×

जनता की लाचारी, स्थायी भाव में बेरोजगारी

जनता की लाचारी, स्थायी भाव में बेरोजगारी

सरोज कुमार

भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नौ रसों के नौ स्थायी भावों का जिक्र है। अब 10वां स्थायी भाव अर्थशास्त्र से जुड़ता दिख रहा है। बेरोजगारी का स्थायी भाव। कोई अवस्था लंबी अवधि तक बनी रहे तो उसके प्रति आस्था पैदा होने लगती है। आस्था धीरे-धीरे स्थायी हो जाती है। एक सीमा बाद दर्द का अहसास न होना, इसी प्रक्रिया का परिणाम है। बेरोजगारी के साथ भी कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी का स्थायी भाव अच्छा संकेत नहीं है।

वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान मासिक औसत बेरोजगारी दर 7.6 फीसद के उच्चस्तर पर बनी रही। लेकिन कहीं से कोई खास चीख-पुकार सुनाई नहीं दी। शायद बेरोजगारी का अहसास जाता रहा! यह मानव मन में बेरोजगारी के स्थायी हो जाने का संकेत है। बेरोजगारी का स्थायी भाव अस्थिरता है। यानी बेरोजगारी जितना स्थायी होगी, अस्थिरता उतनी ही बढ़ती जाएगी। अस्थिरता क्या कुछ करती है, बताने की जरूरत नहीं।

मनोभावों के बदलने से आंकड़े नहीं बदलते। अलबत्ता आंकड़े मनोभावों को बदल देते हैं। बेरोजगारी का सवाल आंकड़ों से आगे का है, और मानव मन आज इसी सवाल में उलझ कर रह गया है। बेरोजगारी के आंकड़े इतने भारी हो चले हैं कि अब इन्हें न तो मानव मन ढो पाने की स्थिति में है, और न अर्थव्यवस्था ही। दोनों की हालत पतली है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआइई) के अनुसार, बीते वित्त वर्ष में उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक की औसत मासिक वृद्धि दर 2.68 फीसद रही। इस धीमी वृद्धि दर का परिणाम है कि उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक महामारी से पूर्व के स्तर पर आजतक नहीं पहुंच पाया। मौजूदा वित्त वर्ष के अंत तक भी उस स्तर पर पहुंचने की संभावना कम है।

महामारी से ठीक पहले फरवरी 2020 में उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक 105.3 पर था, जो मार्च 2023 में 89.18 पर दर्ज किया गया। मानसून पर संभावित अल नीनो प्रभाव और निजी निवेश में अनवरत सुस्ती के मद्देनजर मौजूदा वित्त वर्ष में भी उपभोक्ता मनोभाव सूचकांक का यही हाल रहने वाला है।

उपभोक्ता मनोभाव का ऊपर उठना आमदनी पर निर्भर करता है, और ऊंची बेरोजगारी दर इसकी संभावना को धूमिल कर देती है। जाहिर है, इसका असर अर्थव्यवस्था पर होगा, और अर्थव्यवस्था का असर मानव जीवन पर, सामाजिक ताने-बाने पर। बीते वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर घटकर 4.4 फीसद रह गई।

हालांकि चौथी तिमाही में सेवा क्षेत्र ने संभाल लिया और विकास दर 6.1 फीसद दर्ज की गई। लेकिन पूरे वित्त वर्ष का विकास दर अनुमान से अधिक यानी 7.2 फीसद रहने के बावजूद वित्त वर्ष 2021-22 के 9.1 फीसद से काफी कम है। वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच मौजूदा वित्त वर्ष का परिदृश्य भी सुखद नहीं है। वैश्विक वित्तीय एजेंसियों ने वित्त वर्ष 2023-24 के लिए भारत की वृद्धि दर के अनुमान घटा दिए हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने 6.1 फीसद के अपने अनुमान को घटाकर 5.90 फीसद कर दिया।

