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Is Sonam Raghuvanshi Really a Murderer — Or a Victim of a Social Crime?

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Until a court of law proves Sonam Raghuvanshi guilty, it is unjust to label her a criminal or cast aspersions on her womanhood. It is possible that she murdered her husband, Raja Raghuvanshi — but it is equally possible that she did not. This one decision, made under social pressure, destroyed three lives: Raja, who lost his life; and Sonam and Raj Kushwaha, whose lives — along with those of their families — were irreparably damaged.

Personally, I never place blind faith in police theories. Police investigations are often shaped by the need to preserve their public image. To do so, they may distort the nature of incidents that threaten their credibility. As a result, real events often become secondary to manipulated narratives. Tragically, it is these altered narratives that form the basis of courtroom arguments, leading to the accused being acquitted in many cases. This, our society calls justice.

Raghuvanshi Raja — who lost his life is riddled with questions that raise doubts: Did Sonam truly conspire to kill her husband? In her wedding photographs, she’s smiling freely, dancing with Raja. There’s no visible pain — none of the forced smiles that usually reveal inner turmoil. A fake smile is easy to detect unless one is an extraordinary actor.

Even now, my mind only accepts the theory of her guilt under great pressure. Left to itself, it resists the idea that she killed her husband — especially one to whom she pledged lifelong companionship just two weeks earlier. Sonam is a young woman, about 25 or 26 — a complete woman in every sense. And a woman — by nature — not take life. She creates, she does not destroy. That is an eternal truth. When a woman acts against this fundamental nature — even if it’s labeled a crime — there is usually a deeply personal reason, one that rarely comes to public light.

And yet, under the weight of circumstances, I accept that Sonam may have played a role in Raja’s murder. I even concede to the police’s claim that a man named Raj Kushwaha was her lover, and that the two plotted to eliminate Raja, who came in the way of their love. But if someone, whether man or woman, is willing to commit murder to reclaim their lover, then it calls into question the very foundation of our society.

In today’s digital age, love rarely remains hidden. Parents often sense their children’s emotions. But our patriarchal society — more accurately, anti-woman society — continues to view love as immoral, improper, and even illegal. It refuses to accept or recognize it. Love is the axis of life, and yet, tradition-bound society views it with contempt.

Sonam’s father, a businessman, may have discovered her love affair — and it may have upset him, especially since the man she loved was a servant. In India, servants are often treated with disdain. No one considers them equals. So, if a wealthy man’s daughter falls for a servant, her “crime” is multiplied. Marrying a servant would invite ridicule. Thus, the very idea of marrying his daughter to her lover was unacceptable.

If Sonam was indeed involved in Raja’s murder, her father and those who forced the marriage are also responsible. Forcing a woman to marry someone she doesn’t love — or a man to marry a woman who loves someone else — is deception. It is a social crime. If Sonam loved someone else — even if he was a servant — why was she forced to marry Raja?

This one decision, made under social pressure, destroyed three lives: Raja, who lost his life; and Sonam and Raj Kushwaha, whose lives — along with those of their families — were irreparably damaged. These questions must be asked of Sonam’s father.

If these truths remain unexplored, and Sonam and Raj are tried and punished solely based on police claims, true justice will not be served. And until true justice prevails in our society, such tragedies will keep repeating. Because the attraction between man and woman is natural — it cannot be suppressed in the name of tradition. Love will continue, regardless of how many restrictions are imposed upon it.

I recently visited Europe. There too, Indian communities exist. Some are immigrants, others are descendants of indentured laborers who once migrated to Suriname and now live in the Netherlands. In their societies, arranged marriages do happen — but the children choose their own partners. The role of the family is limited to facilitating the marriage. This is a tradition that parents against love marriages should accept.

If Sonam really participated in Raja’s murder, the root cause may well be her forced marriage. She could never mentally accept the relationship. When Raj suggested removing Raja from their lives, she may have agreed without hesitation. The marriage had disturbed her psyche, planting seeds of hatred instead of affection. What kind of marriage breeds hatred, not joy?

This is why many young Indians today are turning away from the institution of marriage. Because it’s no longer a source of companionship — but a breeding ground for coercion, conflict, and collapse.

Harigovind Vishwakarma

स्त्री विरोधी समाज की सबसे बड़ी बिडंबना

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सोनम को देखकर क्या लग रहा है कि उसकी उस पुरुष से शादी हुई है जिससे वह प्रेम नहीं करती?

हरिगोविंद विश्वकर्मा

मुझे अब भी नहीं लग रहा है कि सोनम रघुवंशी ने अपने पति राजा रघुवंशी का क़त्ल किया होगा। मैं कभी पुलिस की थ्यौरी पर यक़ीन नहीं करता। पुलिस जब जांच शुरू करती है, तो उस पर यह दबाव होता है कि लोगों में उसकी इमैज न ख़राब हो। इसलिए अपनी इमैज की रक्षार्थ पुलिस अक्सर उन घटनाओं की प्रकृति ही बदल देती है, जो घटनाएं उसकी इमैज के विपरीत जाती हैं। यानी ज़्यादातर घटनाएं असली घटना कम, कृत्रिम घटना ज़्यादा हो जाती हैं और उससे भी बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उसी कृत्रिम घटना पर अदालत में तर्क-बितर्क होता है और ज़्यादातर मामलों में आरोपी बरी कर दिया जाता है। इसी को हमारा समाज न्याय कहता है।

ऐसे में राजा रघुवंशी की हत्याकांड में ढेर सारे प्रश्न हैं, जो मन में संदेह पैदा करते हैं कि सोनम ने ही राजा की हत्या की साज़िश रची होगी। अपनी शादी के फोटो में तो वह बिंदास हंस रही है। राजा के साथ डांस भी कर रही है। उसके चेहरे पर वह दर्द नहीं दिख रहा है, जो दर्द ज़बरदस्ती हंसने पर छलकता है और सबको दिख जाता है। लोग जान जाते हैं कि यह हंसी ज़बरी हंसी है। ज़बरदस्ती हंसने पर उभरने वाली पीड़ा को कोई इंसान छुपा नहीं पाता, बशर्ते कि वह बहुत बढ़िया अभिनेता या अभिनेत्री न हो। मतलब अगर सोनम ने ही साज़िश रची है तो वह शातिर दिमाग़ की होगी।

इसलिए सोनम क़ातिल है, यह सिद्धांत मेरा मन अतिरिक्त दबाव डालने पर ही मान रहा है। मन को स्वछंद छोड़ दें तो वह नहीं मान रहा है कि सोनम ने ही हत्या की होगी। वह भी अपने पति की, जिसके साथ दो हफ़्ते पहले ही उसने जीवन गुज़ारने की अग्नि के सामने शपथ ली थी। सोनम 25-26 साल की युवती है। यानी पूर्ण स्त्री है। स्त्री जननी होती हंता नहीं। स्त्री जान देती है, जान लेती नहीं। स्त्री सृजन करती है, संहार नहीं। यह शाश्वत सच है। जहां भी स्त्री अपनी प्रकृति के विपरीत कार्य करती है, चाहे उस कार्य को अपराध ही क्यों न कहा जाए, वहां बहुत ही जेवुइन रिज़न होता है और अक्सर वह जेवुइन रिज़न कभी लोगों के सामने नहीं आ पाता।

