पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार थे शिक्षक दिवस के प्रणेता डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन

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शिक्षक दिवस पर विशेष

शिक्षक यानी अध्यापक शब्द का उच्चारण करते ही एक ऐसे सौम्य विद्वान व्यक्ति की छवि जेहन में उभरती है, जो अपने विषय का मास्टर होता था। वह कक्षा में जैसे ही प्रवेश करता था, छात्रों का शोर अचानक से थम जाता था और क्लास रूम में पिन-ड्रॉप सन्नाटा पसर जाता था। उस शिक्षक का छात्र वास्तव में सम्मान करते थे, क्योंकि वह शिक्षक शिक्षा दान करने वाला होता था। लेकिन आजादी के सात दशक बाद आज सूरत-ए-हाल एकदम बदल गया है। जहां पहले शिक्षा का दान करने वाले शिक्षक बनते थे, वहीं आजकल संदिग्ध आचरण वाले कामचोर लोग शिक्षक बन रहे हैं।

अब शिक्षक छात्र को क्लास में पढ़ाने में नहीं ट्यूशन में ज्यादा इंटरेस्टेड रहते हैं। ऐसे शिक्षक से अगर हम उम्मीद करें कि वे देश का भविष्य संवारेंगे तो उनके साथ ज़्यादती होगी। आम आदमी सोचता है कि विश्वविद्यालय की बजाय कोचिंग का क्रेज़ क्यों बढ़ रहा है। तो इसकी जड़ हैं देश के सबसे महान शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन। उनके ही जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। इस साल भी शिक्षक और विद्यार्थी बड़े उत्साह के साथ शिक्षक दिवस मना रहे हैं। तो आइए दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के स्याह पक्ष के बारे में जानते हैं।

देश का आम आदमी आज तक नहीं समझ पाया कि देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है। पूरी दुनिया जानती है कि डॉ राधाकृष्णन ‘साहित्यिक चोर’ थे। उन्होंने अपने ही अधीन शोध कर रहे छात्र जदुनाथ सिन्हा (Jadunath Sinha) की थीसिस को चुरा लिया और उसे अपने नाम से ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से प्रकाशित करवा कर डॉक्ट्रेट की डिग्री ले ली। डॉ राधाकृष्णन की यही चोरी उनकी विद्वता पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

जन्म 5 सितंबर 1818 में आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले से 15 मील दूर सर्वपल्ली गांव में तेलुगू भाषी नियोगी ब्राह्मण परिवार में जन्में राधाकृष्णन को दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्धि 1923 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘भारतीय दर्शन’ से मिली। 1920 के दशक में कलकत्ता से प्रकाशित प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका ‘द मॉडर्न रिव्यू (The Modern Review)’ के संपादक रामनाथ चट्टोपाध्याय को पत्र लिखकर राधाकृष्णन की करतूतों से उन्हें अवगत कराया। इसके बाद संपादक ने उन्हें कार्यालय बुलाया और पूरे मामले की तहकीकात की। जदुनाथ द्वारा पेश किए गए साक्ष्य से संतुष्ट होने के बाद चट्टोपाध्याय मॉडर्न रिव्यू के 20 दिसंबर, 1928 को प्रकाशित दिसंबर 1928 अंक में संपादक के नाम पत्र कॉलम में उनका पत्र छाप दिया।

संपादक के नाम पत्र में राधाकृष्णन पर ‘साहित्यिक चोरी’ का सनसनीख़ेज़ आरोप लगाते हुए जदुनाथ ने कहा कि उनके गाइड राधाकृष्णन ने उनकी थीसिस के प्रमुख हिस्से अपने बताकर अपनी किताब ‘भारतीय दर्शन – 2’ में अपने नाम से प्रकाशित करवा लिया है। इसके बाद फ़रवरी, मार्च और अप्रैल के संस्करण में जदुनाथ ने अपने दावे के समर्थन में कई साक्ष्य पेश किए जिससे यह विवाद ज़्यादा बढ़ गया। इससे अपने आपको महाज्ञानी और विद्वान कहने वाले डॉ. राधाकृष्णन की मान-प्रतिष्ठा की मिट्टी पलीद होने लगी।

इस पहलू का मज़ेदार पक्ष यह है कि डॉ राधाकृष्णन ने जदुनाथ के दावों पर स्पष्टीकरण देते हुए जवाबी पत्र में वही बात कही, जिसे साहित्यिक चोरी करने वाले लेखक अक्सर लिखते रहते हैं। उन्होंने कहा कि चूंकि मेरे छात्र जदुनाथ की थीसिस और ‘भारतीय दर्शन – 2’ का विषय एक ही है, इसलिए उनकी किताब के कुछ अंशों का जदुनाथ की थीसिस से हूबहू मिल जाना महज संयोग है। इसके अलावा और कुछ भी नहीं है।

