डॉ मधुबाला शुक्ला
इक्कीसवीं सदी विमर्श की सदी रही है। जिसमें प्रमुख रूप से दलित विमर्श, स्त्री विमर्श आदिवासी विमर्श है। वर्तमान युग के हिंदी साहित्य में आदिवासी साहित्य एक विशेष पहचान बनाते हुए नज़र आता है। आदिवासी समुदाय में नए-नए साहित्यकार उभर कर सामने आ रहे हैं। इन साहित्यकारों में निर्मला पुतुल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। निर्मला आदिवासी महिला साहित्य जगत की सशक्त रचनाकार हैं। वह साहित्य लिखने के साथ सामाजिक विकास, मानवाधिकार शिक्षा, आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय हैं। अनेक राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ उनका जुड़ाव रहा है। आदिवासी महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों से संबंधित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में उन्हें व्याख्याता एवं मुख्य भूमिका के लिए आमंत्रित किया जाता है। अनेक संगठनों व संस्थाओं की संस्थापक, सदस्या, स्वास्थ्य परिचारिका के रूप में ‘संथाल परगना’ के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से कार्य कर रही हैं। निर्मला अत्यंत भावुक क़िस्म की इंसान हैं। उनकी यह संवेदनशीलता उनके साहित्य में साफ़ झलकती है।
निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च 1972 में कुरुवा, दुमका झारखंड में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा दुधनी कुरुबा में और स्नातक शिक्षा राजनीति शास्त्र में दुमका से हुआ। निर्मला पुतुल की पहली कविता ‘बिटिया मुर्मू’ 1999 में वागर्थ में प्रकाशित हुई थी। अब तक उनके तीन कविता संग्रह हिंदी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं। ‘अपने घर की तलाश में’ कविता संग्रह 2004 में रमणिका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित हुआ। यह कविता संग्रह द्विभाषी है। इसका अनुवाद अशोक सिंह ने किया। (‘इत्राक ओडाक सेन्देरा रे’ कविता संग्रह का मूल नाम है) इस संग्रह में सम्मिलित सभी कविताओं का मूल स्वर विद्रोह का है।
‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से 2005 में प्रकाशित किया गया। इस कविता संग्रह में कुल 38 कविताएँ शामिल की गई हैं। क्या तुम जानते हो, अपनी ज़मीन तलाशती बेचैनी स्त्री, आदिवासी स्त्रियाँ, बाहामुनी, बिटिया मुर्मु के लिए, आदिवासी लड़कियों के बारे, चुडका सोरे, कुछ मत कहो सजोनी किस्कू, संथाल परगना, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, पहाड़ी स्त्री, माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले उतनी दूर मत ब्याहना बाबा, आदि कविताएँ इस संग्रह में है। कुल मिलाकर इस संग्रह में प्रकाशित कविताएँ आदिवासी स्त्री एवं आदिवासियों की वेदना, पीड़ा, दर्द, टीस, उपेक्षा, अपमान, घुटन, विवशता, विस्थापन साथ ही अपने अस्तित्व की खोज करती आदिवासी स्त्री और उसके भीतर की आक्रांत स्त्री पितृसत्ता को चुनौती देती है। निर्मला की कविताएँ मात्र स्त्री के दर्द की अभिव्यक्ति एवं पुरुष व्यवस्था का विद्रोह नहीं करतीं, बल्कि स्वयं के अस्तित्व की तलाश करती आदिवासी स्त्री, आदिवासी समुदाय का हर एक क्षेत्र में होने वाले शोषण को उजागर करती हुई नज़र आती हैं।
अपने घर में निर्मला पुतुल
