ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका तानाबाना में डॉ मुकेश कुमार की परिचर्चा

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ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका तानाबाना में डॉ. मुकेश कुमार ने आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में तेजी से उभरे मध्यवर्ग के बीच से निकले हिंदी के लेखकों के सुविधाजीवी होते जाने के इर्दगिर्द परिचर्चा का आयोजन किया, जिसमें बजरंग बिहारी तिवारी, संजीव कुमार और वंदना चौबे ने हिस्सा लिया।

चर्चा में जो बात मुख्य रूप से उभरकर आई वह यह थी कि जरूरी नहीं कि अपक्लास होते जाने के साथ साहित्यकार जनविरोधी हो जाए, प्रतिक्रयावादी साहित्य रचने लगे और प्रतिरोधी साहित्य से दूरी बना ले। तर्क-विवेक वह दहनपात्र है जिससे गुजरकर नए मनुष्य का जन्म होता है। एक मार्के की बात और सुनने में आई कि इतिहास को आगे की ओर गति देने वाला मज़दूर वर्ग साहित्य में उस तरह से उपस्थित नहीं है, जिस तरह से उसे होना चाहिए क्योंकि साहित्यकारों ने मज़दूरों के बीच एक्टिविज्म से अपेक्षाकृत दूरी बना रखी है। तो पेश है चर्चा के मुख्य अंशः

मुकेश कुमारः डॉ. मुकेश कुमारः हमारा लेखक आजीविका के लिए कुछ और करता है और पार्ट-टाइम में साहित्य रचता है। क्या जो भौतिक परिस्थितियाँ बनी हैं, साहित्य पर उसका कोई असर दिख रहा है? आर्थिक परिस्थितियाँ बेहतर हुई हैं और उसके साथ ही साथ साहित्य में धार भी पैनी हुई है, यह कहना तो विरोधाभास है। जब जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम हो जाती है, आदमी सुविधाभोगी हो जाता तो उसका साहित्य पर असर पड़ना लाजिमी है कि नहीं?

बजरंग बिहारीः संस्कृत साहित्य में बताया गया है कि लेखन यश और धन की कामना में किया जाता है। पर अब समय बदला है और लेखक अब बिना राजकीय संरक्षण के भी लिख-पढ़ रहा है। लेखक के सुविधाजीवी होने के सवाल पर राजेंद्र यादव के हवाले से कहा कि ऐसा कौन सा पुरस्कार है, जिसे पाने के बाद लेखक फ्लैट खरीद सकता है, मकान की बात तो छोड़ ही दीजिए। जो थोड़ी-बहुत सुविधाएं थीं भी वे ले ली गई हैं। लेकिन हम जानते हैं कि इसी दौर में लिखने के ही कारण पानसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश और नरेंद्र दाभोलकर मारे गए। उन्होंने कहा कि जो प्रतिबद्ध लेखकर हैं, वे किसान आंदलोन शाहीन बाग आंदोलन हर जगह मौजूद थे। कौन क्या लिख रहा था, कौन क्या स्टैंड ले रहा था, कौन किस तरफ खड़ा था। उन्होंने कहा कि बदलते समय के हिसाब से जो रचनाकर्मी सक्रिय हैं उनकी अंतर्वस्तु और धारदार हुई है।

इस प्रश्न के उत्तर में कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब मिलकर अपनी बिरादरी साहित्यकार को बचाने में लगे हुए हैं, किंतु-परंतु के साथ, वंदना चौबे ने कहा कि पहले तो एक बात मैं स्पष्ट कर दूँ कि मैंने अपनी बात में यह नहीं कहा है कि लेखक सुविधाभोगी नहीं हुआ है। मैं कुछ बेस की बातें बता रही थी कि लेखक किस वर्ग से जुड़ा हुआ है। बहुत आसानी से यह बात समझी जा सकती है कि उत्पादन संबंध जब बदलता है तो सब कुछ बदलता है। हर चीज बदलती है। लेखक कोई ऐसी चीज नहीं है कि वह नहीं बदलेगा। आर्थिक स्थितियाँ जुड़ी हैं ही उसके साथ, उत्पादन संबंधों के बदलाव के साथ समाज में जो परिवर्तन होता है लेखक के लेखन में, उसकी सोच में, रहन-सहन में हर चीज में बदलाव है। जो जाहिर सी बात है कि वह जो हमारा लेखक हुआ है मध्यवर्गीय, सरकारी सुविधाओं के कारण इस तरफ भर्ती हुआ है।

