वसई-विरार में चार दशक बाद भाई ठाकुर के आतंक का हुआ अंत
हरिगोविंद विश्वकर्मा
किसी ने सच कहा है, संसार में शहंशाह कोई नहीं, बस समय शहंशाह होता है। यह लोकोक्ति वसई-विरार बेल्ट में अक्षरशः सच साबित हुई है। इस बेल्ट में 1980 के दशक से शुरू हुआ ठाकुर गिरोह का आतंक, जिसे बाद में 30 साल तक लोकतांत्रिक यानी राजनीतिक संरक्षण मिल गया था, अंततः मौजूदा विधानसभा चुनाव में शनिवार यानी 23 नवंबर को ध्वस्त हो गया। अब नायगांव से लेकर डहाणु तक आम लोग राहत की सांस ले सकेंगे। कारोबारी बिना किसी भय या धमकी के अपना व्यापार कर सकेंगे, क्योंकि इस आतंक को संरक्षण देने वाला ठाकुर परिवार पालघर जिले की तीनों की तीनों विधानसभा सीटें वसई, नालासोपारा और बोइसर में महायुती के उम्मीदवारों से पराजित हो गया है।
मुंबई के बाहर का शहरी इलाका वसई-विरार क्षेत्र भले आज तेज़ी से विकसित हो रहा है। 1980 के दशक में यह इलाक़ा ‘ठाकुर साम्राज्य’ के नाम से प्रसिद्ध था। यह साम्राज्य कुख्यात अंडरवर्ल्ड डॉन जयेंद्र ठाकुर उर्फ़ भाई ठाकुर और उसके परिवार के इर्द-गिर्द केंद्रित था। 1980 और 1990 के दशक में, इस क्षेत्र पर ठाकुर परिवार का प्रभाव इतना गहरा था कि स्थानीय राजनीति, क्षेत्र की समस्त अचल संपत्ति और व्यापार उनके नियंत्रण में थे। ठाकुरों की मर्ज़ी के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता था। यहां कहने को पुलिस और प्रशासन है, लेकिन आदेश ठाकुरों का ही मानना पड़ता था। ठाकुरों को नाराज़ करके यहां रहना नामुमकिन था।
वस्तुतः ठाकुर साम्राज्य की नींव 1970 के दशक में पड़ी, जब जयेंद्र ठाकुर ने वसई-विरार में अपना दबदबा बनाना शुरू किया। इस क्षेत्र में रियल इस्टेट के तेजी से बढ़ते व्यापार को भाई ठाकुर ने अवसर के रूप में देखा। उसने राजनीतिक संपर्कों और आतंक के बल पर जमीन के सौदों और निर्माण उद्योग में अपनी पकड़ मजबूत की। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में वह अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम कासकर गिरोह के लिए काम करने लगा। दाऊद के दुबई पलायन के बाद उसका काम छोटा राजन और भाई ठाकुर देखने लगे। इसी दौरान भाई ठाकुर ने छोटा राजन के साथ मिलकर पनवेल में अशोक भाऊ जोशी की हत्या कर दी। इसके बाद भाई ठाकुर का नाम उस जमाने के डॉन वरदराजन, हाजी मस्तान और दाऊद इब्राहिम की तरह लिया जाने लगा।
1980 के दशक तक, वसई-विरार क्षेत्र में ठाकुर परिवार का नाम भय और शक्ति का प्रतीक बन चुका था। धीरे-धीरे वसई-विरार में भाई ठाकुर का आतंक इतना बढ़ गया कि कोई उसके खिलाफ एक शब्द बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। जो उससे टकराने की हिमाक़त करता था, उसका गेम बजा दिया जाता था। 1980 और 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में वसई-विरार और नालासोपारा में अनगिनत हत्याएं हुईं। दहशत का आलम यह था कि पुलिस वाले भाई ठाकुर या उनके आदमियों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज़ करने से भय खाते थे।