‘बेघर सपने’ कविता संग्रह 2014 में आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इस कविता संग्रह में एक फिर से निर्मला ने शोषण और न्याय के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। इस संग्रह में कुल 51 कविताएँ हैं। संग्रह की पहली कविता ‘माँ’ है, जो सबसे डरावनी रात में एक माँ की अस्तित्व को हिला देने वाली तस्वीर पेश करती है।
निर्मला पुतुल आदिवासी लेखिकाओं में एक सशक्त एवं सफल रचनाकार के रूप में खड़ी नज़र आती हैं। अपनी इस सफलता, प्रेरणा और शक्ति का श्रेय वह तस्लीमा नसरीन की कविताओं को मानती हैं। उनकी कविताओं से ही प्रेरित होकर निर्मला ने कविताएँ लिखी। निर्मला ने अपनी कविताओं में आदिवासी समुदाय तथा आदिवासी स्त्री की संवेदना को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है। उनकी कविताएँ ज़मीन से जुड़ी हुई हैं। उनकी कविताओं में एक आदिवासी स्त्री की तड़प साफ़ दिखाई देती है। साथ में उपेक्षित आदिवासी जीवन की व्यथाएँ भी वर्णित है। इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है। आदिवासी समाज की कड़ी मेहनत के बावजूद असोचनीय स्थिति, अंधविश्वास, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरुष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, समाज का दिक्कूओं और व्यावसायिकों द्वारा कठपुतली बनाया जाना आदि स्थितियाँ है जो निर्मला पुतुल की कविताओं के केंद्र में है।
निर्मला पुतुल की कविताएँ आदिवासी जीवन के अनछुए पहलुओं से रूबरू कराती हैं। उनकी काव्य संवेदना में युग परिवेश की यथार्थ आवाज गूंजती है। उन्होंने अपने समय और समाज को उसकी सारी विभीषिकाओं के साथ अनुभव किया है। उनकी काव्य संवेदना अपने समय की सामाजिक व्यवस्था और समस्याओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। नागपुरी पत्रिका ‘गौतिया’ के संपादक वीरेंद्र कुमार महतो निर्मला पुतुल की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- “निर्मला पुतुल का एक-एक शब्द दिल पर चोट करता है, हमें सोचने को मजबूर कर देती है, जितनी भी उनकी कविताओं की तारीफ़ की जाए कम होगी।” निर्मला पुतुल ने अपने यथार्थ जीवन अनुभव एवं परिवेश को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में अपनी मार्मिक अंतर्दृष्टि और अनुभव संसार के वैविध्य से आदिवासी समाज और स्त्री जीवन को अपनी रचनाओं में समेटने का प्रयास किया है।
अपने दफ़्तर में निर्मला पुतुल
उनकी कविताएँ आदिवासी समाज की पीड़ा, विस्थापन का दर्द, आदिवासी स्त्रियों की दशा का चित्रण करती है तो दूसरी ओर उनकी कविताएँ पाठक के हृदय में छिपी हुई संवेदना को गहराई से प्रभावित करती हुई भी दिखाई देती है। उनकी काव्य संवेदना आदिवासी समुदाय के प्रति अधिक संवेदनशील दिखाई देती है। इस भूमंडलीकरण के कारण सभी देश एक-दूसरे के क़रीब आ रहे हैं परंतु देश का मूलनिवासी आज भी पहाड़ी जंगलों में रहने के लिए मजबूर है। विकास की कोई सड़क उन तक नहीं पहुँच पाती। शिक्षा, बेरोज़गारी, विस्थापन, स्त्री का दर्द, भुखमरी, शराब आदि की समस्या को निर्मला ने अपनी कविताओं में प्रकट किया है। रेखा सेठी निर्मला पुतुल की कविताओं के बारे में कहती हैं- “निर्मला पुतुल का काव्य संसार एक अलग दुनिया खोलता है। वास्तविक और वैचारिक के अंतर को यहाँ शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। अधिकांशतः स्त्री कविता की पहचान पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा में रची एवं पढ़ी जाती है किंतु यहाँ आदिवासी समाज का हाशियाकरण, उसे एक अतिरिक्त आयाम देता है। निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आदिवासी समाज के अंतर्विरोध को गिरते हुए यथास्थिति के प्रतिकार के लिए कविता का अभियान छेड़ती हैं।”
