विभाजन और कश्मीर के भारत में विलय की कहानी
आजकल हर आदमी इतिहासकार बनकर तपाक से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू पर आरोप लगा देता है कि उन्होंने कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाकर उलझा दिया। उनके इस फ़ैसले के चलते ही संपूर्ण जम्मू-कश्मीर पर भारत की फ़ौज क़ब्ज़ा नहीं कर पाई। इस कारण कश्मीर समस्या देश के लिए नासूर बन गया। इस प्रसंग को ऐसे बताया जाता है जैसे मानो पंडित नेहरू पाकिस्तान के समर्थक थे और उन्होंने पाकिस्तान को लाभ पहुंचाने के लिए यह क़दम उठाया। इसी बिना पर लोग झटके से कह देते हैं कि कश्मीर समस्या नेहरू की देन है।
ऐसे परिवेश में 1947 से 1949 के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप और कश्मीर का माहौल किस तरह का था, इसकी विस्तार से चर्चा करना समय की मांग है, क्योंकि बिना संपूर्ण परिस्थित को पूरी तरह समझे किसी भी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना, इस मुद्दे के साथ अन्याय करने की तरह ही होगा। देश के विभाजन और पाकिस्तान के जन्म पर इतिहासकारों और लेखकों ने तरह-तरह की बातें बड़े ही विस्तार से लिखी हैं। कई प्रसंगों का ज़िक्र किया है। इन किताबों में कई ऐतिहासिक घटनाओं के बारे समानता भी है। उन्हीं प्रसंगों का हवाला देकर इस लेख के माध्यम से सच तक पहुंचने की कोशिश की जा रही है।
वस्तुतः 1947 में सत्ता हस्तांतरण के समय ब्रिटिश भारत दो भाग में बंटा था। कुल 11 ब्रिटिश शासित प्राविंस (British Ruled Provinces) और 562 रियासतें (Princely States) थीं। रियासतें ब्रिटिश क्राउन का हिस्सा होते हुए भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र थीं। 14-15 अगस्त 1947 को सात प्राविंस यानी प्रेसिडेंसी -मद्रास, बॉम्बे, यूनाइटेड, बिहार, सेंट्रल, असम और ओड़िशा भारत में शामिल हो गए। दो प्राविंस –नॉर्थ-वेस्ट और सिंध पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। बंगाल और पंजाब का विभाजन हो कर दिया गया। ये दोनों राज्य आधे भारत और आधे पाकिस्तान में चले गए। पंजाब की राजधानी लाहौर पाकिस्तान के हिस्से चला गया, तो बंगाल की राजधानी कलकत्ता भारत को मिल गया।
रियासतों की बात करें तो 562 में से 546 रियासतें भारत और 12 रियासतें पाकिस्तान में शामिल हो गईं। 80 फ़ीसदी हिंदू आबादी वाले जूनागढ़ के शासक नवाब मोहम्मद महाबत ख़ानजी ने पहले तो स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई, लेकिन 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। इस फ़ैसले का भारत ने विरोध किया, क्योंकि यह रियासत पाकिस्तान से सटा भी नहीं था। फिर भी पाकिस्तान ने विलय को स्वीकार भी कर लिया। इससे हिंदू प्रजा ने नवाब के ख़िलाफ़ विरोध कर दिया। लिहाज़ा, नवाब को पाकिस्तान भागना पड़ा। उनकी अनुपस्थित में दीवान सर शाह नवाज भुट्टो (बिलावल भुट्टो के दादा) की देखरेख में जनमत सर्वेक्षण हुआ और 99 फ़ीसदी जनता भारत के साथ रही। लिहाज़ा, भारत ने सैन्य कार्रवाई करके 1 नवंबर को जूनागढ़ को अपना हिस्सा बना लिया।
