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आदिवासी समुदाय के विष्णु देव साय छत्तीसगढ़ के सीएम

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर आदिवासी कार्ड खेला है। आदिवासी समुदाय (Tribal Community) की द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने के बाद आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी विष्णु देव साय (Vishnu Deo Sai) को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की आबादी करीब 32 फीसदी है और अगले लोकसभा चुनाव में आदिवासी वोट भारतीय जनता पार्टी के लिए बोनस का काम करेंगे। अपनी सादगी के लिए भी जाने जाने वाले विष्णु देव साय राजनीत में अजातशत्रु माने जाते हैं।

वैसे चार बार लोकसभी सदस्य और केंद्रीय इस्पात राज्यमंत्री विनम्र वयक्तित्व के धनी विष्णु देव साय के नाम की घोषणा रविवार की शाम की गई। आइए जानते हैं कौन हैं विष्णु देव साय जिनके कंधे पर अमित शाह ने छत्तीसगढ़ में लोकसभा में बेहतरीन प्रदर्शन करने की जिम्मेदारी सौंपी है। विष्णु देव साय छत्तीसगढ़ में आदिवासी का दर्जा हासिल करने वाले साहू (तेली) समुदाय के प्रतिनिधि हैं। उनका जन्म जशपुर जिले के बगिया गांव में हुआ था। राजनीति में आने से पहले वह किसान थे।

विष्णु देव ने अपना राजनीतिक करियर छत्तीसगढ़ के मध्य प्रदेश से अलग होने से पहले ही 1990-98 के बीच मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य के रूप में शुरू किया था। इस बार विधानसभा चुनाव में, उन्होंने कुनकुरी निर्वाचन क्षेत्र से मौजूदा कांग्रेस विधायक यूडी मिंज को हराया है। अजीत जोगी के बाद विष्णु देव छत्तीसगढ़ के दूसरे आदिवासी मुख्यमंत्री हैं।

विष्णु देव ने 1999 से 2014 तक रायगढ़ निर्वाचन क्षेत्र से लगातार चार लोकसभा चुनाव जीते, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट नहीं दिया गया था। बाद में उन्हें 2020 छत्तीसगढ़ बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष बनाया दिया गया। इस बार कुनकरी में चुनावी जनसभा में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि कुनकरी से आप विष्णु देव साय को विधायक बना दीजिए मैं उन्हें बहुत बड़ा आदमी बना दूंगा। इस बार छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 90 में से 54 सीटें जीती है। वहीं 2018 में 68 सीट जीतने वाली कांग्रेस 35 सीट पर सिमट गई है।

विष्णुदेव साय की गिनती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबी नेताओं में होती है। उनको पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह का करीबी भी बताया जाता है। राज्य में सीएम पद की रेस में विष्णुदेव साय के अलावा रेणुका सिंह का नाम भी शामिल था। रेणुका ने हाल ही में सासंद पद से इस्तीफा दिया था। वह भरतपुर सोनहत सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंची हैं। राज्य में लंबे समय से अटकलें लगाई जा रही थीं कि बीजेपी इस बार आदिवासी चेहरे को सीएम बना सकती है।

किसान परिवार से संबंध रखने वाले विष्णुदेव साय ने 1989 में अपने गांव बगिया से पंच पद से राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। 1990 में वह निर्विरोध सरपंच निर्वाचित हुए। इसके बाद तपकरा से विधायक चुनकर 1990 से 1998 तक वे मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे। 1999 में वे 13वीं लोकसभा के लिए रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए। इसके बाद भाजपा ने उन्हें 2006 में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। इसके बाद 2009 में 15 वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में वे रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र से फिर से सांसद निर्वाचित हुए।

2014 में 16वीं लोकसभा के लिए वे फिर से रायगढ़ से सांसद चुने गए। इस बार केंद्र में मोदी सरकार ने उन्हें राज्य मंत्री बनाकर इस्पात, खान, श्रम, रोजगार मंत्रालय बना दिया गया। वह 27 मई 2014 से 2019 तक राज्यमंत्री के रूप में काम किया। पार्टी ने 2 दिसंबर 2022 को उन्हें राष्ट्रीय कार्यसमिति सदस्य और विशेष आमंत्रित सदस्य बनाया। इसके बाद विष्णुदेव साय को 8 जुलाई 2023 को भाजपा ने राष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य मनोनीत किया।

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ONDC कड़ी चुनौती दे रहा है ई-कॉमर्स कंपनियों को

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

तकनीक जगत में भारत ने सरपट दौड़ना शुरू कर दिया है। आधार, यूपीआई के बाद भारत सरकार ने ONDC (ओएनडीसी) यानी ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स (Open Network for Digital Commerce) शुरू किया है। देश के सभी बैंकें और वित्तीय संस्थान इस प्लेटफॉर्म में निवेश कर रहे हैं। यह ई-कॉमर्स की दुनिया में क्रांति लाने का काम करने वाला है। ओएनडीसी डिजिटल में तीसरी या चौथी बड़ी चीज़, सेल्यूलर/डेटा की पहुंच होगी।

इसीलिए देश में इन दिनों ONDC (ओएनडीसी) चर्चा का विषय बना हुआ है। वजह है किफायती दामों पर ग्राहकों को अच्छा सामान मिलना, जिस कारण लोग बड़ी संख्या में ओएनडीसी का उपयोग कर रहे हैं। इस कारण ओएनडीसी को अमेजन, फ्लिपकार्ट, जोमैटो, स्विगी जैसी ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए बड़ी चुनौती भी माना जा रहा है।

ऐसे में ONDC के बारे में जानना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि देश में 5 करोड़ ई-कॉमर्स यूजर्स में से करीब 20 फीसदी यानी एक करोड़ यूजर्स ONDC पर लेन-देन करते हैं। इतना ही नहीं देश में 1.2 करोड़ से अधिक विक्रेता उत्पादों और सेवाओं को बेचकर या रिसेल करके अपनी जीविका चला रहे हैं। लेकिन इनमें से सिर्फ 15 हजार विक्रेता यानी कुल विक्रेताओं का 0.125 फीसदी ही ई-कॉमर्स पर हैं। ई-रिटेल ज़्यादातर विक्रेताओं, खासकर छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के विक्रेताओं की पहुँच से बाहर है। इसी को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार की ओर से ONDC की शुरुआत की गई है।

दिसंबर 2021 में कंपनी एक्ट की धारा 8 के तहत क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया और प्रोटीन ईजीओवी टेक्नोलॉजीज़ लिमिटेड ने बीएसई इन्वेस्टमेंट्स, एनएसई इन्वेस्टमेंट्स, कोटक महिंद्रा बैंक, एक्सिस बैंक, एचडीएफ़सी बैंक, नाबार्ड, बैंक ऑफ बड़ौदा, यूको बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ इंडिया, आईडीएफ़सी फर्स्ट बैंक, सिब्डी, भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, सीएससी ई-गवर्नेंस सर्विसेज इंडिया लिमिटेड, सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज (इंडिया) लिमिटेड और नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरीज लिमिटेड के सहयोग से ONDC का पंजीकरण करवाया है।

दरअसल, ONDC ई-कॉमर्स के इस अनोखे अवसर को पहचानता है जिससे वो भारत में ई-रिटेल प्रवेश को वर्तमान 4.3% से इसके अधिकतम क्षमता तक बढ़ाकर पहुंचा सकता है। हर प्रकार और आकार के सेलर्स को प्रभावशाली तरीके से आबादी के पैमाने पर शामिल करके देश में ई-कॉमर्स प्रवेश को बढ़ाना ही ONDC का मिशन है। मौजूदा समय में ओएनडीसी ई-कॉमर्स कंपनियों को चुनौती देता हुआ नजर आ रहा है। लेकिन अगर आप अब तक ONDC को नहीं समझ पाए हैं, तो आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है। तो आइए आपको इसके बारे में विस्तार से समझाते हैं।

ONDC क्या है?
ओएनडीसी यानी ओपन नेटवर्क फॉर डिजिटल कॉमर्स की शुरुआत दिसंबर 2021 में की गई। यह एक सरकारी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म है और आज ये 180 से ज्यादा शहरों में मौजूद है। यह लोगों को फूड समेत अन्य जरूरत का सामान सस्ते दामों पर उनके घर तक मुहैया कराता है। ओएनडीसी को सरकार की ओर से छोटी और बड़ी ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए बनाया गया है। इसे ई-कॉमर्स मार्केट में अमेजन और फ्लिपकार्ट में बढ़ते वर्चस्व को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है।

ONDC कैसे काम करता है?
ONDC की खासियत है यह क्रेता और विक्रेता यानी खरीदार और दुकानदार के बीच में सीधे संपर्क स्थापित करता है। इसका अपना कोई ऐप नहीं है। जैसे ही आप इसकी वेबसाइट पर जाएंगे आप पेटीएम, मैजिकपिन और अन्य ऐप के माध्यम से आसपास के रेस्तरां के ऑर्डर कर पाएंगे। ओएनडीसी पर खाने के अलावा ग्रॉसरी, होम डेकोरेशन और अन्य सामनों भी ऑर्डर कर सकते हैं। चूंकि ओएनडीसी प्लेटफॉर्म पर रेस्टोरेंट ओनर सीधे अपना खाना कस्टमर को बेचते हैं। इसलिए बीच में कोई थर्ड पार्टी एप या कंपनी नहीं होती है। इससे कमीशन बच जाता है जिसे अमूमन विक्रेताओं से चार्ज किया जाता है। इसलिए यहां से सामान या खाना ऑर्डर करना सस्ता पड़ता है।

आप पेटीएम या मैजिकपिन जैसे एप पर जाकर ओएनडीसी सर्च करेंगे तो आपको ओएनडीसी फूड, ओएनडीसी ग्रोसरी जैसे विकल्प मिल जाते हैं। इसके बाद आपको यहां पर अपनी पसंद का फूड या प्रोडक्ट चुनना है और फिर अपना पता दर्ज करना है। अब आप अपना कुल बिल और सामान के पैसे चेक कर सकते हैं। फिर आप पेमेंट करके अपने घर पर सामान आसानी से पा सकते हैं।

ई-कॉमर्स से सस्ता है ONDC?
ONDC पर किसी बिक्रेता से उसकी सर्विस या प्रोडक्ट की लिस्टिंग के लिए काफी कम कमीशन लिया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार ये अधिकतम 2 से 4 प्रतिशत तक होता है। वहीं, दूसरे ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर अधिक कमीशन का भुगतान बिक्रेताओं को करना पड़ता है। इस कारण ओएनडीसी ऐप पर सर्विस और प्रोडक्ट खरीदना सस्ता है। हालांकि, अभी ओएनडीसी अभी शुरुआती स्तर पर है और ये देखना होगा कि भविष्य में कैसे सेवाएं देता है और उपभोक्ताओं को कितना लाभ होगा।

T Koshy, CEO

ONDC के एमडी और सीईओ टी कोशी ने कहा है कि ONDC का लक्ष्य इस वित्तीय वर्ष के अंत तक व्यापारियों की संख्या 235,000 से बढ़ाकर 300,000 करना है। सरकार द्वारा संचालित डिजिटल नेटवर्क प्लेटफ़ॉर्म, जिसने मार्च में 5,000 से कम लेनदेन दर्ज किया था, लेनदेन की संख्या को 70 लाख तक बढ़ाने का लक्ष्य भी रख रहा है। कोशी ने कहा, “आने वाले वर्ष के लिए मेरा सरल मंत्र लेनदेन के स्तर को बढ़ाना और अधिक व्यापारियों को शामिल करना है।”

महिलाओं की सजगता ही क्राइम से बचने का एक मात्र विकल्प – ममता रानी चौधरी

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संवाददाता
वाराणसीः वाराणसी की एडिशनल डीसीपी (विमेन क्राइम) सुश्री ममता रानी चौधरी ने महिलाओं को हिंसा से बचने और खुद को सुरक्षित रखने के लिए उपलब्ध कानूनी प्रावधानों के बारे में अवगत कराते हुए कहा कि महिलाओं का हर समय सजग रहना ही हर अपराध से बचने का एक मात्र विकल्प है। इसलिए जो महिलाएं सजग रहती हैं, वे किसी भी तरह के अपराध, चाहे वे साइबर अपराध हों या दूसरे अपराध, से कोसों दूर रहती हैं।

उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारी सुश्री ममता रानी चौधरी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से संबद्ध महिला महाविद्यालय (एमएमवी) में “प्रिवेंशन ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट विमेन फ्रंटनाइट” विषय पर आयोजित 17 दिवसीय सेमिनार में महिलाओं को संबोधित करते हुए उन्हें हर तरह के अपराधों से बचने और खुद को महफूज रखने के कई टिप्स दिए। उन्होंने कहा कि हर महिला का जागरूक होना समय की मांग है।

सेमिनार में बतौर मुख्या वक्ता अपने संबोधन में सुश्री ममता रानी चौधरी ने कहा कि आज हम साइबर दुनिया में सुरक्षित रहने के लिए तकनीक से दूर नहीं जा सकते, इसलिए हमें तकनीक के साथ-साथ स्मार्टनेस को अपना कर खुद को सर्वोत्कृष्टता की ओर ले जाने के हुनर सीखना चाहिए। उन्होंने कह कि सोशल मीडिया के दौर में हर महिला को कानूनी प्रावधानों के बारे जानना चाहिए ताकि वह खुद को हिंसा से बचा सके और सुरक्षित रख सके।