निर्मला पुतुल जिस समुदाय से आई है वह संथाल समुदाय वर्तमान युग में भी पुराने रीति-रिवाज़ों में उलझा दिखाई देता है। भूमंडलीकरण की दुनिया किस प्रकार आदिवासी क्षेत्र को नष्ट कर उसकी पहचान बदलती हुई नजर आ रही है। इसका चित्रण कवयित्री निर्मला पुतुल ‘संथाल परगना’ कविता में करती है।
संथाल परगना
अब नहीं रह गया संथाल परगना
बहुत कम बचे रह गए हैं
अपनी भाषा और वेशभूषा में यहाँ लोग
बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्डम हो गया है इन दिनों यहाँ
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़
और कंक्रीट के पसरते जंगल में
खो गई है इसकी पहचान।
ऐतिहासिक संवेदना के संदर्भ में पुतुल कहती हैं कि संथाल विद्रोह इतिहास में प्रसिद्ध है। सिद्धू और कान्हू नाम के दो संथाल भाइयों ने मिलकर अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था। वह विद्रोह कई महीनों तक चला था उन दोनों वीरों को याद करते हुए निर्मला पुतुल इतिहास के पन्नों से ग़ायब होता आदिवासी वीरों के इतिहास की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।
तुम आज ज़िंदा होते तो
शायद ही ऐसा दुस्साहस करता कोई
सुना नहीं जिन्होंने तुम्हारी वीरता की गाथा
पढ़ा नहीं तुम्हारे इतिहास
वे तीर और तीर के लक्ष्य नहीं जानते
तभी तो इतिहास के पन्नों से
मिटाना चाहते हैं तुम्हारा नामोनिशान
वे कितने नादान है बेईमान
कभी लुच्चा लपट बता-बताकर
छोटा करते रहे तुम्हारा क़द
और तुम्हारे आंदोलन को
देश की आज़ादी न मानकर
एक झूठी कहानी को बताते रहे सच
आदिवासियत के नाम पर।
मुख्यधारा के इतिहास में आदिवासियों का वर्णन ग़लत तरीक़े के साथ किया गया है। कवयित्री अपने समाज के वीरों का प्रस्तुत ग़लत इतिहास बताने वाली संस्कृति के प्रति कड़ा विरोध करती हुई नज़र आती है। राजनीतिक संवेदना के संदर्भ में निर्मला पुतुल की कविताएँ आदिवासी क्षेत्र की मूल समस्या की ओर हमारा ध्यान केंद्रित करती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से मूल सुविधाओं की अपेक्षा वो बहस का मुद्दा बनाना चाहती है। सड़के नहीं हैं, बिजली नहीं है, बच्चे महाजन के पास हैं, महिलाओं को कोसों दूर झरने से पानी ढोकर लाना पड़ता है। इन सवालों को उठाते हुए तथाकथित सभ्य समाज से पूछना चाहती हैं कि क्यों किसी को भी आदिवासी जीवन के यह अभाव लोकतंत्र का केंद्रीय मुद्दा नहीं लगते। राजनीति द्वारा समस्याओं का हल ढूँढ़ने की कोशिश भीतर के खोखलेपन को बेनक़ाब करती है। कुर्सी और सत्ता की राजनीति व्यापक मानव समाज की हित चिंता से बहुत दूर है। आज हम डिजिटल दुनिया की बातें कर रहे हैं वहीं भारत के मूलनिवासी अपनी मूलभूत सुविधाओं से वंचित दिखाई दे रहे हैं। कवयित्री ‘आपके शहर में आपके बीच रहते, आपके लिए’ शीर्षक कविता में कहती हैं-
मैं बात करना चाहती हूँ
अपने उस गाँव की जहाँ आज तक बिजली नहीं पहुँची
सड़के नहीं पहुँची और तो और जहाँ की महिलाएँ
