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बीएमसी चुनाव से पहले आशीष शेलार का राज ठाकरे पर हमला कहा, -भाषा संवाद का माध्यम है संघर्ष का नहीं 

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हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है – प्रताप सरनाईक

संवाददाता
मुंबई, बीएमसी (बृहन्मुंबई महानगर पालिका) समेत महाराष्ट्र कई स्थानीय निकाय के ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी के मुंबई इकाई के अध्यक्ष और राज्य के सांस्कृतिक मंत्री आशीष शेलार ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे पर जोरदार हमला बोलते हुए कहा कि भाषा संवाद का माध्यम है, भाषा संघर्ष का माध्यम नहीं है। भाषा लोगों को जोड़ने का काम करती रही है, भाषा को लोगों को तोड़ने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जो लोग भाषा के नाम पर विद्वेष फैला रहे हैं, उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज से प्रेरणा लेनी चाहिए।

मुंबई हिंदी पत्रकार संघ की ओर से उत्तर भारतीय संघ के बांद्रा पूर्व सभागृह में हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हिंदीसेवी सम्मान समारोह के दौरान अपने संबोधन में राज ठाकरे या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्तालिन कानाम लिए बिना कहा कि लोग भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने काम कर रहे हैं। इसी तरह राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सरनाईक ने कहा कि हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है। कुछ लोग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने का काम करते हैं, लेकिन जनता जब समय आता है तो बता देती है कि आपके इस दर्शन से हम सहमत नहीं है।

सभी भारतीय भाषाओं का अपना सम्मान और महत्व है। राजनीतिक कारणों से भाषाई विवाद खड़ा करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए आशीष शेलार ने कहा कि मराठीभाषी संपादकों सर्वश्री विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, रामकृष्ण खाडिलकर, थत्ते जी का हिंदी पत्रकारिता को संस्कारित और स्थापित करने में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने कहा कि कहा कि पत्रकार समाज का सजग प्रहरी होता है,जो लोगों को जगाने का कार्य करता है। अच्छे पत्रकारों की ही सोच का परिणाम है कि आज हिंदी पत्रकारिता जीवित है। सच्चा पत्रकार किसी का दोस्त नहीं हो सकता, पत्रकार अपने विचार और अपने सिद्धांत का दोस्त होता है, जो लोग उसके इस तेवर का सम्मान करते हैं, पत्रकार बेशक उनका दोस्त हो सकता है।

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हिंदीसेवी सम्मान समारोह में राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सरनाईक ने कहा कि कुछ लोग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने का काम करते हैं, लेकिन जनता जब समय आता है तो बता देती है कि आपके इस दर्शन से हम सहमत नहीं है। हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है। उन्होंने कहा, “पत्रकारों के साथ ही मैंने अपनी राजनैतिक जीवन की शुरुआत की है। जब मैं ठाणे में रहता हूं तो मराठी में बात करता हूं। जैसे ही मीरा भायंदर में आता हूं तो हिंदी में बोलने लगता हूं। मेरा ऐसा मानना है कि जिसे हिंदी आती होगी,उसे मराठी भी आती होगी और जिसे मराठी आती है,उसे हिंदी भी आती है। हिंदी और मराठी के समन्वय का असर है कि हमारी सरकार चल रही है। उन्होंने कहा कि हिंदी बोलते, बोलते अंगेजी और मराठी शब्द आ जाते हैं। बावजूद इसके हिंदी बहुत प्यारी भाषा है। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी हिंदी और मराठी का प्यार बरकरार रहेगा।”

विधायक राजहंस सिंह ने कहा कि सच्चा पत्रकार चेहरे पर लगी धूल को पोछने का कार्य पत्रकार करता है। उन्होंने कार्यक्रम में शामिल पत्रकारों की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये पत्रकार हैं। आज इनकी संख्या कम है। ये निर्भीक हैं। लेकिन इनके कार्य महान हैं। उन्होंने कहा, “मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि पत्रकार किसी का दोस्त नहीं होता। 2004 में जब मैं विरोधीपक्ष का नेता था, तब एक पत्रकर ने मेरे खिलाफ लिखा। उनकी आदत थी जिसके खिलाफ लिखते थे, उसका रिएक्शन देखते थे। वह मेरे कार्यालय में आए मैंने उनका जोरदार ढंग से स्वागत किया। इसके बाद वह मेरे गहरे दोस्त बन गए। सच्चा पत्रकार सजग प्रहरी होता है और उसकी सोच कभी नहीं बदल सकती। चाहे उस पर जितना दबाव पड़े वह अपने पथ से विमुख नहीं होता।”

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पूर्व मंत्री चंद्रकांत त्रिपाठी ने कहा कि पत्रकारिता संवाद का सशक्त माध्यम है। यह बात मैं दावे के साथ कहता हूं इलेक्ट्रानिक चैनल चाहे जितनी भी तरक्की कर लें लेकिन समाचार पत्रों की विश्वनीयता कम नहीं होगी। समाचार पत्रों की महत्ता तब भी थी और आज भी है। उन्होंने कहा कि मुंबई हिंदी पत्रकर संघ ने हिंदी पत्रकरिता को प्रचारित-प्रसारित करने की जो मुहिम शुरू की है,उसका स्वागत करता हूं। विधायक संजय उपाध्याय और सिद्धिविनायक मंदिर के कोषाध्यक्ष आचार्य पवन त्रिपाठी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

इसके अलावा भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने बतौर मुख्य वक्ता हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के सफर की विस्तार से चर्चा की। उनका कहना है कि डिजिटल मीडिया का सूरज कभी नहीं डूबता, इसका कोई भूगोल नहीं है। जो डिजिटल पर है,वह सब कुछ ग्लोबल होने की संभावना से भरा हुआ है। उन्होंने कहा कि सिर्फ 200 वर्षों की यात्रा में जो विकास हिंदी ने किया है, उसका सर्वाधिक श्रेय संचार माध्यमों को है। इतनी तेजी से कोई भाषा नहीं फैली, जबकि देश का प्रभु वर्ग आज भी औपनिवेशिक दासता का शिकार है और ‘अंग्रेजियत’ से भरा हुआ है। मीडिया, मनोरंजन के माध्यमों ने हिंदी के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया है।

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उन्होंने कहा डिजिटल दुनिया में हमारी सभी भारतीय भाषाएं वैश्विक हो चुकी हैं। भारत की सांस्कृतिक, बौध्दिक, आध्यात्मिक संपदा की वाहक बनकर ये भाषाएं हमारी ‘साफ्ट पावर’ की प्रसारक बनीं हैं। दुनिया का भारत के प्रति बदलता नजरिया इसका परिणाम है। पं युगल किशोर शुक्ल द्वारा ‘उदंत मार्तण्ड’ के रूप में रोपा गया हिंदी पत्रकारिता का पौधा आज वटवृक्ष बन गया। उन्होंने कहा हिंदी पत्रकारिता में इस देश के सपने, आकांक्षाएं, आर्तनाद, दुःख, आंदोलन सब व्यक्त हो रहे हैं। उनका कहना था कि हिंदी और भारतीय भाषाएं न्याय और मानवाधिकार की भाषाएं हैं, क्योंकि वे आम आदमी को केंद्र में रखकर काम कर रही हैं।

लेखक और वरिष्ठ पत्रकार यतेंद्र सिंह यादव ने कहा कि पिछले 33 वर्षों की पत्रकरिता में और आज की पत्रकरिता में काफी परिवर्तन हुआ है,इस लिए मैं इस क्षेत्र से अलग होता गया। उन्होंने कहा कि व्यवसायीकरण जमाना है पत्रकार दवाब में काम कर रहा है, जिससे सच्ची पत्रकारिता खत्म होती जा रही है। उन्होंने हिंदी साहित्य का जिक्र किया और कहा कि हिंदी साहित्य के जितने भी विद्वान हैं, उनकी सारी किताबें अब अंग्रेजी साहित्य बनकर आ रही हैं। यादव ने सलाह दिया कि जब तक जरूरी न हो,तब तक अंग्रेजी की भाषा के इस्तेमाल से परहेज करें और ज्यादा से ज्यादा हिंदी का प्रयोग करें।

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प्रो. बृजेश मिश्रा ने कहा, “मैं चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य करता हूं,जहां देखता हूं कि ज्यादातर अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल होता है। मेरा ऐसा मानना है कि जहां जो कार्यरत है,उसको वहां की क्षेत्रीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए। इसके अलावा उसको अपनी मातृभाषा हिंदी की भी जानकारी होनी चाहिए।” आजतक के प्रबंध संपादक साहिल जोशी ने कहा, “मुझे इस बात का अभिमान है कि हिंदी पत्रकरिता कर रहा हूं। पत्रकरिता की शरुआत मैंने मराठी भाषा से की थी। 2001 में जब मैंने हिंदी की पत्रकरिता शुरू की तो मुझे लगा कि हिंदी बहुत आसान पर ऐसा है नहीं। मराठी मेरी मां है तो हिंदी मेरी मौसी है। उन्होंने कहा कि मुझ पर हिंदी भाषा का अच्छा प्रभाव है, इस बात की मुझे बहुत बड़ी खुशी है। मुंबई हिंदी पत्रकार संघ की ओर आज मुझे सम्मानित किया गया,उसके लिए संघ के प्रति आभार आभार व्यक्त करता हूं।”

नवभारत टाइम्स में लंबी सेवाएं दे चुके वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्रा, विधायक संजय उपाध्याय, सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट के आचार्य पवन त्रिपाठी, उद्योगपति ज्ञान प्रकाश सिंह, मुंबई हिंदी पत्रकार संघ के महासचिव विजय सिंह ‘कौशिक’ आदि ने भी हिंदी पत्रकरिता और उसके पत्रकारों की भूमिका पर विस्तृत रूप व्यख्यान किया। कार्यक्रम में ज्ञान प्रकाश सिंह, विमल मिश्र, साहिल जोशी, प्रो. बृजेश मिश्र तथा यतेंद्र सिंह यादव को हिंदी सेवा सम्मान प्रदान किया गया। कार्यक्रम के आयोजक संस्था के अध्यक्ष आदित्य दुबे ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम में विधायक मुरजी पटेल, हिंदी पत्रकार संघ के पदाधिकारी राजकुमार सिंह, सुरेंद्र मिश्र, अखिलेश मिश्र, अशोक शुक्ला और हरिगोविंद विश्वकर्मा समेत शहर के राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता जगत के प्रमुख लोग उपस्थित थे। अभय मिश्र ने कार्यक्रम का संचालन किया।

सऊदी अरब में 73 साल बाद शराब से हटेगा प्रतिबंध…

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परिवर्तन प्रकृति का प्रावधान है। हर इंसान, हर समुदाय और हर धर्म को समय के साथ बदलना पड़ता है। जो लोग नहीं बदल पाते वे पिछड़ जाते हैं। आउटडेटेड हो जाते हैं। अपनी कुछ परंपराओं के चलते इस्लाम भी पूरी दुनिया में हाशिए पर रहा है। लेकिन अब इस्लाम भी रिफॉर्म की ओर बढ़ रहा है। इसकी शुरूआत हो रही सबसे पवित्र इस्लमी मुल्क सऊदी अरब से। सऊदी अरब तेल की निर्भरता से स्वयं को निकालकर पर्यटन और वैश्विक निवेश का हब बनाने की दिशा में काम कर रहा है। इसे ही विजन 2030 नाम दिया गया है।

शरिया कानूनों के सख्त पालन के लिए पूरी दुनिया में मशहूर पाक इस्लामिक देश सऊदी अरब अब अपने इतिहास में पहली बार सार्वजनिक रूप से शराब बिक्री की अनुमति देने की ओर बढ़ रहा है। यह फैसला टूरिज्म को बढ़ावा देने और वर्ल्ड एक्सपो 2030 जैसे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए देश को तैयार करने के उद्देश्य से लिया जा रहा है। 1932 में सऊदी अरब के गठन के साथ ही शराब पर प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन 1952 में इस पर और कठोर कानून बनाए गए थे। हालांकि अब 73 साल बाद, सऊदी अरब के इतिहास में यह एक बड़ा सामाजिक बदलाव माना जा रहा है।

क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) ने सत्ता में आने के बाद देश में कई ऐसे सुधार किए हैं जो सउदी अरब जैसे देश के लिए अकल्पनीय माने जाते थे। उनके शासन में महिलाओं को वाहन चलाने की अनुमति दी गई। सार्वजनिक मनोरंजन जैसे सिनेमा और संगीत कार्यक्रम को बढ़ावा मिल रहा है। अब विदेशी पर्यटकों के लिए वीजा मुहैया करवाने की प्रक्रिया आसान बनाई गई। इसके बाद शराब पर आंशिक छूट देना बड़ा फैसला माना जा रहा है। शराब को लेकर MBS का दृष्टिकोण यह है कि संस्कृति और धार्मिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए वैश्विक सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में बड़ा कदम है।

सऊदी सरकार के प्रस्ताव के अनुसार शुरूआत में शराब सिर्फ़ 600 पर्यटक स्थलों पर मिलेगी। केवल लाइसेंस प्राप्त 5-स्टार होटल, रिसॉर्ट और विदेशी ज़ोन में ही बिक्री होगी। 20 फ़ीसदी से अधिक अल्कोहल वाली ड्रिंक्स पर अब भी प्रतिबंध रहेगा। स्थानीय नागरिकों के लिए अब भी बैन जारी रहेगा। सार्वजनिक स्थानों, दुकानों, या घरों में शराब रखना या पीना अभी भी अपराध होगा। यह नीति सिर्फ गैर-मुस्लिम विदेशी पर्यटकों के लिए है, जो दुबई, बहरीन जैसे प्रतिस्पर्धी देशों की तरह अनुभव पाना चाहते हैं।

