सरोज कुमार
कर्ज की सामाजिक प्रतिष्ठा भले न हो, इसकी आर्थिक प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं है। अर्थव्यवस्था तो कर्ज बिना दो कदम नहीं चल पाती। लेकिन असंतुलित कर्ज अर्थव्यवस्था के लिए मर्ज के समान है। समय पर इलाज न हुआ तो मर्ज तकलीफदेह हो जाता है। भारतीय अर्थव्यवस्था कुछ इसी तकलीफ से गुजर रही है। कर्ज का संतुलन बिगड़ रहा है, और समाधान का पलड़ा ही गायब है। यह चिंताजनक स्थिति है।
किसी देश की आर्थिक तंदुरुस्ती का अंदाजा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और उसके अनुपात में कर्ज के आकार से लगता है। जीडीपी जितना बड़ा हो और कर्ज उसके अनुपात में जितना छोटा, अर्थव्यवस्था उतनी ही तंदुरुस्त मानी जाती है। जीडीपी के मुकाबले कर्ज का न्यूनतम अनुपात अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रबंधन का प्रमाण है। कर्ज का अनुपात जीडीपी के मुकाबले बढ़ रहा हो तो समझिए अर्थव्यवस्था कुप्रबंधन की शिकार है। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ कुछ ऐसा ही जान पड़ता है।
15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एन.के. सिंह के नेतृत्व वाली विशेषज्ञ समिति ने 2017 में सार्वजनिक कर्ज (केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की) की सीमा वित्त वर्ष 2022-23 तक के लिए जीडीपी का 60 फीसद तक रखने की सिफारिश की थी। फिजिकल रेस्पांसिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट (एफआरबीएम) कमेटी की सिफारिश पर केंद्र ने अपनी कर्ज सीमा जीडीपी का 40 फीसद और राज्यों ने जीएसडीपी का 20 फीसद रखने को मंजूरी दे दी थी। लेकिन सार्वजनिक कर्ज इस सीमा के अंदर कभी नहीं आ पाया। जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात सीमा से आगे लगातार बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2017-18 में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 69.8 फीसद था। वित्त वर्ष 2018-19 में यह 70.78 फीसद हो गया। अगले वित्त वर्ष 2019-20 में 75.7 फीसद और 2020-21 में सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 89.4 फीसद हो गया। वित्त वर्ष 2021-22 में थोड़ी नरमी जरूर आई और सार्वजनिक कर्ज जीडीपी का 85.2 फीसद रहा। लेकिन जिस तरह केंद्र और राज्य सरकारों का राजस्व घाटा बढ़ रहा है, व्यापार घाटा बढ़ रहा है, देश का विदेशी पूंजी भंडार घट रहा है, विकास दर के अनुमान घटाए जा रहे हैं, सार्वजनिक कर्ज मौजूदा वित्त वर्ष में जीडीपी के 90 फीसद से ऊपर चला जाए तो आश्चर्य नहीं।
जीडीपी के मुकाबले कर्ज का अनुपात बढ़ने का सीधा अर्थ राजस्व घाटा बढ़ने से जुड़ता है। यानी व्यय के अनुपात में राजस्व संग्रह नहीं हो पा रहा। सरकारों का बजट आम तौर पर घाटे का ही होता है और घाटे की भरपाई वे कर्ज लेकर करती हैं। बुरी स्थिति तब होती है जब राजस्व संग्रह का बजटीय लक्ष्य हासिल नहीं हो पाता। ऐसे में विकास परियोजनाएं, कल्याणकारी योजनाएं या तो रोकनी पड़ती हैं, या फिर उन्हें पूरा करने के लिए कर्ज लेना पड़ता है। कर्ज की दो श्रेणियां हैं -आंतरिक और