आज भी कोस भर दूर झरनों से पानी ढोकर लाती है
और जिनके बच्चे बगाली के नाम पर
वर्षों से महाजन के पास गिरवी पड़े हैं।
सरकार द्वारा मिलने वाली योजनाएँ भी उन तक नहीं पहुँच पाती। यदा-कदा मिल भी जाए तो उसे पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इसका चित्रण ‘ढेपचा का बाबू’ कविता में किया गया है।
इंदिरा आवास के लिए बहुत
दौड़ भाग की
पंचायत सेवक को मुर्गा भी दिया
प्रधान को भी दिया पचास टका
पर अभी तक कुछ नहीं हुआ
पूरे डेढ़ साल हो गए।
आदिवासी समाज को किस प्रकार विकास के नाम पर मूर्ख बनाएँ इसका चित्रण करते हुए निर्मला पुतुल कहती हैं-
हम चाहते रहे संतुलन
तुम करते रहे असंतुलित
तोड़ते रहे एकता, मिटाते रहे
हमारी पहचान
खदेड़ते रहे हमारे ही जंगलों से हमें
उजाड़ दे रहे विकास के
नाम पर हमारी बस्तियाँ
बसाने के नाम पर ढेलते रहे हाशिए पर।
निर्मला पुतुल की कविताओं में विस्थापन के दर्द की भी अभिव्यक्ति हुई है। वर्तमान युग में आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ा संकट विस्थापन का है। आदिवासियों को जंगल से खदेड़ देने के बाद वह काम के लिए दर-दर भटकते हुए दिखाई देते हैं। दिल्ली, असम आदि क्षेत्रों में जाकर रोज़गार ढूँढते हैं। विस्थापन के कारण आदिवासियों की स्थिति दयनीय हो गई है। विकास के नाम पर उन्हें ठगा जा रहा है। उनके ज़ख़्मों पर केवल दिखावे के लिए मरहम लगाया जाता है। विकास का सपना दिखाकर उन्हें ग़ुमराह किया जाता है। कवयित्री ऐसे विकास के सपनों को नकारती है जो उनके संसाधनों को छीन कर उन्हें अपने ज़मीन, जंगल से बेदख़ल करते हैं। इस तरह के विकास से वह भली-भांति परिचित हैं। वे आदिवासी समाज का विकास के नाम पर होने वाले शोषण का विरोध करती हैं। विकास के नाम पर उनकी बस्तियों को उजाड़ा जाता है। जिसका वर्णन कवयित्री ‘तुम्हारे एहसान लेने से पहले सोचना पड़ेगा हमें’, कविता में कहती हैं-
अगर हमारे विकास का मतलब
हमारी बस्तियों को उजाड़कर कल कारखाने बनानी है।
तालाबों को भोथकर कर राजमार्ग
जंगलों को सफ़ाया कर ऑफ़ीसर्स कॉलोनियाँ बसानी है।
पता है तुम्हारी हर तीसरी बात में
आएगा ज़िक्र विकसित लोगों और उनके देशों का
उनके सामने खड़ा कर बताओगे तुम
कि कितने पिछड़े हैं हम
पर अफ़सोस
तुम कभी नहीं बताओगे कि
किन शर्तों पर हमारा विकास करना चाहते हो तुम।
स्त्री के प्रति संवेदनशीलता के संदर्भ में निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आदिवासी स्त्री की त्रासदी एवं अस्तित्व की तलाश करती नज़र आती हैं। उनकी कविताओं में स्त्री अपने घर की तलाश करती है, जो स्थान उसका है उसे ढूँढ़ने का प्रयास करती है। सदियों से अपना घर, अपनी ज़मीन तलाशती स्त्री किस प्रकार अपने अस्तित्व को ढूंढ रही है। ‘अपने घर की तलाश’ कविता में वह कहती हैं-
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती- हाँफती- भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी ज़मीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ।
निर्मला पुतुल स्त्री होने की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहती हैं-
एक स्त्री
स्त्री होने की पीड़ा भोगती है
और अगले जन्म में स्त्री जन्म ना लेने
की प्रार्थना ईश्वर से करती है।
