विचित्र है ये दुनिया न… अभी तक लोग सोनम रघुवंशी की सलामती के लिए दुआ कर रहे थे, लेकिन अचानक उससे नफ़रत करने लगे। कोई उसे क़ातिल कह रहा है कोई डायन। रातोंरात अचानक से वह देश की सबसे बड़ी विलेन बन गई है। अगर उसे लोगों के हवाले कर दिया जाए तो उसे ज़िंदा भी जला सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने लोगों के माइंडसेट कितना बदल गया है। पढ़े-लिखे लोग पुलिस की बात आंख मूद कर मान लेते हैं, जबकि ज़्यादातर मामलों में पुलिस घटना को अपने अनुसार डिफाइन कर देती है।
सोनम को क़ातिल, हत्यारन, डायन, चुड़ैल, बेवफा आदि जैसे शब्दों से अलंकृत कहने से पहले दिमाग़ से सोचने की ज़रूरत है क्योंकि हमारे शरीर में दिमाग़ भी बनाया गया है, ताकि इंसान किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले थोड़ा सोचे, क्योंकि पता चला है कि सोनम की मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है। वैसे भी राजा हत्याकांड में अभी मेघालय पुलिस सरकमस्टेंशियल एविडेंस (Circumstantial Evidence) यानी परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर उनकी पत्नी सोनम को ‘हत्या का आरोपी’ करार दे रही है। क्या हमारे समाज में कोई पढ़ी-लिखी स्त्री शादी के दो हफ़्ते के अंदर साज़िश रचकर अपने पति को अपने रास्ते से हटा सकती है? मतलब शादी के तुरंत बाद साज़िश रचने की प्रक्रिया शुरू कर देना और पति को लेकर मेघालय चली जाना। वहां मध्य प्रदेश से एक नहीं बल्कि चार-चार हत्यारों को बुला भी लेना। इतना कोऑर्डिनेश एक नवविवाहिता कर सकती है क्या?
घटना के सामने खड़े यक्ष प्रश्न
सोनम रातोंरात सहानुभूति की पात्र से रातोंरात नफ़रत की पात्र हो गई है। उसका राजा से शादी अभी 11 मई 2025 को हुई थी। हालांकि उनकी शादी जनवरी में ही तय हो गई थी। शादी के 9 दिन बाद नव दंपति हनीमून के लिए मेघालय रवाना हुए। 22 मई को कपल ने सोहरा की यात्रा की और शिलांग में 4 दिन के लिए बाइक किराए पर ले ली। 27 मई को राजा की हत्या कर दी गई। अब सोनम ग़ाज़ीपुर में मिली है। छनकर आ रही ख़बरों पर यक़ीन करे तो उसकी मानसिक ठीक नहीं बताई जा रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सोनम ने ही अपने पति की हत्या करवा दी, या फिर राजा रघुवंशी की हत्या किसी बड़ी साज़िश का हिस्सा है? सवाल सिर्फ़ एक हत्या का नहीं है, सवाल है सोच और समाज के न्यायबोध का। जब राजा की रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई और सोनम पर हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगा, तो पूरा देश दो हिस्सों में बंट गया, एक तरफ़ वो जो सोनम को दोषी मान बैठे, दूसरी तरफ़ वो जो तथ्यों और न्यायिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल बड़ी गंभीरता से खड़ा होता है, क्या हम, इस देश के लोग, अब भी ‘आरोपी’ और ‘क़ातिल’ में फर्क करना सीख नहीं पाए हैं?
पुलिस को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ सवालों के जवाब तलाशने चाहिए थे। मसलन
– 27 मई की वारदात के बाद से अब तक सोनम कहां थी?
– वह शिलांग पहाड़ों से निकलकर गाजीपुर कैसे पहुंच गई?
– रात दो बजे सुनसान इलाक़े में स्थित ढाबे पर कौन लाया?
– क्या कोई व्यक्ति इस दौरान सोनम की मदद कर रहा था?
– तो वह कौन है? सोनम के फोन और बाकी सामान कहां हैं?
– सोनम के अपने पति की हत्या करवाने का उद्देश्य क्या था?
– क्या सोनम की मर्जी के खिलाफ राजा से उसकी शादी हुई?
– क्या सोनम का शादी से पहले किसी युवक से अफेयर था?
– इंदौर से गिरफ्तार हुए दो आरोपी क्या कॉन्ट्रैक्ट किलर हैं?
– सोनम ने इतने दिनों तक परिवार से संपर्क क्यों नहीं किया?
तथ्यों से पहले फ़ैसले क्यों?
सोनम रघुवंशी के खिलाफ़ जाँच चल रही है। पुलिस की ओर से कुछ सबूतों की बात की जा रही है — कॉल रिकॉर्ड, संदिग्ध लेन-देन, और कुछ गवाहियों का दावा। लेकिन क्या इतने भर से कोई ‘क़ातिल’ साबित हो जाती है? क़ानून की दृष्टि में तब तक कोई दोषी नहीं होता, जब तक अदालत उसे साक्ष्यों के आधार पर दोषी न ठहरा दे। फिर हम क्यों सोशल मीडिया, न्यूज़ चैनलों और अपने ‘व्हाट्सऐप ज्ञान’ के आधार पर किसी को अपराधी घोषित करने लगते हैं?
मीडिया ट्रायल का समाज पर असर
टीवी चैनलों की हेडलाइन्स चीख-चीख कर कह रही हैं, “पत्नी ने करवाई पति की हत्या!”। ऐसी रिपोर्टिंग से समाज में पूर्वाग्रह गहराते हैं। बिना किसी कोर्ट के फ़ैसले के सोनम को ‘क़ातिल’ कहा जा रहा है। कुछ पढ़े-लिखे लोग, जो तथ्यों की समझ रखते हैं, वो भी इस प्रचार से प्रभावित होकर निर्णय दे रहे हैं। क्या हमें नहीं सीखना चाहिए कि “आरोपी होना” और “अपराधी साबित होना”, दो अलग बातें हैं?
सोचने की ज़रूरत: न्याय और नैतिक ज़िम्मेदारी
इस मामले में एक महिला के चरित्र, निजी जीवन, और निर्णयों को आधार बनाकर समाज ने उसे पहले ही गुनहगार घोषित कर दिया है। लेकिन अगर कल को कोर्ट यह फैसला दे कि सोनम निर्दोष हैं, तो क्या वे लोग जिन्होंने उन्हें बदनाम किया, उनके मानसिक, सामाजिक और सार्वजनिक नुकसान की भरपाई करेंगे?
न्याय से पहले न्यायप्रियता ज़रूरी
सोनम रघुवंशी की कहानी आज हमारे सामने एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी है, क्या हम किसी के भी खिलाफ़ सिर्फ़ आरोप लग जाने भर से उसे क़ातिल कहने का हक़ रखते हैं? क्या राजा रघुवंशी की हत्या किसी घरेलू विवाद का नतीजा थी या किसी राजनीतिक-व्यवसायिक साज़िश का हिस्सा? इसका जवाब केवल जाँच और न्यायिक प्रक्रिया ही दे सकती है, न कि सनसनी फैलाते टीवी डिबेट्स या सोशल मीडिया पोस्ट्स। क्योंकि याद रखिए, “अगर आप किसी निर्दोष को गुनहगार मानते हैं, तो आप भी उस अन्याय के हिस्सेदार बनते हैं।” हमें कानून में भरोसा रखना सीखना होगा। जब तक कोई दोष सिद्ध न हो, हर आरोपी निर्दोष होता है, यही लोकतंत्र की आत्मा है।
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