सरोज कुमार
देश के बैंकों को बैड लोन के बोझ से हल्का करने के लिए सरकार ने अब एक बुरे बैंक यानी बैड बैंक की स्थापना की है। व्यावसायिक बैंकों के बैड लोन इस बैंक में डाले जाएंगे, और वहां से भला-चंगा होकर वापस बैंकों में लौट आएंगे, ऐसा कहा जा रहा है। यह पूरी प्रक्रिया कुछ नियमों के तहत संचालित होगी, और यदि यह कोशिश सफल रही तो इससे बैंकों की सेहत सुधरेगी, कर्ज देने की क्षमता बढ़ेगी, उनका लाभ बढ़ेगा और अंत में अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। बैंक का नाम बुरा भले है, लेकिन उद्देश्य भला है। भला होगा या नहीं, होगा तो कितना होगा और किसका होगा? ये अहम प्रश्न हैं। मार्च 2021 तक के बही खाते के अनुसार, बैंकों पर कुल 8.34 लाख करोड़ रुपए बैड लोन का बोझ है। इसमें से दो लाख करोड़ रुपए की सफाई का काम बैड बैंक को सौंपा गया है।
बैड लोन को अर्थशास्त्र की भाषा में गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) कहते हैं। बैंक जो ऋण बांटता है, वह उसकी संपत्ति होती है। उस संपत्ति से मिलने वाला ब्याज बैंक की कमाई होती है। उसी कमाई से बैंक अपने जमाकर्ताओं को जमा पर ब्याज देता है, लेनदारों को नए ऋण वितरित करता है, कर्मचारियों को वेतन देता है और सरकार को लाभांश भी देता है। लेनदार अगर अपनी देनदारी तय तिथि से 90 दिनों तक नहीं चुका पाता तो भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) उसे बुरा ऋण या एनपीए मान लेता है। एनपीए में भी तीन श्रेणियां हैं। कोई ऋण या संपत्ति साल भर या इससे कम अवधि तक एनपीए है तो उसे घटिया संपत्ति की श्रेणी में रखा जाता है। एनपीए की अवधि साल भर से अधिक हो चुकी है तो वह संदिग्ध श्रेणी में है और यदि संपत्ति का मूल्य इतना कम हो गया है कि उसे बैंक की संपत्ति मानने में भी घाटा हो रहा है तो उसे घाटे वाली संपत्ति की श्रेणी में रखा जाता है। बुरा बैंक ऐसी ही संपत्तियों की सफाई के लिए है।
बैड बैंक का विचार सबसे पहले 1988 में अमेरिका में पिट्सबर्ग मुख्यालय वाले मेलोन बैंक ने पेश किया था। मेलोन बैंक ने अपने 1.4 अरब डॉलर के बैड लोन को रखने के लिए ग्रांट स्ट्रीट नेशनल बैंक की स्थापना की थी। प्रारंभ में फेडरल रिजर्व ने इसे मंजूरी देने में आनाकानी की, लेकिन बैंक के सीईओ फ्रैंक काहौएट के जोर देने पर अंत में उसे मंजूरी देनी पड़ी थी। बैंक अपने उद्देश्य में सफल रहा, और यहां तक कि निवेशकों को भी मुनाफा हुआ था। उद्देश्य हासिल हो जाने के बाद 1995 में इस बैड बैंक को भंग कर दिया गया। इसके बाद समय-समय पर कई देशों में बैंकों के बैड लोन की सफाई के लिए बैड बैंक स्थापित किए गए और वे सफल भी रहे। साल 2008 की मंदी के दौरान भी अमेरिका और आयरलैंड में बैड बैंक स्थापित किए गए और वे सफल रहे थे। लेकिन इंडोनेशिया में 1998 में स्थापित इंडोनेशियन बैंक रीस्ट्रक्चरिंग एजेंसी (आइबीआरए) अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाई।
भारत में एनपीए की समस्या सामने आने के बाद आरबीआइ के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने 2015 में बैड बैंक की बहस शुरू की थी। आर्थिक सर्वेक्षण 2017 में बैड बैंक का विचार रखा गया, और पब्लिक सेक्टर एसेट्स रिहेबिलिटेशन एजेंसी (पीएआरए) के गठन का सुझाव दिया गया। अंतरिम वित्तमंत्री के रूप में पीयूष गोयल ने बैड बैंक के विचार को आगे बढ़ाते हुए नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लि.(एनएआरसीएल) की संभाव्यता का अध्ययन करने के लिए सुनील मेहता के नेतृत्व में एक समिति गठित की थी। मौजूदा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में एनएआरसीएल का प्रस्ताव किया। आरबीआइ ने इस कंपनी को अब लाइसेंस दे दिया है। सरकार ने पिछले महीने यानी सितंबर में इस कंपनी के लिए बतौर गारंटी 30,600 करोड़ रुपए मंजूर कर दिए हैं। कंपनी में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 51 फीसदी स्वामित्व होगा। इसके अतिरिक्त सरकारी बैंक और निजी वित्तीय संस्थान मिलकर एक इंडिया डेब्ट रिसलूशन कंपनी (आइडीआरसी) बनाएंगे, और इस कंपनी में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी की सीमा 49 फीसदी होगी।
