हरिगोविंद विश्वकर्मा
आप लोगों में से बहुत से लोगों को याद नहीं होगा। यह बात 14 साल पुरानी है। वर्ष 2008 के मध्य की है। जम्मू कश्मीर में ग़ुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में कांग्रेस-पीडीपी (पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी) गठबंधन की सरकार छह साल के अपने अंतिम महीनों में थी। अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं को बारिश में भीगने से बचाने और उन्हें अन्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए राज्य सरकार ने उत्तर कश्मीर के बालटाल बोस कैप से थोड़ा आगे डोमेल के पास एक अस्थायी आश्रय बनाने की योजना बनाई थी और 26 मई 2008 को, केंद्र सरकार के आग्रह पर राज्य सरकार ने श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड को 800 कनाल यानी 40 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित कर दिया था।
तब सोशल मीडिया का दौर बस शुरू ही हुआ था। इसलिए किसी घटना की जानकारी तुरंत नहीं फैलती थी। लिहाज़ा, यह ख़बर दूसरे दिन जम्मू-कश्मीर के सभी अख़बारों में प्रकाशित हो गई। बस क्या था, कश्मीर घाटी में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया। कश्मीरी लीडरशिप की ओर से कहा जाने लगा कि मुस्लिम बाहुल्य राज्य की डेमोग्राफी को बदलने की साजिश रची जा रही है। दूसरे राज्यों के हिंदुओं को यहां लाकर बसाने और कश्मीरी तहजीब नष्ट करने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। इसके बाद तो कश्मीर घाटी धू-धू कर जलने लगी थी और अंत में अगस्त तक विरोध इतना अधिक बढ़ गया कि ज़मीन आवंटन का फ़ैसला रद कर दिया गया।
कहने का मतलब जिस राज्य का पास लगभग 43 हजार वर्ग किलोमीटर ज़मीन है और ज़्यादातर जमीन वन विभाग के पास है, जहां बस्ती नहीं, बल्कि दरख्त उगे हुए हैं। उसी राज्य के मुसलमान अपने हिंदू भाइयों के तीर्थ पर आने वाले श्रद्धालुओ की सुविधा के लिए केवल 40 हेक्टेयर ज़मीन देने के लिए राजी नहीं हुए। यहां यह बताना ज़रूरी है कि उस समय राज्य में ख़र्च होने वाले हर एक रुपए में 86 पैसे भारत सरकार के होते थे, राज्य सरकार केवल 14 पैसे खर्च करती थी। ये 86 पैसे उन्हीं श्रद्धालुओ के टैक्स के पैसे थे, जिन्हें ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा देने के विरोध में कश्मीर के इतिहास का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन किया गया, जिसमें कहा जाता है कि करीब पांच लाख मुसलमान शामिल हुए थे। तब श्रीनगर की जनसंख्या ही दस लाख थी। मतलब बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को छोड़कर सभी लोग विरोध मार्च में शामिल थे। क्या इसे उदारता या सहिष्णुता माना जाएगा?
दरअसल, अमरनाथ की दो महीने यात्रा बारिश में पड़ती है। इसलिए यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्रियों को बड़ी असुविधा का सामना करना पड़ता है। लिहाज़ा, श्रद्धालुओं को सुविधा प्रदान करने के लिए श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड को 40 हेक्टेयर वन भूमि हस्तांतरित की गई थी। तीन साल मुख्यमंत्री रह चुके मुफ़्ती मोहम्मद सईद और उनकी पार्टी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, डॉ. फारुख अब्दुल्लाह और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस, आतंकवादी मकबूल भट द्वारा स्थापित पाकिस्तानपरस्त संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी, शब्बीर अहमद शाह और मीरवाइज उमर फारूक समेत ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के सभी नेताओं को इतनी भी ज़मीन देना गवारा नहीं था।
लिहाज़ा, ज़मीन हस्तांतरण के विरोध में पहले मुसलमान जम्मू–कश्मीर हाईकोर्ट गए, लेकिन अदालत ने कहा, ‘थोड़ा तो मानवीय अप्रोच तो अख़्तियार कीजिए। आपके हिंदू भाई भीगते हुए यात्रा पर जाते हैं। उनके लिए अस्थायी छत ही तो बनाने का प्रस्ताव है।’ अदालत ने उनकी अपील को ख़ारिज़ करते हुए राज्य सरकार को आदेश दिया कि श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए प्रिफैब्रिकेटिड हट बनाए जाएं और उन्हें अन्य सुविधाएं भी दी जाएं। अस्थाई शेल्टर में नहाने, खाने और रात में ठहरने की सुविधा भी होनी चाहिए। अदालत से फटकार मिलने के बाद भी कश्मीरी नेता चुप नहीं बैठे। मुफ़्ती मोहम्मद सईद और मेहबूबा मुफ्ती ने तो कांग्रेस-पीडीपी राज्य की गठबंधन सरकार से अलग होने की धमकी दे डाली।