बाहरी। आंतरिक कर्ज देश के भीतर सरकारी प्रतिभूतियों, केंद्रीय बैंक, व्यावसायिक बैंकों, गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों से जुटाया जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) सरकार के लिए कर्ज प्रबंधक का काम करता है। सार्वजनिक कर्ज का ज्यादा हिस्सा आंतरिक ही होता है। लेकिन कई परियोजनाओं के लिए विदेशों से कर्ज लेने पड़ते हैं। अवधि के आधार पर कर्ज की तीन श्रेणियां हैं -अल्पकालिक, मध्यकालिक और दीर्घकालिक। अल्पकालिक कर्ज साल भर तक के लिए, मध्यकालिक 10 साल तक और दीर्घकालिक कर्ज 25 से 50 वर्ष तक के लिए होता है। अवधि के हिसाब से कर्ज पर ब्याज दर बढ़ती जाती है।
31 मार्च, 2022 तक भारत पर कुल कर्ज बढ़कर 139 लाख करोड़ रुपये हो गया, जो साल भर पहले 31 मार्च, 2021 को 121.23 लाख करोड़ रुपये था। मार्च 2023 तक देश का सकल सार्वजनिक कर्ज बढ़कर 155.31 लाख करोड़ रुपये होने की आशंका है। इस हिसाब से देश के हरेक नागरिक के सिर एक लाख रुपये से अधिक का कर्ज बैठता है। जबकि उसकी सालाना औसत आय (वित्त वर्ष 2021-22) घटकर 91,481 रह गई है, जो पांच साल पहले वित्त वर्ष 2017-18 में 1,12,835 रुपये थी। सार्वजनिक कर्ज में विदेशी कर्ज चिंता का कारण होता है। क्योंकि पुनर्भुगतान में किसी भी तरह की लेटलतीफी से देश की साख पर धब्बा लगता है। विदेशी कर्ज 31 मार्च, 2022 तक साल भर पहले की तुलना में 8.2 फीसद या 47.1 अरब डॉलर बढ़कर 620.7 अरब डॉलर हो गया। रुपये और अन्य प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की कीमत बढ़ने से पैदा हुए मूल्यांकन प्रभाव को निकाल दिया जाए तो विदेशी कर्ज 632.4 अरब डॉलर बैठता है। विदेशी कर्ज लगातार बढ़ रहा है। वित्त वर्ष 2017-18 में देश पर विदेशी कर्ज 529.7 अरब डॉलर था, जो 2018-19 में बढ़कर 543 अरब डॉलर हो गया। वित्त वर्ष 2019-20 में 558.5 अरब डॉलर था, जो 2020-21 में बढ़कर 570 अरब डॉलर हो गया।
जहां एक तरफ विदेशी कर्ज बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ भारत का विदेशी पूंजी भंडार घट रहा है। आठ जुलाई, 2022 को समाप्त सप्ताह में विदेशी पूंजी भंडार घटकर 15 महीनों के न्यूनतम स्तर 580.252 अरब डॉलर पर आ गया। जबकि साल भर के अंदर ही 267.7 अरब डॉलर विदेशी कर्ज का पुनर्भुगतान करना है। डॉलर की कीमत बढ़ने से आयात बिल बढ़ रहा है। परिणामस्वरूप देश के पास 10 महीने से भी कम अवधि के आयात की विदेशी मुद्रा रह गई है। ज्यादातर आयात और विदेशी कर्ज डॉलर में होते हैं, लिहाजा विदेशी पूंजी भंडार घटने से इस मोर्चे पर मुश्किल आ सकती है।
विदेशी पूंजी भंडार में गिरावट का प्रमुख कारण डॉलर की मजबूती है। कच्चे तेल की कीमतों में तेजी के कारण डॉलर की मांग बढ़ गई है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक(एफपीआइ) भारतीय शेयर बाजार में बिकवाली कर डॉलर में निवेश कर रहे हैं। परिणामस्वरूप डॉलर मजबूत हो रहा है, रुपया उसी अनुपात में कमजोर। रुपये को बचाने के लिए भी विदेशी पूंजी भंडार को कुर्बानी देनी पड़ रही है। आरबीआइ फरवरी 2022 से अबतक रुपये को बचाने 52 अरब डॉलर से अधिक खर्च कर चुका है। यह सिलसिला जारी है, आगे भी जारी रहने की आशंका है। विदेशी पूंजी भंडार में गिरावट का न्यूनतम स्तर आना अभी बाकी है। और सार्वजनिक कर्ज का उच्चतम स्तर भी।