सऊदी अरब शरीयत को मानने वाला देश हैं। वहां शराब पर प्रतिबंध है। यदि कोई शराब का आयात व पीते हुए पकड़ा जाता है तो उसके लिए कठोर सजा देने का कानून है। प्रतिबंध तोड़ने पर आरोपी को कोड़े मारने, देश से निकालने, जुर्माना और कैद की सजा का प्रावधान है। इस कठोर कानून के चलते सऊदी में कोई शराब के सेवन के बारे में सोच भी नहीं सकता है।

सऊदी अरब 2030 में वर्ल्ड एक्सपो और 2034 में फीफा फुटबॉल वर्ल्ड कप की मेज़बानी करने जा रहा है। ऐसे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में विदेशी पर्यटकों और विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, सऊदी सरकार ने सुधार की दिशा में कदम उठाया है। वर्ल्ड एक्सपो 2030, जो 1 अक्टूबर 2030 से 31 मार्च 2031 तक सऊदी अरब की राजधानी रियाद में होगा। यह एक ऐसा मंच है, जहां दुनिया भर के देश अपनी संस्कृति, तकनीक और विकास को प्रदर्शित करते हैं। शराब पर ढील, इसी वैश्विक मंच की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए की जा रही है।

2024 में रियाद के डिप्लोमैटिक जोन में पहली शराब की दुकान खोली गई थी। ये केवल गैर-मुस्लिम विदेशी राजनयिकों के लिए खोली गई थी। इसके लिए ग्राहकों की पहचान और खरीद मोबाइल ऐप से नियंत्रित किए जाते थे। हालांकि, दुकान में मोबाइल फोन ले जाना प्रतिबंधित था। यह सऊदी की नई नीति का एक नियंत्रित और सीमित प्रयोग था, जिससे पता लगाया गया कि सुधार कैसे लागू किए जा सकते हैं वह भी बिना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए।

पेड़ों को बचाने के लिए मुंबई में शवदाह के लिए ‘मोक्षकाष्ठ’ का विकल्प

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मुंबई – देश की आर्थिक राजधानी, जहां गगनचुंबी इमारतों की छांव में ज़िंदगी दौड़ती है, वहीं शहर के अंतिम पड़ाव यानी श्मशानभूमियों में भी एक अनकही कहानी पल रही है। जहां एक ओर शहर ने आधुनिकता की ओर लंबी छलांग लगाई है, वहीं दूसरी ओर परंपराओं की जड़ें आज भी इतनी मजबूत हैं कि उनका भार पर्यावरण भी महसूस करने लगा है। हाल ही में मुंबई महानगरपालिका (BMC) ने शहर की 49 हिंदू श्मशानभूमियों के लिए अगले दो वर्षों में लगभग 3.7 करोड़ किलो लकड़ी खरीदने का फैसला लिया — एक ऐसा निर्णय जिसने न सिर्फ शहर के बजट को झकझोर दिया, बल्कि पर्यावरणविदों की चिंता को भी हवा दी। लकड़ी से होने वाले अंतिम संस्कारों का यह पारंपरिक चलन अब एक आधुनिक संकट में तब्दील होता जा रहा है। जब हर चिता जलती है, तो उसके साथ जलता है पर्यावरण का संतुलन, और उभरती है एक ऐसी बहस जो धार्मिक परंपरा और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के बीच फंसी है। मुंबई के आसमान में उठता धुआं अब सिर्फ किसी की विदाई का प्रतीक नहीं, बल्कि आने वाले भविष्य की चेतावनी भी बन गया है।

लकड़ी दहन से बढ़ रहा प्रदूषण
एक शवदाह के लिए औसतन 350 से 400 किलो लकड़ी की आवश्यकता होती है। इस आधार पर दो वर्षों में कुल 3 करोड़ 70 लाख किलो (3.70 करोड़ किलो) लकड़ी केवल मुंबई में शवदाह के लिए जलायी जाएगी। आईआईटी (IIT) मुंबई के एक सर्वे के अनुसार, शहर में होने वाले कुल प्रदूषण में लकड़ी जलने से 12% तक योगदान होता है — जिसमें परंपरागत श्मशान और बेकरी प्रमुख स्रोत हैं। बंबई हाईकोर्ट ने हाल ही में प्रदूषण नियंत्रण को लेकर मुंबई महानगर पालिका और महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कड़ी फटकार लगाई थी। इसके बाद BMC ने बेकरी और धोबीघाट जैसी जगहों पर लकड़ी के स्थान पर गैस और इलेक्ट्रिक विकल्प अपनाने की सलाह दी है।

विद्युत-दाहिनी, गैस शवदाहिनी और अब मोक्षकाष्ठ
मुंबई महानगर पालिका ने अब तक 10 श्मशानों में विद्युत-दाहिनी और 18 स्थानों पर गैस शवदाहिनियाँ स्थापित की हैं। अब 9 अन्य स्थानों पर पर्यावरण-मित्र लकड़ी दहन प्रणाली लगाने की योजना है, जिससे हर शव पर लकड़ी की खपत लगभग 250 किलो कम हो सकती है। फिर भी, लकड़ी की कुल मांग में कोई खास कमी नहीं दिख रही है।

मोक्षकाष्ठ क्या है?
मोक्षकाष्ठ एक पर्यावरण-संवेदनशील विकल्प है, जिसे पारंपरिक लकड़ी के स्थान पर अंतिम संस्कार के लिए उपयोग किया जाता है। इसका उद्देश्य पारंपरिक धार्मिक विधियों को सुरक्षित रखते हुए जंगलों की कटाई रोकना और प्रदूषण को कम करना है। ‘मोक्षकाष्ठ’ शब्द संस्कृत के “मोक्ष” (आत्मा की मुक्ति) और “काष्ठ” (लकड़ी) से बना है, जिसका अर्थ है — वह लकड़ी जो मुक्ति दिलाने में सहायक हो, परंतु प्रकृति को हानि न पहुँचाए। मोक्षकाष्ठ मुख्यतः खेतों में उपलब्ध कृषि अपशिष्टों से तैयार किया जाता है। इसमें सूखे पत्ते, फसल के डंठल (जैसे गन्ने की खोई, मक्के की तुरियाँ), घास, झाड़ियाँ, पराली, कागज़, कपास के डंठल और अन्य जैविक अपशिष्टों को इकट्ठा कर मशीनों द्वारा दबाकर बेलनाकार या ईंट के आकार की ठोस लकड़ियाँ बनाई जाती हैं। ये ईको-फ्रेंडली ईंधन कम धुआँ पैदा करता है, जली हुई राख भी कम होती है और इससे वनों की कटाई पर भी रोक लगती है। इसका उपयोग न केवल अंतिम संस्कार में, बल्कि औद्योगिक और घरेलू ईंधन के रूप में भी हो सकता है।

पर्यावरणविद सयाजी शिंदे का सुझाव
पर्यावरणविद और ‘सह्याद्री देवराई’ संस्था के प्रमुख अभिनेता सयाजी शिंदे ने सुझाव दिया है कि शवदाह के लिए ‘मोक्षकाष्ठ’ को प्राथमिकता दी जाए। उनका कहना है— “भारत में 80% बिजली अब भी कोयला जलाकर बनती है, जिससे गंभीर पर्यावरणीय नुकसान होता है। विद्युत या गैस शवदाहिनी इस कारण पर्यावरण के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। इसके बजाय मोक्षकाष्ठ — जो खेतों के सूखे पत्तों, शाखाओं, झाड़ियों आदि से तैयार किया जाता है — एक श्रेष्ठ विकल्प है।”

सयाजीशिंदे ने बताया कि मोक्षकाष्ठ धार्मिक परंपराओं का पालन करते हुए भी प्रयोग में लाया जा सकता है और यह नवीकरणीय (Renewable) स्रोत है। इसके उपयोग से न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि किसानों को उनके खेतों के अपशिष्ट का मूल्य भी मिलेगा। साथ ही, इससे रोजगार के भी अवसर खुल सकते हैं — मोक्षकाष्ठ बनाने के कारखाने शुरू किए जाएं तो 20,000 लोगों को रोजगार मिल सकता है।

BMC की दीर्घकालीन योजना
मुंबई महानगर पालिका के पर्यावरण विभाग के उपायुक्त राजेश ताम्हाणे ने कहा कि मुंबई की कुल 263 श्मशानभूमियों में से 225 को पर्यावरण अनुकूल बनाने का लक्ष्य रखा गया है। आने वाले वर्षों में विद्युत, सीएनजी और पीएनजी शवदाह विकल्पों को बढ़ावा दिया जाएगा। मुंबई जैसे महानगर में हर दिन दर्जनों शवदाह होते हैं, जिससे लकड़ी की खपत और उससे उत्पन्न प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। पर्यावरणविदों के सुझावों और तकनीकी समाधानों के बीच सामंजस्य बनाकर ही भविष्य में टिकाऊ और संवेदनशील समाधानों की ओर बढ़ा जा सकता है — जहां परंपरा और प्रकृति दोनों की रक्षा हो। (लोकमत से साभार)

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भारत के इस प्रधानमंत्री पर CIA एजेंट होने का आरोप लगा था, मानहानि मुकदमा हार भी गया था वह

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वैसे तो देश में आए दिन जासूसी करने के आरोप में लोग गिरफ्तार किए जा रहे हैं। लेकिन भारत में तो प्रधानमंत्री तक पर CIA का एजेंट होने और सूचनाएं देकर सीआईए से 20 हजार डॉलर की रकम लेने का भी आरोप लगा। उस प्रधानमंत्री ने इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने पर मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसमें भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा।

आज उसी प्रधानमंत्री की चर्चा की जा रही है, जिनका नाम देश की राजनीति में ईमानदारी और सादगी के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। वह कोई और नेता नहीं बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई हैं। उनके राजनीतिक जीवन में एक ऐसा विवाद भी जुड़ा, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। दरअसल, उन पर अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) के जासूस करने का आरोप लगने के बाद यह विवाद पैदा हुआ।

वस्तुतः मोरारजी देसाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और स्वतंत्र भारत के सशक्त नेता के रूप में जाने जाते हैं। 1977 में इंदिरा गांधी के पतन के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की ओर से वह प्रधानमंत्री बने और 1979 तक इस पद पर बने रहे। उन्हें उनके सादगीपूर्ण जीवन, संयमित आचरण और ईमानदारी के लिए जाना जाता है।

1980 के दशक की शुरुआत में अमेरिका के पूर्व सीआईए अधिकारी फिलिप एजी (Philip Agee) ने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था, “Inside the Company: CIA Diary”। इस किताब में उन्होंने दुनिया भर में सीआईए की गुप्त गतिविधियों का खुलासा किया। इस पुस्तक में एजी ने दावा किया था कि भारत के एक उच्चस्तरीय नेता, जिन्होंने बाद में प्रधानमंत्री पद भी संभाला, सीआईए के संपर्क में थे और उन्होंने पाकिस्तान की परमाणु गतिविधियों से जुड़ी गोपनीय जानकारी अमेरिका को दी थी।

बाद में जब इन दावों को लेकर और चर्चा हुई, तो अमेरिकी पत्रकार और खुफिया मामलों के लेखक सेयमोर हर्श (Seymour Hersh) ने अपनी किताब “The Price of Power: Kissinger in the Nixon White House” (1983) में मोरारजी देसाई का नाम स्पष्ट रूप से लिख दिया। हर्श ने दावा किया कि मोरारजी देसाई ने 1970 के दशक में पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में अमेरिकी खुफिया एजेंसी को महत्वपूर्ण जानकारी दी थी और बदले में उन्हें 20,000 डॉलर की रकम दी गई थी।

सेयमोर हर्श के इस दावे से मोरारजी देसाई की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। उन्होंने 1984 में सेयमोर हर्श के खिलाफ अमेरिका में मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने कहा कि यह आरोप झूठा, बेबुनियाद और उनकी छवि को धूमिल करने वाला है। मुकदमे की सुनवाई न्यूयॉर्क के एक फेडरल कोर्ट में हुई। मोरारजी देसाई ने दावा किया कि उन्होंने कभी भी किसी विदेशी एजेंसी को कोई गोपनीय जानकारी नहीं दी और उन्हें कोई भुगतान भी नहीं मिला। उन्होंने इसे उनकी ईमानदार छवि के विरुद्ध गहरी साजिश बताया।

हालांकि मोरारजी देसाई की व्यक्तिगत ईमानदारी को अदालत में चुनौती नहीं दी गई, लेकिन अदालत ने कहा कि सेयमोर हर्श का दावा “जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण” (malicious intent) के तहत नहीं आता। अदालत ने फैसला दिया कि हर्श ने जो लिखा वह सूत्रों और पत्रकारिता के मानकों के आधार पर किया गया शोध है, इसलिए इसे ‘libel’ (मानहानि) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस आधार पर मोरारजी देसाई मुकदमा हार गए।

यह मामला उस दौर में खासा राजनीतिक रूप से संवेदनशील था क्योंकि भारत और अमेरिका के संबंध पहले ही शीत युद्ध और परमाणु नीति को लेकर तनावपूर्ण चल रहे थे। मोरारजी देसाई जैसे वरिष्ठ और ईमानदार नेता पर लगे इस आरोप ने भारतीय जनता और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में मिश्रित प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं। कुछ लोगों ने इस दावे को अमेरिकी खुफिया एजेंसी की एक चाल बताया, तो कुछ ने इसे एक असहज सत्य के उजागर होने के रूप में देखा।

मोरारजी देसाई के जीवन पर यह एक ऐसा धब्बा रहा, जिसकी सच्चाई पूरी तरह से कभी साबित नहीं हो पाई, लेकिन इसे पूरी तरह से झुठलाया भी नहीं जा सका। कोर्ट में हार के बावजूद हर्श के दावों की सत्यता का प्रमाण भी नहीं मिला। फिर भी, मोरारजी देसाई का जीवन कई मायनों में पारदर्शी, सादगीपूर्ण और ईमानदारी से भरा रहा। उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया और वे भारतीय राजनीति के सबसे वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं।

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पं नेहरू कश्मीर मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में क्यों गए?