17 दिवसीय सेमिनार की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए कॉलेज की प्राचार्य प्रोफेसर रीता सिंह ने बताया कि साइबर अपराधों में हिंसक ऑनलाइन व्यवहार, ऑनलाइन उत्पीड़न, यौन हमलों, हत्याओं और प्रेरित आत्महत्याओं सहित शारीरिक नुकसान पहुंचाने की इच्छा एवं सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी तक शामिल है। उन्होंने कहा कि इंटरनेट के प्रचार-प्रसार के साथ, महिलाओं के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। लिहाजा, महिलाओं विशेषकर बच्चियों को इसे समझने एवं इनसे बचने की आवश्यकता है।

रीता सिंह ने कहा कि महिला महाविद्यालय की छात्राएं आजकल जीवन कौशल के विभिन आयामों से परिचित हो रही है। इन्हीं में से एक है साइबर इंटेलिजेंस जिस पर इस सेमिनार में परिचर्चा की जा रही है। उन्होंने कहा कि साइबर इंटेलिजेंस का अर्थ है कि बदलते समय में जब इंटरनेट एक आवश्यकता के रूप में हम सब के जीवन में शामिल है। इसके साथ किस प्रकार का व्यहवार होना चाहिए महिलाओं में इसकी भी समझ होनी चाहिए।

कार्यक्रम की अन्य वक्ता वाराणसी में पिछले 25 साल से ज़्यादा समय से बाल यौन शोषण के शिकार बच्चों और घरेलू हिंसा पीड़ित महिलाओं की मदद कर रहे एनजीओ सोसाइटी एक्शन एंड रिसर्च सेंटर (SARC) की डायरेक्टर सुश्री रंजना गौड़ ने कहा कि महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक समाज में आगे बढ़ना आसान नहीं होता है। उन्हें कई फ्रंट पर संघर्ष करना होता है। उन्होंने भी छात्राओं को महिला उत्पीड़न के विभिन्न केसेज़, उनसे बचने के तरीकों एवं अधिकारों से परिचित करवाया। कार्यक्रम का संचालन मनोविज्ञान की प्रोफेसर कविता पांडेय ने किया।

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आध्यात्मिक चेतना के अग्रदूत महर्षि अरविंद घोष

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5 दिसंबर को पुण्यतिथि पर विशेष

भारत देश में एक से बढ़कर एक क्रांतिकारी हुए, जिन्होंने भारत को आजाद कराने में अपनी अहम भूमिका निभाई। यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि स्वतंत्रता आंदोलन में जितनी महत्वपूर्ण भूमिका राजनेताओं की रही है, उससे कई गुना अधिक योगदान उन संतों का रहा। कई संत  संघर्ष करते हुए जेल भी गए और अपनी आत्मशक्ति से पूरी पीढ़ी में चेतना जगाकर स्वाधीनता संग्राम में कूदने के लिए प्रेरित किया। उन्हीं क्रांतिकारियों की फेहरिस्त में एक प्रमुख नाम कवि, लेखक, दार्शनिक, संत और महान योगी महर्षि अरविंद घोष का है। वह स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रदूत थे और आंदोलन करते हुए जेल भी गए।

महर्षि अरविंद का वास्तविक नाम अरविंद घोष था। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था जब पूरे देश में अंग्रेजों का राज स्थापित हो चुका था। पूरे देश में अंग्रेजियत व अंग्रेजों का बोलबाला था। उन दिनों देश में ऐसी शिक्षा दी जा रही थी जिससे भारतवासी काले अंग्रेज बन रहे थे। उन दिनों बंगाल में एक बहुत लोकप्रिय चिकित्सक थे उनका नाम था डॉ. कृष्णन घोष। वे अपने कार्य में बहुत कुशल एवं उदार थे। दुःख में हर एक की सहायता करना उनका काम था। उनके घर में पूर्णरूपेण अंग्रेजी वातावरण था। इन्हीं डा. घोष के घर 15 अगस्त 1872 को अरविंद ने जन्म लिया। अरविंद शब्द का वास्तविक अर्थ कमल है। अरविंद का बचपन अंग्रेजी वातावरण में बीता। घर में सभी लोग अंग्रेजी बोलते थे। जबकि नौकरी के साथ हिन्दी या हिन्दुस्तानी चलती थी। उनका परिवार भले पूरी तरह पश्चिमी जीवन शैली में रचा बसा था, लेकिन माता स्वर्णलता देवी भारतीय परंपराओं और आध्यात्मिक धारा के प्रति समर्पित स्वभाव की थीं। घर में दोनों प्रकार का वातावरण था। कृष्ण धन भले पश्चिमी शैली के समर्थक थे पर पत्नी की सेवा पूजा और आध्यात्मिक परंपरा पालन में कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे। इस मिले जुले वातावरण में बालक अरविंद ने आंख खोली। उनके मन मस्तिष्क पर दोनों प्रभाव थे। भारतीय विशेषताओं के भी और पश्चिमी प्रगति यात्रा के भी।

अरविंद की प्रारम्भिक शिक्षा दार्जिलिंग के स्कूल में हुई थी। सात वर्ष की आयु में पिता जी व दो भाईयों के साथ इंग्लैड जाना पड़ा तथा वहां पर चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा प्राप्त की। अरविंद को बचपन में ही अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेंच भाषा का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था।किताबी ज्ञान में अरविन्द कि अधिक रूचि न थी लेकिन साहित्य व राजनीति पर उनका अच्छा अधिकार हो गया था।

अरविंद जब पढ़ने लंदन जा रहे थे, तब माँ ने भारतीय संस्कृति और दर्शन से संबंधित कुछ पुस्तकें उनके साथ रख दीं। अरविंद अपनी पढ़ाई के साथ समय निकालकर माँ द्वारा दीं गई पुस्तकों का अध्ययन करते थे। इंग्लैड में उनके रहने-खाने की व्यवस्था एक अंग्रेज परिवार में की गई थी। इस तरह उनका परिचय भारतीय दर्शन एवं संस्कृति के साथ यूरोपीय जीवन-शैली का भी हुआ। इसीलिए उनके जीवन में इन दोनों सांस्कृतिक धाराओं का समन्वय देखने को मिलता है। अपने पिता की इच्छा का मान रखते हुए अरविंद घोष ने कैम्ब्रिज में रहते हुए न सिर्फ आईसीएस के लिए आवेदन किया, बल्कि 1890 में भारतीय सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली। लेकिन वे घुड़सवारी के जरूरी इम्तिहान में पास नहीं हो पाए। ऐसे में उन्होंने भारत सरकार की सिविल सेवा में एंट्री नहीं मिली।

पढ़ाई के दौरान ही लंदन में उनका परिचय बड़ौदा नरेश से हुआ। बड़ौदा नरेश युवा अरविंद घोष से प्रभावित हुए और उनके समक्ष अपना निजी सचिव बनाने प्रस्ताव रखा। उनके प्रस्ताव को अरविंद ने स्वीकार कर लिया। 1892 में पढ़ाई पूरी करके वह बड़ौदा पहुंच गए और कुछ समय नरेश के निजी सचिव का कार्य किया। कालांतर में वह राजा की सहमति से बड़ौदा कॉलेज में प्रोफेसर और फिर वाइस प्रिंसिपल बने। इसके साथ ही उका भारतीय संस्कृति और पुरातन साहित्य का अध्ययन भी निरंतर जारी रहा।

वह 1896 से 1905 तक बड़ौदा में विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते रहे। बड़ौदा में रहते हुए ही बंगाल के क्रांतिकारियों से उनका संपर्क बन गया था। उनके बड़े भाई बारिन घोष सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी और अनुशीलन समिति में सक्रिय थे। भाई के माध्यम से अरविंद भी 1902 में अनुशीलन समिति से जुड़ गए। बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसी क्रांतिकारियों से मिलवाया। इसके बाद वे 1902 में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिले और बाल गंगाधर से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ गए।

अरविंद बड़ौदा के महाविद्यालय में रहते हुए युवाओं को पश्चमी शिक्षा का अध्ययन तो कराते लेकिन व्यक्तित्व निर्माण के लिए स्व-शिक्षा और स्व-संस्कृति पर गर्व करने का संदेश दिया करते थे। उनके द्वारा दी गई संस्कार और देशभक्ति की शिक्षा ने छात्रों में राष्ट्र भक्ति की ऐसी ज्योति जगाई कि उनमें से अधिकांश युवा आगे चलकर स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागी बने। अरविंद अपनी धुन में काम कर रहे थे कि 1905 में अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा हुई। इसका विरोध हुआ। अरविंद बड़ौदा की नौकरी छोड़कर कलकत्ता आ गए और आंदोलन से जुड़ गये। गिरफ्तार हुए और जेल भेज दिए गए।

रिहाई के बाद पुनः पीढ़ी निर्माण में लग गए। साथ ही अपने जीवन-यापन के लिए कलकत्ता नेशनल लॉ कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगे। इससे उनके दोनों काम हो रहे थे। जीवन-यापन का साधन भी और युवाओं में स्वत्व एवं स्वाभिमान का जागरण भी। उन्होंने एक साधारण मकान में रहकर साधा जीवन जीने का निर्णय लिया। केवल धोती कुर्ता पहनते, स्वदेशी आंदोलन भी आरंभ किया। जन जाग्रति के लिए बंगला भाषा में पत्रिका “बन्दे मातरम्”  का प्रकाशन प्रारम्भ किया।

भारत की स्वतंत्रता के लिए बंगाल में दोनों प्रकार के प्रयास हो रहे थे। सामाजिक जागरण का भी और क्रांतिकारी आंदोलन का भी। तभी 1908 में अलीपुर बम विस्फोट हुआ। अंग्रेज सरकार को बहाना मिला और 37 बंगाली युवकों को आरोपी बनाया गया। इसमें अरविंद घोष और उनके बड़े भाई बारिन घोष भी बंदी बनाए गए। 2 मई 1908 को सभी बंदी जेल भेज दिए गए। अलीपुर में अरविंद घोष और बारिन घोष के पिता कृष्णधन घोष का एक गार्डन हाउस था, जो सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने की गतिविधियों का केंद्र बन गया था। वहां हथियार जमा किए जाते और बम भी बनाए जाते थे।

हालांकि दिखावे के लिए वहां भजन-कीर्तन के चलता था, ताकि किसी को कोई संदेह न हो। बम बनाते समय एक दिन विस्फोट हो गया जिसमें एक युवक की मृत्यु हो गई। पुलिस ने पूरा इलाका घेरा और सभी संबंधित युवकों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया। इस कांड में अरविंद को एक साल जेल की सजा हुई। वह 6 मई 1909 को रिहा हुए। अलीपुर जेल जीवन का यह एक वर्ष उनके जीवन को बदल गया। वे स्वधीनता संघर्ष के हमराही तो रहे पर मार्ग पूरी तरह बदलकर। जेल की कोठरी में उनका समय अध्ययन और साधना में बीता था।

पढ़ाई के दौरान लंदन की जीवन शैली और बाद में भारतीय जीवन दोनों तस्वीर उनके सामने थी। विशेषताएं भी और वर्जनाएं भी। कारण भी और विसंगति भी। उन्होंने कारणों के निवारण के लिए भारतीय समाज जीवन में आत्मिक शक्ति को जगाने का संकल्प किया। और इसके लिए आध्यात्म और शिक्षा का मार्ग चुना। इसकी झलक 30 मई 1909 को उत्तरपाड़ा की उस आम सभा में मिलती है जो रिहाई के बाद अरविंद के सम्मान में आयोजित की गई थी। इस सभा में उन्होंने जेल के कुछ संस्मरण तो सुनाए पर उनका अधिकांश संबोधन आध्यात्मिक शक्ति को जगाकर संकल्पवान बनने का था।

संघर्ष और दर्शन के लिए उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का जीवन और गीता का संदेश अद्भुत लगा। उन्होंने यही मार्ग अपनाया। जेल से रिहा तो पर उन पर निगरानी थी वह अपना वेष बदलकर गुप्त रूप से पुड्डचेरी चले गए। तब पुड्डचेरी अंग्रेजों के अधिकार में नहीं। वहाँ फ्रांसीसी शासन था। पुड्डचेरी में उन्होंने योग साधना केंद्र आरंभ किया और योग से आरोग्य एवं संकल्पशक्ति जागरण के वैज्ञानिक तर्क देकर युवा पीढ़ी को भी आकर्षित किया। पुड्डचेरी में उन्होंने अरविंद आश्रम ऑरोविले की स्थापना की थी और काशवाहिनी नामक रचना की। इससे उनकी और उनके आश्रम की ख्याति बढ़ी।

कालांतर में चलकर उन्होंने अपने अध्ययन में वेद को भी जोड़ा और वेदों के वैज्ञानिक पक्ष को समाज के सामने प्रस्तुत किया। वेद से जुड़ते ही उनकी ख्याति महर्षि अरविंद के रूप में हुई। उनका उद्देश्य समाज जीवन में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की जाग्रति उत्पन्न कर एक स्वाभिमान सम्पन्न समाज का निर्माण करना था और उन्होंने इसी उद्देश्य पूर्ति के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

महर्षि अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनके दर्शन का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा। भारतीयों के साथ विदेशी नागरिक भी उनके शिष्य बने और भारतीय संस्कृति से जुड़े। उन्होंने वेद उपनिषद और गीता पर टीका लिखी। भारतीय स्वतंत्रता, स्वाभिमान और आध्यात्मिक साधना का मंत्र देने वाले इस महान योगी ने 5 दिसंबर 1950 को अपने जीवन की अंतिम श्वांस ली। 4 दिन तक उनके शिष्यों के दर्शन के लिए दिव्य रखी गई और 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई।

