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क्या कम उम्र और ख़ूबसूरत दिखने का सामाजिक दबाव होता है स्त्रियों पर?

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सुंदर दिखने की इच्छा इंसान में आदिम युग से ही मौजूद रही है। प्रारंभिक मानव समाजों में साथी चुनने के लिए आकर्षक, स्वस्थ और प्रजनन-सक्षम शरीर को प्राथमिकता दी जाती थी। इसलिए सुंदरता को जीवन और वंश की निरंतरता से जोड़ा गया। यह प्रवृत्ति जैविक थी, लेकिन जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित हुईं, सुंदरता का विचार सांस्कृतिक और सामाजिक दबाव में बदल गई, जहां सुंदरता को सम्मान, स्वीकृति और सफलता से जोड़ दिया गया। कालांतर में समाज ने सुंदरता के अपने मानक मसलन गोरा रंग, पतली काया, लंबे बाल आदि तय कर दिए।

इन मानकों ने स्त्रियों पर विशेष रूप से दबाव डाला और सुंदरता को उनकी “मूल्यवत्ता” का आधार बना दिया। आधुनिक दौर में मीडिया और बाज़ारवाद ने इस चाह को और गहरा कर दिया, जिससे सुंदरता अब आत्म-संतोष की नहीं, बल्कि सामाजिक मान्यता पाने की ज़रूरत बन गई है। विज्ञापन, फिल्में और सोशल मीडिया ने तो सुंदरता को व्यापारिक वस्तु बना दिया। अब सुंदर दिखने की इच्छा अक्सर आत्म-संतोष नहीं, बल्कि सामाजिक स्वीकृति, सराहना और सफलता पाने की मजबूरी बन चुकी है। यह चाह अब स्वतंत्र नहीं, बल्कि थोपी हुई है।

दूसरे शब्दों में कहें तो हर इंसान किसी न किसी को इम्प्रेस करना चाहता है। इसलिए आकर्षक और कम उम्र का दिखना चाहता है। लेकिन ख़ूबसूरत, आकर्षक और कम उम्र का दिखने की भी एक सीमा होती है। क्योंकि मानव के पास महज़ 60 या 70 साल या फिर 80 साल का ही जीवन है। जो ज़्यादा फिज़िकली स्वस्थ हैं तो संभव है वह 90 साल तक जी लें। लेकिन व्यवहारिक रूप से अस्सी के बाद के जीवन को जीवन नहीं बल्कि घसीटना कहा जाता है। इस जीवन से दूसरों को असुविधा होती हैं। कुछ लोग इस असुविधा का ज़ाहिर कर देते हैं और कुछ लोग परंपरावश ज़ाहिर नहीं कर पाते है।

इसलिए आप मान लीजिए कि आपको जो कुछ भी करना है उसे इतने साल में कर लीजिए, क्योंकि इसके बाद सांसारिक चीज़ें तो दूर आपका अपना शरीर ही आपका साथ नहीं देने वाला है। यही सच है और यह फ़लसफ़ा हर इंसान को समझ लेना चाहिए। जैसे बचपना के बाद तरुणाती आती है वैसे ही तरुणाई के बाद बुढ़ापा आता है। इसलिए किसी के अंदर सुंदर या कम उम्र का दिखने की सनक नहीं होनी चाहिए। यह सनक अप्राकृतिक है। हर अप्राकृतिक कार्य का लाभ बहुत कम लेकिन नुक़सान बहुत ज़्यादा होता है। अप्राकृतिक कार्य करने वाले का कभी-कभी इतना नुक़सान हो जाता है कि उसकी जान ही चली जाती है।

Shefali-Zariwala-300x300 क्या कम उम्र और ख़ूबसूरत दिखने का सामाजिक दबाव होता है स्त्रियों पर?

‘कांटा लगा’ अभिनेत्री शेफ़ाली ज़रीवाला इसी सनक के चक्कर में जान गंवा बैठीं। अगर कम उम्र की दिखने का उफक्रम न करती तो शायद 70-80 साल जी लेतीं लेकिन कम उम्र की दिखने के लिए अपनाए गए अप्राकृतिक तरीक़ों के कारण दुर्भाग्यवश वह 42 की उम्र में ही इस दुनिया से चल बसीं। उनकी मौत के बाद इस तरह की चर्चा सोशल मीडिया पर ख़ासा चर्चित है, क्योंकि वह एंटी-एजिंग मेडिसीन लेती थीं। प्रारंभिक रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टरों का कहना है कि एंटी-एजिंग मेडिसीन के रिएक्शन से ही उन्हें दिल का दौरा पड़ा। हालांकि इस बारे में विस्तृत रिपोर्ट की प्रतीक्षा की जा रही है।

शेफ़ाली का ग्लैमर, उनकी स्टाइल और आत्मविश्वास ने उन्हें एक पॉप कल्चर आइकन बना दिया। लेकिन वक्त के साथ जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, लोग उन्हें उनके टैलेंट से ज़्यादा उनकी स्किन, उनकी बॉडी और उनके लुक्स से आंकने लगे।
कई इंटरव्यूज़ में शेफाली ने खुद कबूल किया है कि उन्होंने “फेशियल ट्रीटमेंट्स”, “स्किन प्रोसिजर्स” जैसी चीज़ों का सहारा लिया ताकि वे ‘उम्र का असर’ अपने चेहरे पर दिखने न दें। हालांकि वह यह भी कहती हैं कि ये निर्णय उन्होंने अपने लिए लिए, लेकिन क्या यह सच में उनका अपना निर्णय था, या उस अदृश्य सामाजिक दबाव का असर जिससे आज हर उम्रदराज़ महिला जूझ रही है?

सवाल यह है कि क्या आज के बाज़ारवादी दौर में स्त्रियों पर कम उम्र और सुंदर दिखने का वाक़ई सामाजिक दबाव होता है? इन दिनों यह सवाल तेजी से उभर रहा है कि क्या स्त्रियां इसलिए सुंदर दिखना चाहती हैं, क्या स्त्री मान चुकी है कि वह वस्तु हैं, और सुंदर वस्तुओं के ग्राहक अधिक होते हैं? यह प्रश्न केवल सौंदर्य की चाह तक सीमित नहीं है, बल्कि स्त्री की सामाजिक स्थिति, आत्म-अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता और सांस्कृतिक दबावों की गहरी परतों को भी उजागर करता है।

सौंदर्य की अवधारणा में स्त्री की भूमिका
ऐतिहासिक रूप से स्त्रियों को “सज्जा की वस्तु” के रूप में देखा गया है। चाहे वह शाही दरबार हों या आधुनिक फ़िल्मी पर्दा, स्त्री का सौंदर्य ही उसका मूल्य तय करता रहा है। “सुंदर कन्या” होना विवाह के बाज़ार में स्त्री की “बिक्री” की गारंटी समझा जाता है। यह सौंदर्य केवल चेहरे या शरीर तक सीमित नहीं, बल्कि व्यवहार, पहनावे, चाल और आवाज़ तक विस्तारित हो चुका है। जब समाज किसी स्त्री को उसकी क्षमताओं, विचारों या संवेदनशीलता से पहले उसके रूप से आंकने लगता है, तो यह स्वाभाविक हो जाता है कि वह स्वयं को एक वस्तु की तरह सजाने-संवारने लगती है।

मीडिया और सौंदर्य का बाज़ारवाद
विज्ञापन, फ़िल्में, सोशल मीडिया और सौंदर्य उद्योग ने मिलकर स्त्री को एक ‘ब्रांडेड पैकेज’ बना दिया है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि “अगर आप सुंदर दिखेंगी, तो आप सफल होंगी, चाही जाएंगी, सराही जाएंगी।” इस सोच ने सौंदर्य को एक उत्पाद बना दिया है और स्त्री को उसका उपभोक्ता भी और प्रदर्शनकर्ता भी। फ़ेयरनेस क्रीम से लेकर स्लिमिंग सेंटर तक और हाई-हील्स से लेकर मेकअप ट्यूटोरियल तक—हर जगह यही सन्देश है: “तुम जैसी हो, वो पर्याप्त नहीं है। तुम्हें और सुंदर बनना होगा।”

क्या यह सौंदर्य की स्वतंत्र चाह है?
यह तर्क अक्सर दिया जाता है कि हर स्त्री को सुंदर दिखने का अधिकार है। बिल्कुल है। लेकिन जब यह “अधिकार” दरअसल सांस्कृतिक अनिवार्यता बन जाए, तब यह स्वतंत्रता नहीं, बल्कि परोक्ष गुलामी बन जाती है। क्या स्त्रियां सचमुच इस दबाव के बगैर भी सजना चाहती हैं? या वे इसलिए सजती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से यही सिखाया गया कि उनकी ‘कीमत’ उनकी सुंदरता में है? यहां यह समझना आवश्यक है कि सौंदर्य की चाह और सौंदर्य की मजबूरी में बारीक फर्क है।

