सरोज कुमार
आम बजट को एक पंक्ति में परिभाषित किया जाए तो यह साल भर की अवधि में सरकार की आमदनी और किए जाने वाले खर्च का एक लेखा-जोखा होता है। आमदनी और खर्च का प्रबंधन सरकार की जिम्मेदारी होती है, और इसी प्रबंधन से सरकार की नीति, नीयत और प्राथमिकता की परीक्षा होती है, देश की दिशा, दशा का निर्धारण होता है। इसलिए हर व्यक्ति की नजर हर नए वित्त वर्ष से पहले संसद में पेश किए जाने वाले आम बजट पर होती है। भारत एक कल्याणकारी राज्य है तो बजट की कसौटी जन कल्याण ही होती है, और इसी कसौटी पर बजट को कसा जाता है। यानी बजट में आम आदमी कहां है?
वित्त वर्ष 2022-23 के बजट को जन कल्याण की कसौटी पर कसा जाए तो स्पष्ट तौर पर यह खरा नहीं उतरता। जबकि जन कल्याण राज्य का एक परंपरागत तत्व होने के साथ ही मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत भी है। सरकार की तरफ से बताया गया है कि बजट को भविष्य की चुनौतियों के हिसाब से गढ़ा गया है। आम तौर पर होता यही है कि जब हमारे पास स्पष्ट तौर पर कहने के लिए कुछ नहीं होता तो कोई एक ऐसी बात कह कर निकल लेने की जुगत निकाली जाती है, जो कहने-सुनने में तो अच्छी लगे, लेकिन उसकी किसी तरह की तात्कालिक जवादेही का कोई बोझा न हो। नए बजट के बारे में सरकार की बात भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें कहा गया है कि मौजूदा बजट अमृतकाल यानी आगामी 25 सालों में धीरे-धीरे जमीन पर उतरेगा और अर्थव्यवस्था को अमर बनाएगा। सवाल उठता है मौजूदा महंगाई, बेरोजगारी के कारण कमजोर हो रही अर्थव्यवस्था की जमीन को अमृतकाल का तथाकथित अमृत कितना और कैसे अमर बना पाएगा।
अर्थव्यवस्था की मौजूदा जरूरत मांग बढ़ाने की है। मांग तभी बढ़ेगा, जब लोगों की जेब में पैसे होंगे। जबकि 94 फीसद लोगों की कमाई घट गई है। नए बजट में इस समस्या से निपटने का कोई उपाय नहीं है। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर जिस कदर निर्भर हो चुकी है, और इसकी बाजार निर्भरता दिन पर दिन बढ़ाई जा रही है, उसे टिके रहने का एक मात्रा रास्ता मांग बढ़ाना ही है। मांग नहीं होगी तो कारखाने नहीं चलेंगे, उत्पादन नहीं होगा, नौकरियां नहीं होंगी, लोगों के पास कमाई नहीं होगी। परिणामस्वरूप महंगाई का असर बढ़ता जाएगा। बाजार मुनाफे के लिए होता, वह नुकसान उठा कर नौकरियां नहीं देगा। नुकसान उठाकर नौकरियां देने वाले कृषि क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म किया जा रहा है। यहां तक कि लाभ में चल रहे सरकारी उद्यम भी बाजार को बेचे जा रहे हैं। फिर बाजार चलाने की जिम्मेदारी भी सरकार उठा रही है। यह एक ऐसा खेल है, जिसे इस खेल में शामिल खिलाड़ी ही जानते हैं। जनता सिर्फ तमाशबीन है।
बजट में आम आदमी को बस इतनी-सी राहत है कि कर में कोई वृद्धि नहीं की गई है। कल-पुर्जों और कच्चा माल के आयात पर सीमा शुल्क में राहत दी गई है, जिससे सूक्ष्म लघु एवं मझौले उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र को थोड़ी मदद की उम्मीद है। इसका थोड़ा बहुत लाभ आम आदमी को परोक्ष रूप से मिल सकता है, नहीं भी मिल सकता है। लेकिन महंगाई से परेशान आम जन को राहत के लिए पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी का कोई प्रावधान बजट में नहीं है, ईंधन सब्सिडी लगभग शून्य कर दी गई है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ रही है। पांच राज्यों में चुनाव समाप्त होने के बाद उसका असर घरेलू बाजार में आम जनता को महसूस होने लगेगा। इजरायल-सीरिया संकट, रूस-यूक्रेन संकट, और मांग में वृद्धि के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में प्राकृतिक गैस की स्थिति भी तनावपूर्ण है, जिसका असर भी आने वाले दिनों में आम जनता को महंगाई के रूप में भुगतना पड़ेगा। लेकिन इन तमाम आसन्न संकटों पर बजट मौन है।