संकलन – हरिगोविंद विश्वकर्मा

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ज़माने भर की लाशों पर भी हो जाए खड़ी नफ़रत, पर उसका क़द मुहब्बत के बराबर हो नहीं सकता…

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संवाददाता
मुशायरों में कभी-कभी कुछ ऐसे शेर सुनने को मिल जाते हैं कि बरबस ही कालजयी ग़ज़लगो दुष्यंत कुमार की याद ताजा हो उठती है। “ज़माने भर की लाशों पर भी हो जाए खड़ी नफ़रत, पर उसका क़द मुहब्बत के बराबर हो नहीं सकता…” जैसा शेर उतनी ही गहराई लिए हुए है। तभी तो इस शेर को पहली बार सुनकर श्रोता 1960 और 1970 के दशक की तरफ़ खिंचते चले जाते हैं, जब देश में दुष्यंत कुमार जैसे फनकार अपनी रचनाओं से श्रोताओं पर जादू कर देते थे।

दरअसल, यह शेर रविवार की शाम मुंबई के बांद्रा पश्चिम स्थित रंग शारदा में आयोजित ‘नस्ल-ए-नौ भारत’ में दर्शकों को सुनने को मिला। आयोजन में शामिल लोगों के विशेष आग्रह पर सबसे अंत ग़ज़ल पढ़ने आए ‘नस्ल-ए-नौ भारत’ के प्रवर्तक और इंशाद फाउंडेशन के प्रमुख नवीन जोशी ‘नवा’ ने एक ग़ज़ल सुनाई और उसका एक शेर सुनकर हर किसी के ज़बान से बरबस वाह-वाह निकल पड़ा। नवा के इस शेर को सुनकर दुष्यंत कुमार की परंपरा ताज़ा हो उठी। श्रोताओं ने अपनी सीट से खड़े होकर नवा साहब को दाद दी। ज़्यादातर श्रोताओं को वह शेर सुनते ही कंठस्थ हो गया।

‘नस्ल-ए-नौ भारत’ का आयोजन देश में युवा शायरों को मंच प्रदान कर रहे इंशाद फाउंडेशन ने सुख़न सराय और बज़्म-ए-यारान-ए-अदब के साथ मिलकर किया, जिसमें देश के कोने-कोने से आए 15 चुनिंदा युवा शायरों ने अपनी एक से बढ़कर एक बेहतरीन रचनाओ से शायरी के कद्रदानों का दिल जीत लिया। कुल मिलाकर ‘नस्ल-ए-नौ भारत’ ज़बरदस्त क़ामयाब रहा। लगभग एक हजार दर्शकों क्षमता वाला रंगशारदा ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। कार्यक्रम की शुरुआत राष्ट्रगान से हुई। उसके बा’द 26/11 के शहीदों को मौन श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

‘नस्ल-ए-नौ भारत’ की शुरुआत युवा शायर शिवम सोनी की प्रस्तुति से हुई। शिवम ने “छिड़ी है जंग इज़्ज़त और वफ़ा में, भली लड़की बहुत तकलीफ़ में है…” सुनाकर भरपूर तालियां और वाहवाही बटोरीं। इसके बाद आए अंश प्रताप सिंह ग़ाफ़िल। उन्होंनें “तूने तस्वीर में जो दर्द उकेरा है मेरा, ऐ मुसव्विर! ये मेरे दर्द का चौथाई है…” इसी तरह शायर ऋषभ शर्मा ने अपनी रचना “जिनको चारागरों की सुइयाँ नहीं चुभती हैं, ऐसे बच्चों को कोई बात चुभी होती है…” पेश किया तो शरजील अंसारी ने “अजीब बात है जब टूटता है दिल ‘शरजील’, कुछ और पहले से बेहतर धड़कने लगता है…” सुनाकर दाद हासिल की।

इस महफ़िल की यह ख़ासियत रही कि हर शायर पिछले शायर से बेहतर नज़र आ रहा था। रितेश सिंह ने “जब मैं दरिया था तो कितनी तिश्नगी थी, अब मैं सहरा हूँ मगर प्यासा नहीं हूँ…” पेश किया तो शायर इमरान राशिद ख़ान
“मैं हूँ जुगनू वो है सूरज उसको ख़ुद पर नाज़ है, रात होने दीजिए ख़ुद फैसला हो जाएगा…” ने सुनाकर तालियां बटोरी। आशुतोष मिश्रा अज़ल ने “कर ज़रा और इज़ाफ़ा मेरी हैरानी में, मेरी तस्वीर बना बहते हुए पानी में…” सुनाया तो कुशल दानेरिया ने तहत में “पढ़ाने का अगर मतलब है हाथों से निकल जाना, ख़ुदारा फिर मेरी बेटी भी हाथों से निकल जाए…” पढ़कर वाहवाही लूटी।

सोशल मीडिया के नए स्टार अश्विनी मित्तल ऐश ने कई रचनाओं के साथ-साथ उम्दा शेर “अचानक तोड़कर चश्मा हमारा, किसी ने खोल दीं आँखें हमारी…” पढ़ा तो दर्शन दीर्घा में बैठे युवत-युवतियां उका ऑटोग्राफ लेने के लिए मंच पर चढ़ गए। इसी तरह विष्णु विराट ने अपना बेहतरीन शेर “आप जो बैठने नहीं देते, आप इक रोज़ कुर्सियाँ देंगे…” पेश किया। मुशायरे का बढ़िया संचालन कर रहे तनोज दाधीच कहां पीछे रहने वाले रहने वाले थे। वह “ख़ुद का ही आसमान है काफ़ी ‘तनोज’ को, जलता नहीं वो और किसी की उड़ान से…” सुनाकर जबरदस्त प्रशंसा के हक़दार बने।

सलमान सईद भी अपनी रौ में दिखे और जब उन्होंने तहत में “ये मेरे ग़म तो, किसी और पे जचने से रहे, ये वो कपड़े है जो फैशन में नहीं आ सकते…” सुनाया तो लोगों ने खड़े होकर अभिवादन किया। उनके बाद अपनी रचना पेश करने आए सौरभ सदफ़ ने “दूर से सिर्फ़ इमारत ही गिरी दिखती है, अस्ल नुक़सान तो मलबे से पता चलता है…” से ख़ूब तालियां बटोरी तो चिराग़ शर्मा के शेर “उन्होंने अपने मुताबिक़ सज़ा सुना दी है, हमें सज़ा के मुताबिक़ बयान देना है…” को सुनते ही हॉल तालियों से गूँज उठा। इसी तरह यासिर ख़ान इन’आम के शेर “किराएदार की आँखों में आ गए आँसू, बनाये बैठे ठगे बच्चे मकान कागज़ पर…” दर्शकों को ख़ूब पसंद आए।

मुशायरे की शुरुआत में प्रयोग के तौर पर बिलाल तेलगी, तौसिफ़ कातिब, ज़ीशान साहिर, रितिका रीत और तारीक़ जमाल अंसारी जैसे लगभग दो दर्जन युवा शायरों का कोलाज सजाया गया, जिसमें हर शायर ने दो-दो शेर पढ़े। इसमें भी कई शायरों ने बेहतरीन शेर पढ़कर दर्शकों को हैरान कर दिया। इस मुशायरे की तैयारी लगभग चार महीने से चल रही थी और उसका परिणाम ये रहा कि ये मुशायरा इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। रंग शारदा इतना खचाखच शायद कभी नहीं भरा रहा होगा, जितना 26 दिसंबर 2023 की शाम भरा हुआ था।

वरिष्ठ शायर देवमणि पांडेय ने मुशायरे के बाद कहा, ऐसा कम होता है जब सभी शायर कमाल के हों। मगर ‘नस्ल ए नौ भारत’ मुशायरा ऐसा हुआ। बारी-बारी से सभी शायरों ने अपने उम्दा कलाम पेश करके कमाल किया। इंशाद फाउंडेशन का यह मुशायरा बेमिसाल रहा। पूरे मुशायरे के दौरान लगातार वाह वाह का शोर बुलंद होता रहा। तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देती रही। कभी-कभी जोशीले श्रोता भाव विभोर होकर शायरों से हाथ मिलाने के लिए मंच पर चढ़ जाते थे। हर शायर का परफार्मेंस दमदार था। कुल मिलाकर यह एक शानदार और यादगार मुशायरा था।

इंशाद फाउंडेशन के प्रमुख नवीन जोशी ‘नवा’ ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि नस्ल-ए-नौ भारत के बारे में कुछ भी लिखने के लिए उन्हें अल्फ़ाज़ ही नहीं मिल रहे हैं। दर्शकों का प्रतिसाद तूफ़ानी रहा। सिर्फ़ युवाओं को लेकर शाइरी का एक इतना बड़ा कार्यक्रम मुंबई में किया जा सकता है और उसे इतनी अद्भुत सफ़लता मिल सकती है यह साबित करता हुआ यह कार्यक्रम ऐतिहासिक रहा। 15 चुनिंदा जवाँ शाइरों ने अपनी शाइरी से चार घंटे तक समां बांधे रखा और दर्शकों की ज़बरदस्त दाद और तालियों की आवाज़ से ऑडिटोरियम गूँजता रहा। कार्यक्रम में डॉ. वनमाली चतुर्वेदी, नवीन चतुर्वेदी, अर्चना जौहरी, माधव नूर, सिद्धार्थ शांडिल्य और पूनम विश्वकर्मा और नवीन जोशी के माता-पिता और उनकी पत्नी देवयानी जोशी समेत बड़ी संख्या में साहित्यप्रेमी मौजूद थे।

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Maverick Chaitanya: Finding sweet spot between intuitive storytelling and honing filmmaking techniques

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By Chitra Sawant

As a writer-director, Chaitanya Tamhane’s creations are considered masterpieces that speak a distinct language. Having received worldwide laurels for his films, ‘Court’ (2014) and ‘The Disciple’ (2020), this Mumbai-based filmmaker was featured by The Hollywood Reporter as ‘one of the world’s most promising film-makers under 30’. ‘Court’, an extraordinary fiction film was premiered at the Venice Film Festival, and has won the FIPRESCI award presented by the International Federation of Film Critics twice, at Venice and in Buenos Aires at BAFICI. It was awarded the Best Film – Orizzonti and the Lion of the Future award. ‘The Disciple’ won the FIPRESCI International Critics Prize at Venice. His films challenge the stereotypical mindset associated with vital issues, which are often neglected by mainstream films. In this interview Chaitanya talks about his films, its characters, the process and future of filmmaking.

Your films talk about the human experience which creates a great impact on the audience. How do you manage to bring those so powerfully on the screen?

Chaitanya Tamhane: I keep trying to do that. I don’t know how successful I am at doing it, but I think a lot of it comes from following a process that is guided by your intuition, but also an understanding of film as a medium and understanding the craft. So when your intuition and this craft sort of fall into a certain marriage, I think that’s your best shot at trying to successfully transform your personal experiences into a film, or into a cinematic experience. It’s a lot of hard work. It’s a lot of patience and persistence, and like I said, following the process and doing your best, as per your understanding of the medium to put something out.

Do you think your films can change the way people look at Indian films?

Chaitanya Tamhane: I don’t know. I don’t think you can really control how people see something or what change is brought about by your work; but all I want to do is put my work out honestly. And if it changes someone’s perception, or someone’s way of looking at Indian cinema, that is a bonus. I do try to put out stories that challenge people’s perception of what is Indian, or what constitutes India, because a lot of my work is showcased internationally. And even within the Indian landscape, some of my work can be seen as a little bit different or challenging. But I think cinema in that sense, is a universal language. And I’m very grateful for the audience that I have.

From where do you pick and choose these characters which seem so real?

Chaitanya Tamhane: I look at it from a real life lens, from my personal experience, and also mixing in some imagination and collating different experiences of people you’ve encountered and ultimately transforming them into certain characters. But I think the truth is a good guiding point for a lot of this.

You have chosen the most neglected but yet extremely important issue of our society in the film ‘Court’. How did you zero in on it?

Chaitanya Tamhane: It was the reflection of whatever I observed in society, what I was discovering as a 23, 24-year-old about caste politics, about the resistance movement, about unlawful detentions and arrests, and also just how class divide works in a city like Mumbai. It is majorly a compilation of a lot of research, a lot of reflection, a lot of observation of the city and its various subcultures. Going to courtrooms, talking to people, interviewing advocates, a lot of that. And questioning of my own upbringing, my own politics, kind of assimilated into the script of ‘Court’, which again, took a lot of patience, persistence, and time to write. It took me almost two years to write the script.

How do you communicate with your actors/artists who are senior to you in the industry?

Chaitanya Tamhane: Once you start working, there is no concept of senior or junior, there’s an actor and there’s a director. Even a new actor can have an ego and a very senior actor can be very generous, kind, and open. So I don’t think there’s any one formula, or that it’s based on seniority. It’s just that you have to find a way of communicating with different actors in different ways, and each person is its own unique challenge for a director, in that sense.

Your films have deep meaning, they proceed at their pace, yet they don’t seem to be boring. How do you ensure they hold the audience’s attention?

Chaitanya Tamhane: Well, I’m glad that someone thinks my films are not boring! But yes, for me, being engaging is very important. There’s always a subtext of humour in many of the scenes, there’s always an underlying dramatic tension in the scenes that I try to construct. So, if it’s engaging to me, I assume that it’s engaging for the audience. And yes, I don’t ever want to be boring, in that sense! And I always want the scenes to be loaded with tension and drama or humour. So that I think is probably the reason you know, some people think it’s engaging.

