कहानी – ग्रीटिंग कार्ड

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हरिगोविंद विश्वकर्मा

आज पहली जनवरी थी। दिल्ली में भी कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। भरपूर कपड़े पहनने के बाद भी शैल को काफी ठंड लग रही थी, ठीक कश्मीर की तरह। छात्र जीवन पर बारह साल की मोटी परत चढ़ गई थी, लेकिन उसको लग रहा था कि कल की ही तो बात है। कॉलेज, कैंपस, पढ़ाई, प्रैक्टिकल, चुहलबाज़ी, मौज़–मस्ती बग़ैरह उसके मानस–पटल पर घूमने लगे।

शैल के हाथ में एक न्यू ईयर का ग्रीटिंग कार्ड था। वह निगहत के लिए था, जो अपने घर पर उसकी राह देख रही थी। निगहत से जीवन में दोबारा मुलाक़ात होगी, यह उसने सोचा भी नहीं था।

संयोग से कल शाम उसने राजधानी में ही रहने वाले एक पत्रकार मित्र मधुप से कुशल–क्षेम पूछने के लिए ‘सरला’ पत्रिका के दफ़्तर में फोन किया और अचानक से जीवन की पूरी धारा ही बदल गई।

–हैलो! यह सरला पत्रिका का दफ़्तर है?

–जी हां, बोलिए। उधर से महिला का आवाज़ गूंजी।

–जी नमस्कार, मधुप जी से बात हो सकती है क्या?

–शैल तुम..। फोन उठाने वाली महिला अचानक से बोल पड़ी।

–अरे… निगहत तुम! तुम ही बोल रही हो न…? ज़रूर तुम निगहत ही हो! कम से कम मैं तुम्हारी आवाज़ को पहचानने में भूल नहीं कर सकता।

–लेकिन तुम बोल कहां से रहे हो? मेरा मतलब दिल्ली से या बाहर…

–यहीं राजधानी में हूं। आईटीओ के एक पब्लिक बूथ से बोल रहा हूं।

–तुम लोकेशन बताओ, मैं अभी आती हूं। नहीं तो, तुम फिर ग़ायब हो जाओगे। वही कॉलेज के दिनों वाली हडबड़ी। वही ज़िद।

–नहीं, तुम मत आओ, कल मैं ही मिलता हूं, तुम्हारे दफ़्तर में। शैल ने कहा।

–फिर ऑफ़िस नहीं, घर आ जाओ। पटपड़गंज में रहती हूं। मैं छुट्टी ले लेती हूं। निगहत बोली, –पर आज ही आ जाओ न, प्लीज़। प्लीज़ शैल!

–ऐसे क्यों बोल रही हो। शैल ने कहा, –आज ही आ जाता, लेकिन एक मित्र हैं, वह कॉफी हाउस में मेरा इंतज़ार करेंगे। तुम बोलो तो उनको मना कर दूं।

–नहीं, मत मना करो उन्हें। निगहत बुझ सी गई थी, फिर बोली, –कहो तो मैं भी कॉफी हाउस में आ जाऊं।

–नहीं यार, वहां दो लोगों से बात नहीं कर पाऊंगा। मैं तुमसे अकेले में मिलना चाहता हूं। ख़ूब सारी बातें करना चाहता हूं।

–तब आज कॉफी हाउस से सीधे मेरे घर आ जाओ न। या तो बोलो तो कनॉट प्लेस से मैं ही तुम्हें पिक कर लूं।

–पता नहीं, उनके साथ कब तक बैठना पड़ेगा। तुम्हें बुला कर इंतज़ार करवाना, मुझे गवारा नहीं यार।

–मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं शैल। निगहत बोली, –तुम्हें लेने के लिए मैं आती हूं।

–समझने की कोशिश करो न। कल मैं आ रहा हूं न तुम्हारे घर। पहले का प्रोग्राम बन चुका है, वरना रद कर देता।

–ठीक है बाबा, कल ही आना। लेकिन सुबह ही आ जाना। लंच घर पर ही साथ में करेंगे।

–ओके बॉस। अरे हां, सुनो तो, कल पहली जनवरी है। नए साल का ग्रीटिंग कार्ड लेता आऊं क्या? तुम लोगी न?

–तुम बिल्कुल नहीं बदले शैल… अब तो तुम्हें आज ही आना पड़ेगा। मैं कोई बहाना नहीं सुनूंगी।

–तुम क्या बदल गई…? तुम तो और भी नहीं बदली। वही कॉलेज वाली निगहत।

पब्लिक बूथ था। फोन करने के लिए कई लोग खड़े थे। शैल की बातचीत लंबी खिंचते देखकर कई लोग मन ही मन कुढ़ने लगे थे। तीन मिनट की टिप–टिप अलार्म कई बार बज चुकी थी।

–पब्लिक बूथ से बोल रहा हूं। पता बताओ और घर पर फोन हो तो उसका भी नंबर बता दो।

निगहत ने पता बताया और घर का फोन नंबर भी दिया। फिर चेक करवाया कि शैल ने सही नोट किया है या नहीं।

–तो रखूं फोन…।

–अब मैं क्या बोलूं… तुमने तो लंबी चौड़ी प्लानिंग करने के बाद मुझे कॉल किया।

–नहीं यार, ऐसी बात नहीं है। थैंक्स गॉड कि संयोग से तुमसे बात हो गई। नहीं–नहीं, संयोग नहीं, भाग्य से। मेरे भाग्य से। अब रखता हूं। कल मिलूंगा। तुम्हारे घर।

–ठीक है… निगहत का अंतिम शब्द ठहरा हुआ सा था। वह महज़ एक शब्द नहीं था। वह पूरा वाक्य था। वाक्य भी नहीं, पूरा पेसेज, जिसने उसकी मनःस्थिति का पूरा वर्णन कर दिया।

फोन रखने के बाद शैल का भी मूड ऑफ़ हो गया। उसका मन किया कि गीतेश को मना कर दे, कि आज नहीं मिल पाएगा और निगहत से मिलने आज ही उसके घर चला जाए। अगले पल उसने सोचा, घर पर कहां बात हो पाएगी। उसके हसबैंड और बच्चे भी तो होंगे। क्यों न उसे कल कनॉट प्लेस ही बुला लिया जाए। कम से कम बारह साल बाद खुल कर और जी भरकर बात तो हो पाएगी।

शैल पब्लिक बूथ के पास ही खड़ा रहा। कई लोग फोन करके चले गए तो उसने फिर फोन लगा दिया।

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–हैलो। सरला मैगज़ीन।

–अरे दोबारा तुम्हारा कॉल। बोलो न, मैं ही बोल रही हूं, निगहत चहक पड़ी, –आज मधुप जी अवकाश पर हैं, तो सारे कॉल मैं ही अटेंड कर रही हूं। अच्छा दोबारा कॉल क्यों किया? कॉफी हाउस वाला प्रोग्राम रद कर दिया क्या?

–नहीं, हम कल ही मिलेंगे। मैं कह रहा था, घर पर न मिलकर कनॉट प्लेस मिलें तो…?

–घर में तुम्हें क्या तकलीफ़ है? मेरे घर नहीं आना चाहते क्या?

–नहीं, ऐसी बात नहीं है।

–जैसा तुम सोच रहे हो, वैसा कुछ भी नहीं है। तुम आ जाओ बस। बिंदास। मेरा घर भी देख लेना। मेरी अपनी कमाई से बनाया आशियाना!

