एक धार्मिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के कारण मैं हिंदू धर्म, हिंदू इतिहास और हिंदू संस्कृति की पूजा करता हूं। इसलिए मैं संपूर्ण हिंदुत्व पर गर्व करता हूं। जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने अपने अंदर मुक्त विचार करने की प्रवृत्ति को विकसित किया, जो किसी भी राजनैतिक या धार्मिक वाद की असत्य-मूलक भक्ति की बातों से मुक्त हो। यही कारण है कि मैंने अस्पृश्यता और जन्म पर आधारित जातिवाद को मिटाने के लिए सक्रिय रूप से कार्य किया।
मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जातिवाद-विरोधी आंदोलन में खुले रूप में शामिल हुआ और यह मानता हूं कि सभी हिंदुओं के धार्मिक और सामाजिक अधिकार समान हैं। सभी को उनकी योग्यता के अनुसार छोटा या बड़ा माना जाना चाहिए। ना कि किसी विशेष जाति या व्यवसाय में जन्म लेने के कारण। मैं जातिवाद-विरोधी सहभोजों के आयोजन में सक्रिय भाग लिया करता था, जिसमें हज़ारों हिंदू ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चमार और भंगी भाग लिया करते थे। हमने जाति के बंधनों को तोड़ा और एक-दूसरे के साथ भोजन किया।
मैंने रावण, चाणक्य, दादाभाई नौरोजी, विवेकानंद, गोखले, तिलक के भाषणों और लेखों को पढ़ा है। साथ ही मैंने भारत और कुछ अन्य प्रमुख देशों जैसे इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका और रूस के प्राचीन और आधुनिक इतिहास को भी पढ़ा है। इनके अतिरिक्त मैंने समाजवाद और मार्क्सवाद के सिद्धांतों का भी अध्ययन किया है। लेकिन इन सबसे ऊपर मैंने वीर सावरकर और गांधीजी के लेखों और भाषणों का भी गहराई से अध्ययन किया है, क्योंकि मेरे विचार से किसी भी अन्य अकेली विचारधारा की तुलना में इन दो विचारधाराओं ने पिछले लगभग तीस वर्षों में भारतीय जनता के विचारों को मोड़ देने और सक्रिय करने में सबसे अधिक भूमिका निभाई है।
इस समस्त अध्ययन और चिंतन से मेरा यह विश्वास बन गया है कि एक देशभक्त और एक विश्व नागरिक के नाते हिंदुत्व और हिंदुओं की सेवा करना मेरा पहला कर्तव्य है। स्वतंत्रता प्राप्त करने और लगभग 30 करोड़ हिंदुओं के न्यायपूर्ण हितों की रक्षा करने से समस्त भारत, जो समस्त मानव जाति का पांचवा भाग है, को स्वतः ही आज़ादी प्राप्त होगी और उसका कल्याण होगा। इस निश्चय के साथ ही मैंने अपना संपूर्ण जीवन हिंदू संगठन की विचारधारा और कार्यक्रम में लगा देने का निर्णय किया, क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल इसी विधि से मेरी मातृभूमि हिंदुस्तान की राष्ट्रीय स्वतंत्रता को प्राप्त किया और सुरक्षित रखा जा सकेगा एवं इसके साथ ही वह मानवता की सच्ची सेवा भी कर सकेगी।
सन् 1920 से अर्थात् लोकमान्य तिलक के देहांत के पश्चात् कांग्रेस में गांधीजी का प्रभाव पहले बढ़ा और फिर सर्वोच्च हो गया। जन-जागरण के लिए उनकी गतिविधियां अपने आप में बेजोड़ थीं और फिर सत्य तथा अहिंसा के नारों से वे अधिक मुखर हुईं, जिनको उन्होंने देश के समक्ष आडंबर के साथ रखा था। कोई भी बुद्धिमान या ज्ञानी व्यक्ति इन नारों पर आपत्ति नहीं उठा सकता। वास्तव में इनमें कुछ भी नया अथवा मौलिक नहीं है। वे प्रत्येक संवैधानिक जन आंदोलन में शामिल होते हैं, लेकिन यह केवल दिवा स्वप्न ही है यदि आप यह सोचते हैं कि मानवता का एक बड़ा भाग इन उच्च सिद्धांतों का अपने सामान्य दैनिक जीवन में अवलंबन लेने या व्यवहार में लाने में समर्थ है या कभी हो सकता है।