विश्व बैंक ने 6.6 फीसद के अनुमान को घटाकर 6.3 फीसद, और एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने अपने अनुमान को 7.2 फीसद से घटाकर 6.4 फीसद कर दिया है। नोमुरा के अनुसार, भारत की वृद्धि दर मौजूदा वित्त वर्ष में 5.3 फीसद रहनी है। बेशक, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने मौजूदा वित्त वर्ष की अपनी पहली नीतिगत समीक्षा में विकास दर अनुमान को 6.4 फीसद से बढ़ाकर 6.5 फीसद किया है। लेकिन विशेषज्ञों की नजर में यह अति आशावादी आंकड़ा है, जहां तक पहुंच पाना कठिन है।

बेरोजगारी दर के आंकड़े दो प्रवृत्तियों से प्रभावित होते हैं- श्रमिक भागीदारी दर और रोजगार सृजन। श्रम बाजार में श्रमिकों की भागीदारी बढ़ गई और उसके अनुसार रोजगार सृजन नहीं हुआ तो बेरोजगारी दर ऊंची दिखेगी। रोजगार सृजन नहीं भी हुआ, मगर श्रमिक भागीदारी घट गई तो बेरोजगारी दर नीचे दिखेगी। लेकिन यहां तो श्रमिक भागीदार घटने के बाद भी बेरोजगारी दर बढ़ रही है।

इसे सुन सकते हैं – बीएचयू कुलगीत – मधुर मनोहर अतीव सुंदर ये सर्वविद्या की राजधानी

सीएमआइई के अनुसार, मार्च 2023 में श्रमिक भागीदारी दर घटकर 39.8 फीसद रह गई, जो फरवरी 2023 में 39.9 फीसद थी। लेकिन बेरोजगारी दर फरवरी के 7.5 फीसद से बढ़कर मार्च में 7.8 फीसद हो गई। हां, अप्रैल 2023 में श्रमिक भागीदारी दर और बेरोजगारी दर दोनों में वृद्धि हुई। श्रमिक भागीदारी दर मार्च 2023 के 39.8 फीसद से बढ़कर अप्रैल 2023 में 41.98 फीसद दर्ज की गई, और बेरोजगारी दर फरवरी 2023 के 7.8 फीसद से बढ़कर मार्च 2023 में 8.11 फीसद हो गई।

अप्रैल 2023 की श्रमिक भागीदारी दर पिछले तीन सालों में सर्वाधिक रही है। महामारी की शुरुआत यानी मार्च 2020 में श्रमिक भागीदारी दर 41.9 फीसद थी, और तब बेरोजगारी दर 8.74 फीसद। उसके बाद से श्रमिक भागीदारी दर लगातार 41 फीसद से नीचे रही है। रोजगार बाजार की बुरी हालत के बावजूद अप्रैल 2023 में श्रमिक भागीदारी दर में वृद्धि इस बात का भी संकेत है कि श्रमिकों के भीतर बेरोजगारी के प्रति आस्था अब हिलने लगी है, और स्थायी भाव (अस्थिरता) उमड़ने लगा है।

सवाल उठता है आखिर बेरोजगारी की समस्या स्थायी क्यों होती जा रही है? और इसका समाधान क्या है? आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद से भारत का सार्वजनिक क्षेत्र लगातार सिमट रहा है। ऐसे में रोजगार पैदा करने का दारोमदार निजी क्षेत्र पर है। निजी क्षेत्र मुनाफे के लिए काम करता है। निवेश तभी करता है, जब मुनाफे के साथ लागत की वापसी का भरोसा हो। मुनाफा तभी होगा, जब बाजार में मांग हो। मांग तब होगी, जब लोगों की जेब में पैसे हों। बाजार में आज मांग की स्थिति मंद हो चली है।