–ठीक है।

–पक्का आना, प्लीज़ शैल।

–अरे तुमसे न मिलने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। यह तो कल्पना से भी परे है। तो मैं कल सुबह आता हूं तुम्हारे घर।

शैल ने फोन रख दिया। वह सोचने लगा कि निगहत ने ऐसा क्यों कहा कि जैसा तुम सोच रहे हो, वैसा कुछ भी नहीं है। इसका मतलब। वह दुविधा में पड़ गया। फिर वह कनॉट प्लेस की ओर निकल गया। कॉफी हाउस में गीतेश से मिलने। उनसे मिला, लेकिन उसे मज़ा नहीं आया। वह पछता रहा था। उसे आज ही निगहत से मिलने जाना चाहिए था। बहरहाल, गीतेश से मिलने के बाद होटल चला गया।

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पटपड़गंज की उस कॉलोनी में पहुंचकर शैल ने ऑटो रिक्शा छोड़ दिया। वह बिल्डिंगों के नाम और नंबर पढ़ता हुआ आगे बढ़ा जा रहा था।

उसने हाथ में ग्रीटिंग कार्ड कस कर जकड़ा हुआ था। जैसे वह गिरा जा रहा हो।

सहसा शैल अतीत में चला गया। जौनपुर के एक मशहूर कॉलेज के बीएससी फर्स्ट ईयर के दिन उसे याद आने लगे। वह दिन उसे अब तक जस का तस याद है, जब संयोग से निगहत से मुलाकात हुई थी।

वह बुधवार का दिन था। केमिस्ट्री लैब का एक घंटे गुज़र चुका था। सभी छात्र मिक्सचर एनालिसिस करने में मशगूल थे। शैल अपने प्रयोग घंटे भर में ही ख़त्म कर लेता था और बचे हुए समय में इधर–उधर चहल–क़दमी करता या दूसरे छात्रों को प्रयोग करते हुए देखता था और कभी–कभार ज़रूरत पड़ने पर मदद भी कर देता था। आज उसने अपना प्रयोग पौने घंटे में ही ख़त्म कर लिया। अभी उसे सवा दो घंटे ख़र्च करने थे। कुछ देर इधर–उधर घूमता रहा। फिर उसे लगा कुछ पढ़ना चाहिए और अपनी सीट पर आ गया। केमिट्री प्रैक्टिकल के लैब के टेबल बहुत बड़े होते हैं। उनकी डिज़ाइन इस तरह होती है कि बीच में एसिड, केमिकल कंपाउंड्स और दूसरे केमिकल्स कांच की बर्तनों में रखे जा सके। एक टेबल पर चार छात्र प्रयोग करते हैं। छात्रों का मुंह एक दूसरे की ओर होता है।

शैल अपनी सीट पर खड़े–खड़े ही फिज़िक्स की किताब निकाल लिया। आज फिज़िक्स में ‘मोमेंट ऑफ़ इनर्शिया’ पढ़ाया गया था। लिहाज़ा, वही चैप्टर पढ़ने लगा। अचानक उसकी नज़र सामने गई। एक अजनबी छात्रा थी। उसका मुंह शैल की ओर था। वह परेशान दिख रही थी। शायद उसका मिक्स्चर एनालिसिस ठीक से नहीं हो पा रहा था। वह बार–बार शैल की ओर देख रही थी। मामला लड़की का था, सो शैल ने नज़रअदाज़ कर दिया और मोमेंट ऑफ़ इनर्शिया के बारे में पढ़ने लगा। बीच में उसकी निग़ाह फिर उस छात्रा पर गई। वह अब भी परेशान थी, उसकी ओर बार–बार देख रही थी और प्रयोग भी बार–बार कर रही थी। शैल की नज़र अचानक से उस पर ठहर गई। उसकी आंखों में अजीब सी कशिश थी।

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दरअसल, आज केमिस्ट्री प्रैक्टिकल का पहला दिन था। प्रैक्टिकल के लिए उसके बैच में बीज़ेडसी यानी बायोलॉजी–ज़ूलॉजी–केमिस्ट्री फ़ैकल्टी के एक बैच के छात्रों को मिला दिया गया था। अब पूरे साल भर उसे हफ़्ते में तीन दिन बीज़ेडसी के छात्रों के साथ प्रैक्टिकल करनी थी। उसके सामने की दोनों लड़कियां भी बीज़ेडसी की थीं, जबकि शैल पीसीएम यानी फिज़िक्स–केमिस्ट्री मैथ्स फ़ैकल्टी में था।

शैल देहाती पृष्ठभूमि का था और उसकी इंटरमीडिएट तक पढ़ाई देहात के जूनियर कॉलेज में हुई थी। लिहाज़ा, वह बहुत संकोची प्रवृत्ति का था। फिर उस छात्रा से पहली बार रूबरू हुआ था। सो, उसे जानता भी नहीं था। वैसे भी लड़कियों के मामले में वह बहुत अधिक डरपोक था। लड़कियों से डरता भी बहुत था कि पता नहीं कौन सी बात उन्हें बुरी लग जाए और कोई निगेटिव रिएक्शन दे दें। यही सोचकर वह बोलने का साहस नहीं जुटा पाया। फिर अभी तक इस कॉलेज में उसने किसी भी लड़की से बातचीत नहीं की थी। पीसीएम में भी चार छात्राएं थी, लेकिन उनसे भी उसकी बातचीत अभी तक नहीं हुई थी।

वैसे वह एक बार एक लड़की के गाली का स्वाद चख चुका था। दरअसल, गांव में अपने दोस्त के साथ साइकल से कहीं जा रहा था। दोस्त ने शरारत करते हुए, रास्ते चल रही एक अजनबी युवती से अचानक बोल पड़ा, ‘काहो, कहां जात हऊ। छोड़ देई का?’ शरारत दोस्त ने की।

लेकिन लड़की की आग्नेय दृष्टि शैल पर पड़ी। वह बुदबुदाकर बोली थी, ‘निबहुरू, उफ्फरपरइ जा… तोहरे माई–बहिन नाही बाहिन का…’

कुल मिलाकर शैल इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि लड़कियां छेड़छाड़ को लेकर इतनी संवेदनशील और सतर्क होती हैं कि उन्हें ज़रा भी लगा कि कोई ग़लत इन्टेंशन से उनसे बात कर रहा है, तो वे अचानक से आक्रामक हो जाती हैं। इसीलिए वह मानता था कि लड़कियों का कुछ भरोसा नहीं कि कब उबल पड़ें और उल्टी–सीधी बातें सुना दें। पढ़ने में वह भले तीसमार खां था, लेकिन लड़कियों के मामले में एकदम फिसड्डी। अपने कॉलेज में बारहवीं की लड़कियों से भी बात करने में उसे झिझक महसूस होती थी। शायद इसीलिए उसके भाई की सालियां उसे ‘बूद्धू’ कह कर चिढ़ाती थीं।

वह छात्रा अब भी बार–बार उसे देखे जा रही थी। सो, उसकी भी नज़र बीच–बीच में उस ओर जाने लगी। अंततः उसका मन मोमेंट ऑफ़ इनर्शिया से बाहर आ गया। वह लगातार देखने लगा। पता नहीं क्या था उस छात्रा की नज़रों में कि शैल की निग़ाह उस पर अटक गई। वह असामान्य हो उठा।

उसने निष्कर्ष निकाला कि वह शर्तिया मदद चाहती है। परंतु झिझक के कारण बोल नहीं पा रही है, शायद उसकी ही तरह संकोच कर रही है।

इस बीच मदद की गरज से छात्रा ने फिर शैल की ओर देखा। इससे शैल को बोलने की ऊर्जा मिल गई।

–नहीं आ रहा है क्या आपका सही रिज़ल्ट? उसके मुंह से निकल गया।

–हां जी। दरअसल, छात्रा परखनली लेकर शैल के पास चली आई। क्लास में लड़की सामने देखकर उसकी घिग्घी बंध गई। वह अपनी पहल के ऐसे रिस्पॉन्स के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था। लिहाज़ा, वह लिटरली बोल ही नहीं पा रहा था। एक तरह से वह हकलाने लगा।

छात्रा समझदार थी। उसने शैल की मनःस्थित को तुरंत भांप लिया। वह अपनी सीट पर वापस चली गई। शैल ने राहत की सांस ली। नज़र चुराकर उसकी ओर देखा। छात्रा मुस्करा रही थी। उसे अपनी बचकानी हरकत पर कोफ़्त हुई। क्या सोच रही होगी वह, उस समय शैल ने यही सोचा।

बहरहाल, लैब इंस्ट्रक्टर नहीं उस वक़्त लैब में थे, इसलिए फ़ौरन हिम्मत करके शैल ख़ुद छात्रा के पास गया और परखनली में कौन–कौन सा रसायन डालना है, यह बताने लगा। क़रीब बीस मिनट में लड़की के विलियन का रीडिंग सही आ गया।

