108 साल की उम्र में ईश्वर में विलीन
एमआर नारायणस्वामी
गुंजा बाबा (Gunja Baba) से पहली मुलाक़ात में ही मैं चकित रह गया था। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में एक छोटे से गांव में रहने वाले गुंजा बाबा देखने में शरीर से कमजोर और साधारण व्यक्ति थे। उन्होंने अपने को कभी संत घोषित नहीं किया, जबकि निस्संदेह उनके भीतर ईश्वरीय शक्तियां मौजूद थीं। ऐसा लगता था कि उनमें किसी के भी अतीत (और शायद भविष्य की भी) को जान लेने की क्षमता थी, लेकिन वह अपनी इस क्षमता का कभी दिखावा नहीं करते थे।
बाबा से मेरी पहली मुलाक़ात के कुछ सप्ताह पूर्व ही मेरी बेटी ने ब्रिटेन में क़ानून की पढ़ाई की इच्छा ज़ाहिर की थी, और वह चाहती थी कि पढ़ाई का पूरा ख़र्च मैं उठाऊं। जब मुझे पता चला कि इसमें एक बड़ी धनराशि की ज़रूरत है तो मैंने विनम्रता से मना कर दिया था। मैंने इसका किसी से कोई ज़िक्र नहीं किया था, अपनी पत्नी से भी नहीं।
कोई 15 दिनों बाद एक मित्र के ज़रिए मैं बाबा जी के पास पहुंचा था। वह सुर्ख़ियों में छाए रहने वाली कोई संत नहीं थे। वह गेरुआ चोंगा भी नहीं पहनते थे। लेकिन उनके चेहरे पर एक अद्भुत शांति थी, उनकी आंखें अदृश्य में खोई हुई लगती थीं। वह एक वैद्य भी थे और सभी बीमारियों का इलाज करते थे, यहां तक कि असाध्य बीमारियों को भी ठीक कर देते थे। उन्हें तंत्र का भी ज्ञान था, लेकिन वह इससे दूर रहते थे। बहुत बाद में उन्होंने मुझे भी इससे दूर रहने के लिए कहा था।
मेरी पहली मुलाकात के समय बाबाजी की उम्र 101 साल की थी। वह वैधव्य जीवन जी रहे थे। वह एक कच्चे मकान में अकेले रहते थे, और 60 की उम्र से उनका बेटा प्रायः उनके साथ रहता था। वह किसी से कोई पैसा नहीं लेते थे, और यदि कोई उन्हें कुछ उपहार स्वरूप देता था तो उसे भी वह देने वाले को आशीर्वाद देकर दूसरों को बांट देते थे। उनकी आमदनी का ज़रिया कुछ खेत और कुछ गायें थीं।
बाबाजी एक चारपाई पर बैठे हुए थे, और मैं एक लकड़ी की कुर्सी पर। बाबाजी स्नेह से मेरी तरफ़ देख रहे थे। उन्होंने एक क्षण के लिए मेरी आंखों में देखा और कहा कि मेरी आंखों में कुछ दिक्क़त है। उनकी बात सही थी। मुझे ग्लूकोमा था। लेकिन उन्होंने यह घोषणा बग़ैर किसी चिकित्सा उपकरण के इस्तेमाल के ही कर दी थी। उन्होंने मुझे सर्जरी कराने से सावधान कर दिया। मेरे पेट को स्पर्श करने के बाद उन्होंने मुझे मेरी दाहिनी हथेली दिखाने के लिए कहा। वह हस्तरेखा के भी ज्ञाता थे। उन्होंने हथेली का बारीक़ी से अध्ययन किया। फिर हथेली को पलटने को कहा। उन्होंने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से मेरी अनामिका से लेकर अंतिम उंगली तक के क्षेत्र को हल्का-हल्का सहलाया। इस दौरान उन्होंने मुझसे पूछा, ’’आपने बताया कि आपकी एक बेटी है। वह विदेश में पढ़ाई करना चाहती है?’’
