भारत के इस प्रधानमंत्री पर CIA एजेंट होने का आरोप लगा था, मानहानि मुकदमा हार भी गया था वह

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वैसे तो देश में आए दिन जासूसी करने के आरोप में लोग गिरफ्तार किए जा रहे हैं। लेकिन भारत में तो प्रधानमंत्री तक पर CIA का एजेंट होने और सूचनाएं देकर सीआईए से 20 हजार डॉलर की रकम लेने का भी आरोप लगा। उस प्रधानमंत्री ने इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने पर मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसमें भी उसे हार का मुंह देखना पड़ा।

आज उसी प्रधानमंत्री की चर्चा की जा रही है, जिनका नाम देश की राजनीति में ईमानदारी और सादगी के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। वह कोई और नेता नहीं बल्कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई हैं। उनके राजनीतिक जीवन में एक ऐसा विवाद भी जुड़ा, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। दरअसल, उन पर अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) के जासूस करने का आरोप लगने के बाद यह विवाद पैदा हुआ।

वस्तुतः मोरारजी देसाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और स्वतंत्र भारत के सशक्त नेता के रूप में जाने जाते हैं। 1977 में इंदिरा गांधी के पतन के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की ओर से वह प्रधानमंत्री बने और 1979 तक इस पद पर बने रहे। उन्हें उनके सादगीपूर्ण जीवन, संयमित आचरण और ईमानदारी के लिए जाना जाता है।

1980 के दशक की शुरुआत में अमेरिका के पूर्व सीआईए अधिकारी फिलिप एजी (Philip Agee) ने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम था, “Inside the Company: CIA Diary”। इस किताब में उन्होंने दुनिया भर में सीआईए की गुप्त गतिविधियों का खुलासा किया। इस पुस्तक में एजी ने दावा किया था कि भारत के एक उच्चस्तरीय नेता, जिन्होंने बाद में प्रधानमंत्री पद भी संभाला, सीआईए के संपर्क में थे और उन्होंने पाकिस्तान की परमाणु गतिविधियों से जुड़ी गोपनीय जानकारी अमेरिका को दी थी।

बाद में जब इन दावों को लेकर और चर्चा हुई, तो अमेरिकी पत्रकार और खुफिया मामलों के लेखक सेयमोर हर्श (Seymour Hersh) ने अपनी किताब “The Price of Power: Kissinger in the Nixon White House” (1983) में मोरारजी देसाई का नाम स्पष्ट रूप से लिख दिया। हर्श ने दावा किया कि मोरारजी देसाई ने 1970 के दशक में पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम के बारे में अमेरिकी खुफिया एजेंसी को महत्वपूर्ण जानकारी दी थी और बदले में उन्हें 20,000 डॉलर की रकम दी गई थी।

सेयमोर हर्श के इस दावे से मोरारजी देसाई की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। उन्होंने 1984 में सेयमोर हर्श के खिलाफ अमेरिका में मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने कहा कि यह आरोप झूठा, बेबुनियाद और उनकी छवि को धूमिल करने वाला है। मुकदमे की सुनवाई न्यूयॉर्क के एक फेडरल कोर्ट में हुई। मोरारजी देसाई ने दावा किया कि उन्होंने कभी भी किसी विदेशी एजेंसी को कोई गोपनीय जानकारी नहीं दी और उन्हें कोई भुगतान भी नहीं मिला। उन्होंने इसे उनकी ईमानदार छवि के विरुद्ध गहरी साजिश बताया।

हालांकि मोरारजी देसाई की व्यक्तिगत ईमानदारी को अदालत में चुनौती नहीं दी गई, लेकिन अदालत ने कहा कि सेयमोर हर्श का दावा “जानबूझकर दुर्भावनापूर्ण” (malicious intent) के तहत नहीं आता। अदालत ने फैसला दिया कि हर्श ने जो लिखा वह सूत्रों और पत्रकारिता के मानकों के आधार पर किया गया शोध है, इसलिए इसे ‘libel’ (मानहानि) की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस आधार पर मोरारजी देसाई मुकदमा हार गए।

यह मामला उस दौर में खासा राजनीतिक रूप से संवेदनशील था क्योंकि भारत और अमेरिका के संबंध पहले ही शीत युद्ध और परमाणु नीति को लेकर तनावपूर्ण चल रहे थे। मोरारजी देसाई जैसे वरिष्ठ और ईमानदार नेता पर लगे इस आरोप ने भारतीय जनता और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में मिश्रित प्रतिक्रियाएं उत्पन्न कीं। कुछ लोगों ने इस दावे को अमेरिकी खुफिया एजेंसी की एक चाल बताया, तो कुछ ने इसे एक असहज सत्य के उजागर होने के रूप में देखा।

मोरारजी देसाई के जीवन पर यह एक ऐसा धब्बा रहा, जिसकी सच्चाई पूरी तरह से कभी साबित नहीं हो पाई, लेकिन इसे पूरी तरह से झुठलाया भी नहीं जा सका। कोर्ट में हार के बावजूद हर्श के दावों की सत्यता का प्रमाण भी नहीं मिला। फिर भी, मोरारजी देसाई का जीवन कई मायनों में पारदर्शी, सादगीपूर्ण और ईमानदारी से भरा रहा। उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया और वे भारतीय राजनीति के सबसे वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं।

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