अमिताभ मिश्र
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रारंभ में दो घटनाएं ऐसी हुईं जिनसे देश के आगामी 100 वर्षों का इतिहास तय हो गया। पहली घटना में, मेरठ में मंगल पांडे नामक सिपाही ने धर्म की रक्षा में बंदूक तानी नहीं, बल्कि बंदूक न छूने की कसम खाई। सैद्धांतिक मतभेद में, शस्त्रविहीन आग्रह या अवज्ञा का यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में किया गया विद्रोह तो था ही। दूसरी घटना में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ अपने छोटे से राज्य की स्वतंत्रता के लिए तलवार उठा ली। विद्रोह किसी भी हुकूमत को पसंद नहीं हो सकता। ब्रिटिश सरकार भी इन दोनों घटनाओं को दबाने के लिए जो कर सकती थी, उसने किया। दमन की इस प्रक्रिया में जो भी रक्तपात हुआ वह रक्तबीज बनकर पूरे देश में फैल गया। इस तरह कभी सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य पर अंधकार का पसरना शुरू हो गया।
विरोध के स्वर जब फूटते हैं तो उन्हें गूंजने के लिए काव्य के धरातल की जरूरत होती है। स्वरों की इस जरूरत को लोककवि, स्थानीय कवि, महाकवि और शायरों ने पूरा किया। ब्रिटिश साम्राज्य के दुर्भाग्य से यही समय रिकार्डिंग कंपनी और छापाखाने के उद्गम और विकास का था। लोककवियों से महाकवियों तक के विषय तय थे। मातृभूमि की वंदना, हुकूमत का विरोध और शहीद-स्तुति। लोककवि, कवि, महाकवि और शायर एक-दूसरे के पूरक हो गए। अगर जयशंकर प्रसाद लिखते हैं –
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
तो फिल्मों के कवि प्रदीप ने हिमालय की चोटी से ललकारा –
आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है,
दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है।
स्वतंत्रा संग्राम में सक्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना ’खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ अपने मूल रूप में बुंदेले हरबोलों के बुंदेली लोकगीत में मिलती है।
खूबई लड़ी रे मर्दानी
खूबई जूझी रे मर्दानी
बा झांसी वारी रानी।।
अपने सिपाहियन के लड्डू खबावें
आपइ पिये ठंडा पानी
बा झांसी वारी रानी।।
प्रभातफेरियों का चलन जोर पकड़ रहा था। छोटे-बड़े सभी शहरों में सुबह प्रयाण गीत गाती टोलियां घूमती थीं। सुबह लोग गाते –
माता के वीर सपूतों की
आज कसौटी होना है।
देखें कौन निकलता पीतल
कौन निकलता सोना है।।
इसका जवाब शाम को कोई सिरफिरा देता था –
मैं माता का पूत
कसौटी का कोई पत्थर ले आये
मुझसे ऐसी रेख खिंचेगी
जिससे सोना भी शरमाये।।
तो किसी ने लिख दिया –
गले बांधे कफनिया हो
शहीदों की टोली निकली।।
जब कफन बांधकर लोग इस तरह घूमे और जगाने का तरीका यही तय हो जाये तो कौन कब तक सोता। 1913 में गदर पार्टी नाम का क्रांतिकारी संगठन बना। संगठन का मुख-पत्र ’गदर’ नाम से प्रकाशित होने लगा। लगभग इसी समय कलकत्ते में अलीपुर बम कांड में वरिष्ठ नेता वारिंद्र घोष, विचारक और संत अरविंद घोष, नरेंद्रनाथ बख्शी इत्यादि की गिरफ्तारियां हुईं। काकोरी ट्रेन डकैती में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खां, राजेंद्र लाहिड़ी पकड़े गये। बिस्मिल ने इस मामले में फांसी पर चढ़ते हुए कहा –
मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।
बाकी न मैं रहूं न मेरी आरजू रहे।।
अशफाक उल्लाह ने मरते मरते लोगों को नसीहत दी –
बुजदिलों को सदा मौत से डरते देखा।
गो कि सौ बार रोज ही उन्हें मरते देखा।।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्त-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।।
फांसी पर चढ़ने से पहले भगत सिंह गा रहे थे –
मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली।
ये मुश्ते खाक है फानी रहे, रहे न रहे।।
स्वतंत्रता आंदोलन में देश के सभी बुद्धिजीवी किसी न किसी तरह से जुड़े हुए थे। अधिकांश उस समय कैदखानों की शोभा बन गए थे। आगरा जेल, इस तरह के जमावड़े का अच्छा उदाहरण था। शैदा, अहमक, जर्मरूद, उस्मान, रघुपति सहाय ’फिराक’, कृष्णकांत मालवीय, रामनाथ ’असीर’ और महावीर त्यागी जैसे कवि, लेखक और शायर वहां पर कैद थे। देशप्रेम के नियमित मुशायरे आगरा जेल में होने लगे। बाद में तराना-ए-कफस शीर्षक से इन रचनाओं का संग्रह कृष्णकांत मालवीय के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ।