इसी तरह हैदराबाद रियासत का भारत में विलय स्वतंत्रता के बाद भारत की बड़ी राजनीतिक चुनौती थी। आज़ादी के समय हैदराबाद ब्रिटिश इंडिया की सबसे बड़ी और सबसे समृद्ध रियासत थी। उस्मान अली खान उसके निज़ाम थे। उन्हें ‘आधुनिक हैदराबाद का वास्तुकार’ माना जाता था। उन्होंने भी कश्मीर की तरह स्वतंत्र रहने की घोषणा कर दी। हैदराबाद रियासत भारत के बीचोंबीच थी, जिससे उसका स्वतंत्र अस्तित्व भविष्य में भारत की एकता और सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा बन सकता था। निज़ाम ने ज़्यादातर मुस्लिम सैनिकों वाली रज़ाकारों की सेना बनाई। उसे राज़कारस सेना भी कहा जाता था। निज़ाम के शासन में रज़ाकार सेना हिंदू आबादी पर अत्याचार बढ़ाती जा रही थी। हैदराबाद में मुस्लिम आबादी बढ़ाने के लिए हिंसा का सहारा लिया जा रहा था। हिंदू औरतों के साथ रेप और नसंहार हो रहा था। निज़ाम को पाकिस्तान से म्यांमार के रास्ते हथियार और पैसे की मदद मिल रही थी। ऑस्ट्रेलियाई कंपनी भी हथियार सप्लाई कर रही थी।
लिहाज़ा, तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल को लगा कि इस तरह तो हैदराबाद भारत के दिल में नासूर बन जाएगा। लिहाज़ा, सरदार पटेल ने पं नेहरू से विचार-विमर्श करने के बाद राज़करास सेना के अत्याचार को रोकने और हैदराबाद पर जबरदस्ती क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला किया था। उन्होंने 13 सितंबर 1948 को ‘ऑपरेशन पोलो’ अभियान शुरू कर दिया। उसे राज़कारस सेना ने भारत की कार्रवाई का शुरू में ज़ोरदार प्रतिकार किया, लेकिन केवल पांच दिन के संघर्ष में ही निज़ाम ने सरेंडर कर दिया और उसी दिन यानी 17 सितंबर 1948 को हैदराबाद को भारत का अभिन्न हिस्सा बना दिया गया।
अब आते हैं जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय की कहानी पर। एजी नूरानी की ‘जम्मू एंड कश्मीरः इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन (Jammu and Kashmir Accession: Instrument of Accession)’, वीपी मेनन की किताब ‘द स्टोरी ऑफ दि इंटिग्रेशन ऑफ दि इंडियन स्टेट्स (The story of the integration of the Indian states)’ एलिक्ज़ेंडर माइटलैंड की किताब ‘माउंटबेटेनः हीरो ऑफ ऑवर टाइम (Mountbatten: Hero of our time)’, पूर्व रॉ प्रमुख एएस दुलत की ‘कश्मीरः द वाजपेयी ईयर्स’, एलोस्टेयर लैंब की ‘कश्मीरः अ डिस्प्यूटेड लीगेसी, 1946-1990 (Kashmir: A Disputed Legacy, 1846–1990’, तवलीन सिंह की ‘कश्मीरः अ ट्रेजेडी ऑफ एरर्स (Kashmir: A Tragedy of Errors)’ एमजे अकबर की ‘कश्मीर: बिहाइंड द वेल’ जैसी किताबों में कश्मीर के भारत में विलय और तब की परिस्थितियों का विशद वर्णन किया गया है।
इन सभी किताबों में दी गई जानकारी के अनुसार हैदराबाद के निज़ाम मीर उस्मान अली खान की तरह जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह भी अपनी रियासत को स्वतंत्र रखना चाहते थे। यानी 14-15 अगस्त 1947 को हैदराबाद की तरह जम्मू-कश्मीर भी न तो भारत का हिस्सा बना और न ही पाकिस्तान का। हालांकि प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान की गिद्ध नज़र इन दोनों रियासतों पर थी। हैदराबाद पर इसलिए क्योंकि वहां का शासक मुस्लिम था। हालांकि वहां की 85 फ़ीसदी जनता हिंदू थी। लियाकत अली कश्मीर इसलिए लेना चाहते थे, क्योंकि वहां की 77 फ़ीसदी जनता मुस्लिम थी। हालांकि राज्य का शासक हिंदू था। मतलब लियाकत अली चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी वाले फॉर्मूले पर चल रहे थे।