सर्वहारा से कटा है। गरीब जनता से कटा है। कमजोरों से कटा है। तो वह तीखापन नहीं आएगा। आप मार्क्सवाद की किताब पढ़ें, आप इस विचारधारा की किताब पढ़ें, आप इतने सारे साहित्य पढ़ लें, आप फ्रेंच भी पढ़ लें, आप अफ्रीकन भी पढ़ लें। सारा कुछ लिख देने से नहीं होता जब तक आप वर्ग के साथ प्रैक्टिस में उस तरह से नहीं जुड़ते। तीखेपन में, धार में वह बात नहीं रहती। यह बहुत सीधा कारण है कि उस वर्ग से जो लेखक कटा है जैसे अन्य लोग कटे हैं। जैसे समाज कटा है। और एलियनेट हुआ है उस वर्ग से।

इस वजह से लेखन में प्रतिरोध तो दिखता है लेकिन वह काम इसलिए नहीं कर रहा है कि प्रैक्टिस में वह कहीं न कहीं उस वर्ग से क्रमशः कटता गया है। और यह बहुत बड़ी वजह है कि लेखक व्यापक जनसमुदाय से कटा है और अगर हम ध्यान नहीं देंगे तो ऊपर-ऊपर जो दिखता है वह तो नजर आएगा लेकिन हम सारतत्व को पकड़ नहीं पाएंगे।
जब जोखिम लेने की प्रवृत्ति घट जाती है, सुविधाएं आ जाती हैं तो उसका असर साहित्य पर पड़ना लाजिमी है कि नहीं? इस सवाल के जवाब में कहा कि सबसे पहले यह जो विषय है हमारा सुविधाभोगी होने का यह हमें जानना चाहिए कि सुविधाभोग दरअसल है क्या? हिंदी में इस समय दो-तीन तरह के लेखक सक्रिय हैं और एक लंबे अर्से से सक्रिय हैं जिसमें एक पूरा वर्ग ऐसा है जो अध्यापन से जुड़ा हुआ है, अकदामिक जगत से जुड़ा हुआ है, एक ऐसा वर्ग है जो होलटाइमर की तरह से लेखन से जुड़ा हुआ है पर वह अलग तरह से काम कर रहा है और दूसरे लोग भी हैं जो लेखन से जुड़े हुए हैं।

अगर इसमें भी फर्क किया जाए तो एक वर्ग ऐसा है जो कला की तरह से जुड़ा हुआ है, रूप को लेकर चलता है, अंतर्वस्तु पर उसका उतना जोर नहीं है। एक वर्ग ऐसा है जो जनसंगठनों और तमाम तरह के प्रतिरोधी साहित्य को समझते हुए चल रहा है। तो कई प्रकार के वर्ग हैं जो चल रहे हैं। लेखक को बाजार किस तरह से प्रोडक्ट बना रहा है। कैसे उसको बेच रहा है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जहाँ पर तमाम अभावों की जिंदगी जीने वाले साहित्यकारों ने प्रतिक्रियावादी साहित्य रचा। वहीं, जब प्रगतिशील आंदोलन चला तो तमाम सुविधासंपन्न लोगों ने भी प्रतिरोधी साहित्य रचा। सपाटबयानी ठीक नहीं कि हिंदी का लेखक सुविधाभोगी बन गया है, कहाँ से सुविधाभोगी बन गया है? प्रकाशकों की मोनोपोली आप देख रहे हैं। बाजार की मोनोपोली आप देख रहे हैं। आर्थिक स्थितियाँ आप देख रहे हैं। ऐसे में हिंदी का लेखक एक लोक लेखक की तरह से फिलहाल रहता है। थोड़ा उसने राइज किया है। लेकिन वह बेस्ट सेलर की परंपरा में नहीं शामिल है। और प्रतिरोध का साहित्य भी हिंदी साहित्यकार रच रहा है।

संजीव कुमारः आय बढ़ी है, एक वर्ग ऐसा है जो उदारीकरण के बाद फलफूल रहा है। जब आप इस संदर्भ में बात कर रहे होते हैं तो मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि आप रचना से होने वाली आय की बात नहीं कर रहे होते हैं। हम जानते हैं कि हिंदी के लेखक प्रकाशकों से मिलने वाली रॉयल्टी की वजह से ज्यादा नहीं कमा रहे हैं। बल्कि वे अपने किसी पेशे की वजह से कमा रहे होते हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि आय की दृष्टि से लेखक की दशा बेहतर हो और वह “सुविधाभोगी” भी हो जाए, बावजूद इसके उसके लेखन पर इसका असर नहीं पड़े।

लेखन पर पड़ने वाले असर का मामला थोड़ा बारीक अध्ययन का विषय है। यह इतना सपाट नहीं है। यह कहना एक तरह का पॉजिटिविज्म है कि कल तक लेखक जनता के पक्ष में नारे लगा रहा था। और एकाएक सुविधाभोगी हुआ कि उसने जनता के पक्ष में नारे लगाना बंद कर दिया। यह एक तरह का विधेयवाद है कि आप तुरंत आर्थिक स्थिति के साथ जोड़ लें। साहित्य स्वयं साहित्य की परंपरा से ही बनता है। हिंदी साहित्य की मुख्यधारा अगर जनपक्षधर रही है तो उस मुख्यधारा का असर आगे के लेखन पर बना रहेगा और वह उस रूप में भी बना हुआ है।

उन्होंने आगे कहा कि शायद यह भी एक सरलीकरण होगा कि कोई व्यक्ति अगर अपने जीवन में बहुत जोखिम नहीं ले सकता है क्योंकि उसके पास इतनी सुविधाएं इकट्ठा हो गई हैं कि उनको गँवाने का भय बहुत बड़ा हो गया है तो इसका मतलब यह है कि उसकी तार्किकता, उसकी लोगों के बारे में सोचने की क्षमता, उसकी व्यवस्था की क्रिटीक देने की भी क्षमता कम हो गई है। ऐसा नहीं होता। हम आप जानते हैं कि ऐसे कई उदाहरण हैं, जो शायद जेल नहीं जाना चाहेंगे और जो ऐसे किसी मौके में शामिल नहीं होंगे जिससे कि उनका जेल जाना सुनिश्चित होता हो लेकिन अगर उनके क्रिटिसिज्म को इतनी दूरी तक व्यवस्था जवाब देने के लिए तैयार नहीं है तो वह वैध क्रिटिसिज्म होगा और शायद तार्किक क्रिटिसिज्म भी होगा, इस रूप में मैं लेखन के अंदर उभरने वाली आलोचनाओं को और लेखन की जनपक्षधरता को देखता हूँ।

मतलब मैं आपको बताऊँ कि मैं स्वयं मैं ऐसी किसी स्थिति में रिस्क शायद नहीं ले पाऊँगा, जहाँ मुझे बोलने की वजह से अंदर कर दिया जाए। लेकिन मैं जो लिखता हूँ उसे आप पढ़ सकते हैं और मैं पूरी तार्किकता के साथ वह आलोचना पेश कर पा रहा हूँ। उस आलोचना को कहाँ तक ले जाना है। अपने व्यक्तिगत जीवन में जोखिम के स्तर पर इसके मामले में हो सकता है कि मैं एक कदम पीछे खींच लूँ। तो मैं यही कहना चाहता हूँ कि सीधा-सीधा यह रिश्ता नहीं है कि जैसा कि आपने अभी कहा कि आर्थिक स्थितियाँ बेहतर हुई हैं और कैसे हो सकता है कि लेखन में वह तेवर बचा रह जाए। वह तेवर बचा रह सकता है, मुझे यह लगता है और लेखन से, साहित्यिक लेखन से शायद इस व्यवस्था को बहुत खतरा नहीं है और अभी जो बात आई है कि हिंदी के लेखक गिरफ्तार नहीं हुए हैं जो गिरफ्तार हुए हैं वह दूसरी भाषाओं के हुए हैं। तो हिंदी के लेखक की दुनिया इतनी छोटी है कि उससे व्यवस्था को खतरा अभी नहीं हो पा रहा है। हमें इस मामले में हिंदी और दूसरी भाषाओं के बीच फर्क करना चाहिए। अगर भाषाओं से जातीयताएं बनती हैं और उन जातीयताओं के अपने स्वभाव होते हैं, उनकी अपनी प्रकृति होती है तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि ये अलग-अलग हैं। कलबुर्गी साहब जिनके लिए लिख रहे थे वे अलग लोग थे।

