धरती के स्वर्ग के नरक बनने की कहानी

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कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की जांच आयोग से कराने की जरूरत

हरिगोविंद विश्वकर्मा
बर्फ़ से आच्छादित गगनचुंबी पहाड़ों से घिरी कश्मीर की वादियों को धरती का स्वर्ग कहा जाता था। हर धर्म और विचारधारा के लोग सदियों से मिल-जुल कर वहां रहते थे। लेकिन जिहाद और काफिर जैसे बर्बर शब्दों को जन्म देने वाले मजहब ने ख़ूबसूरत कश्मीर घाटी को भी ग्रहण लगा दिया। मोहब्बत नफ़रत में तब्दील हो गई। जहां लोग फुर्सत से तफरी करने आते थे, वही जगह गोलियों की आवाज़ गूंजने लगी। दूसरे धर्म के लोगों की हत्याएं की जाने लगी, जो हत्याओं का विरोध करते उनको भी मौत के घाट उतारा जाने लगा। यह सब क्यों हो रहा था, क्योंकि मजहब कहता है कि उस मजबह को न मानने वाले यानी दूसरे धर्म के लोग काफ़िर होते हैं। इसलिए उन्हें ख़त्म करने के लिए जिहाद की ज़रूरत है। जिहाद में जान गंवाने वाले को शहीद कहा जाता है, जिसे शहादत देने के बाद सीधे जन्नत नसीब होता है, वहां उसे मौज करने के लिए 72 हूर मिलती हैं। जन्नत में पुरुष को सौ पुरुषों के बराबर कामशक्ति दी जाती है।

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कोई यह नहीं पूछता कि मरने के बाद तो देह क़ब्र में दफ़न हो गई तो मौज़-मस्ती कैसे करेगा? बिना शरीर के कैसा एन्जॉयमेंट? इस धर्म में तर्क करने या सवाल पूछने की इजाज़त नहीं। बस यही धर्मांधता समस्त मानव सभ्यता के लिए ख़तरा बन गई। दिग्भ्रमित युवक दूसरे धर्म के लोगों का ख़ून बहाकर अल्लाह-हू-अकबर चिल्लाने लगे। मौत पर तांडव करने लगे। कट्टरपंथियों ने कश्मीरी पंडितों के लिए फतवा जारी कर दिया कि या तो धर्म परिवर्तन कर लें या फिर कश्मीर से चले जाएं। जो नहीं जाएंगे, उन्हें मार दिया जाएगा। जो धर्म परिवर्तन नहीं किए और कश्मीर से गए भी नहीं उनकी हत्या होने लगी। 1990 के दशक में कश्मीर घाटी यही हुआ था न। वही अगर किसी फिल्म के ज़रिए दिखा दिया गया तो इसमें बुरा क्या है? फिर इतना हो हल्ला क्यों? दंगों में मुसलमान मारे गए, उन पर भी फिल्में बनी पर उन पर कोई शोर नहीं मचा, फिर ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर ही क्यों?

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‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज होने के बाद 1990 के दशक के दौर में शुरू हुई हिंसा और मारकाट में जान गंवाने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या पर देश भर में बहस छिड़ गई है। शेख अब्दुल्ला परिवार के वारिस और मुख्मंत्री रह चुके उमर अब्दुल्ला समेत कई नेता कह रहे हैं कि उस समय आतंकवादियों ने हज़ारों कश्मीरी पंडित नहीं, बल्कि ‘केवल’ 219 कश्मीरी पंडित की हत्या की थी। दुनिया के इतिहास में संभवतः पहली बार मौत की संख्या से पहले ‘केवल’ लगाया जा रहा है। यह ‘केवल’ इंसान के संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। कोई भी सभ्य इंसान इससे ज़्यादा असंवेदनशील नहीं हो सकता कि वह यह कहे कि ‘केवल’ इतने ही लोग मारे गए या ‘केवल’ इतने ही लोग ज़िंदा जलाए गए। मतलब अगर एक समुदाय के लोगों की हत्याएं हज़ारों की संख्या में नहीं हुई हैं, तो उन्हें महत्व देने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।