How has your experience been, working with Royal Stag Barrel Select Large Short Films for your film ‘Next, Please’?

Chaitanya Tamhane: It’s been a great experience, because the kind of freedom that I’ve been allowed, the kind of resources that they provided me, and the kind of trust that they have shown in me – to take my time, to work with the director that I want to, or work with new directors whose work they hadn’t seen – because now I’ve made two short films with them – they only went by my judgement and my assurance to them that I will deliver a product of a certain quality. This is the only brand I’ve worked with, you know, I generally hesitate from doing brand work or advertising. But it’s been incredible, it’s been such a wonderful experience dealing with such reasonable, such kind, generous people. And the kind of faith that they have shown in me that it’s a pleasure to work with them.

What, according to you, is the future of short format films?

Chaitanya Tamhane: I think films, and what we now define as films, are getting shorter and shorter, because the attention spans of people have changed and even other mediums which are like 30 seconds, one minute, are taking over the internet and taking over what people are consuming. So short films have a future, in that sense, because the way ideas are now condensed and compressed into shorter durations and still being successfully communicated – it says something about not only our attention span, but also the new discourse, which is more concise and snappy.

उदय प्रताप कॉलेज में यादगार आयोजन रहा विज्ञान महोत्सव का आयोजन

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संवाददाता
वाराणसीः उत्तर प्रदेश के वाराणसी के सौ साल से अधिक पुराने उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी में विज्ञान, प्रद्योगिकी और नवाचार पर आधारित विज्ञान महोत्सव का आयोजन किया गया। यह महोत्सव विज्ञान एवं कृषि संकायों के छात्र छात्राओं के लिए आयोजित किया गया, जिसमें 400 से अधिक छात्र छात्राओं ने ऑनलाइन गूगल फॉर्म के जरिए रजिस्ट्रेशन किया था।

विज्ञान महोत्सव कार्यक्रम में पोस्टर मेकिंग, मॉडल एवं रंगोली जैसी मुख्य प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया जिसमें छात्र-छात्राओं बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और अपने अपनी कल्पनाओं, विचारों और नवाचार के उद्देश्यों को पोस्टर, रंगोली और मॉडल के माध्यम से प्रदर्शित किया। सभी थीमों का मूल्यांकन अलग निर्णायक मंडल द्वारा किया गया।

मॉडल प्रतियोगिता में शिफा इदरीशी और उनकी टीम प्रथम विजेता रही। दूसरे पुरस्कार के लिए में टाईअप हो गया और पुरस्कार संयुक्त रूप से बीएससी पंचम सेमेस्टर की छात्रा सात्विक त्रिपाठी और उनकी टीम तथा बीएससी (एजी) तृतीय सेमेस्टर की छात्रा काजल सिंह और उनकी टीम को मिला। तृतीय विजेता बीएससी (एजी) सप्तम सेमेस्टर के आदित्य कुमार कश्यप रहे।

पोस्टर प्रतियोगिता में प्रथम स्थान बीएससी तृतीय सेमेस्टर की नैंसी और उनकी टीम को मिला। द्वितीय पुरस्कार बीएससी पंचम सेमेस्टर के छात्र रुद्रप्रताप वर्मा और उनकी टीम को मिला। तृतीय विजेता बीएससी प्रथम सेमेस्टर की छात्रा प्रणामिका मिश्रा और उनकी टीम रही। रंगोली प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार बीएससी पंचम सेमेस्टर की छात्रा अभिलाषा तिवारी और उनकी टीम को मिला। द्वितीय स्थान बी एससी पंचम सेमेस्टर की छात्रा श्रेया जयसवाल और उनकी टीम को मिला। इसी तरह तीसरा पुरस्कार बी एससी पंचम सेमेस्टर की छात्रा आकांक्षा यादव और उनकी टीम को मिला।

विज्ञान महोत्सव के मुख्य अतिथि इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र (इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर एटॉमिक रिसर्च) कलपक्कम तमिलनाडु के परमाणु अनुसंधान विभाग के साइंटिस्ट अतिफ खान ने छात्र-छात्राओं को बैक्टीरियोफेज और बायोफाउल्डिंग के विषय में व्याख्यान के जरिए विस्तारपूर्वक समझाया। मुख्य अथिति का स्वागत उदय प्रताप कॉलेज के प्राचार्य प्रो धर्मेंद्र कुमार सिंह ने किया।

कार्यक्रम में धन्यवाद ज्ञापन की जिम्मेदारी इस विज्ञान महोत्सव के संयोजक प्रो देवेंद्र कुमार सिंह ने निभाई। कार्यक्रम का सफल संचालन विज्ञान महोत्सव के सह-संयोजक सत्य शरण मिश्रा ने किया। कार्यक्रम के दौरान जंतु विज्ञान की विभागाध्यक्ष प्रो तुमुल सिंह, प्रीति यादव और कीर्ति सिंह तथा विज्ञान महोसव के सह-संयोजक सतीश प्रताप सिंह एवं अन्य प्राध्यापक गण तथा बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं उपस्थित रहे।

कहानी – नियति

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वाराणसी की ओर जाने वाली सड़क सिंहपुर गाँव से होकर गुजरती थी। यह गाँव शहर से बीस-बाइस किलोमीटर दूर था। तक़रीबन दो हज़ार आबादी वाला यह गाँव क़ुदरती तौर पर बहुत समृद्ध था। गाँव के किनारे से एक नदी गुज़रती थी, इसलिए यहाँ हरियाली भरपूर थी। यहाँ पीपल, बरगद, नीम, आम, महुआ, इमली, शीशम, कटहल और अशोक के ढेर सारे वृक्ष हरियाली को और बढ़ा रहे थे। इसके अलावा यहाँ सागौन और बादाम जैसे बड़े पत्तों वाले वृक्ष भी लगाए गए थे। आसपास का यह इकलौता गाँव था, जहाँ पलाश के वृक्ष भी उगे थे। गाँव और नदी के बीच बड़ी संख्या में खड़े पलाश के पेड़ों में फूल आ गए थे। ये फूल बड़े ही मनोहारी लगते थे। हर किसी को अपनी ओर खींचते थे। नदी और सड़क पर बने पुल के साथ मिलकर ये वृक्ष गाँव के प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। गाँव के लोगों और राहगीरों को छाया एवं फल प्रदान करते थे। इतना ही नहीं यहाँ गर्मी के मौसम में भी बहुत अधिक गर्मी महसूस नहीं होती थी। गाँव में लोग शांतिपूर्ण जीवन जी रहे थे।

तनमय छुट्टियाँ ख़त्म होने पर जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जनपद में ड्यूटी रिज़्यूम करने जा रहा था। उसे वाराणसी से ट्रेन लेनी थी। लेकिन जम्मू तवी जाने वाली ट्रेन आज अचानक पाँच घंटे विलंब हो गई। वह कुछ देर बैठा टाइम पास करता रहा। जल्दी ही वह बोर होने लगा। उसे लगा प्लेटफॉर्म पर बैठकर बोर होने से बेहतर है, वह सिंहपुर चला जाए। वहाँ बिट्टन और उसके पिता श्याम लाल से मुलाक़ात भी हो जाएगी, क्योंकि अति व्यस्तता के कारण बहुत लंबे अरसे से वह चाहकर भी सिंहपुर जा नहीं सका था। उसने एक ऑटोरिक्शा रिज़र्व कर लिया। फिर भी उसे उसे गाँव पहुँचने में एक घंटे लग गए। फिर भी उसके पास चार घंटे का समय था।

सिंहपुर में श्याम लाल का घर सड़क के पश्चिमी किनारे पर था। घर के पीछे बहुत दूर तक खेत फैले हुए थे। श्याम लाल देश के अति प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर थे। तनमय के बड़े भाई के सुसर। उन्हें ग्रामीण जीवन बहुत पसंद था। उन्होंने पहले से ही फ़ैसला कर रखा था कि सेवा-निवृत्त होने के बाद वह गाँव में ही रहेंगे। इसलिए नौकरी में रहते हुए ही उन्होंने गाँव में शानदार घर बनवाया था। अध्यापन कार्य करते हुए भी वह हर तीज-त्यौहार या कार्य-प्रयोजन में अपने गाँव चले आते थे। उनकी अपनी कार थी, तो शनिवार की शाम गाँव पहुँच जाते थे और सोमवार की सुबह वापस यूनिवर्सिटी पहुँच जाते थे। उनका दो मंज़िला घर आसपास के इलाक़े में बड़ा मशहूर था। वह घर आगे दिल्ली के लुटियंस ज़ोन में बने किसी बंगले की तरह लगता था। पीछे एक आँगन भी था, जहाँ कई कमरे थे। घर के सामने उन्होंने वाटिका लगा रखी थी। वहाँ लगे हर प्रजाति के फूल और पौधे घर के सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे।

श्याम लाल दो भाई थे। नरोत्तम लाल उनसे दस साल छोटे थे। एक बहन थी, जो उनसे छोटी लेकिन नरोत्तम से बड़ी थी। नरोत्तम एक राष्ट्रीयकृत बैंक की वाराणसी शाखा में ही प्रबंधक थे। वह भी शहर की बजाय गाँव में ही रहते थे। उनका संयुक्त परिवार था। श्याम लाल को दो संतानें थीं। एक लड़का और एक लड़की – तनमय की भाभी। नरोत्तम को केवल एक लड़की थी – बिट्टन। दोनों भाइयों में बहुत अधिक स्नेह था। वे एक दूसरे का बड़ा सम्मान करते था। वे साथ मिलकर खेती करते थे। कुछ मवेशी भी पाल रखे थे। घर और खेत का सारा काम-काज नौकर ही करते थे।

साइंस पर कई किताबें लिख चुके श्याम लाल को पढ़ने में सीरियस बच्चे बहुत प्रिय थे। वह शिक्षा को ज़िंदगी का अपरिहार्य हिस्सा मानते थे, इसलिए पढ़ाई को बड़ी अहमियत देते थे। किशोरावस्था में तनमय पढ़ने में बहुत ही होशियार था, इसलिए श्याम लाल को उससे बड़ा अनुराग था। यही वजह है कि वह जम्मू-कश्मीर में नौकरी लगने से पहले तक अक्सर श्याम लाल और बिट्टन से मिलने के लिए सिंहपुर ज़रूर चला आता था। नौकरी लगने के बाद आने-जाने का सिलसिला थम सा गया था।

सिंहपुर से भावनात्मक लगाव था उसका। भाई का ससुराल होने के साथ-साथ यह गाँव उसके लिए बहुत ख़ास था। गाँव के हर शख़्स से उसका परिचय था। वह गली-गली से वाक़िफ़ था। स्वाभाविक तौर पर गाँव में पहुँचते ही उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। मन भर आया। स्मृतियाँ ताज़ा हो उठीं। थोड़ी ख़ुशी थी, तो थोड़ी व्याकुलता भी थी। पूरे एक दशक बाद इस गाँव में उसके क़दम पड़े थे।

शहरीकरण के दौर में लोग रोज़ी-रोटी के सिलसिले में शहर पलायन करने लगे हैं। इससे गाँव उजड़ी बस्ती की तरह लगने लगे हैं। प्राकृतिक हरियाली के बावजूद मानव की कम संख्या के कारण सिंहपुर भी कमोबेश उजड़ी बस्ती की तरह ही लग रहा था। पूरे गाँव में इक्का-दुक्का लोग ही दिखाई दे रहे थे। जो मिलते, उनसे दुआ सलाम करता हुआ तनमय अपने गंतव्य-स्थल पर पहुँच गया। श्याम लाल के द्वार पर गाय, गोरू और दो कुत्तों के सिवा कोई नहीं था। वह सीधे लिविंग रूम यानी दालान में चला आया। दालान बहुत बड़ा था। सोफ़े और मैचिंग कुर्सियाँ सलीके से लगी थीं। ऊपर बड़ा फैन चल रहा था। उसकी हवा पूरे कमरे में पहुँच रही थी।

दालान से सटे स्टडी रूम में कुर्सी पर बैठकर दीपक पढ़ाई कर रहा था। वह तनमय की भाभी का भतीजा था। अब काफी बड़ा हो चुका था। दीपक ने उसे पहचान लिया। उठ कर उसका पाँव छुआ और उसके आने की ख़बर देने के लिए घर में चला गया। तनमय ने अपना बैग वहीं रख दिया और आरामदायक सोफ़े में धँस गया। उसे थोड़ी गर्मी लग रही थी। सो पीठ के बल होकर उसने दोनों पाँव फैला लिए। शर्ट की दो बटन खोल दी और पंखे की हवा खाने लगा। दालान में बाहर के मुक़ाबले नमी अधिक थी, इसलिए गर्मी का असर थोड़ा कम हो गया। आँखों को राहत देने के लिए उसने आँखें मूँद ली।

‘तनमय!’ एक अपनत्व भरा संबोधन। पतली और मीठी आवाज़ उसके कान के परदे से टकराई। उसने सहसा आँखें खोल दी और हड़बड़ाकर उठ बैठा। जिससे मिलने आया था, वही उसके सामने खड़ी थी – बिट्टन। हाथ में पानी का ग्लास लिए। उस देखकर तनमय को तेज़ झटका सा लगा। कितनी दुबली हो गई थी। मुख-मंडल एकदम कांतिहीन और पीला। बीमार सी लग रही थी।

उसने मन ही मन सोचा, ये वह बिट्टन तो नहीं जो उसके मन में बसी हुई है। उसकी बिट्टन तो तंदुरुस्त थी। फ़ुर्तीली थी। उसमें तो अल्हड़पन था। चंचलता थी। शोख़ी थी।

‘तुम…?’ उसके मुँह से निकला।

‘हाँ मैं। पहचाना?’ बिट्टन ने धीरे से पूछा, ‘कैसे हो तुम?’

