‘बिसात पर जुगनू’ उपन्यास पर बीएचयू में परिचर्चा 17 मई को

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संवाददाता
वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के हिंदी विभाग का शोध समवाय बृहस्पतिवार 17 मई को लेखक से मुलाक़ात और कृति परिचर्चा के तहत वंदना राग कृत उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ कार्यक्रम का आयोजन करने जा रहा है। कार्यक्रम की शुरुआत 12 बजे से की जाएगी। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. सदानंद शाही करेंगे और स्वागत वक्तव्य प्रो. नीरज खरे का होगा। कार्यक्रम का संचालन प्रवीण कुमार गौतम करेंगे और धन्यवाद ज्ञापन आकांक्षा मिश्रा करेंगी। कार्यक्रम के संयोजक डॉ. विवेक सिंह और डॉ. प्रियंका सोनकर हैं। इस कार्यक्रम को लेकर छात्र और प्रोफेसर सब उत्साहित हैं।

कार्यक्रम की संयोजक सहायक प्रोफेसर डॉ. प्रियंका सोनकर कहती हैं कि कोई भी जन आंदोलन अथवा सामाजिक बदलाव की कोई भी लड़ाई स्त्रियों की भागीदारी के बिना आगे नहीं बढ़ सकता है। स्त्रियाँ हर जन आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही हैं। लेकिन इतिहास ने आधी आबादी के साथ हमेशा पक्षपात किया और उनकी भूमिका को उनके योगदान के अनुसार सही ढंग से दर्ज करने का काम नहीं किया। स्वतंत्रता आंदोलन का ही उदाहरण लें तो उसमें भी स्त्रियों की भागीदारी पुरुषों से कम नहीं थी, लेकिन यहाँ भी इतिहास ने उनके साथ न्याय नहीं किया। सबाल्टर्न धारा ने हाशिए के लोगों के समाज-विकास में योगदान को दर्ज करने की कोशिश ज़रूर की है, लेकिन यह कोशिश उल्लेखनीय नहीं मानी जाएगी।

लेखिका वंदना राग के उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ की चर्चा करते हुए डॉ. प्रियंका सोनकर ने कहा कि इस उपन्यास की विषयवस्तु औपनिवेशिककालीन भारत है। जब पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, तब देश की आधी आबादी किस तरह से घर-परिवार संभालते हुए उस संघर्ष में अपना योगदान दे रही थी। यह उपन्यास इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इसमें महिलाओं की भूमिका को बड़े रचनात्मक तरीक़े से उपन्यास में दर्ज किया गया है। उपन्यास में चीन का भी जिक्र आया है और आदिवासियों के प्रतिरोध को भी दर्ज़ किया गया है।

डॉ. प्रियंका सोनकर कहती हैं कि यह उपन्यास कई स्तरों पर एक साथ चलता हुआ पाठकों को बड़े फलक की ओर ले जाता है। उपन्यास में 1857 की क्रांति की भी चर्चा है। वीर कुंवर सिंह से लेकर बहादुरशाह जफर तक का भी जिक्र है। लक्ष्मीबाई और सावित्री बाई फुले के साथ-साथ हजरत महल की भी चर्चा है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के इस उपन्यास के बाकी सभी क़िरदार यूँ तो लेखिका की कल्पना की उपज हैं, लेकिन यह कल्पना भी बहुत सशक्त और अपील करने वाली है। इसके पात्र अपनी बुनावट में इतने मज़बूत कि वे इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का हिस्सा बन जाते हैं। फिरंगियों की व्यापार नीति का दबाव झेल रहे पात्र चाहे चीन के हों या भारत के, सभी उस वक्त की त्रासदी से जूझते दिखते हैं। अपने-अपने देश के लिए उनकी चिंताएँ दिखती हैं।