–शुक्रिया! छात्रा धीरे से उसकी ओर देखते हुए बोली।

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यह तो बस शुरूआत थी। उसके बाद उनका रिश्ता दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया। दोनों बहुत अच्छे दोस्त बन गए। इतने अच्छे दोस्त बन गए कि उनके मेलजोल की नोटिस ली जाने लगी। उन्हीं दिनों शौमैन राजकपूर की सुपरहिट फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म में मंदिकिनी वॉटरफॉल के नीचे सेमीन्यूड बाथ को लेकर ख़ासी चर्चा में थी। जौनपुर में भी इस फिल्म ने धूम मचा रखी थी। चारों शो हाउसफुल चल रहे थे। एक दिन अपने मित्र के साथ शैल भी फिल्म देखने पहुंच गया। सिनेमाघर के सामने सिनेमाप्रेमियों की भारी भीड़ थी। लिहाज़ा, बहुत प्रयास के बाद भी उन्हें टिकट नहीं मिल सका। ब्लैक टिकट ख़रीदने की उनकी हैसियत नहीं थी। वे वापस हो ही रहे थे कि कॉलेज की वही छात्रा दिख गई। वह फ़ौरन शैल के पास भागी–भागी आई।

–आप यहां? क्या बात है? छात्रा फिर मुस्करा दी, –राम तेरी गंगा मैली देखने आए हैं। बहुत ख़ूब।

–टिकट ही नहीं मिला तो फिल्म क्या ख़ाक देखेंगे। शैल अपसेट हो गया था।

–कितने लोग हैं आप, कितना टिकट चाहिए। मेरी पहचान है, टिकट की व्यवस्था मैं करवा देती हूं। यह मेरे पापा के क़रीबी दोस्त का सिनेमाघर है। जब फिल्म देखना रहे, बता दिया करें। उस छात्रा ने कहा।

वाक़ई छात्रा ने उनके लिए दो टिकट मंगवा भी दी। शैल को तब बुरा लगा, जब उसने टिकट के पैसे लेने से साफ़ इनकार कर दिया।

बहरहाल, हाल की बालकनी में शैल की सीट छात्रा की सीट से काफी दूर थी, इसके बादजूद उसे फिल्म देखने में बहुत मज़ा आया। उसका मित्र भी तो फुला नहीं समा रहा था।

–अच्छी पहचान है तुम्हारी दोस्त की। प्रभावशाली है। फिल्म देखने के बाद यह उसके दोस्त की प्रतिक्रिया थी।

चार महीने में दोनों इतने अच्छे दोस्त बन गए कि उनके बीच की सारी औपचारिकता ख़त्म हो गई। वे अच्छी तरह बातचीत करने लगे थे। पर इतना वक़्त गुज़र जाने के बाद शैल उसका नाम नहीं जान सका था। वह उसे सिक्टी टू कहकर पुकारता थे, क्योंकि उसका रोल नंबर सिक्स्टी टू था।

एक दिन प्रयोग करते समय शैल ने ही उससे पूछा, –सिक्स्टी टू तुम्हारा नाम क्या है?

–तुम्हें पता नहीं है?

–ना… उसने इनकार में सिर हिलाया।

–सच… तुम भी ठहरे पूरे के पूरे बुद्धू यार। निगहत ने व्यंग्य करते हुए कहा, –दोस्ती के चार महीने बाद नाम पूछ रहे हो। तब तो प्यार का इज़हार करने में तो सात जनम लगा दोगे।

-अरे, इतना सुना दिया, अब तो नाम तो बता दो। छात्रा का बुद्धू संबोधन शैल को अच्छा लगा।

–निगहत

–निगहत? इसका मतलब क्या है?

–तुमको नहीं पता?

-नहीं।

-ख़ुशबू, महक!

–अरे वाह, तब तो बड़ा खूबसूरत नाम है, शैल ने कहा था।

–शुक्रिया, निगहत ने कम्प्लीमेंट ग्रहण किया।

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कॉलेज शैल के घर से तक़रीबन तीस किलोमीटर दूर था। सर्दी का मौसम शुरू हो जाने से रोज़ाना अप-डॉउन में बहुत असुविधा होने लगी। सो उसने शहर में ही किराए का घर ले लिया। उस दिन कश्मीर–हिमाचल जैसे राज्यों में बर्फ़बारी होने से अचानक ठंड कुछ ज़्यादा बढ़ गई थी। इस कारण, कॉलेज के लिए निकलने में उसे थोड़ी देर हो गई। पहला पीरियड मैथ का था। उसे किसी भी क़ीमत पर अटेंड करना था। वह तेज़ी से डग भरता हुआ चला जा रहा था। सहसा पीछे से आ रही एक कार पी–पी करने लगी। कार को रास्ता देने के मकसद से वह सड़क से फुटपाथ पर चलने लगा। कार आगे जाने की बजाय उसके पीछे ही पी–पी करती रही। वह झल्ला कर पीछे मुड़ा, लेकिन अगले पल ही उसे काठ मार गया। कार में निगहत एक दूसरी लड़की के साथ बैठी थी। वह पिछली सीट से दरवाजे की विंडो से सिर निकाल कर शैल को देख रही थी। कार रुक गई।

–आओ बैठो न। तुम्हें कॉलेज तक लिफ़्ट दे दूं। उसने मुस्कराते हुए कहा।

निगहत के साथ वाली लड़की कार से उतर पड़ी और ड्राइवर के बग़ल अगली सीट पर बैठने लगी।

शैल निगहत का आग्रह टाल नहीं सका और कार की बढ़ते हुए कहा, –नहीं–नहीं, मैं आगे ही बैठ जाता हूं।

लेकिन तब तक वह लड़की अगली सीट पर बैठ चुकी थी।

–आप पीछे चली जाइए। आगे मैं ही बैठ जाता हूं।

वह लड़की शैल की झिझक समझ गई और वापस पिछली सीट पर जा बैठी।

शैल ड्राइवर के बग़ल बैठ गया। उसने गौर किया कि दूसरी लड़की के चेहरे का फीचर निगहत से मिलता जुलता है।

–ये शाबाना है, मेरी सिस्टर और मेरी बेस्ट फ्रेंड। इसी कॉलेज से ही बीएससी कर रही है, लेकिन दूसरे बैच में है। निगहत ने परिचय करवाया, –शाबाना, आप ही शैल हैं। पीसीएम ग्रुप के स्कॉलर छात्र हैं। केमिस्ट्री प्रैक्टिकल हम लोग साथ में करते हैं। मुझे इनसे काफी कोऑपरेशन मिलता है।

शैल ने शाबाना से औपचारिक अभिवादन किया।

वे लोग रास्ते में इधर–उधर की बात करते हुए कॉलेज के कैंपस में पहुंच गए। गेट पर कार रुक गई और तीनों उतर पड़े। गेट पर शैल और निगहत के कई क्लासमेट्स और परिचित खड़े थे। वे तीनों एक साथ आगे बढ़ गए। निगहत और शाबाना बिंदास थीं, जबकि शैल थोड़ा टेंशन में दिख रहा था। वह चल तो रहा था दो छात्राओं के साथ, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था। वह सोच रहा है कि निगहत के साथ उसकी कार में आना कहीं चर्चा का विषय न बन जाए।

थोड़ी दूर चलने के बाद शाबाना बाय कहकर अपने क्लास की ओर चली गई। निगहत और शैल साथ–साथ केमिस्ट्री लैब की ओर बढ़ गए। वहीं से शैल को मैथमेटिक्स की क्लास में जाना था, जबकि निगहत केमिस्ट्री का क्लास अटेंड करने वाली थी।

–तबीयत ठीक है न तुम्हारी? निगहत ने शैल को टोंका।

–हां, मैं बिल्कुल ठीक हूं।

–फिर थोड़े एबनॉर्मल क्यों दिख रहे हो। तुम्हें इतनी ठंड में पसीना हो रहा है।

–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, मैं एकदम ठीक हूं।

–पहला पीरियड मैथ का है न तुम्हारा?