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एमआईएम के नेता सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी लोकसभा में बहस के दौरान अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 1990 के दशक में आतंकवाद के पनपने के बाद से ‘केवल’ 219 कश्मीरी पंडितों का ही क़त्ल किया गया और घाटी से पांच लाख नहीं बल्कि ‘केवल’ दो लाख कश्मीरी पंडितों का ही जेनोसाइड हुआ था। कई लोग तो आरटीआई का हवाला देकर यह भी दावा कर रहे हैं कि कश्मीर वैली में मौजूदा आतंकवाद के शिकार कश्मीरी पंडितों से अधिक मुसलमान हुए हैं। इतना ही नहीं यह भी कहा जा रहा है कि पंडितों से अधिक मुसलमान मारे गए और पंडितों से ज़्यादा में मुसलमान कश्मीर से बाहर भागकर गए। क्या इस तरह की तुलना ठीक है, ख़ासकर तब जब घाटी से बाहर गए मुसलमानों के घर अब भी महफ़ूज़ हैं, जबकि कश्मीरी पंडितों के घर या तो जला दिए गए या उन पर पड़ोसियों ने क़ब्ज़ा कर लिया गया।

मान लीजिए आरटीआई की जानकारी सही है और 1990 के बाद कश्मीर में 219 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई और दो लाख कश्मीरी पंडित ही भागकर घाटी से बाहर गए। फिर भी जिस जगह इतने लोग मार दिए गए और इतने लोगों को घर-बार छोड़कर भागना पड़ा, वहां रहने वाले समाज को क्या कहेंगे? क्या उसे सभ्य समाज कहा जा सकता है? या जिस समाज में किसी इंसान की इसलिए गोली मार कर या गला रेत कर हत्या कर दी जाती क्योंकि वह बहुसंख्यक जमात का नहीं है, तो उस समाज की सोच को कोई कैसे जस्टीफाई किया जा सकता है। क्या कम संख्या वाली कौम को घाटी में सम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है? इसीलिए कश्मीरी पंडित अपने पुश्तैनी घरों से भगा दिए गए थे। आख़िर एक इंसान दूसरे के साथ इस हद तक असंवेदनशील और क्रूर कैसे हो सकता है? तो आइए जानते हैं कश्मीर का पूरा इतिहास और धरती के स्वर्ग के नरक बनने की कहानी।

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कोई छह लाख साल पहले इंसान भी जानवरों की तरह ही व्यवहार करता था। तब उसमें संवेदना नाम की चीज़ नहीं थी। लेकिन लाखों साल की यात्रा के दौरान वह सभ्य होता चला गया। वह संवादशील होता चला गया। वह दूसरों के दर्द महसूस करने लगा। बाद में इंसान ने अपने लिए रोटी के साथ साथ कपड़े का प्रबंध किया। पिछले आठ हजार साल से इंसान जंगल में नहीं बल्कि घर में रह रहा है। अभी कुछ सदी पहले ही इंसान ने इंसान के उत्पीड़न या हत्या को अमानवीय करार देते हुए मानवाधिकार जैसा शब्द प्रतिपादित किया। आज भी दुनिया भर के कमोबेश सभी देश मानवाधिकार की पैरवी करते हैं। इस्लामिक ख़ासकर तालिबान और आईएसआईएश के नियंत्रण वाले क्षेत्रों को छोड़ दें तो पूरी दुनिया में मानवाधिकार का सम्मान किया जाता है। इंसान, वह चाहे किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, नस्ल या लिंह का हो, की हत्या को जघन्य माना जाता है।

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आज के दौर का सबसे विकट सवाल यह है कि जब किसी गैर-इस्लामिक देशों में मानवाधिकार हनन की घटनाएं होती हैं तो उनका मुखर विरोध किया जाता है। मानवाधिकार हनन करने वाले की मज़म्मत की जाती है। कुछ लोग तो देश या राज्य को ही कठघरे में खड़ा करने लगते हैं। इससे मानवाधिकार हनन की घटनाएं वैश्विक सुर्खियां बनने लगती हैं। लेकिन जब इस्लाम की भूमि पर गैर-मुस्लिम की हत्या की जाती है या उनका गला रेत दिया जाता है, तब अपने को प्रगतिशील कहने वाला तबक़ा अचानक से मौन हो जाता है। इस्लाम के पैरोकार को कठघरे में देखकर उसके सुर बदल जाते है। अभी कुछ साल पहले रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न पर गला फाड़कर चिल्लाने वाले लोग कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर हमेशा ख़ामोश रहे। यह उनकी सोच पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

