भारतीय लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली नहीं, बल्कि संवाद, सहिष्णुता और सांस्कृतिक मर्यादा का जीवंत प्रतीक माना जाता है। यहां विरोध और मतभेद को भी सम्मान और विवेक के साथ व्यक्त करने की गौरवशाली परंपरा रही है। लेकिन पिछले कुछ साल से भारतीय राजनीति में शिष्टाचार और मर्यादा का बड़ी तेजी से पतन हो रहा है। खासकर जब से तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों ने टीआरपी के लिए बहस के नाम पर दो पक्ष के लोगों को आपस में भिड़ाना शुरू किया है, तब से यह वैचारिक पतन अफनी पराकाष्ठा की ओर बढ़ रहा है।
आजकल टीवी चैनलों पर, लाखों-करोड़ो दर्शकों के समक्ष, देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता एक दूसरे के लिए जब अपशब्दों और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं, तो यह घटना मात्र व्यक्तिगत गिरावट नहीं रह जाती, बल्कि यह लोकतंत्र की गिरती संवाद संस्कृति का चिंताजनक संकेत बन जाती है। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ल ने टीवी बहस के दौरान कांग्रेस प्रवक्ता के प्रति कथित रूप से अत्यंत अपमानजनक टिप्पणी की। उस टिप्पणी में जिस प्रकार मां जैसे पवित्र संबंध को निशाना बनाया गया, उसने केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज और उसकी सांस्कृतिक चेतना को आहत किया है।
राजनीतिक प्रवक्ता किसी भी पार्टी की वैचारिक रीढ़ के साथ साथ पार्टी का फेस माने जाते हैं। प्रवक्ता जनता और पार्टी के बीच संवाद के पुल की तरह काम करते हैं। ऐसे में इन प्रक्ताओं की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। जब वे टीवी पर बोलते हैं, तो उनका हर शब्द लाखों लोगों तक पहुंचता है और पार्टी की छवि को दर्शाता है। ऐसे में, जब एक प्रवक्ता सार्वजनिक मंच पर असभ्य भाषा का उपयोग करता है, तो यह पार्टी की वैचारिक परिपक्वता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।
टीवी डिबेट सूचना, विश्लेषण और तर्क का मंच बिल्कुल भी नहीं रह गए। इन दिनों उत्तेजना, उकसावे और चरित्र हनन का अखाड़ा बन चुके हैं। मीडिया चैनलों को भी आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है कि वे किस प्रकार की बहसों को बढ़ावा दे रहे हैं। 2023 में किए गए एक मीडिया सर्वे के अनुसार, 71 प्रतिशत दर्शकों का मानना है कि आजकल टीवी डिबेट्स गंभीर बहस के बजाय “हंगामा आधारित मनोरंजन” बन चुके हैं।
अधिकांश डिबेट्स का उद्देश्य समस्या का समाधान निकालना या समाधान सुझाना नहीं, बल्कि विरोधी दल के नेता को नीचा दिखाना होता है। ऐसे में संवाद का स्तर गिरना स्वाभाविक है। चैनल्स टीआरपी के लिए बहस को एक तमाशे में बदल रहे हैं। वे उन प्रवक्ताओं को ही बुलाते हैं जो गाली-गलौज में पारंगत होते हैं? ऐसे विवादास्पद प्रवक्ताओं को बार-बार मंच प्रदान करना पत्रकारिता की नैतिकता पर भी सवाल उठाती है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) बेशक नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह अनुच्छेद 19(2) के तहत “शालीनता और नैतिकता” जैसी उचित सीमाओं से नियंत्रित भी है। इसके अतिरिक्त, भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस की धारा 356, धारा 356 और धारा 357 सार्वजनिक तौर पर अभद्र भाषा या अश्लील कृत्य को दंडनीय बनाती है, जिसमें तीन महीने तक की सजा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। कुछ धाराएं विशेष रूप से महिलाओं की मर्यादा को ठेस पहुंचाने वाले शब्दों को अपराध की श्रेणी में लाता है।
भारतीय संस्कृति में मां को सर्वोपरि रखा गया है। हर रिश्ते में मां सर्वोच्च है। शास्त्रों और धर्म ग्रंथों में भी मां को महिमा मंडित किया गया है। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”- अर्थात मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक पूजनीय हैं। “मातृदेवो भव”- यह वाक्य केवल उपदेश नहीं, अपितु हमारी सांस्कृतिक चेतना का आधार है। हमारे महापुरुष भी मां यानी नारी के बारे में उच्चतम विचार रखे है।
महात्मा गांधी कहा कहते थे, “यदि आप किसी राष्ट्र की संस्कृति को समझना चाहते हैं, तो उसमें महिलाओं के प्रति व्यवहार को देखिए।” डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते थे, “नारी का सम्मान ही समाज की सभ्यता का दर्पण है।” गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा, “जहां नारी सम्मान न हो, वहां लक्ष्मी निवास नहीं करती।” इन विचारों से स्पष्ट है कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में मातृत्व और नारी का अपमान सबसे गंभीर नैतिक अपराध माना गया है।
ऐसे में किसी की मां को गाली देना केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का खुला उल्लंघन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि राजनीति में महिलाओं के प्रति सम्मान कितना खोखला हो चुका है। ख़ासकर जब किसी राष्ट्रीय पार्टी का प्रवक्ता सार्वजनिक मंच से किसी की मां के लिए अमर्यादित भाषा का प्रयोग करता है, तो यह न केवल राजनीतिक अविवेक को दर्शाता है, बल्कि यह समाज में नारी गरिमा और संस्कृति के प्रति असंवेदनशीलता को भी उजागर करता है। यह सर्वथा अनुचित, अक्षम्य और निंदनीय है।
अब तक भाजपा ने प्रेम शुक्ल के बयान पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, न ही कोई माफी मांगी गई है। यह चिंताजनक है क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि पार्टी इस प्रकार की भाषा को प्रोत्साहित या अनदेखा कर रही है। भारत निर्वाचन आयोग के पास मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के अंतर्गत यह अधिकार है कि चुनावी माहौल में मर्यादा भंग करने वाले बयानों पर कार्रवाई करे। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भी मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हो रहे भाषा के दुरुपयोग पर हस्तक्षेप कर सकती है। परंतु इन संस्थाओं की निष्क्रियता इस पूरे विमर्श को और अधिक विषाक्त बनाती है।
दरअसल, जब राष्ट्रीय चैनलों पर इस प्रकार की भाषा सुनाई जाती है, तो यह बच्चों और युवाओं को गलत संदेश देता है कि सत्ता या दबदबे के लिए कुछ भी बोलना जायज है। यह केवल भाषाई अपराध नहीं, बल्कि समाज में अभिव्यक्ति की असंवेदनशीलता और संवादहीनता को जन्म देता है। राजनीतिक बहसें लोकतंत्र की आत्मा होती हैं, लेकिन जब उनमें गाली-गलौज, व्यक्तिगत हमले और महिलाओं के प्रति अपमानजनक भाषा का समावेश हो जाता है, तो यह पूरे लोकतंत्र को कलंकित करता है। भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ल की कथित टिप्पणी केवल एक बयान नहीं है, यह एक आइना है जिसमें आज के राजनीतिक विमर्श की गहराई देखी जा सकती है और वह गहराई डरावनी है।
हमें इस पर गंभीर चिंतन करना चाहिए कि क्या यही वहr लोकतंत्र है जिसकी हमने कल्पना की थी? क्या इस स्तर की भाषा को बर्दाश्त किया जाना चाहिए? यदि नहीं, तो इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। लोकतंत्र की सफलता केवल चुनाव जीतने में नहीं, बल्कि संवाद, सहिष्णुता और सार्वजनिक मर्यादा बनाए रखने में है। जब हम किसी की मां के प्रति अमर्यादित शब्द सुनते हैं, तो वह केवल उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक चेतना का पतन है। हमें यह याद रखना होगा कि भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, एक संस्कृति है। इस संस्कृति में शब्दों का भी धर्म होता है। हमें तय करना होगा कि हम किस तरह का लोकतंत्र चाहते हैं, एक ऐसा जहां विचारों से युद्ध हो, या एक ऐसा जहां शब्दों से आघात। यह चुनाव केवल राजनीतिक दलों को नहीं, हमें भी करना होगा।
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