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विभाजन और कश्मीर के भारत में विलय की कहानी

आजकल हर आदमी इतिहासकार बनकर तपाक से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर आरोप लगा देता है कि उन्होंने कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाकर उलझा दिया। उनके इस फ़ैसले के चलते ही संपूर्ण जम्मू-कश्मीर पर भारत की फ़ौज क़ब्ज़ा नहीं कर पाई। इस कारण कश्मीर समस्या देश के लिए नासूर बन गया। इस प्रसंग को ऐसे बताया जाता है जैसे मानो पंडित नेहरू पाकिस्तान के समर्थक थे और उन्होंने पाकिस्तान को लाभ पहुंचाने के लिए यह क़दम उठाया। इसी बिना पर लोग झटके से कह देते हैं कि कश्मीर समस्या नेहरू की देन है।

ऐसे परिवेश में 1947 से 1949 के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप और कश्मीर का माहौल किस तरह का था, इसकी विस्तार से चर्चा करना समय की मांग है, क्योंकि बिना संपूर्ण परिस्थित को पूरी तरह समझे किसी भी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना, इस मुद्दे के साथ अन्याय करने की तरह ही होगा। देश के विभाजन और पाकिस्तान के जन्म पर इतिहासकारों और लेखकों ने तरह-तरह की बातें बड़े ही विस्तार से लिखी हैं। कई प्रसंगों का ज़िक्र किया है। इन किताबों में कई ऐतिहासिक घटनाओं के बारे समानता भी है। उन्हीं प्रसंगों का हवाला देकर इस लेख के माध्यम से सच तक पहुंचने की कोशिश की जा रही है।

वस्तुतः 1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय ब्रिटिश भारत दो भाग में बंटा था। कुल 11 ब्रिटिश शासित प्राविंस (British Ruled Provinces) और 562 रियासतें (Princely States) थीं। रियासतें ब्रिटिश क्राउन का हिस्सा होते हुए भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र थीं। 14-15 अगस्त 1947 को सात प्राविंस यानी प्रेसिडेंसी -मद्रास, बॉम्बे, यूनाइटेड, बिहार, सेंट्रल, असम और ओड़िशा भारत में शामिल हो गए। दो प्राविंस –नॉर्थ-वेस्ट और सिंध पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बंगाल और पंजाब का विभाजन हो कर दिया गया। ये दोनों राज्य आधे भारत और आधे पाकिस्तान में चले गए। पंजाब की राजधानी लाहौर पाकिस्तान के हिस्से चला गया, तो बंगाल की राजधानी कलकत्ता भारत को मिल गया।

रियासतों की बात करें तो 562 में से 546 रियासतें भारत और 12 रियासतें पाकिस्तान में शामिल हो गईं। 80 फ़ीसदी हिंदू आबादी वाले जूनागढ़ के शासक नवाब मोहम्मद महाबत ख़ानजी ने पहले तो स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई, लेकिन 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। इस फ़ैसले का भारत ने विरोध किया, क्योंकि यह रियासत पाकिस्तान से सटा भी नहीं था। फिर भी पाकिस्तान ने विलय को स्वीकार भी कर लिया। इससे हिंदू प्रजा ने नवाब के ख़िलाफ़ विरोध कर दिया। लिहाज़ा, नवाब को पाकिस्तान भागना पड़ा। उनकी अनुपस्थित में दीवान सर शाह नवाज भुट्टो (बिलावल भुट्टो के दादा) की देखरेख में जनमत सर्वेक्षण हुआ और 99 फ़ीसदी जनता भारत के साथ रही। लिहाज़ा, भारत ने सैन्य कार्रवाई करके 1 नवंबर को जूनागढ़ को अपना हिस्सा बना लिया।

1032px-Kashmir_region_2004-300x298 पं नेहरू कश्मीर मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में क्यों गए?

इसी तरह हैदराबाद रियासत का भारत में विलय स्वतंत्रता के बाद भारत की बड़ी राजनीतिक चुनौती थी। आज़ादी के समय हैदराबाद ब्रिटिश इंडिया की सबसे बड़ी और सबसे समृद्ध रियासत थी। उस्मान अली खान उसके निज़ाम थे। उन्हें ‘आधुनिक हैदराबाद का वास्तुकार’ माना जाता था। उन्होंने भी कश्मीर की तरह स्वतंत्र रहने की घोषणा कर दी। हैदराबाद रियासत भारत के बीचोंबीच थी, जिससे उसका स्वतंत्र अस्तित्व भविष्य में भारत की एकता और सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा बन सकता था। निज़ाम ने ज़्यादातर मुस्लिम सैनिकों वाली रज़ाकारों की सेना बनाई। उसे राज़कारस सेना भी कहा जाता था। निज़ाम के शासन में रज़ाकार सेना हिंदू आबादी पर अत्याचार बढ़ाती जा रही थी। हैदराबाद में मुस्लिम आबादी बढ़ाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जा रहा था। हिंदू औरतों के साथ रेप और नसंहार हो रहा था। निज़ाम को पाकिस्तान से म्यांमार के रास्ते हथियार और पैसे की मदद मिल रही थी। ऑस्ट्रेलियाई कंपनी भी हथियार सप्लाई कर रही थी।

लिहाज़ा, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को लगा कि इस तरह तो हैदराबाद भारत के दिल में नासूर बन जाएगा। लिहाज़ा, सरदार पटेल ने पं नेहरू से विचार-विमर्श करने के बाद राज़करास सेना के अत्याचार को रोकने और हैदराबाद पर जबरदस्ती क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला किया था। उन्होंने 13 सितंबर 1948 को ‘ऑपरेशन पोलो’ अभियान शुरू कर दिया। उसे राज़कारस सेना ने भारत की कार्रवाई का शुरू में ज़ोरदार प्रतिकार किया, लेकिन केवल पांच दिन के संघर्ष में ही निज़ाम ने सरेंडर कर दिया और उसी दिन यानी 17 सितंबर 1948 को हैदराबाद को भारत का अभिन्न हिस्सा बना दिया गया।

अब आते हैं जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय की कहानी पर। एजी नूरानी की ‘जम्मू एंड कश्मीरः इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (Jammu and Kashmir Accession: Instrument of Accession)’, वीपी मेनन की किताब ‘द स्टोरी ऑफ दि इंटिग्रेशन ऑफ दि इंडियन स्टेट्स (The story of the integration of the Indian states)’ एलिक्ज़ेंडर माइटलैंड की किताब ‘माउंटबेटेनः हीरो ऑफ ऑवर टाइम (Mountbatten: Hero of our time)’, पूर्व रॉ प्रमुख एएस दुलत की ‘कश्मीरः द वाजपेयी ईयर्स’, एलोस्टेयर लैंब की ‘कश्मीरः अ डिस्प्यूटेड लीगेसी, 1946-1990 (Kashmir: A Disputed Legacy, 1846–1990’, तवलीन सिंह की ‘कश्मीरः अ ट्रेजेडी ऑफ एरर्स (Kashmir: A Tragedy of Errors)’ एमजे अकबर की ‘कश्मीर: बिहाइंड द वेल’ जैसी किताबों में कश्मीर के भारत में विलय और तब की परिस्थितियों का विशद वर्णन किया गया है।

इन सभी किताबों में दी गई जानकारी के अनुसार हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान की तरह जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह भी अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे। यानी 14-15 अगस्त 1947 को हैदराबाद की तरह जम्मू-कश्मीर भी न तो भारत का हिस्सा बना और न ही पाकिस्तान का। हालांकि प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान की गिद्ध नज़र इन दोनों रियासतों पर थी। हैदराबाद पर इसलिए क्योंकि वहां का शासक मुस्लिम था। हालांकि वहां की 85 फ़ीसदी जनता हिंदू थी। लियाकत अली कश्मीर इसलिए लेना चाहते थे, क्योंकि वहां की 77 फ़ीसदी जनता मुस्लिम थी। हालांकि राज्य का शासक हिंदू था। मतलब लियाकत अली चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी वाले फॉर्मूले पर चल रहे थे।

जम्मू-कश्मीर के नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला पंजाबी मुसलमानों को नापसंद करते थे, वह देख रहे थे कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद पंजाबी मुसलमान देश में वर्चस्व स्थापित कर रहे हैं और बंगाली मुसलमानों के साथ साथ हिंदुस्तान से आए मुसलमानों की भी फ़ज़ीहत कर रहे हैं। पंजाबी पाकिस्तानी आज भी हिकारत से उन लोगों को मुहाज़िर या मोहाज़िर कहते हैं जो गैर-पंजाबी नागरिक विभाजन के बाद भारत से अपना घरबार छोड़कर पाकिस्तान गए। लिहाज़ा शेख को लगा कि पाकिस्तान के मुक़ाबले उदार भारत के साथ रहना लाभदायक रहेगा। लिहाज़ा, उन्होंने भारत का समर्थन किया। उन्होंने 1932 में ‘जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना की, जो विलय के बाद ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ हो गई। 1946 में उन्होंने महाराजा हरिसिंह के निरंकुश शासन के खिलाफ ‘क्विट कश्मीर’ आंदोलन शुरू किया। महाराजा से सत्ता छोड़ने की मांग की। लिहाज़ा, उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह जेल में थे।

उधर वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 1947 में विभाजन बड़ी दिलचस्पी ले रहे थे। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया की सभी रियासतों को या तो भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के लिए राजी करने हेतु विशेष मिशन चलाया। उन्होंने सभी रियासतों के शासकों से सीधा निजी संपर्क किया। इसी क्रम में वह श्रीनगर भी गए, लेकिन अपनी रियासत को स्वतंत्र रखने का मन बना चुके महाराजा हरि सिंह ने अचानक पेटदर्द की शिकायत कर दी और अपनी अस्वस्थता का हलावा देकर वायसराय से मिलने से ही इनकार कर दिया। तब माउंटबेटन ने कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन और अन्य अधिकारियों से बातचीत की और दिल्ली लौट गए।

जैसा कि बताया जा चुका है कि लियाकत अली नज़र शुरू से कश्मीर पर थी। सो उनके इशारे पर जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी समर्थकों को उकसाया जाने लगा। दो महीने बाद 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान सेना समर्थित कबायली लड़ाकों ने जम्मू-कश्मीर पर सुनियोजित हमला कर दिया। इन लड़ाकों में पश्तून के हथियारबंद लोग अधिक संख्या में थे। उन्हें पाकिस्तान सेना हथियार और रसद सप्लाई कर रही थी। उनका मकसद कश्मीर का ज़बरन पाकिस्तान में विलय कराना था। लियाकत अली ने इस योजना के बारे में बीमार क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना को बताया भी नहीं और ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ शुरू दिया। पाकिस्तान सेना समर्थित कबाइलियों ने रास्ते में भारी लूटपाट, हत्या और बलात्कार किए। इससे जनता में भयक्रांत हो गई।

कबायली लड़ाके मुज़फ्फराबाद को रौंदते हुए बारामूला तक पहुँच गए। उन्होंने वहां भी हिंदुओं और सिखों पर भयानक अत्याचार किए। यूरोपीय मिशनरियों, चर्च और ननों को निशाना बनाया और हत्याएं की। लोकल कश्मीरियों ने तीन-चार दिन कबाइलियों को रोकने की कोशिश की लेकिन उनके पीछे पाकिस्तान की सेना थी। बारामूला में भारी नरसंहार हुआ। मक़बूल शेरवानी के दोनों हाथ में कील ठोकर उनको ज़िंदा सलीब पर लटका दिया गया। पाकिस्तानी सेना और कबाइली नरसंहार करते हुए श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। इस मारकाट में हमलावरों ने मीरपुर में बड़ी संख्या में हिंदुओं की हत्याएं और हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार किए।

पंडित नेहरू विभाजन के पहले से ही लगातार महाराजा हरि सिंह को लगातार चेतावनी दे रहे थे कि प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान की नीयत ठीक नहीं लग रही है। वह कभी भी जम्मू-कश्मीर में घुसने की हिमाकत कर सकते हैं। लेकिन महाराजा ने ध्यान ही नहीं दिया। दरअलस उनके निजी ज्योतिषि ने भविष्यवाणी कर दी थी कि वह स्वतंत्र कश्मीर का अस्तित्व बरकरार रखने और रियासत का शासक बनने में कामयाब होंगे। इस ख़ुशफहमी में महाराजा पंडित नेहरू की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते रहे। बहरहाल, कबाइलियों के हमले के बाद जब उन्हें लगा कि भारत से मदद न मिली तो पूरे राज्य पर पाकिस्तान क़ब्ज़ा कर लेगा। लिहाज़ा, उन्होंने मजबूरी में भारत से सैन्य सहायता मांगी। वह खुद श्रीनगर छोड़कर जम्मू भाग गए।

चूंकि इस समय तक जम्मू-कश्मीर न तो भारत का हिस्सा था और न ही पाकिस्तान का। ऐसे में भारत हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता था। महाराजा की ओर से मदद का संदेश मिलने पर नेहरू और गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने उनके सामने यह शर्त रख दी कि पहले जेल में बंद शेख़ अब्दुल्लाह को रिहा और जम्मू-कश्मीर का भार में विलय किया जाए, तभी भारत से सैन्य मदद मिलेगी। आनन-फ़ानन में महाराजा हरि सिंह ने शेख़ अब्दुलाह को रिहा किया। वह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए भी तैयार हो गए। उसी दिन भारत में विलय-पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए गए। शेख अब्दुल्ला ने पंडित नेहरू को राज़ी करके डॉ. बीरआर अंबेडकर और दूसरे नेताओं के विरोध के बावजूद अपने राज्य के लिए विशेष दर्ज़ा हासिल कर लिया।