–ओके मेरा केमिस्ट्री का क्लास है। बाइ। मिलते हैं प्रैक्टिकल में।

–ओके बाइ-बाइ।

शैल की आशंका ग़लत नहीं थी। उसकी निगहत के साथ दोस्ती चर्चित होने लगी। अचानक से वे दोनों सेंटर ऑफ़ अट्रैक्शन में आ गए। निगहत को बायलॉजी के छात्र मैथ कहकर चिढ़ाने लगे, जबकि कई छात्र शैल को मिस्टर बायो कह देते थे। हालांकि इससे कई बार शैल की छात्रों से नोंकझोंक भी हुई। लेकिन उनका नामकरण जो हुआ था, वह ज़्यादा लोगों के तक चला गया। निगहत बिंदास थी, लेकिन शैल टेंशन में रहने लगा। वह अक्सर दूसरे रास्ते से जाने लगा। फिर भी कभी उस रास्ते से गुज़रता तो रास्ते में निगहत उसे साथ ले लेती थी। वे सबके सामने कार से उतरते और बिंदास बात करते हुए अपने–अपने क्लास में चले जाते थे।

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वक़्त के साथ उनकी पढ़ाई चलती रही। सर्दी का मौसम भी गुज़र गया, लेकिन सुबह अब भी सर्द होती थी। वैसे फरवरी का सुहाना महीना था, जब दिन में न तो बहुत ठंड होती है और न ही बहुत गर्मी। एक तरह से अक्टूबर की तरह गुलाबी मौसम। एक दिन गांव से आए अपने चार दोस्तों के साथ पैदल ही चहलक़दमी करते हुए शैल वन–विहार घूमने चला गया। जौनपुर के दक्षिणी ओर बहुत ख़ूबसूरत जगह है। सरकारी होने के कारण थोड़ी उपेक्षित थी, लेकिन फिर भी घूमने के लिए ठीक–ठाक जगह थी। शैल अपने रूम पार्टनर और गांव से आए दो दोस्तों के साथ गुलाब के पौधों के पास बैठकर गपशप कर ही रहा था कि संयोग से वही कार वन–विहार की ओर आती हुई दिखी। जिससे निगहत कॉलेज आया करती थी। जब कार वन–विहार के पार्किंग में पार्क हुई, तब शैल को लगा कि शायद निगहत भी घूमने आई है। आगे वाली से सबसे पहले निगहत बाहर निकली, फिर ड्राइविंग सीट से शाबाना उतरी। पीछे की सीट से दो भद्र महिलाएं और एक किशोर बाहर आया। वे कुल पांच लोग थे। शायद सपरिवार पिकनिक मनाने आए थे। शैल ने महसूस किया कि निगहत ने भी उसे देख लिया, लेकिन वह उसके पास नहीं आई। वे सभी लोग उनसे थोड़ी दूर पार्क के दूसरे छोर पर जाकर बैठ गए।

शैल अपने दोस्तों के साथ गपबाज़ी करता रहा। उसने दोस्तों को नहीं बताया था कि अभी जो महिलाएं आई हैं, उनमें उसकी दोस्त भी है। थोड़ी देर में वे लोग वापस लौटने वाले थे। उसी समय वह किशोर उनके पास आया।

–सर, आपको दीदी बुला रही हैं। उसने शैल से कहा और वापस हो लिया।

शैल ने उन लोगों की ओर देखा, तो निगहत और शाबाना हाथ हिलाकर हाइ कह रही थीं।

शैल के दोस्तों ने सोचा भी नहीं था कि लड़कियों के मामले में बेहद संकोची शैल की कोई लड़की भी दोस्त हो सकती है।

–जाओ शैल बाबू, मिल लो अपनी दोस्त से। बुला रही है। एक दोस्त ने व्यंग्य किया।

शैल निगहत के पास गया। दोनों बहनों ने उसका स्वागत किया और उसने हाथ जोड़कर दोनों भद्र महिलाओं से नमस्ते किया।

–अम्मीजान, ये शैल हैं। मेरे साथ पढ़ते हैं। बहुत अच्छे स्कॉलर हैं। और शैल, ये हमारी अम्मीजान हैं। द मोस्ट इम्पार्टेंट परसन ऑफ़ माई लाइफ़। मुझे बहुत चाहती हैं और ये हैं हमारी ख़ाला। मुझ पर जान छिड़कती हैं और ये जो आपको बुलाने गया था, मेरा छोटा भाई जावेद है।

इस तरह निगहत ने अपने घर के सभी सदस्यों से उसका परिचय करवा दिया। शैल वहीं बहुत देर तक बैठा रहा और बातचीत करता रहा। निगहत की अम्मीजान बहुत अच्छी लगीं।

थोड़ी देर में उन लोगों से विदा लेकर वह अपने दोस्तों के पास वापस आ गया।

–वेलकम हीरो… उसका एक दोस्त बोला, –मान गए गुरू!

कुछ देर और बैठने के बाद चारों दोस्त वापस हो लिए।

रास्ते में जब वे शहर में प्रवेश करने वाले थे, निगहत की कार आती दिखी।

–शैल, तुम्हारी दोस्त भी वापस आ रही है। दूसरे दोस्त ने धीरे से कहा।

शैल ने पीछे देखा तो वाक़ई वही कार बढ़ी चली आ रही थी। जब कार उन लोगों को पार किया तो निगहत शैल को ही देख रही थी और आंखों से ही उसे बाइ–बाइ कहा।

–गुरू, मां कसम, तुम्हें चाहती है। तुम्हारी दोस्त। शैल के दूसरे मित्र ने कहा।

–तुम लोगों को केवल यही दिखता है। एक लड़का, एक लड़की तुम्हारी नज़र में दोस्त नहीं हो सकते। दोस्ती के साथ प्यार शब्द को चिपका ही देते हो। यह बीमार सोच है यार।

-जाने दो यार, अच्छे लोग हैं। वरना बड़े लोग हम जैसे पैदल चलने वालों को कहां पूछते हैं। रूम पार्टनर ने कहा। बहरहाल, शाम को दोनों दोस्त वापस गांव चले गए।

दूसरे दिन प्रैक्टिकल में निगहत बहुत ख़ुश दिख रही थी। अपना मिक्सचर एनालिसिस करते समय बिलियन का रंग दिखाने के बहाने परखनली को लेकर उसके पास चली आई।

–कैसे हो?

–एकदम ठीक हूं। थोड़ा ज़्यादा ही ठीक हूं। शैल चुहल भरे अंदाज़ में बोला।

–हां यार, कल मैं तुम्हें वन विहार में देखकर बहुत ख़ुश हुई। मम्मी और मौसी तुमसे मिलकर बहुत ख़ुश हुईं।

–और मेरे दोस्तों को लगा कि हमारा कोई चक्कर–वक्कर है।

–क्या बात है, चक्कर–वक्कर? सच्ची? निगहत हंसने लगी, फिर बोली, –लेकिन शैल, यह वाक़ई ख़ूबसूरत संयोग है। कभी हम सिनेमा घर में मिल जाते हैं, तो कभी वन विहार में। लगता है छुट्टी के दिन भी हमारा एक दूसरे से न मिलना क़ुदरत को स्वीकार्य नहीं। क्यो? तुम्हारी क्या राय है?

–सही कह रही हो। शैल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

–तुम इतने सीरियस क्यों हो? इतने गुप–चुप क्यों रहते हो? वह दोबारा बोली।

–मेरा स्वभाव ही ऐसा है यार। शैल ने कुछ और न बोलने की गरज से कहा।

निगहत अपने सीट पर चली गई और प्रयोग में व्यस्त हो गई।

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एक दिन प्रयोग के दौरान परखनली में हाइड्रोक्लोरिक एसिड डालते समय थोड़ा एसिड निगहत के बाएं पांव पर गिर गया। वह अचानक से चीख पड़ी। शैल बिजली की गति से उसके पास पहुंचा। उसने तत्काल अपने रूमाल से एसिड पोछ दिया और पांव पर पानी डालने लगा। उसका रूमाल एसिड के कारण टुकड़े–टुकड़े हो गया। इसके बाद वह लैब असिस्टेंस के पास से बरनॉल मांग लाया और अपने हाथ से निगहत के पांव पर लगा दिया। निगहत के आंखों से आंसू गिरने लगे। पता नहीं क्यों वह रोए जा रही थी। शैल का अपनापन और केयर देखकर उसकी आंखें बरस रही थीं या फिर एसिड की जलन से होने वाली पीड़ा से। केमिस्ट्री के सर ने एहतियातन निगहत को डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी। उन्होंने ने ही शैल को उसे गेट तक छोड़ आने को कहा। एचओडी के यहां से लगे फोन से कॉल करके निगहत ने अपनी कार मंगवा ली। पंद्रह मिनट में कार आ गई और शैल ने उसे बिठाकर विदा किया। उस घटना के बाद उनका रिश्ता और घनिष्ठ हो गया। दोनों पूरे कॉलेज में मशहूर हो गए।

यह सब सोचता हुआ शैल पटपड़गंज की उस कॉलोनी में पहुंच गया, जहां निगहत रहती थी। नई दिल्ली से काफी दूर थी वह जगह। निगहत ने एक लैंडमार्क बता दिया था, उसके सहारे शैल उसके घर आसानी से पहुंच गया।

डोर बेल बजाते ही दरवाज़ा खुला। सामने निगहत थी। सफ़ेद परिधान और बालों का जूड़ा बनाए हुए। वही ड्रेस जिसे पहन कर वह कॉलेज आया करता थी और बाल बांधने की वही स्टाइल। एक बार तो शैल को लगा कि वे दोनों केमिस्ट्री लैब में हैं और प्रैक्टिकल कर रहे हैं।

–अंदर आ… निगहत की आवाज़ आर्द्र हो उठी। वह अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर सकी।

बिना कुछ बोले शैल ड्राइंग रूम में आ गया। सोफ़े के सामने वाली आराम कुर्सी में बैठ गया। सोचने लगा कि क्या बोले और कहां से शुरू करे बातचीत। अचानक उसकी नज़र निगहत की ओर गई।

–अरे तुम रो रही हो?

–नहीं यार… फिर तुम्हारे लिए कौन रोएगा? पलायनवादी… बहरहाल बोलो, क्या लोगे? चाय या कॉफी?

–तब काफी ही बना लो।

-ठीक है कॉफी बना लेती हूं, तब बात बैठकर करते हैं। निगहत तुरंत अंदर चली गई।

शैल कमरे का मुआयना करने लगा। निगहत ने बहुत सलीके से अपने ड्राइंग रूम को सजाया था। कमरा उसके घनघोर प्रकृति प्रेमी होने का सबूत दे रहा था। सामने दीवार पर पहाड़ का बड़ा सा नज़ारा। वह इतना मोहक था कि शैल कई मिनट तक उसे निहारता रहा। वहां से नज़र ही नहीं हट रही थी। सहसा उसकी नज़र कॉरनर पीस पर गई। वहां सलीके से एक पुराना ग्रीटिंग कार्ड रखा हुआ था। उसे देखकर शैल चौक सा पड़ा। यह तो वही कार्ड है, जो उसने बारह साल पहले कॉलेज में निगहत को बहुत झिझक, संकोच और डर के साथ दिया था।

निगहत ने उस कार्ड को अब तक सहेज कर रखा है! वह मन ही मन सोचने लगा। कहीं हम दोनों भावनात्मक रूप से दोस्ती की लक्ष्मण रेखा को लांघ तो नहीं गए थे। कहीं निगहत भी मुझसे… नहीं–नहीं, ऐसी कोई बात नहीं थी। हम बेस्ट फ्रेंड ही थे बस। वह फिर अतीत की ओर खिंचने लगा।

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दिसंबर के आख़िरी सप्ताह की एक शाम थी वह। शैल अपने रूप पार्टनर के साथ शहर में पैदल ही घूम रहा था। दस–दस किलोमीटर पैदल चल लेना शैल का शगल था। वह शहर में पैदल ही घूमा करता था। शहर के चप्पे–चप्पे से वाक़िफ हो गया था। उत्तर भारत में रिकॉर्ड तोड़ हिमपात होने से शहर का तापमान बहुत नीचे गिर गया था। शाम को गलन होने लगती थी। मोटा स्वेटर और जर्सी पहनने के बावजूद ठंड लग रही थी। तो वे लोग पॉलिटेक्निक चौराहे से चले तो चहारसू चौराहे पर ही रुके। वहीं पत्र–पत्रिकाओं की एक दुकान पर बहुत रंग–बिरंगी अच्छे–अच्छे ग्रीटिंग कार्ड लटक रहे थे। वहीं कुछ युवा मनपसंद कार्ड देख रहे थे। शैल के पार्टनर ने भी एक कार्ड ले लिया।

–तुम नववर्ष की एक कविता लिखकर इसमें रखो और अपनी फ्रेंड को नए साल पर दे दो।

शैल को आइडिया पंसद आया। निगहत को देने के लिए उसने कार्ड ले लिया। तब तक उनका रिश्ता वर्ष के अंत जैसा प्रगाढ़ नहीं हुआ था, इसके बावजूद शैल उसे नववर्ष का कार्ड देना चाहता था। वह कमरे पर आया और काग़ज़–कलम लेकर नववर्ष की एक कविता लिखने बैठ गया। उसकी कविता रात दो बजे पूरी हुई, लेकिन बढ़िया कविता बन गई।

अब उसे उस नववर्ष की कविता वाले कार्ड को निगहत को देना था। 31 दिसंबर को केमिस्ट्री प्रैक्टिकल नहीं था। लिहाज़ा, मारे झिझक के कार्ड दे नहीं सका। अधिक सर्दी के चलते कॉलेज सप्ताह भर के लिए बंद हो गया। कॉलेज से लौटते समय उसे अपने ऊपर ही क्रोध आ रहा था। कमरे पर भी उखड़ा–उखड़ा सा रहा। पार्टनर ने पूछा तो बता दिया कि कार्ड नहीं दे सका। बहरहाल, उसने तय कर लिया कि छह जनवरी को कॉलेज खुलने पर निगहत को ग्रीटिंग कार्ड दे देगा। लेकिन छह जनवरी को भी वह कार्ड देने का साहस नहीं जुटा पाया। हालांकि कार्ड देने की तरक़ीब उसे ज़रूर मिल गई। निगहत ने उससे ऑर्गैनिक केमिस्ट्री की नोटबुक मांगी थी, जिसे उसने दूसरे दिन देने के लिए कह दिया। हालांकि वह नोटबुक उस समय शैल के पास थी, वह उसमें ग्रीटिंग कार्ड रखना चाहता था।

अगले दिन उसने प्रैक्टिकल की क्लास ख़त्म होने से कुछ समय पहले नोटबुक निगहत को दे दी। ग्रीटिंग कार्ड उसी में रख दिया। दूसरे दिन प्रैक्टिकल की क्लास नहीं थी, लिहाज़ा उनकी अगली मुलाक़ात चार दिन बाद होनी थी।

लेकिन दूसरे दिन कैलकुसल का पीरियड ख़त्म होने से कुछ मिनट पहले उसके बग़ल में बैठे उसके क्लासमेट ने कहा, –शैल, तुम्हारी दोस्त क्लास के बाहर खड़ी है।

शैल अचानक नर्वस हो गया। उसे लगा कि शायद निगहत ने कार्ड का बुरा मान लिया। अब क्या होगा? वह मन ही मन बुदबुदाया।

उसे अपने रूम पार्टनर पर क्रोध आया, जिसने ख़ामख़ाह ही कार्ड देने की सलाह दी थी। क्या ज़रूरत थी कार्ड–वार्ड के चक्कर में पड़ने की। अब सरेआम उसे फटकारेगी। शायद कार्ड उसके मुंह पर दे मारे। सबके सामने ज़लील होना पड़ेगा। उसी समय उसे एक तरक़ीब सूझी। वह कह देगा कि कार्ड ग़लती से नोटबुक में चला गया। आइंदा, ऐसी गुस्ताख़ी नहीं होगी। पीरियड ख़त्म होते ही सर चाक वग़ैरह समेत कर चले गए। सर के जाते ही सभी लड़के शोर मचाने लगे। वह बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। लिहाज़ा, अपनी सीट पर बैठा रहा।

–हीरो, तुम्हारी हिरोइन बाहर तुम्हारी राह देख रही है। एक दबंग किस्म के छात्र उसकी ओर देखकर तेज़ आवाज़ में बोला।

उसी समय निगहत ख़ुद क्लास में आ गई। पूरे क्लास में ख़ामोशी तैर गई, जैसे सर आ गए हों। निगहत ने इशारे से ही उसे बाहर बुलाया। वह सीरियस लग रही थी।

शैल और घबरा गया। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। जाड़े में भी पसीना छूटने लगा। वह हड़बड़ाकर उठा और बाहर आ गया।

निगहत अकेली नहीं थी, उसकी एक सहेली भी साथ में थी। शैल को लगा, अब उसकी खैर नहीं। अच्छी ख़ासी पढ़ाई चल रही थी और उसने बिना वजह मुसीबत अपने घर पर बुला ली।

–सॉरी निगहत। मुझसे ग़लती हो गई यार। दरअसल… वह बाहर निकलते ही बोल पड़ा।

–क्यों? क्या हुआ…? सॉरी क्यों…? निगहत उसकी सॉरी सुनकर हैरान हुई।

–वही, नोटबुक में…

–तुम ग्रीटिंग कार्ड की बात कर रहे हो?