1988 में भाई ठाकुर का टकराव वसई-विरार क्षेत्र के प्रमुख बिल्डर सुरेश नरसिंह दुबे से हुआ। दुबे परिवार नालासोपारा में रहता था। दोनों के बीच दुश्मनी बढ़ने लगी। अंततः 9 अक्टूबर 1989 को सुरेश दुबे को नालासोपारा रेलवे स्टेशन पर ही दिनदहाड़े भाई ठाकुर के छह गुंडों ने गोलियों से भून डाला। दिन-दहाड़े हुई इस हत्या से पूरे मुंबई में सनसनी फैल गई। दुबे परिवार ने भाई ठाकुर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। यह मामला केवल हत्या और साजिश तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसमें आतंकवाद निरोधी अधिनियम (टाडा) की धाराएं जोड़ दी गईं। इसके बाद लंबे समय तक दुबे परिवार दहशत के साए में रहा।
उसी समय एक 23 वर्षीय उत्साही पत्रकार जीतेंद्र कीर ने वसई-विरार में बिल्डर-अंडरवर्ल्ड गिरोह को उजागर करना शुरू किया। जीतेंद्र 10 दिसंबर 1990 को ग़ायब हो गया। उसके परिजनों ने आरोप लगाया था कि जीतेंद्र के अचानक गायब होने के पीछे भाई ठाकुर का हाथ है। 1990 के दशक में जनसत्ता में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक जीतेंद्र को पकड़ कर खौलते तारकोल में डाल दिया गया और जब उसकी हड्डी-पसली गलकर तारकोल में मिल गई तो उससे सड़क बना दी गई। इस तरह जीतेंद्र की हत्या के सबूत को हमेशा के लिए नष्ट कर दिया गया। आज 34 साल बाद भी जीतेंद्र पुलिस की फाइल में गुमशुदा है। इस कारण उसके परिजन उसका अंतिम संस्कार भी नहीं कर सके।
इसी तरह सितंबर 1991 में दाऊद ने एक बड़ी मोटर बोट में बहुत बड़ी मात्रा में चांदी की सिल्लियां भेजीं। वाडरई गांव के अर्नाला बीच पर रात में नाव समुद्र में ही पलट गई और सिल्लियां समुद्र में फैल गईं। मछली के लिए समुद्र में गए दो मछआरों के हाथ चांदी की सिल्ली लग गई। इसके बाद समुद्र में चांदी की सिल्ली होने की बात पूरे गांव में फैल गई। देखा देखी सारे मछुआरे समुद्र में कूद गए। जिसे जितनी सिल्ली मिली, उसे अपने घर लेकर आया और छुपा दिया। इस घटना की ख़बर दुबई में दाऊद को दी गई तो उसने अपने लेफ्टिनेंट भाई ठाकुर को फोन किया। इसके बाद भाई ठाकुर के गुंडे सक्रिय हुए और गांव वालों से चांदी की सिल्ली वापस करने की मांग करने लगे।
जब गांव वालों ने चांदी की सिल्ली देने से मना किया तो भाई ठाकुर के लोगों ने ग्रामीणों को बेरहमी से पीटना शुरू किया। इससे भी बात नहीं बनी तो तीन युवकों की गोली मारकर हत्या कर दी। इसके बाद भाई ठाकुर के लोगों ने गांव वालों से सारी सिल्लियां बरामद कर लीं। बहरहाल, जब तक शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे तब तक भाई ठाकुर का साम्राज्य सुरक्षित रहा। पवार के दिल्ली जाने के बाद सुधाकरराव नाईक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुए। उन्होंने अपराधियों के खिलाफ विशेष मुहिम शुरू की।
बाद में जनसत्ता और इंडियन एक्प्रेस में चांदी की सिल्ली की पूरी घटना के प्रकाशित होने के बाद पुलिस हरकत में आई और मुख्यमंत्री सुधाकरराव नाईक के आदेश पर भाई ठाकुर और उसके साथियों के खिलाफ हत्या का मुक़दमा दर्ज़ किया गया। इसके फौरन बाद भाई ठाकुर अपने आका दाऊद के पास भाग गया। पुलिस कार्रवाई में हितेंद्र ठाकुर की गिरफ्तारी हुई। नाईक के कार्यकाल में अपराधियों की शामत आ गई थी। सारे के सारे अपराधी जेल में ठूंस दिए गए। लेकिन बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद मुंबई दंगों के बाद शरद पवार फिर से राज्य के मुख्यमंत्री बने और अपराधियों की फिर से तूती बोलने लगी।
