हरिगोविंद विश्वकर्मा
पहलगाम आतंकी हमले के बाद दुनिया ने देखा कि इजराइल को छोड़कर दुनिया के किसी देश ने भारत का समर्थन किया जबकि भारत मानवता दुश्मन उन आतंकवादियों का सफाया कर रहा था, जो संयुक्त राष्ट्रसंघ के आतंकी लिस्ट में हैं। दूसरी ओर पाकिस्तान के समर्थन चीन, तुर्किए और अजरबैज़ान खुलकर आए, तो अमेरिका समेत दूसरे कई देश अप्रत्यक्षरूप से आए। चीन ने तो भारत के साथ अपनी परंपरिक दुश्मनी के चलते इस्लमाबाद का समर्थन किया, लेकिन तुर्किए और अजरबैज़ान ने पाकिस्तान का समर्थन इसलिए किया, क्योंकि वह इस्लामिक राष्ट्र है।
ऐतिहासिक तथ्य पर एक नज़र
अगर पिछले कुछ दशक के इतिहास पर जाएं तो आप देखेंगे कि इस्लामिक देश इजराइल का शुरू से घोर विरोध करते रहे हैं, लेकिन भारत की सेक्यूलर इमैज के बावजूद वे भारत की तुलना में पाकिस्तान का ज़्यादा समर्थन करते रहे हैं, लेकिन जब से नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं, मुसलमान और मुस्लिम देश आंख मूंदकर भारत का विरोध करने लगे हैं। दरअसल, ये लोग इसलिए भी मोदी, भाजपा और आरएसएस का विरोध करते हैं क्योंकि ये लोग हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं। किसी इस्लामी देश में सही मायने में लोकतंत्र नहीं है, लेकिन भारत और इजराइल में लोकतंत्र फलफूल रहा है। इन देशों के मुसलमान ख़ुशहाल और शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं, लेकिन उनके मन में हमेशा इन दोनों देशों के लिए नफ़रत रहती है।
इस्लामी देश मंजूर पर यहूदी-हिंदू देश नामंजूर
वैसे इस धरती पर कुल 56 इस्लामिक देश हैं। लेकिन विश्व में 200 करोड़ मुसलमान एकमात्र यहूदी देश और एक मात्र हिंदू बाहुल्य देश को भी नहीं देखना चाहते। ये मुसलमान किसी इस्लामी देश को सेक्यूलर देश बनाने की बात नहीं करते लेकिन भारत में सेक्यूलर चिल्लाते रहते हैं। सबसे बड़ी बिडंबना है कि दुनिया भर के 95 फ़ीसदी से ज़्यादा मुस्लिमों का रुख अक्सर इज़राइल और भारत विरोधी रहता है। यहां यह बताना भी ज़रूरी है कि दुनिया का हर चौथा व्यक्ति मुसलमान है। मुसलमानों की आबादी जिस तरह बढ़ रही है, उसे देखकर आशंका जताई गई है कि 2035 तक दुनिया का हर तीसरा नागरिक मुस्लिम होगा।
गैर-मुस्लिमों के बारे में क्या कहता है कुरआन
दरअसल, कुरआन में गैर-मुस्लिमों को लेकर महत्वपूर्ण बात कही गई है। कुरआन, सूरह अल-काफ़िरून 109:6 धर्म की व्याख्या “तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म, और मेरे लिए मेरा धर्म।” के रूप में करता है। सूरह अल-मुम्तहना 60:8 कहता है, “ईश्वर तुम्हें मना नहीं करता कि तुम उनके साथ भलाई और न्याय का व्यवहार करो जिन्होंने तुमसे धर्म के कारण युद्ध नहीं किया।” कहने का मतलब कुरआन की ये आयतें बताती हैं कि कुरआन में सहअस्तित्व की भावना भी मौजूद है। लेकिन इसका दुरुपयोग राजनीतिक इस्लाम ने किया है।
राजनीतिक इस्लाम को जानना जरूरी
ऐसे में राजनीतिक इस्लाम को जानना जरूरी है। दरअसल, राजनीतिक इस्लाम एक विचारधारा है जिसमें धर्म को सत्ता पाने और चलाने के औजार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। मुस्लिम ब्रदरहुड, जमात-ए-इस्लामी, तालिबान, ईरानी शासन, मुस्लिम लीग जैसे कई संगठन काफिर-वाद को राजनीतिक दुश्मनी के औचित्य के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं। भारत में 1930 और 1940 के दशक में मोहम्मद अली जिन्ना आदि ने धर्म का इस्तेमाल सत्ता और देश पाने के लिए किया था। तो दुनिया भर में राजनीतिक इस्लाम के पैरोकारों द्वारा इज़राइल को “ज़ायोनी कब्जे वाला राष्ट्र” और भारत को “इस्लामोफोबिक हिंदू राष्ट्र” के रूप में चित्रित किया जाता है, जबकि ये दोनों ही देश प्राचीन सभ्यताओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं से युक्त हैं।
अस्तित्व के लिए लड़ना इजराइल की नियति
ऐसे में सवाल यह है कि क्या यह विरोध सिर्फ धार्मिक आधार पर है अथवा इसके पीछे ऐतिहासिक घाव, राजनीतिक हित और रणनीतिक असुरक्षा जैसे गहरे कारण हैं? इज़राइल और इस्लामी देश की तनातनी इज़राइल का जन्म से यानी 70 साल से है। 1948 में जब यहूदी शरणार्थियों को एक स्वतंत्र राष्ट्र इज़राइल के रूप में मान्यता मिली, तो फिलिस्तीनी भूमि का विभाजन हुआ। इसी को लेकर मुस्लिम दुनिया में तभी से आक्रोश है। हालत यह है कि इजराइल सामरिक रूप से इतना मज़बूत न रहा होता तो आक्रोशित अरब देश उसका नाम-ओ-निशान मिटा चुके होते। यही वजह है कि इजराइल अपने जन्म से ही आत्मरक्षा में अरब देशों से युद्ध कर रहा है।
धरती का हर मुसलमान परस्पर बंधु
मुस्लिम ‘उम्मा’ और फलिस्तीन के प्रति एकजुटता दर्शाते हैं। इस्लामी सिद्धांत के अनुसार, मुस्लिम राष्ट्र एक ‘उम्मा’ यानी एक समुदाय का हिस्सा हैं। यानी धरती का हर मुसलमान बंधु है। इसी बिना पर फलिस्तीनियों के संघर्ष को पूरा इस्लामी जगत अपनी धार्मिक जिम्मेदारी मानता है और उसे सहायता एवं समर्थन देता है। सिर क़लम करने के क्लचर में भरोसा करने वाले हमास, हिजबुल्लाह और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन इज़राइल को “इस्लाम का दुश्मन” मानते हैं। उनका प्रचार-तंत्र इज़राइल को यहूदियों का देश कहता है।
भारत भी दुश्मन देश की कैटेगरी में
इसी तरह मुस्लिम राष्ट्र और मुसलमान भारत को भी दुश्मन देश की कैटेगरी में रखते हैं। स्वतंत्रता के बाद भारत का रुख सेक्यूलर रहा है। भारतीय संविधान सेक्यूलर है। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया। कांग्रेस शासन के दौरान भारत ने फलिस्तीन का खुलकर समर्थन किया। इसके बदले उसे क्या मिला? कश्मीर मुद्दे पर इस्लामी देश पाकिस्तान की भूमिका का समर्थन करते हैं, जबकि कश्मीर का भारत में विलय विधि सम्मत हुआ है। जब कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान में टकराव होता है तो इस्लामी मुल्क पाकिस्तान की बात मानते हैं जो कहता है कि कश्मीर के मुसलमान भारत में “दबाए जा रहे हैं” और पूरे मुल्क में मॉबलिंचिंग के नाम पर मुसलमानों का क़त्ल किया जाता है।
भारत में मुसलमानों का ‘काल्पनिक उत्पीड़न’
इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के देश अक्सर भारत विरोधी बयान देते रहते हैं। ये देश जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ भारत में मुसलमानों के ‘काल्पनिक उत्पीड़न’ को लेकर ज़्यादा मुखर रहता है। जबकि सच यह है कि भारत में लगभग 20 करोड़ मुस्लिम हैं, जो किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे ज़्यादा हैं। फिर भी, खासकर 2014 के बाद, भारत को एक ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ से ग्रस्त देश के रूप में चित्रित किया जाता है। इस्लामी प्रचारकों के साथ साथ कई मीडिया हाउस नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश करते हैं। इन लोगों ने ट्रिपल तलाक विरोधी कानून, बुरका एवं हिजाब विवाद और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) जैसे मुद्दों को मुस्लिम विरोधी के रूप में पेश किया।
उइगर मुस्लिमों के दमन पर मौन
इसके विपरीत दुनिया भर के मुसलमान चीन में उइगर मुस्लिमों (Uyghur Muslim) के दमन पर मौन साधे रहते हैं। उइगर मुस्लिम आबादी पर अंकुश लगाने के लिए चीन के पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में बड़े पैमाने पर एक अभियान चलाया हुआ जिसके तहत इनकी जबरदस्ती नसबंदी और गर्भपात किए जा रहे हैं। कहीं से विरोध का एक शब्द भी सुनने को नहीं मिलता। इसी तरह सीरिया, यमन, सूडान जैसे देशों में मुस्लिमों के हाथों मुस्लिमों के नरसंहार की बिल्कुल भी निंदा नहीं करते। ये लोग म्यांमार, श्रीलंका, रूस में मुस्लिम विरोधी गतिविधियां पर भी सीमित प्रतिक्रिया देते हैं।
संतुलन के लिए कूटनीतिक समीकरण
भारत और इज़राइल के बीच तकनीक, रक्षा, कृषि, जल प्रबंधन और साइबर सुरक्षा में साझेदारी से कट्टरपंथी मुसलमानों और मुस्लिम मुल्क परेशान हो रहे हैं। इस साझेदारी को संपूर्ण मुस्लिम जगत ‘यहूदी-हिंदू गठबंधन’ के रूप में देख रहा है और इसका विरोध कर रहा है। जबकि दुनिया की इस पॉलिटिक्स ख़ासकर, राजनीतिक इस्लाम के ख़तरे के मद्देनज़र भारत और इज़राइल का आपस में सैन्य गठबंधन करना समय की मांग है। सच यह है कि भारत और इज़राइल दोनों लोकतंत्रिक देशों ने विविधता में एकता को प्राथमिकता दी है। इज़राइल में मुस्लिम संसद सदस्य हैं, तो भारत में राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्री, अभिनेता, खिलाड़ी हर क्षेत्र में मुस्लिम आगे हैं।
ऐसे में भारत और इज़राइल के विरुद्ध इस्लामी देशों की प्रवृत्ति न्याय के बजाय राजनीति से प्रेरित अधिक लगती है। आज जब दुनिया में जलवायु संकट, आतंकवाद और तकनीकी असमानता जैसी समस्याएं हैं, तब धर्म के नाम पर किसी लोकतांत्रिक देश को खलनायक बनाना समस्या का हल नहीं है। यह सोच नई टकराव की ज़मीन तैयार करती है। लिहाज़ा, मुसलमानों और इस्लामी देशों को आत्मचिंतन करना होगा कि क्या वास्तव में वे न्याय के लिए आवाज उठा रहे हैं या केवल राजनीतिक इस्लाम के मोहरे बन रहे हैं? समय आ गया है कि वैश्विक समुदाय रिश्तों को धार्मिक पहचान के चश्मे से नहीं बल्कि तथ्यों के आधार पर देखे।
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