बुजुर्गों के गुणवत्ता जीवन के लिए समर्पित प्रो नसरीन रुस्तमफ्राम (Prof. Nasreen Rustomfram)

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देश-दुनिया में बेहद प्रतिष्ठित सामाजिक सरोकार वाले विश्वविद्यालय टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान यानी टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (टीआईएसएस) में 1985 से अध्यापन कर रहीं देश की मशहूर जेरोन्टोलॉजिस्ट (Gerontologist) प्रोफ़ेसर नसरीन रुस्तमफ्राम (Prof. Nasreen Rustomfram) ने अपना संपूर्ण जीवन ही बुज़ुर्ग नागरिकों के गुणवत्ता जीवन के लिए समर्पित कर दिया है। अपनी अकादमिक पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रो रुस्तमफ्राम ने टीआईएसएस से मैनेजमेंट ऑफ़ ह्यूमैन सर्विस ऑर्गनाइज़ेशन में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की। वह 1995 से इंस्टीट्यूट ऑफ़ कल्चरल अफेयर्स (Institute Of Cultural Affairs) से टेक्नोलॉजी ऑफ़ पार्टिसिपेशन मेथड्स (Technology of Participation Methods) में सर्टिफ़ाइड हैं और अपने शिक्षण और सुविधा कार्यों में इनका उपयोग करती रही हैं। वह चार दशक के अधिक करियर में सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। 2007 से इस विषय पर अध्यापन कर रही हैं।

प्रो. रुस्तमफ्राम सेंटर फ़ॉर क्रिएटिव लीडरशिप (Center for creative Leadership), ग्रीन्सबोरो (Greensboro), यूएसए (USA) द्वारा संचालित लीडरशिप बियॉन्ड बॉउंड्रीज़ (Leadership Beyond Boundaries) की सर्टिफ़ाइड ट्रेनर हैं और सेंटर फ़ॉर क्रिएटिव लीडरशिप, सिंगापुर स्थित टीएमटीसी, पुणे द्वारा संचालित लीडरशिप डिवेलपमेंट की भी सर्टिफ़ाइड ट्रेनर हैं। इसके अलावा, वह यूजीसी (UCG) यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grant Commission) के तत्वावधान में भारत के 14 राज्यों में उच्च शिक्षा में महिला प्रबंधकों की राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम क्षमता निर्माण की भी प्रमुख ट्रेनर हैं। जेरोन्टोलॉजी और जेरिएट्रिक केयर के अलावा, उनका मुख्य लक्ष्य वयस्क शिक्षा और प्रशिक्षा, प्रशिक्षण और सुविधा, और मानव सेवा प्रबंधन के क्षेत्र में रहा है।

1985 में टीआईएसएस (TISS) से जुड़ने वाली प्रो रुस्तमफ्राम सेंटर फ़ॉर लाइफ़ लॉन्ग लर्निंग (Center For Lifelong Learning) के प्रोफ़ेसर के रूप में कार्य करने के बाद 2020 में संकाय के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट के पद से सेवानिवृत्त हो गई थीं, लेकिन टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान ने उनकी विशेषज्ञता और अनुभव का लाभ उठाने के लिए उन्हें सेवा विस्तार देने का फ़ैसला किया। फ़िलहाल सेवा विस्तार पाने के बाद वह संस्थान के सेंटर फ़ॉर लाइफ़लॉन्ग लर्निंग में प्रोफ़ेसर के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं। उनके नेतृत्व और मार्गदर्शन में 1997 से सेंटर फ़ॉर लाइफ़लॉन्ग लर्निंग, जेरोन्टोलॉजी, काउंसलिंग, यूथ डेवलपमेंट और जेरियाट्रिक केयर में वयस्क शिक्षार्थियों के लिए पीजी डिप्लोमा, डिप्लोमा और सर्टिफिकेट पाठ्यक्रमों का संचालन कर रहा है। केंद्र का प्रमुख कार्यक्रम पार्टिसिपेटरी ट्रेनिंग मेथडलॉजी है।

