हरिगोविंद विश्वकर्मा
ये कैसी नज़र से देख रही थी तुम मुझे। इस तरह की नज़र तो तुमने कभी मुझ पर डाली ही नहीं। ये आज तुम्हें हो क्या गया है? ये अल्फ़ाज़ मेरे मुंह से निकलने के लिए तड़प रहे थे। लेकिन मैंने ही उन्हें निकलने नहीं दिया। चुप ही रहा। यदा-कदा तुम्हें निहारता हुआ। तुम्हारी नज़र से टकराता हुआ और कुछ-कुछ घायल होता हुआ। मेरी तरफ़ तुम उसी तरह देख रही थी। एकदम नज़र गड़ाकर। जैसे अंतिम बार देख रही हो। जैसे हम फिर भविष्य में कभी न मिलने वाले हों। हो सकता है ये सच भी हो। तुम बाहर जा रही थी और मैं इसी शहर में रहने वाला था। फिर जीवन का क्या भरोसा। कब क्या हो जाए, कौन मौत के मुंह में समा जाए। तुम्हारा इस तरह देखना मुझे अटपटा लग रहा था। फिर वर्षा सामने खड़ी थी, तुम्हारे पास। मैं इधर-उधर देखने लगा फ्लेटफ़ार्म पर।
वहां ज़्यादा भीड़ नहीं थी। इक्का-दुक्का लोग इधर-उधर भाग रहे थे। कई लोग रिज़र्वेशन चार्ट पर नज़रें गड़ाए थे। मैं बहुत लंबे समय तक उलझा रहा तुम्हारे कैरेक्टर को लेकर। मेरे जीवन में दोस्त के रूप में आने वाली लड़कियों में तुम सबसे अजीब थी। सचमुच अजीब-सा व्यक्तित्व था तुम्हारा। मैं क्या हर आदमी तुम्हें लेकर ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाता था। मैं तुम्हें जितना समझने की कोशिश करता उतना ही उलझता जाता था। तुम कुचर्चित भी तो बहुत थी इस शहर में। कह लीजिए, एकदम बदनाम। शहर के साहित्य और पत्रकारिता के फलक पर तुम्हारी उपस्थिति एक बिगड़ी हुई लड़की की तरह थी।
अपने को साहित्यकार-पत्रकार कहने वाले कई लंपट तुम्हे सहज सुलभ मानते थे। इसीलिए तो अख़बारों के दफ़्तरों से लेकर प्रेस क्लब तक, हर जगह तुम्हारी ख़ूब चर्चा ज़रूर होती है। तुमको अपना दोस्त कहने वाले लोग, जिनके साथ तुम कुछ समय पहले थिएटर्स या समुद्र तट पर देखी जाती थी, भी तुम्हारे बारे में फूहड़ बातें करते थे। अब इतना तो तय है कि सबके सब अपनी कुंठा की उलटी करते थे। लेकिन इतना तो तय था, इन चर्चाओं के लिए तुम ख़ुद कुछ कम ज़िम्मेदार नहीं थी। तुम किसी के बारे में बिना जाने ही उसे अपना दोस्त कह देती थी। उसने थोड़ी आत्मीयता जताई नहीं कि तुम उस पर भरोसा करने लगती थी। इतना ही नहीं ऐसे दोस्तों के साथ तुम्हें पिक्चर वगैरह जाने से भी परहेज़ नहीं होता था।
जब हमारा परिचय नहीं हुआ था, मैं उससे पहले से ही जानता था तुम्हें। शहर के अन्य साहित्य प्रेमियों की तरह। एक नामचीन साहित्यिक पत्रिका में फोटो के साथ तुम्हारी एक बहुत ही बोल्ड कविता छपी थी। वैसी कविता लिखने का साहस शायद बहुत ऐडवांस महिला भी न कर सके। बड़ी चर्चा में रही तुम्हारी वह रचना। शायद लोग तुममें कविता वाला कैरेक्टर देखने लगे थे। और, तुमसे मिलने या दोस्ती करने के लिए लालायित रहने लगे। हालांकि मुझे भी वह कविता शिल्प हीं नहीं संवेदना के स्तर पर असाधारण लगी। पर शहर की ही दूसरी साहित्यिक पत्रिका में छपी तुम्हारी वह कविता मुझे ज़्यादा अच्छी और इमोशन उभारने वाली लगी जो तुमने पतझड़ के मौसम पर लिखी थी। सच्ची मैंने उस पत्रिका को आज भी संभालकर रखा है। आज भी पढने पर असर सीधे दिल पर होता है।
इसीलिए अख़बार में साहित्य पेजों के प्रभारी ने जब तुमसे मेरा परिचय करवाया तो मैं उस कविता के लिए तुम्हें बधाई देने से ख़ुद को नहीं रोक पाया। तुमने भी बेतकल्लुफ़ होकर हाथ बढ़ा दिया था जिसका रिस्पॉन्स बड़े संकोच के साथ दिया था मैंने।
– दाढ़ी क्यों बढ़ा रहे हैं? यह तुम्हारा सवाल था। जो तुम्हारी निग़ाहों की तरह धक्का-सा दे गया मुझे और एक बार तो मैं लड़खड़ा गया। हालांकि तुरंत संभल गया।
– आज समय ही नहीं मिला। मैंने सफ़ाई देने की कोशिश की।
– झूठ बोल रहे हैं आप। दो-तीन दिन की लग रही है। मजनूं लग रहे हैं आप। रांझा के दीवाने। अपनी बात ख़त्म होते ही हंस दी थी तुम।
वर्षा भी तुम्हारे साथ हंसने लगी थी।