भूमि हस्तांतरण के खिलाफ शुरू विरोध प्रदर्शन श्रीनगर के अलावा घाटी के अन्य हिस्सों में फैल गया। यह आंदोलन बिलकुल 1990 के दशक से पहले के आंदोलन जैसा था। जब घाटी की उर्वर-भूमि में पहली बार आतंकवाद के बीज पड़े थे। अगस्त 2008 में जेकेएलएफ ने श्रीनगर से बालटाल तक मार्च निकाला। इससे अलगाववादियों और आतंकवादियों का सेना और सुरक्षा बलों के साथ ख़ूनी संघर्ष हुआ, जिसमें कई जानें भी गई। इस दौरान प्रदर्शनकारी हमेशा की तरह संपूर्ण घाटी में पाकिस्तान के समर्थन और भारत के विरोध में नारे लगते रहे। श्रीनगर में विरोध कर रही भीड़ पर फायरिंग से छह लोगों की मौत हो गई और 100 घायल हो गए। कई महीने तक श्रीनगर में स्कूलों और सरकारी कार्यालयों और कई व्यवसायों सहित अधिकांश सार्वजनिक भवन बंद रहे।
दरअसल, कश्मीर आतंकवाद जारी के बावजूद शेष भारत से लोगों, खासकर हिंदुओं का जम्मू कश्मीर आने-जाने का सिलसिला कम नहीं हुआ था, वह बढ़ता ही गया। वजह वैष्णोदेवी मंदिर, पवित्र अमरनाथ गुफा, शिवखोड़ी मंदिर, खीर भवानी मंदिर और बुड्ढा अमरनाथ जैसे राज्य के धार्मिक स्थल रहे। पहले वैष्णोदेवी की चढ़ाई पूरी दुनिया भर में लोकप्रिय हुई। 2007 में तो 70 लाख से अधिक भक्त मां के दरबार में पहुंचे। इसी तरह लोग श्री अमरनाथ गुफा जाने लगे। आतंकवादी धमकियों और हमले के बावजूद यह संख्या लगातार बढ़ती रही। सन् 2005 और 2006 में तो अमरनाथ जाने वालों की संख्या चार लाख से ऊपर थी। श्रद्धालुओं की बढ़ती संख्या को देखकर राज्य सरकार ने वैष्णोदेवी की तरह 2000 में श्री अमरनाथजी श्राइन बोर्ड की भी स्थापना कर दी।
उसी क्रम में अस्थायी शेल्टर बनाने के लिए एक भूखंड बोर्ड को दिया गया था। उसका 2.5 करोड़ रुपए मुआवजा भी तय कर दिया गया था। बहरहाल, भूमि हस्तांतरण समझौते के विरोध में मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने धमकी देने के बाद अंततः राज्य सरकार से समर्थन भी वापस ले लिया। अल्पमत में आने के बाद आजाद ने 7 जुलाई 2008 को इस्तीफ़ा दे दिया। इस तरह श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीने देने के पूरे मामले का राजनीतिकरण हो गया।
जैसा कि हम जानते हैं अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं को प्रतिकूल मौसम का भी सामना करना पड़ता है क्योंकि पूरे बेल्ट यानी चंदनवाड़ी, पिस्सू टॉप, ज़ोली बाल, नागा कोटि, शेषनाग, वारबाल, महागुन्स टॉप, पबिबाल, पंचतरिणी, संगम टॉप, अमरनाथ, बराड़ी, डोमेल, बालताल और उसके आसपास साल के अधिकांश समय बर्फ़ रहती है। इससे इन इलाकों में इंसानी गतिविधियां महज कुछ महीने ही रहती हैं। बाक़ी समय यहां मौसम इंसान के रहने लायक नहीं होता। गर्मी शुरू होने पर वहां बर्फ पिघलती है और अप्रैल से यात्रा की तैयारी शुरू की जाती है। गुफा की ओर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए चंदनवाड़ी से अमरनाथ और बालटाल के बीच कोई का ठिकाना नहीं है। 30 किलोमीटर से अधिक लंबे रास्ते में अकसर तेज़ हवा के साथ कभी हल़की तो कभी भारी बारिश भी होती रहती है। इस बारिश से श्रद्धालुओं के पास भीगने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता है।
अमरनाथ यात्रियों के बारिश से बचने के लिए कहीं कोई शेड या छत नहीं है, सो लोग भीगने से बीमार हो जाते हैं। कमज़ोर कद-काठी के लोग शेषनाग की ठंड सह नहीं पाते और कई लोगों की तो मौत तक हो जाती है। इसीलिए मेडिकली अनफिट लोगों को अमरनाथ न जाने की सलाह दी जाती है। इन्हीं पहलुओं को ध्यान में रखकर सरकार ने शेड निर्माण का क़दम उठाया था। वैसे अथाई शेड की ज़रूरत बालटाल ही नहीं, डोमेल, संगम टॉप, अमरनाथ, पंचतरिणी, पिस्सू टॉप, चंदनवाड़ी और नुनवन (पहलगाम) में भी हैं, क्योंकि श्राइन बोर्ड कपड़े का जो टेंट बनवाता है, उसमें श्रद्धालु सुरक्षित नहीं होते हैं।