कहा जाता है कि चूंकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय असाधारण परिस्थितियों में हुआ था और जम्मू-कश्मीर मुस्लिम बहुल रियासत थी, इसके बावजूद भारत का हिस्सा बन रही थी, इसलिए भारत सरकार ने यह आश्वासन दिया कि राज्य को विशेष स्वायत्तता दी जाएगी। इसी भावना के तहत बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। इस प्रकार, भारत ने आपातकालीन सुरक्षा जरूरतों, संवैधानिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने पर सहमति दी।लेकिन यहां भारतीय नेतृत्व को अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं की बात माननी चाहिए थी। यहां यह बताना ज़रूरी है कि चूंकि भारत में विलय जम्मू-कश्मीर की मजबूरी थी, तो भारत अड़ जाता तो शेख अब्दुल्ला और महाराजा अपने राज्य के लिए विशेष दर्जे के लिए ज़िद न कर पाते। लेकिन पंडित नेहरू और सरदार पटेल यह काम नहीं कर सके। कई लोग इसे पंडित नेहरू की ऐतिहासिक भूल मानते हैं।

बहरहाल, इसके अगले दिन यानी 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतारने लगी। जब सेना ने श्रीनगर में प्रवेश किया तब कबायली श्रीनगर से महज 50 किलोमीटर ही दूर रह गए थे। उन्होंने श्रीनगर की बिजली काट दी। इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय के कश्मीरनामा में दावा करते हैं कि स्थानीय लोगों ने लालटेन और टॉर्च जलाकर भारतीय सैनिकों को शहर में प्रवेश करने में मदद की। भारतीय सेना ने सैन्य कार्रवाई शुरू की और घुसपैठियों और हमलावरों को पीछे ढकेलना शुरू किया। इस युद्ध में लाख कोशिश के बावजूद भारतीय सेना को सामरिक दृष्टि से आंशिक सफलता ही मिल सकी, क्योंकि कबाइली और पाकिस्तान सेना ऊंचाई पर थी। उन्हें वहां से हटाना टेढ़ी खीर साबित हो रही थी। भारतीय के पास भी लड़ने के लिए पर्याप्त साज-ओ-सामान नहीं था। भारतीय सैनिकों के पास 1999 की कारगिल युद्ध की तरह बोफोर्स तोप भी नहीं थी।

इससे पहले कबायिली हमले के दौरान ही ब्रिटिश अधिकारी मेजर विलियम ब्राउन की अगुवाई में गिलगित स्काउट्स ने महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और महाराजा द्वारा गिलगित का गवर्नर नियुक्त किए गए ब्रिगेडियर घनसार सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन्हें बहुत बाद में छुड़ाया गया। मेजर ब्राउन ने गिलगिट में पाकिस्तानी झंडा फहरवा दिया। इधर भारतीय नीचे से लड़ाई लड़ रही थी, जो बिल्कुल भी प्रभावी नहीं हो रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि महीने भर की लड़ाई के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने मुज़फ़्फ़राबाद और मीरपुर के उन इलाक़ों पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखा, जि आजकल पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर यानी पीओके कहा जाता है।

युद्ध शुरू होने के महीने भर बाद कश्मीर में सर्दी शुरू हो गई। भारतीय सेना को ऐसे वातावरण में लड़ने का न तो अनुभव था और न ही सामान और रसद था। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना, ख़ासकर कबाइली सर्दी के अभ्यस्त थे। लिहाज़ा, पाकिस्तानी सेना को बारामूला की सीमा से पीछे नहीं ढकेला जा सका। इसके बावजूद भारतीय सेना ने क़रीब 10 हजार पाकिस्तान सैनिकों और कबाइली लड़कों को मार डाला। भारत को भी लगभग तीन हज़ार सैनिक गंवाने पड़े। संघर्ष बहुत लंबा खिंचने की नौबत आ गई। उस समय बहुत लंबा युद्ध भारत अफोर्ड नहीं कर सकता था क्योंकि उस लड़ाई में भारत के ख़जाने से बहुत धन खर्च हो रहा था। एक तरह से यह संघर्ष संपूर्ण देश के लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा था।

दरअसल, आज़ादी के समय अंग्रज़ी सरकार ने भारत के साथ गंभीर पक्षपात किया। चूंकि मुस्लिम लीग को ब्रिटिश सत्ता ही प्रमोट कर रही थी, तो पहले तो 36 करोड़ आबादी वाले भारत को केवल 32.8 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि दी गई जबकि केवल सात करोड़ आबादी के साथ पांचवे हिस्से से भी कम पाकिस्तान को 9.4 वर्ग किलोमीटर भूमि दी गई। यह पक्षपात सैन्य बंटवारे में भी देखी गई। ब्रिटिश आर्मी में हिंदू सैनिक ज़्यादा थे तो ब्रिटिश सरकार ने सैनिक भारत को दे दिया और बदले में गोलाबारूद भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को ज़्यादा दे दिया। जबकि उस समय 10 प्रमुख गोलाबरूद डिपो में से 8 भारतीय भूमि पर थे। यह फैक्टर भी उस समय पाकिस्तानी सेना के लिए लाभदायक रहा। नतीजतन भारत और पाकिस्तान सैनिकों के बीच युद्ध लंबा खिंचने लगा।

अंत में सभी दलों के नेताओं के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई, जिसमें उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल, रक्षा मंत्री बलदेव सिंह, उद्योग मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर, शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, श्रम मंत्री जोगिंदरनाथ मंडल, रेल मंत्री जॉन मथाई और कृषि मंत्री राजेंद्र प्रसाद (जो बाद में राष्ट्रपति बने) जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हुए। बैठक में आम राय से संयुक्त राष्ट्रसंघ में जाने का निर्णय लिया गया। डॉ. मुखर्जी ने बैठक में असहमति ज़रूर जताई, लेकिन उन्होंने न तो खुलकर विरोध किया और न ही सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कहा। हां दो साल बाद जब नेहरू-लियाकत पैक्ट पर हस्ताक्षर हुआ, तब उन्होंने 1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया और अगले साल यानी 1951 में उन्होंने जनसंघ की स्थापना की।

नेहरू-लियाकत पैक्ट, जिसे दिल्ली समझौता भी कहा जाता है, 8 अप्रैल 1950 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच हुआ था। यह समझौता दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। भारत में मुसलमानों और पाकिस्तान में हिंदू-सिखों के धार्मिक, नागरिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करने का वादा इसमें शामिल था। दोनों देशों ने अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता, संपत्ति और रोजगार की सुरक्षा देने की बात कही। इस समझौते का उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करना और साम्प्रदायिक हिंसा को रोकना था।

बहरहाल, मंत्रिमंडल के निर्णय के बादभारत ने 1 जनवरी 1948 को यूएन चार्टर के आर्टिकल 35 के तहत यूएनएससी (UNSC) में पाकिस्तान पर भारतीय क्षेत्र हथियाने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करा दी। भारत ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान ने कबाइली लड़ाकों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर राज्य की संप्रभुता पर हमला किया है। लिहाज़ा, संयुक्त राष्ट्र पाकिस्तान पर दबाव डाले कि वह आक्रमणकारी बलों को वापस बुलाए और शांति बहाल हो। लेकिन पाकिस्तान ने पीछे हटने से साफ़ इनकार कर दिया। लिहाज़ा, दोनों सेनाओं में संघर्ष चलता रहा। सर्दी बीतने के बाद पता चला कि पाकिस्तानी सेना ने अपनी स्थिति बहुत मज़बूत कर ली है। लिहाज़ा, भारतीय सेना लाख कोशिश के बावजूद उन्हें पीछे नहीं खदेड़ सकी।

संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद ने 20 जनवरी 1948 को हुई बैठक में पहली बार इस मुद्दे पर विचार-विमर्श किया और मुद्दे को हल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (UNCIP) का गठन कर दिया। आयोग ने बैठकों के कई दौर के बाद  युद्धविराम करने, सेना हटाने और राज्य में जनमत संग्रह की सिफारिश की। संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद की शर्तें कभी पूरी नहीं हो सकीं, क्योंकि पाकिस्तान ने अपनी सेना पीछे नहीं हटाई। हालांकि 1 जनवरी 1949 को यानी 14 महीने के सशस्त्र संघर्ष के बाद युद्धविराम लागू हो गया और दोनों देशों के क़ब्ज़े के बीच सीज़फायर लाइन ख़ींच दी गई, जिसे 171 के युद्ध के बाद लाइन ऑफ कंट्रोल कहा जाने लगा।

जम्मू कश्मीर के बारे में संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव

युद्धविराम (Ceasefire):
भारत और पाकिस्तान दोनों से कहा गया कि दोनों तत्काल युद्धविराम करें और संघर्ष को समाप्त करें। पाकिस्तान को पहले शर्तें माननी थीं:

भारत की भूमिका
पाकिस्तान को यह निर्देश दिया गया कि वह अपने सभी कबायली लड़ाकों और सेना को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से पूरी तरह हटा ले।
पाकिस्तान यह भी सुनिश्चित करे कि भविष्य में कोई और घुसपैठ न हो।

भारत की भूमिका
पाकिस्तान के हटने के बाद भारत को भी अपने सैन्य बलों को न्यूनतम स्तर तक घटाना था, जो केवल कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक हों।

जनमत संग्रह (Plebiscite)
पाकिस्तान की वापसी और भारत द्वारा सेना घटाने के बाद, जम्मू-कश्मीर के लोगों की राय जानने के लिए जनमत संग्रह कराया जाएगा कि जनता भारत में रहना चाहते है या पाकिस्तान में शामिल होना चाहती है।

संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में प्रक्रिया
पूरे प्रक्रिया की निगरानी के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग नियुक्त किया गया जिसे यूएनसीआईपी (UNCIP) यानी यूनाइटेड कमीशन ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान (United Nations Commission for India and Pakistan) कहा गया। लेकिन यह प्रस्ताव कभी पूरी तरह लागू नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि पाकिस्तान ने कबायली लड़ाकों और अपने सैनिकों को पूरी तरह वापस नहीं बुलाया।

भारत का कहना था कि जब तक पाकिस्तान पहले अपनी शर्तें पूरी नहीं करता, तब तक वह सेना नहीं घटा सकता। इसलिए यह जनमत संग्रह (Plebiscite) की स्थिति तक कभी नहीं पहुंच सका।

भारत का दृष्टिकोण
भारत कहता है कि 26 अक्टूबर 1047 को कश्मीर रियासत का औपचारिक और संवैधानिक रूप से भारत में विलय हो गया है।
पाकिस्तान ने प्रस्ताव की पहली और सबसे आवश्यक शर्त (सेना हटाना) कभी पूरी नहीं की।
भारतीय संसद ने 1994 में प्रस्ताव पारित कर कहा कि संपूर्ण जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) भी भारत का ही हिस्सा है।

भारत यह भी मानता है कि शिमला समझौता (1972) के बाद कश्मीर एक द्विपक्षीय मामला है, और इसमें किसी तीसरे पक्ष या संयुक्त राष्ट्र की भूमिका नहीं होनी चाहिए।

पाकिस्तान का दृष्टिकोण
पाकिस्तान का दावा है कि कश्मीर मुस्लिम बहुल रियासत है इसलिए उसका पाकिस्तान में विलय होना चाहिए था।

पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1947 के आधार पर जनमत संग्रह की मांग करता है।
पाकिस्तान ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) को दो भागों में बांट दिया:
1. आज़ाद जम्मू और कश्मीर (AJK)
2. गिलगित-बाल्टिस्तान

आज संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव की प्रासंगिकता:
संयुक्त राष्ट्र अब भी Resolution 1947 को निष्क्रिय नहीं मानता, लेकिन इसका कोई व्यावहारिक उपयोग नहीं होता क्योंकि कश्मीर की स्थिति भू-राजनीतिक रूप से बहुत बदल चुकी है। पाकिस्तान ने कई बार गिलगित-बाल्टिस्तान में चुनाव कराए और संरचनात्मक बदलाव किए, जो जनमत संग्रह की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करते हैं। भारत ने 2019 में अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया। कश्मीर मुद्दा अब भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय व भू-राजनीतिक संघर्ष में बदल गया है, जिसमें UN की भूमिका न्यूनतम या अप्रासंगिक हो गई है।

इस युद्ध का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह रहा कि जम्मू-कश्मीर का स्थायी समाधान नहीं निकल सका और यह मुद्दा आज तक भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्र बना हुआ है। युद्ध के कारण उपजी अविश्वास की खाई दोनों देशों के बीच बार-बार संघर्ष का कारण बनी। हालांकि भारत ने कश्मीर का रणनीतिक हिस्सा अपने पास बनाए रखा, लेकिन पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए क्षेत्रों की वजह से कश्मीर आज भी एक अधूरी कहानी बना हुआ है। कुल मिलाकर यह कहना ज़्यादा सही होगा कि कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने का फ़ैसला भारत सरकार का सामूहिक फ़ैसला था न कि पं. नेहरू का अपनी निजी फ़ैसला, इसलिए उन्हें दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। कश्मीर समस्या के लिए कोई दोषी है तो वह महाराजा हरिसिंह थे, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत का आज़ादी के सेमय भारत में विलय नहीं किया था।

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32 आतंकियों की ‘रहस्यमय हत्या’ के बाद खौफ में हैं पाकिस्तानी दहशतगर्द

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पहलगाम हमले के मास्टरमाइंड अबू सैफुल्ला खालिद की कराची में गोली मारकर हत्या 

कितनी अजीब बात है जो आतंकी बंदूक के बल पर लोगों के मन में आतंक पैदा करते थे, अब वे ख़ुद आतंकित होकर जी रहे हैं। अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। कब उनकी हत्या हो जाएगी, कुछ भी पता नहीं है। अब आतंकवादियों को पता चल रहा है कि भय का माहौल और डर का साया क्या होता है। पता नहीं कौन गुमनाम व्यक्ति या संगठन चुन-चुन कर इन मौत के सौदागरों के मौत की नींद सुला रहा है, लेकिन यह कार्य जो भी कर रहा है, वह पुण्य का काम कर रहा है।

यह गुमनाम व्यक्ति या संगठन ने अब तक पाकिस्तान से आतंकवाद की फैक्ट्री चलाने वाले 32 आतंकवादियों को मौत के घाट उतार चुका है। कुछ पाकिस्तान में मारे गए हैं जबकि कुछ का कनाडा में मारा गया है। इन लक्षित हत्याओं ने पाकिस्तान में आतंकवादी संगठनों के शीर्ष नेतृत्व को हिला कर रख दिया है। इन घटनाओं ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में एक नया मोड़ ला दिया है, जिसमें आतंकवादियों को उनके ही गढ़ में निशाना बनाया जा रहा है।