‘मैं तो ठीक हूँ।’ तनमय बोल पड़ा, ‘लेकिन तुम मुझे बिल्कुल ठीक नहीं लग रही हो।’

वह हँस दी। फ़ीकी सी हँसी। जैसे जबरी हँसी हो।

‘तुम्हारे मन का भरम है।’ बिट्टन आगे बोली, ‘तुम्हें कहाँ कोई ठीक लगता है। तुम्हें तो हर आदमी बीमार ही लगता है। लो पानी पी लो। प्यास लगी होगी।’

‘हाँ, प्यास तो लगी है।’ उसने बिट्टन के हाथ से ग्लास का पानी ले लिया। और गटागट पीने लगा। जैसे एक ही साँस में पीना चाहता हो। उसे सच में बहुत ज़ोर की प्यास लगी थी।

सहसा उसने अपने पाँव में किसी का स्पर्श महसूस किया। उसकी नज़र उधर गई। बिट्टन उसकी पदधूलि ले रही थी।

‘ये क्या कर रही हो?’

‘तुम्हारी पदधूलि ले रही हूँ।’ बिट्टन उसकी ओर देखे बोली, ‘तुमसे छोटी हूँ। तुम्हारा चरण स्पर्श तो कर ही सकती हूँ। तुमसे आशीर्वाद तो ले ही सकती हूँ।’

‘क्या सचमुच छोटी होने के कारण तुम पदधूलि ले रही हो?’

बिट्टन इसके बाद कुछ नहीं बोली। चुपचाप खड़ी रही। अंगूठे से पक्के फ़र्श में गड्ढा बनाने का असफल प्रयास करती रही।

कितना कुछ बदल गया पंद्रह-बीस साल में। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। पहले की तरह कुछ भी नहीं रहा। लेकिन वह बिल्कुल नहीं बदली। उसने खाली ग्लास बिट्टन की ओर बढ़ा दिया।

‘क्या लोगे? चाय, कॉफी या शरबत? बिट्टन ने पहली बार उस पर भरपूर नज़र डाली।

‘सब कुछ भुला बैठी न?’ तनमय उसकी ओर हैरानी से देख रहा था।

‘अरे हाँ…’ बिट्टन बोली, ‘तुम्हें तो केवल दूध में अदरक, इलायची और हरी चाय पत्ती डालकर बनी चाय बहुत पसंद है।’ अचानक बिट्टन ख़ामोश हो गई। शायद उसे अपनी भूल और उसके बाद अपने ज़्यादा बोलने का भी अहसास हो गया था।

सचमुच उसमें पिछले पंद्रह-बीस साल में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया। तनमय सोचने लगा, आदमी कहाँ बदलता है। वह तो हमेशा बच्चा ही रहता है। चंचल और निःस्वार्थी बच्चा। उसका बदलाव बदलाव नहीं अभिनय होता है। और, बिट्टन भी बदलने का अभिनय कर रही थी।

तक़रीबन बीस साल पहले जब पहली बार वह बिट्टन से मिला था, तो वह बीए अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी और वह ख़ुद इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में था। उनमें ख़ूब शरारत होती थी। उन दोनों का रिश्ता ही कुछ ऐसा था कि उनकी शरारत का कोई भी बुरा नहीं मानता था।

बिट्टन ख़ाली ग्लास लिए बाहर चली गई। तनमय नज़र गड़ाए एकटक बाहर की ओर देखने लगा। उसका ध्यान अतीत की ओर खिंचता चला गया। उसकी स्मृतियाँ जीवंत हो उठीं। पंद्रह साल पहले की घटनाएँ उसके मानस पटल पर प्रतिबिंबित होने लगीं।

उस दिन जब उसकी नींद खुली तो दिन ढल चुका था। वह कभी दिन में नहीं सोता था, लेकिन ना मालूम कैसे उसे नींद आ गई। वह पूरे चार घंटे गहरी निद्रा में सोता रहा। जागने पर उसे अचरज हुआ कि वह कैसे सो गया। क्या सोच रहा था वह, जब नींद ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया था। हाँ, वह बिट्टन के बारे में ही सोच रहा था।

उसका बिट्टन से नया-नया परिचय हुआ था। रिश्ते में वह उसकी साली लगती थी। उसके बड़े भाई की चचेरी साली। उसे ख़ूब छेड़ती-छकाती थी। मज़ाक में उसके गालों में चिकोटी काट लेती थी। एक बार तो उसके भी हाथ चुटकी काटने के लिए बिट्टन के गालों तक पहुँच गए थे। फिर ख़ुद-ब-ख़ुद रुक गए। वह स्पर्श भर कर पाया था। चिकोटी नहीं काट सका था। उसके हाथ ही आगे नहीं बढ़े और तब तक बिट्टन भाग गई। बिट्टन से मज़ाक़ में भी अक्सर उसे ही झेंपना पड़ता था। उसने महसूस किया कि लड़कियाँ जितनी जल्दी बेतकल्लुफ़ हो जाती हैं, लड़के नहीं हो पाते। लड़के डरते हैं कि कहीं उनकी पहल का लड़की अन्यथा ना ले ले। इसलिए वे सब कुछ लड़की पर ही छोड़ देते हैं, जबकि लड़कियाँ शायद ऐसा नहीं सोचतीं।

नींद खुलने पर वह चारपाई से उठा और अँगड़ाई ली। हड्डियों के जोड़ों को चटकाया। नींद से जागने के बाद हाथ-मुँह धोने की उसकी आदत थी। वह पानी के लिए घर में चला गया। हैंडपंप आँगन में ही लगा था। आँगन में बात-बात पर कहकहे और ठहाके लग रहे थे। भाभी अपनी सहेलियों से घिरी थीं। वह गौने के पूरे दो साल बाद पीहर आई आई थीं, इसलिए आज चौथे दिन बाद भी उनकी सहेलियाँ उन्हें घेरे थीं। वह दो वर्ष के अपने मीठे अनुभवों और रोचक संस्मरणों व प्रसंगों को सविस्तार सुना रही थीं। उसी पर सहेलियाँ ठहाके लगा रही थीं।

आँगन में पहुँचते ही सभी युवतियाँ उसी को देखने लगीं। लड़कियों का इस तरह देखना उसे बड़ा अटपटा और अस्वाभाविक सा लगा। उन सबको अवॉयड करके वह हैंडपंप पर जा कर मुँह-हाथ धोया और बालों में कंघी करने के लिए दालान में चला आया। दर्पण के सामने खड़ा होकर कंघी करने लगा। सहसा, उसे बालों के बीच कुछ लाल-लाल सा दिखाई दिया। उसे थोड़ा संदेह हुआ। दर्पण में बालों को क़रीब से देखा। बालों में सिंदूर दिखाई दिया। किसी ने उसके बालों में सिंदूर डाल दिया था।

‘ये क्या मज़ाक़ है। ऐसा कोई करता है क्या?’ बाल में सिंदूर देखते ही वह बड़बड़ाने लगा।

उसे बहुत ही बुरा लगा। उसके क्रोध की कोई सीमा ना रही। क्रोध में उसने विवेक खो दिया। वह जान गया कि ये शरारत किसने की है। उसके अपरिपक्व मन ने इसका बदला लेने का फ़ैसला कर लिया। वह धीरे से घर में गया। अपने भाभी के कमरे में रखे श्रृंगारदान से सिंदूर की डिबिया लेकर अपनी जेब में रख ली और वापस दालान में चला आया।

दालान के पास वाला कमरा बिट्टन के स्टडी रूम था। वह खुला हुआ था। तनमय ने झाँक कर अंदर देखा। वहाँ बिट्टन थी। वह अपना रूप सँवार रही थी। वह रहस्यमय ढंग से मुस्कराया। दरवाज़े से सटकर खड़ा हो गया। बिट्टन के सजने-सँवरने में वह बाधा नहीं डालना चाहता था। बिट्टन ने अपनी नागिन जैसी जुल्फ़ों को तीन भाग में करके एक लंबी चोटी बनाई। इसके बाद चेहरे को सँवारा। अंत में दर्पण में अपना रूप देखकर मुस्कराई। कई कोणों से अपने रूप-सौंदर्य को परखा। उसे नहीं पता था, जिसके लिए वह सज-सँवर रही है, वह चितचोर पास ही खड़ा उसके सौंदर्य का रसपान कर रहा है। बिट्टन उठने वाली थी कि तनमय दबे पाँव अंदर चला आया। उसके दोनों हाथ पीछे थे। वह तेज़ी से दबे पाँव ही बिट्टन की ओर बढ़ा और चीते की सी फ़ुर्ती से एक चुटकी सिंदूर बिट्टन की माँग में डाल दिया। सहसा बिट्टन चौंक पड़ी। तनमय के बालों में सिंदूर देखकर हँस पड़ी। बड़ी दिलकश मुस्कान थी। प्यारी सी। हसरत भरी। बहुत अपनापन था उस मुस्कुराहट में।

‘अपने बालों को तो देखो, किसी ने सिंदूर डाल दिया है। एकदम लड़की लग रहे हो।’ बिट्टन चहक पड़ी, ‘किससे माँग भरवा लिया?’

उसकी माँग में सिंदूर डालते ही तनमय को होश आया कि वह क्या कर बैठा। उसने तो ब्लंडर कर दिया, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। उसे तो काठ सा मार गया। जड़वत हो गया अचानक। सहसा बिट्टन की नज़र उसकी उंगलियों पर पड़ी। सिंदूर देखकर वह लरज पड़ी। उसने फ़ौरन घूमकर ख़ुद को दर्पण में देखा। अपनी माँग में सिंदूर देखकर वह काँपने लगी।

‘नहीं, ये झूठ है।’ वह रोने लगी। उसने अपनी उंगलियों से अपनी माँग को टटोला। वहाँ सिंदूर ही था। उसके होंठ थरथराने लगे।

‘ये कैसा अनर्थ कर दिया तनमय?’ बड़े मासूम और करुण स्वर में बोली, ‘कैसा अनर्थ कर दिया। ये कैसा बदला लिया? ये क्या किया तुमने? ओह अम्मा, अब क्या होगा। मुझे तो बरबाद करके रख दिया।’

बिट्टन फूट-फूटकर रोने लगी।

तभी उसकी बुआ वहाँ पहुँच गईं। बिट्टन को रोते देखकर उन्हें लगा कि तनमय ने उसे कुछ अप्रिय बोल दिया।

‘क्या हुआ बेटा? रो क्यों रही हो?’ उन्होंने आते ही पूछा।

अचानक उनकी नज़र बिट्टन की माँग पर पड़ी।

‘बिट्टन, तेरी माँग में सिंदूर बेटा…? किसने डाली?’ अचानक उनकी नज़र तनमय की उंगलियों की ओर गई, ‘ये तुमने क्या कर दिया तनमय बेटा…?’

‘बुआ… इसने सोते समय मेरी माँग में सिंदूर डाल दिया था। तो मैंने भी ग़ुस्से में इसकी माँग में सिंदूर डाल दिया।’ तनमय ने सफ़ाई दी, मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। अब क्या करूँ?’

‘ऐसे कैसे ग़लती हो गई बेटा…’ बुआ ने कहा, ‘जानते हो तनमय बेटा, लड़कियों की माँग में सर्वप्रथम सिंदूर कौन भरता है? उसका पति। उसका जीवनसाथी। उसका दूल्हा। जो सेहरा बाँधे बारात लेकर आता है। लड़की की माँग में सिंदूर भर कर उसे अपनी अर्धांगिनी बनाता है और दुल्हन के रूप में उसे विदा करके अपने घर ले जाता है। क्या तुम ये सब कर सकोगे? नहीं कर सकोगे न… फिर, ये अनर्थ क्यों किया? हे भगवान, ये क्या हो गया? मेरी बेटी को किस गुनाह की सज़ा दे दी।’

थोड़ी देर ख़ामोशी के बाद बुआ फिर बोलीं।

‘जानते हो बेटा, इसने तुम्हारे बालों में सिंदूर क्यों डाला था… बस थोड़े से हास-परिहास के लिए। थोड़े से आनंद और थोड़ी मौज़-मस्ती के लिए इसने दिल्लगी की थी। तुम लड़के हो। तुम्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। लेकिन तुमने ये सब क्यों किया? कौन सा आनंद मिला तुम्हें? तुमने तो इसका जीवन ही नरक कर दिया। तुम भूल क्यूँ गए तनमय कि वह लड़की है। नारी। भारतीय नारी, जिसकी माँग में केवल एक ही पुरुष सिंदूर भरता है। इसीलिए भारतीय नारी को संसार में सम्मान की नज़र से देखा जाता है। और, वह सम्मान तुमने मेरी बेटी से छीन लिया। देखो, कैसे बिलख रही है वह। तुम इसका गला दबा देते, तो भी उसे इतनी पीड़ा न होती लेकिन तुमने तो उससे भारतीय नारी का सम्मान ही छीन लिया।’

