कठिन होती रोजगार की राह

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सरोज कुमार

वैश्विक अस्थिर आर्थिक हालात के बीच घरेलू कुप्रबंधन का परिणाम क्या होता है, भारतीय रोजगार बाजार की मौजूदा स्थिति इसका आईना है। मौजूदा हालात इस बात को भी साफ कर देते हैं कि रोजगार की राह आगे भी आसान नहीं रहने वाली है। ऐसे कठिन राह पर चलकर अर्थव्यवस्था कहां पहुंचेगी, कल्पना कर पाना कठिन है। समय सूझबूझ और सुनीति की मांग करता है, जबकि प्रबंधकों पर अभी भी कुनीति का खुमार छाया हुआ है।

रोजगार के आंकड़े बताते हैं कि अक्टूबर 2022 में जहां एक तरफ नौकरियों की संख्या घटी है, वहीं बेरोजगारी दर ऊपर गई है। खासतौर से ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर में तीव्र उछाल आया है, वह भी गैर कृषि क्षेत्र में। यह स्थिति चिंताजनक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआइई) के आंकड़े बताते हैं कि अक्टूबर 2022 में बेरोजगारी दर बढ़कर 7.8 फीसद हो गई, जो सितंबर 2022 में 6.4 फीसद थी। यहीं पर ग्रामीण बेरोजगारी दर अक्टूबर 2022 में आठ फीसद दर्ज की गई। बेरोजगारी भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ जैसे जोंक की तरह चिपक गई है। जून 2020 से ही बेरोजगारी की औसत दर 7.7 फीसद पर बनी हुई है। चिंताजनक बात यह कि अक्टूबर 2022 में सिर्फ बेरोजगारी दर ही नहीं बढ़ी, बल्कि रोजगार बाजार में श्रमिकों की भागीदारी भी घटी है। सितंबर 2022 में श्रमिक भागीदारी दर (एलपीआर) 39.3 फीसद थी, जो अक्टूबर 2022 में घटकर 39 फीसद रह गई। जनवरी 2022 से लेकर अक्टूबर 2022 तक सिर्फ अप्रैल महीने को छोड़ दिया जाए तो एलपीआर लगातार 40 फीसद से नीचे बनी हुई है। एलपीआर में गिरावट कामकाजी आबादी के बीच पनपती निराशा का संकेत है, और यह निराशा सामाजिक अर्थव्यवस्था के पतन की पहली सीढ़ी है।

एलपीआर में गिरावट और बेरोजगारी दर में वृद्धि का सीधा अर्थ होता है अर्थव्यवस्था रोजगार पैदा करने में अक्षम साबित हो रही है। सीएमआइ के आंकड़े बताते हैं कि अक्टूबर 2022 में रोजगार की दर घटकर 36 फीसद पर आ गई, जो साल भर पहले इसी अवधि में लगभग 37.3 फीसद थी। अक्टूबर 2022 में नौकरियों की संख्या में तो 78 लाख की गिरावट आई, लेकिन बेरोजगारों की संख्या 56 लाख ही बढ़ी। यानी लगभग 22 लाख लोग रोजगार बाजार से निराश होकर अपने घरों को लौट गए।

रोजगार बाजार की स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब नौकरियां ग्रामीण इलाकों में घटने लगती हैं, और वह भी गैर कृषि क्षेत्र में। ग्रामीण नौकरियों में अक्टूबर 2022 की गिरावट गैर कृषि क्षेत्र में ही हुई है। हालांकि कृषि क्षेत्र में भी सिर्फ अक्टूबर 2022 को छोड़कर पिछले एक साल से नौकरियां लगातार घट रही हैं। नौकरियों के मामले में कृषि क्षेत्र नवंबर 2021 में अपने उच्चतम बिंदु पर था, जब यहां 16.4 करोड़ लोग रोजगाररत थे। लेकिन उसके बाद से यह आंकड़ा तेजी के साथ नीचे आया है, और सितंबर 2022 में कृषि क्षेत्र में 13.4 करोड़ लोग ही रोजगाररत पाए गए। अक्टूबर 2022 में इस आंकड़े में थोड़ा सुधार जरूर हुआ और यह बढ़कर 13.96 करोड़ हो गया, लेकिन पिछले चार सालों के दौरान किसी अक्टूबर महीने में कृषि क्षेत्र में नौकरियों का यह न्यूनतम आंकड़ा है।

हम अपने सेवा क्षेत्र का दुनिया में ढिढोरा पीटते हैं। निश्चितरूप से महामारी के दौरान और उसके बाद भी सेवा क्षेत्र ने रोजगार के आंकड़े को संभालने का काम किया। लेकिन वह सेवा क्षेत्र भी अक्टूबर 2022 में मुरझाता हुआ दिखा। सेवा क्षेत्र में 79 लाख नौकरियां खेत हो गईं। इनमें से 46 लाख ग्रामीण इलाकों में थीं, और इसमें भी 43 लाख खुदरा क्षेत्र में। यानी सेवा क्षेत्र में लगभग आधी हिस्सेदारी रखने वाले खुदरा क्षेत्र की हालत भी ग्रामीण इलाकों में पतली हो रही है। इसका सीधा अर्थ होता है ग्रामीण भारत में खरीददारी क्षमता घट रही है, मांग नीचे आ रही है। जबकि देश की लगभग 70 फीसद आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है।