अभी एक दिन पहले ही पहलगाम आतंकी हमले का मास्टर माइंड लश्कर-ए-तैयबा के टॉप कमांडर अबू सैफुल्ला खालिद उर्फ सैफुल्ला कसूरी को मार गिराया गया। उसे भारत में हुए तीन और बड़े आतंकी हमलों का मास्टरमाइंड माना जाता है। रविवार को उस पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाई गईं, जिसमें घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई। इससे पहले लश्कर-ए-तैयबा के ही आतंकवादी अबू कतल उर्फ जिया-उर-रहमान को 16 मार्च को पाकिस्तान के पंजाब में मार गिराया गया था। उसे हाफिज सईद का करीबी भी माना जाता था। उसने राजौरी, पुंछ और रियासी में वर्ष 2023-24 के बीच चार बड़े हमलों को अंजाम दिया था।

लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी मोहम्मद मुजामिल और नईमुर रहमान और मसूद अजहर के करीबी मौलाना रहीम उलाह तारीक को भी अज्ञात लोगों ने मार गिराया था। लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी ख्वाजा शाहिद को नवंबर 2023 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में अज्ञात हमलावरों ने मार डाला था। लश्कर-ए-तैयबा का शीर्ष कमांडर अकबर गाजी, जो कश्मीर घाटी में आतंकवादियों को कट्टरपंथी बनाने में शामिल था। उसे नवंबर 2023 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में मोटरसाइकिल सवार हमलावरों ने 72 हूरों के पास पहुंचा दिया था।

जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मौलाना मसूद अजहर का करीबी सहयोगी मौलाना रहीम उल्लाह तारिक को नवंबर 2023 में कराची में अज्ञात हमलावरों ने गोली मार दी थी। इसी तरह अल बद्र कमांडर सैयद खालिद रज़ा की फरवरी 2023 में कराची में उसके घर के बाहर अज्ञात हमलावरों ने हत्या कर दी थी। इस्लामिक स्टेट जम्मू और कश्मीर (ISJK) के सदस्य एजाज़ अहमद अहंगर को अफगानिस्तान में मार दिया गया था। वह काबुल और जलालाबाद में कई आत्मघाती हमलों के लिए जिम्मेदार था।

कश्मीर में आतंकवाद फैलाने में शामिल सैयद नूर शालोबार को मार्च 2023 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में अज्ञात हमलावरों ने गोली से उड़ा दिया था। जनवरी 2023 के डांगरी हमले का मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर परवेज़ अहमद उर्फ अबू कासिम सितंबर 2023 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के रावलकोट में एक मस्जिद के अंदर अज्ञात हमलावरों द्वारा मारा गया था।

भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव को मारने के आरोपी मुफ्ती शाह मीर को भी इसी साल मार्च के महीने में अज्ञात लोगों ने मार गिराया था। मुफ्ती शाह मीर को जमीअत-उलमा-ए-इस्लाम का आतंकवादी माना जाता था। हाफिज सईद के रिश्तेदार मौलाना कासिफ अली को 17 फरवरी 2025 को खैबर पख्तूनख्वा के उसके घर पर ही मोटरसाइकिल सवार अज्ञात लोगों ने मार गिराया था। वह लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर था और कई बड़े मामलों में वांछित था।

जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी मुफ्ती फैयाज को पिछले वर्ष 20 मई को खैबर पख्तूनख्वा में मार गिराया गया था। लश्कर ए तैयबा का अब्द्ल्ला शाहीन भी मारा जा चुका है। लश्कर-ए-तैयबा के हाजी उमर गुल और हबीबुल्लाह, अदनान अहमद और जैश-ए-मोहम्मद के यूनुस खान को भी मौत के घाट उतारा जा चुका है। अकरम खान उर्फ अकरम गाजी (लश्कर-ए-तैयबा), शरबजीत सिंह की हत्या के आरोपी आमिर सरफराज (लश्कर-ए-तैयबा), असीम जमील, दाऊद मलिक (लश्कर-ए-जब्बार), पठानकोट आतंकी हमले का आरोपी शहीद लतीफ भी अज्ञात लोगों की गोलियों का निशाना बन चुके हैं।

इसके अलावा मुफ्ती कैसर फारूख (लश्कर-ए-तैयबा), 20 आपराधिक आतंकी मामलों में वांछित सूखा दुनेके (खालिस्तान टाइगर फोर्स), मुल्लाह सरदार हुसैन (जमात-उद-दावा), बब्बर खालसा के आतंकी रिपुदमन मलिक जो कि एयर इंडिया विमान में बम ब्लास्ट घटना का आरोपी था, उसे भी अज्ञात हमलावरों ने 14 जुलाई 2023 को कनाडा में मार गिराया था। खालिस्तान टाइगर फोर्स के आतंकी हरदीप सिंह निज्जर और परमजीत सिंह पंजवार भी मार दिया गया है।

इन्हीं अज्ञात हमलावरों ने सईद नूर, अल बद्र के आतंकी सईद खालिद राजा, आईएसआई के एंजेंट मोहम्मद लाल, आतंकी संगठन हरकतउल मुजाहिदीन के आतंकी और आईसी 814 प्लेन के हाईजैकर जहूर मिस्त्री को मार्च 2022 को पाकिस्तान के कराची में मार गिराया था। हिजबुल के आतंकी बशीर अहमद पीर को 20 फरवरी 2022 को पाकिस्तान के सुरक्षित इलाके रावलपिंडी में मार गिराया गया था। इसे मारने वालों में भी अज्ञात लोगों का ही नाम सामने आया था।

सुरक्षा मामलों से जुड़े एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने बताया कि अब तक इजरायल की सुरक्षा एजेंसी मोसाद को अपने देश के दुश्मनों को पूरी दुनिया में खोजकर मार गिराने के लिए जाना जाता था। पाकिस्तान और कनाडा में हुई कई हत्याओं के लिए इन देशों की सरकारों ने भारत की तरफ अंगुली उठाई थी, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। भारत ने इन आरोपों का कड़ा प्रतिकार किया।

जिस तरह मानवता के इन दुश्मनों का पूरी दुनिया में खात्मा किया जा रहा है, इससे भारतीय नागरिकों और सुरक्षा से जुड़े अधिकारियों में उत्साह देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर देश की जनता भी इन हत्याओं का जोरदार स्वागत करती देखी जा रही है। जैसे ही कोई बड़ा आतंकी इन अज्ञात लोगों की गोलियों का निशाना बनता है, सोशल मीडिया पर उन्हें बधाई देने वाली पोस्ट की बाढ़ आ जाती है। इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि लोग इन आतंकियों को किसी भी कीमत पर खत्म होते हुए देखना चाहते हैं।

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भारतीय राजनीति के इकलौते जेंटलमैन पॉलिटिशियन थे राजीव गांधी

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जब परिपक्व नेता के रूप में वापसी करने वाले थे, तभी हो गई उनकी हत्या

सौम्य, शिक्षित और आधुनिक सोच वाले राजीव गांधी भारतीय राजनीति के उन दुर्लभ नेताओं में थे, जिन्हें एक जेंटलमैन पॉलिटिशियन कहा जाता है। तकनीकप्रिय, आधुनिक सोच वाले और सादगी से भरे व्यक्तित्व के धनी राजीव जी ने देश को 21वीं सदी की ओर ले जाने की नींव रखी। प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने पंचायती राज, टेलीकॉम क्रांति और कंप्यूटर युग की शुरुआत की। हालांकि 1989 में सत्ता से बाहर होने के बाद उन्होंने विपक्ष में रहते हुए अपने नेतृत्व कौशल को और परिपक्व किया। वे विवादों से ऊपर उठकर फिर से एक दूरदर्शी नेता की तरह उभर रहे थे। राजीव गांधी कभी भी राजनीति में नहीं आना चाहते थे। वह बिना किसी राजनीतिक दबाव और सत्ता की लालसा के सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन जीना चाहते थे। वह मूलतः पारिवारिक, शर्मीले और निजी जीवन में रमने वाले व्यक्ति थे।

राजीव गांधी का जन्म 20 अगस्त 1944 को मुंबई (तब बॉम्बे) में हुआ था। वह भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के नाती और फिरोज गांधी तथा इंदिरा गांधी के पुत्र थे। उनका लालन-पालन एक राजनीतिक और शिक्षित परिवार में हुआ, लेकिन राजीव का स्वभाव अन्य गांधी परिवार के नेताओं से थोड़ा अलग था—वे अंतर्मुखी और शांत प्रवृत्ति के थे। राजीव और उनके छोटे भाई संजय गांधी ने अधिकतर समय अपनी मां इंदिरा गांधी और नाना नेहरू के साथ बिताया। यद्यपि पंडित नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे, लेकिन उन्होंने अपने नाती-पोतों के पालन-पोषण में पूरा ध्यान दिया। राजीव को किताबों, संगीत और मशीनों से लगाव था। बचपन से ही वे नेतृत्व के बजाय तकनीकी चीजों में रुचि दिखाते थे।

राजीव गांधी की प्रारंभिक शिक्षा देहरादून के प्रतिष्ठित दून स्कूल (Doon School) में हुई। यह स्कूल आज भी देश के अभिजात्य वर्ग के बच्चों के लिए शिक्षा का केंद्र माना जाता है। यहां पढ़ाई के दौरान राजीव गंभीर, विनम्र और पढ़ाई के साथ-साथ एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों में रुचि रखने वाले छात्र थे। उन्होंने कुछ समय के लिए दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में भी अध्ययन किया, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए वे इंग्लैंड चले गए। उन्होंने इंपीरियल कॉलेज, लंदन (Imperial College, London) और फिर ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज (Trinity College, Cambridge) में दाखिला लिया। इन दोनों संस्थानों में उन्होंने इंजीनियरिंग और बाद में मैकेनिकल विषय में रुचि ली, हालांकि पढ़ाई को लेकर वे उतने गंभीर नहीं थे जितना कि तकनीकी चीजों को लेकर।

सोनिया गांधी से मुलाकात: एक खूबसूरत संयोग
राजीव गांधी की जिंदगी का सबसे बड़ा मोड़ आया जब वे इंग्लैंड में पढ़ाई कर रहे थे। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान ही 1965 में उनकी मुलाकात हुई एक इटालियन लड़की से—एदविग एंटोनिया अल्बिना माइनो, जिन्हें आज दुनिया सोनिया गांधी के नाम से जानती है। यह मुलाकात एक सामान्य संयोग की तरह हुई, लेकिन धीरे-धीरे यह एक गहरे प्रेम में बदल गई। सोनिया, जो उस समय इंग्लैंड में अंग्रेजी भाषा का कोर्स कर रही थीं, राजीव के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुईं। राजीव की सादगी, शालीनता और तकनीकी विषयों के प्रति प्रेम ने सोनिया को आकर्षित किया। दोनों का यह रिश्ता धीरे-धीरे गहराता गया। इस दौरान राजीव ने भारत में अपने परिवार को सोनिया के बारे में बताया, और प्रारंभ में इंदिरा गांधी को यह रिश्ता स्वीकार करना थोड़ा कठिन लगा। लेकिन समय के साथ उन्होंने इस रिश्ते को समझा और स्वीकार किया।

राजीव और सोनिया ने लगभग तीन साल तक एक-दूसरे को समझा, और फिर 1968 में दिल्ली में दोनों का विवाह हुआ। यह शादी एक पारिवारिक और सांस्कृतिक मिलन थी—भारत के एक राजनीतिक परिवार और इटली की एक सामान्य लेकिन सुसंस्कृत लड़की के बीच। विवाह के समय सोनिया ने पारंपरिक भारतीय परिधान पहना और हिंदू रीति-रिवाजों से विवाह संपन्न हुआ। शादी के बाद सोनिया ने भारतीय संस्कृति को पूर्ण रूप से अपनाया। इस विवाह के बाद राजीव गांधी ने राजनीति से दूरी बनाए रखी और एक सामान्य पारिवारिक जीवन को प्राथमिकता दी। उन्होंने दिल्ली में इंडियन एयरलाइंस में बतौर पायलट नौकरी की और यहीं से उनका पेशेवर जीवन शुरू हुआ। सोनिया भी उनके साथ एक गृहिणी की भूमिका में रहीं और परिवार की जिम्मेदारी संभाली।
Tribute-To-Rajiv-Gandhi1-300x207 भारतीय राजनीति के इकलौते जेंटलमैन पॉलिटिशियन थे राजीव गांधी

राजीव गांधी ने विवाह के बाद कई वर्षों तक राजनीति से दूरी बनाए रखी। वे दिल्ली में रहते हुए एक पायलट के रूप में काम करते रहे और पूरी तरह से पारिवारिक जीवन में रम गए। इस बीच उनके दो बच्चे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी हुए। राजीव गांधी की यह जीवनशैली पूरी तरह से ‘गांधी-नेहरू’ परंपरा से हटकर थी। वे निजी जीवन को प्राथमिकता देने वाले, किसी भी तरह की सार्वजनिकता से दूर रहने वाले व्यक्ति थे। वह न तो भाषण देने में रुचि रखते थे और न ही किसी राजनीतिक गतिविधि में भाग लेने की लालसा रखते थे। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि संजय गांधी उस समय इंदिरा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उभर रहे थे, और राजीव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन संजय की असमय मृत्यु (1980) ने पूरी तस्वीर बदल दी।

राजीव की राजनीति में अनचाही एंट्री
1980 में संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मौत के बाद इंदिरा गांधी को परिवार के उत्तराधिकारी की तलाश करनी पड़ी। उस समय पार्टी और देश, दोनों की नजरें राजीव पर टिक गईं। हालांकि उन्होंने प्रारंभ में राजनीति में आने से इनकार किया, लेकिन मां के कहने और देश की स्थिति को देखते हुए उन्होंने राजनीति में कदम रखा। यह कदम एक जिम्मेदारी के रूप में था, न कि सत्ता की लालसा के तहत। उनका यह निर्णय देश के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। उन्होंने न केवल कांग्रेस को फिर से मजबूती दी बल्कि 1984 में प्रधानमंत्री बनकर देश को तकनीकी युग की ओर अग्रसर किया।