इसके बावजूद मैं अपने मन पर अतिरिक्त दबाव डालकर मान लेता हूं कि राजा की हत्या की साज़िश में उसकी पत्नी सोनम किसी न किसी क़िरदार में शामिल रही है। पुलिस का यह दावा भी मान लेता हूं कि राज कुशवाहा नाम का युवक उसका प्रेमी है और अपने प्रेम के बीच में आए राजा को हटाने के लिए दोनों उसकी हत्या की साज़िश का हिस्सा बन गए। अपने प्रेम को वापस पाने के लिए अगर कोई व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, ख़लल पैदा करने वाले या वाली की हत्या में भागीदार बनता है, तो यह हमारे सामाजिक ताने बाने पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह है।

आज के मोबाइल के दौर में प्रेम छिपता नहीं। माता-पिता को तो अपने बच्चों के हाव-भाव से ही पता चल जाता है कि वह प्रेम में है। हमारे पितृसत्तामक या कहें कि स्त्री विरोधी समाज की सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि वह प्रेम को ग़लत, अनुचित कहता है। अवैध कहता है। उसे मान्यता देने से ही इनकार करता है। प्रेम जीवन की धुरी है, लेकिन परंपराओं में बंधा समाज उसे ही हिकारत भरी नज़रों से देखता है। ज़ाहिर है कि इस समाज में रहने वाली सोनम के व्यापारी पिता ने हो सकता है बेटी के प्रेम को देख लिया हो, लेकिन चूंकि वह समाज का हिस्सा हैं, तो उन्हें बेटी का प्रेम नागवार लगा हो, क्योंकि उनकी बेटी का प्रेम उनके नौकर से था। भारत में नौकर को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है। कोई भी व्यक्ति नौकर को बराबरी का दर्ज़ा नहीं देता। ऐसे में अगर मालिक की बेटी ने नौकर से प्रेम कर लिया तो उसका गुनाह कई गुना अधिक हो गया। नौकर को दामाद बनाना जग-हंसाई है, लिहाज़ा, नौकर से बेटी की शादी की ही नहीं जा सकती।

ऐसे में (अगर सोनम सचमुच राजा की हत्या में शामिल रही तो) सोनम के पिता या जिन लोगों ने उन दोनों के शादी करवाई, वे भी अपराधी हैं, क्योंकि उन्होंने सोनम की राजा से शादी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ करवा दी। किसी स्त्री की शादी उस पुरुष से करवा देना, जिससे वह प्रेम नहीं करती या किसी पुरुष की शादी उस स्त्री से करवा देना जो स्त्री किसी और से प्रेम करती है, यह उस स्त्री और उस पुरुष दोनों के साथ छल है। धोखा है। यह सामाजिक अपराध भी है। जब सोनम किसी और से प्रेम करती थी, भले ही वह उसका नौकर था, तो उसकी शादी राजा के साथ क्यों की गई? सोनम के पिता द्वारा कथित “सामाजिक दबाव” के कारण लिए गए इस फ़ैसले से तीन-तीन लोग सज़ा के भागीदार हो गए। पहली सोनम – शादी के बाद वह ऐसे पुरुष से साथ रहने की सज़ा भोगती, जिससे वह प्रेम नहीं। दूसरा राजा – शादी के बाद वह ऐसी स्त्री के साथ रहने की सज़ा भोगता कि जिस स्त्री के साथ वह एक कमरे में रहता, वह उससे प्रेम ही नहीं करती और तीसरा – राज कुशवाहा भी ऐसी सज़ा का भागीदार होता कि जिस स्त्री से वह प्रेम करता है, वह भले ही मजबूरी में किसी और पुरुष के साथ रहती है। यह नैतिक प्रश्न बेशक सोनम के पिता से पूछा जाना चाहिए।

इसका जवाब जाने बिना अगर आगे की कार्रवाई शुरू की गई। मतलब सोनम, पुलिस के अनुसार उसके कथित प्रेमी राज कुशावाहा के ख़िलाफ़ हत्या और हत्या का षड़यंत्र रचने का मुक़दमा दायर किया गया और उन्हें सज़ा भी दिलवा दी गई तो भी यह इंसाफ़ नहीं होगा। ज़ाहिर है, हमारे समाज में जब तक इंसाफ़ नहीं होता, इस तरह के अपराधों की पुनरावृत्ति होती रहेगी। क्योंकि स्त्री-पुरुष का आकर्षण नैसर्गिक है। इसे परंपरा के नाम पर रोका नहीं जा सकता। प्रेम पर चाहे जितनी बंदिशें लगाई जाएं, प्रेम होता रहेगा।

मैं पिछले सात यूरोप गया था। वहां भी भारतीय समाज है। कुछ भारतीय मूल के हैं तो कुछ लोग भारत से गिरमिटिया मजदूर के रूप में सूरीनाम गए लोगों के वंशज हैं, ये लोग नीदरलैंड में हैं। इनके समाज में भी अरेंज मैरिज होती है, लेकिन अपने लिए जीवन साथी बच्चे ही चुनते हैं। माता-पिता और परिवार की ज़िम्मेदारी केवल उनकी शादी कराने की होती है। यह परंपरा भारत में भी शुरू होनी चाहिए।

सोनम अगर सच में राजा की हत्या में शामिल रही है तो इसका यही कारण हो सकता है कि उसकी ज़बरदस्ती शादी कराई गई या उसे ज़बरदस्ती शादी करनी पड़ी। सोनम इस नए रिश्ते को मानसिक रूप से स्वीकार नहीं कर पाई और जब राज ने उससे उसके पति राजा को राह से हटाने की बात की तो वह सहर्ष तैयार हो गई होगी। मतलब इस शादी से सोनम असंतुलित हो गई। उसके अंदर राजा के लिए घृणा पैदा हो गई। यानी ऐसी शादी का क्या मतलब जो ख़ुशी जगह मन में घृणा पैदा करे। यही वजह है कि देश में लोगों शादी नाम की संस्था से बड़ी तेज़ी से मोहभंग हो रहा है।

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क्या वाकई कोई नवविवाहिता शादी के दो हफ्ते के भीतर साजिश रचकर करवा सकती है अपने ही पति की हत्या?

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क्या डांस करते फोटो में लग रहा है कि सोनम के मन में अपने पति की हत्या करने की साजिश चल रही है?