औद्योगिक क्षेत्र की तस्वीर भी धुंधली है। यहां अक्टूबर 2022 में 53 लाख नौकरियां समाप्त हो गईं, जिनमें से ज्यादातर विनिर्माण उद्योगों की थीं। सबसे ज्यादा नौकरियां पैदा करने वाले निर्माण क्षेत्र ने भी अक्टूबर 2022 में दगा दिया और वहां 10 लाख से अधिक नौकरियां समाप्त हो गईं। शहरी इलाकों में रोजगार की स्थिति अक्टूबर 2022 में थोड़ी बेहतर जरूर दिखी, लेकिन नवंबर 2022 के बेरोजगारी दर के अभी तक के ऊर्ध्वमुखी रुझान इस बेहतरी को बेमानी बनाते दिख रहे हैं। नवंबर 2022 में शहरी बेरोजगारी दर फिलहाल आठ फीसद से ऊपर बनी हुई है। ग्रामीण बेरोजगारी दर भी लगभग साढ़े सात फीसद पर पहुंच रही है। शहरों में सितंबर 2022 में कुल 12.6 करोड़ नौकरियां थीं। अक्टूबर 2022 में यह आंकड़ा बढ़कर 12.74 करोड़ हो गया। लेकिन आकार के लिहाज से शहरी क्षेत्र रोजगार बाजार में ऊंट के मुंह में जीरा की ही हैसियत रखता है।

आंकड़े और अनुभव दोनों इस बात की गवाही देते हैं कि घरेलू बाजार में मांग नहीं है, और ऊंची महंगाई दर इसे और नीचे लाने में जुटी हुई है। दूसरी तरफ वैश्विक मांग में गिरावट के कारण निर्यात भी लगातार नीचे गिर रहा है। अक्टूबर 2022 में निर्यात 16.65 फीसद गिर कर बीस महीने के निचले स्तर 29.78 अरब डॉलर पर आ गया। जबकि आयात छह फीसद बढ़कर 56.69 अरब डॉलर पर पहुंच गया। यदि अप्रैल-अक्टूबर 2022 के आंकड़े को देखा जाए तो निर्यात में मात्र 12.55 फीसद की वृद्धि हुई, और यह 263.35 अरब डॉलर का रहा। जबकि आयात 33.12 फीसद बढ़कर 436.81 अरब डॉलर पर पहुंच गया। निर्यात-आयात का यह विपरीत रुझान घरेलू रोजगार बाजार के भविष्य के लिए दोधारी तलवार की तरह है। एक तरफ निर्यात में गिरावट के कारण नौकरियां घटेंगी, तो दूसरी तरफ आयात बिल बढ़ने से पूंजीगत निवेश प्रभावित होगा, जैसा कि आंकड़ों से प्रमाणित भी होता है। सवाल उठता है फिर नौकरियां कैसे पैदा हो पाएंगी?

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने भी रोजगार बाजार के धंुधले भविष्य की ओर ही इशारा किया है। डब्ल्यूटीओ के अनुमान के मुताबिक, 2022 में वैश्विक व्यापार की वृद्धि दर 3.5 फीसद रहनी है, जबकि 2023 में यह मात्र एक फीसद पर सिमट जाएगी। यह अनुमान एक तरह से वैश्विक मंदी की मुनादी है। यानी भारत का निर्यात और घटेगा और यह घटाव रोजगार बाजार पर काली घटा बनकर बरसेगा। विशाल बाजार और जनसांख्यिकीय लाभांश का पोस्टर इस बारिश में किस हाल में होगा, कह पाना कठिन है। सरकार को हालांकि अभी भी सेवा क्षेत्र से बड़ी उम्मीद है। क्योंकि वैश्विक उत्पाद व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 1.8 फीसद है, जबकि वैश्विक सेवा व्यापार में चार फीसद। निश्चितरूप से सेवा क्षेत्र उम्मीद की एक खिड़की खोलता है। लेकिन इतनी विशाल कामकाजी आबादी के लिए एक खिड़की कितना ऑक्सीजन जुटा पाएगी, इसे अभी तक के अनुभव से समझा जा सकता है।

फिलहाल का सच यह है कि सरकार अप्रैल-अगस्त के दौरान 75 खरब रुपये के वार्षिक पूंजीगत निवेश लक्ष्य का मात्र 33.7 फीसद ही खर्च कर पाई, जबकि केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (सीपीएसई) ने अप्रैल-सितंबर के दौरान 66.2 खरब डॉलर के वार्षिक पूंजीगत निवेश लक्ष्य का 43 फीसद खर्च किया। निजी क्षेत्र की स्थिति इस मामले में बदतर है। कॉरपोरेट कर में कटौती, उत्पादन आधारित प्रोत्साहन और अन्य राजकोषीय प्रोत्साहनों के बावजूद निजी क्षेत्र पूंजीगत निवेश के लिए कदम नहीं बढ़ा रहा है, जिसे लेकर वित्तमंत्री भी आश्चर्य जता चुकी हैं। जाहिर है निजी क्षेत्र ने सरकारी सुविधाओं और प्रोत्साहनों का इस्तेमाल अपनी सेहत सुधारने में किया। निजी क्षेत्र के निवेश का सिद्धांत मुनाफे पर आधारित है। और जब लागत की वापसी की संभावना भी धूमिल हो तो भला कोई अपनी पूंजी क्यों फंसाना चाहेगा। लेकिन बगैर निवेश के रोजगार की उम्मीद भी बेमानी है। हां, यह एक सपना हो सकता है, ठीक उसी तरह जैसे रेगिस्तान में पानी के बगैर प्यास बुझाने का सपना!

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(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)

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