इस बार मुझे जवाब नहीं सूझा। ख़ामोश ही रहा। तुम उसी तरह मेरी आंखों में ताक रही थी। मैं मुक्त होने का प्रयास कर रहा था। तुम्हारी नज़रों के उस बंधन से।
– किसी से इश्क़ तो नहीं करने लगे… अचानक तुमने छेड़ा था मुझे।
मैं तुम्हें देखने लगा। इस जिज्ञासा के साथ कि तुमने यह क्या कह दिया। तुम कभी ऐसे भी सवाल करोगी, मैंने तो सोचा तक नहीं था। मन में आया कह दूं, कौन करेगा इश्क मुझसे। मैं तो किसी को दोस्त कहने का साहस भी नहीं जुटा पाता। प्यार-मोहब्बत जैसी चीज़ कम से कम मेरे लिए नहीं बनी है। लेकिन मैं बोला कुछ नहीं। चुपचाप खड़ा रहा।
ट्रेन से बुरी तरह अटक गई थी मेरी नज़र।
पहली मुलाकात में ही मैं तुमसे काफी इंप्रेस्ड हुआ था। उसके बाद साहित्यिक गोष्ठियों में यदा-कदा हमारी मुलाकात होती रही। अच्छी जान पहचान हो गई थी। नए अख़बार में तो हमारी इंट्री करीब-करीब एक साथ हुई थी।
दफ़्तर में एक महीने तक हमारे संबंध औपचारिक ही रहे। हालांकि तुम्हारे बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा बनी रही। तुम दफ़्तर में सब लोगों से अच्छी तरह बात करती थी। तुमसे मिलने के लिए तुम्हारे दोस्त अकसर दफ़्तर में आते। कभी-कभी तो तुम दफ़्तर से रात आठ-नौ बजे अपने दोस्तों के साथ ही निकलती थी। तुम मेरा बड़ा सम्मान करती थी। हमारी उम्र में भी सात-आठ साल का फासला तो था ही। मुझे याद है, तुम दफ़्तर में अकसर गुनगुनाती रहती, जो महिलाकर्मियों को अच्छा नहीं लगता था। डेस्क प्रभारी होने के नाते तुम्हारी शिकायत मुझसे की जाती थी। लेकिन मैं तुम्हें कभी गुनगुनाने से मना नहीं कर पाया। बाद में संपादकीय विभाग के कई लोग गुनगुनाने लगे। एक बार तुम्हारी एक सीनियर सहयोगी से तीखी बहस हो गई थी। उसका दिया अनुवाद तुमने नहीं किया था। इस पर वह तुम्हें डांटने लगा। मैं चाहकर भी उसे नहीं रोक पाया। सीनियर होने के बावजूद। डर था कि मुझ पर तुम्हारा पक्ष लेने का आरोप लग जाएगा। हालांकि वह आरोप बाद में लग ही गया। लोग मुझ पर प्रहार करने के लिए तुम्हारे नाम का इस्तेमाल करने लगे। उस सहयोगी के जाने के बाद अचानक तुम मुझ पर बिफ़र पड़ीं।
–आपने कुछ बोला क्यों नहीं?’ तुम्हारा तीर जैसा सवाल था, जो सीधे मेरे ज़िगर में उतर गया। मैं काफी देर तक तिलमिलाता रहा उसकी आक्रामकता से।
बहुत देर बाद मेरे मुंह से निकला था, – सॉरी, पता नहीं मुझे क्या हो गया था… मैं कुछ बोल नहीं पाया… मुझे तुम्हारा बचाव करना चाहिए था…
मैं और ढेर सारी बातें कहना चाहता था, लेकिन होंठ ही नहीं खुले। दोनों कसकर चिपके रहे।
– आ’म सॉरी… मैं आप पर अनायास भड़की… मैं समझती हूं आपकी बेबसी। थोड़ी देर बाद बोली थी तुम।
उस दिन से तुमसे मेरी आत्मीयता बढ़ गई थी। हालांकि काम अधिक होने की वजह से तुमसे ज़्यादा बात नहीं कर पाता था, लेकिन तुम्हारी बातें बड़े गौर से सुनता था मैं। तुम बात भी तो बहुत अच्छी कर लेती थी। अपने अकाट्य तर्कों और इस्तेमाल किए गए रेफरेंसेस के कारण तुम किसी दार्शनिक से कम नहीं लगती। तुम्हारी सोच ज़मीन से जुड़ी हुई और असाधारण लगती थी। उसमें परिपक्वता थी।
– क्या सोचने लगे? तुमने फिर मुझे अतीत से खींचकर वर्तमान में ला दिया।
मैंने तुम्हारी ओर देखा। तुम उसी तरह मुझे देख रही थीं। तुम्हारी नज़र मुझे बुरी तरह जकड़े थी। और मैं उनसे मुक्त होने के लिए छटपटा रहा था। शरीर तो नहीं मेरा मन ज़रूर मुक्त हो गया, तुम्हारी नज़र से। और वह सिर पर पांव रखे अतीत की ओर भागा।
ऐसा नहीं था कि तुम केवल बाहर ही बदनाम थी। घर में भी तो तुम्हें आवारा, बदचलन, चरित्रहीन और न मालूम क्या-क्या कहा जाता था। इसीलिए तो तुम्हें एक दिन घर से निकाल दिया गया। तुम्हीं ने बताया था, बहुत दिन बाद अपनी कहानी। तुम्हारा संगीत, साहित्य, नाटक और कला से असाधारण प्रेम तुम्हारे घर वालों के गले नहीं उतरता था। तुम्हारा कोई फोन आता तो सवालों की झड़ी लगा दी जाती थी। किसका फोन था? क्यों किया फोन? फोन पर क्या बात हुई? फोन करने वाले से क्या रिश्ता है तुम्हारा!