विचित्र है ये दुनिया न… अभी तक लोग सोनम रघुवंशी की सलामती के लिए दुआ कर रहे थे, लेकिन अचानक उससे नफ़रत करने लगे। कोई उसे क़ातिल कह रहा है कोई डायन। रातोंरात अचानक से वह देश की सबसे बड़ी विलेन बन गई है। अगर उसे लोगों के हवाले कर दिया जाए तो उसे ज़िंदा भी जला सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ने लोगों के माइंडसेट कितना बदल गया है। पढ़े-लिखे लोग पुलिस की बात आंख मूद कर मान लेते हैं, जबकि ज़्यादातर मामलों में पुलिस घटना को अपने अनुसार डिफाइन कर देती है।

सोनम को क़ातिल, हत्यारन, डायन, चुड़ैल, बेवफा आदि जैसे शब्दों से अलंकृत कहने से पहले दिमाग़ से सोचने की ज़रूरत है क्योंकि हमारे शरीर में दिमाग़ भी बनाया गया है, ताकि इंसान किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले थोड़ा सोचे, क्योंकि पता चला है कि सोनम की मानसिक स्थिति भी ठीक नहीं है। वैसे भी राजा हत्याकांड में अभी मेघालय पुलिस सरकमस्टेंशियल एविडेंस (Circumstantial Evidence) यानी परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर उनकी पत्नी सोनम को ‘हत्या का आरोपी’ करार दे रही है। क्या हमारे समाज में कोई पढ़ी-लिखी स्त्री शादी के दो हफ़्ते के अंदर साज़िश रचकर अपने पति को अपने रास्ते से हटा सकती है? मतलब शादी के तुरंत बाद साज़िश रचने की प्रक्रिया शुरू कर देना और पति को लेकर मेघालय चली जाना। वहां मध्य प्रदेश से एक नहीं बल्कि चार-चार हत्यारों को बुला भी लेना। इतना कोऑर्डिनेश एक नवविवाहिता कर सकती है क्या?

घटना के सामने खड़े यक्ष प्रश्न
सोनम रातोंरात सहानुभूति की पात्र से रातोंरात नफ़रत की पात्र हो गई है। उसका राजा से शादी अभी 11 मई 2025 को हुई थी। हालांकि उनकी शादी जनवरी में ही तय हो गई थी। शादी के 9 दिन बाद नव दंपति हनीमून के लिए मेघालय रवाना हुए। 22 मई को कपल ने सोहरा की यात्रा की और शिलांग में 4 दिन के लिए बाइक किराए पर ले ली। 27 मई को राजा की हत्या कर दी गई। अब सोनम ग़ाज़ीपुर में मिली है। छनकर आ रही ख़बरों पर यक़ीन करे तो उसकी मानसिक ठीक नहीं बताई जा रही है।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सोनम ने ही अपने पति की हत्या करवा दी, या फिर राजा रघुवंशी की हत्या किसी बड़ी साज़िश का हिस्सा है? सवाल सिर्फ़ एक हत्या का नहीं है, सवाल है सोच और समाज के न्यायबोध का। जब राजा की रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई और सोनम पर हत्या की साज़िश रचने का आरोप लगा, तो पूरा देश दो हिस्सों में बंट गया, एक तरफ़ वो जो सोनम को दोषी मान बैठे, दूसरी तरफ़ वो जो तथ्यों और न्यायिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लेकिन इन सबके बीच एक सवाल बड़ी गंभीरता से खड़ा होता है, क्या हम, इस देश के लोग, अब भी ‘आरोपी’ और ‘क़ातिल’ में फर्क करना सीख नहीं पाए हैं?

पुलिस को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ सवालों के जवाब तलाशने चाहिए थे। मसलन
– 27 मई की वारदात के बाद से अब तक सोनम कहां थी?
– वह शिलांग पहाड़ों से निकलकर गाजीपुर कैसे पहुंच गई?
– रात दो बजे सुनसान इलाक़े में स्थित ढाबे पर कौन लाया?
– क्या कोई व्यक्ति इस दौरान सोनम की मदद कर रहा था?
– तो वह कौन है? सोनम के फोन और बाकी सामान कहां हैं?
– सोनम के अपने पति की हत्या करवाने का उद्देश्य क्या था?
– क्या सोनम की मर्जी के खिलाफ राजा से उसकी शादी हुई?
– क्या सोनम का शादी से पहले किसी युवक से अफेयर था?
– इंदौर से गिरफ्तार हुए दो आरोपी क्या कॉन्ट्रैक्ट किलर हैं?
– सोनम ने इतने दिनों तक परिवार से संपर्क क्यों नहीं किया?

तथ्यों से पहले फ़ैसले क्यों?
सोनम रघुवंशी के खिलाफ़ जाँच चल रही है। पुलिस की ओर से कुछ सबूतों की बात की जा रही है — कॉल रिकॉर्ड, संदिग्ध लेन-देन, और कुछ गवाहियों का दावा। लेकिन क्या इतने भर से कोई ‘क़ातिल’ साबित हो जाती है? क़ानून की दृष्टि में तब तक कोई दोषी नहीं होता, जब तक अदालत उसे साक्ष्यों के आधार पर दोषी न ठहरा दे। फिर हम क्यों सोशल मीडिया, न्यूज़ चैनलों और अपने ‘व्हाट्सऐप ज्ञान’ के आधार पर किसी को अपराधी घोषित करने लगते हैं?

मीडिया ट्रायल का समाज पर असर
टीवी चैनलों की हेडलाइन्स चीख-चीख कर कह रही हैं, “पत्नी ने करवाई पति की हत्या!”। ऐसी रिपोर्टिंग से समाज में पूर्वाग्रह गहराते हैं। बिना किसी कोर्ट के फ़ैसले के सोनम को ‘क़ातिल’ कहा जा रहा है। कुछ पढ़े-लिखे लोग, जो तथ्यों की समझ रखते हैं, वो भी इस प्रचार से प्रभावित होकर निर्णय दे रहे हैं। क्या हमें नहीं सीखना चाहिए कि “आरोपी होना” और “अपराधी साबित होना”, दो अलग बातें हैं?

सोचने की ज़रूरत: न्याय और नैतिक ज़िम्मेदारी
इस मामले में एक महिला के चरित्र, निजी जीवन, और निर्णयों को आधार बनाकर समाज ने उसे पहले ही गुनहगार घोषित कर दिया है। लेकिन अगर कल को कोर्ट यह फैसला दे कि सोनम निर्दोष हैं, तो क्या वे लोग जिन्होंने उन्हें बदनाम किया, उनके मानसिक, सामाजिक और सार्वजनिक नुकसान की भरपाई करेंगे?

