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क्या अब मुसलमानों को खुद ही काशी और मथुरा को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए?

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क्या अब मुसलमानों को खुद ही काशी और मथुरा को हिंदुओं को सौंप देना चाहिए?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के मंदिर का निर्माण होने और प्राण प्रतिष्ठा के बाद एक सदी से ज़्यादा पुराना अयोध्या मुद्दा समाप्त हो गया। राम जन्मस्थल की ज़मीन पर दावा करने वाला मुस्लिम समाज अब अयोध्या में ही अन्यत्र मस्जिद बनवाएगा। यह सब देश की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले के चलते हुआ। अदालत ने जन्मस्थल को हिंदुओं के हवाले कर दिया था। इस बीच अंतरराष्ट्रीय और मुस्लिम मामलों की विशद जानकारी रखने वाले अनुभवी लेखक-पत्रकार हसन सुरूर ने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में लिखा है कि मुसलमानों को बड़ा दिल दिखाते हुए बाबरी मस्जिद की विवादित जगह को 1980 के दशक के उत्तरार्ध में ही हिंदुओं को सौंप देना चाहिए था। किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी का इस तरह का यह पहला लेख है, जिसमें लेखक तथ्यों का हवाला देकर मुसलमानों से बड़ा दिल रखने की नसीहत दी है।

निश्चित तौर पर हसन सुरूर ने यह लेख लिखने में 35 साल की देरी कर दी, क्योंकि अब तो अयोध्या मुद्दा ही ख़त्म हो चुका है। हां, उनका यह फॉर्मूला काशी और मथुरा के विवादित स्थलों के लिए अब भी प्रासंगिक है। ज़ाहिर है, अयोध्या मामले के बाद अब काशी मथुरा का मामला शर्तिया उठेगा और अयोध्या मुद्दे की तरह देर-सबेर इन दोंनों स्थलों पर भी अदालत का फैसला आएगा ही। और, यह भी तय है कि सबूत चाहे जो कहें, लेकिन कोई भी अदालत काशी और मथुरा के विवादित स्थलों को मुस्लिम समाज को सौंपने का साहस नहीं करेगी। हां, अयोध्या को उदाहरण मानकर अदालत इसी तरह का हल ज़रूर दे सकती है। मतलब विवादित ज़मीन हिंदुओं को और मुसलमानों को मस्जिद के लिए शहर में कहीं और जगह दे सकती है।

ऐसे में यह विचार करने का यह महत्वपूर्ण और उपयुक्त समय है कि क्या अयोध्या मुद्दे पर एक सदी से ज़्यादा समय तक हुए टकराव से सबक लेकर मुस्लिम समाज को काशी और मथुरा के विवादित स्थलों की ज़मीनों को हिंदुओं को सौंप देने पर गंभीरतपूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए? यहां यह भी कहना समीचीन होगा कि अगर मुस्लिम समाज अपने कथित हितैषी नेताओं और तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों की बात न मानकर स्वेच्छा से ऐसा कदम उठाते हैं तो निश्चित रूप से वे हिंदुओं का दिल जीत लेंगे।

हालांकि गांरटी के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसा करने से हिंदू-मुस्लिम विवाद या टकराव सदा के लिए ख़त्म हो जाएगा, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि अगर मुसलमान काशी और मथुरा के विवादित स्थलों को लेकर ख़ासकर इसकी संवेदनशीलता को स्वीकार करते हुए टकराव की बजाय समझौते का नरम रुख अपना लेते हैं तो यह निर्णय उनका ऐतिहासिक निर्णय होगा। यह मुस्लिम समुदाय की पराजय नहीं, बल्कि सही मायने में उनकी विजय ही होगी। मुसलमानों का यह क़दम निश्चित रूप से उन्हें नैतिक रूप से लोगों के दिलों में उच्च स्थान दिलाएगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि हिंदुओं के तीन सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय देवताओं मर्यादा पुरुषोत्तम राम, बाबा भोलेनाथ और वासुदेव कृष्ण का सीधा संबंध क्रमशः अयोध्या, काशी और मथुरा से है। ये तीनों जगह हिंदुओं के लिए उसी तरह पूजनीय और धार्मिक आस्था के केंद्र हैं जैसे मुसलमान के लिए मक्का और मदीना या फिर ईसाइयों के लिए वेटिकल सिटी। अयोध्या प्रभु राम की जन्मस्थली है, तो मथुरा में भगवान कृष्ण पैदा हुए और काशी के बारे में कहा जाता है कि वह तो शंकर के सिर पर बसी महादेव शंकर की ही नगरी है।

इस देश में यह भी सच है कि जो लोग भाजपा की विचारधारा या उसके हिंदूराष्ट्र की अवधारणा से बिल्कुल भी इत्तिफ़ाक़ नहीं रखते हैं, उनके लिए भी राम, शंकर और कृष्ण जैसे देवता आराध्य देव हैं और वे भी अयोध्या, काशी और मथुरा से आस्था के साथ जुड़ा हुआ महसूस करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि वैसे तो देश में अनगिनत मंदिर हैं, लेकिन अयोध्या, मथुरा और काशी के धर्मस्थल राम, कृष्ण और शंकर से जुड़े होने के कारण विशेष हैं। दूसरी ओर, मुसलमानों के लिए तीनों जगह केवल संपत्ति विवाद है। इनका कोई धार्मिक या ऐतिहासिक महत्व नहीं है। ऐसे में यह कहना बेतुका बिल्कुल नहीं है कि मुसलमानों को स्वेच्छा से हिंदुओं के आराध्य देवों की जगह पर अपना दावा छोड़ देना चाहिए। देश में हिंदू-मुस्लिम एकता और स्थाई शांति के लिए भारतीय मुसलमानों को अपनी ओर से यह पहल ज़रूर करनी चाहिए और मामले को अदालत के बाहर निपटाने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।

इसकी दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि जिस तरह मुसलमानों के लिए अयोध्या हिंदुओं जैसा धार्मिक महत्व और आस्था का प्रतीक नहीं था, वैसे ही काशी और मथुरा भी हैं। फिर इस्लाम में अगर आवश्यक हो तो किसी मस्जिद को ध्वस्त या स्थानांतरित करने के विरुद्ध कोई मनाही भी नहीं है। ऐसे में मुसलमान काशी में ज्ञानवापी और मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद की जगह पर दावा छोड़कर क्रमशः बनारस और मथुरा में ही कहीं और जगह लेकर वहां मस्जिद बनवा सकते हैं। मस्जिद की जगह बदलने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। सऊदी अरब समेत कई मुस्लिम देशों में विकास की राह में आने वाली कई मस्जिदें या तो ध्वस्त की जा चुकी हैं या फिर उनका रिलोकेशन किया जा चुका है। यह काम काशी और मथुरा में भी तो किया जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो यह देश के इतिहास की सबसे बड़ी घटना होगी।

भगवान श्री रामलला प्राण-प्रतिष्ठा के ठीक पहले इस तरह की पहल, जो बहुत सारे लोगों को अटपटी भी लग सकती है, को समझने के लिए पूरे अयोध्या विवाद जिसे पूरी दुनिया राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के रूप में जानती है, पर ग़ौर करना होगा। दरअसल, दुनिया में संभवतः हिंदू एकमात्र ऐसा धर्म है जिसके विस्तार के बारे में ख़ुद हिंदू ही नहीं सोचता। मतलब, किसी दूसरे धर्म के अनुयायी का धर्म-परिवर्तन करवाना हिंदुओं के डीएनए में ही नहीं है। यही इस धर्म की ख़ूबी है। इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि कोई हिंदू धर्म-प्रचारक धर्म-परिवर्तन करवाने के लिए किसी दूसरे देश में गया। हिंदू का किसी दूसरे का धर्मस्थल तोड़ने या अपना मंदिर बनाने में भी बहुत ज़्यादा इंटरेस्ट नहीं होता है। इसका गवाह सन 2019 का आम चुनाव है।

चुनाव के समय भारत की जनसंख्या 138 करोड़ थी। 110 करोड़ यानी लगभग 80 फ़ीसदी हिंदू थे। अगर ये हिंदू कट्टर होते तो हिंदूराष्ट्र की बात करने वाले राजनीतिक दल को सिर-आंखों पर बिठा लेते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हिंदूराष्ट्र की बात करने वाली भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 23 करोड़ वोट ही मिले। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। कुल 91.2 करोड़ मतदाताओं में से केवल 67 फ़ीसदी वोटरों ने ही मतदान किया और 37.36 फ़ीसदी वोट भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को मिले। इसमें केवल हिंदू ही नहीं थे, बल्कि अन्य धर्मों के वोटर शामिल थे। कल्पना कीजिए, 110 करोड़ लोगों में से केवल 23 करोड़ लोगों ने ही उस दल का साथ दिया जो उनके हितों, हिंदूराष्ट्र और मंदिरों की बात करता है।

आइए अयोध्या मुद्दे पर वापस लौटते हैं। अयोध्या का मुद्दा वैसे तो सदियों पुराना था। मसलन, सन 1885 में महंत रघुबीर दास ने फैजाबाद की जिला अदालत में याचिका दायर की और विवादित ढांचे के बाहर चंदवा यानी कैनोपी बनाने की अनुमति मांगी थी। हालांकि अदालत ने उनकी याचिका ख़ारिज़ कर दी थी। इसी तरह सन 1959 में निर्मोही अखाड़े ने ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के लिए मुक़दमा दायर किया था। लेकिन पहली फरवरी, 1986 को यह मामला तब अचानक सुर्खियों में आ गया, जब फैजाबाद की अदालत ने हिंदू श्रद्धालुओं को पूजा के लिए स्थान को खोलने के लिए सरकार को आदेश दिया। अदालत के फैसले के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के आदेश पर प्रदेश की एनडी तिवारी सरकार ने ताला खोल भी दिया।

अदालत के उस आदेश के बाद ही देश में राजनीतिक घटनाक्रम बड़ी तेज़ी से परिवर्तित हुआ। या कह लीजिए पूरा का पूरा समीकरण ही बदल गया। अदालत के फ़ैसले के बाद ऐसे लोग अचानक से बहुत अधिक सक्रिय हो गए जिनकी दुकान ही हिंदू-मुसलमान का जाप करने से चलती थी। कुछ मुस्लिम नेताओं ने तो कथित तौर पर हिंदुत्व की लहर को भाप भी लिया और उस लहर का मुक़ाबला करने के लिए कमर कस लिया। ऐसे लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ज़फरयाब जिलानी के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी का ही गठन कर दिया। कमेटी मुस्लिम प्राइड का हवाला देकर समझौता वार्ता की हर संभावना को नकारने लगी।

इसके बाद अपने आपको मुस्लिम हितों के रखवाले के रूप में पेश करने वाले सैयद शहाबुद्दीन, मौलाना इमाम अहमद बुखारी, मौलाना उबैदुल्ला आजमी, समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और सांसद असदुद्दीन ओवैसी के पिता सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी सहित कई मुस्लिम नेता अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हो गए। ये लोग अयोध्या विवाद की आग में घी डालने का काम करते रहे। ऐक्शन कमेटी के गठन का परिणाम यह हुआ कि विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे संगठन भी सक्रिय हो गए। देश में राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू हो गया। आंदोलन से जुड़े लोग जगह-जगह बंद और प्रदर्शन करने लगे।

उधर जिलानी ने अपनी गैर-समझौतावादी रवैए को सही ठहराते हुए बयान दिया, “अगर हम मुसलमान अपनी मस्जिद की ज़मीन हिंदुओं को दे देते हैं, तो पहले से ही उत्पीड़ित अल्पसंख्यक मुसलमान इस देश की नागरिकता भी खो देगा।” यह बयान बेहद ग़ैरज़िम्मेदाराना, हाइपोथेटिकल और वास्तविकता से परे था। इसके बाद मुस्लिम लीडरशिप की स्वार्थगत राजनीति और अपिरपक्वता सामने आ गई। कहने का मतलब मुस्लिमों को अपने कट्टरपंथी नेतृत्व के कारण बहुत नुक़सान उठाना पड़ा।

दरअसल, मुसलमानों के सच्चे हितैषी नेता ज़मीन को हिंदुओं को सौंपने के समझौते पर सहमत होकर टकराव टाल सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं किया। धीरे-धीरे विभिन्न मुस्लिम समूह अयोध्या मुद्दा अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए आपस में ही प्रतिस्पर्धा करने लगे। बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी में फूट पड़ गई। सैयद शहाबुद्दीन ने बाबरी मस्जिद कोऑर्डिनेशन कमेटी का गठन कर लिया। उस समय सारे के सारे मुस्लिम नेता मामले को सुलझाने के बजाय सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने का काम कर रहे थे और शहाबुद्दीन ने विवादित स्थल को हिंदुओं को सौंपने से साफ़ इनकार किया।