डॉ राधाकृष्णन के माफ़ी मांगने की बजाय संयोग शब्द का सहारा लेने के दुस्साहस से जदुनाथ आहत हुए और अगस्त 1929 में उन्होंने अपने गुरु राधाकृष्णन से उनकी सामग्री चुराकर अपने नाम छपवाने के लिए 20 हज़ार रुपए के हर्जाने की मांग करते हुए उन पर मुक़दमा कर दिया। यह राधाकृष्णन के लिए दुविधाजनक स्थिति थी, लिहाज़ा अपने मान प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए उन्होंने जदुनाथ और पत्रिका के संपादक रामनाथ चट्टोपाध्याय दोनों के ख़िलाफ़ केस दर्ज कराते हुए एक लाख रुपए के मानहानि का दावा किया। हालांकि वह जानते थे कि थीसिस चुराने की बात साबित हो जाएगी।

दरअसल, डॉ राधाकृष्णन 1921 में मैसूर से कलकत्ता आए और कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का कार्यभार संभाला। कुछ दिनों बाद ही उनके ज्ञान व प्रतिभा पर उंगलियां उठने लगी थीं। 1923 में उनकी किताब ‘भारतीय दर्शन’ प्रकाशित हुई। उसी समय एक छात्र जदुनाथ सिन्हा ने डॉ राधाकृष्णन, डॉ ब्रजेंद्रनाथ सील और डॉ कृष्णचंद्र भट्टाचार्य के मार्गदर्शन में‘ भारतीय दर्शन’ पर शोध शुरू किया। जदुनाथ सिन्हा ने पीएचडी डिग्री के लिए ‘भारतीय दर्शन’ नामक अपने शोध को 1921 में तीन गाइड के समक्ष प्रस्तुत किया। वह अपनी पीएचडी डिग्री की प्रतीक्षा करने लगे। जदुनाथ सिन्हा ने बारी-बारी से तीनों गाइड से संपर्क कर डिग्री रिवार्ड किए जाने पर विलंब होने की वजह जाननी चाही।

डॉ. ब्रजेंद्रनाथ सील ने कहा कि उनकी दो भागों की थीसिस तकरीबन 2000 पृष्ठों की है। इसलिए उसके अवलोकन में समय लग रहा है। इसी बीच डॉ. राधाकृष्णन ने आनन-फानन में लंदन से इस पीएचडी को पुस्तक के रूप में अपने नाम से प्रकाशित करवा लिया। उधर जदुनाथ की पुस्तक छपने के बाद उन्हें भी पीएचडी की डिग्री दी गई। अपनी थीसिस के लिए जदुनाथ को विश्वविद्यालय ने माउंट मेडल से सम्मानित किया था। लेकिन उनकी थीसिस पास होने में दो साल देर हो गई थी। इसी बीच राधाकृष्णन की पुस्तक भारतीय दर्शन – 2 छपकर बाजार में आ गई। उस किताब को पढ़कर जदुनाथ को तो सांप सूंघ गया, क्योंकि राधाकृष्णन की किताब और उनकी पीएचडी की थीसिस हूबहू थी।

बहरहाल, डॉ ब्रजेंद्रनाथ सील राधाकृष्णन की ताकत और प्रभाव से परिचित थे, क्योंकि डॉ. राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के काफी क़रीब थे। लिहाजा, सील उनके खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाए। इसके बाद अंतिम हथियार के रूप में जदुनाथ ने राधाकृष्णन और सील के यहां 1921 में प्रस्तुत की गई अपने शोध की प्राप्ति रसीद न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया। सच्चाई के सामने आने की भनक से राधाकृष्णन घबरा गए। उनके विशेष आग्रह पर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दोनों के बीच मध्यस्थ बनना स्वीकार कर लिया। डॉ मुखर्जी के सामने राधाकृष्णन ने स्वीकार किया कि उन्होंने साहित्यिक चोरी की है।

इसके बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दोनों के बीच न्यायालय से बाहर समझौता करवा दिया। पूर्व निर्धारित शर्त के अनुसार राधाकृष्णन ने जदुनाथ सिन्हा को 10000 रुपए का भुगतान किया और उनसे व्यक्तिगत रूप से माफ़ी मांगी और आग्रह किया कि अपने गुरु को क्षमा कर दे। दर्शनशास्त्र से स्नातकोत्तर जदुनाथ सिन्हा अपने दौर के प्रतिष्ठित दर्शनशास्त्री थे। उनके बेटे प्रोफ़ेसर अजीत कुमार सिन्हा के मुताबिक़ जदुनाथ के शिक्षक उनकी विद्वता की कद्र करते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करते समय उन्हें फ़िलिप सैम्युल स्मिथ पुरस्कार और क्लिंट मेमोरियल पुरस्कार भी मिले। उन्हें एमए की डिग्री लेने से पहले ही कलकत्ता के रिपोन कॉलेज में सहायक प्रोफ़ेसर नियुक्त कर दिया गया। कालांतर में उन्होंने पीएचडी के लिए अपनी थीसिस ‘इंडियन साइकोलॉजी ऑफ़ परसेप्शन’ विश्वविद्यालय में जमा कराई थी। उसी के लिए 1922 में उन्हें प्रेमचंद रायचंद छात्रवृत्ति दी गई थी।

कहा तो यह भी जाता है कि डॉ राधाकृष्णन की न तो अंग्रेज़ी ही अच्छी थी और न ही संस्कृत। संस्कृत तो उनकी बहुत कमज़ोर थी। ऐसे में उनके भारतीय दर्शन के अध्ययन पर भी सवाल उठता है। कभी-कभार डॉ राधाकृष्णन अपने लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजा करते थे, लेकिन हर संपादक उनके लेख को स्तरहीन और सतही मानकर ख़ारिज कर दिया करता था। मजेदार बात यह है कि डॉ राधाकृष्णन ने द मॉडर्न रिव्यू के संपादक को जो पत्र लिखा, उसमें उन्होंने अपनी इन ख़ामियों का भी जिक्र किया था। वह पत्र ही उनकी योग्यता को परिभाषित करता है। सबसे बड़ी बात वह पुरस्कार के भूखे थे।

1954 में जब डॉ राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति थे तो उन्हें पता चला कि भारत रत्न नाम से देश का सबसे बड़ा नागरिका सम्मान शुरू हो रहा है और पहला भारत रत्न रमन प्रभाव के आविष्कार के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकटरमन (सीवी रमन) और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को मिल रहा है तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू पर दबाव डाल कर अपना नाम भी भारत रत्न पाने वालों की सूची में डलवा लिया। जबकि प्रधानमंत्री नेहरू को भारत रत्न 1955 में मिला और राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को भारत रत्न 1962 में दिया गया।

डॉ राधाकृष्णन की नोबेल पुरस्कार पाने की भी बड़ी इच्छा थी। इसके लिए काफी जोड़-तोड़ किया और 26 बार अपनी प्रवृष्टि स्वीडन की नोबेल फाउंडेशन को भिजवाया, लेकिन वहां उनकी दाल नहीं गली, क्योंकि उनके लेखन से नोबेल अकादमी बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुई। इसके बाद डॉ राधाकृष्णन ने इच्छा जताई कि वह चाहते हैं कि उनका जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए। तो उनके शिष्यों ने 1962 से देश में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाना शुरू किया।

डॉ राधाकृष्णन की शादी 16 साल की उम्र में उनकी दूर की चचेरी बहन सिवाकमु से हुई थी। पुरुष प्रधान समाज के कट्टर पैरोकार थे और यह शिद्वत से मानते थे कि वंश का उत्तराधिकारी होता है न कि पुत्री। वह भी पुत्र रत्न प्राप्त करने के आकांक्षी थे। यही वजह है कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पुत्री इंदिरा गांधी के जन्म बाद दूसरी संतान की इच्छा नहीं की, लेकिन पुत्र को ही वंश का उत्तराधिकारी मानने वाले राधाकृष्णन पुत्ररत्न की चाह में छह संतानों के पिता बने। वह चाहते थे कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हो। लेकिन उनके घर में लड़कियां पैदा होती रहीं। उनकी सबसे बड़ी बेटी पद्मावती थी। इसके बाद रुक्मिणी, सुशीला, सुंदरी और शकुंतला के रूप में कुल पांच लड़कियां पैदा हुई। अंत में उन्हें छठी संतान सर्वपल्ली गोपाल के रूप में पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। जिस व्यक्ति का चरित्र इस तरह का हो, उसके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाएंगे तो ऐसे ही शिक्षक पैदा होंगे।

लेख – हरिगोविंद विश्वकर्मा