बिट्टन बिलख रही थी। तनमय का मन ग्लानि से भर उठा। उसने भारी भूल कर दी थी। उसे भी बहुत पछतावा हो रहा था। पीड़ा हो रही थी। किंतु वह जो कुछ कर बैठा था, वह वापस भी तो नहीं हो सकता था। बुआ की बातों से उसे मालूम पड़ी, भारतीय नारी की महत्ता। भारतीय कन्याएँ अपनी हिफ़ाज़त क्यों करती है। अपनी माँग रिक्त क्यों रखती हैं। इन पर किसका हक़ बनता है।

बिट्टन का क्रंदन उसके सब्र की तमाम दीवारों को धराशायी कर गया। उसे बिट्टन के हाल पर रोना आ रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह फूट पड़ेगा। लेकिन ऊपर से वह बुत ही बना रहा।

‘मुझे माफ़ कर दो बिट्टन। मैं तुम्हारा अपराधी हूँ। चाहे जो सज़ा दो। तुमने मुझसे मज़ाक़ क्या किया, लेकिन ग़ुस्से में मैंने अपना विवेक ही खो दिया। मुझसे बड़ा अनर्थ हो गया। प्लीज़ रोओ मत। मुझसे अब और नहीं सहा जा रहा है। मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मुझे क्षमा कर दो।’ तनमय बड़े निरीह और कातर स्वर में बोला और बिट्टन का पाँव पकड़ लिया। लेकिन बिट्टन पीछे हट गई।

‘तुम्हें क्या माफ़ करूँगी…’ बिट्टन अब भी सिसक रही थी।

’तुमने उसकी माँग में सिंदूर भरा है। क़ायदे से अब तुम ही उसके धर्म पति हो।’ ये अप्रत्याशित निष्कर्ष बुआ का था।

‘धर्म पति…!’ तनमय सन्नाटे में आ गया। उसने कल्पना तक नहीं की थी कि बुआ या कोई भी ऐसा वाक्य बोलेगा।

हालाँकि उसे बिट्टन बहुत पसंद थी। वह उसे मन ही मन भी चाहता था। उनका रिश्ता भी ऐसा था कि दोनों की शादी में कोई बाधा भी नहीं थी। वैसे दोनों की शादी की चर्चा कई बार चल भी चुकी थी। लेकिन नरोत्तम लाल पता नहीं क्यों तनमय को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। उन्होंने इस रिश्ते की संभावना को ही सिरे से ख़ारिज़ कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि वह एक घर में दो-दो बेटियों की शादी के पक्षधर कतई नहीं थे।

‘रुको मैं नरोत्तम को बुलाकर लाती हूँ। उनको इस बारे में सूचित करना बहुत ज़रूरी है। वही भूल-सुधार करेंगे।’ बुआ बाहर चली गईं। बिट्टन अब भी सिसक रही थी और तनमय उससे चुप हो जाने का बार-बार आग्रह कर रहा था।

‘मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ बिट्टन। मुझसे ग़लती हुई है। इस ग़लती का केवल एक ही भूल-सुधार है कि मैं आज से तुम्हें धर्म पत्नी के रूप में स्वीकार कर लूँ। ये भूल-सुधार मैं ज़रूर करूँगा। हाँ बिट्टन, मेरे जीवन में अब तुम्हारे अलावा किसी और लड़की के लिए कोई स्थान नहीं होगा। मेरी इस नादानी के चलते अगर तुम मेरी धर्म पत्नी हो गई तो मैं भी तन-मन-धन से तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी स्वीकार कर लेता हूँ। एक बात और तुम भी जानती हो, यह भी संभव है, संभव क्या निश्चित है कि तुम्हारे पिता मुझे तुम्हारे पति के रूप में स्वीकार नहीं स्वीकार करेंगे। वह हमारी शादी के लिए तैयार नहीं होंगे। अगर उनकी ज़िद के कारण हम सात फेर ना ले सके तो मैं आजीवन शादी नहीं करूँगा। मैं वयस्क हो चुका हूँ और मुझ पर किसी और लड़की से शादी करने का दबाव कोई नहीं डाल सकता। मेरे घर वाले भी नहीं। आजीवन अकेला रहना मेरे लिए आज की ग़लती की सज़ा होगी। मैं ख़ुद को वह सज़ा ज़रूर दूँगा बिट्टन।’ तनमय झटके से कह गया।

थोड़ी देर में बिट्टन के पिता नरोत्तम लाल पहुँच गए। पीछे-पीछे बुआ भी आ गईं।

‘क्या हुआ बेटा, रो क्यों रही हो?’ नरोत्तम लाल ने बेटी से पूछा।

नरोत्तम लाल एकदम शांत थे। बुआ ने उन्हें पूरा वाक़या नहीं बताया था। केवल इतना ही बताया कि तनमय से हँसी मज़ाक़ करते-करते बिट्टन को कोई बात बुरी लग गई और वह रो रही है। दरअसल, बुआ भी चाहती थीं कि बिट्टन की शादी तनमय से हो जाए। यह उनके लिए स्वर्णिम मौक़ा था। सो वह, इस मंतव्य से नरोत्तम लाल के पास गई थीं कि अब वह तनमय को लेकर अपनी ज़िद छोड़ दें।

पिता को देखते ही बिट्टन के सब्र का बाँध टूट गया। वह उनसे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी। नरोत्तम लाल कुछ समझ ही नहीं पाए कि मामला क्या है। हमेशा चहकने वाली उनकी लाड़ली इतने भावुक होकर रो क्यों रही है? जब से तनमय आया था तभी से दोनों हँसी-मज़ाक़ ही कर रहे थे। दोनों में ऐसा क्या हो गया कि उनकी लाड़ली इस तरह से बिलख रही है और इतनी व्यथित है। सहसा उनकी नज़र बिट्टन के बाल सहलाते अपने हाथ पर पड़ी। वह बेतहाशा चौंक पड़े। उनके हाथ में सिंदूर लग गया था। उनकी नज़र बेटी की माँग पर गई। माँग में सिंदूर था। विद्युतीय रफ़्तार से उनकी नज़र तनमय की ओर गई। तनमय मुजरिम की तरह खड़ा था। एकदम कातर दिख रहा था। उसके दाहिने हाथ की उँगलियाँ लाल दिख रही थीं। उनमें सिंदूर के अवशेष थे।

नरोत्तम लाल को पूरा मामला समझते देर नहीं लगी। वह अपना आपा खो बैठे और एक करारा तमाचा तनमय के चेहरे पर दे मारा।

‘आ गया न अपनी औक़ात पर…’ उनके मुँह से यही शब्द निकले।

‘अरे, नरोत्तम क्या कर रहे हो?’ बुआ ने बीच-बचाव करने की कोशिश करते हुए कहा, ‘घर के दामाद पर हाथ उठा रहे हो।’

‘चुप रहो बहन!’ नरोत्तम लाल ने पहली बार अपनी बड़ी बहन को डाँटा, ‘तुम कुछ भी बोलती रहती हो। एक बार कह चुका हूँ कि बिट्टन की शादी इससे नहीं होगी तो तुम समझती क्यों नहीं… देख रही हो, यह दामाद बनने लायक है? यह तो क्रिमिनल है क्रिमिनल।’

उन्होंने एक और झापड़ मारा। तनमय इसके लिए तैयार नहीं था। वह लड़खड़ाकर गिर पड़ा। उसका सिर दरवाज़े से टकरा गया और आँख के ऊपर की त्वचा कट गई। झापड़ भी ज़ोरदार था, जिससे उसके होंठ कट गए। उसके मुँह और सिर से ख़ून निकलने लगा। उसका चेहरा ही लहूलुहान हो गया।

तनमय अभी बीमारी से उठा था। शरीर भी कमज़ोर था। लिहाज़ा, अपना होश खो बैठा और वहीं लुढ़क गया। तभी वहाँ उसकी भाभी पहुँच गई। देवर की यह हालत देखकर उसे शॉक सा लगा। वह आपे से बाहर हो गई। घर में उत्पात मचा दिया। इस प्रकरण से घर में कोहराम मच गया। उस संयुक्त परिवार के घर की दीवारों में पहली बार दरार पड़ती दिखी थी।

 

बहरहाल, तनमय को पास के डॉक्टर के पास ले जाया गया। ज़ख़्म ज़्यादा गहरा नहीं था। मरहम पट्टी कर डॉक्टर ने नींद की गोली दे दी, ताकि उसे दर्द महसूस ना हो। उसके बाद तनमय ऐसा सोया कि रात भर सोता रहा। अगली सुबह उसकी नींद खुली तो सिर फटता हुआ महसूस हुआ।

श्याम लाल ने इस मामले में एक शब्द बोलना उचित नहीं समझा। उन्हें भी लगा कि तनमय ने जो हरकत की, उस पर उनके छोटे भाई का उबलना स्वाभाविक था। उन्होंने तनमय को घर भेजने के लिए जीप बुक कर दी। तनमय की भाभी भी वापस ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। तनमय को सहारा देकर जीप में बिठाया गया। भाभी भी साथ बैठ गई। परिवार के सभी सदस्य विदा करने के लिए वहाँ खड़े थे। लेकिन वहाँ न तो बिट्टन वहाँ थी और न ही उसके पिता नरोत्तम लाल। सभी लोग अजीब सी ख़ामोशी ओढ़े थे। कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था। जैसे ही जीप चली उसकी भाभी फूट-फूट कर रोने लगी। पीहर से नाराज़ होकर अपनी ससुराल जा रही थी। अब न मालूम कब माइके आना होगा।

वह घटना दोनों परिवारों के रिश्ते में गाँठ सी बन गई। दोनों ओर से पूरे तीन साल तक कोई संपर्क या संवाद नहीं हुआ। मुकम्मल संवादहीनता ही रही। इस दौरान तनमय की भाभी न तो अपने मायके नहीं गईं और न ही उनके मायके से कोई उसे मिलने के लिए आया।

नरोत्तम लाल बड़े ज़िद्दी इंसान थे। बिट्टन उनकी इकलौती बेटी थी। वह उसकी शादी बड़े घर में करना चाहते थे, इसलिए अंत तक तनमय से उसके रिश्ते के लिए तैयार ही ना हुए। बुआ समेत परिजनों और रिश्तेदारों ने बहुत समझाया। पर वह नहीं माने। बिट्टन ने जैसे ही एमए पास किया उन्होंने उसकी शादी अन्यत्र कर दी। लड़का एक राष्ट्रीयकृत बैंक में अच्छी पोस्ट पर कार्यरत था।

इसी दौरान तनमय ने नौकरी करते हुए यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। आयकर विभाग में उसकी नौकरी लग गई और पहली पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर के उधमपुर जनपद में मिली।

बिट्टन की शादी तो हो गई। लेकिन धीरे-धीरे उसके पति की असलियत सामने आने लगी। पता चला कि उसका चाल-चलन बिल्कुल भी ठीक नहीं है। उसे नशाख़ोरी समेत कई बुरी आदतें हैं। लेकिन जब तक पता चलता, बहुत देर हो चुकी थी। वह शराब पीकर बिट्टन को घोर मानसिक यातनाएँ देने लगा था। बिट्टन बहुत स्वाभिमानी लड़की थी। उसके लिए ऐसे इंसान के साथ ज़िंदगी गुज़ारना असंभव सा लगा। वह मायके चली आई और नरोत्तम लाल को सारा वृतांत सुना दिया।

नरोत्तम लाल को अब अपने फ़ैसले पर पछतावा हो रहा था। वह चाहते थे कि उनकी बेटी उस शराबी के चंगुल से बाहर आ जाए। इसके लिए वह अदालत में तलाक़ के लिए मुक़दमा दायर करना चाहते थे। इसी सिलसिले में एक दिन वह अदालत जा रहे थे, लेकिन रास्ते में ही उनकी कार को एक अनियंत्रित ट्रक ने टक्कर मार दी। हादसे में घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गई। बिट्टन के ऊपर तो दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। बाल्यावस्था में माँ काल-कवलित हो गई थी। अब सिर से बाप का साया भी हट गया। वह एकदम अनाथ हो गई।

नरोत्तम लाल की मौत की ख़बर सुनकर तनमय सिंहपुर पहुँच गया। श्राद्ध की तैयारी के सिलसिले में वह दो हफ़्ते तक गाँव में ही रहा, लेकिन इस दौरान उसके और बिट्टन के बीच लगभग संवादहीनता ही रही। उनमें काम को लेकर यदा-कदा बातचीत हो जाती थी। वह अक्सर बिट्टन को या तो उदास या रोते हुए देखता था। वह सब कुछ देख सकता था, लेकिन बिट्टन को रोते हुए नहीं देख सकता था। लेकिन हालात ऐसे थे कि वह कुछ कर भी नहीं सकता था, क्योंकि बिट्टन कुछ बोलती ही नहीं थी। वह उसकी इस हालत के लिए अपनी उस नादानी को ज़िम्मेदार मानता था। कभी-कभी उसका मन होता था कि जाकर बिट्टन से कहे, मत रोओ, मैं हूं न। लेकिन बिट्टन की ख़ामोशी देखकर उसकी हिम्मत जवाब दे जाती थी।

बिट्टन थी कि कुछ बोलती ही नहीं थी। उसकी इस तरह चुप्पी तनमय को सालती थी। वह कभी नहीं चाहता था कि बिट्टन दया की पात्र बने। वह बहादुर लड़की थी, पर उसकी नादानी ने उस बेचारी को दया का पात्र बना दिया था। उसे खुद बिट्टन पर दया आ रही थी। वह उसे बहुत प्यार करने लगा था, लेकिन उसकी चुप्पी से उसकी ज़ुबान पर भी ताला लगा रहता था।