पिछले सात साल से सेंटर फ़ॉर लाइफलॉन्ग लर्निंग दो दर्जन से अधिक स्वयंसेवी गैर-सरकारी संगठनों, स्वास्थ्य सेवा देने वाली संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थानों के साथ मिल कर कार्य कर रहा है। सेंटर फ़ॉर लाइफ़लॉन्ग लर्निंग महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों के मुंबई, नवी मुंबई, पुणे, पालघर, राजगुरुनगर, औरंगाबाद, भरुच, चेन्नई, लखनऊ और नई दिल्ली जैसे शहरों में कई स्वयंसेवी गैर-सरकारी संगठनों के सहयोग से जेरियाट्रिक केयर कोर्स में सर्टिफ़िकेट प्रदान कर रहा है। यह सर्टिफ़िकेट कोर्स सेवाभावी पार्टनरशिप संस्थाओं के सहयोग से चलाए जाते हैं। कक्षाएं सेवाभावी पार्टनर ही चलाते हैं। ये कक्षाएं कोर्स करने वाले लोगों के इलाक़े में ही चलाई जाती हैं। सबसे बड़ी बात कक्षाएं अंग्रेज़ी के साथ-साथ स्थानीय भाषाओं में चलाई जाती हैं, जिससे अभ्यर्थी को समझने में सहूलियत होती है।

टीआईएसएस (TISS) के सहयोग से प्रो. रुस्तमफ्राम के मार्गदर्शन में वयस्क शिक्षार्थियों के लिए चल रहे इन पाठ्यक्रमों इच्छुक लोग बुज़ुर्गों की देखरेख करने और दूसरे कोर्स का व्यवसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं। पिछले दस वर्ष की अवधि के दौरान सैकड़ों छात्र इस पाठ्यक्रम में प्रमाण पत्र प्राप्त कर चुके हैं और देश के बुज़ुर्ग व्यक्तियों को बेहतर जीवन देने का पुण्यभरा कार्य कर रहे हैं। औरंगाबाद में आस्था फाउंडेशन के साथ 8 बैच को सर्टिफिकेट दिए जा चुके हैं। भरुच में अनुसुइया मोदी फाउंडेशन (Anushriya Jain Modi Foundation) और जैन सोशल ग्रुप के साथ 3 बैच, चेन्नई में जेएम फाउंडेशन (JM Foundation) को साथ 3 बैच, पालघर में डॉ एमएल ढावले मेमोरियल ट्रस्ट रूरल होमियोपैथिक हॉस्पीटल (Dr ML Dhawale Memorial Trust Rural Homeopathic Hospital) के साथ 2 बैच के कार्यकर्ताओं को सर्टिफ़िकेट दिया जा चुका है। इस पाठ्यक्रम के संचालन में सहयोगी संस्थाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है।

प्रो. रुस्तमफ्राम इस पाठ्यक्रम से संबंधित साहित्य के अध्ययन और सर्टिफ़िकेट कोर्स के लिए पाठ्यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा रही हैं। इसमें कक्षा में 120 घंटे स्टडी के अलावा अस्पताल के वार्ड, नर्सिंग होम, वृद्धाश्रमों जैसे स्थलों पर 300 घंटे का प्रशिक्षण भी शामिल होता है। सबसे बड़ी बात किसी भारतीय विश्वविद्यालय द्वारा चलाया जानेवाला अपनी तरह का यह पहला पाठ्यक्रम है। केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं कल्याण मंत्रालय के अधीन स्वायत्त संस्थान नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल डिफ़ेंस (National Institute Of Social Defence) यानी एनआईएसडी (NISD) के सहयोग से जेरोन्टोलॉजी और जेरियाट्रिक केयर में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा देने के प्रस्ताव को टीआईएसएस की अकादमिक परिषद ने मंजूरी दी और वर्ष 2021 से यह पाठ्यक्रम शुरू भी किया जा रहा है। यह प्रोग्राम भी उनके ही मार्गदर्शन में चलाया जाएगा।

प्रो. रुस्तमफ्राम कहती हैं कि बुज़ुर्गों की देखभाल को ही जेराट्रिक केयर कहा जाता है। जो आज युवा है, तो वह आगे चलकर प्रौढ़ और बाद में बुज़ुर्ग होने वाला है। हमारे देश में पिछले बीस साल में देश में बुज़ुर्ग छह गुना बढ़ गए हैं। भविष्य में इनके और बढ़ने की पूरी संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार 10 करोड़ बुज़ुर्ग हैं। नई जनगणना में 11 से 12 फ़ीसदी जनता 60 या उससे अधिक उम्र की होने वाली है। बुज़ुर्गों की देखभाल के लिए हमें बड़ी संख्या में प्रशिक्षित लोगों की ज़रूरत पड़ेगी। इतनी बड़ी तादात में बुज़ुर्गों की देखभाल करनी पड़ेगी। हालांकि हमें इसकी तैयारी हमें 10 साल पहले करनी चाहिए थी। दरअसल, 2007 में हमने गौर किया कि देश में बुज़ुर्गों की संख्या काफी बढ़ रही है।