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यह बात सौ फ़ीसदी सच है कि जिस दिन जगमोहन मल्होत्रा को जम्मू-कश्मीर को दोबारा राज्यपाल बनाया गया उसी दिन यानी 19 जनवरी 1990 को मस्जिदों से चेतावनी दी गई थी कि या तो कश्मीरी पंडित धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन जाएं या फिर कश्मीर से बाहर चले जाएं अन्यथा उन्हें और उनके परिवार को जान से मार दिया जाएगा। आज भी ज़्यादातर कश्मीरी मुसलमान यही मानते हैं कि कश्मीरी पंडितों का पलायन जगमोहन ने करवाया था, क्योंकि उनका प्लान कश्मीरी पंडितों को सुरक्षित बाहर निकालकर कश्मीर में बड़ी सैन्य कार्रवाई करने का था। हालांकि अपनी आत्मकथा ‘माई फ्रोजेन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में जगमोहन ने इसे अफवाह क़रार देकर इस आरोप को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है।

मुसलमानों की धमकी के बाद 1990 में अचानक कश्मीर से जान बचाकर जम्मू पहुंचने पर कश्मीरी पंडितों को शरणार्थी कैंप में घर दिया गया। जनवरी और फरवरी तक तो ठीक रहा, लेकिन इसके बाद जम्मू की प्रचंड गर्मी उनके लिए एकदम से असहनीय हो गई। कश्मीरी पंडित गर्मियों के मौसम में बीमार हो गए, क्योंकि कश्मीर में वे सदियों से ठंडे मौसम में रह रहे थे और अचानक से शून्य डिग्री तापमान से जम्मू में 45 डिग्री के ऊपर तापमान में रहना उनके लिए भट्ठी में रहने जैसा हो गया था। पिछले 32 साल से कश्मीरी पंडित जम्मू के शरणार्थी कैंप में इसी तरह से बीमारी की हालत में रह रहे हैं। यदा-कदा मीडिया में ख़बर आ जाने के बाद लोग उनकी खोज-ख़बर लेते हैं फिर भूल जाते है।

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1990 के दशक के बाद जम्मू-कश्मीर में जो कुछ हो रहा है, उसे केवल कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कह कर दरकिनार नहीं किया जा सकता है। इस तरह की घटनाएं हर उस जगह हो रही हैं, जहां इस्लाम को मानने वाले बहुमत में हैं। दरअसल, इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित दुनिया अब शिद्दत से मानने लगी है कि जिदाह और काफ़िर जैसी शब्दावली पर अमल करने के कारण इस्लाम एक समस्या बनता जा रहा है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपने को उदार कहने वाले इस्लामिक बुद्धिजीवी हमेशा इस्लामिक कट्टरपंथी की बजाय भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कठघरे में खड़ा करते रहते है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि जब बात तालिबान या आईएसआईएस के जुल्म की होती है तो वे अचानक से ख़ामोश हो जाते है।

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कश्मीर दुनिया की इकलौती जगह है जिसका शुरू से अब तक लिखित इतिहास मौजूद है। इस्लाम के आगमन से पहले कश्मीर का दायरा मीरपुर, मुज़फ़्फ़राबाद, गिलगित-बाल्टिस्तान, अक्साई और क़ाराक़ोरम दर्रे तक फैला हुआ था और 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी हिंदू और 9 फ़ीसदी बौदध थी। यहां के इतिहास में 1320 में अहम मोड़ आया। बौध तिब्बती रिंचन सदर-उद-दीन के नाम से पहला मुस्लिम शासक बना। रिंचन हिंदू बनना चाहता था, लेकिन बौद्ध होने के कारण ब्राह्मणों ने कहा कि हिंदू बनाने पर उसे उच्च जाति में शामिल करना पड़ेगा, जो संभव नहीं था। हिंदुओं द्वारा ठुकराए जाने के बाद रिंचन सूफ़ी संत बुलबुल शाह की शरण में गया और इस्लाम क़बूल कर लिया। उसके सुल्तान बनने के बाद लोग बड़ी तेज़ी से इस्लाम को अपनाने लगे।