यह बात सुनकर मैं निशब्द रह गया। यह बात एक ऐसे व्यक्ति के मुंह से निकली थी, जो मेरे घर से सैकड़ों मील दूर बैठा हुआ है, और मेरे परिवार से उसका किसी तरह का कोई संपर्क नहीं है। कुछ समय के लिए मैं अवाक् रह गया था। उसके बाद मैंने कहा, “हां, यह सच है।”
उन्होंने बिल्कुल शांत स्वर में कहा, “आपकी बेटी के लिए विदेश जाकर पढ़ाई करने का यह एक बहुत अच्छा समय है। यदि वह आज नहीं जाती है तो मैं नहीं कह सकता कि वह फिर कभी जा पाएगी। लेकिन उसकी पढ़ाई का ख़र्च आपको वहन करना है।”
बाबाजी उसके बाद दूसरी बातें करने लगे, ज़्यादातर अध्यात्म की बातें थीं। वह भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। मैंने एक बार देखा था कि जब वह रामचरित मानस पढ़ रहे थे, उनकी आंखों में आंसू भर आए थे। वह हमेशा मुझसे भगवान राम का नाम लेते रहने का आग्रह करते थे। भगवान राम के बारे में उन्होंने मुझे यही एक मंत्र दिया था।
बाबाजी के 100 साल के जीवन में उनसे मिलने वाला मैं पहला दक्षिण भारतीय व्यक्ति था। उनके बेटे ने बताया कि आस पास के गांवों के लोग हर रविवार को उनसे मिलने के लिए आते थे। लेकिन जिस रविवार को मैं मिलने गया था, उस दिन के लिए उन्होंने लोगों को पहले ही बोल दिया था कि एक दक्षिण भारतीय उनसे मिलने आने वाला है, लिहाज़ा वह बहुत भीड़-भाड़ नहीं चाहते। वह विशुद्ध रूप से गांव के व्यक्ति थे और हरदोई से बाहर शायद ही कभी गए होंगे। ज़्यादा से ज्याद बग़ल के शाहजहांपुर या लखनऊ कभी-कभार गए होंगे।
बाबाजी से पहली मुलाक़ात के बाद जब मैं दिल्ली लौटा तो मैंने पत्नी से सारी बातें बताई, लेकिन बेटी के बारे में बाबाजी के द्वारा कही गई बात का कोई ज़िक्र नहीं किया। लेकिन भाग्य का पहिया कुछ इस तरह घूमा कि कुछ ही महीनों के अंदर मैं बेटी की विदेश पढ़ाई के लिए तैयार हो गया। बाबाजी न होते तो वह रीडिंग यूनिवर्सिटी में कभी पढ़ाई नहीं कर पाई होती। लेकिन इसका श्रेय उन्होंने कभी नहीं लिया।
मैं एक बार उनसे मिलने गया था तो उन्होंने मुझे आगाह किया कि मेरी आंखों में एक गंभीर समस्या पैदा होने वाली है, लेकिन वह समस्या ठीक भी हो जाएगी। उनकी बात सही साबित हुई।
कुछ सप्ताह बाद एक दिन सुबह मैंने महसूस किया कि मेरी बाई आंख में रोशनी ही नहीं है। मैं कुछ भी देख पाने में अक्षम था। मैं एक अस्पताल गया, जहां मुझे बताया गया कि मेरी आंखों में दबाव ख़तरनाक स्तर तक बढ़ गया है और मेरी आंख को रोशनी जा सकती है। मेरी पत्नी ने घबराकर बाबाजी को फोन किया और उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा कि उन्होंने इस ख़तरे के बारे में पहले ही बता दिया था और यह भी कि मैं जल्द ही ठीक भी हो जाऊंगा। अपराह्न तीन-चार बजे तक मेरी आंख की रोशनी लौट आई थी।
बाबाजी से मुलाक़ात के कुछ महीनों बाद ही मैंने विष्णु सहस्रनाम का पाठ शुरू कर दिया था। यह पाठ शुरू करने के 10 दिनों बाद जब मैंने बाबाजी के घर में प्रवेश किया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझसे सवाल किया, “तो आपने विष्णु सहस्रनाम का पाठ शुरू कर दिया?” उनकी इस बात पर मैं चकित था। मैं एक क्षण के लिए भूल गया कि मेरे सामने कोई पवित्र आत्मा बैठी हुई है, मैंने धृष्टता की, “आपको कैसे पता?” उन्होंने मुस्कुराया, “यह आपके माथे पर स्पष्ट दिख रहा है।”
बाबाजी निस्संदेह धरती पर ईश्वर के दूत थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहा, “यह पिछले जन्म के कर्मों का कोई रिश्ता है, जिसके कारण हमारी मुलाकात हुई है।”