इन सब रचनाओं के बीच ’जन गण मन अधिनायक जय हे’ (रवींद्रनाथ ठाकुर), ’वंदे मातरम्’ (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडा वंदन ’विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ (श्यामलाल पार्षद) हमारी आन बान शान का प्रतीक बन गए। आन बान शान के आगे जान का कोई मतलब नहीं बचा। झंडा लेकर चलते हुए मालूम नहीं कितनों ने अपनी जान दे दी। वंदे मातरम् का उपयोग बलिदान मंत्र के रूप में होने लगा। इसे गाते हुए या कहते हुए फांसी पर चढ़ना चलन हो गया था। लोकप्रियता की दृष्टि से वंदे मातरम् इन तीनों में विशिष्ट था।
’संन्यासी विद्रोह’ पूर्वी बंगाल में हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था। ’संन्यासी विद्रोह’ पर आधारित उपन्यास ’आनंद मठ’ में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम् गीत का उपयोग किया था। बंकिम बाबू ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से पगी रचना की भावी लोकप्रियता का पहला उदाहरण 1902 में सामने आया, जब अत्यंत लोकप्रिय कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसकी संगीत रचना की और इसका सस्वर पाठ किया। फ्रांस की किसी ’पाथे’ ग्रामोफोन कंपनी के तत्वावधान में बना यह रिकार्ड प्रसारित किया गया। इसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। एक तरफ अरविंद घोष जैसे संत का नाम इससे जुड़ा तो दूसरी तरफ विष्णु दिगंबर पुलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ ने इसकी धुन बनाई। एक ही गीत की इतनी धुनें शायद ही कभी बनी हों। रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर ए.आर. रहमान तक, इसकी कितनी धुनें बनीं और रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर लता मंगेशकर समेत ए.आर. रहमान तक इसे कितने गायक गाकर गौरवान्वित हुए, इसका ठीक विवरण नहीं मिल पाता।
कांग्रेस की स्थापना 1885 में हो गई थी। इसके अधिवेशनों, सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था। कभी इसे रवींद्रनाथ ठाकुर ने गया तो कभी विष्णु दिगंबर पुलुस्कर ने।
पुरानी देवदास फिल्म के संगीत निर्देशक तिमिर बरन भट्टाचार्य ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के लिए बनाई। इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिंद फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से इसका नियमित प्रसारण होता था।
बींसवी शताब्दी के चौथे दशक में सिने संगीत प्रचार के सशक्त माध्यम की तरह अस्तित्व में आया। 1940 में एक फिल्म बनी ’बंधन’। इसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत ’चल चल रे नौजवान’ बहुत लोकप्रिय हुआ। स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में यही गीत ऐसा मिलता है जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी। कवि प्रदीप ने इसे बांबे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म के संगीत निर्देशक द्वय सरस्वती देवी और रामचंद्र पाल को धुन बनाने को दे दिया। दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और थोड़ी ही देर में पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई जो सर्वसम्मत थी। इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए। अशोक कुमार फिर अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास बनी हुई एक लाइन लेकर गए जिसे सती देवी ने विधिवत पूरा बनाया। कड़े सैंसरशिप की आंखों में धूल झोंक कर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा।
देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना। पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में वंदे मातरम् की जगह इसे राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया। इसे राष्ट्रगीत बनाने के लिए बाकायदा आंदोलन भी किया। गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की। सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे। उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया। सिने जगत में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रक्खा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं। अनिल दा ने क्रांतिकारी विचारधारा अपनाई थी। 12 वर्ष की आयु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था। पुलिस पीछे पड़ी थी। किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी। झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे। 1942 में ’अरे किरायेदार कर दे मकान खाली’ सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई। इसकी सजा किरायेदार (ब्रिटिश सरकार) ने मकान मालिक (इंदीवर) को दी, और उन्हें आगरा जेल में एक साल के लिए रखा गया। पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर इंदीवर बंबई आ गए। शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया।
निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं। ’चल चल रे नौजवान’ (बंधन) गीत धूम मचा गया लेकिन कवि प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया ’किस्मत’ के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है)। उनकी प्रतिष्ठा में जो थोड़ी बहुत कसर बाकी थी उसे ’ऐ मेरे वतन के लोगों’ ने पूरी कर दी। गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है। लता जी तबतक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं। कवि प्रदीप का लिखा और सी. रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रण के बाद लाल किले में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने गाया। नेहरू जी गद्गद् हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए।
शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था। संगीत निर्देशक सी. रामचंद्र और लता में अनबन चल रही थी और उनसे अनबोला था। लेकिन प्रदीप जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर लता जी भी इसमें शामिल होने के लिए तैयार हो गईं। अब आशा और लता दोनों की आवाज में गाना रिकार्ड होना था। अंत में रिकार्डिंग तिथि पर आशा जी उपलब्ध नहीं हो पाईं और लता जी ने अकेले यह गीत गाया। आज भी शहीद स्मृति में कोई भी कार्यक्रम अधूरा रह जाता है जब तक इस गीत को कोई गाता नहीं।
फिल्मों में हिट सांग देना उनके लिए रोज का काम था पर काव्यरसिक जिन पंक्तियों के लिए उन्हें याद रखते हैं वे उपरोक्त गीतों से अलग हैं। आज भी ’जागृति’ फिल्म में लिखा उनका गीत ’आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ बजता है तो श्रोताओं को रोमांचित कर जाता है।
ये है अपना राजपूताना नाज इसे तलवारों पे
इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे
ये प्रताप क वतन पला है आजादी के नारों पे
कूद पड़ी थीं यहां हजारों पद्मनियां अंगारों पे
बोल रही है कण कण में कुर्बानी राजस्थान की
इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की
इसी गीत में वे अन्यत्र लिखते हैं –
जलियांवाला बाग ये देखो यहां चली थी गोलियां
यह मत पूछा किसने खेली यहां खून की होलियां
एक तरफ बंदूकें दन दन एक तरफ थी टोलियां
मरने वाले बोल रहे थे इंकलाब की बोलियां
यहां लगा दी बहिनों ने भी बाजी अपनी जान की
इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की
इन पंक्तियों को महज फिल्मी गीत मान कर टाला नहीं जा सकता। कवि प्रदीप के लिखे गीतों में काव्य के ऐसे उदाहरण और भी मिलते हैं जहां बड़े से बड़ा कवि वाह वाह करने लगता है। सी. रामचंद्र के निर्देशन में बनी फिल्म तलाक की पंक्तियां इसी का उदाहरण हैं –
बिगुल बज रहा आजादी का गगन गूंजता नारों से
मिला रही है हिंद की मिट्टी नजरें आज सितारों से।
विज्ञापन विधा बाजारू संस्कृति की देन है। इसके अच्छे और बुरे दोनों प्रकार अक्सर देखने और सुनने को मिल जाते हैं। कुछ राष्ट्रीय विज्ञापन भी बने हैं। राष्ट्रीय एकता को दर्शाता एक विज्ञापन ’भैरवी’ में ऐसा ही है। यह विज्ञापन संगीत के किसी भी नमूने पर बीस ही बैठता है, उन्नीस नहीं। पंडित भीमसेन जोशी के गायन से शुरू हुआ विज्ञापन ’मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा’ जो हर कदम के साथ अपनी जगह से कुछ और आगे बढ़ जाता है। लोकल ट्रेन के साथ बंबई पहुंचने पर अभिनेत्री तनूजा के प्रवेश और लता ध्वनि के साथ इसमें लगभग प्राणप्रतिष्ठा हो जाती है। अंत तक तो भावुक श्रोता हर दिशा से आकर सुर की नदियां के साथ बंध कर संगीत सागर में डूबने उतराने लगते हैं। इस तरह के श्रोताओं को इतना बोध तो हो ही जाता है कि सारे सागर खारे पानी के ही नहीं होते, संगीत सागर मीठे पानी का सागर भी है।