न्याय से पहले न्यायप्रियता ज़रूरी
सोनम रघुवंशी की कहानी आज हमारे सामने एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी है, क्या हम किसी के भी खिलाफ़ सिर्फ़ आरोप लग जाने भर से उसे क़ातिल कहने का हक़ रखते हैं? क्या राजा रघुवंशी की हत्या किसी घरेलू विवाद का नतीजा थी या किसी राजनीतिक-व्यवसायिक साज़िश का हिस्सा? इसका जवाब केवल जाँच और न्यायिक प्रक्रिया ही दे सकती है, न कि सनसनी फैलाते टीवी डिबेट्स या सोशल मीडिया पोस्ट्स। क्योंकि याद रखिए, “अगर आप किसी निर्दोष को गुनहगार मानते हैं, तो आप भी उस अन्याय के हिस्सेदार बनते हैं।” हमें कानून में भरोसा रखना सीखना होगा। जब तक कोई दोष सिद्ध न हो, हर आरोपी निर्दोष होता है, यही लोकतंत्र की आत्मा है।

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अपनी ही बेटी के दो बच्चे के पिता बनने वाले एरोल मस्क की कहानी

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एरोल मस्क: एक जटिल व्यक्तित्व की कहानी

क्या आप दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति एलन मस्क (Elon Must) के पिता एरोल मस्क के बारे में जानते हैं? एरोल मस्क कुछ साल पहले तब चर्चा में आए जब उनकी सौतेली बेटी जाना बेजुइडनहाउट ने अपनी दूसरी संतान के रूप में एक बेटी को जन्म दिया। बाद में पता चला कि जाना के बच्चे के पिता कोई और नहीं बल्कि एरोल मस्क हैं। बाप-बेटी रिलेशिनशिप में हैं और उनके दो बच्चे भी हैं, जो क्रमशः 2017 और 2019 में पैदा हुए। इस खुलासे के बाद पूरी दुनिया में खलबली मच गई और ख़ुद एलन मस्क ने कहा कि वह अपने पिता से “नफरत” करते हैं और उन्हें “भयावह इंसान” मानते हैं। उन्होंने यह भी घोषणा कर दी कि भविष्य में उनका अपने पिता से किसी भी तरह का संबंध नहीं रहेगा।

दरअसल “हम धरती पर केवल संतान पैदा करने के लिए हैं” जैसे बयान देने वाले 79 वर्षीय एरोल मस्क शुरू से विवादस्पद व्यक्तित्व के मालिक रहे हैं। उन्होंने अपनी उसी बेटी जाना बेजुइडनहाउट के दोनों बच्चे के बाप बने, जिस बेटी की बचपन में उन्होंने ख़ुद अपनी दूसरी पत्नी हाइड के साथ मिलकर परवरिश की थी। उनकी ज़िंदगी में रिश्ते, प्रेम, विवाह और पारिवारिक संघर्ष की अनेक परतें हैं।

एरोल ने पिछले दिनों अयोध्या का दौरा किया और श्री रामलला का दर्शन किया। मंदिर परिसर में दर्शन और पूजा करते एरोल की तस्वीर सोशल मीडिया में आनमे के बाद उस पर बड़ी प्रतिक्रिया हुई। उनके अयोध्या दौरे को लेकर सोशल मीडिया पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। एक ओर कुछ लोगों ने इसे एक विदेशी का भारतीय संस्कृति में रुचि लेने के रूप में देखा, वहीं बड़ी संख्या में लोगों ने सवाल उठाया।

एक वयक्ति ने कहा, “क्या एक ऐसे व्यक्ति का सार्वजनिक रूप से सम्मानपूर्वक स्वागत किया जाना चाहिए, जिसने अपनी सौतेली बेटी से विवाह जैसा संबंध बनाया और उससे संतानें उत्पन्न कीं?” यह बहस धार्मिक आस्था और नैतिकता के टकराव पर केंद्रित हो गई। आलोचकों ने कहा कि मंदिर जैसे पवित्र स्थान पर ऐसे व्यक्तित्व को विशेष आमंत्रण देकर सम्मानित करना भारतीय मूल्यों के विपरीत है। इस तरह के लोगों को महिमा मंडित नहीं किया जाना चाहिए।

इंजीनियर, पायलट और नाविक एरोल मस्क का जन्म दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया में 25 मई 1946 को हुआ था। उनके पिता वाल्टर हेनरी जेम्स मस्क और उनकी अंग्रेज मां कोरा अमेलिया रॉबिन्सन ने उन्हें पाला। छोटी उम्र से ही एरोल को मशीनों और सामान ठीक करने का शौक था। यह उनके इंजीनियर बनने की राह का पहला कदम था। उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत थी, और उन्होंने अपने बच्चों को शुरुआती जीवन में समृद्ध माहौल दिया।

एरोल की पहली शादी
एरोल मस्क की पहली शादी 1970 में माये हैल्डमैन से हुई। सफल डाइटिशियन, मॉडल और वक्ता माये का जन्म 19 अप्रैल 1948 को हुआ था। बाद में वह दक्षिण अफ्रीका में बस गईं। एरोल औऱ माये की शादी 1979 तक चली। माये ने अपनी किताब में बताया कि एरोल उनके साथ बुरा बर्ताव करते थे। वह उन्हें “बेकार” और “मूर्ख” कहते थे। माये ने एक घटना का जिक्र किया, जब तलाक के दौरान एरोल उनके घर चाकू लेकर आए। माये को पड़ोस में भागकर जान बचानी पड़ी।

एलन मस्क ने भी अपनी मां की बात का समर्थन किया और कहा कि उनके पिता उनके साथ भी कठोर थे। हालांकि, एरोल इन आरोपों को झूठ बताते हैं और कहते हैं कि ये बातें बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं। ये विवाद उनकी छवि के लिए बड़ा झटका रहा। एरोल और माए से दो पुत्र एलन और किंबल और एक पुत्री टोस्का पैदा हुईं। बाद में विवाद के चलते माए से एरोल का तलाक हो गया। इसके बाद एरोल सिंगल ही रहे, लेकिन उनका बीच-बीच में कई महिलाओं से रोमांस चलता रहा।

एरोल की दूसरी शादी
तलाक के 17 साल बाद 1996 में एरोल की मुलाकात 28 वर्षीया हाइडे (हाइड बेजुइडनहाउट – Heide Bezuidenhout) से हुई। हाइड के पति जॉक बेजुइडनहाउट की 1992 में सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। उस समय हाइडे की पहले पति से तीन बच्चे जाना बेजुइडनहाउट, जॉक बेजुइडनहाउट जूनियर और हैरी बेज़ुइडेनहाउट थे। 11 मार्च 1988 को जन्मी जाना आठ साल की और हैरी छह साल का था। उसी साल एरोल मस्क ने विधवा हाइड से शादी कर ली। जाना और हैरी की परवरिश एरोल और हाइडे ने मिलकर की। 2004 में एरोल का हाइडे से भी तलाक हो गया। एरोल और हाइड से दो बेटियां एलेक्सैंड्रा मस्क और आशा रोज़ मस्क पैदा हुईं। दोनों अब शादीशुदा हैं।

