मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का प्रभावशाली मंचन

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आषाढ़ का एक दिन का एक दृश्य

विरूंगला केन्द्र की शाम अभिनय कला के नाम रही

मुंबई। साहित्य, संवेदना और अभिनय के गहरे संगम की मिसाल बनी रविवार की शाम, जब मीरा रोड स्थित साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था विरूंगला केन्द्र में रंगमंच प्रेमियों ने प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश की कालजयी कृति ‘आषाढ़ का एक दिन’ का जीवंत मंचन देखा। यह प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी), वाराणसी से अभिनय की पढ़ाई कर चुके युवा निर्देशक शिव प्रतीक के निर्देशन में हुई। लगभग दो घंटे तक चले इस नाटक ने दर्शकों को संवेदना, सौंदर्य और विचार की ऐसी यात्रा पर ले गया, जहाँ कालिदास का जीवन केवल इतिहास नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर चलने वाले संघर्षों का प्रतीक बनकर उभरा।

अभिनय कला के नाम रही शाम
विरूंगला केन्द्र का सभागार रविवार की शाम रंगकर्मियों, लेखकों, पत्रकारों और कला-प्रेमियों से खचाखच भरा हुआ था। मंच की रोशनी जैसे ही जली, दर्शक एक अलग ही संसार में पहुँच गए, वह संसार जहाँ प्रकृति, प्रेम और सत्ता के बीच झूलता एक संवेदनशील मन अपनी दिशा खोजने की कोशिश करता है। निर्देशक शिव प्रतीक ने नाटक की रूपरेखा को यथार्थवादी शैली में प्रस्तुत करते हुए मंच-सज्जा और प्रकाश संयोजन के माध्यम से हिमाचल की तलहटी में बसे एक शांत गाँव का वातावरण निर्मित किया। यह वही स्थान है जहाँ युवा कालिदास प्रकृति और प्रेम की गोद में अपनी रचनात्मकता का विस्तार करता है।

कहानी जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक
‘आषाढ़ का एक दिन’ केवल कालिदास के जीवन की कथा नहीं है, बल्कि उस हर संवेदनशील व्यक्ति की कहानी है जो रचना और सत्ता के बीच झूलता है। नाटक में दिखाया गया है कि कैसे सत्ता का आकर्षण किसी रचनाकार को उसके मूल से काट देता है। कालिदास जब उज्जैन की ओर प्रस्थान करता है, तो वह केवल एक नगर नहीं, बल्कि उस सत्ता संसार की ओर जा रहा होता है जो धीरे-धीरे उसके भीतर की सृजनात्मकता को ग्रस लेती है। शिव प्रतीक ने इस संघर्ष को बड़े मार्मिक ढंग से मंच पर उकेरा। हर दृश्य में संवादों की गूंज, भाव-भंगिमाओं की गहराई और संगीत का संयमित उपयोग दर्शकों को भीतर तक छू गया।

दर्शकों की एकाग्रता बनी नाटक की सफलता का प्रमाण
एक घंटे चालीस मिनट की यह प्रस्तुति दर्शकों को शुरू से अंत तक बाँधे रखी। न कोई अनावश्यक दृश्य, न कोई अतिनाटकीयता, सब कुछ सहज, स्वाभाविक और भावपूर्ण। मंच पर कालिदास का शांत जीवन, उज्जैन की ओर उनका जाना, सत्ता सुख का भोग और फिर उससे मोहभंग का भावनात्मक संघर्ष बेहद प्रभावी ढंग से सामने आया। नाटक के अंत में जब कालिदास सत्ता और यश की ऊँचाइयों पर पहुँचकर भी भीतर से रिक्त हो जाता है, तो दर्शकों के चेहरों पर गहरी गंभीरता झलकती रही। उस क्षण सभागार में एक अजीब-सी निस्तब्धता थी, जैसे हर व्यक्ति अपने भीतर किसी न किसी “कालिदास” से सामना कर रहा हो।

नाटक लेखकों को देता है आत्ममंथन की प्रेरणा
मंचन के बाद साहित्यकार और समीक्षक विनोद दास ने कहा कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ अपने समय से आगे की रचना है। उन्होंने कहा, “यह नाटक केवल इतिहास की व्याख्या नहीं करता, बल्कि आज के लेखकों और रचनाकारों को भी चेतावनी देता है कि सत्ता के छद्म मोह में फँसना रचनात्मकता का सबसे बड़ा विनाश है। आज जब लेखन और सत्ता का रिश्ता अधिक जटिल होता जा रहा है, ऐसे समय में यह नाटक आत्ममंथन का दर्पण है।” विनोद दास ने स्वर संगम फाउंडेशन और विरूंगला केन्द्र को इस तरह के उत्कृष्ट आयोजन के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि सीमित संसाधनों के बावजूद मंचन का स्तर अत्यंत उच्च रहा।

