मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि: स्मृति, संघर्ष और सवाल

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भारत में आज भी ‘पद’ का नहीं ‘जाति’ का सम्मान करते हैं लोग

9 अक्टूबर… यह तारीख़ बहुजन चेतना के इतिहास में एक ऐसी रोशनी का स्मरण कराती है, जिसने अंधकार को चीरने की हिम्मत की थी। इसी दिन, 2006 में, बहुजन समाज के महानायक और बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने इस नश्वर शरीर का परित्याग किया था। आज जब उनकी पुण्यतिथि पर हम सिर झुकाते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि का अवसर नहीं है, बल्कि आत्ममंथन का क्षण भी है, क्या वह भारत बना, जिसका सपना कांशीराम, डॉ. भीमराव आंबेडकर, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले, और पेरियार ने देखा था?

कांशीराम ने राजनीति को दलितों की मुक्ति का सबसे सशक्त औजार बनाया। उनका मानना था कि सामाजिक क्रांति का दूसरा चरण राजनीतिक जागरूकता से गुजरता है। उन्होंने कहा था, “हमारी गिनती बहुत है, लेकिन ताक़त नहीं है, क्योंकि सत्ता हमारी नहीं है।” यही सोच उनके पूरे आंदोलन का केंद्र थी। वे आंबेडकर के उस विचार को आगे बढ़ा रहे थे जिसमें कहा गया था कि राजनीतिक सत्ता के बिना सामाजिक न्याय अधूरा है। पेरियार ने जिस सामाजिक विद्रोह की मशाल दक्षिण भारत में जलाई थी, फुले दंपति ने जिस शिक्षा-क्रांति की नींव रखी थी, उसे कांशीराम ने आधुनिक भारत की राजनीति में रूपांतरित किया।

सावित्रीबाई फुले ने नारी और अछूत दोनों की मुक्ति को शिक्षा से जोड़ा था। ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था को चुनौती देते हुए कहा था कि जो ज्ञान से वंचित है, वह हमेशा शोषित रहेगा। पेरियार ने इस व्यवस्था की धार्मिक जड़ों पर चोट की और आत्मसम्मान आंदोलन को स्वर दिया। आंबेडकर ने उस विचार को संविधान के रूप में आकार दिया, जिसमें समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व तीनों मूल्यों को राष्ट्र के केंद्र में रखा गया। और फिर कांशीराम ने इस पूरी विचारधारा को बहुजन राजनीति में परिणत कर दिया, ताकि संविधान में लिखी समानता को ज़मीन पर उतारा जा सके।

लेकिन आज, जब हम चारों दिशाओं में देखते हैं, तो सवाल उठता है, क्या दलित समाज वास्तव में उत्थान की दिशा में बढ़ पाया है? हां, शिक्षा का प्रसार हुआ है, आरक्षण ने सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में प्रतिनिधित्व बढ़ाया है। कुछ दलित अधिकारी, जज, प्रोफेसर, पत्रकार, और राजनेता देश के शीर्ष पदों तक पहुँचे हैं। संवैधानिक सुरक्षा कवच ने लाखों लोगों को न्याय और आत्मविश्वास दिया है। यह सब उस आंदोलन की उपलब्धियाँ हैं जिसे फुले, पेरियार, आंबेडकर और कांशीराम ने दिशा दी थी।

फिर भी सच्चाई यह है कि सामाजिक और मानसिक भेदभाव अभी भी भारत की मिट्टी से पूरी तरह नहीं निकला है। जातिवाद ने अपना चेहरा बदला है, लेकिन समाप्त नहीं हुआ। हाल ही में हरियाणा में एक दलित आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार ने आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी ने आरोप लगाया कि उन्हें अपमान और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा था। यह घटना सिर्फ एक अधिकारी की निजी त्रासदी नहीं है, यह बताती है कि व्यवस्था में अब भी वे अदृश्य दीवारें मौजूद हैं जिन्हें कांशीराम और आंबेडकर तोड़ना चाहते थे।

