भारत ‘विश्वगुरु’ बनने चला था, अब ‘विश्वचेला’ की भी औक़ात नहीं रही…

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भारत के तथाकथित दोस्त डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो रही हैं उनसे हर भारतीय आहत हो रहा है। इन अमानवीय घटनाओं को कोई कैसे झुठला सकता है। इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया न देने, चुप्पी अख़्तियार कर लेने अथवा तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने से सच तो बदल नहीं सकता। सच का सामना आज नहीं तो कल करना ही पड़ेगा। आप किसी के भी समर्थक हों, कुछ बातें सीधे दिल पर असर करती हैं। आजकल अमेरिका में भारतीयों ख़ासकर छात्रों के साथ जिस तरह से वहां की सरकार पेश आ रही है, उस पर सरकार को कड़ा रुख अपनाना चाहिए।

भारत और भारतीय लीडरशिप को अब आत्ममुग्धता से उबर जाना चाहिए। आत्ममुग्धता की स्थिति बहुत ख़तरनाक होती है। आत्ममुग्ध आदमी को अपने कमज़ोरियां नज़र ही नहीं आती। वह तो बस आत्ममुग्ध रह कर आगे बढ़ा चला जाता है। कमोबेश यही हालत भारत की है। कहा जा रहा था कि भारत ‘विश्वगुरु’ बनने जा रहा है, लेकिन प्राकृतिक और मानव संसाधन के मामले में पूरी दुनिया में श्रेष्ठ होने के बावजूद आज देश की औकात ‘विश्वचेला’ बनने की भी नहीं रह गई है। यह अवस्था कैसे आई इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।

इस साल की गर्मियों में जब भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ‘विश्वगुरु भारत’ का सपना दिखा रही थी, तब उसी समय अमेरिका की यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने वाले हजारों भारतीय छात्र भय, असुरक्षा और मानसिक पीड़ा से गुजर रहे थे। न कोई स्पष्ट नीति, न कोई समर्थन। हर पल छापों का डर, डिपोर्टेशन की आशंका और अपने भविष्य को लेकर गहरी अनिश्चितता। क्या यही है भारत की आधुनिक और सशक्त विदेश नीति?

विदेश नीति या विदेश में मौन नीति?
भारत की विदेश नीति हाल के वर्षों में कई बार आत्ममुग्धता का शिकार होती दिखी है। सरकार अक्सर यह दावा करती रही है कि भारत अब केवल ‘निमंत्रण पर चलने वाला देश’ नहीं रहा, बल्कि ‘प्रभाव डालने वाला वैश्विक शक्ति केंद्र’ बन गया है। लेकिन ज़मीनी सच्चाई कुछ और ही कहती है।

यदि वाकई भारत की विदेश नीति प्रभावी होती, तो अमेरिका में पढ़ने वाले 25,000 से अधिक छात्र भय के माहौल में जीने को मजबूर न होते। वे कक्षा में पासपोर्ट लेकर नहीं जाते। वे अपने सोशल मीडिया पोस्ट पर डिलीट और एडिट का बटन बार-बार न दबाते। और वे अपने माता-पिता को यह न कहते कि “मुझे वापस मत बुलाओ, वरना दोबारा अमेरिका में एंट्री नहीं मिलेगी।”

डर के साए में जीते भारतीय छात्र
29 जून 2025 को प्रकाशित दैनिक भास्कर की रिपोर्ट ने इस सच्चाई को और स्पष्ट कर दिया। रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की 12 यूनिवर्सिटीज़ को अमेरिकी प्रशासन ने “संदेह के दायरे में” रखा है, जहां पढ़ने वाले अधिकांश भारतीय छात्रों को वीज़ा नियमों के उल्लंघन के शक में हिरासत, पूछताछ और डिपोर्टेशन जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। एक छात्र ने बताया कि उसके माता-पिता ने 50 लाख रुपये का लोन लेकर उसे अमेरिका भेजा था, लेकिन अब वहां उसे हर समय पासपोर्ट साथ रखना पड़ता है। उसे न तो स्थायी नौकरी की गारंटी है, न ही यह विश्वास कि उसका वीज़ा रिन्यू होगा या नहीं।

भारतीय विदेश मंत्रालय की खामोशी
एक और छात्र का अनुभव हैरान करने वाला है — उसने एक बार अमेरिका की नीति पर फेसबुक पर नकारात्मक टिप्पणी की, और अगले ही दिन इमिग्रेशन ऑफिस से उसे नोटिस आ गया। अब वह और उसके जैसे सैकड़ों छात्र सोशल मीडिया पर कोई भी बात लिखने से डरते हैं। इस चुप्पी के बीच भारत का विदेश मंत्रालय कहां है? भारतीय दूतावास की जिम्मेदारी केवल पासपोर्ट रिन्यू करने तक सीमित क्यों रह गई है? क्या सरकार अपने नागरिकों को केवल तब तक पहचानती है, जब तक वे टैक्स भरते हैं या वोट डालते हैं?

