकता है, लेकिन चूंकि, जस्टिस काटजू के अनुसार, वह सत्ता वर्ग के आदमी हैं, इसलिए, टैक्स चोरी करके अकूत धन बनाने के बावजूद वह शानदार जीवन जी रहे हैं। क़रीब-क़रीब हर राजनीतिक दल में अमिताभ की पूजा करने वाले लोग हैं। लिहाज़ा, अमिताभ का कभी बांल बांका नहीं होगा, उन पर भ्रष्टाचार के चाहे जितने आरोप लगे। दरअसल, किसी के बारे में कमेंट करने से पहले थोड़ा विचार कर लेना चाहिए कि इस तरह का कमेंट कितना उचित होगा। पहले अमिताभ के ऊपर जो आरोप लगे हैं, उन पर विचार करिए इसके बाद जस्टिस काटजू के कमेंट पर विचार करिए और पता करिए कि क्या वाक़ई जस्टिस काटजू ने ग़लत कहा है।
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