–हां, वो क्या है…

–कार्ड बहुत अच्छा है। सच्ची। उसमें लिखी तुम्हारी कविता बहुत हार्ट–टचिंग है यार… थैंक्यू… इसीलिए मैं भी तुम्हें विश करने आई थी। रियली… यह जानकर बहुत अच्छा लगा कि कोई मेरे बारे में इस तरह सोचता है। थैंक्स अगेन शैल।

–सच्ची! शैल को एक बार तो यक़ीन ही नहीं हुआ।

–हां यार, नववर्ष की कविता सीधे दिल को छू गई। थैंक्यू सो मच एंड विश यू वेरी हैप्पी न्यू ईयर माई बेस्ट फ्रेंड! निगहत अंतिम वाक्य को आंख बंद करके दिल से बोली थी और हाथ आगे बढ़ा दी।

–थैंक्यू–थैंक्यू यार… मैं तो… मैं तो… शैल का सारा तनाव पलक झपकते काफ़ूर हो गया। उसे लगा, वह कोई सपना देख रहा है। शैल उससे पहली बार हाथ मिलाया।

–सच्ची, तुम बहुत भोले हो यार… मैं तो… मैं तो निरुत्तर हो गई। इस पीरियड के बाद चलकर चाय पीते हैं। ठीक है? तुम भी इस क्लास को अटेंड कर लो। मैं भी क्लास ख़त्म करके आती हूं।

–ओके…

निगहत चली गई।

शैल को विश्वास नहीं हुआ कि अभी–अभी जो कुछ हुआ, वह सच है। वह इतना ख़ुश हुआ कि आंखें नम हो उठीं। वॉश–बेसिन की ओर चला गया, मुंह धोने के लिए।

उसे पहली बार लगा कि लड़कियां भी समझदार और संवेदनशील होती हैं और किसी के मन की बात समझ जाती हैं। निगहत तो उसे दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत और सुलझी हुई लड़की लग रही थी। वह कितना भाग्यशाली है कि उसके पास निगहत जैसी सच्ची दोस्त है।

शैल की दुनिया अचानक से गुलज़ार हो उठी। कॉलेज, कक्षाएं, प्रयोगशाला, लॉन, पेड़–पौधे, गोमती नदी और शाही पुल सबसे सौंदर्य बरसने लगा। प्रकृति इतनी सुंदर भी होती है, उसने इतना सौंदर्य भरा है, उसने कभी कल्पना नहीं की थी। उसमें नया आत्मविश्वास भर गया। उसकी रगों में रक्तप्रवाह अचानक से तेज़ हो गया। वह तनावमुक्त हो गया। हर वक़्त तरोताज़ा महसूस करने लगा। उसकी मनोस्थिति का असर पढ़ाई पर भी हुआ। मैथ्स के कठिन से कठिन सवाल उसे जोड़–घटाने जैसे सरल लगने लगे। फिज़िक्स के डिफ़िकल्ट प्रॉब्लम्स और फॉर्मूलों को वह पलक झपकते हल करने लगा। ऑर्गैनिक केमिट्री के लंबे–लंबे सूत्र उसे ज़बानी याद हो गए। फिज़िक्स, केमिस्ट्री और मैथमेटिक्स के जो सवाल अब तक समझ में नहीं आए थे, सब सॉल्व होने लगे। एक तरह से उसका पूरा का पूरा बेसिक कॉन्सेप्ट ही क्लीयर हो गया। एक बार इनऑर्गैनिक केमिस्ट्री के सर क्लास में एक सवाल को लेकर उलझ गए, शैल ने उसे हल करने का फॉर्मूला सुझाया और वाक़ई सवाल हल हो गया। उस दिन सर उससे बहुत प्रभावित हुए और उनके मुंह से ‘यू आर जीनियस’ निकला था। उसने भी महसूस किया कि पढ़ाई की ओर उसका ध्यान अचानक से बहुत ज़्यादा हो गया है। बीएससी पार्ट वन में तीनों विषयों में ऐसा कोई सवाल नहीं था, जिसे वह सॉल्व न कर सके। फिज़िक्स का पहला पार्ट पढ़ाने वाले सर ने तो क्लास में ही घोषणा कर दी कि शैल इस साल यूनिवर्सिटी में टॉप करके कॉलेज का नाम रौशन करने जा रहा है। सारे स्टूडेंट कहीं समस्या आती तो निःसंकोच उसके पास चले आते थे। निगहत का तो वह एक तरह से ट्यूटर बन गया। उसके मार्गदर्शन का असर निगहत पर साफ़ दिखा। बीज़ेडसी में वह सबसे तेज़ छात्रा बन गई। उनकी दोस्ती दिनों–दिन प्रगाढ़ होती गई। दोनों को लगने लगा कि वे एक दूसरे के लिए बहुत लकी हैं।

Greeting-Card1-1-225x300 कहानी - ग्रीटिंग कार्ड

वन विहार में निगहत से मुलाकात के बाद शैल अक्सर वहां जाने लगा। वहां की आबोहवा बहुत सुकून देती थी। वह कभी–कभी सोचता कि इतनी ख़ुशी संभालेगा कैसे। जैसा कि होता है, यह दुनिया उतनी सुंदर और हसीन नहीं है, जितनी बाहर से दिखती है। यह दुनिया एक तालाब सरीखी है, जहां ऐसी भी मछलियां होती हैं, जो पूरे तालाब को गंदा करने का हुनर रखती हैं। कॉलेज में केमिस्ट्री के रीडर एसके सिन्हा ऐसी ही मछली थे। इतना इत्र लगाते थे कि कॉलेज में उनका नाम ही ख़ुशबू पड़ गया था। वह रसिक और दिलफेंक मिज़ाज के थे। उन्हें हर साल किसी न किसी छात्रा से मोहब्बत हो जाया करती थी। इस साल उनके सपनों में निगहत बस गई थी। एक बार निगहत ने ही शैल को बताया था कि सिन्हा सर का एटीट्यूड उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। सिन्हा को शैल अपनी राह का काँटा लगा। उन्होंने कॉंटे को निकाल फेंकने का फ़ैसला किया, लेकिन इसकी भनक शैल को नहीं लगी।

बीएससी की परीक्षा में केमिस्ट्री पेपर का प्रैक्टिकल सबसे अंत में हुआ।

प्रैक्टिकल के बाद निगहत शैल के पास आई। प्रथम वर्ष की उनकी यह आख़िरी मुलाक़ात थी। अगले साल उन्हें साथ प्रैक्टिकल करने का मौक़ा मिलेगा या नहीं, यह अनिश्चित था। दोनों एक रेस्तरां में चले गए।

–भाई दो चाय लाना। ऑर्डर देकर शैल निगहत से मुख़ातिब हुआ, –पता है तुम्हें?

–क्या? निगहत ने उत्सुकता दिखाई।

–यही कि आज कॉलेज में हमारा आख़िरी दिन है। आज के बाद हम अपने-अपने घर चले जाएंगे। कुछ लोगों की अलग दुनिया शुरू होगी। कुछ लोग अनुत्तीर्ण भी हो जाएंगे। इसलिए मुमकिन है कुछ लोग अगले साल लौटे ही न। पता नहीं, हमारी मुलाक़ात कब होगी? या हो ही न।

–क्यों, बीएमसी पूरा नहीं करोगे क्या? निगहत परेशान हो उठी।

–पूरा करेंगे भी तो अगले साल तुम्हारे साथ प्रैक्टिकल क्लास का मौक़ा शायद न मिले।

–प्रैक्टिकल में नहीं मिलेंगे न। तो क्या हुआ। कॉलेज के बाहर तो मिल ही सकते हैं। तुम इतने निगेटिव क्यों हो रहे हो।

–पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लग रहा है, शायद अगले साल मेरी वापसी नहीं होगी। वैसे मैं इंजीनियरिंग के एंट्रेंस में बैठा हूं, पेपर बढ़िया हुआ है। शायद सिलेक्शन हो जाए।

–लेकिन तुम इंजीनियरिंग के चक्कर में क्यों पड़ रहे हो? तुम सिविल सर्विस डिज़र्व करते हो। करियर क्यों ख़राब कर रहे हो यार।

–यार मेरी आर्थिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, कि मैं लंबे समय तक बिना अर्न किए पढ़ाई करता रहूं। इसीलिए मैंने इंजीनियरिंग का एंट्रेस दे दिया।

–नहीं, तुम इंजीनियरिंग में एडमिशन नहीं लोगे। तुम पहले बीएससी पूरा करोगे और ग्रेजुएशन के बाद सिविल सर्विस की परीक्षा में बैठोगे। तुम फाइनेंशियल ऑस्पेक्ट की चिंता मत करो। तुम स्कॉलर हो यार। देश के एसेट। तुम इंजीनियर बनकर ज़िदगी ख़राब कर लोगे।

–देखो। तुम एग्ज़ाम की रिज़ल्ट आने के बाद मुझसे ज़रूर मिलना प्लीज़ शैल। निगहत की आवाज़ में करुणा और याचना था।

–ठीक है, बिल्कुल मिलूंगा। शैल ने बहुत आहिस्ता से जवाब दिया।

हालांकि शैल का व्यवहार देखकर वह निराश हो गई। वह भी ख़ामोश हो गई। चाय पीते हुए उसे निहार रही थी।

–तुमसे कुछ पूछूं?