‘विश्वगुरु’ का खोखला सपना
भारत की मौजूदा विदेश नीति बार-बार इस बात पर ज़ोर देती है कि भारत एक सॉफ्ट पावर है, और अब ‘विश्वगुरु’ बनने की ओर अग्रसर है। लेकिन क्या किसी विश्वगुरु का पहला धर्म अपने विद्यार्थियों की रक्षा नहीं होना चाहिए? एक गुरु वह होता है जो अपने शिष्य को ज्ञान के साथ-साथ सुरक्षा और आत्मसम्मान भी प्रदान करे। लेकिन जब भारतीय छात्र विदेशी ज़मीन पर केवल “संदिग्ध” बनकर रह जाएं, तो ‘गुरु’ शब्द का अर्थ ही खोखला हो जाता है।

कूटनीति या दिखावटी दौरे?
भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री लगातार दुनिया के दौरे करते हैं — ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, यूरोप, अरब देश — लेकिन इन दौरों का वास्तविक लाभ भारतीय नागरिकों को कितना मिल रहा है? क्या इन दौरों में केवल व्यापारिक समझौते होते हैं? क्या शिक्षा, छात्र सुरक्षा, और प्रवासी समस्याएं कभी प्राथमिक एजेंडा बनती हैं?

क्या भारत के पास विकल्प नहीं हैं?
भारत जैसे देश के पास विकल्प हैं — लेकिन उन्हें अपनाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए:

अमेरिका से कड़ा संवाद: भारत को अमेरिकी प्रशासन से स्पष्ट कहना चाहिए कि भारतीय छात्रों को सुरक्षा देना केवल यूनिवर्सिटी की नहीं, बल्कि सरकार की भी जिम्मेदारी है।

मानवाधिकार मुद्दा बनाना: जिस तरह पश्चिमी देश भारत के मानवाधिकार पर टिप्पणी करते हैं, भारत को भी प्रवासी छात्रों के अधिकारों के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना चाहिए।

शिक्षा समझौते का पुनर्मूल्यांकन: भारत को अमेरिका के साथ शिक्षा संबंधों की समीक्षा करनी चाहिए — चाहे वह यूनिवर्सिटी रैंकिंग की मान्यता हो या स्टूडेंट वीज़ा प्रोटोकॉल।

वैकल्पिक गंतव्य विकसित करना: भारत को अपने छात्रों के लिए अन्य देशों में बेहतर विकल्प खोलने चाहिए, जैसे जापान, फ्रांस, नीदरलैंड, कनाडा आदि, जहां पढ़ाई के साथ सुरक्षा और स्थिरता भी सुनिश्चित हो।

घरेलू शिक्षा का उन्नयन: अगर भारत की यूनिवर्सिटीज़ वैश्विक स्तर की हों, तो छात्र विदेश जाने के लिए लोन में नहीं डूबेंगे।

आत्मनिरीक्षण की ज़रूरत
‘विश्वगुरु’ बनने का सपना तब तक अधूरा है, जब तक भारत अपने ही युवाओं को विदेश में मानसिक पीड़ा और अपमान से नहीं बचा सकता। इस लेख का उद्देश्य नकारात्मकता फैलाना नहीं, बल्कि एक रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करना है। सरकार को यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद केवल नारों से नहीं चलता, बल्कि अपने नागरिकों की गरिमा की रक्षा करने से बनता है — चाहे वह नागरिक दिल्ली में हो, या न्यूयॉर्क की किसी यूनिवर्सिटी में।

भारतीय विदेश नीति को अब केवल वंदन और सौजन्य से ऊपर उठना होगा। जिस देश का युवा डरा हुआ हो, उसकी नीति मजबूत नहीं कहलाती। आज ज़रूरत है उस कूटनीतिक साहस की, जो अमेरिका जैसे देश से भी सवाल कर सके: “क्या आप हमारे छात्रों को केवल डॉलर की मशीन समझते हैं, या इंसान भी मानते हैं?” भारत तभी सच्चा ‘विश्वगुरु’ बन सकेगा, जब वह अपने प्रत्येक नागरिक — चाहे वह देश में हो या विदेश में — की गरिमा, सुरक्षा और न्याय के लिए खड़ा हो।

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