निर्मला पुतुल की कविताओं में स्त्रीवादी स्वर दिखाई देता है। पुरुष प्रधान संस्कृति में स्त्री का शोषण किस प्रकार किया जाता है यह उनकी कविताओं में हमें दिखाई देता है। निर्मला पुतुल प्रकृति के प्रति भी बहुत संवेदनशील हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति के प्रति गहरी चिंता व्यक्त हुई है उन्होंने जंगलों की अवैध कटाई, सूखते जल स्रोत के प्रति चिंता प्रकट की है। आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर से अधिकार हटाकर उन्हें ज़मीन से, जंगल से बेदख़ल कर दिया गया है परंतु सीधे-साधे आदिवासी इस षड्यंत्र को न पहचान सके। मनुष्य प्रकृति के प्रति इतना क्रूर होता जा रहा है कि ताज़ी हवा, नदियाँ, पहाड़ आदि को हानि पहुँचा रहा है। इसीलिए निर्मला पुतुल समाज और प्रकृति को अभिन्न जैविक इकाई की तरह बचाने का आह्वान करती हैं। आदिवासी समाज धरती को संसाधन की बजाय ‘माँ’ मानकर उसके बचाव और उसके रखरखाव के लिए सदैव तत्पर रहता है। अपनी कविताओं में जंगल के धड़ल्ले से ग़ायब होते पेड़ों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं-
क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से
पेड़ों की चीत्कार?
कुल्हाड़ियों के वार सहते
किसी पेड़ की हिलती टहनियों में
दिखाई पेड़ है तुम्हें
बचाव के लिए पुकारते हज़ारों हज़ार हाथ?
वर्तमान युग भूमंडलीकरण की चकाचौंध की दुनिया में विकास की नई व्याख्यान कर रहा है। तो दूसरी तरफ़ मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर उसे नष्ट कर आने वाली पीढ़ी के लिए एक नया संघर्ष निर्माण कर रहा है। आर्थिक संवेदना को व्यक्त करते हुए ‘बहामुनी’ कविता में निर्मला कहती हैं-
तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों
पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।
आज की भूमंडलीकरण के इस दौर में आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती संस्कृति और भाषा को बचाने की है। विस्थापन के कारण रहने का ठिकाना नहीं और काम नहीं। आज प्लास्टिक का ज़माना है। लोग प्लास्टिक की चीज़ें लेने लगे हैं। आदिवासी समाज द्वारा बनाए गए चीज़ें झाड़ू, पत्तल, दोना, दातुन नहीं बिकते हैं। इस कारण आदिवासी समाज की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है।
इधर कामकाज भी नहीं मिलता आजकल
जो मेहनत मजदूरी कर घर चलाऊं
दोना-पत्तल भी नहीं बिकता
और न ही लेता है कोई घर चटाई
झाड़ू, पंखा, दातुन, का भी बाज़ार नहीं रहा अब।
निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि निर्मला पुतुल संवेदनशील कवयित्री हैं। उनकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति कड़वाहट एवं आदिवासी स्त्री का संघर्ष दिखाई देता है। अपनी कविताओं में उन्होंने जीवन अनुभव को सहजता से व्यक्त किया है। इन संवेदना में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आदिवासी स्त्री आदि विचार भाव को यथार्थ रूप में स्पष्ट किया है। निर्मला ने इन दुखों को खुद भोगा है और बहुत क़रीब से देखा भी है इसीलिए उनकी कविताएँ सीधे ह्रदय पर चोट करती है।
(डॉ मधुबाला शुक्ला ने हाल ही में ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में व्यक्त साम्प्रदायिकता’ विषय पर अपनी पीएचडी डिग्री पूरी की। लेखन में सक्रिय हैं और इनके लेख और साक्षात्कार विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते हैं।)