एरोल का बेटी से प्रेम-संबंध
हाइड बेजुइडनहाउट के अलग होने के बाद एरोल ने कई साल जाना को नहीं देखा और न ही उससे बात की। बताया जाता है कि 2014 में जाना ने पिता एरोल से संपर्क किया और बताया कि वह गहरे आर्थिक संकट में हैं। इसके बाद वह अपने पिता के साथ ही रहने लगी। इसकी किसी को भनक नहीं लगी। एक साथ रहने के कारण 72 वर्षीय एरोल मस्क और 29 वर्षीय जाना एक दूसरे से प्रेम करने लगे और उनका शारीरिक संबंध बन गया। इस दौरान लोग उके संबंधों से बेखबर रहे।

एरोल के जीवन का सबसे बड़ा विवाद तब सामने आया जब 2017 में यह खुलासा हुआ कि उनकी तीसरी पत्नी उनकी बेटी जाना ही है। एरोल और जाना का एक बेटा एलीअट रश मस्क (Elliot Rush Musk) पैदा हुआ। इस घटना की जब जानकारी सार्वजनिक हुई, तो एलन मस्क सहित पूरा मस्क परिवार एरोल से अलग हो गया। एलन ने यहां तक कहा था कि उनके पिता एक “दुष्ट” और “भयानक इंसान” हैं।

बाद में यह भी खुलासा हुआ कि एरोल और जाना के सिर्फ एक संतान नहीं, बल्कि दो संतान हैं। बेटी रश के अलावा एक बेटी भी है जिसका नाम सार्वजनिक नहीं किया गया है और जिसका जन्म 2019 में हुआ। एरोल ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि उन्होंने जाना के साथ बच्चा इसलिए पैदा किया क्योंकि “हम धरती पर केवल संतान पैदा करने के लिए हैं”।

इस संबंध को दुनिया भर में व्यापक आलोचना मिली, क्योंकि यह न केवल नैतिक दृष्टि से संदिग्ध है, बल्कि पारिवारिक सीमाओं और जिम्मेदारियों की भी अवहेलना करता है। जाना की ओर से इस रिश्ते को लेकर बहुत कम सार्वजनिक टिप्पणी आई है, लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि वह भी इस असामान्य रिश्ते से मानसिक रूप से प्रभावित रही हैं। इस पूरे प्रकरण ने मस्क परिवार की छवि और एलन मस्क के सार्वजनिक जीवन पर भी एक अनचाहा दाग छोड़ा। एरोल मस्क ने स्वयं यह दावा किया है कि उनके कम से कम 7 ज्ञात संतानें हैं, और हो सकता है कि इससे अधिक भी हों।

नरेंद्र मोदी के 73 देशों की यात्रा से भारत को क्या हासिल हुआ?

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नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद ऐसा माहौल बनाया कि शीघ्र ही भारत दुनिया में विश्व गुरु का रूप में प्रतिष्ठित होने वाला है। सारी दुनिया में भारत का डंका बजने वाला है। जब रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने पर मोदी पहले यूक्रेन और उसके बाद रूस गए और वहां बयान दिया कि दोनों पक्ष बातचीत से समस्या का हल निकालें, तो उसे यहां अपने देश में कहा गया कि मोदी ने रूस-यूक्रेन युद्ध बंद करवा दिया है। बात में पता चला कि यह बीजेपी के आईटी सेल की ओर से फैलाई गई भ्रामक और तथ्यहीन ख़बर थी।

बहरहाल, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारतीय विमानों के मार गिराए जाने और राष्ट्रपति डोनाल्ट ट्रंप के घुड़की देने पर मोदी के युद्ध विराम के लिए राजी होने के बाद से भारत की विदेश नीति की जगहंसाई हो रही है। इसके बाद अब सवाल उठ रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने कार्यकाल के दौरान की गई व्यापक विदेश यात्राओं से देश को क्या लाभ हुआ, क्योंकि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जहां पाकिस्तान के पीछे चीन, तुक्री, और अज़रबैज़ान डटकर खड़े थे, वहीं भारत अकेला पड़ गया था। मोदी ने 11 साल के कार्यकाल में कुल 166 बार विदेश दौरे पर गए। इस दौरान उन्होंने 73 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष के साथ गलबंहिया की, लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। मोदी ऐसे स्वयंभू विश्वगुरु बने जिनका कोई चेला ही नहीं है। विदेश यात्राओं की चमक और कूटनीति का खालीपन के बाद एक बार फिर से गंभीर प्रश्न उठ रहे हैं, —क्या इन दौरों से भारत को ठोस कूटनीतिक या आर्थिक लाभ मिला है, या यह सिर्फ भव्य आयोजनों और व्यक्तिगत छवि निर्माण तक सीमित रहे?

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ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अंतरराष्ट्रीय अकेलापन
हालिया सैन्य संकट ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान भारत की स्थिति ने इस चिंता को और गहरा किया, जब पाकिस्तान के पक्ष में चीन, तुर्की और अज़रबैजान जैसे देश मजबूती से खड़े दिखाई दिए, जबकि भारत अपेक्षाकृत अकेला पड़ गया। ऐसे में सवाल उठता है: यदि प्रधानमंत्री की लगातार विदेश यात्राओं का उद्देश्य वैश्विक समर्थन और रणनीतिक साझेदारियां मजबूत करना था, तो संकट के समय भारत को यह समर्थन क्यों नहीं मिला?

8,400 करोड़ की विदेश यात्राएं और ‘शून्य’ परिणाम?
एक आरटीआई के ज़रिए सामने आया है कि इन विदेश दौरों पर अब तक भारतीय करदाताओं के करीब 8,400 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इन यात्राओं के दौरान भव्य एनआरआई कार्यक्रम, विदेशी नेताओं के साथ आत्मीय मुलाकातें और हाई-प्रोफाइल फोटो सेशन तो खूब हुए, लेकिन व्यावहारिक रूप से भारत को न तो कोई बड़ा रक्षा समझौता मिला, न ही तकनीक हस्तांतरण या व्यापार में ठोस लाभ।

भारत की पड़ोसी कूटनीति भी चरमराई
विदेश नीति के एक अन्य महत्वपूर्ण स्तंभ—पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते—भी पिछले कुछ वर्षों में चुनौतीपूर्ण रहे हैं। नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे ऐतिहासिक सहयोगियों के साथ संबंधों में तनाव गहराया है। जल विवाद, सीमा-संबंधी तनाव और सुरक्षा चिंताओं ने इन रिश्तों को और जटिल बना दिया है।

आतंकी हमलों और कश्मीर मुद्दे पर वैश्विक चुप्पी
भारत के खिलाफ बढ़ते आतंकवाद और कश्मीर से जुड़े मुद्दों पर भी वैश्विक समुदाय की प्रतिक्रिया अपेक्षाकृत ठंडी रही है। जिन देशों के साथ प्रधानमंत्री ने मित्रता का दिखावा किया, वे संकट की घड़ी में चुप्पी साधे रहे। इससे भारत की वैश्विक कूटनीतिक ताकत पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