कोई जवाब नहीं दे पाती थी तुम, इस तरह के सवालों का। होंठ सी लेती थी। तुम्हारा भाई जो उम्र में तुमसे केवल दो साल बड़ा था, तुम पर अकसर हाथ उठा देता था। हालांकि कई लड़कियां उसे भी फोन करती थीं। पर वह लड़का था, इसलिए तुम्हारे मम्मी पापा को कोई एतराज़ कैसे होता।
एक दिन तुम्हारी गैर-मौजूदगी में तुम्हारा भाई तुम्हारी निजी डायरी देखने लगा। 20 जनवरी के दिन तुमने जो लिखा था, उसे पढ़कर हज़म नहीं कर पाया वह।
तुम एक गैर-जाति के लड़के से प्रेम करती थी…
उसका सिर चकरा गया। दौड़कर मम्मी को बताया। कट्टर जातिवादी पिता को डायरी दे दिया। उन्होंने भी पढ़ा। सब अचानक सन्नाटे में आ गए। कैसी कलमुहीं पैदा हो गई तुम खानदान में। अब जल्द से जल्द तुम्हारे हाथ पीले कर देने थे। वरना तुम कुल का नाम डुबो दोगी। और एक दिन कुछ मेहमान बुला लिए गए तुम्हें देखने के लिए। तुमने उन लोगों के सामने जाने से इनकार कर दिया। तुम्हारी मां को भी सहसा विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कई तमाचे जड़ दिए तुम्हारे गाल पर। अचानक तुम्हारे पिता रोने लगे। अपनी इज़्ज़त की गुहार लगाने लगे।
तुमने बड़ी आत्मीयता से कहा था –जिसे मैंने कभी देखा नहीं। जिसके स्वभाव की मुझे कोई जानकारी नहीं। उससे शादी के लिए मैं कैसे हां कर दूं?
तुम्हारे घर वालों ने इसका जवाब नहीं दिया। तुम चुपचाप एक प्लेट में पानी और चाय लेकर देखने आए लोगों के पास चली गईं। दो चार सवाल पूछे थे उन लोगों ने तुमसे। अपनी बातों से ठेठ गंवार लगे थे वे लोग। उन लोगों के जाते ही तुमने कह दिया था, – मैं ऐसे घर में जीवन नहीं गुज़ार पाऊंगी मां। मैं ऐसे पुरुष से शादी करना चाहती हूं जो मुझे जानता हो। मेरे स्वभाव से परिचित हो। मैं उसे जानती होऊं।
जवाब में फिर तुम्हारी मां ने जोरदार थप्पड़ जड़ दिया तुम्हें। भाई के थप्पड़ से तुम्हारा चश्मा गिर पड़ा। तुम्हारे पिता ने अपना निष्कर्ष सुना दिया, – तुम्हें इस घर से वास्ता रखना हो तो वहीं शादी करनी पड़ेगी। अच्छा घरबार है। खाते-कमाते लोग हैं। तुम उन लोगों को पसंद हो। हां, अगर तुम वहां शादी नहीं करोगी तो इस घर में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं।
तुम वहां शादी के लिए तैयार नहीं हुई और घर से निकाल दी गई शाम को सूर्यास्त होने के बाद। तुम्हारा पर्स तुम्हारा सारा सामान, यहां तक कि सभी कपड़े और सैंडिल सब जब्त कर लिए गए। तुम नंगे पांव घर से बाहर थी। सड़क पर आकर तुम सोचने लगी, – कहां जाऊं मैं। इस शहर में तो कोई मुझे जानता तक नहीं।
तुम बस स्टॉप पर खड़ी होकर फूट-फूट कर रोने लगी। आठ बज गए रोते-रोते लेकिन कोई समाधान नज़र नहीं आया।
सहसा तुम्हें अन्नू का ख़याल आया जो होस्टल में रहती थी। लेकिन वह तो बहुत दूर थी। कैसे जाओगी तुम वहां तक। तुम्हारे पास तो फूटी कौड़ी तक नहीं थी। फिर भी तुम होस्टल जाने वाली बस में सवार हो गईं। बिना टिकट के होस्टल के पास वाले स्टॉप उतर गई।
हॉस्टल में अन्नू के कमरे सामने पहुंच कर बेल दबा दी। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला। सामने अन्नू थी।
पर तुम्हें अस्त-व्यस्त देखकर वह घबरा गई। तुम्हारे पांव में चप्पल भी नहीं थी। हफ़्ते भर तुम उसी के पास रही। घर वालों ने कोई खोज-ख़बर नहीं ली। तुम्हारे अंदर अपने पांव पर खड़े होने की इच्छा जाग उठी। उसी समय तुम्हें एक नए साप्ताहिक अख़बार में नौकरी मिल गई। अंग्रेज़ी तो तुम्हारी अच्छी थी ही, तुम अनुवाद भी अच्छा कर लेती थी। बस क्या था, नौकरी चलने लगी लेकिन वेतन बहुत कम था। महीने भर तुम खाना ठीक से नहीं खा पायी। दो-दो दिन वड़ा-पाव पर काटे। अन्नू के कपड़े पहनकर तुम दफ़्तर जाती थी।
पहला वेतन मिलने पर कितना ख़ुश हुई थी तुम। रहने के लिए पेईंग गेस्ट की तौर पर एक जगह मिल गई। और अगले महीने तुम मेरे साथ आ गई नए अख़बार में।
– बस सोचने के लिए स्टेशन आए हैं आप। तुमने फिर मुझे अतीत से खींच लिया।
वर्षा हंसने लगी थी। मैं झेंप गया।
