आ गए क्यों उम्मीदें लेकर
करूं तुम्हें विदा क्या देकर…
लाख मना की पर ना माने
क्यों रह गए तुम मेरे होकर…
अपना लेते किसी को तुम भी
आखिर क्यों रहे खाते ठोंकर…
जी ना सके इस जीवन को
क्या पाए खुद को जलाकर…
अब तो मेरी तमाम उम्र में
रहोगे चुभते कांटे बनकर…
हरिगोविंद विश्वकर्मा
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