वस्तुतः सम्मान, कर्तव्य और अपने देशवासियों के प्रति प्यार कभी-कभी हमें अहिंसा के सिद्धांत से हटने के लिए और बल का प्रयोग करने के लिए बाध्य कर सकता है। मैं कभी यह नहीं मान सकता कि किसी आक्रमण का सशस्त्र प्रतिरोध कभी ग़लत या अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। प्रतिरोध करने और यदि संभव हो तो ऐसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करने को मैं एक धार्मिक और नैतिक कर्तव्य मानता हूं।
रामायण में राम ने विराट युद्ध में रावण को मारा और सीता को मुक्त कराया। महाभारत में कृष्ण ने कंस को मारकर उसकी निर्दयता का अंत किया और अर्जुन को अपने अनेक मित्रों एवं संबंधियों, जिनमें पूज्य भीष्म भी शामिल थे, के साथ भी लड़ना और उनको मारना पड़ा, क्योंकि वे आक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे। यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि महात्मा गांधी ने राम, कृष्ण और अर्जुन को हिंसा का दोषी ठहराकर मानव की सहज प्रवृत्तियों के साथ विश्वासघात किया था।
अधिक आधुनिक इतिहास में छत्रपति शिवाजी ने अपने वीरतापूर्ण संघर्ष के द्वारा ही पहले भारत में मुस्लिमों के अन्याय को रोका और फिर उनको समाप्त किया। शिवाजी द्वारा अफजल खां को क़ाबू करना और उसका वध करना अत्यंत आवश्यक था, अन्यथा उनके अपने प्राण चले जाते। इतिहास के इन विराट योद्धाओं जैसे शिवाजी, राणा प्रताप और गुरु गोविंद सिंह की निंदा ‘दिग्भ्रमित देशभक्त’ कहकर करने से गांधीजी ने केवल अपनी आत्म-केंद्रीयता को ही प्रकट किया था। वे एक दृढ़ शांतिप्रेमी मालूम पड़ सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे लोकविरुद्ध थे, क्योंकि वे देश में सत्य और अहिंसा के नाम पर अकथनीय दुर्भाग्य की स्थिति बना रहे थे, जबकि राणा प्रताप, शिवाजी एवं गुरु गोविंद सिंह स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने देशवासियों के हृदय में सदा पूज्य रहेंगे।
उनकी 32 वर्षों तक उकसाने वाली गतिविधियों के बाद पिछले मुस्लिम-परस्त अनशन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचने को बाध्य हुआ था कि गांधीजी के अस्तित्व को अब तत्काल मिटा देना चाहिए। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में वहां के भारतीय समुदाय के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए अच्छा कार्य किया, लेकिन जब वे अंत में भारत लौटे, तो उन्होंने एक ऐसी मानसिकता विकसित कर ली जिसके अंतर्गत अंतिम रूप से वे अकेले ही किसी बात को सही या ग़लत तय करने लगे। यदि देश को उनका नेतृत्व चाहिए, तो उसको उनको सर्वदा-सही मानना पड़ेगा और यदि ऐसा न माना जाए, तो वे कांग्रेस से अलग हो जाएंगे और अपनी अलग गतिविधियां चलाएंगे। ऐसी प्रवृत्ति के सामने कोई भी मध्यमार्ग नहीं हो सकता या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसमर्पण कर दे और उनकी सनक, मनमानी, तत्वज्ञान तथा आदिम दृष्टिकोण में स्वर-में-स्वर मिलाए अथवा उनके बिना काम चलाए। वे अकेले ही प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक वस्तु के लिए निर्णायक थे।