हम लोग कोच के अंदर आ गए। तुम मेरे सामने बैठ गईं और मुझे देखने लगी। तुम वर्षा से बातें भी कर रही थी।
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तुम मुझे एक तितली की तरह लग रही थी। एक उड़ती हुई तितली। फूलों को तलाशती हुई तितली। एक फूल से दूसरे फूल तक भटकती हुई तितली। तुम फूलों से रस नहीं चूसना चाहती थी। तुम तो दोस्ती करने वाली तितली थी। तुम यह उम्मीद करती थी कि हर फूल तुमसे उतना ही वास्ता रखे जितना तुम चाहो। यानी केवल दोस्त बना रहे। वह तुमसे यह अपेक्षा न पाले कि तुम केवल उसी पर बैठो। उसका रस चूसो, अपना रस दो। तुम्हें फूलों की ये अपेक्षाएं अच्छी नहीं लगती थी। दरअसल, तुम फूल को फूल भी नहीं समझती थी। पता नहीं क्या समझती थी। इसीलिए फूलों के नैसर्गिक हाव भाव से नाराज़ हो जाती थी। तुम दोस्ती तोड़ देती थी। फूल तुम्हारी दोस्ती खोते ही हिंसक हो उठता था, क्योंकि फूल तो आख़िर फूल ही होता है। वह खिलता है मुरझा जाता है। मुरझाने से पहले दुनिया का रस ले लेना चाहता है।
तुम अपने दोस्तों की चर्चा मुझसे अक्सर करती थी। दफ़्तर में पहुंचते ही सूचना देती थी कि आज तुम्हें एक नया दोस्त मिला। फिर मैं अक्सर सुनता वह दोस्त बहुत अच्छे स्वभाव का है। उसने बहुत अध्ययन किया है। उसकी अपनी अलग सोच है। अपना अलग दर्शन है। तुमने उसके साथ पिक्चर देखी। जुहू बीच पर गईं। तुम घंटों उससे फोन पर उलझी रहती। लेकिन जब मैं तुम्हारे दोस्त को दफ़्तर में देखता तो उसकी पर्सनॉलिटी कल्ट समाप्त हो जाती। वह मुझे बड़ा सामान्य लगता। तुम्हारे कई दोस्त तो मुझे मानसिक तौर पर बीमार लगे। एकदम चीप। लड़कियों का सानिध्य पाने के प्यासे। मुझे पहली नज़र में लग जाता कि उससे तुम्हारी दोस्ती ज़्यादा लंबी नहीं चलेगी। फिर किसी दिन मैं अचानक तुम्हें गहरे तनाव में देखता। और समझ जाता कि तुम्हारा कोई क्लोज्ड फ्रेंड अपने असली रूप में आ गया होगा। तब तुम शुरू हो जाती, उसकी बुराई करने लग जाती थी। और उसे दुनिया का सबसे घटिया और ख़ुदगर्ज़ पुरूष के ख़िताब से नवाज़ देती। मुझे तुम्हारे निष्कर्ष से कतई हैरानी नहीं होती थी, क्योंकि इन सबको अवश्यंभावी मानकर चलता था।
तुम्हारे एक दोस्त से मेरी बहुत अच्छी जान पहचान हो गई थी। वह लड़कियों को देखकर बड़ी भद्दी बातें कहता था। मैं अक्सर सोचता कि तुम इस तरह के लोगों को किस आधार पर अपना दोस्त कहती थीं। और फिर मैं उलझ जाता था।
हां तुम्हारे बॉयफ्रेंड के बारे में मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं थी। मुझे नहीं पता था कि वह कैसा था। बस इतना पता था कि तुम दीवानी हो उसकी। टूटकर चाहती हो उसे। तुमने अपनी डायरियों में उसी का ज़िक्र किया था जिसके कारण तुम्हें घर से निकलना पड़ा। लेकिन तुम उसके लिए घर तो क्या पूरी दुनिया को छोड़ने के लिए तैयार थी। उसका प्यार पाने के लिए पागल हो गईं थी तुम। इसीलिए जब तुमने बताया कि तुम्हारे बॉयफ्रेंड की भी कोई गर्लफ्रेंड है और वह तुम नहीं हो तो बेतहाशा चौंक पड़ा था मैं। तुम्हारे प्रेम में त्रिकोण वाला यह प्रसंग अंदर तक हिला गया मुझे। मैं तो चाहता था तुम जिसे भी चाहती हो उसके साथ घर बसाकर सैटल्ड हो जाओ। तुम्हारी बातों से ही मैंने निष्कर्ष निकाला कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड तुम्हें लेकर सीरियस नहीं है।
मुझे याद है कहीं से एक बहुतचर्चित प्रशंसित प्ले का दो टिकट आ गया था। इतने दिन काम करते हुए मुझे लगा, हम दोस्त हो गए। मैं प्ले के लिए कंपनी चाहता था। हालांकि शहर में कई लड़कियों से मेरी अच्छी दोस्ती थी लेकिन मुझे लगा वह प्ले तुम्हारे साथ देखना अच्छा रहेगा।
– चलो प्ले देखते हैं। मेरे पास दो टिकट हैं। यह सोचने लगा था कि तुम खुश होगी।
– आपके साथ मैं कैसे जा सकती हूं प्ले देखने। आप मेरे उतने क्लोज्ड तो हैं नहीं। ये बातें तुमने बड़ी शालीनता से कही।
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एक झटका सा लगा था मुझे। अचानक अपनी नज़र में बड़ा हल्का हो गया था उस दिन मैं। पछताता रहा देर तक कि यह नादानी कैसे हो गई मुझसे। हालांकि मैंने तुम्हें केवल एक सहयोगी माना। एक दूरी बनाकर रखी थी मैंने। हां, मुझे लगा कि हम दोस्त हो गए हैं और एक अच्छा प्ले तो साथ देख ही सकते हैं। लेकिन मेरा आकलन गलत निकला। मुझे तुम्हारा ना कहना कतई बुरा नहीं लगा। मुझे तो यह बात बुरी लगी कि तुमने सोचा होगा कि मैं ज़बरी तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं। पता नहीं क्यों उस दिन बहुत देर तक एक अज्ञात पीड़ा से छटपटाता रहा मैं।
इसके बाद से मैंने तुमसे एक दूरी बना ली। मैं दूर से ही तुम्हें देखने लगा दुनिया की भीड़ में। इस दौरान मैंने तुम्हारे कई दोस्तों को निर्मम और संवेदनहीन होते देखा। और तुम्हें इस कारण गहरे तनाव में पाया। तुमने अपने दोस्तों के कारण अपना चैन गंवा दिया।
अक्सर तुम अपने दोस्तों के ग़लत व्यवहार के बारे में मुझे बताती। मैं हां हूं के अलावा कुछ नहीं बोलता।
एक दोस्त से तुम्हारा संबंध इतना बिगड़ गया कि तुम उसके ख़िलाफ़ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज़ कराने के लिए तैयार हो गई। मैंने ही तुम्हें समझाया तब तुम मानी।
दरअसल, तुम्हारे अंदर जो लड़की थी वह लड़की जो कविताएं बहुत अच्छी लिखती थी। वे कविताएं हर पढ़ने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती थीं। सीधे दिल पर असर होता था उस लड़की की पंक्तियों का। हां उस लड़की से मुझे हमदर्दी थी। मैं उसे हर संकट में दूर से सहारा देने का प्रयास करता। वह लड़की जो घर और समाज से लड़ती हुई ज़िंदा रहने का प्रयास कर रही थी। उम्दा साहित्य सृजन कर रही थी। उसकी मदद करना बहुत ज़रूरी था। मुझे पता था उस लड़की की जो भी मदद करेगा बदले में कुछ पाने का प्रयास करेगा। इसीलिए हर बार मदद के लिए मैं ही सामने आया, क्योंकि उस लड़की को मुझसे बेहतर और कोई नहीं जानता था। मुझे लगता था कि उसे मुझ जैसे हमदर्द की ज़रूरत है अन्यथा वह संघर्ष में पराजित हो जाएगी। टूट जाएगी। और उसका हारना या टूट जाना साहित्य ही नहीं समाज हित में भी नहीं था। मैं हमेशा यही सोचता रहा कि कैसा श्राप ढो रही है यह लड़की। क्यों इसे बुरे लोग ही मिलते हैं और यह क्यों बुरों लोगों पर ही भरोसा करती है। मैं ऊपर से यही दुआ करता कि श्रापों से मुक्त हो जाए यह लड़की।
जब तुम दफ़्तर में हांफती हुई प्रवेश करती तो बड़ी प्यारी लगती। पता नहीं क्यों मुझे तुमसे गहरी सहानुभूति हो जाती। ढेर सारा प्यार…नहीं-नहीं, प्यार नहीं वात्सल्य कहना ज़्यादा ठीक रहेगा, जैसे माता-पिता या भाई-बहन का प्यार नहीं वात्सल्य होता है। हां, वात्सल्य उमड़ आता था तुम पर। तुमने ही तो बताया था एक दिन कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड शादी नहीं कर सकता तुमसे। पता नहीं तुम लोगों के बीच क्या बात हुई। तुम बड़े तनाव में रही कई दिन तक। अपने आप से लड़ती रही और शायद पराजित होती रही। मुझे लगा तुम जान बूझकर बहुत भारी वस्तु से टकराती जाती हो और खुद लहूलुहान हो जाती हो। उस दिन तुमने पहली बार इस शहर को छोड़ने की बात कही थी।
तुमने ही तो कहा था, – मैं किसी दूसरे शहर में जाना चाहती हूं। एक ऐसे शहर में जहां मुझे कोई न जानता हो। एकदम अजनबी होऊं मैं। दरअसल मुझे लग रहा है अगर यहां और रही तो जीना मुश्किल हो जाएगा मेरा। शायद मौत का आलिंगन कर लूं।
थोड़ी देर बाद तुम फिर बोली थी, – पिछले कई साल से मैं आसमान में उड़ रही थी। बहुत ऊंचाई पर। लेकिन अचानक धरातल पर आ गई हूं। सारी ग़लतफहमियां दूर हो गई हैं। संबंधों की असली परिभाषा मैं जान गई हूं। पुरुष दोस्तों की असली मंशा से वाकिफ़ हो गई हूं। सच में सारे पुरुष एक जैसे होते हैं।
– लोग तो वैसे ही होते हैं प्रकृति ने उन्हें जैसे बनाया है। तुम्हीं आदमी में पता नहीं क्या तलाशती हो। मेरे मुंह से निकल गया था।