जम्मू-कश्मीर के नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला पंजाबी मुसलमानों को नापसंद करते थे, वह देख रहे थे कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद पंजाबी मुसलमान देश में वर्चस्व स्थापित कर रहे हैं और बंगाली मुसलमानों के साथ साथ हिंदुस्तान से आए मुसलमानों की भी फ़ज़ीहत कर रहे हैं। पंजाबी पाकिस्तानी आज भी हिकारत से उन लोगों को मुहाज़िर या मोहाज़िर कहते हैं जो गैर-पंजाबी नागरिक विभाजन के बाद भारत से अपना घरबार छोड़कर पाकिस्तान गए। लिहाज़ा शेख को लगा कि पाकिस्तान के मुक़ाबले उदार भारत के साथ रहना लाभदायक रहेगा। लिहाज़ा, उन्होंने भारत का समर्थन किया। उन्होंने 1932 में ‘जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना की, जो विलय के बाद ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ हो गई। 1946 में उन्होंने महाराजा हरिसिंह के निरंकुश शासन के खिलाफ ‘क्विट कश्मीर’ आंदोलन शुरू किया। महाराजा से सत्ता छोड़ने की मांग की। लिहाज़ा, उन्हें गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। भारत जब आज़ाद हुआ तो वह जेल में थे।
उधर वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने 1947 में विभाजन बड़ी दिलचस्पी ले रहे थे। उन्होंने ब्रिटिश इंडिया की सभी रियासतों को या तो भारत या पाकिस्तान में शामिल होने के लिए राजी करने हेतु विशेष मिशन चलाया। उन्होंने सभी रियासतों के शासकों से सीधा निजी संपर्क किया। इसी क्रम में वह श्रीनगर भी गए, लेकिन अपनी रियासत को स्वतंत्र रखने का मन बना चुके महाराजा हरि सिंह ने अचानक पेटदर्द की शिकायत कर दी और अपनी अस्वस्थता का हलावा देकर वायसराय से मिलने से ही इनकार कर दिया। तब माउंटबेटन ने कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन और अन्य अधिकारियों से बातचीत की और दिल्ली लौट गए।
जैसा कि बताया जा चुका है कि लियाकत अली नज़र शुरू से कश्मीर पर थी। सो उनके इशारे पर जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी समर्थकों को उकसाया जाने लगा। दो महीने बाद 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान सेना समर्थित कबायली लड़ाकों ने जम्मू-कश्मीर पर सुनियोजित हमला कर दिया। इन लड़ाकों में पश्तून के हथियारबंद लोग अधिक संख्या में थे। उन्हें पाकिस्तान सेना हथियार और रसद सप्लाई कर रही थी। उनका मकसद कश्मीर का ज़बरन पाकिस्तान में विलय कराना था। लियाकत अली ने इस योजना के बारे में बीमार क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना को बताया भी नहीं और ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ शुरू दिया। पाकिस्तान सेना समर्थित कबाइलियों ने रास्ते में भारी लूटपाट, हत्या और बलात्कार किए। इससे जनता में भयक्रांत हो गई।
कबायली लड़ाके मुज़फ्फराबाद को रौंदते हुए बारामूला तक पहुँच गए। उन्होंने वहां भी हिंदुओं और सिखों पर भयानक अत्याचार किए। यूरोपीय मिशनरियों, चर्च और ननों को निशाना बनाया और हत्याएं की। लोकल कश्मीरियों ने तीन-चार दिन कबाइलियों को रोकने की कोशिश की लेकिन उनके पीछे पाकिस्तान की सेना थी। बारामूला में भारी नरसंहार हुआ। मक़बूल शेरवानी के दोनों हाथ में कील ठोकर उनको ज़िंदा सलीब पर लटका दिया गया। पाकिस्तानी सेना और कबाइली नरसंहार करते हुए श्रीनगर की ओर बढ़ने लगे। इस मारकाट में हमलावरों ने मीरपुर में बड़ी संख्या में हिंदुओं की हत्याएं और हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार किए।