रोजगार के मोर्चे पर भी बजट में ठोस कुछ नहीं है। दूसरी तरफ बेरोजगारी की स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। सरकार ने बजट में पांच साल के दौरान 60 लाख रोजगार सृजन की बात कही है। लेकिन सरकार पहले के अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई है, ऐसे में नए लक्ष्य का भविष्य सवालों के घेरे में है। हां, पूंजीगत व्यय मौजूदा वित्त वर्ष के 5.54 लाख करोड़ रुपये से बढ़ा कर 2022-23 के लिए 7.5 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। इससे अवसंरचना के काम होंगे और श्रमिकों को थोड़े रोजगार मिल सकते हैं। लेकिन यहीं पर रोजगार की एकमात्र सबसे बड़ी योजना, महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का बजट घटा दिया गया है। चालू वित्त वर्ष का संशोधित बजट अनुमान 98,000 करोड़ रुपये है। जबकि वित्त वर्ष 2022-23 के लिए 73,000 करोड़ रुपये ही रखा गया है। अभी मौजूदा वित्त वर्ष की ही लगभग 12,494 करोड़ रुपये मजदूरी बकाया है। इस लिहाज से नए वित्त वर्ष का मनरेगा बजट 60,000 करोड़ रुपये ही बचता है। मनरेगा साल में 100 दिन के रोजगार की गारंटी देता है, और फिलहाल लगभग 10 करोड़ जॉब कार्ड सक्रिय हैं। इस हिसाब से मनरेगा के लिए 2.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के आवंटन की जरूरत थी। मनरेगा का बजट घटाना समाज के निचले पायदान पर खड़े आम आदमी की सूखी रोटी भी छीनने जैसा है। कोरोना काल में शहर से गांव की ओर लौटे श्रमिकों के लिए मनरेगा योजना सहारा बनी थी। अभी भी जब बाजार में मांग नहीं है, उत्पादन में गिरावट है, महंगाई-बेरोजगारी आसमान छू रही है तो दुख-दर्द में डूबते श्रमिकों को गांवों में मनरेगा के तिनके का ही सहारा है। लेकिन सरकार ने तो नए बजट में ग्रामीण विकास मंत्रालय का बजट ही 11 फीसद घटा दिया है।
कृषि क्षेत्र का बजट मात्र 4.8 फीसद बढ़ाया गया है, वह भी अवसंरचना विकास में। अवसंरचना विकास से प्रत्यक्ष लाभ किसे होता है, हर कोई जानता है। लेकिन किसानों को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और फसल बीमा के लिए आवंटन घटा दिया गया है। एमएसपी पर खरीददारी के लिए बजट में 2.37 लाख करोड़ रुपये रखे गए हैं। जबकि मौजूदा वित्त वर्ष में 2.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक राशि की खरीददारी एमएसपी के तहत हुई है। यानी किसान आंदोलन और एमएसपी गारंटी कानून की मांग का सरकार के लिए कोई मतलब नहीं है। फसल बीमा योजना का आवंटन भी 15,989 करोड़ रुपये से घटा कर 15,500 करोड़ रुपये कर दिया गया है। किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के रूप में हर साल दिए जाने वाले छह हजार रुपये की राशि में वृद्धि का उम्मीद थी। लेकिन यहां भी ढाक के तीन पात।
सरकार ने बजट में वित्त वर्ष 2022-23 के लिए 39.45 लाख करोड़ रुपये व्यय का अनुमान लगाया है, और आमदनी 22.84 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है। यानी 16.61 लाख करोड़ रुपये घाटे का बजट है, जिसे उधारी से पूरा किया जाएगा। इस हिसाब से राजकोषीय घाटा 6.4 फीसद होने का अनुमान लगाया गया है। अब इस बजट में बापू का अंतिम आदमी कहां है, दिन के उजाले में भी शायद ही दिखे। यहां तो इस अंतिम आदमी के अंत की इबारत लिखी दिख रही है।
होना तो कायदे से यह चाहिए था कि जिन छह फीसद लोगों की कमाई कोरोना काल के दौरान भी बढ़ी है, और उनमें से कइयो ने देश से लूटे गए धन से विदेशों में महल और द्वीप खरीदे हैं, उन पर अल्पकाल के लिए ही सही कोई विशेष कर लगा कर कुछ पैसे उस लुटी जनता की जेब में डाले जाते, जो गरीबी रेखा के नीचे चली गई है, या फिर पेट की रोटी और सिर पर छत के लिए तरस रही है।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)
इसे भी पढ़ें – समाज को कामुक व वहशी साबित करती है परदा प्रथा