भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं साड़ियां

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21 दिसंबर को विश्व साड़ी दिवस (World Saree Day) पर विशेष
भारतीय संस्कृति और हिंदू परंपरा में साड़ी महिलाओं का प्रमुख परिधान है। वेस्टर्न कपड़े चाहे जितना पहन लो लेकिन लड़कियां सबसे ज्यादा खूबसूरत साड़ी में ही लगती है। शादी-ब्याह हो या पूजा-पाठ हर जगह आज भी साड़ी पहनना का ही ट्रेंड है। लेकिन क्या आपको पता है कि साड़ियां कितने तरह के होते हैं और उनकी क्या खासियत है। अगर नहीं तो आज हम आपको ऐसी ही आठ साड़ियों के बारे में बताएंगे जिन्हें हर महिला अपनी अलमारी में रखना चाहेंगी। और इन तरह की साड़ियां घर में होनी ही चाहिए।

दुनिया में जब भी भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाजों की बात होती है, तो हमारे दिमाग में कई चीजें आती है। इनमें से साड़ी सबसे ज्यादा पॉपुलर मानी जाती है। दुनिया भर में आज यानी 21 दिसंबर को विश्व साड़ी दिवस (World Saree Day) मनाया जाता है। आज का दिन महिलाओं के लिए काफी खास होता है। साड़ी पहनने की परंपरा तो सदियों से चलती आ रही है लेकिन अधिकतर महिलाएं आज भी यही सोचती हैं कि आखिर साड़ी पहनने की परंपरा कब और किसने शुरू की थी? इस पारंपरिक भारतीय पोशाक की सुंदरता ने भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

साड़ी को भारतीय स्त्री का मुख्य परिधान माना जाता है। इस भारतीय पोशाक को अब विदेशों में भी खासा पसंद किया जाता है। भारत आईं विदेशी मेहमान भी साड़ी पहनकर भारतीयता का एहसास करती हैं। हर साल साड़ी दिवस इस पोशाक को बनाने वाले बुनकरों के सम्मान में मनाया जाता है। साड़ी का इतिहास 3000 साल से भी ज्यादा पुराना है। साड़ी नाम संस्कृत शब्द “सारिका” से लिया गया है। जिसका मतलब कपड़े का लंबा टुकड़ा होता है।

बनारसी साड़ी (Banarasi Saree)
बेहद खूबसूरत दिखने वाली बनारसी साड़ी बहुत मेहनत से बनाई जाती है। बुनकरों के मुताबिक एक बनारसी साड़ी को तैयार करने में 3 कारीगरों की मेहनत लगती है। इन्हें रेशमी धागे से बुनकर तैयार किया जाता है। बनारसी साड़ी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस पर जरी का काम होता है। हालांकि, पहले के जमाने में इन साड़ियों पर जरी वर्क सोने या चांदी के तारों से किया जाता था। यह बनारस और उसके आस-पास के शहरों में बनाई जाती है। प्राचीन काल में इन साड़ियों में सोने और चाँदी के तार का काम हुआ करता था। पर अब इसके अत्यधिक महँगे होने के कारण कृत्रिम तारों का प्रयोग होता है। विवाह और शुभ अवसरों पर बनारसी साड़ी पहनना आज भी गर्व का प्रतीक है। शादियों में दुल्हन को आज भी ससुराल पक्ष से बनारसी साड़ी देने का चलन है। यह बहुत खूबसूरत लुक देती है। ज्यादातर महिलाएं बनारसी साड़ी पहनने पर जुड़ा बना गजरा लगतीं हैं। जिससे खूबसूरती में चार-चांद लगा देती हैं।

कांजीवरम साड़ी (Kanjeevaram Saree)
देश में कांजीवरम साड़ी का जमकर क्रेज देखा जाता है। महिलाओं में कांजीवरम साड़ी की डिमांड बहुत होती है। असल में कांजीवरम साड़ी तीन तरीके से तैयार की जाती है। इन साड़ियों को सिल्क के रंगीन धागों और जरी का इस्तेमाल कर पूरी तरह हाथों से बनाया जाता। इनको बनाने में शहतूत के रेशम का प्रयोग किया जाता है। ये साड़ियां शानदार बनावट, चमक, और मजबूती के लिए बेहद लोकप्रिय है। इन साड़ियों का बार्डर और आँचल एक रंग का होता है और बाकी साड़ी दूसरे रंग की। इसके तीनों हिस्सों को अलग-अलग बुनकर इस प्रकार जोड़ा जाता है कि कोई जोड़ दिखता नहीं। तमिलनाडु के कांचीपुरम में बनने वाली रेशमी साड़ी को कांजीवरम साड़ी के नाम से जाना जाता है। इसे खासकर तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की महिलाएँ विवाह और शुभ अवसरों पर पहनती हैं। इस साड़ी के साथ गोल्ड इयरिंग डालें फिर देखिए कितनी खूबसूरत लगेंगी। एक कांजीवरम साड़ी हर महिला के पास होनी ही चाहिए।

तांतकी साड़ी (Tantki Saree)
भारत में कई तरह की साड़ियों में से तांत साड़ियां सबसे पारंपरिक मानी जाती है। इसे बंगाली साड़ी भी कहा जाता है। बंगाली महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली पारंपरिक साड़ी तांत साड़ी के नाम से भी जानी जाती है। बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के बुनकर इसे बुनते हैं। इसे बनाने के लिए सूती धागों का प्रयोग किया जाता है। सूती धागे इसे हल्का और पारदर्शी बनाते हैं। इसमें जरी अथवा सूती किनारा होता है। यह महीन और पारदर्शी होता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि बंगाल में गर्मी बहुत होती है इसलिए यह साड़ी वहाँ की महिलाओं के लिए एक आरामदायक परिधान है। यह बहुत ही हल्का होता है। जो महिलाएं भारी साड़ियां पहनना पसंद नहीं करती उनके लिए तांत की साड़ी स्मार्ट चॉयस होगी। हालांकि सिर्फ बंगाली महिलाएं ही नहीं अब अलग-अलग समुदाय के लोग भी तांत की साड़ी पहनना पसंद करते हैं। ज्यादातर महिलाएं कॉटन साड़ी और तांत साड़ी दोनों को एक समझती हैं, जबकि ऐसा नहीं है। दोनों में काफी अंतर होता है।

सांभलपुरी साड़ी (Sambalpuri Saree)
भारतीय संस्कृति और हिंदू परम्परा में साड़ी महिलाओं का प्रमुख परिधान है। वेस्टर्न कपड़े चाहे जितना पहन लो लेकिन लड़कियां सबसे ज्यादा खूबसूरत साड़ी में ही लगती है। शादी-ब्याह हो या पूजा-पाठ हर जगह आज भी साड़ी पहनना का ही ट्रेंड है। लेकिन क्या आपको पता है कि साड़ियां कितने तरह के होते हैं और उनकी क्या खासियत है। अगर नहीं तो आज हम आपको ऐसी ही आठ साड़ियों के बारे में बताएंगे जिन्हें हर महिला अपनी अलमारी में रखना चाहेंगी। और इन तरह की साड़ियां घर में होनी ही चाहिए। तो चलिए जानते हैं वो कौन-सी आठ साड़ियां हैं। यह एक पांरपरिक परिधान है हथकरघे पर बुना जाता है। यह संबलपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में बनती है। इसमें ताना और बाना के धागे बुनाई से पहले रंग लिए जाते हैं। इसमें आमतौर पर शंख, चक्र, फूल आदि बनते हैं। यह अधिकतर सफेद, लाल, काले, नीले रंगों की होती है। यह पारंपरिक शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है।