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन के पीछे प्रमुख मस्तिष्क थे, कोई अन्य उस आंदोलन की तकनीक नहीं जान सकता था। वे अकेले ही जानते थे कि कोई आंदोलन कब प्रारंभ किया जाए और कब उसे वापस लिया जाए। आंदोलन चाहे सफल हो या असफल, चाहे उससे अकथनीय आपदाएं और राजनैतिक अपघात हों, लेकिन उससे उस महात्मा के कभी-ग़लत-नहीं होने के गुण पर कोई अंतर नहीं पड़ सकता। अपने कभी-ग़लत-न-होने की घोषणा के लिए उनका सूत्र था- ‘सत्याग्रही कभी असफल नहीं हो सकता’ और उनके अलावा कोई नहीं जानता कि ‘सत्याग्रही’ होता क्या है। इस प्रकार महात्मा गांधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे। इन बच्चों जैसे पागलपन और स्वेच्छाचारिता के साथ अति कठोर आत्मसंयम, निरंतर कार्य और उन्नत चरित्र ने मिलकर गांधीजी को भयंकर रूप से उग्र तथा निर्द्वंद्व बना दिया था।
बहुत से लोग सोचते थे कि उनकी राजनीति विवेकहीन थी, पर या तो उन्हें कांग्रेस को छोड़ना पड़ा या अपनी प्रतिभा को गांधीजी के चरणों में डाल देना पड़ा, जिसका वे कोई भी उपयोग कर सकते थे। ऐसी पूर्ण ग़ैरज़िम्मेदारी की स्थिति में गांधीजी भूल पर भूल, असफलता पर असफलता और आपदा पर आपदा पैदा करने के अपराधी थे। भारत की राष्ट्र भाषा के प्रश्न पर गांधीजी की मुस्लिमपरस्त नीति उनकी हड़बड़ीपूर्ण प्रवृत्ति के अनुसार ही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि देश की प्रमुख भाषा बनने के लिए हिंदी का दावा सबसे अधिक मज़बूत है। अपने राजनैतिक जीवन के प्रारंभ में गांधीजी हिंदी को बहुत प्रोत्साहन देते थे, लेकिन जैसे ही उनको पता चला कि मुसलमान इसे पसंद नहीं करते, तो वे तथाकथित ‘हिंदुस्तानी’ के पुरोधा बन गए। भारत में सभी जानते हैं कि ‘हिंदुस्तानी’ नाम की कोई भाषा नहीं है, इसका कोई व्याकरण नहीं है और न इसकी कोई शब्दावली है। यह केवल एक बोली है, जो केवल बोली जाती है, लिखी नहीं जाती। यह हिंदी और उर्दू की एक संकर या दोगली बोली है और महात्मा गांधी का मिथ्यावाद भी इसे लोकप्रिय नहीं बना सकता। लेकिन केवल मुस्लिमों को प्रसन्न करने की अपनी इच्छा के अनुसार उनका आग्रह था कि केवल ‘हिंदुस्तानी’ ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। हालांकि उनके अंधभक्तों ने उनका समर्थन किया और वह तथाकथित भाषा उपयोग की जाने लगी। इस प्रकार मुस्लिमों को ख़ुश करने के लिए हिंदी भाषा के सौंदर्य और शुद्धता के साथ बलात्कार किया गया। उनके सारे प्रयोग केवल हिंदुओं की कीमत पर किए जाते थे।
अगस्त 1946 के बाद मुस्लिम लीग की निजी सेनाओं ने हिंदुओं का सामूहिक संहार प्रारम्भ किया। नोआखली में सुरहावर्दी के सरकारी संरक्षण में मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों ने हमारा खून खौल डाला। हमारे शर्म और आक्रोश की कोई सीमा नहीं थी जब हमने देखा कि गांधीजी उसी सुरहावर्दी के बचाव के लिए आगे आए और अपनी प्रार्थना सभाओं में उन्हें ‘शहीद साहब’ के रूप में अलंकृत किया। तत्कालीन वायसराय लार्ड वैवेल ने इन घटनाओं से व्यथित होते हुए भी भारत सरकार क़ानून 1935 के अनुसार प्राप्त अपनी शक्तियों का उपयोग बलात्कार, हत्या और आगजनी को रोकने के लिए नहीं किया। बंगाल से कराची तक हिंदुओं का ख़ून बहता रहा, जिसका प्रतिरोध हिंदुओं द्वारा कहीं-कहीं किया गया। सितंबर में बनी अंतरिम सरकार के साथ मुस्लिम लीग के सदस्यों द्वारा प्रारंभ से ही विश्वासघात किया गया, लेकिन सरकार के साथ, जिसके वे अंग थे, जितने अधिक राजद्रोही और विश्वासघाती होते जाते थे, उनके प्रति गांधीजी का मोह उतना ही बढ़ता चला जाता था। लॉर्ड वैवेल को त्यागपत्र देना पड़ा, क्योंकि वे इस समस्या को हल नहीं कर सके और उनकी जगह लार्ड माउंटबेटन आए, जैसे नागनाथ की जगह सांपनाथ आए हों।