इसी तरह हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, जो स्वयं दलित समाज से आते हैं, पर एक वकील ने जूता फेंकने की कोशिश की। यह घटना जितनी चौंकाने वाली थी, उतनी ही प्रतीकात्मक भी। सबसे बड़ी बात एक तबका वकील के कृत्य को ग्लोरीफाई कर रहा है। वकील की तारीफ़ में पोस्ट लिखने वाले नहीं जानते कि उनकी इस हरकत से हिंदुओं में बिखराव आएगा। दलित समाज के लोग उनसे कट जाएंगे। लेकिन जैसे अभिमानी रावण अपने दंभ से चूर था, वैसे सनातन के कथित पैरोकार अपने अहंकार में चूर हैं।

यह घटना बताती है कि भारत में लोग पद का नहीं जाति का सम्मान करते हैं। निचली जाति का कोई आदमी कितने भी बड़े पोस्ट पर पहुंच जाए, यब तबका उसका सम्मान नहीं करेगा। हम लाख बराबरी की बात करें, समान अवसर की बात करें लेकिन जातिगत पूर्वाग्रह और नफ़रत का ज़हर अब भी हमारे सार्वजनिक जीवन में जिंदा है। जब एक दलित आईपीएस अधिकारी अपनी वर्दी में भी असुरक्षित महसूस करता है, और एक दलित सीजेआई तक को सम्मानपूर्वक सुनने का धैर्य समाज खो देता है, तो इसका अर्थ यही है कि समानता की यात्रा अभी अधूरी है।

कांशीराम कहा करते थे, “जब तक बहुजन संगठित नहीं होंगे, तब तक उनका शोषण नहीं रुकेगा।” आज इस बात का महत्व और भी बढ़ गया है। दलित समाज का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से पिछड़ा है, ग्रामीण इलाकों में जातिगत हिंसा की घटनाएँ आम हैं, और राजनीति में प्रतिनिधित्व होने के बावजूद निर्णय लेने की शक्ति सीमित है। बहुजन आंदोलन ने अपने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली नेता खो दिए हैं, और संगठन का स्वर कई बार सत्ता की राजनीति में दब गया है।

अब ज़रूरत है उस वैचारिक पुनर्जागरण की, जो केवल आरक्षण या सत्ता की हिस्सेदारी की बात न करे, बल्कि सामाजिक सम्मान और आत्मनिर्भरता की संस्कृति बनाए। शिक्षा को हथियार बनाना, आर्थिक आत्मनिर्भरता को लक्ष्य बनाना, और सामाजिक एकता को आंदोलन का केंद्र बनाना ही कांशीराम की सच्ची श्रद्धांजलि होगी। हमें यह समझना होगा कि जाति की लड़ाई सड़कों या संसद में ही नहीं, बल्कि हमारे विचारों में भी लड़ी जाती है।

आज जब कांशीराम को याद करते हैं, तो यह भी याद रखना होगा कि उन्होंने “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” की जो परिभाषा दी थी, वह केवल दलित राजनीति नहीं थी, वह एक समावेशी भारत का सपना था, जहाँ इंसान की पहचान उसकी जाति नहीं, बल्कि उसका कर्म और चरित्र हो। उनका सपना था कि हर घर में आंबेडकर जगे, हर दिल में आत्मसम्मान बोले, और हर संस्था में बराबरी झलके।

उनकी पुण्यतिथि पर यह कहना उचित होगा कि हमने बहुत कुछ पाया है, लेकिन बहुत कुछ अभी शेष है। कांशीराम की राह हमें यह सिखाती है कि संघर्ष से थकना नहीं है, क्योंकि हर पीढ़ी को अपना हिस्सा निभाना होता है। जब तक भारत के आख़िरी व्यक्ति के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता, तब तक आंबेडकर का संविधान और कांशीराम का आंदोलन, दोनों अधूरे हैं।

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