क्या स्त्री का अर्थ वस्तु है?
स्त्रियों को वस्तु की तरह देखे जाने की यह सोच उन्हें केवल समाज की नज़र में नहीं, बल्कि उनके अपने आत्मसम्मान में भी प्रभावित करती है। जब कोई स्त्री यह मान लेती है कि सुंदर दिखना उसकी पहली ज़िम्मेदारी है, तो वह अनजाने में अपने अस्तित्व को एक “प्रोडक्ट” के रूप में देखने लगती है—जिसे रोज़ निखारना, सजाना और प्रस्तुत करना ज़रूरी है। इससे न केवल मानसिक तनाव और असंतोष उत्पन्न होता है, बल्कि कई बार डिप्रेशन, ईटिंग डिसऑर्डर, आत्म-तिरस्कार और आत्महत्या जैसे गंभीर परिणाम भी देखने को मिलते हैं।

सौंदर्य की इच्छा के विरोध में नहीं
यह लेख सौंदर्य की इच्छा के विरोध में नहीं है, बल्कि उस सामाजिक, सांस्कृतिक और बाज़ारवादी दबाव के खिलाफ़ है जिसने स्त्री को सौंदर्य की परिभाषाओं में कैद कर दिया है। जरूरी यह है कि स्त्रियां खुद तय करें कि वे क्यों सज रही हैं, स्वयं के लिए, आत्मसंतोष के लिए, या समाज को प्रसन्न करने के लिए? जब तक यह अंतर स्पष्ट नहीं होगा, तब तक सुंदरता की स्वतंत्रता असल में सौंदर्य की दासता ही बनी रहेगी।

अतं में यही कहना होता कि स्त्रियों की सुंदरता की चाह अगर उनके व्यक्तित्व की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है, तो वह सशक्तिकरण है। लेकिन यदि यह चाह समाज द्वारा गढ़ी गई भूमिकाओं, बाजार के दबावों और स्वीकृति की मजबूरी से उत्पन्न हो, तो यह चिंता का विषय है। समाज को ज़रूरत है इस प्रश्न से मुठभेड़ करने की कि हमारी बेटियां क्या वाकई खुद को मनुष्य नहीं, वस्तु समझने लगी हैं? अगर हां, तो यह समय है उस सोच को बदलने का — कि स्त्री की सबसे बड़ी खूबसूरती उसका चेहरा नहीं, उसका चेतन स्वरूप है।

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सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया — दहेज प्रताड़ित रिधन्या की दर्दनाक दास्तां

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Ridhanya

तमिलनाडु के तिरुपुर जिले से एक दिल दहला देने वाली खबर सामने आई है। एक नवविवाहित युवती, रिधन्या, ने दहेज की मांग और ससुरालवालों की प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली। मरने से पहले उसने अपने पिता के लिए एक मार्मिक संदेश छोड़ा: “सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया।” यह एक ऐसा वाक्य है, जो एक पिता के दिल को जीवन भर चीरता रहेगा।

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रिधन्या कौन थी?
रिधन्या, 23 वर्षीय एक होशियार और आत्मनिर्भर युवती थी। वह तमिलनाडु के तिरुपुर ज़िले के एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थी। पढ़ाई में तेज़, रिधन्या ने कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली थी और हाल ही में एक स्थानीय कपड़ा कंपनी में नौकरी शुरू की थी। उसके माता-पिता, खासकर उसके पिता, उसे हमेशा आत्मनिर्भर और खुश देखना चाहते थे।

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शादी का सपना बुरे सपने में बदला
रिधन्या की शादी कुछ महीनों पहले ही हुई थी। शुरुआत में सब कुछ सामान्य था। परिवार ने रिधन्या की शादी एक संभ्रांत और पढ़े-लिखे युवक से की थी। लेकिन जल्द ही ससुराल के असली चेहरे सामने आने लगे। शादी के कुछ हफ्तों के भीतर ही रिधन्या को दहेज को लेकर ताने मिलने लगे। कभी फ्रिज की मांग, कभी गाड़ी की, तो कभी कैश देने की बात।
उसके पति और सास-ससुर अक्सर उसे ताना देते:
“तुम्हारे पापा ने हमारे लायक दहेज नहीं दिया। हम सोचते थे कि तुम अमीर घर से आई हो।”
रिधन्या चुपचाप सब कुछ सहती रही, शायद इस उम्मीद में कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा।

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अकेलेपन व पीड़ा का गहराता अंधेरा
रिधन्या ने कई बार अपने माता-पिता से फोन पर रोते हुए बात की, लेकिन हर बार कहा, “मैं ठीक हूं पापा, आप चिंता मत करो।” वह अपने माता-पिता को दुखी नहीं करना चाहती थी। मगर भीतर ही भीतर वह टूटती जा रही थी।
उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था। उसे खाना नहीं दिया जाता, अपशब्द कहे जाते और मारपीट भी होने लगी थी। रिधन्या धीरे-धीरे एक ऐसे अंधेरे में डूब गई जहां से बाहर निकलने की कोई राह नज़र नहीं आ रही थी।

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सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया
एक दिन, जब तकलीफ़ असहनीय हो गई, रिधन्या ने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। उसने एक छोटा सा सुसाइड नोट लिखा: “सॉरी पापा, सब कुछ खत्म हो गया। मैं अब और नहीं सह सकती। मैंने कोशिश की, बहुत कोशिश की। लेकिन ये लोग मुझे इंसान नहीं समझते। मुझे माफ करना। मुझे आपकी बेटी होने पर गर्व था।” उसके कमरे में वह चिट्ठी मिली, साथ ही एक मौन चीख — जो पूरे समाज के कानों को चीरती है।

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समाज की चुप्पी और व्यवस्था की नाकामी
रिधन्या की मौत अकेले उसकी नहीं थी — यह पूरे समाज की विफलता की मौत थी। क्या एक पढ़ी-लिखी लड़की, जो आत्मनिर्भर थी, उसके लिए भी यह समाज सुरक्षित नहीं है? दहेज जैसी सामाजिक कुप्रथा, जो कानूनन अपराध है, आज भी कितने घरों को निगल रही है। रिधन्या के माता-पिता ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है। तिरुपुर पुलिस ने पति और ससुरालवालों के खिलाफ FIR दर्ज की है और मामले की जांच चल रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या रिधन्या को न्याय मिलेगा?

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रिधन्या की मौत से क्या सीखा जाना चाहिए?
• दहेज को ‘परंपरा’ कहना बंद करें
यह सिर्फ एक अपराध है, जो महिलाओं को मौत की ओर धकेलता है।
• लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ आवाज़ उठाना भी सिखाएं
रिधन्या ने शायद डर या समाज के कारण चुप्पी ओढ़ ली थी। हर लड़की को यह समझना होगा कि आवाज़ उठाना कमजोरी नहीं, ताकत है।
• समाज को चुप्पी तोड़नी होगी
पड़ोसी, रिश्तेदार और दोस्त – जब किसी महिला के साथ अन्याय हो रहा हो, तो चुप न रहें।

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रिधन्या की मौत नहीं, आंदोलन बने
रिधन्या आज नहीं है, लेकिन उसकी कहानी उन लाखों लड़कियों की कहानी है, जो दहेज की आग में झुलस रही हैं। यह समय है कि रिधन्या की मौत को एक आंकड़ा न बनने दिया जाए, बल्कि यह एक सामाजिक जागृति का कारण बने। यह एक बेटी की आखिरी पुकार थी, जिसने हमें एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है: कब तक बेटियां यूं ही मिटाई जाती रहेंगी? कब तक समाज दहेज के नाम पर औरतों की ज़िंदगी बर्बाद करता रहेगा? रिधन्या अब नहीं है, लेकिन उसकी कहानी, उसकी पीड़ा और उसका साहस इस समाज को आईना दिखाता है। यदि हम अब भी नहीं जागे, तो शायद अगली बार कोई और बेटी चुपचाप “सॉरी पापा” कहकर हमें हमेशा के लिए छोड़ जाएगी।

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बदनसीब रिधन्या
रिधन्या की मौत सिर्फ एक व्यक्ति की त्रासदी नहीं है, यह पूरे समाज की अंतरात्मा को झकझोरने वाली घटना है। जब एक शिक्षित, आत्मनिर्भर और संवेदनशील लड़की भी इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था और दहेज के दानव से हार जाती है, तो यह हमारी सामूहिक विफलता बन जाती है। आज ज़रूरत है सिर्फ सहानुभूति जताने की नहीं, बल्कि ठोस बदलाव लाने की —कानून को सख्ती से लागू करने की, बेटियों को चुप्पी के बजाय विरोध की ताक़त देने की, और हर उस परंपरा को नकारने की जो किसी और की ज़िंदगी छीन ले। उसकी कहानी को हम अगर एक बदलाव की शुरुआत बना सकें, तो शायद उसकी दर्दनाक विदाई एक अर्थपूर्ण संदेश बन पाएगी – कि अब कोई और बेटी यूं “सॉरी पापा” कहकर इस दुनिया को अलविदा न कहे।

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भारत ‘विश्वगुरु’ बनने चला था, अब ‘विश्वचेला’ की भी औक़ात नहीं रही…

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भारत के तथाकथित दोस्त डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो रही हैं उनसे हर भारतीय आहत हो रहा है। इन अमानवीय घटनाओं को कोई कैसे झुठला सकता है। इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया न देने, चुप्पी अख़्तियार कर लेने अथवा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने से सच तो बदल नहीं सकता। सच का सामना आज नहीं तो कल करना ही पड़ेगा। आप किसी के भी समर्थक हों, कुछ बातें सीधे दिल पर असर करती हैं। आजकल अमेरिका में भारतीयों ख़ासकर छात्रों के साथ जिस तरह से वहां की सरकार पेश आ रही है, उस पर सरकार को कड़ा रुख अपनाना चाहिए।

भारत और भारतीय लीडरशिप को अब आत्ममुग्धता से उबर जाना चाहिए। आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत ख़तरनाक होती है। आत्ममुग्ध आदमी को अपने कमज़ोरियां नज़र ही नहीं आती। वह तो बस आत्ममुग्ध रह कर आगे बढ़ा चला जाता है। कमोबेश यही हालत भारत की है। कहा जा रहा था कि भारत ‘विश्वगुरु’ बनने जा रहा है, लेकिन प्राकृतिक और मानव संसाधन के मामले में पूरी दुनिया में श्रेष्ठ होने के बावजूद आज देश की औकात ‘विश्वचेला’ बनने की भी नहीं रह गई है। यह अवस्था कैसे आई इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।

इस साल की गर्मियों में जब भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘विश्वगुरु भारत’ का सपना दिखा रही थी, तब उसी समय अमेरिका की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने वाले हजारों भारतीय छात्र भय, असुरक्षा और मानसिक पीड़ा से गुजर रहे थे। न कोई स्पष्ट नीति, न कोई समर्थन। हर पल छापों का डर, डिपोर्टेशन की आशंका और अपने भविष्य को लेकर गहरी अनिश्चितता। क्या यही है भारत की आधुनिक और सशक्त विदेश नीति?

विदेश नीति या विदेश में मौन नीति?
भारत की विदेश नीति हाल के वर्षों में कई बार आत्ममुग्धता का शिकार होती दिखी है। सरकार अक्सर यह दावा करती रही है कि भारत अब केवल ‘निमंत्रण पर चलने वाला देश’ नहीं रहा, बल्कि ‘प्रभाव डालने वाला वैश्विक शक्ति केंद्र’ बन गया है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही कहती है।

यदि वाकई भारत की विदेश नीति प्रभावी होती, तो अमेरिका में पढ़ने वाले 25,000 से अधिक छात्र भय के माहौल में जीने को मजबूर न होते। वे कक्षा में पासपोर्ट लेकर नहीं जाते। वे अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर डिलीट और एडिट का बटन बार-बार न दबाते। और वे अपने माता-पिता को यह न कहते कि “मुझे वापस मत बुलाओ, वरना दोबारा अमेरिका में एंट्री नहीं मिलेगी।”

डर के साए में जीते भारतीय छात्र
29 जून 2025 को प्रकाशित दैनिक भास्कर की रिपोर्ट ने इस सच्चाई को और स्पष्ट कर दिया। रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की 12 यूनिवर्सिटीज़ को अमेरिकी प्रशासन ने “संदेह के दायरे में” रखा है, जहां पढ़ने वाले अधिकांश भारतीय छात्रों को वीज़ा नियमों के उल्लंघन के शक में हिरासत, पूछताछ और डिपोर्टेशन जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। एक छात्र ने बताया कि उसके माता-पिता ने 50 लाख रुपये का लोन लेकर उसे अमेरिका भेजा था, लेकिन अब वहां उसे हर समय पासपोर्ट साथ रखना पड़ता है। उसे न तो स्थायी नौकरी की गारंटी है, न ही यह विश्वास कि उसका वीज़ा रिन्यू होगा या नहीं।

भारतीय विदेश मंत्रालय की खामोशी
एक और छात्र का अनुभव हैरान करने वाला है — उसने एक बार अमेरिका की नीति पर फेसबुक पर नकारात्मक टिप्पणी की, और अगले ही दिन इमिग्रेशन ऑफिस से उसे नोटिस आ गया। अब वह और उसके जैसे सैकड़ों छात्र सोशल मीडिया पर कोई भी बात लिखने से डरते हैं। इस चुप्पी के बीच भारत का विदेश मंत्रालय कहां है? भारतीय दूतावास की जिम्मेदारी केवल पासपोर्ट रिन्यू करने तक सीमित क्यों रह गई है? क्या सरकार अपने नागरिकों को केवल तब तक पहचानती है, जब तक वे टैक्स भरते हैं या वोट डालते हैं?

‘विश्वगुरु’ का खोखला सपना
भारत की मौजूदा विदेश नीति बार-बार इस बात पर ज़ोर देती है कि भारत एक सॉफ्ट पावर है, और अब ‘विश्वगुरु’ बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन क्या किसी विश्वगुरु का पहला धर्म अपने विद्यार्थियों की रक्षा नहीं होना चाहिए? एक गुरु वह होता है जो अपने शिष्य को ज्ञान के साथ-साथ सुरक्षा और आत्मसम्मान भी प्रदान करे। लेकिन जब भारतीय छात्र विदेशी ज़मीन पर केवल “संदिग्ध” बनकर रह जाएं, तो ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ही खोखला हो जाता है।

कूटनीति या दिखावटी दौरे?
भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री लगातार दुनिया के दौरे करते हैं — ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, यूरोप, अरब देश — लेकिन इन दौरों का वास्तविक लाभ भारतीय नागरिकों को कितना मिल रहा है? क्या इन दौरों में केवल व्यापारिक समझौते होते हैं? क्या शिक्षा, छात्र सुरक्षा, और प्रवासी समस्याएं कभी प्राथमिक एजेंडा बनती हैं?

क्या भारत के पास विकल्प नहीं हैं?
भारत जैसे देश के पास विकल्प हैं — लेकिन उन्हें अपनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए:

अमेरिका से कड़ा संवाद: भारत को अमेरिकी प्रशासन से स्पष्ट कहना चाहिए कि भारतीय छात्रों को सुरक्षा देना केवल यूनिवर्सिटी की नहीं, बल्कि सरकार की भी जिम्मेदारी है।

मानवाधिकार मुद्दा बनाना: जिस तरह पश्चिमी देश भारत के मानवाधिकार पर टिप्पणी करते हैं, भारत को भी प्रवासी छात्रों के अधिकारों के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए।

शिक्षा समझौते का पुनर्मूल्यांकन: भारत को अमेरिका के साथ शिक्षा संबंधों की समीक्षा करनी चाहिए — चाहे वह यूनिवर्सिटी रैंकिंग की मान्यता हो या स्टूडेंट वीज़ा प्रोटोकॉल।

वैकल्पिक गंतव्य विकसित करना: भारत को अपने छात्रों के लिए अन्य देशों में बेहतर विकल्प खोलने चाहिए, जैसे जापान, फ्रांस, नीदरलैंड, कनाडा आदि, जहां पढ़ाई के साथ सुरक्षा और स्थिरता भी सुनिश्चित हो।

घरेलू शिक्षा का उन्नयन: अगर भारत की यूनिवर्सिटीज़ वैश्विक स्तर की हों, तो छात्र विदेश जाने के लिए लोन में नहीं डूबेंगे।

आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत
‘विश्वगुरु’ बनने का सपना तब तक अधूरा है, जब तक भारत अपने ही युवाओं को विदेश में मानसिक पीड़ा और अपमान से नहीं बचा सकता। इस लेख का उद्देश्य नकारात्मकता फैलाना नहीं, बल्कि एक रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करना है। सरकार को यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद केवल नारों से नहीं चलता, बल्कि अपने नागरिकों की गरिमा की रक्षा करने से बनता है — चाहे वह नागरिक दिल्ली में हो, या न्यूयॉर्क की किसी यूनिवर्सिटी में।

भारतीय विदेश नीति को अब केवल वंदन और सौजन्य से ऊपर उठना होगा। जिस देश का युवा डरा हुआ हो, उसकी नीति मजबूत नहीं कहलाती। आज ज़रूरत है उस कूटनीतिक साहस की, जो अमेरिका जैसे देश से भी सवाल कर सके: “क्या आप हमारे छात्रों को केवल डॉलर की मशीन समझते हैं, या इंसान भी मानते हैं?” भारत तभी सच्चा ‘विश्वगुरु’ बन सकेगा, जब वह अपने प्रत्येक नागरिक — चाहे वह देश में हो या विदेश में — की गरिमा, सुरक्षा और न्याय के लिए खड़ा हो।