नरोत्तम लाल के श्राद्ध में ना तो बिट्टन का पति आया और ना ही उसके घर का कोई सदस्य। इससे बिट्टन और भी दुखी हो गई। दरअसल, पति के बुरी आदतों के बावजूद कहीं न कहीं उसे उम्मीद थी कि वह उन आदतों को छोड़ कर माफ़ी माँग लेगा और उनका वैवाहिक जीवन पुनः सामान्य हो जाएगा। ससुराल से किसी के ना आने से बिट्टन निराश हो गई। उस दिन दिन भर रोती रही। उसे रोता देखकर तनमय कोलैप्स्ड हो गया। उसका मन हुआ जाकर बिट्टन के आँसू पोंछ दे। लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका।

श्राद्ध के दूसरे दिन दालान में बैठा था कि बिट्टन अचानक उसके पास आ गई। उसे देखते ही तनमय खड़ा हो गया। वह शायद कुछ कहना चाहती थी। उसके पास आकर खड़ी हो गई। वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। चुपचाप थी। उसकी आँखें भर आई। दो बूँद मोती गालों पर लुढ़क आएई। उस समय तनमय अपने आपको रोक नही पाया और उसके आँसू पोंछ दिए। इसके बाद तो बिट्टन फूट पड़ी और तनमय के सीने पर सिर टिकाकर फूट-फूट कर रोने लगी।

तनमय ने उसका चेहरा हाथों में ले लिया और धीरे से कहा, ‘रोओ मत। सब ठीक हो जाएगा। मैं हूँ न।’ उसके बाद बड़ी देर तक दोनों साथ ही रहे। उसने उसे बीएड करने की सलाह दी। वह चाहता था बिट्टन आर्थिक रूप से भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।

नरोत्तम लाल के श्राद्ध के तीसरे दिन तनमय ने सिंहपुर से प्रस्थान किया। बिट्टन उसे छोड़ने के लिए दूर तक आई। विदा लेते समय उसकी पदधूलि ली। इस बार तनमय का मन भर आया। उसकी इच्छा हुई कि उसे बाँहों में भर ले, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई।

उसके बाद उसकी भाभी तीज-त्योहार और किसी फंक्शन में माइके जाने लगीं। दोनों परिवार के बीच संबंध सामान्य हो गए। तनमय भी आयकर विभाग की नौकरी में वह बहुत व्यस्त रहने लगा। घर भी साल में एकाध बार ही आ पाता था।

एक बार घर आने पर उसकी भाभी ने ही बताया कि बिट्टन अब अपने ससुराल नहीं जाती है। उसने बीएड पूरा कर लिया। अब पीएचडी कर रही है और नौकरी की भी तलाश में भी है। पीएचडी के बाद निश्चित रूप से किसी कॉलेज में लेक्चरर हो जाएगी। पति से अघोषित तलाक़ हो गया। घर वाले तलाक़ के लिए मुक़दमा करने वाले थे, लेकिन बिट्टन ने ही मना कर दिया। उसने तो चाचा को भी मना किया था लेकिन वह नहीं माने और अदालत जाते समय उनका ऐक्सीडेंट हुआ था जिसमें उनका निधन हो गया। इसलिए बिट्टन ने ही कोर्ट-कचहरी जाने से पापा को भी मना करती है।

फिर उसे ख़बर मिली कि बिट्टन के पति ने तलाक़नामे का पत्र भेजा था। जिस पर बिट्टन ने हस्ताक्षर कर दिया। वह वहाँ जाना ही नहीं चाहती थी। उस आदमी के साथ रहना ही नहीं चाहती थी तो तलाक़ का विरोध करने का कोई मतलब नहीं था। तलाक के बाद उसके पति ने दूसरी शादी कर ली। इस बीच बिट्टन को अपने शहर में स्थित केंद्रीय सरकारी कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई।

घर वालों के लाख कहने पर भी तनमय ने शादी नहीं की। उसके सामने अनगिनत रिश्ते आए, लेकिन वह सबको रिजेक्ट करता रहा। उसे शादी शब्द से ही वितृष्णा हो गई थी।

अचानक दीपक के दालान में आने से अतीत से उसका तारतम्य टूट गया। वह वर्तमान में आ गया। उसे लग रहा था कि सब कल की ही तो बात है। वह पूरी गति से चल रहे सीलिंग फैन को देखने लगा।

कुछ देर बाद बिट्टन दो कप चाय और प्लेट में बिस्किट लेकर आई। एक कप तनमय को दिया, दूसरा दीपक की ओर बढ़ा दिया। दीपक चाय की चुस्की लेता हुआ बाहर चला गया।

‘और तुम्हारी चाय?’ तनमय बिट्टन की ओर देखा।

‘अब मैं चाय नहीं पाती।’ वह अंगूठे से फ़र्श को खुरचने का प्रयास कर रही थी।

‘याद करो बिट्टन, अदरक और इलायची की चाय हम साथ-साथ पीते थे।’ तनमय ने उसे देखते हुए कहा।

बिट्टन उसे देखने लगी। तनमय को लगा कि वह उसकी आँखों में झाँक रही है और कह रही है कि उस दौर के बातें तुम्हें अब तक याद हैं। कुछ देर बात तनमय वही वाक्य बिट्टन से सुन रहा था।

‘तुम्हें अब तक याद हैं। हमारे साथ चाय पीने की बातें?’

‘तुम भी कहाँ भूल पाई हो कोई बात। हाँ, अब भूलने का अभिनय करो तो दूसरी बात।’

बिट्टन कुछ नहीं बोली। चुपचाप बैठी रही। उनके दरम्यान गहरी ख़ामोशी पसरी रही।

‘तुम भी अपने लिए चाय लेकर आओ प्लीज़। मैं अकेले नहीं पी सकूँगा।’ तनमय ने चाय रख दी।

‘अकेले चाय नहीं पी सकोगे तो चाय पर कंपनी देने वाली का इंतज़ाम कर लो। मतलब शादी कर लो।’ बिट्टन उसे देखते हुए बोली, ‘इससे अकेलेपन से भी निजात मिल जाएगी और चाय और भोजन में कंपनी देने वाली भी मिल जाएगी।’

‘कोई कंपनी नहीं चाहिए यार…’ तनमय ने बिट्टन की आँखों में आँख डालकर कहा, ‘जीवन जीने के लिए क्या शादी बहुत ज़रूरी है बिट्टन?’

‘हाँ… शादी जीवन का इंटीग्रल पार्ट है।’ बिट्टन बोली, ‘शादी की औपचारिकता तो निभानी ही पड़ती है न।’

‘तब तो वह औपचारिकता तो मैं बरसों पहले निभा चुका हूँ। शादी तो मैं कर चुका हूँ। इसी दालान के बग़ल वाले कमरे में। सिंदूरदान भी हो गया था। बस मेरे दुल्हन की विदायी न हो सकी। मैं तो चाहता था कि मेरी दुल्हन की डोली यहीं से निकले, मगर शायद क़ुदरत को मंज़ूर नहीं था। अब मैं क्या करूँ, अगर मेरी हैसियत आड़े आ गई थी तो।’ तनमय के चेहरे की पीड़ा पढ़ी जा सकती थी।

इस बार बिट्टन चुप ही रही। बस बीच-बीच में उसे देख रही थी।

‘बस मज़ाक़ कर रहा था। डोन्ट माइड टीचर।’ तनमय गंभीरता को चीरने का प्रयास किया, ‘जाओ, एक खाली कप ही लेकर आओ। इसी में आधा-आधा पी लेंगे।’

इस बार बिट्टन ने आँखों से ओके कहा और कप लाने घर में चली गई।

तनमय फिर अतीत की ओर खिंचने लगा।

बिट्टन की शादी हो जाने के तुरंत बाद ही बहन के साथ उसके ससुराल आई थी। वह तनमय से मिलना चाहती थी, जो उसकी शादी में नहीं गया था।

‘शादी कर लो तनमय।’ उसी समय उसने तनमय से कहा था।

‘क्यों…?’ तनमय उसकी बात सुनकर चौक पड़ा, ‘ये सलाह क्यों दे रही हो?’

‘सलाह नहीं दे रही हूँ। बस शादी कर लो।’ बिट्टन ने फिर कहा, ‘अकेलेपन से निजात मिल जाएगी।’

‘मैं अकेलेपन से निजात पाना ही नहीं चाहता बिट्टन। तनमय ने कहा था, ‘किसी को अकेलापन सालता है तो किसी को सुकून देता है। अकेलापन किसी के लिए अभिशाप भले हो लेकिन मेरे लिए ईश्वर का दिया अनुपम वरदान है। अकेलेपन में मेरा अतीत मेरे साथ होता है। मेरा ख़ूबसूरत अतीत। तो शादी करके मैं अपने आपको अपने ख़ूबसूरत अतीत से वंचित कर दूँ?’

‘तुमने शादी न करने का निर्णय ले लिया। लेकिन तुम्हें नहीं पता एक लड़की ये भी नहीं कर सकती। वह स्वेच्छा से कोई निर्णय नहीं ले सकती।’ बिट्टन सिसक पड़ी, ‘जब पिता जी मेरी शादी तय कर रहे थे तब मैं परंपराओं और रिश्तों की मजबूरी में क़ैद थी। उसी समय मुझे महसूस हुआ कि एक स्त्री कितनी कमज़ोर और लाचार होती है। मेरी शादी कर दी गई। मुझसे पूछा तक नहीं गया कि मुझे क्या पसंद क्या नापसंद है।’

‘रोओ मत, मैं तुम्हें कभी डूबने नहीं दूँगा। मुझे पता है, तुम्हारी शादी हो गई है। मैं तुम्हारा नहीं हो सकता, लेकिन मैं अकेले रहूँगा ताकि जब भी तुम्हें मेरी ज़रूरत पड़े, तब मेरे पैरों में कोई बंधन न हो…’

तभी बिट्टन अपने लिए एक कप में चाय लेकर आ गई और सामने वाली चेयर पर बैठ गई।

‘कब तक रहोगे?’

‘आज ही जा रहा हूँ। दो घंटे बाद ट्रेन लेनी है। चार-पाँच घंटे का टाइम था, सो चला आया। सोचा तुमसे मिल लूँ। तुम आओ न कश्मीर घूमने।’ तनमय बाहर देखने लगा।

बिट्टन कुछ नहीं बोली।

‘चलूँ अब। एक घंटा तो स्टेशन पहुँचने में ही लगेगा।’

बिट्टन ने उसकी ओर देखा। बोली कुछ नहीं। नज़रें झुका ली। वह कुछ कहना चाहती थी पर कह नहीं पायी।

चलते समय तनमय परिवार के सभी सदस्यों से मिला। सबका चरण स्पर्श किया। दीपक ने उसका चरण स्पर्श किया। आख़िर में बिट्टन भी उसके पास आई और उसने भी चरण स्पर्श किया।

‘ये क्या कर रही हो?’

‘तुम्हारी पदधूलि ले रही हूँ।’ बिट्टन की आवाज़ हलक में फँसी हुई थी। वह स्पष्ट बोल नहीं पाई। काफी कोशिश के बाद उसने पूछा, ‘अब कब आओगे?’

‘जब तुम बुला लो।’ तनमय परिहास में कह गया। फिर बोला, ‘देखो, जब फ़ुर्सत मिलेगी तो कोशिश करूँगा…’

और वह चल पड़ा। कुछ दूर जाकर पीछे मुड़कर देखा। सब लोग उसी को निहार रहे थे। द्वार पर बँधे गाय-गोरू भी चारा खाना छोड़कर उसी को देख रहे थे। उसका मन भर आया। बिट्टन भी उसे एक गाय की तरह लगी। उसका मन भारी था। शायद यही उसकी नियति थी।

वह चला जा रहा था, लेकिन उसे लग रहा था उसका कुछ ज़रूर सिंहपुर में छूट गया है। शायद उसके शरीर का ही अंश।

हरिगोविंद विश्वकर्मा

साभार – मेरी सहेली

अंग्रेजों के आगमन के समय तक देश का नाम न तो भारत था और न ही इंडिया

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जबसे जी-20 के शिखर सम्मेलन के लिए ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ शब्दावली का प्रयोग किया है, तब से पूरे देश में भारत बनाम इंडिया की बहस शुरू हो गई है। हर कोई अपना-अपना तर्क प्रस्तुत कर रहा है। बेशक इस तरह की बहस का कोई मतलब ही नहीं है। लिहाज़ा, इस बहस को कुतर्क कहना ज़्यादा मुनासिब होगा, क्योंकि यह बहस प्रोडक्टिव बिल्कुल नहीं है। फिर भी लोग अपनी-अपनी दलील दे ही रहे हैं। ऐसे में यह जानना समय की मांग है कि हिंद महासागर और हिमालय के बीच के इस भूखंड के भारत अथवा इंडिया के नामकरण का इतिहास क्या है और भारत अथवा इंडिया शब्दों की उत्पत्ति कैसे हुई।

तो आइए जानने की कोशिश करते हैं कि इतिहास में भारत और इंडिया का स्थान कहां है। इसमें दो राय नहीं कि भारत की भूमि दुनिया की सबसे प्राचीन संस्कृतियों एवं सभ्यताओं वाली भूमि मानी जाती है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार हजारों वर्ष पहले इस भू-भाग को जंबूद्वीप कहा जाता था। जंबूद्वीप के अलावा यह देश भारतखंड, हिमवर्ष, अजनाभवर्ष, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिंद और हिंदुस्तान जैसे नामों से भी जाना जाता था। इन नामों में भारत और इंडिया दोनों नहीं थे। कहने का मतलब अंग्रेज़ों के आगमन के समय इस देश का नाम न तो भारत था और न ही इंडिया।