वैसे भी जम्मू-कश्मीर के इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि किसी धार्मिक बोर्ड को वन विभाग की भूमि दी गई थी। राजौरी में बाबा बडशाह गुलाम यूनिवर्सिटी को पांच हजार कनाल का भूखंड दिया गया था। इसी तरह मुसलमानों के अनेक मजहबी और शैक्षिक संस्थानों को वन विभाग की ज़मीन दी जा चुकी थी। इतना ही नहीं वन भूमि की ज़मीन के लिए आंसू बहाने वाले ढोर नेताओं ने अपना घर बन विभाग की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके बनवाया है। लेकिन किसी आवंटन का कभी कोई विरोध नहीं हुआ, लेकिन जैसे ही श्रीअमरनाथजी श्राइन बोर्ड को ज़मीन मिली, लोग हाय-तौबाल मचाने लगे।
इंसान होने के नाते हर सिविल सोसाइटी में लोगों की नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी होती है कि जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग से ऊपर उठकर लोगों, ख़ासकर जो कम संख्या में हैं उनकी भावनाओं का ख़़याल रखें। ताकि अल्पसंख्यक खुद को उपेक्षित या दोयम दर्जे का नागरिक न समझें। ऐसे में मुस्लिम बाहुल्य राज्य होने के नाते कश्मीरी लीडरशिप को एकमत से ज़मीन हस्तांतरण को स्वीकार करना चाहिए था, क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर, भारत ही नहीं पूरी दुनिया के करोड़ों हिंदुओं के लिए आस्था का विषय था। यह हिंदुओं के सबसे आराध्य देवता महादेव के लिए था।
अमरनाथ गुफा के बारे में मान्यता है कि शिव ने ‘अनीश्वर कथा’ पार्वती को हिमालय की अमरनाथ गुफा में ही सुनाई थी। इसीलिए यह गुफा पवित्र मानी जाती है। मामला चूंकि एक समुदाय की आस्था से जुड़ा था, इसलिए इस मामले को तूल बिल्कुल नहीं देना चाहिए था। मगर कश्मीरी लीडरशिप ने एक मंशा के तहत इस मुद्दे को उछाला। सरकार पर इतना दबाव बनाया कि उसने अपना फैसला वापस लेना पड़ा। उसके बाद राष्ट्रपति शासन में जनरल एसके सिन्हा की जगह राज्यपाल बनाए गए नौकरशाह एनएन वोहरा ने आनन-फ़ानन में ज़मीन वापस लेने की घोषणा कर दी।
श्राइन बोर्ड के मुख्य कार्यकारी राज्यपाल के प्रधान सविच अरुण कुमार को बर्खास्त कर दिया गया। यह इतना छोटा-सा मामला था कि इस पर हिंसक आंदोलन का कोई तुक ही नहीं था। कोई भी संवेदनशील सभ्य या शिक्षित समाज ऐसा हो हल्ला नहीं करता, जैसा कश्मीरी लीडरशिप द्वारा किया गया था। कश्मीर की आवाम को जागरूक और संवेदनशीलमाना जाता रहा था जो बेहतरीन मेहमाननवाज़ी के लिए जानी जाती रही थी। अब उसी अवाम की तहज़ीब और डेमोग्राफी केवल 40 हेक्टर ज़मीन से ख़तरे में पड़ गई, यह सुनकर हर किसी को दुख और हैरानी हुई। यह कश्मीरियों के आतिथ्य का असर रहा था कि सदियों से लोग ख़ूबसूरत पहाड़ों और झीलों का आनंद लेने धरती के इस स्वर्ग पर आते थे।
सारे कश्मीरी नेता प्रस्तावित अस्थाई शेल्टर से डर गए थे। सेल्फ़रूल का राग आलापने वाले मुफ़्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी मेहबूबा मुफ़्ती को भी यह डर आतंकित कर गया। इतना ही नहीं ग्रेटर आटोनॉमी पर ज़ोर देने वाले फ़ारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला को भी कश्मीर की डेमोग्राफी और संस्कृति के नष्ट होने का डर सताने लगा था। उन्हें लगा कि अस्थाई शेल्टर बन गए तो कश्मीरी कल्चर के पतन की शुरुआत हो सकती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कश्मीरी लीडरशिप और वहां की आवाम हिंदुओं या गैर-मुसलमानों के लिए कितनी उदार और सहिष्णु है।
जम्मू-कश्मीर ही नहीं देश का एक बड़ा तबक़ा यह तो मानता है कि कश्मीरी पंडितों और ग़ैर-मुसलमानों के साथ ग़लत हुआ साथ में यह भी कहते है कि कश्मीर घाटी में रहने वाले सभी मुसलमान कश्मीरी पंडितों या हिंदुओं के विरोधी नहीं हैं, बल्कि कुछ लोग तो यह भी दावा करते हैं कि घाटी के ज़्यादातर मुसलमान उदार और सहिष्णु हैं। अमरनाथ ज़मीन हस्तांतरण विवाद क्या वाक़ई हिमालय की ख़ूबसूरत वादियों में रहने वाले मुसलमानों की हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति उदारता और सहिष्णुता की झलक देता है?
इसे भी पढ़ें – धरती के स्वर्ग के नरक बनने की कहानी
Share this content: