महंगे ईंधन की आग से झुलसता आम आदमी

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सरोज कुमार

अंतर्राष्ट्रीय बाजार के आधार पर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में हर रोज की वृद्धि अप्रत्याशित भले नहीं है, लेकिन इस अंतहीन वृद्धि का घरेलू बाजार पर असर अप्रत्याशित है। ईंधन की कीमतें अब महंगाई के मुहावरे से आगे निकल कर जेब और जिगर जलाने लगी हैं, खासतौर से आम आदमी झुलस रहा है। इस आग की लपटें देश की अर्थव्यवस्था को भी लपेटे में लेने लपक रही हैं, लेकिन इसे बुझाने की न हमारी कोई तैयारी है, न कोई कोशिश ही दिख रही है। ईंधन की आंच पर अलमबरदारों का यह अंदाज डरावना है।

पेट्रोल-डीजल की कीमतें 137 दिनों के विराम के बाद 22 मार्च से एक बार फिर दैनिक आधार पर बढ़ने लगी हैं। कीमतें पहले भी बढ़ रही थीं, लेकिन दो नवंबर, 2021 की वृद्धि के बाद सरकार ने जन दबाव में चार नवंबर, 2021 को पेट्रोल-डीजल पर केंद्रीय कर क्रमशः पांच रुपये और दस रुपये कम कर दिए थे। लेकिन दैनिक मूल्यवृद्धि का सिलसिला दोबारा शुरू होने के महज पंद्रह दिनों के भीतर ही यह कटौती बेमानी हो गई, और अब तो कीमत चार नवंबर, 2022 की चौखट से आगे निकल चली है। ईंधन की कीमतों में वृद्धि का आधार अगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार है तो फिर एक सौ सैंतीस दिनों तक कीमतें क्यों नहीं बढ़ीं? इसका जवाब तेल कंपनियों के पास नहीं है। जबकि इसी दौरान अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ती रही और एक सौ बीस डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई।

रेटिंग एजेंसी मूडीज के अनुसार, तेल विपणन कंपनियों -आइओसी, बीपीसीएल और एचपीसीएल- को इन एक सौ सैंतीस दिनों के दौरान कुल उन्नीस हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। और अब इस नुकसान की भरपाई हर रोज कीमत बढ़ा कर की जा रही है। प्रश्न उठता है जब नुकसान की भरपाई आम जनता से ही करनी थी तो फिर एक सौ सैंतीस दिवसीय उपवास का क्या अर्थ? अर्थ दरअसल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से जुड़ा था। लेकिन अब इस पर कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है।

इस बात की आशंका हर किसी को थी कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ेंगी। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत तेजी से ऊपर जा रही थी। चार नवंबर, 2021 से पांच अप्रैल, 2022 के दौरान पंद्रह दिनों की अवधि में कच्चे तेल की कीमत में लगभग अट्ठाइस दशमलव चार डॉलर प्रति बैरल की वृद्धि हो चुकी है। वैश्विक हालात कुछ ऐसे हैं कि कच्चे तेल की कीमत निकट भविष्य में नीचे नहीं आने वाली। यदि रूस-यूक्रेन संकट का समाधान जल्द नहीं हुआ तो कीमत ऊपर ही जाएगी। कच्चे तेल की कीमत एक डॉलर प्रति बैरल बढ़ने से घरेलू स्तर पर पेट्रोल-डीजल की खुदरा कीमतें बावन से साठ पैसे प्रति लीटर बढ़ जाती हैं। इस हिसाब से यदि कच्चे तेल की औसत कीमत एक सौ आठ से एक सौ दस (108-110) डॉलर प्रति बैरल पर ही बनी रहती है तो भी पेट्रोल-डीजल की कीमतें अभी लगभग साढ़े पांच रुपये से साढ़े सात रुपये तक बढ़ सकती हैं।

पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि से खासतौर से आम जनता हताशा में है, जिसकी कमाई जमीन पर आ गई है, और आसमानी महंगाई उसे मुंह चिढ़ा रही है। पेट्रोल-डीजल की ऊंची कीमतों का जितना प्रत्यक्ष असर है, परोक्ष असर उससे कम नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, पंद्रह दिनों में डीजल की कीमत में भारी वृद्धि के कारण मोटर परिवहन की संचालन लागत लगभग पच्चीस फीसद बढ़ गई है। इसकी भरपाई परोक्ष रूप से आम जनता को ही करनी है। महंगे डीजल से खेती की लागत भी बढ़ गई है, जिससे किसानों की हालत आगे और पतली होगी।

पेट्रोल-डीजल की ऊंची कीमतें सरकार के लिए भी कम चिंताजनक नहीं हैं। पूरी अर्थव्यवस्था जब ईंधन पर आश्रित हो, तो उसे टिकाए रखने के लिए ईंधन की सस्ती और सुचारु आपूर्ति अनिवार्य है। भारत अपनी ईंधन खपत का पिच्चासी फीसद आयात करता है। लिहाजा, महंगा ईंधन अर्थव्यवस्था को ऊर्जा देने के बदले उसे आग ही लगाएगा। महंगाई के कारण बाजार में मांग घटेगी तो सरकार का कर राजस्व भी घटेगा। इसका असर सामाजिक, आर्थिक और राजनीति, हर तरह की योजनाओं पर पड़ेगा। राजकोषीय घाटा बढ़ेगा, जो पहले ही (वित्त वर्ष 2021-22) जीडीपी का छह दशमलव नौ फीसद है, और नए वित्त वर्ष (2022-23) में उसके छह दशमलव चार फीसद रहने का अनुमान है। राजकोषीय घाटा बढ़ने से देश की साख को बट्टा लगता है। विदेशी निवेश प्रभावित होता है, रुपये की कीमत घट जाती है। परिणामस्वरूप आयात बिल बढ़ता है। बेरोजगारी, महंगाई बढ़ती है। यानी एक ईंधन का अंकगणित गड़बड़ाने से पूरे अर्थचक्र का बीजगणित बिगड़ जाता है।

अर्थचक्र को दुष्चक्र में फंसने से बचाने का उपाय भी एक ही है -पेट्रोल, डीजल की खुदरा कीमतें बढ़ने से रोकी जाएं। इसके लिए जहां एक तरफ तेल उत्पादक देशों से उचित दर पर कच्चे तेल की सुचारु आपूर्ति के लिए रणनीतिक, कूटनीतिक कोशिशें करने की जरूरत है, जैसा कि प्रतिबंधों के बावजूद रूसी कच्चा तेल हासिल करने के लिए किया गया, वहीं भारी भरकम उत्पाद शुल्क में कटौती करना भी वक्त की मांग है। चार नवंबर, 2021 की कटौती के बाद भी पेट्रोल-डीजल पर केंद्रीय कर महामारी से पहले के स्तर से क्रमशः आठ रुपये और छह रुपये प्रति लीटर अधिक है।

केंद्रीय कर के इस हिस्से को तो तत्काल वापस ले ही लेना चाहिए, आगे अतिरिक्त कटौती के बारे में भी सोचना चाहिए। हालात अनुकूल होने तक दैनिक मूल्यवृद्धि की परंपरा भी निलंबित की जा सकती है। सरकार पिछले आठ सालों में पेट्रोल-डीजल पर साढ़े छब्बीस लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि आम जनता से कर के रूप में वसूल चुकी है। आज जब जनता संकट में है तो सरकार के दरियादिली दिखाने की बारी है। अफसोस कि ऐसा कोई संकेत फिलहाल नहीं दिख रहा है। अलबत्ता प्राकृतिक गैस की कीमत बढ़ा दी गई है, जो चोट पर चोट मारने जैसा है।

पहली अप्रैल से प्राकृतिक गैस की कीमत बढ़ाकर दोगुनी कर दी गई है। इसकी भरपाई भी आम जनता को ही करनी है। प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल बिजली पैदा करने, खाद बनाने, सीएनजी और घरों में खाना पकाने के लिए पीएनजी बनाने में किया जाता है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओनएजीसी) नियंत्रित पुराने गैस क्षेत्र से निकलने वाली गैस की कीमत दो दशमलव नौ शून्य डॉलर प्रति मीट्रिक मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट (एमएमबीटीयू) से बढ़ाकर छह दशमलव एक शून्य डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी गई है। जबकि निजी क्षेत्र के नियंत्रण वाले नए गैस क्षेत्रों (केजी-डी6 ब्लॉक) से उत्पादित गैस की कीमत छह दशमलव एक तीन डॉलर प्रति एमएमबीटीयू से बढ़ा कर नौ दशमलव नौ दो डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी गई है। पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनॉलिसि सेल के आंकड़े के अनुसार, फिलहाल (वित्त वर्ष 2021-22) देश में कुल उनसठ हजार छह सौ ग्यारह मिलियन स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर (एमएमएससीएम) प्राकृति गैस की खपत है, जिसमें से उनतीस हजार दो सौ तिरानबे एमएमएससीएम गैस का एलएनजी (तरलीकृत प्राकृतिक गैस) के रूप में आयात किया जाता है।

सरकार प्राकृतिक गैस की कीमत अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे गैस संपन्न देशों में गैस की कीमतों के आधार पर साल में दो बार पहली अप्रैल और एक अक्टूबर को तय करती है। मौजूदा वैश्विक हालात में प्राकृतिक गैस की कीमत तेजी पर है। प्राकृतिक गैस की कीमत में ताजा वृद्धि से सीएनजी और पीएनजी की खुदरा कीमतों में दस से पंद्रह फीसद वृद्धि का अनुमान है। इससे जहां एक तरफ सीएनजी वाहन की सवारी महंगी होगी, वहीं रसोईं का बजट भी बिगड़ेगा। महंगे गैस का असर खाद और बिजली की कीमत पर भी पड़ेगा, जिसकी कीमत आने वाले दिनों में आम जनता को ही चुकानी होगी। राहत की बात इतनी है कि देश के कुल बिजली उत्पादन में गैस उत्पादित बिजली की हिस्सेदारी मात्र छह दशमल तीन फीसद है।

जीवन में ईंधन का अर्थ ऊर्जा प्रदान करने से है। लेकिन ईंधन जब आमजन को निर्धन बनाकर उन्हें निष्प्राण करने की भूमिका में आ जाए तो सवाल ईंधन पर नहीं, उसके प्रबंधन पर खड़ा होता है। ईंधन की ऊर्जा आग की लपटों में तब्दील होकर सबकुछ राख कर दे, इससे पहले हमें कम से कम पानी का कुंआ खोद लेना चाहिए, बाल्टी-रस्सी जुटा लेनी चाहिए।

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।) 

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