क्या विदेश यात्राएं सिर्फ चुनिंदा कॉरपोरेट हितों तक सीमित रहीं?
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों का कहना है कि इन विदेश यात्राओं का लाभ यदि किसी को मिला है, तो वो कुछ चुनिंदा कारोबारी घराने हैं, विशेषकर अडानी और अंबानी समूह। इन यात्राओं से न तो आम जनता को कोई सीधा लाभ मिला, न ही भारत को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई विशेष बढ़त।

विदेश नीति या छवि प्रबंधन?
विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार की विदेश नीति कहीं न कहीं व्यक्तिगत ब्रांडिंग और दृश्य राजनीति पर केंद्रित रही है। यह कूटनीति की जगह जनसंपर्क अधिक रही—ऐसी कूटनीति जिसमें तस्वीरें हैं, लेकिन ठोस परिणाम नहीं।

पारदर्शिता और जवाबदेही
मोदी सरकार से विदेश नीति की समीक्षा की मांग करते हुए सवाल उठाए गए हैं:
क्या हमें रक्षा या तकनीकी क्षेत्रों में कोई बड़ा लाभ मिला?
क्या भारत को वैश्विक संस्थाओं में उच्च दर्जा मिला?
क्या ये यात्राएं राष्ट्रीय हित के लिए थीं या सिर्फ निजी छवि निर्माण के लिए?

जाहिर है कि अब “जवाबदेही का समय” आ गया है—महज प्रचार या भावनात्मक बयानबाज़ी से काम नहीं चलेगा।

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भारत में विरोध व मतभेद को सम्मान के साथ व्यक्त करने की गौरवशाली परंपरा

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कार्टूनिस्ट हरिओम तिवारी का कार्टून - साभार

भारतीय लोकतंत्र केवल एक राजनीतिक प्रणाली नहीं, बल्कि संवाद, सहिष्णुता और सांस्कृतिक मर्यादा का जीवंत प्रतीक माना जाता है। यहां विरोध और मतभेद को भी सम्मान और विवेक के साथ व्यक्त करने की गौरवशाली परंपरा रही है। लेकिन पिछले कुछ साल से भारतीय राजनीति में शिष्टाचार और मर्यादा का बड़ी तेजी से पतन हो रहा है। खासकर जब से तथाकथित राष्ट्रीय चैनलों ने टीआरपी के लिए बहस के नाम पर दो पक्ष के लोगों को आपस में भिड़ाना शुरू किया है, तब से यह वैचारिक पतन अफनी पराकाष्ठा की ओर बढ़ रहा है।

आजकल टीवी चैनलों पर, लाखों-करोड़ो दर्शकों के समक्ष, देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता एक दूसरे के लिए जब अपशब्दों और अमर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं, तो यह घटना मात्र व्यक्तिगत गिरावट नहीं रह जाती, बल्कि यह लोकतंत्र की गिरती संवाद संस्कृति का चिंताजनक संकेत बन जाती है। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ल ने टीवी बहस के दौरान कांग्रेस प्रवक्ता के प्रति कथित रूप से अत्यंत अपमानजनक टिप्पणी की। उस टिप्पणी में जिस प्रकार मां जैसे पवित्र संबंध को निशाना बनाया गया, उसने केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज और उसकी सांस्कृतिक चेतना को आहत किया है।

राजनीतिक प्रवक्ता किसी भी पार्टी की वैचारिक रीढ़ के साथ साथ पार्टी का फेस माने जाते हैं। प्रवक्ता जनता और पार्टी के बीच संवाद के पुल की तरह काम करते हैं। ऐसे में इन प्रक्ताओं की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। जब वे टीवी पर बोलते हैं, तो उनका हर शब्द लाखों लोगों तक पहुंचता है और पार्टी की छवि को दर्शाता है। ऐसे में, जब एक प्रवक्ता सार्वजनिक मंच पर असभ्य भाषा का उपयोग करता है, तो यह पार्टी की वैचारिक परिपक्वता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।

टीवी डिबेट सूचना, विश्लेषण और तर्क का मंच बिल्कुल भी नहीं रह गए। इन दिनों उत्तेजना, उकसावे और चरित्र हनन का अखाड़ा बन चुके हैं। मीडिया चैनलों को भी आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है कि वे किस प्रकार की बहसों को बढ़ावा दे रहे हैं। 2023 में किए गए एक मीडिया सर्वे के अनुसार, 71 प्रतिशत दर्शकों का मानना है कि आजकल टीवी डिबेट्स गंभीर बहस के बजाय “हंगामा आधारित मनोरंजन” बन चुके हैं।

अधिकांश डिबेट्स का उद्देश्य समस्या का समाधान निकालना या समाधान सुझाना नहीं, बल्कि विरोधी दल के नेता को नीचा दिखाना होता है। ऐसे में संवाद का स्तर गिरना स्वाभाविक है। चैनल्स टीआरपी के लिए बहस को एक तमाशे में बदल रहे हैं। वे उन प्रवक्ताओं को ही बुलाते हैं जो गाली-गलौज में पारंगत होते हैं? ऐसे विवादास्पद प्रवक्ताओं को बार-बार मंच प्रदान करना पत्रकारिता की नैतिकता पर भी सवाल उठाती है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) बेशक नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह अनुच्छेद 19(2) के तहत “शालीनता और नैतिकता” जैसी उचित सीमाओं से नियंत्रित भी है। इसके अतिरिक्त, भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस की धारा 356, धारा 356 और धारा 357 सार्वजनिक तौर पर अभद्र भाषा या अश्लील कृत्य को दंडनीय बनाती है, जिसमें तीन महीने तक की सजा या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। कुछ धाराएं विशेष रूप से महिलाओं की मर्यादा को ठेस पहुंचाने वाले शब्दों को अपराध की श्रेणी में लाता है।

भारतीय संस्कृति में मां को सर्वोपरि रखा गया है। हर रिश्ते में मां सर्वोच्च है। शास्त्रों और धर्म ग्रंथों में भी मां को महिमा मंडित किया गया है। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”- अर्थात मां और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक पूजनीय हैं। “मातृदेवो भव”- यह वाक्य केवल उपदेश नहीं, अपितु हमारी सांस्कृतिक चेतना का आधार है। हमारे महापुरुष भी मां यानी नारी के बारे में उच्चतम विचार रखे है।

महात्मा गांधी कहा कहते थे, “यदि आप किसी राष्ट्र की संस्कृति को समझना चाहते हैं, तो उसमें महिलाओं के प्रति व्यवहार को देखिए।” डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन कहते थे, “नारी का सम्मान ही समाज की सभ्यता का दर्पण है।” गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा, “जहां नारी सम्मान न हो, वहां लक्ष्मी निवास नहीं करती।” इन विचारों से स्पष्ट है कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा में मातृत्व और नारी का अपमान सबसे गंभीर नैतिक अपराध माना गया है।