शहाबुद्दीन ने तनाव बढ़ाने वाला फैसला लेते हुए विवादित स्थल पर नमाज़ पढ़ने की घोषणा कर दी। जैसा कि अनुमान था, इसके बाद विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति ने उसी समय विवादित स्थल के सात पांच दिवसीय श्रीराम महायज्ञ की घोषणा कर दी। कथित तौर पर नमाज़ पढ़ने वालों का मुकाबला करने के लिए एक लाख से अधिक हिंदू स्वयंसेवक वीएचपी के आह्वान पर अयोध्या के लिए रवाना हो गए। बहरहाल, हिंसा के संभावित ख़तरे को भांप कर शहाबुद्दीन ने नमाज़ पढ़ने का फ़ैसला वापस ले लिया।

बाबरी मस्जिद विध्वंस से तीन साल पहले नवंबर 1988 में एक राष्ट्रीय पत्रिका में अलग ही रिपोर्ट प्रकाशित हुई। रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम समूह और उसके धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक सहयोगी अपना राजनीतिक हित साधने के लिए अयोध्या मुद्दे का फायदा उठा रहे थे और 1989 के आम चुनावों से पहले भाजपा के साथ प्रतीकात्मक रूप से दोस्ताना लड़ाई में व्यस्त थे। यानी बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मुद्दे का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया था और मुद्दा वोट-राजनीति के दायरे में आ गया था। कोई भी मुद्दे को हल करने के लिए दिलचस्पी नहीं ले रहा था। यह मुस्लिम नेतृत्व की अकुशलता और सनकी दृष्टिकोण का एक उदाहरण था, जब हालात उस विवाद को सुलझाने के लिए अत्यधिक सावधानी और तात्कालिकता की मांग कर रहे थे, जो पहले ही समुदाय का नुक़सान कर चुका था।

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या में शिलान्यास कार्यक्रम करवाया था। श्री राम मंदिर निर्माण के लिए आधारशिला उस समय राम मंदिर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे महंत अवैद्यनाथ और एक दलित युवक कामेश्वर ने रखी थी। राजीव गांधी दोनों पक्षों में समझौता करवाना चाहते थे, लेकिन हिंदू-मुस्लिम टकराव में अपना भविष्य तलाशने वाले मुस्लिम नेताओं ने शिलान्यास की आलोचना करनी शुरू कर दी और मुसलमानों को भड़काकर कांग्रेस के विरुद्ध कर दिया। इस तरह राजीव गांधी को न तो मुसलमानों का साथ मिला और न ही हिदुओं का और वह चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हो गए।

1990 में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा के बाद भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर, 1990 को सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा शुरू कर दी। लालू प्रसाद यादव ने उन्हें बिहार में गिरफ़्तार करवाकर आग में घी डालने का काम किया। कुल मिलाकर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाई। मुस्लिम हितों के स्वयंभू संरक्षक कांग्रेस ने भी राजीव गांधी के बाद ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगता कि उसका दिलचस्पी समस्या को हल करने में है। अलबत्ता कांग्रेस शासन में ही बाबरी मस्जिद गिराई गई थी।

1980-90 के दशक में मुस्लिम लीडरशिप को हिंदू मुस्लिम के बीच तनाव कम करने और टकराव टालने की कोशिश करनी चाहिए थी जो उनके समाज के व्यापक हित में था, क्योंकि उस आंदोलन के लंबा खिंचने से आम मुसलमानों को बहुत अधिक नुक़सान हुआ। अगर मुस्लिम नेताओं ने बड़ा दिल और समझदारी दिखाई होती तो वे भाजपा को उसके दीर्घकालिक हिंदुत्व प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने से रोक सकते थे, रोक ना पाते तो निश्चित रूप से उसकी गति को धीमा कर सकते थे।

उनके इस क़दम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी उदारवादी हिंदुओं का दबाव पड़ता कि वह ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों से छोड़छाड़ को रोकने वाले पूजा-स्थल अधिनियम-1991 का पालन करे। उस क़ानून में यह प्रावधान किया गया था कि देश के ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों की उसी स्थिति को बरक़रार रखा जाए, जिस स्थिति में वे 15 अगस्त, 1947 तक थे। उस समय संवाद शुरू करके हिंदू-मुस्लिम संबंधों को सामान्य बनाने की संभावना थी, जिससे मुसलमानों को अधिक लाभ होता, लेकिन मुसलमानों के अपने रहनुमाओं ने ही किसी समझौते पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझा। इसके बाद देश में सांप्रदायिक विभाजन और गहरा हो गया और अंततः बाबरी मस्जिद गिरा दी गई।

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