मराठा छत्रप शरद पवार पर केवल दाऊद इब्राहिम को संरक्षण देने का ही आरोप नहीं लगता, बल्कि दाऊद के लिए काम करने वाले अपराधियों को भी संरक्षण देने का आरोप लगता रहा है। उन्होंने ही 1990 के चुनाव में उल्हासनगर में सुरेश कालानी उर्फ पप्पू कालानी को कांग्रेस से टिकट दिया और और वसई-विरार में भाई ठाकुर के कहने पर उसके छोटे भाई हितेंद्र ठाकुर को कांग्रेस का टिकट दिया। दोनों चुनाव जीतकर राज्य विधान सभा में पहुंच गए। आपराधिक पृष्ठभमि के ये दोनों नेता विधायक बनने के बाद इतने ताक़तवर हो गए कि 1995 के चुनाव में कांग्रेस का टिकट न मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर विधानसभा में पहुंच गए।
हितेंद्र ठाकुर ने बाद में बहुजन विकास आघाड़ी नाम से राजनीतिक पार्टी का गठन किया। इस दल ने वसई-विरार क्षेत्र की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हितेंद्र ठाकुर लगातार चार बार और कुल छह बार विधायक निर्वाचित गए। ठाकुर परिवार इतना शक्तिशाली हो गया कि कई राजनीतिक दल और उम्मीदवार ठाकुरों का “समर्थन और आशीर्वाद” लेकर ही लोकसभा चुनाव में उतरते थे। 2008 में नालासोपारा विधानसभा के अस्तित्व में आने के बाद हितेंद्र ने अपने बेटे क्षितिज ठाकुर को बहुजन विकास आघाड़ी से टिकट दिया और क्षितिज लगातार तीन बार विधायक रहे। फिलहाल वसई-विरार से लेकर पालघर तक सभी स्थानीय निकायों पर इस दल का वर्चस्व है। हर छोटे बड़े काम या निर्माण में ठाकुरों की सहमति आवश्यक है।
वसई-विरार और पालघर-बोइसर में ठाकुरों ने न केवल अपने गिरोह के जरिए वसूली और हिंसा का सहारा लिया, बल्कि उन्होंने क्षेत्र के गरीब और मध्यम वर्गीय लोगों के बीच नेता की छवि भी बनाई। इस कारण इस क्षेत्र का एक बड़ा तबका ठाकुरों का समर्थन करता है। ठाकुर के परिजनों ने स्थानीय निकाय चुनावों में सफलता हासिल की। उनके प्रभाव के चलते वसई-विरार में ठेकेदारी और अन्य व्यापारिक गतिविधियों पर भी उनका नियंत्रण स्थापित हो चुका है। कहा जाता है कि कुछ साल पहले शरद पवार के कहने पर भाई ठाकुर नाटकीय तरीक़े से दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया गया। उसके खिलाफ सुरेश दुबे हत्याकांड में मुक़दमा भी चला, परंतु पुलिस की खामीपूर्ण जांच से वह दोषी साबित नहीं हो सका।
ठाकुर साम्राज्य वसई-विरार के इतिहास और वर्तमान का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह न केवल सत्ता, अपराध और राजनीति का संगम है, बल्कि एक ऐसा अध्याय है जो दर्शाता है कि कैसे व्यक्तिगत प्रभाव से पूरे क्षेत्र की दिशा को प्रभावित किया जा सकता है। आज, वसई-विरार उभरता हुआ शहरी क्षेत्र है, लेकिन यहां का समाज और राजनीति अब भी ठाकुर परिवार की छाया से मुक्त नहीं हो पाई है। उनका साम्राज्य नवनिर्वाचित विधायकों राजन नाईक, स्नेहा दुबे और विलास तरे के लिए चुनौती है। पूरे इलाक़े को भयमुक्त करने के लिए उन्हें इस तरह के शक्ति केंद्र को सरकार के साथ मिलकर ख़त्म करना होगा, ताकि यहां की आबादी भयमुक्त होकर जीवन-यापन कर सके।
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