ऐसे में किसी की मां को गाली देना केवल व्यक्तिगत अपमान नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का खुला उल्लंघन है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि राजनीति में महिलाओं के प्रति सम्मान कितना खोखला हो चुका है। ख़ासकर जब किसी राष्ट्रीय पार्टी का प्रवक्ता सार्वजनिक मंच से किसी की मां के लिए अमर्यादित भाषा का प्रयोग करता है, तो यह न केवल राजनीतिक अविवेक को दर्शाता है, बल्कि यह समाज में नारी गरिमा और संस्कृति के प्रति असंवेदनशीलता को भी उजागर करता है। यह सर्वथा अनुचित, अक्षम्य और निंदनीय है।

अब तक भाजपा ने प्रेम शुक्ल के बयान पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं दी है, न ही कोई माफी मांगी गई है। यह चिंताजनक है क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि पार्टी इस प्रकार की भाषा को प्रोत्साहित या अनदेखा कर रही है। भारत निर्वाचन आयोग के पास मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट के अंतर्गत यह अधिकार है कि चुनावी माहौल में मर्यादा भंग करने वाले बयानों पर कार्रवाई करे। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भी मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हो रहे भाषा के दुरुपयोग पर हस्तक्षेप कर सकती है। परंतु इन संस्थाओं की निष्क्रियता इस पूरे विमर्श को और अधिक विषाक्त बनाती है।

दरअसल, जब राष्ट्रीय चैनलों पर इस प्रकार की भाषा सुनाई जाती है, तो यह बच्चों और युवाओं को गलत संदेश देता है कि सत्ता या दबदबे के लिए कुछ भी बोलना जायज है। यह केवल भाषाई अपराध नहीं, बल्कि समाज में अभिव्यक्ति की असंवेदनशीलता और संवादहीनता को जन्म देता है। राजनीतिक बहसें लोकतंत्र की आत्मा होती हैं, लेकिन जब उनमें गाली-गलौज, व्यक्तिगत हमले और महिलाओं के प्रति अपमानजनक भाषा का समावेश हो जाता है, तो यह पूरे लोकतंत्र को कलंकित करता है। भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ल की कथित टिप्पणी केवल एक बयान नहीं है, यह एक आइना है जिसमें आज के राजनीतिक विमर्श की गहराई देखी जा सकती है और वह गहराई डरावनी है।

हमें इस पर गंभीर चिंतन करना चाहिए कि क्या यही वहr लोकतंत्र है जिसकी हमने कल्पना की थी? क्या इस स्तर की भाषा को बर्दाश्त किया जाना चाहिए? यदि नहीं, तो इसके खिलाफ आवाज उठानी होगी। लोकतंत्र की सफलता केवल चुनाव जीतने में नहीं, बल्कि संवाद, सहिष्णुता और सार्वजनिक मर्यादा बनाए रखने में है। जब हम किसी की मां के प्रति अमर्यादित शब्द सुनते हैं, तो वह केवल उस व्यक्ति का नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक चेतना का पतन है। हमें यह याद रखना होगा कि भारत केवल एक राष्ट्र नहीं, एक संस्कृति है। इस संस्कृति में शब्दों का भी धर्म होता है। हमें तय करना होगा कि हम किस तरह का लोकतंत्र चाहते हैं, एक ऐसा जहां विचारों से युद्ध हो, या एक ऐसा जहां शब्दों से आघात। यह चुनाव केवल राजनीतिक दलों को नहीं, हमें भी करना होगा।

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एक संवाद जिसने इतिहास बदल दिया: इंदिरा गांधी और सैम मानेकशॉ का निर्णायक क्षण

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भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971 के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में यह संवाद सिर्फ दो व्यक्तियों — तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ — के बीच की बातचीत नहीं, बल्कि उस समय के राष्ट्र-निर्णयों की दृढ़ता, नेतृत्व की स्पष्टता और रणनीतिक सूझबूझ का जीवंत उदाहरण है। इस संवाद के माध्यम से उस ऐतिहासिक क्षण को समझा जा सकता है जब भारत ने सिर्फ युद्ध नहीं लड़ा, बल्कि एक नए राष्ट्र — बांग्लादेश — के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।

इतिहास का वह निर्णायक मोड़
1971 का वर्ष दक्षिण एशिया के लिए निर्णायक था। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में पाकिस्तान सरकार द्वारा बंगालियों पर हो रहे अत्याचारों, बलात्कार, नरसंहार और शरणार्थी संकट ने भारत को सीधा हस्तक्षेप करने पर विवश कर दिया था। लगभग एक करोड़ शरणार्थियों ने भारत में शरण ली थी, जिससे न केवल मानवीय संकट उत्पन्न हुआ, बल्कि भारत की आंतरिक स्थिरता पर भी खतरा मंडराने लगा।

सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व की परीक्षा
ऐसे समय में भारत को एक स्पष्ट और ठोस नेतृत्व की आवश्यकता थी। इंदिरा गांधी ने न केवल वैश्विक मंच पर भारत का पक्ष मजबूती से रखा, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि सैन्य कार्रवाई तब हो जब भारत पूरी तरह से तैयार हो। इसी संदर्भ में जनरल सैम मानेकशॉ का यह संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है:

“आई एम विद इंडिया, प्राइम मिनिस्टर। मैं आपको बांग्लादेश दूंगा, लेकिन यह सुनिश्चित कीजिए कि आप किसी अंतरराष्ट्रीय दबाव में नहीं आएं, क्योंकि एक बार इंडियन आर्मी आगे बढ़ेगी, तो फिर पीछे नहीं हटेगी।”

यह कथन सैन्य आत्मविश्वास और प्रतिबद्धता का प्रतीक था। वहीं इंदिरा गांधी का जवाब इस आत्मविश्वास का राजनीतिक समर्थन था:

“मैं 55 करोड़ भारतवासियों की प्रधानमंत्री हूं जनरल सैम। मेरे देश की जनता, सारी पॉलिटिकल पार्टीज़ मेरे साथ हैं। ऐसे में मुझे किसी भी अंतरराष्ट्रीय दबाव की कोई भी चिंता नहीं है। मेरे लिए देश सर्वोपरि है।”

यह संवाद न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि यह भी दिखाता है कि कैसे राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य नेतृत्व के बीच तालमेल राष्ट्र के हित में निर्णायक साबित हो सकता है।

रणनीति और संयम: भारत की विजय की नींव
इस संवाद के बाद भारत ने तुरंत हमला नहीं किया। जनरल मानेकशॉ ने आग्रह किया कि सेना को पूरी तैयारी के बाद सर्दियों में हमला करने दिया जाए, जब हिमालयी दर्रे बंद हों और चीन की ओर से खतरा कम हो। इंदिरा गांधी ने इस सलाह को स्वीकार किया और यह संयम अंततः भारत की विजय का कारण बना।

