हत्या से ठीक पहले गाँधीजी और गोडसे की क्या हुई थी बातचीत?

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मोहनदास कर्मचंद गांधी

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मोहनदास करमचंद गाँधी की नीतियों को हिंदुओं के हितों के ख़िलाफ़ मानने वाले हत्यारे नाथूराम विनायक गोडसे ने 30 जनवरी 1948 की शाम दिल्ली के बिड़ला हाउस में राष्ट्रपिता की गोली मारकर दी थी। लेकिन हत्या से ठीक पहले बापू और गोडसे के बीच बातचीत हुई थी। यह बातचीत क्या थी, इसका ज़िक्र हत्या की साज़िश की जाँच करने के लिए गठित न्यायमूर्ति जीवनलाल कपूर आयोग की रिपोर्ट में किया गया है। कपूर आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक हत्या से कुछ मिनट पहले ही महात्मा गाँधी और नाथूराम गोडके के बीच संक्षिप्त बातचीत हुई थी।

दरअसल, आज़ादी के बाद पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आने वाले सिंधी और पंजाबी समुदाय के लोग गाँधीजी के व्यवहार से जिस तरह नाराज़ थे और हर क्षुब्ध सिंधी और पंजाबी कहता था कि वह गाँधीजी की हत्या करना चाहता है, उनको गोली मारना चाहता है। इससे इस बात की संभावना प्रबल हो गई थी कि महात्मा की हत्या हो सकती है। जब विभाजन में अपना सब घर-परिवार गंवाने वाले पंजाबी युवक मदनलाल पाहवा ने हत्या की घटना से 10 दिन पहले यानी 20 जनवरी की शाम बिड़ला हाउस में बम फेंका था। तभी तय हो गया था कि गाँधीजी को मारने की साज़िश रची जा चुकी है।

1940 के दशक के अख़बारों की रिपोर्ट्स और दूसरे दस्तावेज़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि विभाजन के बाद गाँधीजी अपनी मुस्लिमपरस्त नीतियों के चलते बहुत अलोकप्रिय हो गए थे। वह इतने अलोकप्रिय हो गए थे कि कई बड़े नेता उनसे नफ़रत करने लगे थे। इस बीच उनके ब्रम्हचर्य के प्रयोग के लिए लड़कियों के साथ नग्न सोने की बात आश्रम से बाहर निकलकर राजनीतिक गलियारों तक फैल गई थी। इससे गाँधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के साथ-साथ खुद गाँधीजी के कई अनुयायी उन्हें कोस रहे थे कि इस उम्र में उन्हें ब्रम्हचर्य का प्रयोग करने की सूझी है।

हालाँकि 2019 में स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे प्रमुख नेता बनने वाले गाँधीजी बहुत ज़िद्दी स्वभाव के थे। अपनी धुन के आगे वह किसी की भी नहीं सुनते थे। तमाम विरोध के बावज़ूद उन्होंने ब्रह्मचर्य के प्रयोग को रोका नहीं और वह बदस्तूर चलता रहा। इत्तिफ़ाक से उसी समय पाकिस्तान के 55 करोड़ रुपए के भुगतान की एक और अहम घटना घट गई, जिससे गाँधीजी की लोकप्रियता का ग्राफ एकदम से गिर गया। गाँधीजी इतने अधिक अलोकप्रिय हो गए कि अचानक जिन्ना के साथ-साथ वह भी राष्ट्रीय विलेन बन गए। लोग खुलेआम उनकी आलोचना और उन्हें मारने की बात करने लगे।

हुआ यूँ कि आज़ादी के बाद पाकिस्तान चाहता था कि मुस्लिम बाहुल्य आबादी के कारण जम्मू-कश्मीर उसे मिलना चाहिए, लेकिन जब उसकी मंशा पूरी न हुई तो अचानक उसकी शह पर कबिलाइयों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। जवाब में तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 12 जनवरी 1948 को घोषणा की कि पाकिस्तानी की कश्मीर में घुसपैठ से भारत नाराज़ है और आज़ादी से पहले हुए क़रार के तहत इस्लामाबाद को दी जाने वाली 75 करोड़ रुपए की राशि में से बाक़ी 55 करोड़ रुपए के भुगतान को रोका दिया गया है। पाकिस्तान के क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना ने गाँधीजी को फोन कर पटेल के निर्णय पर अप्रसन्नता जताई।

‘द हिंदू’ के 8 अगस्त 1948 के अंक में छपी ख़बर के मुताबिक 12 जनवरी 1948 की शाम तक गाँधीजी ने बिड़ला हाउस में संवाददाता सम्मेलन आयोजित की और उसमें घोषणा कर दी कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए के भुगतान को रोकने के पटेल के निर्णय के ख़िलाफ़ वह आमरण अनशन करेंगे। उन्होंने 13 जनवरी, 1948 से अपना उपवास शुरू भी कर दिया। वह केंद्र सरकार पर इस बात के लिए दबाव बना रहे थे कि वह पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए तुरंत जारी करे। वैसे भारत ने क़रार के तहत 75 करोड़ में से 20 करोड़ पहले ही दे चुका था।

15 जनवरी, 1948 से अनशनरत गाँधीजी की तबियत ख़राब होने लगी। इससे केंद्र सरकार भारी दबाव में आ गई। गाँधीजी की तबियत लगातार बिगड़ती रही। 17 जनवरी, 1948 की शाम भारत ने गाँधी जी के दबाव के चलते पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए भुगतान कर भी दिया। अगले दिन यानी 18 जनवरी को गाँधीजी ने अपना आमरण अनशन समाप्त कर दिया। इससे सरकार और कांग्रेस ही नहीं, बल्कि पूरा देश गाँधीजी से बहुत नाराज़ हो गया था। गाँधीजी के अनशन की ख़बर 13 जनवरी को ही पुणे के दैनिक ‘हिंदूराष्ट्र’ के दफ़्तर में पहुँच गई थी और 17 जनवरी को 55 करोड़े के भुगतान की ख़बर भी वहाँ पहुँची।

नारायण आप्टे उर्फ नाना दैनिक ‘हिंदूराष्ट्र’ का प्रकाशक और नाथूराम गोडसे संपादक था। गाँधी के पाकिस्तान प्रेम से नाराज़ होकर नाथूराम ने उनकी हत्या करने की योजना बना ली। 14 जनवरी को उसने दूसरे दिन 3-3 हज़ार रुपए की अपनी दो बीमा पालिसियों का नॉमिनी अपने दोस्त नारायण आप्टे की पत्नी चंपूताई आप्टे और छोटे भाई गोपाल गोडसे की पत्नी सिंधुताई गोडसे को बना दिया। यही बात नाना और गोपाल के ख़िलाफ़ गई और दोनों गाँधी हत्याकांड में शामिल ना होने के बावजूद फँस गए। बाद में नाना को गोडसे के साथ फांसी दी दे गई और गोपाल को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई।

गाँधीजी की हत्या करने की योजना बना चुका नाथूराम गोडसे बारह दिन पहले मुंबई से दिल्ली पहुँच गया। वह एन केन प्रकारेण बिड़ला हाउस में घुसने का मौक़ा तलाशने लगा। उसने ग़ौर किया कि 20 जनवरी को पाहवा के बम फेंकने की घटना के बावजूद बिरला हाउस की सुरक्षा व्यवस्था बहुत शिथिल है। इसी बीच गाँधीजी ने पटेल की नाराज़गी दूर करने के लिए उन्हें 30 जनवरी 1948 को बातचीत के लिए बिरला हाउस बुलाया था। पटेल अपनी बेटी मणिबेन के साथ शाम 4 बजे गाँधीजी से मिलने पहुँचे और मीटिंग शुरू हो गई। उस बैठक में पटेल की गाँधीजी से काफी बहस हुई जिससे बैठक लंबी खिंच गई।

इसी बीच 4.50 बजे के आसपास नाथूराम ने गेटकीपर छोटूराम और पुलिसकर्मियों को चकमा देकर रिवॉल्वर समेत बिड़ला हाउस में प्रवेश कर लिया। गोपाल गोडसे ने अपनी ‘गाँधी वध आणि मी’ में इस प्रसंग का ज़िक्र किया है। नाथूराम ने जेल में उस घटना का ज़िक्र करते हुए बताया था, “शुक्रवार की शाम 4.50 बजे मैं बिड़ला भवन के गेट पर पहुँचा। 4.55 बजे छह गोलियों से लोडेड रिवॉल्वर समेत अंदर प्रवेश करने में सफल रहा। मुझे तब बहुत अधिक हैरान हुई जब गेट पर तैनात रक्षकों ने मेरी तलाशी नहीं ली। वहाँ मैं भीड़ में अपने को छिपाए रहा, ताकि किसी को मुझे पर शक न हो।”

उधर गाँधीजी की पटेल के साथ बातचीत एक घंटे तक खिंच गई। गाँधीजी के व्यवहार ख़ासकर उनके आमरण अनशन से पटेल बहुत नाराज़ थे। बातचीत के दौरान अचानक गाँधीजी की नज़र घड़ी पर गई, तो पाँच बज रहे थे। गाँधीजी ने कहा- अरे, मेरी पूजा का समय हो गया। पटेल, रुको पूजा के बाद तुमसे बात करता हूं।” यह कहकर वह उठने का प्रयोजन करने लगे। लेकिन पटेल उनका इंतज़ार करने की बजाय वहां से चले गए। बैठक समाप्त कर बापू हमेशा की तरह आभा और मनु के कंधों पर हाथ रखकर प्रार्थना सभा में की ओर रवाना हो गए वह शामिल होने के लिए तेज़ी से उस तरफ़ बढ़ रहे थे।

आभा और मनु का सहारा लेकर चल रहे 79 वर्षीय गाँधीजी शाम 5.10 बजे बैठक से बाहर निकले। हमेशा की तरह सभास्थल की सीढ़ियों के पास मुलाक़ाती लाइन से खड़े थे। वही गोडसे भी खड़ा था, गाँधीजी को आता देखकर वह अचानक सामने आ गया। उसने सामने गाँधीजी को देखा। तभी बापूजी के साथ चल रही मनु ने कहा- “भैया, सामने से हट जाओ, बापू को जाने दो, पहले से ही देर हो चुकी है।” मनु की बात को अनसुना करते हुए नाथूराम गाँधीजी के बहुत क़रीब पहुँच गया और हाथ जोड़कर कहा- “नमस्ते बापूजी! आज तो आप लेट हो गए प्रार्थना करने में।”

“हाँ भाई, आज वाक़ई मैं ले हो गया। चलो-चलो देरी हो रही है।” गाँधीजी आगे बढ़ते हुए बोले। उसी समय गोडसे ने कहा “बापू, आपकी शानदार देश-सेवा के लिए मैं हाथ जोड़कर आपको प्रणाम करता हूँ।” गाँधी जी ने मुस्कुरा कर धन्यवाद कहा। गोडसे आगे बोला, “लेकिन बापू, आपका ज़िंदा रहना न तो देश के हित में है और न ही बहुसंख्यक हिंदुओं के हित में। देश और हिंदुओं का भारी नुक़सान करने के लिए आपको मारना ही पड़ेगा।” अरे यह क्या कह रहे हैं भाई। गाँधीजी बोले, लेकिन उनकी बात अनसुनी करके नाथूराम धीरे ने रिवॉल्वर निकाल ली मनु और आभा को गाँधीजी से दूर धकेल दिया। इसके बाद 5.17 बजे 3 गोलियाँ गाँधीजी के सीने में उतार दी।

लाल किला में बनी विशेष अदालत में मुक़दमे के ट्रायल के दौरान नाथूराम ने अदालत को बताया था कि वह दो ही गोली चलाने वाला था, लेकिन उत्तेजना में उससे तीसरी गोली भी चल गई और गाँधीजी ‘आह’ कहकर वहीं गिर पड़े। उन्होंने ‘हे राम’ उच्चरण नहीं किया था। जैसा कि लोग दावा करते हैं। जैसे ही गोली चली, गाँधीजी के साथ चल रहे सभी मौजूद सारे लोग सिर पर पांव रखकर भाग खड़े हुए। जबकि सब लोग दावा करते थे कि वे गाँधीजी के लिए जान दे सकते हैं। नाथूराम गोडसे यह सोचकर आया था कि जैसे ही वह गाँधीजी पर गोली चलाएगा, उसे भी गोली मार दी जाएगी और उसका काम-तमाम हो जाएगा।

जेल प्रवास के दौरान गोडसे ने साथियों को बताया था, “मुझे लगा था कि जैसे ही मैं गाँधीजी को गोलू मारूँगा, उसी समय मेरी हत्या कर दी जाएगी, लेकिन यहाँ तो पुलिवाले समेत सभी लोग डरकर वहाँ से भाग गए। लोगों का यह व्यवहार देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने जब समर्पण करने की मुद्रा में हाथ ऊपर किया, तब भी किसी की मेरे पास आगे की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी। पुलिवाला भी डर रहा था। गोली चलाने के बाद मैं काफी उत्तेजित महसूस कर रहा था। मैंने रिवॉल्वर समेत हाथ ऊपर उठा लिया था। मैं चाहता था कि पुलिस मुझे गिरफ़्तार कर ले। लेकिन वहां मौजूद कोई शख़्स मेरे पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।”

नाथूराम गोडसे ने साथियों को बताया, “फिर मैंने पुलिस वाले को आंखों से ही पास आने का संकेत किया और कहा कि वह मेरी रिवॉल्वर लेकर मुझे गिरफ़्तार कर ले। पांच छह मिनट तक वह भी डरता रहा। बाद में उसे भरोसा होने लगा कि मैं उस पर कतई गोली नहीं चलाऊँगा। उसके बाद वह हिम्मत जुटाकर धीरे-धीरे लेकिन सावधान मुद्रा में मेरे पास आया और मेरा हाथ पकड़ लिया। फिर उसने मेरी हथेली से मेरा रिवॉल्वर उठा लिया। इसके बाद वहाँ मौजाद क़रीब-क़रीब सभी लोग मुझ पर टूट पड़े। कोई मुझे छड़ी से मार रहा था तो कोई हाथ से प्रहार कर रहा था। कई लोगों ने मुझे कई मुक्के मुँह पर भी मारा।”

बिड़ला भवन में गोली चलने की आवाज़ सुनकर वहाँ से गुजर रही पुलिस वैन अंदर आ गई। डीएसपी जसवंत सिंह के आदेश पर दसवंत सिंह और कुछ पुलिस वाले नाथूराम को लेकर तुगलक रोड थाने गए। रात पौने दस बजे थाने के मुंशी दीवान डालू राम ने एफ़आईआर लिखा। मेडिकल के बाद नाथूराम को फिट घोषित कर दिया गया। शाम 5:45 बजे आकाशवाणी पर गाँधीजी के निधन की सूचना दी गई। बताया कि नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने बापू की हत्या कर दी। सारा देश सन्न रह गया। हर कोई हैरान था कि एक मराठी युवक ने यह काम क्यों किया, क्योंकि लोगों को आशंका थी कि कोई पंजाबी या सिंधी व्यक्ति गाँधीजी की हत्या कर सकता है।

देश के विभाजन के लिए गाँधीजी को ज़िम्मेदार मानने वाला गोडसे, दरअसल, चाहता था कि गाँधीवाद के पैरोकार उसके साथ गाँधीवाद पर चर्चा करें, ताकि वह बता सके कि गाँधीवाद से इस देश का कितना नुक़सान हुआ। अगली सुबह गाँधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी गोडसे से मिलने तुगलक रोड थाने पहुँचे। लॉकअप के बाहर खड़े देवदास से गोडसे ने कहा, “मेरी वजह से आज आप अपने पिता को खो चुके हैं। आपके परिवार पर हुए वज्रपात का मुझे बहुत ख़ेद हैं। मैंने हत्या व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से की है। आप अगर वक़्त दें तो मैं बताऊँ कि मैंने गाँधीजी की हत्या आख़िर क्यों की?”

दरअसल, गोडसे गाँधीवादियों से चर्चा करके अपना पक्ष रखना चाहता था, इसीलिए उसने गाँधीजी के तीसरे पुत्र रामदास गाँधी से भी इस विषय पर चर्चा करने की अपील की थी। रामदास तो उससे मिलने के लिए तैयार भी हो गए थे, लेकिन उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इजाज़त ही नहीं दी। दो बड़े गाँधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे और किशोरी लाल मश्रुवाला ने नाथूराम से चर्चा करके उसका पक्ष जानने की कोशिश की थी, लेकिन ऊपर से उन्हें भी गोडसे से मिलने की इजाज़त नहीं दी गई। इस तरह गाँधीवाद पर बहस की नाथूराम की इच्छा अधूरी रह गई।

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