तुमने एक सवाल भरी निगाह मुझ पर डाली। पता नहीं क्या सोच रही थी।
– क्या मैं बहुत सुंदर दिखती हूं? अचानक तुम सवाल कर बैठी थीं। एकदम अप्रत्याशित सवाल।
मैं भौंचक रह गया। तुम इस तरह का बेढब सवाल पूछोगी मैंने कभी सोचा भी नहीं। मतलब, मेरे मुंह से कोई शब्द नहीं निकला।
– यही जानना चाहती हूं, मेरे क़रीब आनेवाला हर पुरूष मुझसे प्यार क्यों करने लगता है? आख़िर मुझमें ऐसा क्या है जो हर दोस्त मुझे दिल दे बैठता है। तुम सहसा गंभीर हो गई थी।
हालांकि मैं तुम्हारे इस सवाल का जवाब देना चाहता था फिर मुझे लगा यह तुम्हारा जाती मामला है।
बस चुप हो गया।
मुंबई का अख़बार बंद हुआ तो मुझे दिल्ली में नई नौकरी मिल गई। दिल्ली चला गया मैं और तुम अपने किसी रिश्तेदार के यहां चली गई थी। शायद कोलकाता।
वहां कई साल रहा, लेकिन दिल्ली मुझे अपनी मुंबई जैसी कभी नहीं लगी। इसलिए मेरा मन नहीं लगा वहां। दो चार बार तुमने दिल्ली में फोन किया था मुझे। ऑफिस के लैंडलाइन पर।
उसी दौरान इस शहर में मेरे-तुम्हारे बारे में कोई अप्रिय अफ़वाह फैला दी गई। वह अफवाह उस पत्रकार ने फैलाई थी, जिसे तुमने एक बार दफ़्तर में ही सबके सामने डांटा था। मुझे लगा तुम उस अफ़वाह के लिए कहीं मुझे न ज़िम्मेदार ठहरा दो। लेकिन दिल्ली में ही तुम्हारा फोन आया। तुमने कहा था मेरा आपका क्या संबंध है। उसे हम ही जानते हैं। हमें दुनिया से प्रमाण पत्र नहीं चाहिए।
तुम्हें नहीं पता तुम्हारे फोन से मुझे कितनी राहत हुई थी।
दिल्ली छोड़ने से पहले एक दिन फिर तुम्हारा फोन आया था। तुमने बताया था कि तुम्हें कोई नया दोस्त मिला है। मैंने तुम्हारी बात को गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा तुम्हारा नया दोस्त भी बाक़ी दोस्तों जैसा होगा। यहां आने के बाद तुमने ही बताया कि नए दोस्त से तुम कुछ ज़्यादा ही अटैच्ड हो गई हो। उसे अपने बॉयफ्रेंड का दर्जा दे दिया है। तुम उसके साथ शहर के लव स्पॉट पर जाने लगी थीं। तुम्हारा ज़्यादा समय उसी के साथ गुज़र रहा था। हां तुम उससे शादी करने के लिए उतावली थी। लेकिन सामने से कुछ स्पष्ट जवाब नहीं मिल रहा था। तुम जवाब का इंतज़ार कर रही थीं।
मुझे तुम्हारा यह नया रूप बड़ा अजीब लगा। अब तक मैं यही मानकर चलता था कि औरत अपना पहला प्यार कभी भूल नहीं पाती और तुम अचानक यूनिवर्सिटी के दूसरे लड़के से प्रेम करने लगीं जिसे तुम्हारे अफ़ेयर का पूरा पता था। सचमुच यह बड़ा ही अजीब कैरेक्टर था तुम्हारा। तुमने उसे बता भी दिया था कि पहले लड़के से अब तुम्हारा संबंध पहले जैसा नहीं रहा। तुम अपने नए बॉयफ्रेंड की जी भरकर तारीफ़ करतीं और स्पष्ट फैसला जल्दी से न लेने के लिए कोसती भी उसे।
मैं दूर खड़ा तुममें आए परिवर्तन को पढ़ने का प्रयास कर रहा था। कुछ साल पहले जो उतावलापन तुममें अपने करियर को बनाने को लेकर था, अब वही घर बसाने को लेकर हो गया था। सच्ची तुम ख़ुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थी और यौवन की दहलीज पार करने से पहले एक सुरक्षित पति चाह रही थी। हालांकि यह तुम्हारी इच्छा अनुचित नहीं थी, लेकिन यह तुम्हारे पहले के स्वभाव से अलग ज़रूर थी।
– चलिए आज कोई पिक्चर देखते हैं। तुमने एक दिन अचानक कहा था।
मैं चौंक पड़ा था। सहसा यक़ीन नहीं हुआ कि तुमने मुझसे ही कहा। मैं सकपकाने सा लगा।
– आपसे ही कह रही हूं, चलिए पिक्चर चलते हैं। तुमने दोहराया था।
तुम मेरे साथ पिक्चर जाओगी। मेरी आंखें आश्चर्य से फट सी गईं. मैं वाक्य पूरा नहीं कर पाया।
– हां मैं इसी समय पिक्चर देखना चाहती हूं। मुझे कंपनी दीजिए प्लीज़। तुम ज़ोर देने लगी।
हम लोग थिएटर गए। परंतु टिकट नहीं मिला। रात के सवा नौ बज गए। चलिए जुहू चलते हैं। तुमने कहा।
– लेकिन इतनी रात को जुहू? मैं कुछ असामान्य हो गया।
– तो क्या हुआ। चलिए थोड़ी देर बैठेंगे बालू पर। फिर हो लेंगे वापस।
तुम खाली रिक्शा देखने लगी।
मैं खड़ा था चुपचाप। मन में आया कहूं कि हमारी दोस्ती तुम्हारी इच्छाओं की मोहताज क्यों है?
कुछ साल पहले मैं तुम्हारे साथ प्ले देखना चाहता था लेकिन तुमने मना कर दिया। अब तुम क्यों चाहती हो कि मैं तुम्हारे साथ पिक्चर देखूं या समुद्र के किनारे जाऊं। आख़िर क्यूं। मैं तो वही हूं जो पहले था। खैर मैं चुप ही रहा। यक़ीनन हमारी दोस्ती तुम्हारी इच्छाओं पर निर्भर थी। तुमने महसूस किया होगा कि मैंने तुमसे कभी भी कहीं जाने को नहीं कहा। बस वह प्ले वाला प्रकरण छोड़कर।
समुद्र के किनारे हम पूरे साढ़े तीन घंटे बैठे रहे। हम इधर उधर की बातें करते रहे। तुम्हीं बोले जा रही थी, मैं तो श्रोता बना बैठा था।
देर रात मैंने तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ा फिर अपने घर वापस आया। घर पहुंचते पहुंचते मुझे रात के दो बज गए थे।
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इसके बाद तुम अक्सर समुद्र तट पर जाने लगीं मुझे साथ लेकर। समुद्र तट पर बैठे जोड़ों में शायद हमीं दोनों ऐसे रहते होंगे जो प्रेमी-प्रेमिका नहीं बस दोस्त थे। हालांकि देखने वाले यही सोचते रहे होंगे कि हम प्रेमी युगल हैं। और इनजॉय करने समुद्र तट पर आते हैं। जबकि मैं तुम्हारी इच्छाओं का पालन करता था। तुम्हारे साथ पिक्चर देखते या लोकल गाड़ी के जेंट्स डिब्बे में यात्रा करते हुए या समुद्री रेतों पर बैठने के बाद मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि तुम बहुत अच्छी लड़की हो, जिससे लंबे समय तक दोस्ती की जा सकती है।
एक दिन अचानक तुम्हारा बॉयफ्रेंड विदेश चला गया और तुम बुझ सी गईं। लंबे समय तक उसका फोन वगैरह नहीं आया। तुम निराश नहीं हुईं। हां, परेशान ज़रूर थीं। तुम्हें पूरा भरोसा था वह ज़रूर आएगा और तुम्हारा परिणय प्रस्ताव ज़रूर स्वीकार करेगा।
दोस्ती करने की जितनी भूख मैंने तुममें देखी, उतनी दूसरी किसी लड़की में नहीं। बाहर की दुनिया को लेकर तुम्हारी सोच जितनी परिपक्व थी अपनी आस पास की दुनिया विशेषकर दोस्तों के बारे में तुम उतनी ही टीनेजर्स जैसी अपरिपक्व थी। यही अपरिपक्वता तुम्हारी परेशानियों की जड़ थी।
कभी कभी मैं सोचता अपनी इस समाजविरोधी आदत से कहीं शायद तुम अपने वैवाहिक जीवन में ज़हर न घोल दो। शादी से पहले बॉयफ्रेंड पुरुषों से इस तरह का तुम्हारा इनटरैक्शन और घूमना भले सह ले लेकिन शादी के बाद वह शायद ही टॉलरेट कर पाए। हमारे समाज का तानाबाना ही ऐसा है कि शादी के बाद बड़े से बड़ा उदार पुरुष भी अपनी पत्नी को इतनी छूट नहीं दे सकता। कम से कम इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता।
एक दिन तुमने बताया कि तुम्हारी एक और लड़के से दोस्ती हो गई। उसे मुझसे मिलवाया भी। तुमसे एक दो साल छोटा ही रहा होगा। खूब सिगरेट फूंकता था। चरस भी लेता था। कोई नशा उससे छूटा नहीं था। वह शराब भी बहुत पीता था। शायद तुम दोनों का बर्थ डेट एक ही दिन था।
तुमने उसे बता दिया था कि तुम किसी को पसंद कर चुकी हो। इसके बावजूद उसकी आंखों में अपने लिए प्यार दिखा तुम्हें। तुम उसके साथ भी घूमने लगी। तुम्हारा अपरिपक्व मन उस पर भी भरोसा करने लगा।
उस दिन तुम अपने एक बहुत क़रीबी दोस्त की आलोचना करने लगीं तो में चकरा सा गया। उस सनकी व्यक्ति से मैं मिल चुका था। उसके बारे में बहुत पहले मेरी एक टिप्पणी का तुमने बहुत बुरा मान लिया था। मुझसे नाराज़ हो गईं थी तुम। उसके बाद मैंने तुम्हारे दोस्तों के बारे में कभी कोई टिप्पणी नहीं की। उस दिन तुम एकदम टूटी हुई सी लगी। तुम्हें कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। तुम पता नहीं क्या-क्या बोलती रहीं। तुम्हारे सामने शादी का प्रस्ताव रखने वाले किसी दोस्त की शायद उसने तुमसे पैरवी कर दी थी और तुमने उसे जमकर डांट पिला दी थी। तुम्हारी बातों से मैंने यही निष्कर्ष निकाला।
उसके बाद तुम्हारे स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हुआ। तुम पुरुषों से नफ़रत करने लगीं। अक्सर कहती तुम सब पुरूष एक जैसे होते हैं। अपेक्षाएं पाल लेते हैं। अहसानों की कीमत वसूलना चाहते हैं। ज़रा सा बोलने लगो तो अपनी प्रॉपर्टी समझने लगते हैं। और पता नहीं क्या बोलती रहीं तुम। तुम पुरुषों को लेकर एकदम आक्रामक हो गईं।