कांग्रेस ने, जो अपनी देशभक्ति और समाजवाद का दंभ किया करती थी, गुप्त रूप से बंदूक की नोंक पर पाकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के टुकड़े कर दिए गए और 15 अगस्त 1947 के बाद देश का एक-तिहाई भाग हमारे लिए विदेशी भूमि हो गई। कांग्रेस में लार्ड माउंटबेटन को भारत का सबसे महान वायसराय और गवर्नर-जनरल बताया जाता है। सत्ता के हस्तांतरण की आधिकारिक तिथि 30 जून 1948 तय की गई थी, परंतु माउंटबेटन ने अपनी निर्दयतापूर्ण चीरफाड़ के बाद हमें 10 महीने पहले ही विभाजित भारत दे दिया। गांधीजी को अपने तीस वर्षों की निर्विवाद तानाशाही के बाद यही प्राप्त हुआ और यही है जिसे कांग्रेस ‘स्वतंत्रता’ और ‘सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण’ कहती है।
हिंदू-मुस्लिम एकता का बुलबुला अंततः फूट गया और जवाहरलाल नेहरू तथा उनकी भीड़ की स्वीकृति के साथ ही एक धर्माधारित राज्य बना दिया गया। इसी को वे ‘बलिदानों द्वारा जीती गई स्वतंत्रता’ कहते हैं। किसका बलिदान? जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने गांधीजी की सहमति से इस देश को काट डाला, जिसे हम पूजा की वस्तु मानते हैं, तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया। गांधीजी ने अपने आमरण अनशन को तोड़ने के लिए जो शर्तें रखी थीं, उनमें एक दिल्ली में हिंदू शरणार्थियों द्वारा घेरी गई मस्जिदों को खाली करने से संबंधित थी, परंतु जब पाकिस्तान में हिंदुओं पर हिंसक आक्रमण किए गए, तब उन्होंने उसके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला और पाकिस्तान सरकार अथवा संबंधित मुसलमानों को इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया।
गांधीजी इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि यदि उन्होंने अपना आमरण अनशन तोड़ने के लिए पाकिस्तान मुसलमानों पर कोई शर्त रखी, तो उनको शायद ही कोई मुसलमान ऐसा मिलेगा जो उनकी ज़िदगी की ज़रा भी चिंता करेगा, भले ही आमरण अनशन में उनके प्राण चले जाएं। इसी कारण उन्होंने अनशन तोड़ने के लिए जानबूझकर मुस्लिमों पर कोई शर्त नहीं लगाई। वे अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते थे कि जिन्ना उनके अनशन से बिल्कुल भी विचलित या प्रभावित नहीं थे और मुस्लिम लीग गांधीजी की आत्मा की आवाज़ का कोई मूल्य नहीं समझती।
13 जनवरी, 1948 को मुझे पता चला कि गांधीजी ने आमरण अनशन पर जाने का फ़ैसला किया था। उन्होंने कारण दिया गया था कि वह हिंदू-मुस्लिम एकता का आश्वासन चाहते थे। लेकिन मैं और कई अन्य आसानी से देख सकते थे कि उका असली मकसद था। केंद्र सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए की राशि का भुगतान करने के लिए मजबूर करना, जिसका भुगतान करने से सरकार ने सिरे से नकार दिया था, लेकिन जनता की सरकार के इस फ़ैसले को गांधीजी के अनशन के अनुरूप उलट दिया गया। मेरे दिमाग़ में उसी समय यह स्पष्ट था कि पाकिस्तान के पक्ष में गांधीजी के झुकाव के साथ तुलना करने पर जनमत की ताकत और कुछ नहीं थी।