एनएआरसीएल का लक्ष्य दो लाख करोड़ रुपए बैड लोन की सफाई करने का है। प्रथम चरण में 90 हजार करोड़ रुपए के बैड लोन लिए जाएंगे। एनएआरसीएल और बैंकों के बीच बैड लोन की एक कीमत निर्धारित होगी, और उस कीमत का 15 फीसदी हिस्सा बैंकों को तत्काल नकद दे दिया जाएगा, और बाकी 85 फीसदी का जमानती बांड दिया जाएगा। बुरा बैंक जब बुरी संपत्ति का अधिग्रहण कर लेगा, उसके बाद आइडीआरसी इस संपत्ति का प्रबंधन करेगी और उसके अंतिम समाधान के लिए बाजार में उसकी कीमत बढ़ाने की कोशिश करेगी। समाधान से प्राप्त होने वाली रकम से जमानती बांड को नकदी में बदल दिया जाएगा। यदि बुरी संपत्ति की बिक्री से उतनी कमाई नहीं होती है, जितने पर बैंकों के साथ सहमति बनी है तो अंतर वाली राशि की भरपाई सरकार करेगी। सरकार का अर्थ आम जनता होता है। यानी इस पूरी प्रक्रिया में जो भी घाटा होगा, उसकी भरपाई आम जनता को करनी है। असल मुद्दा यही है। जनता की कीमत पर कॉरपोरेट द्वारा पैदा किए गए घाटे की भरपाई।
बैंक आम जनता के जमा पैसों से चलते हैं। लेकिन बैंकों की तरफ से बांटा गया ऋण जब एनपीए होता है, और बैंकों की हालत पतली होती है तो आम जनता को दोहरी मार खानी पड़ती है। एक तो उसकी जमा राशि पर ब्याज घट जाता है, दूसरे एनपीए की सफाई के लिए जो भी कदम उठाए जाते हैं, उसका बोझ भी उसे ही उठाना पड़ता है। लेकिन इस पूरे खेल के पीछे का खिलाड़ी बगैर कोई नुकसान उठाए बच निकता है। कई बार तो वह अलग कंपनी के जरिए दोबारा एनपीए का खेल खेलता है। बैंकों से ऋण लेना, उसे एनपीए बनाना और फिर उसकी भरपाई का बोझ आम जनता के सिर डाल देना आज बाजार का शगल बनता जा रहा है। अफसोस इस बात का कि व्यवस्था इस खेल को रोक पाने विफल है।
देश की अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2003-04 से लेकर वित्त वर्ष 2007-08 के दौरान सरपट भाग रही थी। पांच वर्षों की इस अवधि में औसत विकास दर 8.7 फीसदी थी, और 2006-07 में तो यह 9.6 फीसदी पर पहुंच गई थी। बैंकों ने कॉरपोरेट घरानों को आंख मूंद कर कुछ बड़े ऋण बांट दिए। ऋण देने के दौरान परियोजनाओं का कोई आंकलन भी नहीं किया गया। इसी बीच 2008 की मंदी आई और कई सारी परियोजनाएं रुक गईं। कंपनियां ऋण का पुनर्भुगतान नहीं कर पाईं। यहीं से बैंकों में बैड लोन की समस्या शुरू हुई। बैंकों की सेहत बिगड़ने लगी, जिसके कारण उन्होंने बड़े ऋण देने बंद कर दिए। अच्छी परियोजनाओं के लिए भी ऋण मिलना मुश्किल हो गया। अर्थव्यवस्था नीचे जाने लगी। साल 2014 में सरकार बदल गई, लेकिन व्यवस्था नहीं बदली। कई बैंक धोखाधड़ियां सामने आईं और एनपीए बढ़ता गया। आरबीआइ के आकड़े के अनुसार, वित्त वर्ष 2008-09 से 2013-14 तक जो सकल एनपीए लगभग पांच लाख करोड़ रुपए था, वह वित्त वर्ष 2014-15 से 2019-20 तक की अवधि के दौरान बढ़कर 18.28 लाख करोड़ रुपए हो गया। एनपीए में यह वृद्धि लगभग 365 फीसदी बैठती है।
सरकार और आरबीआई ने एनपीए के समाधान के लिए कई कदम उठाए, जिनमें 2015 का रणनीतिक कर्ज पुनर्गठन योजना, 2016 का इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आइबीसी), और सरकारी बैंकों के विलय और बैंकों के पुनर्पूंजीकरण जैसे कदम शामिल हैं। वित्त वर्ष 2017-18 में 90 हजार करोड़ रुपए, 2018-19 में एक लाख छह हजार करोड़ रुपए, 2019-20 में 70 हजार करोड़ रुपए, 2020-21 में 20 हजार करोड़ रुपए और 2021-22 में 20 हजार करोड़ रुपए सरकार ने बैंकों में डाले हैं या प्रस्तावित किए हैं। यदि एनपीए की समस्या नहीं होती तो तीन लाख छह हजार करोड़ रुपए की यह रकम बैंकों में जाने के बदले लोक कल्याणकारी योजनाओं में खर्च होती और आम आदमी को राहत मिलता। बहरहाल, सरकार के इन कदमों से मार्च अंत तक एनपीए घटकर 8.34 लाख करोड़ रुपए हो गया, और अब बैड बैंक के जरिए इसे और नीचे लाने की सरकार की कोशिश है। लेकिन महामारी इस काम को कठिन बना रही है। आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रपट (एफएसआर) के अनुसार, व्यावसायिक बैंकों का सकल एनपीए अनुपात मार्च 2022 तक बढ़कर 9.8 फीसदी हो जाएगा और यह 11.22 फीसदी तक भी जा सकता है। जबकि मार्च 2021 में यह अनुपात 7.48 फीसदी था। यानी मार्च 2022 तक एनपीए एक बार फिर 10 लाख करोड़ रुपए की सीमा पार कर सकता है। अब इसमें बुरा बैंक कितनी मदद कर पाता है, यह देखने की बात होगी।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)
इसे भी पढ़ें – किसने दिलवाई अमिताभ बच्चन को हिंदी सिनेमा में इंट्री?
Share this content: