निवेश का अभाव, निवाले का संकट
सरोज कुमार
निवेश अर्थव्यवस्था का आधार होता है। निवेश के अभाव में अर्थव्यवस्था अर्थहीन हो जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा इसका एक उदाहरण भर है। बाजार में मांग मंद हो चली है। महंगाई, बेरोजगारी का बोझ दर्दनाक हो चुका है। आम आदमी कराह रहा है; और खास लोग तीव्र वृद्धि दर की डफली पीट रहे हैं। आत्ममंथन की गुंजाइश खत्म हो गई है। अर्थव्यवस्था की इस करुण कथा का अंत भले अदृश्य है, लेकिन आभास डरावना है।
आदर्श अर्थव्यवस्था वो, जहां हर हाथ को काम, हर घर कमाई, सबके लिए सम्मानजनक जीवन के साधन और अवसर सुलभ हों। ये सुलभता तभी संभव है, जब उचित निवेश उपलब्ध हो। खुले बाजार वाली अर्थव्यवस्था में निवेश की बड़ी जिम्मेदारी निजी क्षेत्र पर आ जाती है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र विनिवेश की भेंट चढ़ चुका होता है। निजी क्षेत्र तभी निवेश करता है, जब पूंजी की मुनाफे के साथ वापसी का भरोसा हो। भरोसे का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी नीतिनियंताओं की होती है। यहीं पर उनके कौशल, उनकी नीति और नीयत की परीक्षा होती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा इस परीक्षा का परिणाम है। परिणाम के पुनरीक्षण से स्थिति कुछ सुधर सकती है, लेकिन हमने पहले ही खुद को पास मान लिया है। फिर सारी कसरत पानी पर लाठी पीटने जैसी हो जाती है।
निवेश आकर्षित करने की जाहिर तौर पर कोशिशें की गई हैं। व्यापार आसान बनाने से लेकर सभी क्षेत्रों को निजी निवेश के लिए खोलने तक, कॉरपोरेट कर घटाने से लेकर आइबीसी जैसा कानून बनाने तक। इन सबके कुछ फायदे भी हुए हैं, लेकिन वह नहीं हुआ जो होना चाहिए था। आज 190 देशों के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांक में 142वें (2014) पायदान से उठ कर 63वें (2022) पायदान पर पहुंच जाने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था निवेश को मोहताज है। निजी क्षेत्र को भरोसा ही नहीं कि बाजार में छोड़ी जाने वाली पूंजी वापस लौट आएगी। निवेशक सम्मेलन, निवेशक वादे, घोषणाएं सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। एफडीआइ घट रही है, तो घरेलू निजी निवेश भी नीचे आ रहा है। बेशक, इन सबके बाहरी कारण हैं। लेकिन आंतरिक कारण कम नहीं हैं। और, इन आंतरिक कारणों के लिए सीधे तौर पर हमारे अंतःपुर के प्रबंधक जिम्मेदार हैं।
उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआइआइटी) के आंकड़े कहते हैं मौजूदा वित्त वर्ष (2022-23) के प्रथम नौ महीनों (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) 15 फीसद घटकर 36.75 अरब डॉलर रह गया, जो पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में 43.17 अरब डॉलर था। वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान 58.7 अरब डॉलर का एफडीआइ आया, जबकि रिकार्ड 59.6 अरब डॉलर एफडीआइ 2020-21 के दौरान आया था। अबतक का सर्वाधिक 83.57 अरब डॉलर का कुल एफडीआइ वित्त वर्ष 2021-22 में आया था। कुल एफडीआइ में इक्विटी निवेश, निवेश से हुई आय का निवेश और अन्य पूंजी शामिल होते हैं। आइटी क्षेत्र में बूम महामारी के दौर का फलित था। इस क्षेत्र में सर्वाधिक 25 फीसद एफडीआई आया और नौकरियां भी पैदा हुईं। लेकिन समय गुजरने के साथ यह कारवां थम गया। आज यह क्षेत्र छंटनी की छुरी से रक्तरंजित है। एफडीआई में गिरावट से रुपया भी रुहासा हुआ। डॉलर के मुकाबले 80 के स्तर से नीचे लुढ़क गया।
घरेलू निजी निवेश की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। निवेश पर निगरानी रखने वाली संस्था ’प्रोजेक्ट्स टूडे’ का ताजा सर्वेक्षण कहता है, कुल निवेश में घरेलू निजी निवेश की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2022-23 के प्रथम नौ महीनों में घटकर 54.66 फीसद रह गई, जो 2021-22 के प्रथम नौ महीनों में 62.50 फीसद थी। वित्त वर्ष 2021-22 की इसी अवधि में निजी निवेश की कुल 3,585 परियोजनाएं थीं, जो 2022-23 की इसी अवधि के दौरान घटकर 2,787 रह गईं।