पंडित नेहरू विभाजन के पहले से ही लगातार महाराजा हरि सिंह को लगातार चेतावनी दे रहे थे कि प्रधानमंत्री लियाकत अली ख़ान की नीयत ठीक नहीं लग रही है। वह कभी भी जम्मू-कश्मीर में घुसने की हिमाकत कर सकते हैं। लेकिन महाराजा ने ध्यान ही नहीं दिया। दरअलस उनके निजी ज्योतिषि ने भविष्यवाणी कर दी थी कि वह स्वतंत्र कश्मीर का अस्तित्व बरकरार रखने और रियासत का शासक बनने में कामयाब होंगे। इस ख़ुशफहमी में महाराजा पंडित नेहरू की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करते रहे। बहरहाल, कबाइलियों के हमले के बाद जब उन्हें लगा कि भारत से मदद न मिली तो पूरे राज्य पर पाकिस्तान क़ब्ज़ा कर लेगा। लिहाज़ा, उन्होंने मजबूरी में भारत से सैन्य सहायता मांगी। वह खुद श्रीनगर छोड़कर जम्मू भाग गए।
चूंकि इस समय तक जम्मू-कश्मीर न तो भारत का हिस्सा था और न ही पाकिस्तान का। ऐसे में भारत हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता था। महाराजा की ओर से मदद का संदेश मिलने पर नेहरू और गृहमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने उनके सामने यह शर्त रख दी कि पहले जेल में बंद शेख़ अब्दुल्लाह को रिहा और जम्मू-कश्मीर का भार में विलय किया जाए, तभी भारत से सैन्य मदद मिलेगी। आनन-फ़ानन में महाराजा हरि सिंह ने शेख़ अब्दुलाह को रिहा किया। वह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए भी तैयार हो गए। उसी दिन भारत में विलय-पत्र (Instrument of Accession) पर हस्ताक्षर किए गए। शेख अब्दुल्ला ने पंडित नेहरू को राज़ी करके डॉ. बीरआर अंबेडकर और दूसरे नेताओं के विरोध के बावजूद अपने राज्य के लिए विशेष दर्ज़ा हासिल कर लिया।
कहा जाता है कि चूंकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय असाधारण परिस्थितियों में हुआ था और जम्मू-कश्मीर मुस्लिम बहुल रियासत थी, इसके बावजूद भारत का हिस्सा बन रही थी, इसलिए भारत सरकार ने यह आश्वासन दिया कि राज्य को विशेष स्वायत्तता दी जाएगी। इसी भावना के तहत बाद में भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था। इस प्रकार, भारत ने आपातकालीन सुरक्षा जरूरतों, संवैधानिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने पर सहमति दी।लेकिन यहां भारतीय नेतृत्व को अंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे नेताओं की बात माननी चाहिए थी। यहां यह बताना ज़रूरी है कि चूंकि भारत में विलय जम्मू-कश्मीर की मजबूरी थी, तो भारत अड़ जाता तो शेख अब्दुल्ला और महाराजा अपने राज्य के लिए विशेष दर्जे के लिए ज़िद न कर पाते। लेकिन पंडित नेहरू और सरदार पटेल यह काम नहीं कर सके। कई लोग इसे पंडित नेहरू की ऐतिहासिक भूल मानते हैं।
बहरहाल, इसके अगले दिन यानी 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतारने लगी। जब सेना ने श्रीनगर में प्रवेश किया तब कबायली श्रीनगर से महज 50 किलोमीटर ही दूर रह गए थे। उन्होंने श्रीनगर की बिजली काट दी। इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय के कश्मीरनामा में दावा करते हैं कि स्थानीय लोगों ने लालटेन और टॉर्च जलाकर भारतीय सैनिकों को शहर में प्रवेश करने में मदद की। भारतीय सेना ने सैन्य कार्रवाई शुरू की और घुसपैठियों और हमलावरों को पीछे ढकेलना शुरू किया। इस युद्ध में लाख कोशिश के बावजूद भारतीय सेना को सामरिक दृष्टि से आंशिक सफलता ही मिल सकी, क्योंकि कबाइली और पाकिस्तान सेना ऊंचाई पर थी। उन्हें वहां से हटाना टेढ़ी खीर साबित हो रही थी। भारतीय के पास भी लड़ने के लिए पर्याप्त साज-ओ-सामान नहीं था। भारतीय सैनिकों के पास 1999 की कारगिल युद्ध की तरह बोफोर्स तोप भी नहीं थी।
इससे पहले कबायिली हमले के दौरान ही ब्रिटिश अधिकारी मेजर विलियम ब्राउन की अगुवाई में गिलगित स्काउट्स ने महाराजा हरि सिंह के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और महाराजा द्वारा गिलगित का गवर्नर नियुक्त किए गए ब्रिगेडियर घनसार सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया, जिन्हें बहुत बाद में छुड़ाया गया। मेजर ब्राउन ने गिलगिट में पाकिस्तानी झंडा फहरवा दिया। इधर भारतीय नीचे से लड़ाई लड़ रही थी, जो बिल्कुल भी प्रभावी नहीं हो रहा था। इसका नतीजा यह हुआ कि महीने भर की लड़ाई के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने मुज़फ़्फ़राबाद और मीरपुर के उन इलाक़ों पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखा, जि आजकल पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर यानी पीओके कहा जाता है।
युद्ध शुरू होने के महीने भर बाद कश्मीर में सर्दी शुरू हो गई। भारतीय सेना को ऐसे वातावरण में लड़ने का न तो अनुभव था और न ही सामान और रसद था। दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना, ख़ासकर कबाइली सर्दी के अभ्यस्त थे। लिहाज़ा, पाकिस्तानी सेना को बारामूला की सीमा से पीछे नहीं ढकेला जा सका। इसके बावजूद भारतीय सेना ने क़रीब 10 हजार पाकिस्तान सैनिकों और कबाइली लड़कों को मार डाला। भारत को भी लगभग तीन हज़ार सैनिक गंवाने पड़े। संघर्ष बहुत लंबा खिंचने की नौबत आ गई। उस समय बहुत लंबा युद्ध भारत अफोर्ड नहीं कर सकता था क्योंकि उस लड़ाई में भारत के ख़जाने से बहुत धन खर्च हो रहा था। एक तरह से यह संघर्ष संपूर्ण देश के लिए घाटे का सौदा साबित हो रहा था।
दरअसल, आज़ादी के समय अंग्रज़ी सरकार ने भारत के साथ गंभीर पक्षपात किया। चूंकि मुस्लिम लीग को ब्रिटिश सत्ता ही प्रमोट कर रही थी, तो पहले तो 36 करोड़ आबादी वाले भारत को केवल 32.8 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि दी गई जबकि केवल सात करोड़ आबादी के साथ पांचवे हिस्से से भी कम पाकिस्तान को 9.4 वर्ग किलोमीटर भूमि दी गई। यह पक्षपात सैन्य बंटवारे में भी देखी गई। ब्रिटिश आर्मी में हिंदू सैनिक ज़्यादा थे तो ब्रिटिश सरकार ने सैनिक भारत को दे दिया और बदले में गोलाबारूद भारत के मुक़ाबले पाकिस्तान को ज़्यादा दे दिया। जबकि उस समय 10 प्रमुख गोलाबरूद डिपो में से 8 भारतीय भूमि पर थे। यह फैक्टर भी उस समय पाकिस्तानी सेना के लिए लाभदायक रहा। नतीजतन भारत और पाकिस्तान सैनिकों के बीच युद्ध लंबा खिंचने लगा।
अंत में सभी दलों के नेताओं के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई, जिसमें उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल, रक्षा मंत्री बलदेव सिंह, उद्योग मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर, शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, श्रम मंत्री जोगिंदरनाथ मंडल, रेल मंत्री जॉन मथाई और कृषि मंत्री राजेंद्र प्रसाद (जो बाद में राष्ट्रपति बने) जैसे वरिष्ठ नेता शामिल हुए। बैठक में आम राय से संयुक्त राष्ट्रसंघ में जाने का निर्णय लिया गया। डॉ. मुखर्जी ने बैठक में असहमति ज़रूर जताई, लेकिन उन्होंने न तो खुलकर विरोध किया और न ही सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कहा। हां दो साल बाद जब नेहरू-लियाकत पैक्ट पर हस्ताक्षर हुआ, तब उन्होंने 1950 में नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दिया और अगले साल यानी 1951 में उन्होंने जनसंघ की स्थापना की।
नेहरू-लियाकत पैक्ट, जिसे दिल्ली समझौता भी कहा जाता है, 8 अप्रैल 1950 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच हुआ था। यह समझौता दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किया गया था। भारत में मुसलमानों और पाकिस्तान में हिंदू-सिखों के धार्मिक, नागरिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करने का वादा इसमें शामिल था। दोनों देशों ने अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता, संपत्ति और रोजगार की सुरक्षा देने की बात कही। इस समझौते का उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को कम करना और साम्प्रदायिक हिंसा को रोकना था।
बहरहाल, मंत्रिमंडल के निर्णय के बादभारत ने 1 जनवरी 1948 को यूएन चार्टर के आर्टिकल 35 के तहत यूएनएससी (UNSC) में पाकिस्तान पर भारतीय क्षेत्र हथियाने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करा दी। भारत ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान ने कबाइली लड़ाकों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर राज्य की संप्रभुता पर हमला किया है। लिहाज़ा, संयुक्त राष्ट्र पाकिस्तान पर दबाव डाले कि वह आक्रमणकारी बलों को वापस बुलाए और शांति बहाल हो। लेकिन पाकिस्तान ने पीछे हटने से साफ़ इनकार कर दिया। लिहाज़ा, दोनों सेनाओं में संघर्ष चलता रहा। सर्दी बीतने के बाद पता चला कि पाकिस्तानी सेना ने अपनी स्थिति बहुत मज़बूत कर ली है। लिहाज़ा, भारतीय सेना लाख कोशिश के बावजूद उन्हें पीछे नहीं खदेड़ सकी।
संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद ने 20 जनवरी 1948 को हुई बैठक में पहली बार इस मुद्दे पर विचार-विमर्श किया और मुद्दे को हल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (UNCIP) का गठन कर दिया। आयोग ने बैठकों के कई दौर के बाद युद्धविराम करने, सेना हटाने और राज्य में जनमत संग्रह की सिफारिश की। संयुक्त राष्ट्रसंघ सुरक्षा परिषद की शर्तें कभी पूरी नहीं हो सकीं, क्योंकि पाकिस्तान ने अपनी सेना पीछे नहीं हटाई। हालांकि 1 जनवरी 1949 को यानी 14 महीने के सशस्त्र संघर्ष के बाद युद्धविराम लागू हो गया और दोनों देशों के क़ब्ज़े के बीच सीज़फायर लाइन ख़ींच दी गई, जिसे 171 के युद्ध के बाद लाइन ऑफ कंट्रोल कहा जाने लगा।
इस युद्ध का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह रहा कि जम्मू-कश्मीर का स्थायी समाधान नहीं निकल सका और यह मुद्दा आज तक भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का केंद्र बना हुआ है। युद्ध के कारण उपजी अविश्वास की खाई दोनों देशों के बीच बार-बार संघर्ष का कारण बनी। हालांकि भारत ने कश्मीर का रणनीतिक हिस्सा अपने पास बनाए रखा, लेकिन पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए क्षेत्रों की वजह से कश्मीर आज भी एक अधूरी कहानी बना हुआ है। कुल मिलाकर यह कहना ज़्यादा सही होगा कि कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने का फ़ैसला भारत सरकार का सामूहिक फ़ैसला था न कि पं. नेहरू का अपनी निजी फ़ैसला, इसलिए उन्हें दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। कश्मीर समस्या के लिए कोई दोषी है तो वह महाराजा हरिसिंह थे, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत का आज़ादी के सेमय भारत में विलय नहीं किया था।
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