कई आध्यात्मिक ग्रंथों में बार-बार भारत नाम का ज़िक्र किया गया है। ऋग्वेद की एक शाखा ऐतरेय ब्राह्मण के मुताबिक भारत का नामकरण कण्व की मुंहबोली पुत्री शकुंतला और हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर हुआ। उनके कार्यकाल में देश की सीमा हिंदूकुश पर्वत से कन्या कुमारी और कच्छ से कामरूप तक फैली थी और उस भूभाग को अखंड भारत यानी भारतवर्ष कहा जाता था। कहते हैं इस देश का नाम चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर भारत रखा गया। मत्स्य पुराण में मनु को भरत कहा गया। जिस क्षेत्र पर उनका राज था उसे भारतवर्ष कहा गया।

इसी तरह विष्णु पुराण के एक श्लोक के मुताबिक समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का भूभाग भारतवर्ष है। व्यास रचित महाभारत महाकाव्य का तो नाम ही भारत के ऊपर रखा गया है। जैन धर्म के धर्म ग्रंथों में भी देश का नाम भारत होने का जिक्र मिलता है। भगवान ऋषभदेव के बड़े बेटे महायोगी भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इस प्रसंग का जिक्र स्कंद पुराण में भी मिलता है। हालांकि इतिहास के अध्येताओं का मानना है कि भरतजन इस देश में दुष्यन्त पुत्र भरत से भी पहले से थे। इसलिए यह तार्किक है कि भारत का नाम किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर न होकर जाति-समूह के नाम पर प्रचलित हुआ।

जहां तक इंडिया की बात है तो कुछ इतिहासकार कहते हैं कि इंडिया शब्द ग्रीक शब्द इंडिका से आया है। जबकि कई लोग मानते हैं कि सिंधु यानी इंडस से इंडिया आया है। ग्रीक यानी यूनान के लोग इंडो या इंडस घाटी की सभ्यता कहा करते थे, ऐसे में इंडस शब्द लैटिन भाषा में पहुंचा तो यह इंडिया हो गया। लेकिन ये दोनों तर्क गले नहीं उतरते हैं क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता का पता ही वर्ष 1920 की खुदाई के बाद पता चला। जबकि इंडिया शब्द उससे पहले से प्रचलन में था।

दरअसल, 14वीं और 15वीं सदी में यूरोपीय व्यापारियों का रूझान पश्चिम की ओर था। क्रिस्टोफर कोलंबस के अमेरिका की खोज के बाद यूरोपीय व्यापारी कारोबार के लिए पश्चिम का रुख करने लगे। वे ‘पश्चिम’ की ओर अमेरिका के आसपास के द्वीप समूहों यानी इंडीज़ को पश्चिमी द्वीप समूह यानी ‘वेस्टइंडीज़’ कहते थे। उनके साथ ही व्यापार करने के लिए उधर ही जाते थे। इस बीच सन 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को डिगामा के भारत की खोज करने और कालीकट बंदरगाह पर क़दम रखने के बाद यूरोपीय व्यापारियों की नज़र पहली बार पूरब की ओर गई।

अब यूरोपीयन व्यापारी पूरब के द्वीपों के बारे में भी जानना चाहते थे और उनके साथ व्यापार करना चाहते थे। चूंकि प्राचीन काल में यूनान का भारत के साथ अच्छे व्यापारिक संबंध थे। लिहाज़ा, यूरोपीय व्यापारियों ने पूरब की ओर स्थित एशियाई द्वीप समूहों के साथ भी कारोबार का मन बनाया। वे लोग भारतीय उपमहाद्वीप को पूर्वी द्वीप समूह यानी ‘ईस्टइंडीज़’ कहने लगे। इसके बाद आने वाले सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारियों ने भारत और दूसरे एशियाई देशों में पांव जमा लिए।

15वीं सदी में अंग्रेज़ व्यापारियों ने भी ‘ईस्टइंडीज़’ यानी पूरब के द्वीपों की ओर जाने का मन बनाया। ब्रिटिश महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम भी चाहती थीं कि ब्रिटिश व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में भी कारोबार के लिए जाएं। लिहाज़ा, महारानी की अनुमति से पूरब में स्थित द्वीप समूहों यानी ईस्टइंडीज़ में कारोबार के लिए 31 दिसंबर सन् 1600 के आख़िरी दिन यानी 31 दिसंबर 1600 को ईस्ट इंडीज शब्द से प्रेरित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई गई। ईस्ट इंडिया कंपनी सत्रहवीं सदी के आरंभ में भारत पहुंच गई।

सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। लिहाज़ा, ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम ‘ब्रिटिश इंडिया’ हो गया। शासन सीधे ब्रिटिश संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स से होने लगा। आज़ादी मिलने के बाद ‘ब्रिटिश इंडिया’ से ब्रिटिश हट गया और देश का नाम ‘इंडिया’ हो गया। तब से इस देश का नाम इंडिया ही रहा और आज भी दुनिया हमारे देश को इंडिया के नाम से ही जानती है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भी भारत का नहीं बल्कि इंडिया शब्द का प्रयोग होता है।

वैसे 18 सितंबर 1949 को संविधान सभा में देश के नाम पर लंबी चर्चा हुई थी। अंबेडकर के नेतृत्व वाली ड्राफ्ट कमेटी ने सुझाव दिया था- इंडिया, दैट इज़ भारत। इस पर काफी बहस हुई। कुछ सदस्य भारत को ‘भारत’ नाम रखने के प्रस्ताव पर अड़े थे तो वहीं कुछ कुछ सदस्य ‘भारतवर्ष’ नाम रखने के लिए प्रस्ताव रख रहे थे जबकि कुछ सदस्य ‘हिंदुस्तान’ नाम रखने पर विचार कर रहे थे। आख़िरकार सारे संशोधन ख़ारिज़ करते हुए संविधान सभा ने इंडिया, दैट इज़ भारत पर अपनी मुहर लगाई और यही नाम स्वीकार किया गया। भारतीय संविधान के हिंदी अनुवाद में लिखा गया है- भारत, अर्थात इंडिया, राज्यों का संघ होगा।

यह भी कहा जाने लगा है कि भारत बनाम इंडिया के विवाद का परिणाम 2016 की नोटबंदी से भी भयावह हो सकता है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा की तो पांच सौ और हज़ार के नोट अचानक बेकार हो गए। देश कैश के संकट में पड़ गया। बैंकों में लंबी कतार लग गई। लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर सारी नोट और सारे सिक्के उपयोग से बाहर हो गए तो क्या होगा। तो इस तरह की परिस्थिति के लिए देश के लोगों को तैयार रहना होगा, क्योंकि जिस दिन केंद्र सरकार ने इंडिया की जगह भारत के उपयोग को सुनिश्चित किया, उसी दिन पांच सौ, सौ, पचास, बीस, दस और पांच की नोटें और सारे सिक्के बेकार हो सकते हैं।

दरअसल, 2016 के नोटबंदी के समय चलन में 17.74 लाख करोड़ रुपए की मुद्रा थी, उसमें 500 और 1000 के नोट के साथ साथ दूसरे नोट और सिक्के शामिल थे। उस समय 15.41 लाख करोड़ की मुद्रा अचानक बेकार हो गई थी, लेकिन अगर इंडिया की जगह भारत ने ली तो 32.42 लाख करोड़ रुपए के नोट और सिक्के चलन से बाहर हो सकते हैं, क्योंकि सभी पर इंडिया अंकित है। इससे कोई सहज अनुमान लगा सकता है कि सत्तापक्ष और विपक्ष के इस संघर्ष के चलते कितनी बड़ी समस्या का सामना भारतीय नागरिकों को करना पड़ सकता है। मतलब हालात वर्ष 2016 की नोटबंदी से भी बदतर हो सकते हैं।

कई जानकार यह भी कहते हैं कि भारत बनाम इंडिया का मुद्दा खड़ा करने का यह उचित समय था या नहीं, यह भी बहस का मुद्दा हो सकता है लेकिन भारतीय जनता पार्टी नीत केंद्र सरकार जिस तरह से भारत बनाम इंडिया का मुद्दा खड़ा करने की कोशिश कर रही है, उससे साफ़ लग रहा है कि कहीं न कहीं भाजपा के लोग ‘इंडिया’ शब्द से ख़तरा महसूस कर रहे हैं। अगर केंद्र सरकार इंडिया शब्द हटाने में सफल रही तो इसके बाद ढेर सारी परेशानी खड़ी होने वाली हैं। बहरहाल, केंद्र सरकार भारत बनाम इंडिया को लेकर कितनी सफल होगी, यह संसद के विशेष अधिवेशन में ही साफ़ हो सकेगा।

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शरद जोशी के नाटक ‘अंधों का हाथी’ का बेहतरीन मंचन

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मैं मरा नहीं हूं। मैं कैसे मरूंगा। मैं तो सूत्रधार हूं। मैं इसी तरह हाथी का प्रसंग खड़ा करूंगा। हाथी को बार-बार स्टेज पर लाऊंगा और अनंत बार जन्म लेता रहूंगा, क्योंकि मैं सूत्रधार हूं…

संवाददाता
मुंबई, मैं मरा नहीं हूं। मैं कैसे मरूंगा। मैं तो सूत्रधार हूं। मैं इसी तरह हाथी का प्रसंग खड़ा करूंगा। हाथी को बार-बार स्टेज पर लाऊंगा और अनंत बार जन्म लेता रहूंगा, क्योंकि मैं सूत्रधार हूं। यह संवाद व्यंग्य विधा के शिखर पुरुष शरद जोशी के नाटक ‘अंधों का हाथी’ के सूत्रधार का है, जो देश में सरकारी तंत्र के निकम्मेपन और राजनीति एवं राजनेताओं की असंवेदनशीलता पर आधारित इस व्यंग्य नाटक में मुख्य किरदार निभाता है।

चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई के साप्ताहिक आयोजन में रविवार की शाम शरद जोशी स्मृति दिवस के अवसर पर उनके नाटक ‘अंधों का हाथी’ का शानदार मंचन किया गया। इस नाट्य प्रस्तुति को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। इस नाटक में व्यंग्य की ऐसी धार है जो श्रोताओं को कभी विचलित करती है तो कभी वे सरकारी तंत्र के निकम्मेपन और राजनीति की असंवेदनशीलता पर तालियां भी बजाते हैं तथा इसके संवादों पर हंसते भी हैं।

इस नाटक का मुख्य पात्र सूत्रधार समस्या के रूप में हाथी को सामने लाता है ताकि पांच अंधे समस्या को समझें और उससे लोगों को मुक्ति दिलाएं। मगर ये अंधे अपने अंधत्व में पहले तो निकम्मे, आलसी, भ्रष्ट सरकारी तंत्र में और बाद में षड्यंत्रकारी राजनेता में तब्दील हो जाते हैं। ये अंधे दरअसल, कभी जनता तो कभी सरकारी मुलाजिमों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

सूत्रधार राष्ट्र का एक सजग नागरिक है। इसलिए अंधे समस्या को सुलझाने के बजाय उसकी हत्या कर देते हैं और उसे श्रद्धांजलि देते हैं। नाटक के अंत में सूत्रधार कहता है- “मैं मरा नहीं हूं। मैं कैसे मरूंगा। मैं तो सूत्रधार हूं। मैं इसी तरह हाथी का प्रसंग खड़ा करूंगा। हाथी को बार-बार स्टेज पर लाऊंगा और अनंत बार जन्म लेता रहूंगा, क्योंकि मैं सूत्रधार हूं।”

रंगकर्मी प्रज्ञा गान्ला के निर्देशन में ‘अंधों का हाथी’ की प्रस्तुति बहुत असरदार रही। सभी कलाकारों ने सशक्त अभिनय किया। उनका आपसी तालमेल भी सराहनीय था। चुटीले संवादों पर दर्शकों ने कई बार तालियां बजाईं। कुल मिलाकर शरद जोशी की स्मृति में रचनात्मकता की यह एक यादगार शाम थी। कार्यक्रम की शुरुआत में डॉ मधुबाला ने आयोजन की प्रस्तावना पेश की।

दिल्ली से पधारे व्यंग्य यात्रा के संपादक प्रेम जनमेजय ने बड़ी आत्मीयता से शरद जोशी के व्यक्तित्व और कृतित्व को याद किया। शरद जोशी के व्यंग्य की विशेषताओं को उजागर करने के साथ ही प्रेम जी ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि कैसे शरद जोशी रिश्तों नातो को अहमियत देते थे। प्रेम जी ने शरद जोशी की रचनात्मकता पर केंद्रित किताब ‘व्यंग्य के नावक : शरद जोशी’ का परिचय भी श्रोताओं को दिया।

इसी तरह व्यंग्यकार सुभाष काबरा का व्यंग्य लेख “आप जाने के बाद ज़्यादा काम आ रहे हो शरद जी” काफ़ी दिलचस्प था। कार्यक्रम के संचालक देवमणि पांडेय ने शरद जोशी से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग साझा किए। उन्होंने बताया कि मुम्बई के परिवार काव्य उत्सव में शरद जोशी हर साल आते थे और हर बार दो नई व्यंग्य रचनाएं सुनते थे। कार्यक्रम में पर्यावरण प्रेमी अफ़ज़ल खत्री और नुसरत खत्री के साथ रचनाकार जगत से कई रचनाकार पत्रकार मौजूद थे।

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