उनके कार्यकाल में बोफोर्स तोप का बहुचर्चित घोटाला हुआ। हालांकि उसी बोफोर्स तोप की बदौलत भारत 1999 में कारगिल से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ने में सफल रहा। बहरहाल 1991 के चुनाव प्रचार के दौरान उनकी लोकप्रियता फिर से चरम पर थी, और देश उन्हें एक बार फिर प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता था। लेकिन ठीक उसी समय, श्रीपेरंबदूर में एक आत्मघाती हमले में उनकी हत्या कर दी गई। यह न केवल कांग्रेस, बल्कि पूरे भारत के लिए अपूरणीय क्षति थी। पूर्व प्रधानमंत्री को अपने आसन्न अंत के बारे में किसी तरह का पूर्वाभास था। पत्रकार नीना गोपाल ने अपनी पुस्तक “द असैसिनेशन ऑफ राजीव गांधी” में यही लिखा है। उनसे पूछा था, “क्या आपने देखा है कि हर बार जब कोई भी दक्षिण एशियाई नेता किसी महत्वपूर्ण पद पर पहुंचता है या अपने या अपने देश के लिए कुछ हासिल करने वाला होता है, तो उसे मार दिया जाता है, हमला किया जाता है, मार दिया जाता है…” इसके कुछ समय बाद ही आतंकवादी संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) के आत्मघाती दस्ते ने उनकी हत्या कर दी।

21 मई 1991 को लिट्टे के आत्मघाती हमले से कुछ घंटों पहले ही नीना गोपाल ने राजीव गांधी का इंटरव्यू लिया था। उन्होंने राजीव से पूछा था कि क्या उन्हें लगता है कि उनकी जिंदगी खतरे में है? इस पर राजीव ने खुद सवाल करते हुए कहा था: ‘क्या आपने कभी गौर किया है कि दक्षिण एशिया में जब भी कोई महत्वपूर्ण नेता सत्ता पर काबिज होता है या अपने देश के लिए कुछ हासिल करने के करीब होता है, तब उसे कैसे नीचे गिराया जाता है, उस पर हमला किया जाता है, उसे मार दिया जाता है… श्रीमती इंदिरा गांधी को देखिए, शेख मुजीबुर रहमान, जुल्फिकार अली भुट्टो, एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायके को देखिए।’ बकौल नीना, इस इंटरव्यू के कुछ ही देर बाद उनकी भी हत्या कर दी गई।

पत्रकार नीना गोपाल, जो राजीव गांधी की हत्या के समय उनके साथ थीं, ने इस पुस्तक में यह भी लिखा है कि कैसे एलटीटीई के नेता प्रभाकरन ने इस साजिश को अंजाम दिया। उन्होंने यह भी खुलासा किया कि एलटीटीई के उप-प्रमुख महत्तया को भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ (RAW) ने अपना एजेंट बनाया था, जिससे संगठन के भीतर विभाजन हुआ और अंततः महत्तया की हत्या कर दी गई। हालांकि बाद में प्रभाकरन भी श्रीलंका सेना के अभियान में मारा गया।

इंटरसेप्ट हुए थे लिट्‌टे के राजीव की हत्या वाले संदेश
पड़ोसी देश श्रीलंका में लिट्टे के विद्रोह को समाप्त करने के लिए भारतीय सशस्त्र बलों को भेजना बतौर प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बड़े फैसलों में एक था। तत्कालीन उनको यह जोखिम भरा और बड़ा कदम उठाने की सलाह कोलंबो स्थित भारतीय उच्चायोग, सैन्य कमांडरों और खुफिया एजेंसियों ने दी थी। इस दौरान, कई भारतीय सैनिकों ने अपनी जान गंवाई, लेकिन लिट्टे पर काबू नहीं पाया जा सका। बाद में भारतीय सैनिकों को वापस बुला लिया गया. लेकिन तब तक लिट्टे राजीव गांधी का दुश्मन बन चुका था।

लिट्‌टे के इंटरसेप्ट किए गए कई संदेशों में राजीव गांधी की हत्या करने के इरादे जाहिर किए गए। ये तमाम खुफिया इनपुट अप्रैल 1990 से मई 1991 के बीच इंटरसेप्ट किए गए थे। नीना गोपाल ने कर्नल हरिहरन के हवाले से अपनी किताब में लिखा है कि जब उनकी (हरिहरन) टीम ने राजीव गांधी की हत्या की साजिश रचने का संकेत देने वाला लिट्‌टे का एक कैसेट उन्हें सुनाया, तो वे सन्न रह गए। कर्नल हरिहरन के पास जाफना के तमिलों की एक छोटी-सी सेना थी, जो लिट्टे पर नजर रखती थी। इंटरसेप्ट किए गए संदेशों में से कुछ इस प्रकार थे: ‘राजीव गांधी अवारंड मंडालई अड्डीपोडलम’, ‘डंप पन्निडुंगो’ और ‘मारानई वेचिडुंगो।’ इनका संभावित हिंदी आशय यही था कि राजीव गांधी को जहां भी मौका मिले उड़ा दो या उन्हें खत्म कर दो।

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सरकार ने की थी सुरक्षा की भारी अनदेखी
किसी अनहोनी होने के राजीव गांधी के स्वयं के पूर्वाभास ही नहीं, बल्कि खुफिया एजेंसियों के पास लिट्‌टे के इस तरह के खुले इरादों के जाहिर होने के बावजूद उनकी सुरक्षा को लेकर भयावह लापरवाही बरती गई। 1991 में केंद्र में चंद्रशेखर सरकार के नाटकीय पतन के बाद मध्यावधि चुनावों की घोषणा हो गई। उन दिनों राजीव गांधी तमिलनाडु के चुनावी दौर पर थे। 21 मई की रात राजीव चेन्नई से करीब 40 किलोमीटर दूर श्रीपेरंबुदुर पहुंचे। रात के 10 बजने वाले थे। उस वक्त वहां सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं था। राजीव रेड कार्पेट पर तेजी से चलते हुए लोगों से फूलमालाएं स्वीकार कर रहे थे। लेकिन तभी उनकी नजर एक छोटी-सी लड़की कोकिला पर गई, जो कविता सुना रही थी। वह आत्मघाती दस्ते की ही सदस्य थी। उसे देखकर राजीव वहीं रुक गए। इतने में उनकी हत्यारिन धनु हाथ में चंदन की माला लेकर आगे बढ़ी। इस बीच राजीव को भी आभास हो गया कि कुछ तो गलत और असामान्य हो रहा है। उन्होंने कांस्टेबल अनुसूया को भीड़ को नियंत्रित करने का इशारा किया। लेकिन तब तक धनु राजीव के चरण स्पर्श करने का बहाना करते हुए झुक गई और अपने शरीर से लिपटे आरडीएक्स विस्फोट से लदे डिवाइस का बटन दबा दिया।

दरअसल, अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, उस समय वह महज 40 साल के थे। इस तरह उन्होंने भारत के सबसे युवा प्रधानमंत्री बनने का रिकॉर्ड बनाया और यह रिकॉर्ड आज तक कायम है। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने तय अवधि से पहले आम चुनावों की घोषणा कर दी। राजीव गांधी के पक्ष में सहानुभूति लहर के बलबूते कांग्रेस 543 लोकसभा सीटों में से 414 पर जीत दर्ज की। यह ऐसा आंकड़ा था, जिसे न तो कभी उनकी मां इंदिरा गांधी और न ही नाना जवाहरलाल नेहरू हासिल कर पाए थे। उसके बाद कोई भी पार्टी यह रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाई। पार्टी की प्रचंड जीत के जश्न मनाने के दौरान यह संभवत: पहला और एकमात्र मौका था, जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (AICC) का 24 अकबर रोड स्थित मुख्यालय लगातार तीन दिन तक रोशनी से सराबोर रहा।

क्या राजीव गांधी ‘नरम हिंदुत्व’ के पक्षधर थे?
कुछ समकालीन इतिहासकार मानते है कि हिंदू श्रद्धालुओं के लिए राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के ताले खोलने का राजीव गांधी का निर्णय ‘नरम हिंदुत्व’ था, जिसका मकसद शाह बानो मामले में मौलवियों के रुख का समर्थन करने को लेकर हो रही आलोचनाओं से उबरना था। हालांकि, राजीव गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में तैनात रहे जम्मू-कश्मीर कैडर के आईएएस अधिकारी वजाहत हबीबुल्ला ने बाद में अपनी किताब में दावा किया था कि प्रधानमंत्री को फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के ताले खोले जाने की जानकारी नहीं थी। अपने संस्मरणों के संग्रह ‘माई ईयर्स विद राजीव गांधी: ट्रंफ एंड ट्रेजेडी’ में हबीबुल्ला ने लिखा है कि जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री से पूछा कि क्या वे ताले खोलने के निर्णय में शामिल थे, तब राजीव ने दो टूक जवाब दिया था, ‘नहीं, किसी भी सरकार को धार्मिक स्थलों के संचालन या अन्य मामलों में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। मुझे इस घटनाक्रम के बारे में तब तक कुछ भी मालूम नहीं था, जब तक कि आदेश पारित होने और उसके क्रियान्वयन के बाद मुझे इसके बारे में बताया नहीं गया।’

अनिरुध्य मित्रा ने अपनी किताब “नाइन्टी डेज़ (Ninty Days)” में भी इस प्रकरण के बारे में लिखा है। कहा जाता है कि यह पुस्तक राजीव गांधी की हत्या के बाद हत्यारों की तलाश और जांच प्रक्रिया का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है। मित्रा ने बताया है कि कैसे जांच एजेंसियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, और कुछ महत्वपूर्ण सुरागों की अनदेखी हुई। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि कैसे एक स्थानीय फोटोग्राफर की तस्वीर ने जांच में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सीबीआई के पूर्व अधिकारी के. रघोथमन ने अपनी पुस्तक “कॉन्सिपिरेसी टू किल राजीव गांधी (Conspiracy to Kill Rajiv Gandhi)” में दावा किया है कि तत्कालीन खुफिया ब्यूरो (IB) प्रमुख एमके नारायणन ने एक वीडियो फुटेज को दबा दिया था, जिसमें आत्मघाती हमलावर धानु की उपस्थिति दिखाई गई थी। यह वीडियो जांच टीम को नहीं सौंपा गया, जिससे जांच प्रक्रिया प्रभावित हुई।

राजीव गांधी का जीवन असाधारण परिवर्तन की कहानी है। एक शांत, तकनीकी रुचि रखने वाला युवक जो पायलट बनना चाहता था, कैसे परिस्थितियों और कर्तव्य के चलते देश का सबसे युवा प्रधानमंत्री बन गया—यह उनके जीवन की त्रासदी भी है और प्रेरणा भी। उनका सोनिया गांधी से प्रेम, विवाह और संयुक्त पारिवारिक जीवन आज भी भारतीय राजनीति में एक अनोखी मिसाल है। यह संबंध न केवल एक अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक पुल बना, बल्कि एक मजबूत राजनीतिक विरासत की नींव भी रखी। राजीव गांधी का यह पहलू हमें यह सिखाता है कि राजनीति में आने वाले नेता केवल मंच पर बोलने वाले नहीं होते, बल्कि वे भी एक सामान्य जीवन जीने की ख्वाहिश रखते हैं, और परिस्थितियां जब उन्हें बदल देती हैं, तो वे इतिहास रचते हैं।

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ज्योति मल्होत्रा की आय ₹15-25 हजार प्रति माह, पर वह रुकती थी 5 स्टार होटेल में

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देश की सुरक्षा से जुड़ी अति-संवेदनशील जानकारी पाकिस्तानी जासूसों को देने के आरोप में गिरफ्तार कुख्यात यूट्यूबर ज्योति मल्होत्रा की मासिक आय ₹15,000 से ₹25,000 के बीच बताई जाती है, फिर भी वह केवल बिजनेस क्लास में हवाई यात्रा करती थी और 5-स्टार होटलों में ठहरती थी। अब राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी और हरियाणा जांच के दौरान यह जानने की कोशिश कर रही हैं कि इतनी शान-ओ-शौकत की ज़िंदगी जीने के लिए उसके पास पैसे कहां से आते थे। ज्योति की मासिक आय और जीवनशैली के बीच का अंतर, साथ ही उनके विवादास्पद गतिविधियों के कारण, जांच एजेंसियां उनकी वित्तीय स्थिति और संपर्कों की गहन जांच कर रही हैं। इस बीच ज्योति के पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के संपर्क की पुष्टि कर दी गई है।

हालांकि 33 साल की ज्योति के पिता हरीश मल्होत्रा ने बताया कि यूट्यूब से उसे किसी महीने 15-20 हजार तो किसी महीने 25 हजार आते थे। यही उसकी इनकम थी। यह पूछने पर कि इतने कम पैसे से वह 5 स्टार होटल में कैसे ठहरती थी, उसकी खर्च कौन वहन करता था। इसका जवाब हरीश के पास नहीं था। समझा जाता है कि संवेदनशील सूचनाएं पाकिस्तानी एजेंट्स को देने के एवज में ज्योति को उनसे मोटी रकम मिलती थी। जास एजेंसियां इसी एंगल की भी जांच कर रही हैं।

ज्योति मल्होत्रा के यूट्यूब चैनल के 3.77 लाख से अधिक सब्सक्राइबर और इंस्टाग्राम पर 1.32 लाख फॉलोअर्स हैं। उसकी गिरफ्तारी के बाद उसके सब्सक्राइबर्स की संख्या कम हो रही है। वह कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट हैं। पहले गुरुग्राम में एक निजी कंपनी में 20 हजार महीने की सेलरी पर काम करती थीं। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान नौकरी छूट गई। उसने पिता हरीश कारपेंटर हैं। 2022 में ब्लॉगिंग शुरू की। अब तक वह पाकिस्तान, चीन, भूटान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया, थाईलैंड, नेपाल, यूएई जैसे देशों की यात्रा कर चुकी है।