शाबाश ईरान! अमेरिका को सीधे हमले से दिया जवाब

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एक लंबे तनावपूर्ण इंतजार के बाद ईरान ने आखिरकार अमेरिका को सैन्य मोर्चे पर चुनौती दे दी है। हालिया हमले में ईरान ने अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाते हुए यह साफ कर दिया कि वह अब सिर्फ चेतावनियों तक सीमित नहीं रहेगा। यह हमला न केवल सैन्य कार्रवाई है, बल्कि विश्व मंच पर ईरान के बदले हुए रवैये की स्पष्ट घोषणा भी है।

ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा कि “स्वाभिमान भी कोई चीज़ होती है। कोई अमर होकर नहीं आया है। जब तक जिएंगे, शान से सिर उठाकर जिएंगे।” उनके इस बयान को जनता और सेना दोनों से भारी समर्थन मिला है। खामेनेई के इस साहसी रुख ने एक बार फिर यह दर्शा दिया कि ईरान अब अपनी रणनीति और नेतृत्व को विश्व राजनीति के केंद्र में स्थापित करना चाहता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, इस हमले के बाद अमेरिका के लिए सैन्य जवाबी कार्रवाई आसान नहीं होगी क्योंकि अब रूस और चीन, दोनों शक्तिशाली देश, ईरान के साथ खड़े हैं। रूस पहले ही ईरान को समर्थन दे चुका है, जबकि चीन ने भी संकेत दिए हैं कि वह पश्चिम एशिया में ‘संतुलन बनाए रखने’ के लिए हस्तक्षेप कर सकता है। ऐसे में यह संघर्ष किसी सीमित युद्ध के बजाय वैश्विक टकराव का रूप भी ले सकता है।

इस घटनाक्रम ने भारत में भी बहस छेड़ दी है। कई विश्लेषकों और आम नागरिकों ने ईरान और इज़राइल जैसे देशों के नेतृत्व की तुलना भारत की लीडरशिप से करते हुए सवाल उठाए हैं कि क्या भारत के नेता भी कभी ऐसा साहस दिखा सकते हैं। आलोचकों का कहना है कि भारत में ‘लीडरशिप’ के बजाय ‘डीलरशिप’ का बोलबाला है, जहां हर नीति, हर कूटनीति और हर रणनीति केवल व्यापारिक सौदों के आधार पर तय होती है।

भारत में सोशल मीडिया पर इस वक्त ‘अयातुल्ला खामेनेई’ और ‘नेतन्याहू’ जैसे नेताओं की चर्चा जोरों पर है। लोग पूछ रहे हैं कि क्या भारतीय नेतृत्व के पास भी वैसा ही आत्मसम्मान और स्पष्ट रुख है, जैसा इन देशों के पास है?

ईरान के इस हमले ने वैश्विक स्तर पर नए समीकरण खड़े कर दिए हैं। अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी गठबंधन पर इसका क्या असर होगा, यह आने वाला समय बताएगा, लेकिन एक बात निश्चित है — अब ईरान को वैश्विक मंच पर नजरअंदाज करना नामुमकिन होगा।

ईरान ने दुनिया को बता दिया कि चुप बैठने का नहीं, बल्कि सिर उठाकर खड़े होने का वक्त

ईरान ने कतर के दोहा में मौजूद अमेरिकी बेस पर सोमवार रात मिसाइल हमले किए। इजरायली अधिकारियों ने दावा किया कि ईरान की ओर से 6 मिसाइलें दागी गई। कतर के अल उबेद बेस पर ईरान ने हमला किया। हालांकि, कतर का दावा है कि अमेरिकी सैन्य अड्डे पर हुए हमले में किसी हताहत होने की खबर नहीं है। ईरान के पलटवार के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सिचुएशन रूम में हाईलेवल मीटिंग बुलाई। अमेरिकी रक्षा मंत्री के साथ ट्रंप बैठक कर रहे हैं। जानकारी के मुताबिक, ईरान के हमले में अब तक किसी के हताहत होने की खबर नहीं हैं।

रविवार सुबह अमेरिका ने ईरान के तीन परमाणु ठिकाने, नितांज, इस्फ्हान और फोर्डो पर हमले किए थे। इस हमले के बाद ईरान ने अमेरिका को बुरे परिणाम भुगतने की चेतावनी दी थी। अमेरिकी की कार्रवाई के बाद यूएस की सेना अलर्ट मोड पर है। ईरान ने साफ तौर पर कहा है कि अमेरिका ने युद्ध को अपराध किया है, जिसकी कीमत उसे भुगतनी होगी। वहीं, राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान को चेतावनी दी थी कि अगर ईरान ने अमेरिका पर हमला किया तो अमेरिकी सेना इस करारा जवाब देगी।

प्राचीनकाल की हाथीदांत की स्त्री की मूर्ति

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1938 में, पोम्पेई में हुई खुदाई के दौरान एक छोटी सी, बारीकी से तराशी गई हाथीदांत की मूर्ति मिली, जो भारतीय मूल की थी। यह प्राचीन नगर 79 ईस्वी में माउंट वेसुवियस के विस्फोट के बाद राख और पुमिस पत्थर में दब गया था, और तब से ही यह पुरातत्वविदों के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहा है। यह खोज प्राचीन सभ्यताओं के बीच सांस्कृतिक संपर्क को और भी प्रमाणित करती है। यह मूर्ति एक समृद्ध पोम्पेईवासी के घर में मिली थी और इसे प्रथम शताब्दी ईस्वी की माना गया है, जो रोमन नगरों में विलासिता की वस्तुओं की उच्च मांग को दर्शाती है।

यह मूर्ति तीन स्त्री आकृतियों को एक चबूतरे पर खड़ा दर्शाती है। बीच में स्थित प्रमुख स्त्री आकृति भारी हार, चूड़ियाँ, पायजेब और गहनों से सजे कमरबंध से अलंकृत है। वह एक सौंदर्यपूर्ण मुद्रा में खड़ी है — उसका बायाँ पैर दाएँ पर रखा है, सिर हल्का मुड़ा हुआ है और चेहरा मुस्कान भरी भंगिमा लिए हुए है। बाएँ हाथ में वह कोई अज्ञात वस्तु थामे है, जबकि दायाँ हाथ सिर के पीछे उसकी गूंथी हुई चोटी को स्पर्श कर रहा है। उसका सिर पर बंधा हुआ आभूषण बाईं ओर एक नुकीली आकृति में फैला हुआ है।

मुख्य आकृति के दोनों ओर दो छोटी परिचारिकाएं हैं, जो आकार में उससे आधी हैं। उनके गहने जैसे कि चूड़ियाँ और कंगन समान हैं, और वे भी कुछ अज्ञात वस्तुएँ थामे हुए हैं, जिन्हें कुछ विद्वान सौंदर्य प्रसाधन या आभूषण मानते हैं। एक ही हाथीदांत के टुकड़े से बनाई गई इन आकृतियों की नक्काशी अद्भुत संतुलन और सौंदर्य का परिचय देती है, जहाँ छोटी परिचारिकाएं प्रमुख आकृति की सौंदर्यपूर्ण रचना को और निखारती हैं।

मूर्ति की कई विशेषताएँ उत्सुकता जगाती हैं। मुख्य आकृति के सिर के ऊपर से लेकर नाभि तक एक छेद है, और चबूतरे के नीचे एक प्रतीक चिह्न उकेरा गया है, जिसे कलाकार की निशानी माना जा सकता है। चौंकाने वाली बात यह है कि मूर्ति का ऊपरी भाग अधूरा छोड़ा गया है — जबकि बाकी हिस्से में अत्यंत सूक्ष्म विवरण तराशे गए हैं।

प्रारंभ में, मूर्ति को खोजने वाले विद्वान अमादेओ मायूरी और कला इतिहासकार मिरेला लेवी डि’अंकोना जैसे विशेषज्ञों ने इसे किसी देवी की मूर्ति माना, और कुछ ने तो इसे हिंदू देवी लक्ष्मी के रूप में पहचाना। लेकिन बाद में जब इसकी प्रतिकात्मकता और शैली का गहराई से अध्ययन किया गया, तो इसे यक्षी — भारत के प्रारंभिक बौद्ध स्थलों जैसे भरहुत और साँची में मिलने वाली उर्वरता की स्त्री आकृतियों — से जोड़ा गया। इनकी मुद्रा, गहनों, फूलों की लदी हुई चोटी और सांस्कृतिक प्रतीकों में अद्भुत समानता पाई गई, जो सौभाग्य और सुरक्षा का प्रतीक मानी जाती हैं।