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कश्मीर में इस्लामीकरण की शुरुआत 1379 में कुतुबुद्दीन के शासनकाल में फ़ारसी संत सैयद अली हमदानी के अपने 600 शागिर्दों शिष्यों के साथ कश्मीर आने के बाद से मानी जाती है। कर्मकांडी प्रपंचों से त्रस्त ग़ैर-सवर्ण हिंदू समाज के लिए जाति-पांति का भेद न करने वाला इस्लाम मुक्तिदाता की तरह भी था। इस्लाम ने सदियों पुराने ब्राह्मणवाली समाज के विभाजनकारी सामाजिक ढांचों को ध्वस्त कर दिया। 14वी सदी में रिंचन के समय कश्मीर की 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी हिंदू थी, लेकिन 19वीं सदी में जब दीवानचंद मिश्र शासक बने, तो 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम हो चुकी थी। 2011 की जनगणना के अनुसार कश्मीर घाटी में इस समय दस जिलों में मुस्लिम आबाद 97 फीसदी से अधिक है। जबकि हिंदुओं की आबादी दो फ़ीसदी से कम हो गई है। अगर इसमें सिखों और बौद्ध अनुयायियों को जोड़ दें तब भी बमुश्किल तीन फ़ीसदी होती है।

कहने का मतलब महज लगभग सात सौ साल में ही कश्मीर घाटी की डेमोग्राफी उलट गई। हिंदू शासकों ने तो मुस्लिमों का शोषण नहीं किया लेकिन मुस्लिम सुल्तानों ने हिंदुओं का घोर उत्पीड़न किया। हिंदुओं के उत्पीड़न का सिलसिला अंग्रेज़ों के शासन में थम गया था। आजादी मिलने और 26 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के भारत का हिस्सा बनने के बाद भी घाटी में हिंदू आबादी ने खुद को कभी असुरक्षित महसूस नहीं किया। लेकिन 1987 के विधान सभा चुनाव के बाद, खासकर जनरल जिया-उल-हक के ऑपरेशन टोपैक ऑपरेशन टोपैक के बाद हिंदुओं पर हमले की ख़बरें आने लगी थीं। आतंकवाद की ज़मीन यहां उसी साल यार की जाने लगी।

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ग्लोबल टेररिस्ट सैयद सलाउद्दीन उर्फ मोहम्मद यूसुफ शाह ने 1987 में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के टिकट पर श्रीनगर के आमिर कडल विधान सभा से चुनाव लड़ा था, लेकिन कहा जाता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के ग़ुलाम महिउद्दीन शाह को विधान सभा में भेजने के लिए धांधली की गई। हारने के बाद सलाउद्दीन मुज़फ़्फ़राबाद चला गया। आज़ादी और जिहाद के नारे पर 1989 में उसने हिज़बुल मुजाहिद्दीन की स्थापना की। पुलिस इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल भट को फांसी की सज़ा सुनाने वाले जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस नीलकंठ गंजू की हरिसिंह स्ट्रीट मार्केट में यासिन मलिक के निर्देश पर तीन आतंकियों ने गोली मारकर हत्या कर दी 1989 में राजीव गांधी की भारी पराजय के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सत्ता संभालने के बाद अलगाववादी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद को गृहमंत्री बना दिया।

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आठ दिसंबर 1989 की शाम गृहमंत्री की बेटी रूबिया सईद के अपहरण की ख़बर आ गई। रूबिया अपनी पूरी ड्यूटी होने के बाद घर के लिए निकली, लेकिन उसे उसे अगवा कर लिया गया। घटना के दो घंटे बाद ही जेकेएलएफ के जावेद मीर ने कश्मीर टाइम्स और द ग्रेटर कश्मीर को फोन करके गृहमंत्री की बेटी के अपहरण की जिम्मेदारी ली। रूबिया के अपहरण की खबर आते ही कोहराम मच गया। केंद्र सरकार ने रूबिया को मुक्त करने बदले में पांच-पांच दुर्दांत आतंकवादी छोड़ दिए। उसके बाद घाटी में जो खूर-खराबा शुरू हुआ वह आज तक जारी है। आज कश्मीर में मुसलमानों की आबादी 98 फ़ीसदी हो गई है, जबकि हिंदू, सिख और बौध केवल दो फीसदी रह गए हैं।