पैठणी साड़ी (Paithani Saree)
महाराष्ट्र के पैठण शहर में बनने के कारण इस साड़ी को पैठणी के नाम से जाना जाता है। यह भारत की सबसे महंगी साड़ियों में से एक है। यह उच्चकोटि के महीन रेशम से बनती है। इसकी विशेषता इसके मोर की अनुकृति वाले पल्लू होते हैं। यह एक रंगी तथा बहुरंगी होती है। इसमें सुनहरे तारों का भी प्रयोग किया जाता है। ये साड़ियां हाथ से बुनी जाती हैं। पैठणी साड़ी रेशम की बनी बेहतरीन साड़ी होती हैं। इसलिए बहुत महंगी होती हैं।

बाँधाकला साड़ी (Bandhikala Saree)
यह एक पांरपरिक परिधान है हथकरघे पर बुना जाता है। यह संबलपुर और उसके आस-पास के क्षेत्र में बनती है। इसमें ताना और बाना के धागे बुनाई से पहले रंग लिए जाते हैं। इसमें आमतौर पर शंख, चक्र, फूल आदि बनते हैं। यह अधिकतर सफेद, लाल, काले, नीले रंगों की होती है। यह बाँधाकला (टाई-डाई) की पारंपरिक शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है। इसे बंधेज साड़ी और बाँधनी साड़ी (Bandhani Saree) के नाम से भी जाना जाता है। यह साड़ी गुजरात और राजस्थान में बनती है। बंधनी का अर्थ है ‘बाँधना’। साड़ी को छोटे-छोटे बंधनों में बाँध कर रंग-बिरंगे रंगों से रंगा जाता है। यह साड़ियाँ लोकप्रिय है। यह किसी भी अवसर पर पहनी जा सकती हैं। यह देखने में खूबसूरत के साथ-साथ बहुत ही आरामदायक भी होता है। कई सालों से फैशन में बनी हुई ये साड़ी काफी डिमांड में रहती है। ये साड़ी राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में तैयार की जाती है। आमतौर पर कपड़े को रंगकर इस साड़ी को बनाया जाता है। इस साड़ी में आपको कई अलग-अलग पैटर्न और प्रिंट मिल जाते हैं।

चिकनकारी साड़ी (Chikankari Saree)
मुगलों द्वारा आरंभ की गई लखनऊ की प्राचीन पारंपरिक कढाई की कला को ’चिकेन’ कहा जाता है। प्रारंभ में यह कढाई मलमल के सफेद कपड़े पर होती थी। इस कढाई की प्रमुख विशेषता इसके टाँके हैं। जिसे बहुत ही नफासत और कलात्मक तरीके से बनाया जाता है। अब रेशम, शिफॉन, नेट आदि कपड़ों पर भी चिकेन का काम होने के साथ ही रंगीन कपड़ों पर यह कढाई होने लगी है। आरामदायक साड़ी होने के कारण महिलाएं काफी पसंद करती है। ये साड़ी भारत की कई पारंपरिक साड़ियों में से एक है जो भारतीय राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में महिलाओं द्वारा पहनी जाती है। यह सबसे लोकप्रिय और महंगी भारतीय साड़ियों में से एक है। चिकनकारी साड़ियाँ जटिल कढ़ाई के काम से बनाई जाती हैं, जिसे पूरा होने में कई दिन लग जाते हैं। इन साड़ियों पर कढ़ाई का काम ‘चिकनकारी’ नामक कुशल कारीगरों द्वारा किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चिकनकारी कला मुगलों द्वारा मध्य एशिया से भारत लाई गई थी।

बालूचरी साड़ी (Baluchari Saree)
प्रसिद्ध बालूचरी साड़ी मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) में बनती हैं। इसे बनने में 7 से 10 दिन लगते हैं और एक साड़ी बनाने के लिए दो लोग लगते हैं। इन साड़ियों पर रेशम के महीन धागों के द्वारा पौराणिक कथाओं के दृश्य बनाए जाते हैं। यह साड़ी भी बहुत महंगी होती है। शादी-विवाह के अवसरों पर इस साड़ी को महिलाएं पहनती हैं। तो ये थे राज्य की कुछ खास तरह की साड़ियां। इसे आप भी किसी भी आयोजन में पहने और भीड़ से बिल्कुल अलग दिखे।

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