मांग पर पहली बड़ी मार नोटबंदी और जीएसटी के कारण पड़ी। रही सही कसर महामारी ने पूरी की। अर्थव्यवस्था में 30 फीसद और रोजगार में 40 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले एमएसएमई क्षेत्र की इकाइयों पर ताले लगने लगे। सरकार की तरफ से फरवरी 2023 में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में दिए गए आंकड़े के अनुसार, वित्त वर्ष 2019-20 से लेकर वित्त वर्ष 2022-23 तक 17,452 से अधिक एमएसएमई इकाइयां बंद हो गईं। सर्वाधिक 10,655 इकाइयां अकेले 2022-23 में बंद हुईं। सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में एमएसएमई क्षेत्र के लिए 22,140 करोड़ रुपये का आवंटन किया है, जिसका परिणाम आना अभी बाकी है।

रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई तो महंगाई चरम पर पहुंच गई। मांग को नीचे लाने में इसका भी बड़ा योगदान है। मांग न होने से विनिर्माण क्षेत्र अपनी मौजूदा स्थापित क्षमता का भी इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है। नई क्षमता जोड़ना तो दूर की बात। ऐसे में नौकरियों की सृजन प्रक्रिया पर विराम-सा लग गया है। भारत में रोजगार मुहैया कराने के लिहाज से कृषि क्षेत्र महत्वपूर्ण है। अर्थव्यवस्था का यह इकलौता क्षेत्र है, जो घाटे के बावजूद बंद नहीं होता। यहां श्रमशक्ति का लगभग 45-50 फीसद हिस्सा रोजगार पाता है।

हां, कृषि क्षेत्र में ज्यादातर रोजगार मौसमी होते हैं। फिर भी इस क्षेत्र को अधिक प्रोत्साहन और समर्थन दिया जाए तो भारत की बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है। सरकार के लिए यह प्राथमिकता का क्षेत्र होना चाहिए। लेकिन स्थिति इसके उलट है। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में कृषि क्षेत्र का आवंटन घटा कर कुल बजट का 2.7 फीसद कर दिया गया, जबकि 2022-23 में यह आवंटन कुल बजट का 3.36 फीसद था। धनराशि के मामले में हालांकि आवंटन पिछले वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान के मुकाबले 4.7 फीसद अधिक है। लेकिन पिछले वित्त वर्ष के बजटीय प्रस्ताव से सात फीसद कम।

दूसरी तरफ कुल श्रमशक्ति के लगभग 12 फीसद हिस्से को रोजगार देने वाले विनिर्माण क्षेत्र के लिए सभी सुविधाएं सुलभ हैं। वर्ष 2016 में आइबीसी कानून लाया गया, सितंबर 2019 में कॉरपोरेट कर 30 फीसद से घटाकर 22 फीसद किया गया, और महामारी के बीच उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआइ) योजना लाई गई। मौजूदा वित्त वर्ष के बजट में पूंजीगत निवेश का आवंटन बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपये किया गया तो उसका एक बड़ा हिस्सा परोक्ष रूप से बड़ी कंपनियों को मदद पहुंचाने के लिए है। निजी क्षेत्र फिर भी नौकरियां पैदा नहीं कर पा रहा। नीतिनियंताओं को अपनी इस नीतिगत विफलता पर नए सिरे से मंथन करना चाहिए, और रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों को समर्थन देकर बेरोजगारी की समस्या का स्थायी समाधान खोजना चाहिए।

Saroj-Kumar-283x300 जनता की लाचारी, स्थायी भाव में बेरोजगारी

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)

इसे भी पढ़ें – वह घटना जिसने हरिशंकर तिवारी को अपराध के रास्ते पर ढकेल दिया

Share this content:

Harigovind Vishwakarma is basically a Mechanical Engineer by qualification. With an experience of over 30 years, having worked in various capacities as a journalist, writer, translator, blogger, author and biographer. He has written two books on the Indian Prime Minister Narendra Modi, ‘Narendra Modi : Ek Shakhsiyat’, detailing his achievements as the Gujarat chief minister and other, ‘Narendra Modi: The Global Leader’. ‘Dawood Ibrahim : The Most Wanted Don’ is another book written by him. His satires are regularly published in prominent publications.

You May Have Missed