जीडीपी के अनुपात में सार्वजनिक कर्ज बढ़ने से राजस्व का बड़ा हिस्सा ब्याज चुकाने में निकल जाता है। इससे सार्वजनिक परियोजनाएं प्रभावित होती हैं, विकास दर पर असर पड़ता है, बेरोजगारी, महंगाई बढ़ जाती है। आम आदमी का जीवनस्तर नीचे आता है। वित्त वर्ष 2021-22 में केंद्र सरकार के राजस्व का 43 फीसद हिस्सा यानी लगभग आठ लाख करोड़ रुपये सिर्फ कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च हो गए। मौजूदा वित्त वर्ष में ब्याज राशि में लगभग 15 फीसद वृद्धि का अनुमान है, और इस तरह ब्याज पर खर्च होने वाली राशि लगभग नौ लाख करोड़ रुपये हो सकती है। यही नहीं, वित्त वर्ष 2023-24 में राजस्व का 50 फीसद हिस्सा ब्याज की भेंट चढ़ने का अनुमान है।
सवाल उठता है आखिर कर्ज अर्थव्यवस्था पर इस तरह बोझ क्यों बन जाता है? कर्ज के अनुपात में जीडीपी क्यों नहीं बढ़ती? दरअसल, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था मांग और आपूर्ति के आधार पर चलती है। बाजार में मांग बढ़ रही है, उसी अनुपात में आपूर्ति भी बढ़ रही है तो समझिए राजस्व या लिए गए कर्ज का वितरण प्रबंधन सही रास्ते पर है। फिर विकास दर बढ़ेगी, रोजगार पैदा होगा, अंत में अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ेगा। लेकिन मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन बिगड़ने के साथ ही कर्ज बोझ बन जाता है। यानी कर्ज संजीवनी तो है, लेकिन गलत समय पर गलत जगह गलत खुराक देने से यह अर्थव्यवस्था के लिए विष का काम करती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ कुछ ऐसा ही हुआ जान पड़ता है। उपलब्ध संसाधनों का वहां इस्तेमाल नहीं हो पाया, जहां जरूरत थी। जब मांग बढ़ाने की जरूरत थी, तब आपूर्ति बढ़ाने पर जोर दिया गया। अब इसके कारण जो भी रहे हों। महामारी भी एक कारण रही है। लेकिन असंतुलन की यह बीमारी अर्थव्यवस्था में महामारी से पहले की है। असंतुलित अनुचित व्यय के कारण उपलब्ध संसाधन निष्फल होते गए। कर्ज बोझ बनता गया। आज यह बोझ इतना भारी हो चला है कि उसके तले दबी अर्थव्यवस्था की सांसें अटक रही हैं। मांग और आपूर्ति के संतुलन का कौशल कर्ज प्रबंधन की अनिवार्य शर्त है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में असंतुलन की बीमारी इस कदर बिगड़ गई है कि मांग न होने के बाद भी महंगाई चरम पर है। आर्थिक प्रबंधक समझ नहीं पा रहे कि कौन-सी गोली कब और कहां देनी है। महंगाई पर नियंत्रण के कदम उठाए जाते हैं तो राजस्व घाटा बढ़ता है, महंगाई बढ़ती है तो रुपया टूटता है, रुपये को संभालने की कोशिश होती है तो विदेशी पूंजी भंडार घटता है। अर्थव्यवस्था के इस रोलर कोस्टर का अंत आम जनता की आह से होता है। आह मरी हुई खाल की भी लगती है। आम जनता तो अभी जिंदा है।
(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)
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