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आतंकवाद से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग में 1990 में अपना घर-बार छोड़कर जम्मू पलायन करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रभु राज़दान कहते हैं, “किसी समस्या को बताने में फिल्मों का किरदार वाक़ई बड़ा अहम होता है। कश्मीरी पंडित पिछले 32 साल से इस्लामिक आतंकवाद के शिकार रहे हैं। घाटी में अपना घर और अपनी संपत्ति छोड़कर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। हम लोग इस्लामिक आतंकवाद रूपी महादानवी ख़तरे के बारे में दुनिया को आगाह कर रहे थे, अपनी पीड़ा बताने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन हमारी बात किसी ने नहीं सुनी। धन्यवाद ‘द कश्मीर फाइल्स’ कि उसने उस रक्त-रंजित हिंसा और पलायन का एक छोटा सा हिस्सा दिखाने की हिमाकत तो की है।”

अनंतनाग के ही पहलगाम के चीरहमदान गांव के रहने वाले संजय कौल बताते हैं कि उनके गांव में 50 घर कश्मीरी पंडितों के थे। कश्मीर खाली करने का फतवा जारी होने पर सभी हिंदुओं को भागकर जम्मू आना पड़ा। यह उनका परिवार भी शरणार्थी कैंप में रह रहा है। हालांकि वह इस पलायन के लिए केवल मुसलमानों को ज़िम्मेदार नहीं मानते, क्योंकि उनका कहना है कि गांव से निकल कर भागने में मुसलमानों ने पंडितों की मदद की। हालांकि संजय कौल इस बात का स्पष्ट जवाब नहीं दे सके कि अगर उनके गांव के मुसलमान उदार थे, तो सभी हिंदुओं को भागने की ज़रूरत क्यों पड़ी? संजय कौल कहते हैं कि 1990 तक कश्मीर में 3.5 लाख कश्मीरी पंडित थे, अब मुश्किल से एक हजार से कुछ अधिक होंगे।

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वस्तुतः द कश्मीर फाइल्स 1989-90 में इस्लामिक आतंकवाद के उभार के बाद श्रीनगर और घाटी के अन्य हिस्से में कश्मीरी पंडितों द्वारा सहे गए क्रूर कष्टों की सच्ची कहानी बताती है। यह सच्ची कहानी है, जो कश्मीरी पंडित समुदाय के नरसंहार के पीड़ितों के वीडियो साक्षात्कार पर आधारित है। फिल्म बर्फ़ पर खेले गए एक क्रिकेट मैच से शुरू होती है। जहां सचिन तेंदुलकर का समर्थन करने पर आतंकवादी कश्मीरी बच्चे पर हमला कर देते हैं। अंत में आतंकी सेना की वर्दी पहन कर लोगों को बचाने का झांसा देकर लाइन में खड़ा करके गोली मार देते हैं। यह फिल्म बताती है कि धार्मिक नारा देते हुए आतंकवादी किस तरह से कश्मीरी हिंदू को कैसे टॉर्चर करते हैं।

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ईमानदारी से कहा जाए तो बॉलीवुड की फिल्में शुरू से ही एक ख़ास विचारधारा से प्रेरित होकर बनाई जाती रही हैं। ऐसी विचारधारा आतंकवाद को इस्लामिक आतंकवाद कहने से परहेज़ ही नहीं करती है, बल्कि उसका पुरज़ोर विरोध भी करती है। सौ फ़ीसदी आतंकवादियों मुसलमान होने के बावजूद यह विचारधारा कहती रही है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है। यह एक तरह से सच को सिरे से ख़ारिज़ करने की कोशिश भी है। चूंकि फिल्म इंडस्ट्री में इसी विचारधारा का वर्चस्व रहा है। इसी विचारधारा के पैरोकारों की तूती बोलती है। इसलिए यही बॉलीवुड की विचारधार बन गई है। इसलिए फिल्मकार जो भी परोसते हैं, दर्शक उसे इच्छा या अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं।