गांधीजी को ‘राष्ट्र पिता’ कहा जा रहा है। यदि ऐसा है तो वे अपने पिता जैसे कर्तव्य को निभाने में पूर्णतः असफल रहे, क्योंकि उन्होंने उसके विभाजन की स्वीकृति देकर उसके साथ विश्वासघात किया। मैं साहसपूर्वक कहता हूं कि गांधीजी अपने कर्तव्य में असफल हो गए। उन्होंने स्वयं को ‘पाकिस्तान का पिता’ होना सिद्ध किया। उनकी अंदर की आवाज़, उनकी आत्मिक शक्ति, उनका अहिंसा का सिद्धांत, जिनसे वे बने थे, सभी जिन्ना की लौह-इच्छा के सामने चरमरा गई और वे शक्तिहीन सिद्ध हुए। संक्षेप में, मैंने स्वयं विचार किया और समझ गया कि यदि मैं गांधीजी को मार दूंगा, तो मैं पूरी तरह नष्ट हो जाऊंगा, लोगों से मुझे केवल घृणा ही मिलेगी और मैं अपना सारा सम्मान खो दूंगा, जो कि मेरे लिए जीवन से भी अधिक मूल्यवान है। लेकिन, इसके साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि गांधीजी के बिना भारत की राजनीति अधिक व्यावहारिक तथा प्रतिरोधक्षम होगी तथा सशस्त्र सेनाएं भी अधिक बलशाली होंगी। निस्संदेह मेरा अपना भविष्य पूरी तरह खंडहर हो जाएगा, लेकिन राष्ट्र पाकिस्तान के आक्रमणों से बच जाएगा। लोग भले ही मुझे मूर्ख या पागल कहेंगे, लेकिन राष्ट्र उस रास्ते पर बढ़ने के लिए स्वतंत्र हो जाएगा, जिसको मैं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण के लिए आवश्यक समझता हूं।
इस प्रश्न पर पूरी तरह विचार करने के बाद, मैंने इस संबध में अंतिम निर्णय कर लिया, लेकिन मैंने इस बारे में किसी से भी कोई बात नहीं की। मैंने अपने दोनों हाथों में साहस भरा और 30 जनवरी 1948 को बिरला हाउस के प्रार्थना स्थल पर गांधीजी के ऊपर गोलियां दाग दीं। मैं कहता हूं कि मेरी गोलियां एक ऐसे व्यक्ति पर चलाई गई थीं, जिसकी नीतियों और कार्यों से करोड़ों हिंदुओं को केवल बरबादी और विनाश ही मिला। ऐसी कोई क़ानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके अंतर्गत उस अपराधी को सज़ा दिलाई जा सकती और इसीलिए मैंने वे घातक गोलियां चलाईं। मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी व्यक्ति से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन मैं कहता हूं कि मेरे मन में इस वर्तमान सरकार के प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिसकी नीतियां अन्याय की हद तक मुसलमानों के प्रति अनुकूल हैं, लेकिन इसके साथ ही मैं यह भी स्पष्ट अनुभव करता हूं कि ये नीतियां पूरी तरह गांधीजी की उपस्थिति के कारण बनी थीं।
मैं बहुत ख़ेद के साथ कहना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भूल जाते हैं कि उनके उपदेश और कार्य कई बार एक-दूसरे के प्रतिकूल होते हैं, जब इधर-उधर वे कहते हैं कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राज्य है, क्योंकि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पाकिस्तान के पंथधारित देश की स्थापना में नेहरू ने प्रमुख भूमिका निभाई थी और उनका कार्य गांधीजी द्वारा लगातार मुस्लिमों का तुष्टीकरण करने की नीति द्वारा सरल बन गया था।
मैंने जो भी किया है उसकी पूरी ज़िम्मेदारी लेते हुए मैं अब अदालत के सामने खड़ा हूं और निश्चय ही न्यायाधीश ऐसा आदेश पारित करेंगे, जो मेरे कार्य के लिए उचित होगा। लेकिन मैं यह अवश्य कहना चाहता हूँ कि मैं अपने ऊपर कोई दया नहीं चाहता और न मैं यह चाहता हूँ कि कोई अन्य मेरे लिए किसी से कोई दया-याचना करे। अपने कार्य के नैतिक पक्ष पर मेरा विश्वास सभी ओर से की गई मेरी आलोचनाओं से किंचित भी विचलित नहीं हुआ है। मुझे कोई संदेह नहीं है कि इतिहास के ईमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तौलकर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्यांकन करेंगे।
जय हिंद!
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