आतंकवाद को समूल नष्ट करने के लिए हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन का सिर चाहिए ही चाहिए

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लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिज़बुल मुजाहिद्दीन का सफाया ज़रूरी

भारत ने आतंकवाद की विभीषिका को न केवल पिछले चार दशक से ज़्यादा समय से सहा है, बल्कि उसकी आग में अपने हजारों-लाखों नागरिक और सुरक्षा जवान खोए हैं। इन रक्तरंजित वर्षों के पीछे अगर किसी के नाम सबसे अधिक उभरकर सामने आते हैं, तो वे हैं — लश्कर-ए-तैयबा का मुखिया हाफ़िज़ मोहम्मद सईद, जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक मौलाना मसूद अज़हर और हिज़बुल मुजाहिद्दीन सरगना सैयद सलाउद्दीन। ये तीनों दहशतगर्द आतंकवाद की वो त्रिमूर्ति हैं, जिनका अस्तित्व भारत की आंतरिक सुरक्षा और सार्वभौमिकता पर एक स्थायी खतरा बना हुआ है। इसलिए आज भारतीय जनमानस की एक ही मांग है — इन तीनों का अंत। भारत को किसी भी कीमत पर इन आतंकवादियों का सिर चाहिए। इससे कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है।

ऑपरेशन सिंदूर युद्धविराम के बाद भारत और पाकिस्तान के डीजीएमओ (Director Generals of Military Operations) लेफ्टिनेंट जनरल राजीव घई और मेजर जनरल कासिम अब्दुल्ला के बीच बातचीत हुई। तो यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर था। हमें इस मौके को खोना नहीं चाहिए था। बातचीत के एजेंडे में हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन की भारत को तत्काल सौंपने की मांग सबसे ऊपर एक ही बात होनी चाहिए थी। यह केवल एक मांग नहीं, बल्कि उन हजारों भारतीयों के खून का हिसाब है जो इन आतंकियों की साजिशों का शिकार हुए। जब तक ये तीनों पाकिस्तान की सरपरस्ती में ज़िंदा घूमते रहेंगे, तब तक कोई भी समझौता, कोई भी युद्धविराम या कोई भी शांति प्रक्रिया बेमानी है। भारत को इस बातचीत में स्पष्ट शब्दों में यह संदेश देना चाहिए कि शांति का रास्ता सिर्फ़ आतंक के अंत से होकर जाएगा — और वह अंत इन तीनों की गिरफ्तारी या मृत्यु से शुरू होगा।

भारत ने हमेशा शांति की बात की है, और अपने पड़ोसियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों को प्राथमिकता दी है। लेकिन यह शांति तब तक बेमानी है जब तक आतंकवाद के आकाओं को उनकी अंजाम तक नहीं पहुँचाया जाता। हाफ़िज़ सईद, जो 2008 के मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड है; मसूद अज़हर, जिसने संसद हमले और पठानकोट जैसे हमलों की योजना बनाई; और सैयद सलाउद्दीन, जो कश्मीर घाटी में आतंक का पर्याय बन चुका है — ये तीनों तब तक जिंदा रहेंगे, तब तक शांति एक सपना ही बनी रहेगी। आज यह मांग केवल किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा की नहीं, बल्कि एक आम भारतीय नागरिक की है। हर वह व्यक्ति जो देश में अमन चाहता है, हर वह माँ जिसने अपने बेटे को सीमा पर खोया है, हर वह बच्चा जो भय के साए में बड़ा हो रहा है — यही कह रहा है कि इन दरिंदों का खात्मा ज़रूरी है।

युद्धविराम तभी स्वीकार्य, जब आतंक का अंत हो

ऑपरेशन सिंदूर बीच में रोककर युद्धविराम घोषित कर दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम की बातें कई बार होती हैं, लेकिन हर बार इसका फायदा पाकिस्तान को ही होता है। युद्धविराम के नाम पर जब भी भारत ने संयम दिखाया, पाकिस्तान ने पीठ में खंजर घोंपा। आतंकी शिविर फिर से सक्रिय हो गए, घुसपैठ बढ़ गई और घाटी में निर्दोषों का खून बहता रहा। इसलिए अब समय आ गया है कि भारत युद्धविराम की किसी भी प्रक्रिया को इन तीन आतंकवादियों के खात्मे से जोड़े। जब तक ये तीनों ज़िंदा हैं, तब तक युद्धविराम केवल एक झूठा समझौता ही रहेगा।