–पूछो न।

–मैं तो तुम्हें अपना बेस्ट फ्रेंड मानता हूं, क्या… क्या तुम भी मुझे… अपना…? वह अपना वाक्य पूरा नहीं कर सका।

निगहत हंस दी। धीरे से बोली, –मुझे लगा कुछ और कहने वाले हो। लेकिन तुम हो कि नाम पूछने में चार महीने लगाया और मेरी दोस्त हो या नहीं, यह पूछने में पूरा साल लगा दिया। ऐसे में तुमसे कुछ और सुनने की उम्मीद करना ही बेकार है। अरे पगले, दोस्त तो हम उसी दिन हो गए थे, जब तुम पहली बार लैब में मिले थे। मेरी बहन, मेरी मां और मेरा भाई सब लोग जानते हैं कि तुम मेरे सबसे क्लोज़्ड फ्रेंड हो। बल्कि कभी–कभी अम्मीजान को टेंशन होता है। हमारे रिश्ते को लेकर। हमारा रिलिजन अलग है न, इसलिए।

–थैंक्स!

–किस बात के लिए?

-यही कि तुमने मेरा दिल नहीं दुखाया। मैं तो नर्वस हो रहा था।

–तुम बहुत भोले और दिल के साफ़ हो शैल। मुझे तुम्हारा स्वभाव बहुत पसंद है। निगहत का स्वर आर्द्र हो उठा।

–तुम भी निगहत। अरे… तुम रो रही हो?

–हां शैल, मुझे रुलाई आ रही है… पता नहीं क्यों, शायद तुमसे बिछड़ने की पीड़ा है यह। जो आंख के रास्ते बाहर आ रही है। जो समय हमने गुज़रा, वह दोबारा नहीं आएगा। सच्ची, तुम्हारे जैसा दोस्त मिलना नामुमकिन है। कितनी भाग्यशाली हूं मैं कि मुझे तुम दोस्त के रूप में मिले। तुमसे भावनात्मक रूप से जुड़ गई थी। वह रूमाल से आंसू पोछने लगी। दोनों बड़ी देर तक चुप ही रहे।

–ओ भाईसाहब सुनिए, निगहत ने उसी समय वहां से गुज़र रहे वेटर को बुलाया और बोली, –हमारी चाय थोड़ी देर बाद लाना। पहले कुछ हल्का नाश्ता ला दो न। दो प्लेट समोसे प्लीज़, उसके बाद चाय।

–ओके मैडम। वेटर चला गया।

–तुम पहले बीएससी पूरा कर लो न। एक साल हम और साथ पढ़ाई कर लेंगे।

–एंट्रेंस क्लीयर नहीं हुआ तो बीएससी तो करूंगा ही।

–तुम और इंजीनियरिंग का टेस्ट पास नहीं कर पाओगे? आर यू क्रेज़ी?

शैल कुछ नहीं बोला, उनके बीच फिर सन्नाटा पसर गया। तभी वेटर दो प्लेट समोसे उनके सामने रख गया। दोनों समोसे खाने लगे। चुपचाप। समोसे ख़त्म होते ही चाय आ गई और दोनों चाय की चुस्कियां लेने लगे।

–तो अब नहीं मिलोगे न?

–मिलूंगा क्यों नहीं।

–कैसे?

–तुम्हारे पास आ जाऊंगा।

–मेरे घर का एड्रेस है तुम्हारे पास?

–हां यार, तुम्हारा एड्रेस तो नहीं है, हां, इतना जानता हूं कि तुम किला रोड होकर आती हो।

–फिर कैसे आओगे?

शैल चुप ही रहा। उसके बाद दोनों ने एक दूसरे के नोटबुक में अपने–अपने हाथ से घर का एड्रेस लिखा और बाहर आ गए। शैल ने एक साइकल रिक्शा रोका और निगहत उस पर बैठ गई।

–ओके बाइ। अपना ध्यान रखना।

–तुम भी, अरे हां, रिज़ल्ट देखने आओगे न तब मिलेंगे। ठीक बाहर बजे आ जाना। निगहत रिक्शे में से बोली।

–ठीक है।

बीएससी का रिजल्ट आ गया। निगहत प्रथम श्रेणी में पास ही नहीं हुई बल्कि पांचवे नंबर पर थी। शैल के लिए परीक्षाफल अनुकूल नहीं रहा। टॉपर्स की लिस्ट में उसका नाम कहीं था ही नहीं। मेरिट लिस्ट में बहुत नीचे था वह। सभी सब्जेक्ट्स के रिटेन और प्रैक्टिकल में सबसे अधिक मार्क्स थे, लेकिन केमिस्ट्री प्रैक्टिकल में केवल पास मार्क्स ही मिले थे। लिहाज़ा, वह पिछड़ गया। यह सिन्हा सर की हरकत थी। वह रिज़ल्ट लेने कॉलेज आया था, लेकिन बहुत देर से। कोई तीन बजे। शायद तब तक इंतज़ार करके निगहत चली गई थी। उसका मन हुआ कि उसके घर जाए, लेकिन उसके घर वाले पता नहीं क्या सोचेंगे। इसलिए निगहत से मिले बिना वह वापस हो लिया। सौभाग्य से इंजीनियरिंग में उसका चयन हो गया और निगहत से उसकी फिर कभी मुलाक़ात न हो सकी।

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–हाथ में क्या दबाए हो?

–अरे, ग्रीटिंग कार्ड है नए साल का। अरे, इतने दिन बाद तुम्हें देखने की ख़ुशी में मैं न्यू ईयर विश करना ही भूल गया। हैप्पी न्यू ईयर माई बेस्ट फ्रेंड! शैल ने कार्ड निगहत के हाथ में रख दिया।

–हैप्पी न्यू ईयर शैल! थैंक्स फॉर योर लवली कार्ड यार।

निगहत ने उसे गले लगा लिया। परंतु थोड़ी देर में ही अलग हो गई।

–आज तुमने तो कार्ड ख़ुलेआम दे दिया। मुझे लगा नोटबुक में रखकर लाओगे। वह हंस दी।

–कॉलेज के दिन तुम्हें अब तक याद है। सच, कितने अच्छे दिन थे वे।

–तुम भगोड़े हो। भूल गए होगे, लेकिन मुझसे कुछ नहीं भुलाया गया। निगहत नीचे फ़र्श की ओर देखने लगी।

शैल ख़ामोश ही रहा। चुपचाप निगहत को निहारता रहा।

–कॉफी लो।

दोनों कॉफी पीने लगे। ड्राइंग हॉल में ख़ामोशी थी।

–दिल्ली में कब से हो?

–आठ साल हो गए। दरअसल, तुम्हारे बाद कॉलेज में मन ही नहीं लगा। सो बीएससी करने के बाद हिंदी साहित्य से एमए कर लिया। उसके बाद पत्रकारिता का पीजी डिप्लोमा। उसी समय सरला में नौकरी लग गई और यहां चली आई। हालांकि, घर वाले नहीं चाहते थे कि मैं नौकरी करूं, लेकिन मैंने ही ज़िद पकड़ ली कि नौकरी करूंगी ही। फिर पत्रिका एक बड़े प्रकाशन समूह की है।

–तुम्हारे हसबैंड क्या करते हैं?

–हैसबैंड…? हसबैंड है ही नहीं तो क्या बताऊं कि क्या करते हैं। होंगे तो बता दूंगी।

–मतलब अकेली ही हो। शादी क्यों नहीं की?