एक दिन सरेआम रेलवे स्टेशन पर तुम एक टकराने वाले युवक को बुरी तरह पीटने लगी। मैं तुम्हारे साथ था और तुम्हारे दुस्साहस पर चकित रह गया। तुम किसी के प्रति हिंसक भी हो सकती हो इसकी तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी। तुम तो पशु पक्षियों यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं से सहज जुड़ जाती थी। तुम इतनी निर्मम कैसे हो गई? जबकि पहले युवकों की इस तरह की हरकतों को हंसकर टाल देती थीं।
उस घटना के बाद तुमने हांफते हुए कहा था, – मनोरोगी होते हैं ये लोग। लड़कियों को छूना चाहते हैं। धक्का देना चाहते हैं।
मैं चुप ही रहा।
थोड़ी देर बाद तुम फिर बोली थी, – ये कभी प्रतिवाद नहीं कर सकते ग़लती करते हैं न इसीलिए। ऐसे लोगों को तो गोली मार देनी चाहिए।
– लेकिन तुम अकेले कभी ऐसा दुस्साहस मत करना। मेरे मुंह से निकला था।
मैं तुम्हें देखता रहा परेशान होते हुए। टूटते हुए। टूटकर बिखरते हुए। तुम इस मुकाम पर अपने दोस्तों की वजह से पहुंची थी। सो मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता था। दरअसल, तुम्हारी परेशानी की वजह तुम्हारा चरित्र था जिससे तुम कोई समझौता कर ही नहीं सकती थी। तुम्हारे साथ समुद्र तटों पर जाने वाले तुम्हारे दोस्त तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेना चाहते थे। जिसकी इजाज़त तुम दे ही नहीं सकती थी और तुम्हारे दोस्त दुश्मन बन जाते थे।
और आज अचानक दोपहर में तुमने बताया कि तुम इस शहर को छोड़ रही हो तो मैं सन्नाटे में आ गया। हालांकि बाद में मैंने सोचा तुम्हारा फ़ैसला ठीक ही है। इतने ढेर सारे दुश्मन बन चुके दोस्तों के बीच रहना बड़ा कठिन था।
अचानक ट्रेन को धक्का लगा। शायद इंजिन जोड़ दिया गया था। मेरे विचारों की श्रृंखला टूट गई। मैंने सामने देखा तुम और वर्षा मुझे ही देख रही थीं। वर्षा हंस रही थी।
– आप हमेशा क्या सोचते रहते हैं? वर्षा पहली बार बोली थी।
– इन्हें हरदम सोचते रहने की बीमारी है। तुमने कहा था। हंस रही थी तुम।
मैं बोला कुछ नहीं। बस देख रहा था।
– वहां जाकर क्या करोगी। अचानक मेरे मुंह से सवाल निकला।
तुम देर तक ताकती रही मुझे। फिर तुम्हारे होंठ थरथराए, – हमेशा सोचती हूं जिस डिग्री और योग्यता से लोग परिवार पाल लेते हैं मैं खुद को तो पाल ही लूंगी। तुम्हारे चेहरे पर वही आत्मविश्वास झलक रहा था। जिससे तुम बाकी लड़कियों से अलग दिखती थी।
फिर हमारे बीच ख़ामोशी थी।
– तुम इतने दिन यहां रहीं। अचानक चली जा रही हो। मैं बोला था पता नहीं क्या कहना चाहता था क्या कह गया।
– शहर से तो नहीं आपसे बिछड़ने का दुख अवश्य है। आप जैसा दोस्त कहां मिलता है किसी को। सच्ची आपको बहुत मिस करूंगी वहां। तुम मुझे ही देख रही थीं।
मुझे तुम्हारी आंखें आर्द्र लगी थीं। सहसा ट्रेन चलने लगी। मैं दौड़कर बाहर आ गया। तुम भी दरवाज़े पर खड़ी हो गई। मैं ट्रेन के साथ चलने लगा।
– कॉल करना, हां। मैंने कहा।
हालांकि मन भारी हो गया था मेरा भी। तुमने सिर हिलाया। होंठ दबाए हुए थी तुम दांतों से। तुम कुछ बोल नहीं पाई थी।
बहुत देर बाद बोली, – अपना ख़याल। तुम वाक्य पूरा नहीं कर पायीं। जुबान हलक में फंस गई थी।
धीरे धीरे ट्रेन की गति बढ़ने लगी और मैं पिछड़ने लगा।
मेरी इच्छा हुई कह दूं, – प्लीज मत जाओ। भले ही मैं तुम्हारा केवल दोस्त हूं लेकिन तुम्हारे साथ बात करने की आदत पड़ गई है। लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। अपने अल्फ़ाज़ पी गया था मैं। मुझे पूरी शक्ति लगा देनी पड़ी थी अपने आप को रोकने के लिए।
सहसा मैं खड़ा हो गया। तुम बराबर हाथ हिला रही थी। अचानक एक मोड़ पर ओझल गई।
एक अव्यक्त पीड़ा सी महसूस हुई। मैं चौंक पड़ा और सोचने लगा यह कमज़ोरी कहां से पैदा हो गई।
दोबारा सिर झटका और वापस चल पड़ा। लेकिन दिमाग़ में एक सवाल पता नहीं क्यों कौंधता रहा कि क्या सचमुच हम केवल दोस्त थे? आख़िर क्यूं बिछड़ते समय तुम्हारी ज़बान हलक में फंस गई और मुझे भी दर्द फील हो रहा है? सवाल से पिंड छुड़ाने के लिए मैंने सिर को ज़ोर सा झटका और आगे बढ़ गया।