भारत को चाहिए स्पष्टता और ईमानदारी

यदि भारत सरकार इन आतंकियों को मार गिराने में सक्षम है, तो उसमें देर नहीं होनी चाहिए। यदि किसी कारणवश ऐसा संभव नहीं है, तो भारत की जनता को साफ-साफ बता देना चाहिए। इस देश की जनता ने मुग़लों, ब्रिटिशों और आतंकियों के अत्याचार झेले हैं। यह जनता सहनशील जरूर है, लेकिन अंधी नहीं। उसे कम से कम यह जानने का हक़ है कि उसकी सरकार किस हद तक जाने को तैयार है।

आशा और भ्रम के बीच जीती जनता को जब बार-बार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘एयर स्ट्राइक’ के नाम पर आश्वासन दिया जाता है, तो उसका विश्वास भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है। आज ज़रूरत है पारदर्शिता की — जनता को सच बताए जाने की, और यह स्वीकार करने की कि क्या हम वास्तव में उस स्तर पर हैं जहां से हम इन शत्रुओं को समाप्त कर सकें।

पाक-अधिकृत कश्मीर पर संसद का संकल्प

भारत की संसद ने 10 अगस्त 1994 को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) भी भारत का हिस्सा है। लेकिन उस प्रस्ताव को लागू करने की दिशा में अब तक कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया गया है। यह स्थिति केवल जनता में असंतोष को जन्म देती है।

भारतीय नागरिक वर्षों से आशा लगाए बैठे हैं कि सरकार इस प्रस्ताव पर अमल करेगी। पर हर चुनाव में केवल वादे दोहराए जाते हैं। यदि सरकार वास्तव में PoK को पुनः भारत में शामिल करना चाहती है, तो यह काम भी आतंकवाद की जड़ को काटने जैसा ही होगा। क्योंकि जब तक पीओके पाकिस्तान के कब्ज़े में रहेगा, तब तक वहां से आतंक का प्रसार होता रहेगा।

आतंकवाद की फसल को जड़ से उखाड़ो

हाफ़िज़, मसूद और सलाउद्दीन केवल व्यक्ति नहीं हैं, ये विचारधारा के प्रतीक हैं। इनके जिंदा रहने का मतलब है, युवाओं को गुमराह करने का सिलसिला चलता रहेगा, आतंक की फसल कटती रहेगी, और निर्दोष लोग हर रोज़ मरते रहेंगे। ये तीनों पाकिस्तान की ‘स्टेट स्पॉन्सर्ड टेररिज़्म’ नीति के सबसे बड़े चेहरे हैं। इनका अंत केवल तीन लोगों की मौत नहीं होगी, यह भारत की उस लड़ाई की जीत होगी जो वह दशकों से लड़ रहा है।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की भूमिका

भारत को केवल सैन्य स्तर पर नहीं, बल्कि कूटनीतिक स्तर पर भी अपनी लड़ाई तेज करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र, FATF, इंटरपोल जैसे वैश्विक मंचों पर भारत ने कई बार इन आतंकियों को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने में सफलता पाई है। लेकिन इससे आगे जाकर अब यह मांग होनी चाहिए कि पाकिस्तान पर वास्तविक दबाव डाला जाए। जिन देशों ने आतंक के खिलाफ विश्व युद्ध छेड़ा है, उन्हें भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। आतंकवाद किसी एक देश की समस्या नहीं, वैश्विक संकट है — और इसका समाधान भी वैश्विक स्तर पर ही संभव है।

अब और नहीं

भारत की जनता थक चुकी है — भाषणों से, घोषणाओं से, और केवल प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से। अब समय है निर्णायक कार्रवाई का। देश के युवाओं को, जवानों को, और आम नागरिकों को यह विश्वास चाहिए कि उनका देश आतंक के खिलाफ खड़ा है — पूरे संकल्प और शक्ति के साथ। हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन का अंत भारत की सुरक्षा का पहला चरण होगा। जब तक ये जिंदा हैं, तब तक शांति की कल्पना करना व्यर्थ है। भारत को चाहिए इनका सिर — और यह मांग कोई तात्कालिक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक स्थायी राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए।

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