हालाँकि यक्षियों से समानता इस बात को दर्शाती है कि ऐसी आकृतियाँ भारतीय कला में लोकप्रिय थीं, पर यह ध्यान देना आवश्यक है कि पोम्पेई के एक समृद्ध रोमन घर में इस मूर्ति की उपस्थिति इस बात का संकेत है कि इसे धार्मिक नहीं, बल्कि एक विलासिता की वस्तु के रूप में सराहा गया। रोमन साम्राज्य में हाथीदांत अत्यंत मूल्यवान था, और लेखक प्लिनी ने भी उल्लेख किया है कि हाथीदांत की वस्तुएँ पूरे साम्राज्य में लक्ज़री बाज़ारों में लोकप्रिय थीं।

यह सुंदर मूर्ति अब इटली के नेपल्स स्थित म्यूज़ियो नैज़ियोनाले में संरक्षित है, और यह भारत और रोम की प्राचीन सभ्यताओं के बीच समृद्ध सांस्कृतिक आदान-प्रदान की एक झलक प्रस्तुत करती है।

म्यूज़ियो नैज़ियोनाले, नेपल्स, इटली

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जॉर्ज सोरोस को मुसलमानों की अधिक पीड़ा है तो उन्हें हंगरी या अमेरिका की नागरिकता दिला दें…

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पश्चिमी देश अक्सर भारत को मानवाधिकार, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और शरणार्थियों के प्रति सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते रहते हैं। लेकिन क्या वही देश स्वयं इन आदर्शों का पालन करते हैं? क्या जिन्होंने अपनी सीमाओं पर दीवारें खड़ी कर दी हैं, वे भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र से उम्मीद कर सकते हैं कि वह हर प्रवासी को गले लगाए? यह लेख जॉर्ज सोरोस और पश्चिमी देशों की कथनी और करनी के बीच के अंतर को उजागर करता है।

1. जॉर्ज सोरोस कौन हैं और उन्होंने भारत पर क्या कहा?
जॉर्ज सोरोस, अमेरिकी अरबपति निवेशक और ओपन सोसाइटी फाउंडेशन के संस्थापक हैं। वे 1930 में हंगरी में जन्मे थे और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका जाकर बस गए।

2020 और 2023 में उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा:
-भारत में लोकतंत्र खतरे में है।
-मोदी मुसलमानों को नागरिकता से वंचित कर रहे हैं।
-भारत एक हिंदू राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहा है।

सोरोस ने CAA और NRC को लेकर आशंका जताई कि ये नीतियाँ मुसलमानों के खिलाफ हैं और लाखों मुसलमान नागरिकता खो सकते हैं।

2. क्या भारत ने किसी मुसलमान की नागरिकता छीनी है?
नहीं। अब तक भारत सरकार ने किसी एक भी मुसलमान की नागरिकता CAA या NRC के तहत छीनी नहीं है। असम NRC में कुछ लोगों को “डाउटफुल वोटर” जरूर माना गया, लेकिन उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का पूरा संवैधानिक अवसर मिला।

वास्तविकता यह है:
CAA केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देता है।
किसी भारतीय मुसलमान की नागरिकता को इससे कोई खतरा नहीं है।

3. हंगरी का दोहरा चरित्र:
क्या सोरोस अपने देश से यही अपेक्षा करते हैं?
जॉर्ज सोरोस का जन्मस्थान हंगरी है। वहाँ की सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, यूरोप में अप्रवासी-विरोध की प्रतीक बन चुकी है।

हंगरी की कठोर नीतियाँ:
2015 में सीरियाई शरणार्थी संकट के दौरान हंगरी ने अपनी सीमाओं पर कंटीले तारों की बाड़ लगा दी।
मुस्लिम प्रवासियों के विरुद्ध खुलेआम बयान: “हम हंगरी में मुस्लिम प्रवासियों को नहीं चाहते… हम एक क्रिश्चियन राष्ट्र हैं।”
2018 में “Stop Soros Law” लागू किया गया, जिससे अप्रवासी समर्थक संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई।

सवाल: क्या जॉर्ज सोरोस ने हंगरी को भी कहा कि वह लाखों मुस्लिम अप्रवासियों को नागरिकता दे?

4. अमेरिका की हकीकत:
क्या उसने मुस्लिम अप्रवासियों को अपनाया?
जॉर्ज सोरोस अब अमेरिका के नागरिक हैं। लेकिन अमेरिका का ट्रैक रिकॉर्ड भी काफी विरोधाभासी है:

डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में मुस्लिम बैन लगाया गया — कई मुस्लिम देशों के नागरिकों को वीज़ा देने से इनकार कर दिया गया।
मेक्सिको सीमा पर दीवार बनवाने की घोषणा, और प्रवासियों के बच्चों को उनके माता-पिता से अलग करना जैसी नीतियाँ अपनाई गईं।
नतीजा: अमेरिका और हंगरी दोनों ने दुनिया के सामने दरवाजे बंद किए, लेकिन भारत को कहते हैं कि वो हर किसी को अंदर आने दे।

5. भारत की नीति:
संतुलन और संप्रभुता का अधिकार
भारत ने हमेशा शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे खुले रखे हैं:
1947 में लाखों पाकिस्तानी शरणार्थियों को स्वीकारा।
तिब्बती, श्रीलंकाई तमिल, बांग्लादेशी हिंदू, अफगानी सिख — सभी को भारत ने आश्रय दिया।
लेकिन हर राष्ट्र की तरह भारत को भी यह अधिकार है कि वह तय करे कि किसे नागरिकता दी जाए और किसे नहीं। इसे अंतरराष्ट्रीय कानून भी मान्यता देता है।

जिन्होंने अपने दरवाजे बंद कर दिए, वे भारत से दरवाजे खोलने की अपेक्षा कर रहे हैं। यह दोहरा मापदंड नहीं तो और क्या है? भारत को लोकतांत्रिक, संवैधानिक और मानवतावादी आदर्शों का पालन करते हुए अपने राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा को सर्वोपरि रखने का पूरा अधिकार है। जिन्होंने दीवारें खड़ी कीं, वे हमें दरवाजे खोलने को कहें — इससे बड़ा पाखंड और कुछ नहीं।

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इजरायल के साथ युद्ध के बीच ईरान ने किया न्यूक्लियर टेस्ट, तेहरान में 5.5 का भूकंप महसूस किया गया

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इजरायल के साथ जारी जंग के बीच ही ईरान ने परमाणु परीक्षण कर लिया। इस परीक्षण की वजह से शुक्रवार की रात ईरान में रिक्टर स्केल पर 5.1 का भूकंप महसूस किया गया है। इस भूकंप के बाद कहा जा रहा है कि इजरायल और अमेरिका की लाख कोशिश के बावजूद ईरान ने अंततः परमाणु परीक्षण कर डाला है। हालांकि तेहरान ने अभी इसकी पुष्टि नहीं की है, इसलिए कई लोग कह रहे हैं कि यह भूकंप इजरायल के हमले के कारण हुआ है, इसकी भी पुष्टि नहीं की गई है। वेसे इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्‍याहू ने ईरान के परमाणु ठिकानों को खत्‍म करने की कसम खाई है।

यह भूकंप 20 जून को स्थानीय समयानुसार रात 9:19 बजे महसूस किया गया। यूरोपियन-मेडिटेरियन सेस्‍मोलॉजिकल सेंटर (ईएमएससी) के अनुसार ईरान में आया यह भूकंप सेमनान से 35 किलोमीटर नीचे था। भूकंप इतना तेजा था कि इसके झटके उत्‍तरी ईरान के कई भागों में महसूस किया गए। हालांकि इसकी वजह से किसी के भी घायल होने या किसी बड़े विनाश की कोई पुष्टि नहीं हुई है। भूकंप ऐसे समय में आया है जब ईरान-इजरायल के साथ संघर्ष बढ़ता जा रहा है।

इजरायल-ईरान के बीच लड़ाई के कारण भूकंप क्षेत्र के करीब के इलाकों समेत कई क्षेत्रों में ईरान की मिलिट्री यूनिट्स को भी तैनात कर दिया गया है। भूकंप की जानकारी आते ही सोशल मीडिया पर परमाणु परीक्षण ट्रेंड करने लगा। लोग अपने अनुसार कयास लगा रहे हैं। कुछ लोगों ने कहा कि अगर परमाणु परीक्षण की बात सही है तो फिर अब अमेरिका भी देश में घुसने से घबराएगा।

दरअसल, ईरान का सेमनान प्रांत वह जगह है जहां पर उसका मिसाइल कॉम्प्लेक्स और मिसाइल सेंटर है। https://www.nti.org/ वेबसाइट की रिपोर्ट पर अगर यकीन करें तो सेमनान मिसाइल कॉम्प्लेक्स में एक बैलिस्टिक मिसाइल टेस्‍ट रेंज और मैन्‍युफैक्‍चरिंग फैसिलिटी मौजूद है। ऐसा माना जाता है कि इसे बनाने में चीन ने ईरान को हर जरूरी मदद मुहैया कराई है।