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वैसे कश्मीर पर फिल्म बनाते समय फिल्मकार इस ग्रंथि के भी शिकार हो जाते हैं कि फिल्म कश्मीरी मुसलमानों की छवि ख़राब करने वाली बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। यह ग्रंथि हर फिल्मकार भटका देती है। वह असली समस्या से दूर चला जाता है। कश्मीरी पंडितों के दर्द को तो दिखाता है लेकिन साथ में यह भी बताने लगता है कि इस डर की वजह बहुसंख्यक कश्मीरी मुसलमान नहीं है। फिल्मकार यह नहीं बताते कि जब कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम हो रहा था तब उदार मुसलमान कहां थे, अगर मौन थे तो वे तो हत्यारों से भी ज़्यादा ख़तरनाक थे। यह सब दिखाने की बजाय फिल्मकार इस्लामिक आतंकवाद को जस्टीफाई करने की कोशिश करता है। यही वजह है कि इनमें से कई फिल्में अच्छी कमाई करने का बावजूद लोगों की उम्मीदों पर बिल्कुल भी खरी नहीं उतरतीं।

वैसे कश्मीर समस्या पर अब तक कुल 15 फिल्में बनी हैं, लेकिन रोज़ा और मिशन कश्मीर को छोड़कर बाकी सभी फ्लॉप रही है। यहां तक कि श्रीनगर पैदा होने और पलने-बढ़ने वाले फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकारा भी कहीं न कहीं उसी विचारधारा से प्रेरित लगी थी। ‘द कश्मीर फाइल्स’ बॉलीवुड की खाटी परंपरा के विपरीत बनी फिल्म लग रही है। विवेक अग्नहोत्री और पल्लवी जोशी की यह फिल्म 1989-90 के बाद कश्मीरी पंडितों के कत्लेआम की झांकी पेश करती है। यही वजह है कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बड़े बजट की फिल्मों को मात दे रही है।

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यह भी सच है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ सिर्फ फिल्म नहीं है, बल्कि यह एक पूरी पीढ़ी का या यूं कहें कि देश का गिल्ट है। नई पीढ़ी फिल्म देखकर अचानक झटके से नींद से जाग गई है। पिछले 32 साल के दौरान नई पीढ़ी ने सरसरी तौर पर सुना था कि तब कश्मीरी पंडितों को कट्टरपंथियों ने उनके घरों से भगा दिया था लेकिन उससे ज़्यादा उन्हें कुछ पता नहीं था। और आज जब इस फिल्म ने पुरानी उस त्रासदी एक-एक रेशा उधाड़कर रख दिया है तो पूरा देश आत्मग्लानि और सदमें में चला गया है। साहित्य ही नहीं बल्कि फिल्म भी समाज का दर्पण होता था। फिल्म के बारे में यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। बशर्ते फिल्म ईमानदारी से बनाई जाए, कथा-तथ्यों एवं घटनाओं पर लीपा-पोती न की जाए और यह फिल्म 1990 के दशक के दर्पण की तरह है।

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प्रभु राजदान आगे कहते हैं, पिछले 32 साल से हम लोगों ने जा कुछ सहा है यह फिल्म उसका बहुत संक्षिप्त कहानी प्रस्तुत करती है। यह फिल्म बताती है कि मीडिया का अर्बन नक्सली तबका देश के लिए अदृश्य दुश्मन आतंकवादी सरगनाओं से भी ख़तरनाक है। केंद्र की अगुआई में भारत सरकार इसी अर्बन नक्सली तबके को करोड़ों रुपए के विज्ञापन देती रही है। हैरानी इस बात है कि फिल्म देखने के बाद हमारा दर्द समझने के बजाए इन लोगों की चिंता यह है कि इससे इस्लामोफोबिया बढ़ेगा। यह सोच बहुत ख़तरनाक है।

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वह आगे कहते हैं, इस धरती पर कुल 56 मुस्लिम देश हैं। केवल भारत और नेपाल ऐसे दो देश हैं, जहां हिंदू बहुमत में हैं। लेकिन ये लोग नहीं चाहते कि यहां भी हिंदुओं का बहुमत रहे। यह सोच कश्मीरी पंडितों या हिंदुओं के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण दुनिया के लिए ख़तरे की घंटी है। प्रभु राजदान ने कहा है कि नरेंद्र मोदी सरकार आठ साल से सत्ता में है, हम शुरू से मांग करते रहे हैं कि कश्मीर में नरसंहार की जांच के लिए एक जांच आयोग का गठन किया जाए, ताकि ज़िम्मेदार लोगों की शिनाख्त करके उहें दंडित किया जाए। इससे दूध का दूध और पानी का पानी और कश्मीरी पंडितों को न्याय मिल सकेगा।

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