मुंबई – देश की आर्थिक राजधानी, जहां गगनचुंबी इमारतों की छांव में ज़िंदगी दौड़ती है, वहीं शहर के अंतिम पड़ाव यानी श्मशानभूमियों में भी एक अनकही कहानी पल रही है। जहां एक ओर शहर ने आधुनिकता की ओर लंबी छलांग लगाई है, वहीं दूसरी ओर परंपराओं की जड़ें आज भी इतनी मजबूत हैं कि उनका भार पर्यावरण भी महसूस करने लगा है। हाल ही में मुंबई महानगरपालिका (BMC) ने शहर की 49 हिंदू श्मशानभूमियों के लिए अगले दो वर्षों में लगभग 3.7 करोड़ किलो लकड़ी खरीदने का फैसला लिया — एक ऐसा निर्णय जिसने न सिर्फ शहर के बजट को झकझोर दिया, बल्कि पर्यावरणविदों की चिंता को भी हवा दी। लकड़ी से होने वाले अंतिम संस्कारों का यह पारंपरिक चलन अब एक आधुनिक संकट में तब्दील होता जा रहा है। जब हर चिता जलती है, तो उसके साथ जलता है पर्यावरण का संतुलन, और उभरती है एक ऐसी बहस जो धार्मिक परंपरा और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के बीच फंसी है। मुंबई के आसमान में उठता धुआं अब सिर्फ किसी की विदाई का प्रतीक नहीं, बल्कि आने वाले भविष्य की चेतावनी भी बन गया है।
लकड़ी दहन से बढ़ रहा प्रदूषण
एक शवदाह के लिए औसतन 350 से 400 किलो लकड़ी की आवश्यकता होती है। इस आधार पर दो वर्षों में कुल 3 करोड़ 70 लाख किलो (3.70 करोड़ किलो) लकड़ी केवल मुंबई में शवदाह के लिए जलायी जाएगी। आईआईटी (IIT) मुंबई के एक सर्वे के अनुसार, शहर में होने वाले कुल प्रदूषण में लकड़ी जलने से 12% तक योगदान होता है — जिसमें परंपरागत श्मशान और बेकरी प्रमुख स्रोत हैं। बंबई हाईकोर्ट ने हाल ही में प्रदूषण नियंत्रण को लेकर मुंबई महानगर पालिका और महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कड़ी फटकार लगाई थी। इसके बाद BMC ने बेकरी और धोबीघाट जैसी जगहों पर लकड़ी के स्थान पर गैस और इलेक्ट्रिक विकल्प अपनाने की सलाह दी है।
विद्युत-दाहिनी, गैस शवदाहिनी और अब मोक्षकाष्ठ
मुंबई महानगर पालिका ने अब तक 10 श्मशानों में विद्युत-दाहिनी और 18 स्थानों पर गैस शवदाहिनियाँ स्थापित की हैं। अब 9 अन्य स्थानों पर पर्यावरण-मित्र लकड़ी दहन प्रणाली लगाने की योजना है, जिससे हर शव पर लकड़ी की खपत लगभग 250 किलो कम हो सकती है। फिर भी, लकड़ी की कुल मांग में कोई खास कमी नहीं दिख रही है।
मोक्षकाष्ठ क्या है?
मोक्षकाष्ठ एक पर्यावरण-संवेदनशील विकल्प है, जिसे पारंपरिक लकड़ी के स्थान पर अंतिम संस्कार के लिए उपयोग किया जाता है। इसका उद्देश्य पारंपरिक धार्मिक विधियों को सुरक्षित रखते हुए जंगलों की कटाई रोकना और प्रदूषण को कम करना है। ‘मोक्षकाष्ठ’ शब्द संस्कृत के “मोक्ष” (आत्मा की मुक्ति) और “काष्ठ” (लकड़ी) से बना है, जिसका अर्थ है — वह लकड़ी जो मुक्ति दिलाने में सहायक हो, परंतु प्रकृति को हानि न पहुँचाए। मोक्षकाष्ठ मुख्यतः खेतों में उपलब्ध कृषि अपशिष्टों से तैयार किया जाता है। इसमें सूखे पत्ते, फसल के डंठल (जैसे गन्ने की खोई, मक्के की तुरियाँ), घास, झाड़ियाँ, पराली, कागज़, कपास के डंठल और अन्य जैविक अपशिष्टों को इकट्ठा कर मशीनों द्वारा दबाकर बेलनाकार या ईंट के आकार की ठोस लकड़ियाँ बनाई जाती हैं। ये ईको-फ्रेंडली ईंधन कम धुआँ पैदा करता है, जली हुई राख भी कम होती है और इससे वनों की कटाई पर भी रोक लगती है। इसका उपयोग न केवल अंतिम संस्कार में, बल्कि औद्योगिक और घरेलू ईंधन के रूप में भी हो सकता है।
पर्यावरणविद सयाजी शिंदे का सुझाव
पर्यावरणविद और ‘सह्याद्री देवराई’ संस्था के प्रमुख अभिनेता सयाजी शिंदे ने सुझाव दिया है कि शवदाह के लिए ‘मोक्षकाष्ठ’ को प्राथमिकता दी जाए। उनका कहना है— “भारत में 80% बिजली अब भी कोयला जलाकर बनती है, जिससे गंभीर पर्यावरणीय नुकसान होता है। विद्युत या गैस शवदाहिनी इस कारण पर्यावरण के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। इसके बजाय मोक्षकाष्ठ — जो खेतों के सूखे पत्तों, शाखाओं, झाड़ियों आदि से तैयार किया जाता है — एक श्रेष्ठ विकल्प है।”
सयाजीशिंदे ने बताया कि मोक्षकाष्ठ धार्मिक परंपराओं का पालन करते हुए भी प्रयोग में लाया जा सकता है और यह नवीकरणीय (Renewable) स्रोत है। इसके उपयोग से न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि किसानों को उनके खेतों के अपशिष्ट का मूल्य भी मिलेगा। साथ ही, इससे रोजगार के भी अवसर खुल सकते हैं — मोक्षकाष्ठ बनाने के कारखाने शुरू किए जाएं तो 20,000 लोगों को रोजगार मिल सकता है।
BMC की दीर्घकालीन योजना
मुंबई महानगर पालिका के पर्यावरण विभाग के उपायुक्त राजेश ताम्हाणे ने कहा कि मुंबई की कुल 263 श्मशानभूमियों में से 225 को पर्यावरण अनुकूल बनाने का लक्ष्य रखा गया है। आने वाले वर्षों में विद्युत, सीएनजी और पीएनजी शवदाह विकल्पों को बढ़ावा दिया जाएगा। मुंबई जैसे महानगर में हर दिन दर्जनों शवदाह होते हैं, जिससे लकड़ी की खपत और उससे उत्पन्न प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। पर्यावरणविदों के सुझावों और तकनीकी समाधानों के बीच सामंजस्य बनाकर ही भविष्य में टिकाऊ और संवेदनशील समाधानों की ओर बढ़ा जा सकता है — जहां परंपरा और प्रकृति दोनों की रक्षा हो। (लोकमत से साभार)
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