सरकार ने अब निजी निवेश को बढ़ावा देने वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में केंद्रीय पूंजीगत निवेश का परिव्यय 37.4 फीसद बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। पिछले वित्त वर्ष में यह 7.28 लाख करोड़ रुपये था। लेकिन ये पूरी राशि खर्च हो पाएगी, इसकी संभावना कम है। पिछले नौ सालों में चार बार (2014, 2015, 2018, 2020) ऐसा हुआ, जब पूंजीगत निवेश के लिए घोषित पूरी राशि खर्च नहीं हो पाई। मौजूदा वित्त वर्ष में भी कुछ ऐसा ही होने की आशंका है। यदि वित्त वर्ष 2024 के लिए घोषित पूरी राशि खर्च हो भी जाए तो भी महंगाई, बेरोजगारी जैसी अर्थव्यवस्था की बुनियादी बीमारी में राहत नहीं मिलने वाली, क्योंकि पूंजीगत निवेश का बड़ा हिस्सा बड़ी परियोजनाओं पर खर्च होना है। इससे खास किस्म की मांग बढ़ने से खास बड़े कारोबारियों को तो लाभ होगा, लेकिन बेरोजगारों को रोजगार नहीं मिल पाएगा। रोजगार के अभाव में बाजार में मांग की स्थिति और मंद हो सकती है। ऐसे में निजी निवेश के लिए पूंजीगत निवेश में वृद्धि निष्फल हो जाएगी।
मौजूदा परिस्थिति में सार्वजनिक निवेश ऐसी परियोजनाओं में करने की जरूरत है, जो अधिक से अधिक रोजगार पैदा करने वाली हों। लोगों की जेब में पैसे पहुंचेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी और निजी क्षेत्र निवेश को आगे आएगा। अफसोस कि इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही। बेरोजगारी दर लंबे समय से सात फीसद से ऊपर बनी हुई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआइई) के अनुसार, फरवरी 2023 में भी बेरोजगारी दर 7.45 फीसद पर बनी रही। खुदरा महंगाई दर भी 6.44 फीसद दर्ज की गई। बेरोजगारी, महंगाई के समन्वित प्रभाव से मंद पड़ी मांग का परिणाम है कि मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर घटकर 4.4 फीसद रह गई। चौथी तिमाही में इसके और नीचे जाने की आशंका है।
महामारी और यूक्रेन युद्ध जनित बाहरी कारणों से देश का निर्यात नीचे आ रहा है। लेकिन घरेलू मांग में गिरावट के लिए आंतरिक कारण ही जिम्मेदार हैं। और इसकी जवाबदेही नीतिनियंताओं को लेनी ही होगी। जनवरी 2023 में भारत का निर्यात 6.59 फीसद घटा तो आयात 3.63 फीसद घट गया। परिणामस्वरूप, व्यापार घाटा भी घट कर 12 महीने के निचले स्तर 17.75 अरब डॉलर पर आ गया। मौजूदा वित्त वर्ष के प्रथम 10 महीनों (अप्रैल-जनवरी 2023) के दौरान निर्यात ऋण दर भी 39.2 फीसद घट गई। आरबीआइ के आंकड़े बताते हैं 27 जनवरी, 2023 को निर्यात ऋण 14,390 करोड़ रुपये था। जबकि 25 मार्च, 2022 को यह 23,681 करोड़ रुपये था। निर्यात-आयात में गिरावट के फलस्वरूप विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर नकारात्मक हो गई। ऐसी परिस्थिति में निजी निवेश की बात, बैल से दूध की उम्मीद करने जैसी है।
भारत 140 करोड़ आबादी के साथ दुनिया का एक सबसे बड़ा बाजार है। यदि घरेलू मांग मजबूत होती तो अर्थव्यवस्था बगैर निर्यात के अर्थवान रह सकती थी। लेकिन हमने नीतियों में घरेलू मांग को महत्व ही नहीं दिया। कमाई न होने से मांग पहले से मंद थी, और महंगाई से निपटने प्रमुख ब्याज दर में की गई वृद्धि से मांग और मंद हो गई। इस पर तुर्रा यह कि घरेलू मांग को प्रोत्साहित करने वाले बचे-खुचे नीतिगत उपकरण भी कमजोर कर दिए गए। आजाद भारत में रोजगार प्रदान करने वाली अबतक की एकमात्र सबसे बड़ी योजना मनरेगा का बजट, मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये से घटाकर वित्त वर्ष 2023-24 के लिए 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। ग्रामीण विकास का आवंटन भी मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 2,43,317 करोड़ रुपये से घटाकर अगले वित्त वर्ष के लिए 2,38,204 करोड़ रुपये कर दिया गया है। मांग में मददगार असंगठित क्षेत्र पहले से विखंडित है। आरबीआइ की रपट के अनुसार, जीडीपी में लगभग 50 फीसद और श्रमशक्ति में लगभग 80 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले असंठित क्षेत्र (विनिर्माण) का जीवीए वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान 16.6 फीसद संकुचित हो गया। इन तमाम चुनौतियों से हमने कोई सबक लिया है, नए बजट के नक्शे में ऐसा कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। लेकिन यह अनदेखी ऐसा आभास अवश्य कराती है कि आगे जो दिखने वाला है, वह देखने लायक तो नहीं ही होगा।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)
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