सन् 1987 में ईरान ने सेमनान में ओगहाब अनगाइडेड आर्टिलरी रॉकेट को बनाना शुरू किया था. उसका लक्ष्‍य तब से ही हर साल 600 से 1,000 ऐसे रॉकेट बनाना था। इस प्‍लांट में सॉलिड फ्यूल वाले आर्टिलरी रॉकेट नाजेट, शाहब- एक मिसाइलों का भी प्रोडक्‍शन होता है। वेबसाइट का अनुमान है कि जेलजेल रॉकेट को भी शायद यहीं बनाया गया था. वहीं ईरान का स्‍पेस सेंटर और इससे जुड़ी लॉन्चिंग फैसिलिटीज भी सेमनान प्रांत में ही हैं।

इजरायली मीडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार यह सूचना मिली है कि ईरान के वैज्ञानिकों ने परमाणु हथियार की डिजाइन की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है। इजरायल ने तब कहा था कि अगर यह सच है तो फिर ईरान परमाणु बम बनाने से बस कुछ ही कदम दूर है। इससे पहले ईरान ने शुक्रवार को साफ कर दिया है कि वह इजरायल की तरफ से जारी हमलों के दौरान अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर कोई भी बात नहीं करेगा। यूरोप की तरफ से ईरान को परमाणु वार्ता की तरफ वापस लाने की कोशिशें की जा रही हैं. ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराक्ची ने कहा कि ‘जब तक इजरायल की आक्रामकता बंद नहीं होगी तब तक बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है।’

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ग़ाज़ा से यरूशलम तक: यहूदी सभ्यता की जड़ें

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जब इतिहास पर सभ्यताओं के संघर्ष की बात होती है, तो यहूदी समुदाय का नाम एक मिसाल के रूप में उभरता है। दुनिया के सबसे प्राचीन, सबसे पीड़ित और सबसे जीवट समाजों में से एक — यहूदी समाज — जिसने केवल अस्तित्व नहीं बचाया, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और विज्ञान को समृद्ध भी किया। यहूदियों की कहानी कोई सामान्य इतिहास नहीं, बल्कि साहस, संकल्प और आत्मबलिदान की वह गाथा है जो समय के हर दौर में फिर से लिखी जाती रही है।

ग़ाज़ा से यरूशलम तक: यहूदी सभ्यता की जड़ें

आज जो ग़ाज़ा और यरूशलम मुस्लिम-यहूदी संघर्ष का केंद्र हैं, वे कभी यहूदी सभ्यता के गौरवशाली केंद्र थे।
ग़ाज़ा, जिसे आज हम एक ज्वलंत संघर्ष-क्षेत्र के रूप में जानते हैं, वह ईसा पूर्व 10वीं शताब्दी में यहूदी शासक राजा डेविड और राजा सोलोमन के अधीन यहूदी साम्राज्य का हिस्सा था। यह शहर बाइबिल में भी आता है और यहूदी ऐतिहासिक स्मृति का अविभाज्य अंग है।

यरूशलम — केवल राजधानी नहीं, बल्कि यहूदी समाज की आत्मा है। इस पवित्र शहर पर इतिहास में 52 बार आक्रमण, 23 बार घेराव, 39 बार विनाश, और 44 बार कब्जा हुआ। लेकिन यहूदी कभी भी यरूशलम को अपने दिल और दिमाग से अलग नहीं कर सके।

एक भाषण जो आत्मकथा बन गया

इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का एक ऐतिहासिक भाषण है, जो न केवल इज़राइल की चेतावनी है, बल्कि समूचे यहूदी समाज की आत्मकथा है:

75 साल पहले हमारे पास न तो देश था और न ही सेना। सात देशों ने हम पर हमला किया। हम सिर्फ़ 65,000 थे। हमें कोई बचाने वाला नहीं था। हम पर हमले होते रहे, होते रहे। लेबनान, सीरिया, इराक़, जॉर्डन, मिश्र, लीबिया, सऊदी, अरब जैसे कई देशों ने हमारे ऊपर कोई दया नहीं दिखाई। सभी लोग हमे मारना चाहते थे, किंतु हम बच गए। लेकिन हम झुके नहीं। संयुक्त राष्ट्र ने जब हमें वो धरती दी, जो 65 प्रतिशत रेगिस्तान थी। हमने उसे भी अपने लहू से सींच कर राष्ट्र बना दिया। फलता-फूलता राष्ट्र। यहूदी इतिहास का सबसे गौरवशाली पक्ष यही रहा है कि जब-जब हमें मिटाने की कोशिश हुई, हम और मजबूत होकर उभरे। हम आज भी जीवित हैं। हम हिटलर के गैस चेंबरों से बचे, हम अरबों के नरसंहारों से बचे, हम सद्दाम और गद्दाफी जैसे शासकों से बचे, और अब हम हमास, हिज़्बुल्लाह और ईरान से भी टकराने का साहस रखते हैं। हमारे यरूशलम पर 52 बार हमला हुआ, 23 बार घेरा गया, 39 बार तबाह किया गया, लेकिन यहूदी कभी अपने यरूशलम को नहीं भूले। हम हमेशा से कहते आए हैं – यरूशलम हमसे है, और हम यरूशलम से हैं।

हमारे पैगंबर को भी छीन लिया गया…

नेतन्याहू भावनात्मक स्वर में कहते हैं:

हमें वे शुरू से खत्म करना चाहते हैं। उन्होंने हमारे रस्म-रिवाज पर कब्जा जमाया। उन्होंने हमारे उपदेशों पर कब्जा जमाया। उन्होंने हमारी परंपरा पर कब्जा जमाया। उन्होंने हमारें पैगंबर पर कब्जा जमाया। कुछ समय पश्चात अब्राहम को इब्राहिम कर दिया गया। सोलोमन को सुलेमान कर गया। डेविड को दाऊद बना दिया गया। मोजेज को मूसा कर दिया गया। फिर एक दिन उन्होंने कहा -तुम्हारा पैगंबर (मुहम्मद) आ गया है। हमने इसे नहीं स्वीकार किया। हम करते भी कैसे? उनके आने का समय नहीं आया था। उन्होंने कहा -स्वीकार करो, कबूल लो। हमने नहीं कबूला। फिर हमें मारा गया। हमारे शहर को कब्जाया गया। हमारे शहर यसरब को मदीना बना दिया गया। हम क़त्ल किए गए, हम भगा दिए गए। वे हमें मारते रहे हैं, मारते जा रहे हैं। हमारे शहर-धन, दौलत, घर, पशु, मान-सम्मान सब पर कब्जा जमाते जा रहे हैं। इसके बावजूद हम बचे रहे।उन्होंने हमारे रस्म-रिवाज, उपदेश, परंपराएं और पैगंबर — सब कुछ छीन लिया गया। अब्राहम को इब्राहीम, डेविड को दाऊद, सोलोमन को सुलेमान बना दिया गया। हमारे शहर यसरब को मदीना, हमारी ज़मीन को किसी और का घोषित कर दिया गया।

यहूदी कहते हैं, हमने किसी के धर्म को नकारा नहीं, लेकिन जब हमसे कहा गया कि अब तुम्हारे लिए नया पैगंबर आया है, हमने नहीं स्वीकारा। और इसी कारण हमें भगा दिया गया, मारा गया, क़त्ल किया गया।

1300 वर्षों की यातना

  • मक्का में दो लाख यहूदी क़त्ल कर दिए गए।
  • सीरिया, इराक़, तुर्की में लाखों यहूदी मार दिए गए।
  • हिटलर के शासन में छह मिलियन यहूदियों का नरसंहार हुआ।
  • अरब देशों से यहूदियों को पूरी तरह खदेड़ दिया गया।
  • फिर भी यहूदी बचे रहे — क्योंकि उन्होंने झुकना नहीं सीखा था।

रेगिस्तान को बनाया ख़ुशहाल 

संयुक्त राष्ट्र ने जब इज़राइल की भूमि दी, तो वह भूमि 65 प्रतिशत रेगिस्तान थी। लेकिन आज वही भूमि तकनीकी, चिकित्सा, कृषि और रक्षा के क्षेत्र में दुनिया को राह दिखा रही है।

  • इंटेल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, आईबीएम जैसी संस्थाओं में यहूदी दिमाग सबसे अग्रिम पंक्ति में हैं।
  • इज़राइल की ड्रिप इरिगेशन, मेडिकल रिसर्च, साइबर टेक्नोलॉजी, और सैटेलाइट टेक्नोलॉजी ने दुनिया को प्रभावित किया है।

हम किसी के दुश्मन नहीं

यहूदियों का सबसे बड़ा दावा यह है कि उन्होंने कभी किसी अन्य धर्म या समाज को खत्म करने की शपथ नहीं ली। नेतन्याहू स्पष्ट कहते हैं:

हमने रेगिस्तान को हरियाली में बदला। हमारे फल, दवाएँ, उपकरण, उपग्रह सभी के लिए हैं। हम किसी के दुश्मन नहीं हैं, हमने किसी को खत्म करने की क़सम नहीं खाई है। हमें किसी को बर्बाद नहीं करना। हम साजिश भी नहीं करते, हम जीना चाहते हैं सिर्फ सम्मान से, अपने देश में, अपनी जमीन पर, अपने घर में। अपने तरीके से।

हम मिटाए गए, पर मिटे नहीं

दुनिया की अनेक महान सभ्यताएं – मिश्र, बाबिलोन, यूनान, रोमन साम्राज्य, ओटोमन साम्राज्य – इतिहास के गर्त में समा गईं। लेकिन यहूदी समाज आज भी खड़ा है। वे कहते हैं:

हम 3000 सालों से यरूशलम में थे। आज फिर अपने पहले देश – इज़राइल – में हैं। यह हमारा था, है और रहेगा।यरुसलम हमसे है और हम यरुसलम से हैं।

प्रेरक है यहूदी संघर्ष 

यहूदियों की कहानी हमें यह सिखाती है कि किसी भी समाज को खत्म करना संभव नहीं, जब तक उसके भीतर अपनी पहचान के लिए मर मिटने का साहस हो। यहूदियों की यह लड़ाई सिर्फ अस्तित्व की नहीं है, यह धरोहर, आस्था, और सम्मान की रक्षा की लड़ाई है। यह संघर्ष जितना भावनात्मक है, उतना ही ऐतिहासिक और प्रेरणादायक भी।यरूशलम और ग़ाज़ा के कण-कण में यहूदियों की सभ्यता की साँसें गूंजती हैं — और यही उनका सबसे बड़ा उत्तर है दुनिया के हर उस हाथ के लिए जो उन्हें मिटाने के लिए उठता है।

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ऑनर किलिंग का नया रूप है कंचन कुमारी की हत्या

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अब तक महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज में ऑनर किलिंग का शिकार उनके ही परिजन बनाते थे। पिता, भाई या पति, चाचा, मामा अपनी झूठी ‘इज़्ज़त’ के नाम पर बेटी की जान ले लेते थे। लेकिन ऑनर किलिंग अब दूसरे रूप में समाज के सामने है। यानी यह सिलसिला अब केवल घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज के तथाकथित संस्कृति के रखवाले और सोशल मीडिया के स्वयंभू नैतिक ठेकेदार भी महिलाओं की आवाज़ दबाने के लिए हिंसा और हत्या का सहारा लेने लगे रहे हैं। ‘सम्मान की हत्या’ का ख़तरनाक मोड़ पंजाब में देखने को मिला। इस भयावहता की शिकार हुई है कंचन कुमारी उर्फ़ कमल कौर।

दरअसल पंजाब के बठिंडा में रहने वाली यूट्यूबर और सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर कंचन कुमारी की हत्या सिर्फ एक लड़की की नहीं, बल्कि उसके विचारों, उसकी स्वतंत्रता, उसकी पहचान की हत्या है। अब सवाल यह उठता है कि क्या समाज के ये ठेकेदार तय करेंगे कि कौन औरत कैसी दिखे, क्या पहने, क्या बोले, क्या सोचे, और सोशल मीडिया पर क्या डाले? आज हालात यह बन चुके हैं कि कुछ मुट्ठी भर तथाकथित धार्मिक व नैतिक पहरेदार खुद को ‘जज’ मान बैठें हैं, और तय करने लगे हैं कि आम आदमी या औरत को कैसे रहना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, कैसे सोचना चाहिए और किस हद तक स्वतंत्रता लेनी चाहिए। यदि कोई उनकी सोच से अलग चलता है तो उसे धमकाया जाता है, शर्मिंदा किया जाता है, और जब ये हथकंडे नाकाम हो जाएं, तो हत्या कर दी जाती है।

कंचन कुमारी की 9-10 जून की रात गला घोंटकर निर्मम हत्या कर दी गई। उनका शव 11 जून को आदर्श यूनिवर्सिटी की पार्किंग में कार से बरामद हुआ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पुष्टि हो गई कि मौत का कारण गला दबाना (strangulation) है। हत्या ‘कमर बंद’ से की गई। हत्या के बाद आरोपियों ने सबूत मिटाने के लिए हत्या में इस्तेमाल पारंपरिक ‘कमर बंद’ को जला दिया। इस मामले में दो निहंग सिख, जसप्रीत सिंह और निम्रतजीत सिंह गिरफ्तार किए गए हैं, जबकि मुख्य आरोपी अमृतपाल सिंह मेहरों, हत्या के कुछ घंटों बाद ही अमृतसर से उड़ान भरकर यूएई फरार हो गया। बहरहाल, पुलिस ने उसके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया है और उसके प्रत्यर्पण की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है।

पुलिस के अनुसार, आरोपियों ने कंचन कुमारी को पकड़ने के बाद उसके मोबाइल फोन का पासवर्ड जानने के लिए उसे कई बार थप्पड़ मारे, फिर पासवर्ड मिलने के बाद अमृतपाल उसके दोनों फोन लेकर भाग गया। यह भी सामने आया है कि अमृतपाल ने कई अन्य महिला इंफ्लुएंसर्स को भी धमकाया था। मशहूर गायक मीका सिंह और निहंग समुदाय के प्रमुख बाबा हरजीत सिंह रसूलपुर ने इस हत्या की कड़ी निंदा की। बाबा ने कहा, “अगर कंटेंट आपत्तिजनक था तो उसे नज़रअंदाज किया जा सकता था, हत्या कायरता है, बहादुरी नहीं।” सूत्रों के अनुसार, कंचन पर दबाव डाला जा रहा था कि वह अपने नाम से ‘कौर’ शब्द हटा दे। उसके इनकार के बाद ही यह घृणित साजिश रची गई।

कुछ भी हो यह घटना केवल कंचन कुमारी की हत्या नहीं, बल्कि यह एक चेतावनी है—हर उस स्वतंत्र सोच रखने वाली महिला के लिए जो पितृसत्ता की सीमाओं को लांघकर अपने मन की बात करना चाहती है। सवाल यही है कि क्या हम एक ऐसे समाज की तरफ बढ़ रहे हैं जहां औरत की आज़ादी, उसकी पहचान, उसकी आवाज़ – सब कुछ ‘संस्कृति के रखवालों’ की मंज़ूरी का मोहताज होगा?

इजराइल और भारत का विरोध क्यों करते हैं मुसलमान व मुस्लिम देश?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
पहलगाम आतंकी हमले के बाद दुनिया ने देखा कि इजराइल को छोड़कर दुनिया के किसी देश ने भारत का समर्थन किया जबकि भारत मानवता दुश्मन उन आतंकवादियों का सफाया कर रहा था, जो संयुक्त राष्ट्रसंघ के आतंकी लिस्ट में हैं। दूसरी ओर पाकिस्तान के समर्थन चीन, तुर्किए और अजरबैज़ान खुलकर आए, तो अमेरिका समेत दूसरे कई देश अप्रत्यक्षरूप से आए। चीन ने तो भारत के साथ अपनी परंपरिक दुश्मनी के चलते इस्लमाबाद का समर्थन किया, लेकिन तुर्किए और अजरबैज़ान ने पाकिस्तान का समर्थन इसलिए किया, क्योंकि वह इस्लामिक राष्ट्र है।

ऐतिहासिक तथ्य पर एक नज़र
अगर पिछले कुछ दशक के इतिहास पर जाएं तो आप देखेंगे कि इस्लामिक देश इजराइल का शुरू से घोर विरोध करते रहे हैं, लेकिन भारत की सेक्यूलर इमैज के बावजूद वे भारत की तुलना में पाकिस्तान का ज़्यादा समर्थन करते रहे हैं, लेकिन जब से नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं, मुसलमान और मुस्लिम देश आंख मूंदकर भारत का विरोध करने लगे हैं। दरअसल, ये लोग इसलिए भी मोदी, भाजपा और आरएसएस का विरोध करते हैं क्योंकि ये लोग हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं। किसी इस्लामी देश में सही मायने में लोकतंत्र नहीं है, लेकिन भारत और इजराइल में लोकतंत्र फलफूल रहा है। इन देशों के मुसलमान ख़ुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं, लेकिन उनके मन में हमेशा इन दोनों देशों के लिए नफ़रत रहती है।

इस्लामी देश मंजूर पर यहूदी-हिंदू देश नामंजूर
वैसे इस धरती पर कुल 56 इस्लामिक देश हैं। लेकिन विश्व में 200 करोड़ मुसलमान एकमात्र यहूदी देश और एक मात्र हिंदू बाहुल्य देश को भी नहीं देखना चाहते। ये मुसलमान किसी इस्लामी देश को सेक्यूलर देश बनाने की बात नहीं करते लेकिन भारत में सेक्यूलर चिल्लाते रहते हैं। सबसे बड़ी बिडंबना है कि दुनिया भर के 95 फ़ीसदी से ज़्यादा मुस्लिमों का रुख अक्सर इज़राइल और भारत विरोधी रहता है। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि दुनिया का हर चौथा व्यक्ति मुसलमान है। मुसलमानों की आबादी जिस तरह बढ़ रही है, उसे देखकर आशंका जताई गई है कि 2035 तक दुनिया का हर तीसरा नागरिक मुस्लिम होगा।