मेरे पढ़ने की जो रेंज है, उसमें ऐसा नहीं लगता कि जनता के प्रश्नों से बचने की कोई कोशिश है। अगर आपको किसी रचनाकार के यहाँ मॉब-लिंचिंग का वर्णन नहीं मिलता है तो किसी और रचनाकार के यहाँ वह मिल जाएगा। किसी के यहाँ किसानों का सवाल मिल जाएगा। किसानों की आत्महत्या के प्रश्न मिल जाएंगे। हाँ, थोड़ा ट्रेड-यूनियन और मज़दूर के प्रश्न शायद कम मिलेंगे। उनके बारे में लेखकों का संभवतः अपना व्यक्तिगत अनुभव कम हो गया है। और वह अभी परिदृश्य से भी गायब हैं। इसलिए कि वह विषय नहीं बन पा रहे हैं। अभी साहित्य की दुनिया से जिसे हम लेखक का सुविधाभोग कह रहे हैं, उसका स्पष्ट रिफ्लेक्शन हमको साहित्यिक दुनिया में नहीं दिखता है। रचना की दुनिया में नहीं दिखता है। पर सामाजिक सक्रियता की दुनिया में दिख रहा है। इस बात को मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ।

मुकेश कुमारः जो रचनाकर्म हो रहा है वह आम लोगों के बारे में नहीं हो रहा है क्योंकि मध्यवर्ग ऊपर उठ गया और उसकी चिंताएं भी, सरोकार भी बदल गए हैं। आपके हित-अहित की पहचान बदल जाती है। तो विषय बदले होंगे, उसी तरह से। बाजारवाद ने आमदनी बढ़ाई है, बहुत सुख-सुविधाएं बढ़ाई हैं। और इस वजह से जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम हुई है। सारे समाज में यह हुआ है तो साहित्यकार भी तो उसी समाज का हिस्सा हैं। तो उनमें भी उसका असर हुआ होगा। लेकिन साहित्य में इसका असर न पड़े यह भी हो सकता है क्या? जब नई कहानियों का आंदोलन शुरू हुआ था तो उसे इस तरह से भी चिह्नित किया गया था कि जो उस आंदोलन से जुड़े लेखक हैं वे मध्यवर्ग की समस्याओं पर लिख रहे थे। तो उस समय तो मध्यवर्ग उस तरह से नहीं था। उसके बाद के दौर में इतने जबर्दस्त तरीके से मध्य वर्ग बना-समृद्ध हुआ तो क्या ऐसा तो नहीं है कि हमारे लेखक और भी ज्यादा अपर मिडिल क्लास के विषय चुनने लगे हों।

बजरंग बिहारीः सवाल बिल्कुल ठीक है कि जिस वर्ग से लेखक आ रहा है उसका तो अंदर होगा ही लेकिन उस वर्ग से वह आगे जाता भी है इसलिए रचनाकार है। मेरा विशेष अध्ययन दलित साहित्य को लेकर है। स्थितियाँ बदली हैं, शिफ्टिंग हुई है लेकिन लेखक और हमलावर हुआ है। अपने प्रति भी क्रिटिकल हुआ है और सत्ता को लेकर उसने एक स्टैंड लिया। सुविधाएं छिन सकती है, नौकरी जा सकती है, पेंशन खत्म हो सकती है, बावजूद इसके अंतर्वस्तु में शार्पनेस है।

प्रस्तुति – कामता प्रसाद

यह रहा परिचर्चा का लिंक

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