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रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि ज्योति के सोशल मीडिया पर अपलोडेड वीडियोज महज दिखावा थे। वह कई डिजिटल डिवाइसेज़ का उपयोग करती थी और एन्क्रिप्टेड प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से पाकिस्तानी एजेंटों के साथ नियमित संपर्क में रहती थी। इस संबंध में डिजिटल सबूत प्राप्त हुए हैं। हरियाणा पुलिस ने बताया कि स्नैपचैट, टेलीग्राम और व्हाट्सऐप जैसे आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले एन्क्रिप्टेड सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का प्रयोग किया गया। एक मीडिया ब्रीफिंग में हिसार के पुलिस अधीक्षक (SP) शशांक कुमार ने कहा कि इस जांच में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) सहायता कर रही है।

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार ज्योति मल्होत्रा के खिलाफ नए सबूत सामने आए हैं। मल्होत्रा पर आरोप है कि वह कई पाकिस्तानी एजेंटों के संपर्क में थीं और अपने इन संबंधों को छुपाने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करती थीं। अधिकारियों ने बताया कि जासूसी की आरोपी के खिलाफ ताजा डिजिटल सबूत मिले हैं। पुलिस पूछताछ में उसने स्वीकार किया कि 2023 में वह पाकिस्तान हाई कमीशन गई थी। इसके बाद वह दो बार और पाकिस्तान घूमने गई।

ज्योति पाकिस्तान में भी वह ऐसे स्थानों पर गई जहां आईएसआई के एजेंट्स होते थे। वह इंडोनेशिया के बाली शहर एक पाकिस्तानी ऑपरेटिव के साथ गई। पर्यटन के वीडियों बनाने के बहाने ज्योति उन स्थानों का दौरा करती थीं, जहां जाने से पाकिस्तान या चीन को लाभ होता था। सबसे बड़ी बात उसने पहलगाम आतंकी हमले से कुछ समय पहले उसने पहलगाम का दौरा किया और वीडियो में बताने का प्रयास किया कि पूरे देश से पर्यटक कश्मीर आ रहे हैं और उसने यह भी बताया कि कहा-कहां सुरक्षा व्यवस्था है।

YouTuber-Jyoti-Malhotra-03-300x220 ज्योति मल्होत्रा की आय ₹15-25 हजार प्रति माह, पर वह रुकती थी 5 स्टार होटेल में

पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तानी दूतावास में जश्न मनाया गया था। उस पार्टी के लिए केक ज्योति मल्होत्रा का फ्रेंड लेकर गया था। उस समय उसका वीडियो भी वायरल हुआ था। ज्योति के साथ उस व्यक्ति के ढेर सारे फोटो और वीडियो में है। वह शख्स ज्योति के कई वीडियों में दिखा भी है। सबसे बड़ी बात पहलगाम हमले के बाद वह फिर से वहां गई और वहां के हालात पर वीडियो बनाया।

आरोप है कि ज्योति मल्होत्रा पाकिस्तान हाई कमीशन में काम करने वाले दानिश नाम के एक अधिकारी के संपर्क में थी. इसी अधिकारी ने ज्योति को पाकिस्तान भी भेजा था। यह भी कहा जा रहा है कि पाकिस्तानी एजेंट्स ने उस पर भारतीय युवाओं को ब्रेनवॉश करने, सोशल मीडिया के माध्यम से पाकिस्तान समर्थक प्रचार करने और संवेदनशील सूचनाएं एकत्रित करने जैसे तीन बड़े कार्य सौंपे थे।

ज्योति मल्होत्रा के इंस्टाग्राम अकाउंट को खंगालने पर सामने आया है कि यूट्यूबर पहलगाम आतंकी हमला होने से तीन महीने पहले श्रीनगर की यात्रा पर गई थी। इस दौरान ज्योति पहलगाम भी गई थी। जनवरी में श्रीनगर घूमने के बाद वह मार्च के महीने में पाकिस्तान गई थी। पाकिस्तान जाने के लिए वीजा लेने के लिए उसने किसी के ज़रिए पाकिस्तान एसेंबली के अधिकारी अहसान-उर-रहीम उर्फ दानिश से हुई। इस दौरान उसने दानिश का मोबाइल नंबर ले लिया और उससे बात करने लगी। बातचीत के दौरान दोनों बहुत करीब आ गए। ज्योति दानिश के ट्रैप में फंस गई।

बहरहाल ज्योति दानिश की मदद से दो बार पाकिस्तान गई और वहां दानिश के सहयोगी अली अहवान ने उसका पाकिस्तान में ठहरने और घूमने का इंतजाम किया। बताया जाता है कि अली अहवान नाम के शख्स ने ही ज्योति की मुलाकात पाकिस्तानी इंटेलिजेंस अधिकारियों से मिलवाया। इस यात्रा के दौरान ज्योति शाकिर और राणा शहबाज नाम के दो और जासूसो से भी मिली। शाकिर का मोबाइल नंबर उसने जट रंधावा के नाम से सेव किया। उसने यह इसलिए किया ताकि किसी को उस पर शक न हो।

YouTuber-Jyoti-Malhotra-04-300x169 ज्योति मल्होत्रा की आय ₹15-25 हजार प्रति माह, पर वह रुकती थी 5 स्टार होटेल में

जांच से जुड़े लोगों के मुताबिक पाकिस्तान से भारत वापस आने के बाद ज्योति मल्होत्रा स्नैपचैट, व्हाट्सऐप और टेलिग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के माध्यम इन जासूसों से संपर्क में रही और देश विरोधी जानकारी देती रही। इस दौरान वह पाकिस्तान हाई कमीशन के अधिकारी दानिश के साथ भी लगातार संपर्क में रही। हिसार पुलिस के मुताबिक, ज्योति पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों के संपर्क में थी। सोशल मीडिया के माध्यम से भारत की गोपनीय जानकारी भेज रही थी। लगभग दो साल के भीतर तीन बार पाकिस्तान की यात्रा कर चुकी ज्योति भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की रडार पर आ गई थी।

ज्योति पर भारतीय एजेंसियों की नज़र मार्च 2024 में गई जब वह दानिश की दावत पर नई दिल्ली में पाकिस्तान हाई कमीशन की इफ्तार पार्टी में शिरकत करने गई। वीडियो में पाकिस्तानी अधिकारी अहसान-उर-रहीम उर्फ दानिश के साथ नजदीकी दिखी तो एजेंसियों के कान खड़े हो गए। उसने कथित तौर पर भारत की सैन्य गतिविधियों, विशेष रूप से ऑपरेशन सिंदूर और सेना की तैनाती से जुड़ी संवेदनशील जानकारी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI और इसके एजेंटों को दी।

ज्योति को 17 मई 2025 को पांच दिन की पुलिस रिमांड पर भेजा गया। पुलिस रिमांड कैसी होती है, सबको पता है। उसके मोबाइल, लैपटॉप, और अन्य इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस फॉरेंसिक जांच के लिए भेजे गए हैं। बैंक खातों और यात्रा इतिहास की भी जांच हो रही है। यदि दोषी पाई गईं, तो आजीवन कारावास या गंभीर मामलों में फांसी तक की सजा हो सकती है। हो सकता है कि वकील लोग निर्दोष साबित करवा दें।

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चीन पर अचानक क्यों मेहरबान हुआ अमेरिका?

ज़्यादातर भारतीय नागरिक इन दिनों इस बात पर हैरान हो रहे हैं कि अचानक ऐसा क्या हो गया जिससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘माई फ्रेंड डोनाल्ड ट्रंप’ अचानक रोज़ाना भारत विरोधी बयान दे रहे हैं? कभी ट्रंप ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध विराम का क्रेडिट ले रहे हैं, तो कभी वह एप्पल के हेड जिम कुक को एप्पल की फैक्टरी भारत में न लगाने की सलाह दे रहे हैं। अब उन्होंने भारत भेजे जाने वाले डॉलर पर 5 फ़ीसदी टैक्स लगाने का प्रस्ताव किया है। इससे मोदी की अपने ही देश में किरकिरी हो रही है, तो भारत और भारत की विदेश नीति दुनिया में उपहास का पात्र बन रही है।

भारत और पाकिस्तान के बीच ख़तरनाक रूप से बढ़ते एस्केलेशन के बीच 10 मई की शाम अचानक और अप्रत्याशित रूप से युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। हैरान करने वाली बात यह रही कि न तो केंद्र सरकार की ओर से और न ही भारतीय सेना की ओर से अचानक और अप्रत्याशित युद्ध विराम के बारे में कोई जानकारी दी गई। इस कारण पूरे देश में कन्फ़्यूज़न का माहौल बन गया। लोग अपने-अपने ढंग से युद्ध विराम का अर्थ निकालने लगे। बहरहाल, अब युद्ध विराम एक हफ़्ते बादअब छनकर ख़बर आ रही है कि उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बड़बोलेपन से भारत को किसलिए धमकी दी और कथित तौर पर युद्ध विराम करवाया।

दरअसल, भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर शुरू करते हुए 6-7 मई की रात पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 9 आतंकवादी शिविरों को तबाह कर दिया। देश की सेना ने यह कार्रवाई पहलगाम हमले में अपना सुहाग खोने वाली 28 महिलाओं के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने के लिए शुरू की थी। इसीलिए इसका नाम ऑपरेशन सिंदूर रखा गया। भारतीय सेना ने सैन्य कार्रवाई में जैसे ही पाकिस्तान पर निर्णायक बढ़त ली, वैसे ही चीन और अमेरिका की हवाइयां उड़ने लगी। इसकी वजह यह थी कि भारतीय सेना ने अमेरिका के प्राइड माने जाने वाले F-16 और चीन का गौरव कहे जाने वाले JF-17 जैसे विमानों को मार गिराने के दावा कर दिया। बताया जाता है कि भारत ने अमेरिका और चीन के कुल पांच विमान मार गिराए। चीन की तो भद तब और पिट गई, जब यह ख़बर आई कि भारतीय सेना ने उसकी हवा में मार करने वाली अत्याधुनिक PL-15 मिसाइल भी गिरा दी।

इतना ही नहीं यह ख़बर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तैरने लगी कि अमेरिकी F-16 और चाइनीज़ JF-17 जैसे विमानों और PL-15 जैसी मिसाइल गिराने का कारनामा भारतीय सेना ने भारत में बनी आकाश मिसाइल के ज़रिए किया। इतना ही नहीं, भारतीय डिफेंस सिस्टम एस 400 यानी चक्र सुदर्शन भी लगातार दो रात तक टर्की के ड्रोन और चीन की मिसाइल को फटाखे की तरह हवा में ही निष्क्रिय करता रहा, जिससे भारत को कोई नुकसान नहीं हुआ। इसके अलावा भारत के स्वदेसी मिसाइल ब्रह्मोस ने तो एक घंटे के भीतर पाकिस्तान के 11 एयरबेस को नष्ट कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हमला और सुरक्षा के इस अभेद्य तंत्र की बदौलत दो से तीन दिन में भारत पाकिस्तान को चारों खाने चित्त करने वाला था। कहने का मतलब केवल और केवल दो रात में ही भारत दुनिया में आक्रमण करने और बचाव करने में अमेरिका और चीन से आगे निकल गया। यह भारत की बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

इससे रातोंरात इंटरनेशन वीपन्स मार्केट में कई दशक से वर्चस्व रखने वाले अमेरिका और चीन जैसे देशों की साख़ पर बहुत बड़ा बट्टा लगने लगा था। उनकी मार्केट वैल्यू ही ख़त्म होने का संकट पैदा हो गया था। जिसका इंपैक्ट अंततः उनके हर सार ख़रबों डॉलर के हथियारों की बिक्री पर पड़ने वाला था, क्योंकि ये दोनों देश असुरक्षा का माहौल बनाकर ग़रीब देशों को महंगे दाम पर हथियार बेचते हैं। इससे उनको मिलने वाली अकूत विदेशी धन पर भी असर पड़ने वाला था। इसके बाद मौक़े की नज़ाकत को देखकर अवसरवादी अमेरिका और दूसरे अवसरवादी चीन से हाथ मिला लिया। यह उनकी व्यापारिक मजबूरी थी। इसका मकसद था साथ मिलकर भारत की रक्षा प्रणाली के बारे में दुष्प्रचार किया जाए। यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के इन दो स्थायी सदस्यों की नई पॉलिसी का हिस्सा था।

दरअसल, उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि भारत ने हमला करने की अचूक क्षमता और सुरक्षा करने की इस अभेद्य प्रणाली विकसित कर ली है। अब इसकी बदौलत आने वाले दिनों में भारत वीपन मार्केट में इन दोनों देशों की बादशाहत को चुनौती देने वाला था। इसके बाद तो भारत की हमला करने की साख़ गिराने का मोर्चा पश्चिमी मीडिया, ख़ासकर अमेरिकी और चाइनीज़ मीडिया ने संभाल लिया। बिना किसी ठोस प्रमाण के उसी दिन से बस केवल सूत्रों का हवाला देकर यह ख़बर किसी मुहिम की तरह चलाई जा रही थी कि भारत के तीन-तीन अत्याधुनिक राफेल फाइटर जेट विमान मारकर गिराए गए। सशस्त्र संघर्ष में बुरी तरह मार खाने वाला पाकिस्तान उससे आगे बढ़कर तीन राफेल समेत कुल छह भारतीय लड़ाकू विमानों को गिराने का दावा कर रहा था।

पश्चिमी मीडिया ने झूठा दावा किया कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान 7-8 की रात चीन के J-10C जेट और PL-15 मिसाइल के ज़रिए फ्रांस निर्मित तीन राफेल विमान को गिरा दिए गए। यह ख़बर सभी पश्चिमी और चाइनीज़ समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों ने चलाई। शीघ्र ही इन मीडिया संस्थानों की रिपोर्ट पर गंभीर सवाल उठने लगा। कहा जाने लगा कि अगर पाकिस्तान ने चीन के J-10C लड़ाकू विमानों और PL-15 मिसाइलों की मदद से तीन राफेल समेत पांच लड़ाकू जेट गिरा दिए तो, जेट का मलबा कहां गया? कम से कम इतने बड़े सैन्य टकराव की पुष्टि उपग्रह तस्वीरों, अवशेषों और अंतरराष्ट्रीय निगरानी एजेंसियों की रिपोर्ट्स से जरूर होती। इसके बाद पश्चिमी मीडिया ने कहा कि तीन नहीं, बल्कि दो राफेल गिराए गए। फिर भूल सुधार करते हुए कहा गया कि दो नहीं बल्कि एक राफेल गिराया गया। मतलब पश्चिमी मीडिया केवल सूत्र ही पूरी ख़बर चलवा रही थी। बाद में यह माना गया युद्ध में छह-सात की रात भारत का कुछ विमान गिर गए थे, जिनमें एक राफेल भी था। लेकिन छह विमान गिराने की ख़बर आधारहीन है।

दरअसल, राफेल जैसे अति उन्नत जेट का गिराया जाना न सिर्फ़ बहुत बड़ी सैन्य ख़बर होती, बल्कि इसका मलबा या अवशेष ज़मीन पर कहीं न कहीं जरूर दिखाई देता। चाहे वह भारतीय सीमा में गिरा होता अथवा पाकिस्तानी सीमा में। ऐसे मलबे को छुपाना लगभग असंभव था, क्योंकि उसमें उच्च तकनीकी इंजन, रडार सिस्टम, हथियार और विस्फोटक होते हैं, जिनकी पहचान आसानी से की जा सकती है। मलबे से राफेल के गिरने की पुष्टि भारत, पाकिस्तान या किसी तीसरे देश द्वारा की जाती, और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसकी व्यापक कवरेज होती। रक्षा विश्लेषक, उपग्रह डेटा, और ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस से इसकी जांच होती। अगर राफेल वाकई गिरा होता तो भारत की जवाबी कार्रवाई या आधिकारिक बयान जरूर आता, जो अब तक नहीं आया। इसलिए यह दावा बिना किसी विश्वसनीय साक्ष्य के अफवाह या प्रोपेगैंडा प्रतीत हुआ।

आपको याद होगा, अपने पहले कार्यकाल में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरोना वायरस को चाइनीज़ वायरस कह रहे थे। उन्होंने चीन पर तरह-तरह की बंदिशें लगा दी थी। इसीलिए जब ट्रंप दूसरी बार प्रेसिडेंट बने तो दुनिया को लगा कि अब चीन की ख़ैर नहीं और ट्रंप के दूसरे टर्म के शुरुआती कार्यकाल में ट्रेड टैरिफ वार से लगा कि चार साल तक अमेरिका और चीन में विवाद चलता रहेगा। लेकिन भारत के आतंकवाद के ख़िलाफ़ शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर के अचानक थम जाने के दो दिन बाद ही अमेरिका और चीन में सुलह हो गई। ट्रंप ने चीन से आयात होने वाले अधिकांश उत्पादों पर टैरिफ को 145 फीसदी से घटाकर 30 फ़ीसदी करने की घोषणा कर दी, तो चीन ने भी अमेरिकी उत्पादों पर 10 फ़ीसदी शुल्क लगाने का फैसला किया जबकि पहले 24 फ़ीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाने की बात कही गई थी। ट्रंप की अचानक चीन पर मेहरबानी से पूरी दुनिया के लोग हैरान हो गई।

दरअसल, भले ट्रंप ने भारत पर दबाव डालकर या धमका कर युद्ध विराम करवा दिया, लेकिन इस युद्ध की पाकिस्तान से भी अधिक बड़ी क़ीमत अमेरिका को चुकानी पड़ेगी। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमला करते समय भारत के आकाश और ब्रह्मोस मिसाइलों और तेजस विमान और बचाव करने में एस 400 सुदर्शन चक्र के करतब से पूरी दुनिया परिचित हो गई। आने वाले दिनों में इंटरनेशनल वीपन्स मार्केट में भारत अब अमेरिका और चीन के सामने ज़बरदस्त चुनौती पेश करेगा। अब भारत को भविष्य में कोई भी रणनीति बनानी है तो अमेरिका को दोस्त नहीं बल्कि दुश्मन मान कर पॉलिसी ड्राफ़्ट करनी होगी, क्योंकि अमेरिका दोस्त के भेस में भारत का दुश्मन है। यह भी विचित्र है कि नरेंद्र मोदी की दोस्ती के साथ पहले शी जिनपिंग ने धोखा किया और अब उनके तथाकथित “माई फ्रेंल ‘डोलांड’ ट्रंप” भी बेवफ़ाई कर रहे हैं।

देश की 140 करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी समझना चाहिए कि यह समय है अंतरराष्ट्रीय मंच पर नेताओं को भावुक होकर गले लगाने का नहीं है, बल्कि परिपक्वता दिखाते हुए ढंग से पेश आने डिप्लोमेटिक ढंग से बातचीत करने का है। अपने 11 साल के कार्यकाल में मोदी 166 बार विदेश गए। 73 देशों के राष्ट्राध्यक्षों को गले लगया, लेकिन भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय दुनिया का एक देश भी भारत के पक्ष में बयान नहीं दिया। यह मोदी काल में विदेश नीति की असफलता का द्योतक है।

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आतंकवाद को समूल नष्ट करने के लिए हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन का सिर चाहिए ही चाहिए

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लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और हिज़बुल मुजाहिद्दीन का सफाया ज़रूरी

भारत ने आतंकवाद की विभीषिका को न केवल पिछले चार दशक से ज़्यादा समय से सहा है, बल्कि उसकी आग में अपने हजारों-लाखों नागरिक और सुरक्षा जवान खोए हैं। इन रक्तरंजित वर्षों के पीछे अगर किसी के नाम सबसे अधिक उभरकर सामने आते हैं, तो वे हैं — लश्कर-ए-तैयबा का मुखिया हाफ़िज़ मोहम्मद सईद, जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक मौलाना मसूद अज़हर और हिज़बुल मुजाहिद्दीन सरगना सैयद सलाउद्दीन। ये तीनों दहशतगर्द आतंकवाद की वो त्रिमूर्ति हैं, जिनका अस्तित्व भारत की आंतरिक सुरक्षा और सार्वभौमिकता पर एक स्थायी खतरा बना हुआ है। इसलिए आज भारतीय जनमानस की एक ही मांग है — इन तीनों का अंत। भारत को किसी भी कीमत पर इन आतंकवादियों का सिर चाहिए। इससे कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है।

ऑपरेशन सिंदूर युद्धविराम के बाद भारत और पाकिस्तान के डीजीएमओ (Director Generals of Military Operations) लेफ्टिनेंट जनरल राजीव घई और मेजर जनरल कासिम अब्दुल्ला के बीच बातचीत हुई। तो यह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर था। हमें इस मौके को खोना नहीं चाहिए था। बातचीत के एजेंडे में हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन की भारत को तत्काल सौंपने की मांग सबसे ऊपर एक ही बात होनी चाहिए थी। यह केवल एक मांग नहीं, बल्कि उन हजारों भारतीयों के खून का हिसाब है जो इन आतंकियों की साजिशों का शिकार हुए। जब तक ये तीनों पाकिस्तान की सरपरस्ती में ज़िंदा घूमते रहेंगे, तब तक कोई भी समझौता, कोई भी युद्धविराम या कोई भी शांति प्रक्रिया बेमानी है। भारत को इस बातचीत में स्पष्ट शब्दों में यह संदेश देना चाहिए कि शांति का रास्ता सिर्फ़ आतंक के अंत से होकर जाएगा — और वह अंत इन तीनों की गिरफ्तारी या मृत्यु से शुरू होगा।

भारत ने हमेशा शांति की बात की है, और अपने पड़ोसियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों को प्राथमिकता दी है। लेकिन यह शांति तब तक बेमानी है जब तक आतंकवाद के आकाओं को उनकी अंजाम तक नहीं पहुँचाया जाता। हाफ़िज़ सईद, जो 2008 के मुंबई हमलों का मास्टरमाइंड है; मसूद अज़हर, जिसने संसद हमले और पठानकोट जैसे हमलों की योजना बनाई; और सैयद सलाउद्दीन, जो कश्मीर घाटी में आतंक का पर्याय बन चुका है — ये तीनों तब तक जिंदा रहेंगे, तब तक शांति एक सपना ही बनी रहेगी। आज यह मांग केवल किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा की नहीं, बल्कि एक आम भारतीय नागरिक की है। हर वह व्यक्ति जो देश में अमन चाहता है, हर वह माँ जिसने अपने बेटे को सीमा पर खोया है, हर वह बच्चा जो भय के साए में बड़ा हो रहा है — यही कह रहा है कि इन दरिंदों का खात्मा ज़रूरी है।

युद्धविराम तभी स्वीकार्य, जब आतंक का अंत हो

ऑपरेशन सिंदूर बीच में रोककर युद्धविराम घोषित कर दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम की बातें कई बार होती हैं, लेकिन हर बार इसका फायदा पाकिस्तान को ही होता है। युद्धविराम के नाम पर जब भी भारत ने संयम दिखाया, पाकिस्तान ने पीठ में खंजर घोंपा। आतंकी शिविर फिर से सक्रिय हो गए, घुसपैठ बढ़ गई और घाटी में निर्दोषों का खून बहता रहा। इसलिए अब समय आ गया है कि भारत युद्धविराम की किसी भी प्रक्रिया को इन तीन आतंकवादियों के खात्मे से जोड़े। जब तक ये तीनों ज़िंदा हैं, तब तक युद्धविराम केवल एक झूठा समझौता ही रहेगा।

भारत को चाहिए स्पष्टता और ईमानदारी

यदि भारत सरकार इन आतंकियों को मार गिराने में सक्षम है, तो उसमें देर नहीं होनी चाहिए। यदि किसी कारणवश ऐसा संभव नहीं है, तो भारत की जनता को साफ-साफ बता देना चाहिए। इस देश की जनता ने मुग़लों, ब्रिटिशों और आतंकियों के अत्याचार झेले हैं। यह जनता सहनशील जरूर है, लेकिन अंधी नहीं। उसे कम से कम यह जानने का हक़ है कि उसकी सरकार किस हद तक जाने को तैयार है।

आशा और भ्रम के बीच जीती जनता को जब बार-बार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘एयर स्ट्राइक’ के नाम पर आश्वासन दिया जाता है, तो उसका विश्वास भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है। आज ज़रूरत है पारदर्शिता की — जनता को सच बताए जाने की, और यह स्वीकार करने की कि क्या हम वास्तव में उस स्तर पर हैं जहां से हम इन शत्रुओं को समाप्त कर सकें।

पाक-अधिकृत कश्मीर पर संसद का संकल्प

भारत की संसद ने 10 अगस्त 1994 को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) भी भारत का हिस्सा है। लेकिन उस प्रस्ताव को लागू करने की दिशा में अब तक कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया गया है। यह स्थिति केवल जनता में असंतोष को जन्म देती है।

भारतीय नागरिक वर्षों से आशा लगाए बैठे हैं कि सरकार इस प्रस्ताव पर अमल करेगी। पर हर चुनाव में केवल वादे दोहराए जाते हैं। यदि सरकार वास्तव में PoK को पुनः भारत में शामिल करना चाहती है, तो यह काम भी आतंकवाद की जड़ को काटने जैसा ही होगा। क्योंकि जब तक पीओके पाकिस्तान के कब्ज़े में रहेगा, तब तक वहां से आतंक का प्रसार होता रहेगा।

आतंकवाद की फसल को जड़ से उखाड़ो

हाफ़िज़, मसूद और सलाउद्दीन केवल व्यक्ति नहीं हैं, ये विचारधारा के प्रतीक हैं। इनके जिंदा रहने का मतलब है, युवाओं को गुमराह करने का सिलसिला चलता रहेगा, आतंक की फसल कटती रहेगी, और निर्दोष लोग हर रोज़ मरते रहेंगे। ये तीनों पाकिस्तान की ‘स्टेट स्पॉन्सर्ड टेररिज़्म’ नीति के सबसे बड़े चेहरे हैं। इनका अंत केवल तीन लोगों की मौत नहीं होगी, यह भारत की उस लड़ाई की जीत होगी जो वह दशकों से लड़ रहा है।

अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की भूमिका

भारत को केवल सैन्य स्तर पर नहीं, बल्कि कूटनीतिक स्तर पर भी अपनी लड़ाई तेज करनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र, FATF, इंटरपोल जैसे वैश्विक मंचों पर भारत ने कई बार इन आतंकियों को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाने में सफलता पाई है। लेकिन इससे आगे जाकर अब यह मांग होनी चाहिए कि पाकिस्तान पर वास्तविक दबाव डाला जाए। जिन देशों ने आतंक के खिलाफ विश्व युद्ध छेड़ा है, उन्हें भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहिए। आतंकवाद किसी एक देश की समस्या नहीं, वैश्विक संकट है — और इसका समाधान भी वैश्विक स्तर पर ही संभव है।

अब और नहीं

भारत की जनता थक चुकी है — भाषणों से, घोषणाओं से, और केवल प्रतीकात्मक कार्रवाइयों से। अब समय है निर्णायक कार्रवाई का। देश के युवाओं को, जवानों को, और आम नागरिकों को यह विश्वास चाहिए कि उनका देश आतंक के खिलाफ खड़ा है — पूरे संकल्प और शक्ति के साथ। हाफ़िज़ सईद, मसूद अज़हर और सैयद सलाउद्दीन का अंत भारत की सुरक्षा का पहला चरण होगा। जब तक ये जिंदा हैं, तब तक शांति की कल्पना करना व्यर्थ है। भारत को चाहिए इनका सिर — और यह मांग कोई तात्कालिक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि एक स्थायी राष्ट्रीय नीति बननी चाहिए।