–मुझसे करने शादी के लिए कई बंदे आए थे। एक बंदा मुझसे मिला भी। हमारी फ्रेंडशिप के बारे में उसे कहीं से ख़बर मिल गई थी। पूछने लगा कि कॉलेज में मेरा अफ़ेयर था क्या? मेरी तो खिसक गई। मैंने कह दिया, तो… इसमें बुराई क्या है? लड़के-लड़कियों के अफेयर तो होते ही रहते हैं। मैंने उससे ही कह दिया कि तुम ही मेरे लायक नहीं हो। उसके बाद भी दो लोग और आए थे। वे भी मनोरोगी टाइप थे, एकदम लिजलिजे। सो मुझे जमे ही नहीं। किसी मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति से निकाह करके मैं ख़ुद बीमार नहीं होना चाहती थी। मैंने पापा को बता दिया कि जो भी रिश्ते आ रहे हैं, सब बीमार किस्म के लोगों के हैं, जिनसे शादी करने से बेहतर अकेले रहना है। दरअसल, दोस्ती की जो परिभाषा तुमने गढ़ दी थी, उसमें कोई फिट ही नहीं बैठा। ऐसा कोई पुरुष मिला ही नहीं, जिससे मेरा वेवलेंथ मिल पाता। सो अकेली ही रही। वैसे अकेले रहने का मज़ा कुछ और है, कोई जवाबदेही नहीं। न कोई आपका इंतज़ार करता है, न आपको किसी का इंतज़ार रहता है। हां, कभी–कभार ख़ीली समय में फ़ील होता है कि कोई होता तो अच्छा होता। लगता है कुछ खो सा गया है, कुछ मर सा गया है।

–जौनपुर जाती हो?

–कभी–कभार। कभी अम्मीजान को बुला लेती हूं। कभी–कभार शाबाना आ जाती है, अपने शौहर और बेटी के साथ। वह भी दिल्ली में ही है। बाक़ी समय अकेले। तुम बताओ।

–पहले मुंबई में था। हालांकि मुंबई काफी अच्छी है, परंतु मुझे शुरू से नहीं जमी। नौकरी की मजबूरी में रह रहा था वहां। अब कश्मीर में हूं। एक हाइड्रोलिक पावर प्लांट कंपनी में इंजीनियर।

–और फैमिली में?

–कैसी फैमिली? शैल हैरान हुआ, –अच्छा शादी के बारे में पूछ रही हो?

–हां जनाब।

–मज़ेदार कहानी है। मेरी शादी तय हुई थी, एक बहुत पढ़ी–लिखी लड़की से। पर ऐन मौक़े पर उसने ही शादी करने से मना कर दिया। शायद मैं उसे पसंद ही नहीं था। मैं तो बहुत ख़ुश हुआ कि कोई ऐसी भी लड़की है, जो इंजीनियर वर को भी रिजेक्ट कर सकती है। मैंने पत्र भेजकर उसके फ़ैसले की प्रशंसा की। इसके बाद भी शादी के कई प्रपोज़ल आए, तो हर बार मैंने यही कहा कि अभी मेरी बेइज़्ज़ती करवा कर पेट नहीं भरा है क्या? इसके बाद धीरे–धीरे सिलसिला थम गया। कुछ देर चुप रहकर शैल फिर बोला, –कश्मीर तो जन्नत है, परंतु मेरा मन वहां भी नहीं लगता। वहां भी बेचैनी होती है। इसीलिए अब शायद इस साल नॉर्थ–ईस्ट चला जाऊं। अरुणाचल प्रदेश, एक ऑफ़र है मेरे पास।

–दिल्ली आ जाओ, शायद यहां मन लगे। बेचैनी न फील हो।

शैल हंस दिया। परंतु उसकी हंसी फ़ीकी सी थी। अबकी निगहत की आंखों में नहीं देख पाया। फ़र्श पर कुछ तलाशने लगा।

–थोड़ी देर बाद निगहत ने ही पूछा, –कब तक हो दिल्ली में?

–कल सुबह की ट्रेन है, पांच बजे। सो आज रात को ही निकलना पड़ेगा।

–कहां ठहरे हो?

–आईटीओ के पास एक होटल में।

–तुम ऐसे मिलोगे, मैंने सोचा ही न था। फिर भी बहुत अच्छा लगा। ठीक वैसे ही जैसे बारह साल पहले तुमने नोटबुक में छिपाकर न्यू ईयर का ग्रीटिंग कार्ड दिया था।

शैल बालकनी से बाहर आसमान की ओर ताकने लगा।

–क्या देख रहे हो?

–बादलों को। देखो न, मिलते हैं। तुरंत बिछड़ जाते हैं। पता नहीं फिर कब मिलेंगे। मिलेंगे भी या नहीं।

–हम–तुम भा बादल जैसे ही हैं। हैं न? निगहत ने उसका वाक्य पूरा किया।

–सही कहा… शैल उठने लगा, –अच्छा चलूं?

–अरे, लंच बनाया हैं मैंने तुम्हारे लिए। लंच खाने बग़ैर नहीं जाने दूंगी।

–कुछ ज़रूरी काम है। उसे निपटाना है।

–कोई ज़रूरी काम नहीं है, तुम खाना खाकर ही निकलोगे। निगहत ने अधिकारपूर्वक कहा।

–ठीक है। शैल जान गया कि निगहत लंच खाने के बाद ही इजाज़त देगी। सो हथियार डाल दिया।

फिर वे लोग घंटे भर इधर–उधर की बातें करते रहे।

फिर निगहत किचन में चली गई। शैल भी उसके पीछे किचन में चला आया।

–क्या बनाई हो?

–वही इंडियन डिशेज़। चावल–दाल, रोटी–सब्ज़ी और सलाद। चावल-दाल, सब्ज़ी और सलाद तैयार है। दाल फ्राई कर देती हूं और रोटियां सेंक देती हूं।

यह सब काम निगहत ने दस मिनट में ख़त्म कर दिया। फिर दोनों ने साथ में लंच किया और एक दूसरे के जॉब के बारे में बात करते रहे।

–तो अब इजाज़त है न?

–फिर कब आना होगा?

–कह नहीं सकता। लेकिन आऊंगा ज़रूर, जैसे ही वक़्त मिलेगा। तुम भी आओ न कश्मीर घूमने। धरती की जन्नत है।

निगहत कुछ बोली नहीं। बस देखती रही शैल को एकटक।

–तुम कुछ कहना चाह रही हो? शैल ने पूछा।

–अब तुम जा रहे हो, पर मेरा मन ही नहीं भरा तुमसे मिलकर। टिकट कैंसल करवा दो न प्लीज़। परसों चले जाना। आज मेरे घर पर ही रुक जाओ। ख़ूब बातें करेंगे। रात में बाहर डिनर करते हैं।

–इस बार जाने दो, अगली बार आऊंगा तो पक्का रुकूंगा। शैल थोड़ी देर चुप रहकर बोला, –और कुछ कहना चाहती हो?

निगहत बहुत देर तक उसे देखती रही। देखती रही। धीरे से ज़ुबान खुली, –क्या कहूं…?

फिर नज़र झुका ली। फ़र्श को देखने लगी। उसकी आंखें भर आईं।

–निगहत… शैल उठकर उसके पास गया। उसका चेहरा हाथ में लेकर उठाया तो भल्ल से आंसू गिर पड़े, –तुम रो रही हो। उसका भी गला भर आया।

बड़ी देर तक दोनों उसी हाल में रहे। फिर शैल बैठ गया। वह निगहत के सामान्य होने की इतज़ार करने लगा।

–सोच रही हूं, उस बार बिछड़े थे, तो हम बारह साल बाद मिले। अब पता नहीं कब मिलेंगे। मिलेंगे भी या नहीं। निगहत ने बहुत धीरे से कहा।

–मेरे पास तुम्हारा नंबर है न। कॉल करता हूं। अब इजाज़त दो। चलता हूं।

उसने धीरे से दरवाज़ा खोला। पीछे–पीछे निगहत भी बाहर आ गई। सड़क पर निगहत ने एक ऑटो रिक्शा रोका।

–पिछली बार मैंने तुम्हें साइकल रिक्शा पकड़वाया था, इस बार तुम मुझे ऑटो रिक्शा पकड़वा रही हो। शैल ने रिक्शे में बैठते हुए कहा।

रिक्शा स्टार्ट हुआ और चल पड़ा।

निगहत कुछ नहीं बोली। बस ताक रही थी। एक टक… निरंतर…

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