मधुबाला शुक्ला
जिस तरह से दौर में बदलाव होना अनिवार्य है ठीक उसी तरह से हर दौर के संबंधों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है जिसे हम ‘जेनरेशन गैप’ कहते हैं। इसे पीढ़ी अंतराल या पीढ़ीगत अंतर भी कहते हैं। यह एक पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी के बीच विचारों और दृष्टिकोणों का अंतर भी है। कामतानाथ की कहानी ‘संक्रमण’ पर आधारित नाटक पिता-पुत्र के रिश्तों में आए अंतर्द्वंद के साथ-साथ ही निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के अभावों का चित्रण करता है।
इस बेहतरीन नाटक का मंचन बेहतरीन ढंग से 14 जनवरी 2024 की शाम गोरेगांव पश्चिम स्थित केशव गोरे सभागृह में ‘चित्रनगरी संवाद मंच’ के साप्ताहिक कार्यक्रम में हुआ। पर ऐसे ही एक नाटक की प्रस्तुति हुई। इस नाटक में शामिल कलाकारों के जीवंत अभिनय ने इसे बेहद प्रभावशाली नाटक का दर्जा दे दिया।
वैसे भी कामतानाथ की कहानियाँ जीवन के गहरे सरोकार से प्रेरित रही हैं। निम्न वर्ग का आर्थिक असंतोष, कुंठित मानसिकता उनकी कहानियों के प्रमुख बिंदु रहे हैं। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी में हमेशा द्वंद्व होता रहा है। पुरानी पीढ़ी का यह कहना कि अभाव में रहने के बावजूद भी हमने अपने आप को इस काबिल बनाया कि समाज में गर्व के साथ जी सकें और यह नई पीढ़ी के बच्चे न अपनी परंपराओं को समझते हैं न अपनी संस्कृति को बल्कि उसकी अवहेलना करके उनका मजाक उड़ाते हैं। बस यही से दोनों के बीच वैचारिक अंतर्द्वंद की शुरुआत होती है।
‘संक्रमण’ कहानी ऐसे ही रिश्तों को बयान करती है। एक बूढ़े पिता जो रिटायरमेंट के बाद आराम की जिंदगी बिताना चाहते हैं परंतु घर के लोगों की वस्तुओं के प्रति लापरवाही देखकर उनका मन खिन्न हो उठता है। लाइट का जलते रहना, नल से पानी टपकना, भोजन का व्यर्थ होना, दीवारों से प्लास्टर का जगह-जगह से गिरना, बेटे का ऑफिस से देर रात घर आना, बढ़ती महंगाई इत्यादि बातों को लेकर घर के सभी सदस्यों के साथ नोंक-झोंक होती है। इसके विपरीत बेटे की यह शिकायत पिता का अच्छे कपड़े न पहनना, मां को गठिया की शिकायत, पत्नी के सिर पर और भी कई कामों का होना, ऑफिस से घर लौटने पर पिता की चिक-चिक इसीलिए घर देर से लौटना इत्यादि बातें दोनों के संबंधों में दरार डालती हैं।
पिता की मृत्यु उपरांत अकेला पड़ने पर धीरे-धीरे पिता की वही आदतें पुत्र के स्वभाव में शुमार हो जाती हैं जिसकी वजह से वह अपने पिता से चिढ़ा करता था। अब उसे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होता है कि पिता अपने स्थान पर सही थे। अब उसे पिता का न होना अखरता है। पिता की छत्रछाया जब तक उसके सिर पर थी वह अपनी जिम्मेदारियों से भागता रहा लेकिन पिता के बाद उन जिम्मेदारियों को पुत्र ने स्वयं ओढ़ लिया।
रंगकर्मी सचिन सुशील के निर्देशन में नाट्य प्रस्तुति बहुत सुंदर ढंग से हुई। नाटक देखकर लगा कि की कहानी की बारीकियों को उन्होंने अच्छी तरह समझा और उसका मंचन किया। माता-पिता पुत्र की भूमिका में भारती परमार, गोकुल राठौर, मनोज चिताड़े ने अद्भुत अभिनय किया। नाटक का पहला प्रदर्शन होने के बावजूद भी दर्शकों के मनोभाव पर गहरी छाप पड़ी। यह नाटक सभी वर्गों के लिए ‘फिट’ बैठता है। आधुनिक समय में ऐसे ही नाटक की आवश्यकता समाज को है। आने वाले समय में इस नाटक की बहुत संभावनाएँ हैं।
मंचासीन चित्रकार-साहित्यकार आबिद सुरती, हास्य कवि सुभाष काबरा और संचालन कर रहे गीतकार-शायर देवमणि पांडेय ने इस पर अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं दी। इसके अलावा मंच पर उपस्थित सामाजिक कार्यकर्ता डॉ उर्मिला पवार, हीराताई बनसोडे ने रंगमंच के सभी कलाकारों को अपना आशीर्वाद दिया।
कार्यक्रम में कवयित्री डॉ रोशनी किरण, रीमा राय सिंह, कवि प्रदीप गुप्ता, विभोर चौहान, रंगकर्मी शाइस्ता खान ने अपनी उस्थिति दर्ज कराकर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।
(लेखिका साहित्यिक विषयों पर लिखती रहती हैं।)
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