बाबाजी को मेरी कमियों के बारे में पता था और उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं अपनी मुक्ति के लिए उन कमियों से छुटकारा पाऊं। उनके पास रुद्राक्ष की आवाज़ सुन पाने की शक्ति थी। मैं रुद्राक्ष और भगवान शिव का एक पेंडेंट पहनता हूं। जब भी मैं बाबाजी से मिलने जाता था, वह उसकी अध्यात्मिक शक्ति बढ़ाने के लिए उसे बेला से मालिश कर अपनी दुआओं के ज़रिए जाग्रत करते थे। उन्होंने मेरी पत्नी को और मुझे ताबीज़ बनाकर दिया था और उसे हमेशा हरे रंग के कपड़े में ढक कर साथ रखने के लिए कहा था। मैं जब भी किसी काम के लिए जाता हूं, अपनी जेब में उसे रख लेता हूं। आप मानिए या न मानिए, हमेशा मेरा काम सफल हुआ है।
उन्होंने बहुत छोटा-सा हवन किया, जो चंद मिनट में समाप्त हो गया। उन्होंने मुझसे कहा कि जब वह स्वाहा बोलेंगे, तब दो लौंग अग्नि देव को समर्पित कर देना है। उन्होंने जो मंत्र बोला, मैंने इसके पहले कभी नहीं सुना था। एक बार मैं उनके सामने दो फीट की दूरी पर बैठा हुआ था। मेरी आंखें बंद थीं और मैंने महसूस किया कि एक सुखदायी हवा मेरे सिर से पैर तक तैर उठी है। बाद में एक मित्र ने बताया कि उस समय बाबाजी ने मुझ पर बहुत ध्यान से दृष्टिपात किया था।
वर्ष 2015 में जब मैं अपनी बेटी को लंदन से वापस लाने के लिए पत्नी के साथ दिल्ली हवाईअड्डे जाने वाला था, तभी मेरी कलाई में बंधा छोटा रुद्राक्ष टूटकर गिर गया और उसके तत्काल बाद दीवार पर टंगी स्वामीजी की तस्वीर नीचे गिर गई। ये अपशकुन थे, लेकिन इसकी परवाह किए बग़ैर हम निकल गए। दुर्घटना उस समय हुई, जब मेरी पत्नी विएना में विमान से उतर रही थी और उसके बाद दिल्ली के लिए उड़ान पकड़नी थी। उसके पैर अचानक फिसल गए और सीढ़ी से लुढ़क कर ज़मीन पर आ गिरी। इस दुर्घटना में उसके चार दांत टूट कर बाहर आ गए। वह बुरी तरह ज़ख़्मी थी, लेकिन चमत्कार यह था कि उसके सिर पथरीली ज़मीन से या इस्पात की सीढ़ी से नहीं टकराए थे।
वहां से सबसे पहले मैंने बाबाजी को फोन किया। उन्होंने ढांढस बंधाया, आश्वस्त किया। “हां, वह गिरी तो बुरी तरह है, लेकिन ज़िंदा रहेगी।” विएना के एक अस्पताल में जहां शायद ही कोई अंग्रेज़ी बोलता था, मेरी मुलाक़ात एक ऐसे डाॅक्टर से हुई जो न सिर्फ अंग्रेज़ी बोलता था, बल्कि तमिल भी बोलता था। बाबाजी के आशीर्वाद से मेरी पत्नी का जल्द ही इलाज हो गया और हम दिल्ली की उड़ान पकड़ पाने में सफल रहे, जिसके छूटने की हमें आशंका थी।
बाबाजी ने एक फरवरी, 2021 को हरदोई में शरीर त्याग दिया। उनके आशीर्वाद से ऐसे तमाम निःसंतान दंपति माता-पिता बने, जिन्हें डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया था। उन्होंने कभी अपना प्रचार नहीं चाहा। वह ईश्वर के सच्चे पुत्र थे और ईश्वर में विलीन हो गए हैं।
(दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक वरिष्ठ पत्रकार एमआर नारायणस्वामी 1978 में यूएनआई से पत्रकारिता की शुरुआत की। आठ साल बाद वह फ्रांस की समाचार एजेंसी एएफपी से जुड़ गए और इस अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी में 13 साल तक रहे। वह कई साल तक सिंगापुर में रहे। 2001 में वह भारत वापस लौटे और समाचार एजेंसी आईएएनएस से जुड़ गए और कार्यकारी संपादक रहे। वह श्रीलंका पर दो-दो अविस्मरणीय किताबें लिख चुके हैं। पहली किताब 1994 में तमिल मिलिटेंसी पर ‘टाइगर्स ऑफ़ श्रीलंका’ है और दूसरी किताब लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) के संस्थापक वेलापुल्लई प्रभाकरन ग़ैरआधिकारिक जीवनी ‘इनसाइड एन इलूसिव माइंड’ है। श्रीलंका में तमिल मिलिटेंसी का अध्ययन करने वालों के लिए यह किताब मील का पत्थर है।)
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