त्रेता में था एक ही रावण, अब तो हर गली में हैं रावण,
बस्ती-बस्ती फिर रहे रावण, कितने तुम मारोगे रावण।
पता करो कमी क्या है, क्यों पैदा हो रहे हैं इतने रावण,
कुछ तो कारण होगा ही, जो हर इंसान बन रहा रावण।
खर-दूषण विभीषण भी हैं, अकेला नहीं कहीं है रावण,
हर क़िरदार कलयुग के हैं, सब में वही दुराचारी रावण।
साथ में रहते हैं लोग, परंतु पहचान नहीं पाते हैं रावण,
लोग ख़ुद बनते हैं चारण, नारा देते हैं जयजय रावण।
कोरोना संक्रमण काल में, डॉक्टर भी बन गए हैं रावण,
सिविल अस्पताल भरे पड़े हैं, निजी में लूटते हैं रावण।
कहीं संत की काया में रावण, कहीं नेता भेस में रावण,
कहां कहां जाएंगे श्रीराम, कैसे मार सकेंगे इतने रावण।
-हरिगोविंद विश्वकर्मा
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