डॉ. प्रियंका सोनकर ने कहा कि ‘बिसात पर जुगनू’ उपन्यास में कई जुगनू हैं। सबके अपने-अपने संघर्ष और अपनी-अपनी चिंताएं हैं। इस नज़रिए से अगर देखें तो उस दौर का चीन हो अथवा भारत, दोनों ही जगहों के चरित्रों के व्यक्तित्व की बुनावट, उसकी कसावट और समाज का तानाबाना एक-सी नज़र आएगा। उपन्यास में चांदपुर रियासत के बड़े राजा और उनके बेटे सुमेर सिंह की कहानी है। बड़े राजा की चिंता का एक सिरा अंग्रेज़ों से जुड़ा है जो भारत में कारोबार करने आए हैं और रियासतें हड़प रहे हैं। चिंता के दूसरे छोर पर बेटा सुमेर सिंह है जो अपनी कल्पनाओं की दुनिया में मस्त है। उसके बर्ताव में राजाओं वाला कोई लक्षण नहीं दिखता। भोले और मासूम सुमेर सिंह का अपना संघर्ष है जो वह अपने मन के मीतों से बाँटता चलता है।

डॉ. प्रियंका सोनकर ने बताया कि वस्तुतः ‘बिसात पर जुगनू’ में लेखिका ने चीनी जनजीवन का कठिन संघर्ष भी दर्ज किया है। उपन्यास के महिला चरित्रों की चर्चा करते हुए डॉ. प्रियंका ने कहा कि इसमें चीन की ली-ना का भी संघर्ष दिखता है। तो दो चीनी बहनों का भी संघर्ष दिखता है। उपन्यास में खुदीजा बेगम भी संघर्ष करती दिखती हैं। उनका दुस्साहस याद रखने लायक है जो अपनी कला के प्रति इतनी समर्पित हैं कि मुसव्विरखाने में पहचान छुपा कर आती-रहती हैं। उपन्यास में प्रेम की वह महीन धारा भी बहती मिलती है। उन्होंने कहा कि इसी प्रेम का प्रत्यक्षीकरण शंकर लाल और खुदीजा बेगम के बेटे समर्थ लाल हैं। समर्थ लाल के पैदा होने को खुदीजा बेगम के संघर्ष के तौर पर भी रेखांकित किया गया है। बाद के हिस्सों में दो देशों की सीमाओं की बंदिशों को लांघते हुए समर्थ लाल और ली-ना का तालमेल भी देखा जा सकता है। समर्थ लाल चीन से पटना आई ली-ना के शोध-निदेशक भी हैं। ली-ना भारत में अंग्रेज़ों के अत्याचार से लड़ते देखकर सोचती है कि दोनों मुल्कों के दुखों की दास्तान एक-सी है और दोनों ज़मीनों पर संघर्ष में कूद पड़नेवाली स्त्रियों की गुमनामी भी एक सी है। ऐसी कई गुमनाम स्त्रियाँ इस उपन्यास का मेरुदंड है।

‘बिसात पर जुगनू’ उपन्यास में ऐसा बहुत कुछ है, जिसे जानना भविष्य के कार्यभारों को समझने और पूरा करने के लिए बहुत ज़रूरी है। मेहनतकश दलित स्त्री की ज़मीन पर खड़े होकर देश के मेहनतकशों की मुक्ति के बारे में हमें सोचना है और इस दिशा में लेखिका ने उपन्यास के माध्यम से सराहनीय प्रयास किया है। डॉ. प्रियंका सोनकर ने बताया कि गहरे शोध और एतिहासिक अंतर्दृष्टि से भरी इस कथा में इतिहास के कई विलुप्त अध्याय और उनके वाहक चरित्र जीवंत हुए हैं। ‘बिसात पर जुगनू’ कालक्रम से घटना-दर-घटना बयान करनेवाला सीधा-सादा उपन्यास नहीं है। यहाँ आख्यान समय में आगे-पीछे पेंगें मारता है और पाठक से, अक्सर ओझल होते किंवा प्रतीत होते कथा-सूत्र के प्रति अतिरिक्त सजगता की मांग करता है।

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