वह कहती हैं, “टीआईएसएस में हम बच्चों, महिलाओं और वंचित समूह के लिए काम करते रहे हैं, हमने देखा कि बुज़ुर्गों की देखभाल करने के लिए प्रशिक्षित लोग नहीं हैं। जो लोग बुज़ुर्गों की सेवा का कार्य कर रहे हैं, वे ठीक से प्रशिक्षित नहीं है। इससे वे लोग बुज़ुर्गों की ज़रूरतों के अनुसार उनकी सेवा या देखभाल नहीं कर पा रहे थे। इसलिए हमने लोगों को सही ढंग से प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से एक साल का डिप्लोमा कोर्स शुरू करने का फ़ैसला किया। जहां अच्छी तरह से बुज़ुर्गों की सेवा के लिए क्या कौशल्य और किस तरह की मनोवृत्ति चाहिए और किस तरह से हमें इनकी ज़िंदगी को सुलभ बनाने के लिए क्या क्या करना चाहिए, इन बातों का प्रशिक्षण दिया जाता है।”

प्रो. रुस्तमफ्राम कहती हैं कि बुढ़ापा हममें से शायद ही किसी के एजेंडा में होता है। कोई मानता ही नहीं कि हर दिन उसकी उम्र एक दिन बढ़ जाती है और अंततोगत्वा उसे बुढ़ापे के दौर से भी गुज़रना पड़ेगा। लेकिन जब बुढ़ापा आता है, तब आदमी पछताने लगता है कि उसने इस अवस्था का सामना करने की तैयारी पहले क्यों नहीं की। दरअसल, अमेरिका-यूरोप समेत विकसित देशों में सामाजिक सुरक्षा के चलते बुज़ुर्गों को बेहतर जीवन मिल जाता है, लेकिन भारत जैसे देश में इस तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान न होने से इंसानों का जीवन साठ साल के बाद की वृद्धावस्था बहुत अच्छी तरह नहीं गुज़रता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, हमारे देश में संपन्न लोग भी बुढ़ापे में बहुत अच्छा जीवन नहीं जा पाते। इसकी वजह यह है कि हमारे देश में लोग भविष्य की योजना यानी फ्यूचर प्लानिंग नहीं करते हैं।

प्रो. रुस्तमफ्राम कहती हैं कि अब धीरे-धीरे इस बारे में लोगों में जागरूकता आ रही है और हर समझदार नागरिक चाहे वह स्त्री हो या पुरुष फ्यूचर प्लानिंग करने लगा है। भविष्य की यह योजना ही हर व्यक्ति के बूढ़ापे की लाठी बनती है और उसे संबल प्रदान करती है। भारत बेशक आज दुनिया का सबसे युवा देश है, क्योंकि यहां की 65 फ़ीसदी से अधिक आबादी 15 से 35 साल के बीच के उम्र के नागरिकों की है। लेकिन तीन से चार दशक बाद यह भारी-भरकम आबादी वृद्ध में तब्दील हो जाएगी। तब ढेर सारे लोग वृद्धावस्था में होने वाली बीमारियों के चंगुल में फंसने से अपनी दिनचर्या के कार्य करने की स्थिति में नहीं होंगे। तब इस आबादी को केयर की ज़रूरत पड़ेगी।

वृद्धावस्था या बुढ़ापा को परिभाषित करते हुए प्रो. रुस्तमफ्राम कहती हैं कि वृद्धावस्था धीरे-धीरे आने वाली स्वभाविक एवं प्राकृतिक अवस्था है। बुढ़ापा जीवन की उस अवस्था को कहते हैं जब आदमी जीवन के साठ साल के ऊपर पहुंच जाता है। वृद्ध लोगों को बीमारियों से गंभीर ख़तरा रहता है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसे तरह तरह की बीमारियों घेरने लगती है। इसके चलते आदमी शारीरिक रूप से कमज़ोर, ऊर्जाहीन और लाचार महूसस करने लगता है। बुज़ुर्गों में होने वाली बीमारियों के लिए एक सामान्य शब्द है जीरियाट्रिक डिसीज। अस्सी साल पार करने के बाद 62 फीसदी बुज़ुर्ग में दो से अधिक बीमारियां बीमारियां देखी जा रही हैं। ज़्यादातर लोग डायबटिक और प्लडप्रेशर के शिकार है या आर्टियो स्क्लेरोसिस, हाइपरटेंशन, मधुमेह, गठिया, एनीमिया, रजोनिवृत्ति विकार, नियोप्लासिया (ट्यूमर), मानसिक बीमारी जैसे दूसरी बीमारियों से परेशान रहते हैं। वृद्ध लोगों की समस्याएं भी अलग होती हैं।

प्रो. रुस्तमफ्राम बताती हैं कि जेरियाट्रिक्स आंतरिक चिकित्सा और पारिवारिक चिकित्सा की एक उप-विशेषज्ञता है जो बुज़ुर्ग स्त्री-पुरुषों की स्वास्थ्य देखभाल पर केंद्रित है। इसका उद्देश्य उम्र-दराज लोगों को बीमारियों और शारीरिक अक्षमताओं से रक्षा करना और उनका उचित उपचार से उन्हें स्वस्थ रखना है। कोई भी निर्धारित उम्र नहीं है जिस पर रोगियों को जो बुज़ुर्ग लोगों की देखभाल करने के लिए विशेषज्ञ जेरियाट्रिशियन या चिकित्सक की देखरेख की ज़रूरत पड़े। बल्कि, यह निर्णय व्यक्तिगत रोगी की ज़रूरतों और विशेषज्ञ चिकित्सक की उपलब्धता से निर्धारित होता है। जेरियाट्रिक्स और जेरोंटोलॉजी अलग-अलग हैं। जेरियाट्रिक्स में बुज़ुर्ग स्त्री-पुरुषों की देखभाल होती, जबकि जेरोंटोलॉजी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया का अध्ययन होता है। हालांकि, जेरियाट्रिक्स को कभी-कभी मेडिकल जेरोन्टोलॉजी कहा जाता है।

वह कहती है कि बुज़ुर्गों की देखभाल केवल सेवाभावी संस्थाओं और उनसे जुड़े कार्यकर्ताओं का काम नहीं है। यह पूरे समाज का काम है, क्योंकि हर घर में बुज़ुर्ग होते हैं। सबसे दुखद बात यह है कि मेडिकल क्षेत्र में भी इसे लेकर बहुत जागरूकता नहीं है। एक तरह से यह माना ही नहीं जाता कि बुज़ुर्गों को भी केयर की ज़रूरत पड़ती है। अस्पतालों की बात करें तो भारत में सिर्फ़ एक फ़ीसदी अस्पतालों में जेरियाट्रिक केयर वार्ड होता है। यानी अस्पताल में जेरियाट्रिक केयर एकदम से उपेक्षित है। यही हाल मेडिकल इश्योरेंस सेक्टर का है। दुर्भाग्य से मेडिकल इश्योरेंस में 60 से ऊपर के व्यक्ति अगर हेल्थ पॉलिसी लेता है तो उसका प्रीमियम बहुत अधिक होता है, जबकि इसे कम होना चाहिए। ऐसे में बुज़ुर्गों की देखभाल के बारे में सेवाभावी संस्था से लेकर सरकार और अस्पतालों से लेकर मेडिकल इश्योरेंस कंपनियों तक को भी अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।

प्रो. रुस्तमफ्राम कहती है, “हम जिस नज़र से बुज़ुर्गों को देखते हैं, हमें उस नज़रिए को बदलने की ज़रूरत है। ग्रामीण हिस्से में बुज़ुर्गों की हालत अधिक शोचनीय है, क्योंकि ग्रामीण अंचल में शहरों के मुक़ाबले अधिक बुज़ुर्ग होते हैं। हम इस रोमांटिक ख़याल में रहते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों को कोई तकलीफ़ नहीं होता है। हमारा फ़ैमिली सिस्टम इतना मज़बूत है, कि हमारे यहां बुज़ुर्गों की अच्छी देखभाल होती है। इस रोमांटिक ख़याल बदलने की ज़रूरत है, क्योंकि यह सही नहीं है। ग्रामीण इलाक़े में ढेर सारे बुज़ुर्ग अकेले रहते हैं, क्योंकि उनके बच्चे नौकरी या रोज़गार की तलाश में शहर में माइग्रेट कर जाते हैं। लिहाज़ा, हम लोगों को ‘सब कुछ ठीक है’ जैसा रोमांटिक ख़याल से बाहर आकर वास्तविकता देखनी चाहिए।”

वह आगे कहती हैं, “सेवाभावी संस्थाएं अनौपचारिक रूप संस्थाएं अपने कार्यकर्ताओं को कुछ न कुछ प्रशिक्षण देती रहती हैं, लेकिन यह प्रशिक्षण औपचारिक और वैज्ञानिक होना चाहिए। इसके लिए हमे समय रहते ही प्रीप्लानिंग करनी चाहिए। बेहतर मेडिकल सुविधा के चलते आज लोगों की औसत आयु बढ़ रही है। उम्र अधिक होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन यह भी देखना होगा कि क्या हम गुणवत्ता जीवन जीते हैं या फिर बीमारियों के साथ जीने को मजबूर होते हैं। भविष्य में बुज़ुर्गों की जो संख्या होने वाली है, उसके मुताबिक आने वाले दिनों में 6.25 लाख कार्यकर्ताओं की ज़रूरत होगी। सबसे बड़ी बात हमें यह जानना होगा कि हमारे यहां कितने लोग 60 साल के या उससे अधिक हैं, कितने लोग 80 प्लस है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमारे देश में पुरुषों से अधिक संख्या बुज़ुर्ग महिलाओं की है। हैं।”

प्रो. रुस्तमफ्राम कहती है, “जेरियाट्रिक केयर लोगों के लिए नौकरी या आजीविका कमाने का ज़रिया बन सकता है, लेकिन यह कार्य केवल कमाने की दृष्टि से नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इस कार्य में धर्य, संयम और समझदारी की ज़रूरत पड़ती है। हम किसी वृद्ध व्यक्ति को उसकी मुश्किल में संभाल रहे हैं, यह ध्यान में रखना होता है। दरअसल, जब बुज़ुर्ग व्यक्ति किसी भी तरह से बीमार होता है, या किसी समस्या से घिरता है, तो उसके साथ हमें मानवीय व्यवहार करने और संयम बरतने की ज़रूरत पड़ती है। कभी-कभी बुज़ुर्गों का गुस्सा भी सहना पड़ता है। इसीलिए इस कार्य के लिए परिपक्वता की ज़रूरत पड़ती है।”

आजकल यह कोर्स करने के लिए 50-55 साल के लोग भी आते हैं। दरअसल, जिन्हें अपने घर में बुज़ुर्ग की देखभाल करनी होती है, वे यह कोर्स करना चाहते हैं। ताकि अपने घर में बुजुर्ग की बेहतर ढेग से देखभाल कर सकें। अगर हम अपने घर में अपने बुज़ुर्गों के साथ अच्छी तरह से रहें, उनकी पेशेवर तरीके से देखभाल करें तो इससे अच्छी और कोई बात नहीं हो सकती है। इंसान में सहानुभूति स्वाभाविक रूप से होती है। सेवाभाव और सहानुभूति का शिक्षण या प्रशिक्षण कोई संबंध नहीं है। ऐसा नहीं कि केवल किसी को प्रशिक्षित करके उसमें सहानुभूति या हमदर्दी पैदा की जा सकती है। आपने यह गुण है और आपके पास वैज्ञानिक ढंग से मिला हुआ कौशल्य है। आपके अंदर सहानुभूति है और आप औपचारिक रूप से प्रशिक्षित भी हो चुके हैं, तो यह सोने पे सुहागा जैसा है। दरअसल, जब हम प्रशिक्षित होकर किसी सामाजिक कार्य से जुड़ते हैं, तब हमारी सोच व्यापक होती है। तब हम सिर्फ़ नौकरी भाव से नहीं, बल्कि सेवाभाव से यह कार्य करते है। सेवाभाव आने से ही सही मायने में लक्ष्य की पूर्ति होती है।

लेखक- हरिगोविंद विश्वकर्मा

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