नरेंद्र मोदी के 73 देशों की यात्रा से भारत को क्या हासिल हुआ?

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नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद ऐसा माहौल बनाया कि शीघ्र ही भारत दुनिया में विश्व गुरु का रूप में प्रतिष्ठित होने वाला है। सारी दुनिया में भारत का डंका बजने वाला है। जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने पर मोदी पहले यूक्रेन और उसके बाद रूस गए और वहां बयान दिया कि दोनों पक्ष बातचीत से समस्या का हल निकालें, तो उसे यहां अपने देश में कहा गया कि मोदी ने रूस-यूक्रेन युद्ध बंद करवा दिया है। बात में पता चला कि यह बीजेपी के आईटी सेल की ओर से फैलाई गई भ्रामक और तथ्यहीन ख़बर थी।

बहरहाल, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय विमानों के मार गिराए जाने और राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप के घुड़की देने पर मोदी के युद्ध विराम के लिए राजी होने के बाद से भारत की विदेश नीति की जगहंसाई हो रही है। इसके बाद अब सवाल उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने कार्यकाल के दौरान की गई व्यापक विदेश यात्राओं से देश को क्या लाभ हुआ, क्योंकि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जहां पाकिस्तान के पीछे चीन, तुक्री, और अज़रबैज़ान डटकर खड़े थे, वहीं भारत अकेला पड़ गया था। मोदी ने 11 साल के कार्यकाल में कुल 166 बार विदेश दौरे पर गए। इस दौरान उन्होंने 73 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष के साथ गलबंहिया की, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। मोदी ऐसे स्वयंभू विश्वगुरु बने जिनका कोई चेला ही नहीं है। विदेश यात्राओं की चमक और कूटनीति का खालीपन के बाद एक बार फिर से गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं, —क्या इन दौरों से भारत को ठोस कूटनीतिक या आर्थिक लाभ मिला है, या यह सिर्फ भव्य आयोजनों और व्यक्तिगत छवि निर्माण तक सीमित रहे?

Narendra-Modi-Forieign-Visit-01-300x232 नरेंद्र मोदी के 73 देशों की यात्रा से भारत को क्या हासिल हुआ?

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अंतरराष्ट्रीय अकेलापन
हालिया सैन्य संकट ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान भारत की स्थिति ने इस चिंता को और गहरा किया, जब पाकिस्तान के पक्ष में चीन, तुर्की और अज़रबैजान जैसे देश मजबूती से खड़े दिखाई दिए, जबकि भारत अपेक्षाकृत अकेला पड़ गया। ऐसे में सवाल उठता है: यदि प्रधानमंत्री की लगातार विदेश यात्राओं का उद्देश्य वैश्विक समर्थन और रणनीतिक साझेदारियां मजबूत करना था, तो संकट के समय भारत को यह समर्थन क्यों नहीं मिला?

8,400 करोड़ की विदेश यात्राएं और ‘शून्य’ परिणाम?
एक आरटीआई के ज़रिए सामने आया है कि इन विदेश दौरों पर अब तक भारतीय करदाताओं के करीब 8,400 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इन यात्राओं के दौरान भव्य एनआरआई कार्यक्रम, विदेशी नेताओं के साथ आत्मीय मुलाकातें और हाई-प्रोफाइल फोटो सेशन तो खूब हुए, लेकिन व्यावहारिक रूप से भारत को न तो कोई बड़ा रक्षा समझौता मिला, न ही तकनीक हस्तांतरण या व्यापार में ठोस लाभ।

भारत की पड़ोसी कूटनीति भी चरमराई
विदेश नीति के एक अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ—पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते—भी पिछले कुछ वर्षों में चुनौतीपूर्ण रहे हैं। नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे ऐतिहासिक सहयोगियों के साथ संबंधों में तनाव गहराया है। जल विवाद, सीमा-संबंधी तनाव और सुरक्षा चिंताओं ने इन रिश्तों को और जटिल बना दिया है।

आतंकी हमलों और कश्मीर मुद्दे पर वैश्विक चुप्पी
भारत के खिलाफ बढ़ते आतंकवाद और कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर भी वैश्विक समुदाय की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत ठंडी रही है। जिन देशों के साथ प्रधानमंत्री ने मित्रता का दिखावा किया, वे संकट की घड़ी में चुप्पी साधे रहे। इससे भारत की वैश्विक कूटनीतिक ताकत पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

क्या विदेश यात्राएं सिर्फ चुनिंदा कॉरपोरेट हितों तक सीमित रहीं?
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का कहना है कि इन विदेश यात्राओं का लाभ यदि किसी को मिला है, तो वो कुछ चुनिंदा कारोबारी घराने हैं, विशेषकर अडानी और अंबानी समूह। इन यात्राओं से न तो आम जनता को कोई सीधा लाभ मिला, न ही भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई विशेष बढ़त।

विदेश नीति या छवि प्रबंधन?
विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार की विदेश नीति कहीं न कहीं व्यक्तिगत ब्रांडिंग और दृश्य राजनीति पर केंद्रित रही है। यह कूटनीति की जगह जनसंपर्क अधिक रही—ऐसी कूटनीति जिसमें तस्वीरें हैं, लेकिन ठोस परिणाम नहीं।

पारदर्शिता और जवाबदेही
मोदी सरकार से विदेश नीति की समीक्षा की मांग करते हुए सवाल उठाए गए हैं:
क्या हमें रक्षा या तकनीकी क्षेत्रों में कोई बड़ा लाभ मिला?
क्या भारत को वैश्विक संस्थाओं में उच्च दर्जा मिला?
क्या ये यात्राएं राष्ट्रीय हित के लिए थीं या सिर्फ निजी छवि निर्माण के लिए?

जाहिर है कि अब “जवाबदेही का समय” आ गया है—महज प्रचार या भावनात्मक बयानबाज़ी से काम नहीं चलेगा।

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