Ashaadh-ka-Ek-Din-2-300x166 मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का प्रभावशाली मंचन
कल विरूंगला केंद्र मीरा रोड में हुए नाटक आषाढ़ का एक दिन की टीम।

अनूप सेठी ने की कलात्मकता की सराहना
वरिष्ठ नाट्यकर्मी अनूप सेठी ने इस अवसर पर कहा कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ जैसे क्लासिक नाटकों का मंचन करना किसी भी निर्देशक के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। उन्होंने कहा, “शिव प्रतीक ने बहुत सूझ-बूझ के साथ पात्र-चयन किया और संवादों को जिस भावभूमि में ढाला, उसने नाटक को नई ऊर्जा दी। मंच-सज्जा सरल थी पर प्रभावशाली, यही असली कला है।” उन्होंने यह भी कहा कि आज के समय में, जब नाट्य मंचन अधिकतर मनोरंजन का माध्यम बनते जा रहे हैं, ऐसे गंभीर और वैचारिक नाटक समाज में सांस्कृतिक चेतना जगाने का कार्य करते हैं।

कलाकारों का प्रभावशाली अभिनय
नाटक के सभी कलाकारों ने अपने-अपने पात्रों में गहराई से प्रवेश किया। कालिदास की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने जहां शांत सौंदर्य और अंतर्द्वंद्व को बखूबी प्रस्तुत किया, वहीं मल्लिका के किरदार ने प्रेम, त्याग और पीड़ा को बेहद मार्मिक ढंग से जीवंत किया। मंच पर दोनों के बीच के संवादों ने कई बार दर्शकों को भावविभोर कर दिया। संगीत का संयोजन नाटक की आत्मा के अनुरूप था, न अधिक, न कम। पार्श्व में बजते वाद्ययंत्रों की ध्वनियाँ हिमालय की घाटियों और वर्षा ऋतु के सौंदर्य को जैसे मंच पर उतार देती थीं।

दर्शक दीर्घा में साहित्य और समाज के दिग्गज
कार्यक्रम में मुंबई के साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक जगत से जुड़ी कई प्रतिष्ठित हस्तियाँ उपस्थित थीं। समाजशास्त्री पुलक चक्रवर्ती, लेखक धीरेन्द्र अस्थाना, नाट्यकर्मी अजय रोहिल्ला, आरएस विकल, कवि हृदयेश मयंक, लेखक हरि मृदुल, मिथिलेश प्रियदर्शी, निशा भारती, संदीप माने, रीता दास, रमन मिश्र और कई अन्य गणमान्य दर्शकों में मौजूद रहे।
इन सबने बाद में कहा कि इस तरह के मंचन मुंबई के सांस्कृतिक जीवन में ताजगी लाते हैं और युवा पीढ़ी को हिंदी रंगमंच से जोड़ने में अहम भूमिका निभाते हैं।

संवेदनशील निर्देशन की मिसाल
निर्देशक शिव प्रतीक ने संवादों की गति, मंच पर गतिशीलता और भावाभिव्यक्ति के संतुलन को जिस तरह साधा, उसने उनके परिपक्व निर्देशन कौशल का प्रमाण दिया। उन्होंने कहा, “मेरे लिए यह नाटक केवल कालिदास की कथा नहीं, बल्कि हर उस कलाकार की कहानी है जो अपने भीतर के संसार और बाहरी आकर्षण के बीच फँसा रहता है।”
उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी रंगमंच को नई पीढ़ी के युवाओं तक पहुँचाने के लिए ऐसे मंचनों की निरंतरता आवश्यक है।

सांस्कृतिक चेतना का जीवंत क्षण
विरूंगला केन्द्र की इस प्रस्तुति ने न केवल रंगकर्म को एक ऊँचाई दी, बल्कि यह भी साबित किया कि सीमित संसाधनों में भी गहरी कला दृष्टि और समर्पण से उत्कृष्ट नाटक रचे जा सकते हैं। दर्शकों ने इसे केवल एक नाट्य अनुभव नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और बौद्धिक यात्रा के रूप में अनुभव किया। कार्यक्रम के अंत में स्वर संगम फाउंडेशन की ओर से कलाकारों और तकनीकी टीम को सम्मानित किया गया। आयोजन समिति ने यह भी घोषणा की कि आने वाले महीनों में इसी श्रृंखला के अंतर्गत अन्य भारतीय नाटककारों की क्लासिक कृतियों का मंचन भी किया जाएगा।

‘आषाढ़ का एक दिन’ का यह मंचन न केवल मोहन राकेश की रचना को नई पीढ़ी तक पहुँचाने में सफल रहा, बल्कि इसने यह भी साबित किया कि सच्चा रंगकर्म वही है जो दर्शकों के भीतर सवाल छोड़ जाए। रविवार की वह शाम अभिनय, संवेदना और विचार की ऐसी यात्रा में बदल गई, जो दर्शकों के मन में लंबे समय तक गूंजती रहेगी।

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