गैर-मुस्लिमों के बारे में क्या कहता है कुरआन
दरअसल, कुरआन में गैर-मुस्लिमों को लेकर महत्वपूर्ण बात कही गई है। कुरआन, सूरह अल-काफ़िरून 109:6 धर्म की व्याख्या “तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म, और मेरे लिए मेरा धर्म।” के रूप में करता है। सूरह अल-मुम्तहना 60:8 कहता है, “ईश्वर तुम्हें मना नहीं करता कि तुम उनके साथ भलाई और न्याय का व्यवहार करो जिन्होंने तुमसे धर्म के कारण युद्ध नहीं किया।” कहने का मतलब कुरआन की ये आयतें बताती हैं कि कुरआन में सहअस्तित्व की भावना भी मौजूद है। लेकिन इसका दुरुपयोग राजनीतिक इस्लाम ने किया है।

राजनीतिक इस्लाम को जानना जरूरी
ऐसे में राजनीतिक इस्लाम को जानना जरूरी है। दरअसल, राजनीतिक इस्लाम एक विचारधारा है जिसमें धर्म को सत्ता पाने और चलाने के औजार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। मुस्लिम ब्रदरहुड, जमात-ए-इस्लामी, तालिबान, ईरानी शासन, मुस्लिम लीग जैसे कई संगठन काफिर-वाद को राजनीतिक दुश्मनी के औचित्य के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। भारत में 1930 और 1940 के दशक में मोहम्मद अली जिन्ना आदि ने धर्म का इस्तेमाल सत्ता और देश पाने के लिए किया था। तो दुनिया भर में राजनीतिक इस्लाम के पैरोकारों द्वारा इज़राइल को “ज़ायोनी कब्जे वाला राष्ट्र” और भारत को “इस्लामोफोबिक हिंदू राष्ट्र” के रूप में चित्रित किया जाता है, जबकि ये दोनों ही देश प्राचीन सभ्यताओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं से युक्त हैं।

अस्तित्व के लिए लड़ना इजराइल की नियति
ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह विरोध सिर्फ धार्मिक आधार पर है अथवा इसके पीछे ऐतिहासिक घाव, राजनीतिक हित और रणनीतिक असुरक्षा जैसे गहरे कारण हैं? इज़राइल और इस्लामी देश की तनातनी इज़राइल का जन्म से यानी 70 साल से है। 1948 में जब यहूदी शरणार्थियों को एक स्वतंत्र राष्ट्र इज़राइल के रूप में मान्यता मिली, तो फिलिस्तीनी भूमि का विभाजन हुआ। इसी को लेकर मुस्लिम दुनिया में तभी से आक्रोश है। हालत यह है कि इजराइल सामरिक रूप से इतना मज़बूत न रहा होता तो आक्रोशित अरब देश उसका नाम-ओ-निशान मिटा चुके होते। यही वजह है कि इजराइल अपने जन्म से ही आत्मरक्षा में अरब देशों से युद्ध कर रहा है।

Israeli-Women-Jawans-300x285 इजराइल और भारत का विरोध क्यों करते हैं मुसलमान व मुस्लिम देश?

धरती का हर मुसलमान परस्पर बंधु
मुस्लिम ‘उम्मा’ और फलिस्तीन के प्रति एकजुटता दर्शाते हैं। इस्लामी सिद्धांत के अनुसार, मुस्लिम राष्ट्र एक ‘उम्मा’ यानी एक समुदाय का हिस्सा हैं। यानी धरती का हर मुसलमान बंधु है। इसी बिना पर फलिस्तीनियों के संघर्ष को पूरा इस्लामी जगत अपनी धार्मिक जिम्मेदारी मानता है और उसे सहायता एवं समर्थन देता है। सिर क़लम करने के क्लचर में भरोसा करने वाले हमास, हिजबुल्लाह और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन इज़राइल को “इस्लाम का दुश्मन” मानते हैं। उनका प्रचार-तंत्र इज़राइल को यहूदियों का देश कहता है।

भारत भी दुश्मन देश की कैटेगरी में
इसी तरह मुस्लिम राष्ट्र और मुसलमान भारत को भी दुश्मन देश की कैटेगरी में रखते हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत का रुख सेक्यूलर रहा है। भारतीय संविधान सेक्यूलर है। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया। कांग्रेस शासन के दौरान भारत ने फलिस्तीन का खुलकर समर्थन किया। इसके बदले उसे क्या मिला? कश्मीर मुद्दे पर इस्लामी देश पाकिस्तान की भूमिका का समर्थन करते हैं, जबकि कश्मीर का भारत में विलय विधि सम्मत हुआ है। जब कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में टकराव होता है तो इस्लामी मुल्क पाकिस्तान की बात मानते हैं जो कहता है कि कश्मीर के मुसलमान भारत में “दबाए जा रहे हैं” और पूरे मुल्क में मॉबलिंचिंग के नाम पर मुसलमानों का क़त्ल किया जाता है।

भारत में मुसलमानों का ‘काल्पनिक उत्पीड़न’
इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के देश अक्सर भारत विरोधी बयान देते रहते हैं। ये देश जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ भारत में मुसलमानों के ‘काल्पनिक उत्पीड़न’ को लेकर ज़्यादा मुखर रहता है। जबकि सच यह है कि भारत में लगभग 20 करोड़ मुस्लिम हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे ज़्यादा हैं। फिर भी, खासकर 2014 के बाद, भारत को एक ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ से ग्रस्त देश के रूप में चित्रित किया जाता है। इस्लामी प्रचारकों के साथ साथ कई मीडिया हाउस नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश करते हैं। इन लोगों ने ट्रिपल तलाक विरोधी कानून, बुरका एवं हिजाब विवाद और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) जैसे मुद्दों को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश किया।

उइगर मुस्लिमों के दमन पर मौन
इसके विपरीत दुनिया भर के मुसलमान चीन में उइगर मुस्लिमों (Uyghur Muslim) के दमन पर मौन साधे रहते हैं। उइगर मुस्लिम आबादी पर अंकुश लगाने के लिए चीन के पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में बड़े पैमाने पर एक अभियान चलाया हुआ जिसके तहत इनकी जबरदस्ती नसबंदी और गर्भपात किए जा रहे हैं। कहीं से विरोध का एक शब्द भी सुनने को नहीं मिलता। इसी तरह सीरिया, यमन, सूडान जैसे देशों में मुस्लिमों के हाथों मुस्लिमों के नरसंहार की बिल्कुल भी निंदा नहीं करते। ये लोग म्यांमार, श्रीलंका, रूस में मुस्लिम विरोधी गतिविधियां पर भी सीमित प्रतिक्रिया देते हैं।

संतुलन के लिए कूटनीतिक समीकरण
भारत और इज़राइल के बीच तकनीक, रक्षा, कृषि, जल प्रबंधन और साइबर सुरक्षा में साझेदारी से कट्टरपंथी मुसलमानों और मुस्लिम मुल्क परेशान हो रहे हैं। इस साझेदारी को संपूर्ण मुस्लिम जगत ‘यहूदी-हिंदू गठबंधन’ के रूप में देख रहा है और इसका विरोध कर रहा है। जबकि दुनिया की इस पॉलिटिक्स ख़ासकर, राजनीतिक इस्लाम के ख़तरे के मद्देनज़र भारत और इज़राइल का आपस में सैन्य गठबंधन करना समय की मांग है। सच यह है कि भारत और इज़राइल दोनों लोकतंत्रिक देशों ने विविधता में एकता को प्राथमिकता दी है। इज़राइल में मुस्लिम संसद सदस्य हैं, तो भारत में राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री, अभिनेता, खिलाड़ी हर क्षेत्र में मुस्लिम आगे हैं।

ऐसे में भारत और इज़राइल के विरुद्ध इस्लामी देशों की प्रवृत्ति न्याय के बजाय राजनीति से प्रेरित अधिक लगती है। आज जब दुनिया में जलवायु संकट, आतंकवाद और तकनीकी असमानता जैसी समस्याएं हैं, तब धर्म के नाम पर किसी लोकतांत्रिक देश को खलनायक बनाना समस्या का हल नहीं है। यह सोच नई टकराव की ज़मीन तैयार करती है। लिहाज़ा, मुसलमानों और इस्लामी देशों को आत्मचिंतन करना होगा कि क्या वास्तव में वे न्याय के लिए आवाज उठा रहे हैं या केवल राजनीतिक इस्लाम के मोहरे बन रहे हैं? समय आ गया है कि वैश्विक समुदाय रिश्तों को धार्मिक पहचान के चश्मे से नहीं बल्कि तथ्यों के आधार पर देखे।

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