युद्ध और बांग्लादेश का निर्माण
3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला किया, जिसके बाद भारत ने जवाबी कार्यवाही की। मात्र 13 दिनों के युद्ध के भीतर भारतीय सेना ने ढाका को घेर लिया और 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। 90,000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाले — यह विश्व इतिहास का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण था।

संवाद से इतिहास की दिशा तय होती है
इंदिरा गांधी और सैम मानेकशॉ के इस ऐतिहासिक संवाद ने भारत के निर्णायक और आत्मनिर्भर नेतृत्व की मिसाल पेश की। यह दिखाता है कि जब राजनीतिक इच्छाशक्ति और सैन्य तैयारी एक साथ होती है, तो राष्ट्र अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल होता है।

यह संवाद आज भी भारतीय नेतृत्व, राष्ट्रनीति और आत्मबल की प्रेरणा का स्रोत है। यह बताता है कि कैसे कठिन समय में दृढ़ निश्चय, स्पष्ट दृष्टि और आपसी विश्वास राष्ट्रों के इतिहास को आकार देते हैं।

यह नाटकीय लेकिन यथार्थपूर्ण संवाद भारतीय इतिहास के सबसे गौरवपूर्ण अध्याय की झलक है — जहां से एक नया राष्ट्र जन्मा, और भारत ने एक जिम्मेदार वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी भूमिका निभाई।

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बीएमसी चुनाव से पहले आशीष शेलार का राज ठाकरे पर हमला कहा, -भाषा संवाद का माध्यम है संघर्ष का नहीं 

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हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है – प्रताप सरनाईक

संवाददाता
मुंबई, बीएमसी (बृहन्मुंबई महानगर पालिका) समेत महाराष्ट्र कई स्थानीय निकाय के ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी के मुंबई इकाई के अध्यक्ष और राज्य के सांस्कृतिक मंत्री आशीष शेलार ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे पर जोरदार हमला बोलते हुए कहा कि भाषा संवाद का माध्यम है, भाषा संघर्ष का माध्यम नहीं है। भाषा लोगों को जोड़ने का काम करती रही है, भाषा को लोगों को तोड़ने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जो लोग भाषा के नाम पर विद्वेष फैला रहे हैं, उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज से प्रेरणा लेनी चाहिए।

मुंबई हिंदी पत्रकार संघ की ओर से उत्तर भारतीय संघ के बांद्रा पूर्व सभागृह में हिंदी पत्रकारिता दिवस पर हिंदीसेवी सम्मान समारोह के दौरान अपने संबोधन में राज ठाकरे या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्तालिन कानाम लिए बिना कहा कि लोग भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने काम कर रहे हैं। इसी तरह राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सरनाईक ने कहा कि हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है। कुछ लोग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने का काम करते हैं, लेकिन जनता जब समय आता है तो बता देती है कि आपके इस दर्शन से हम सहमत नहीं है।

सभी भारतीय भाषाओं का अपना सम्मान और महत्व है। राजनीतिक कारणों से भाषाई विवाद खड़ा करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए आशीष शेलार ने कहा कि मराठीभाषी संपादकों सर्वश्री विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, रामकृष्ण खाडिलकर, थत्ते जी का हिंदी पत्रकारिता को संस्कारित और स्थापित करने में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने कहा कि कहा कि पत्रकार समाज का सजग प्रहरी होता है,जो लोगों को जगाने का कार्य करता है। अच्छे पत्रकारों की ही सोच का परिणाम है कि आज हिंदी पत्रकारिता जीवित है। सच्चा पत्रकार किसी का दोस्त नहीं हो सकता, पत्रकार अपने विचार और अपने सिद्धांत का दोस्त होता है, जो लोग उसके इस तेवर का सम्मान करते हैं, पत्रकार बेशक उनका दोस्त हो सकता है।

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हिंदीसेवी सम्मान समारोह में राज्य के परिवहन मंत्री प्रताप सरनाईक ने कहा कि कुछ लोग अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए भाषा के नाम पर विद्वेष फैलाने का काम करते हैं, लेकिन जनता जब समय आता है तो बता देती है कि आपके इस दर्शन से हम सहमत नहीं है। हिंदी मुंबई की आम भाषा बन गई है। उन्होंने कहा, “पत्रकारों के साथ ही मैंने अपनी राजनैतिक जीवन की शुरुआत की है। जब मैं ठाणे में रहता हूं तो मराठी में बात करता हूं। जैसे ही मीरा भायंदर में आता हूं तो हिंदी में बोलने लगता हूं। मेरा ऐसा मानना है कि जिसे हिंदी आती होगी,उसे मराठी भी आती होगी और जिसे मराठी आती है,उसे हिंदी भी आती है। हिंदी और मराठी के समन्वय का असर है कि हमारी सरकार चल रही है। उन्होंने कहा कि हिंदी बोलते, बोलते अंगेजी और मराठी शब्द आ जाते हैं। बावजूद इसके हिंदी बहुत प्यारी भाषा है। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी हिंदी और मराठी का प्यार बरकरार रहेगा।”

विधायक राजहंस सिंह ने कहा कि सच्चा पत्रकार चेहरे पर लगी धूल को पोछने का कार्य पत्रकार करता है। उन्होंने कार्यक्रम में शामिल पत्रकारों की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये पत्रकार हैं। आज इनकी संख्या कम है। ये निर्भीक हैं। लेकिन इनके कार्य महान हैं। उन्होंने कहा, “मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि पत्रकार किसी का दोस्त नहीं होता। 2004 में जब मैं विरोधीपक्ष का नेता था, तब एक पत्रकर ने मेरे खिलाफ लिखा। उनकी आदत थी जिसके खिलाफ लिखते थे, उसका रिएक्शन देखते थे। वह मेरे कार्यालय में आए मैंने उनका जोरदार ढंग से स्वागत किया। इसके बाद वह मेरे गहरे दोस्त बन गए। सच्चा पत्रकार सजग प्रहरी होता है और उसकी सोच कभी नहीं बदल सकती। चाहे उस पर जितना दबाव पड़े वह अपने पथ से विमुख नहीं होता।”

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पूर्व मंत्री चंद्रकांत त्रिपाठी ने कहा कि पत्रकारिता संवाद का सशक्त माध्यम है। यह बात मैं दावे के साथ कहता हूं इलेक्ट्रानिक चैनल चाहे जितनी भी तरक्की कर लें लेकिन समाचार पत्रों की विश्वनीयता कम नहीं होगी। समाचार पत्रों की महत्ता तब भी थी और आज भी है। उन्होंने कहा कि मुंबई हिंदी पत्रकर संघ ने हिंदी पत्रकरिता को प्रचारित-प्रसारित करने की जो मुहिम शुरू की है,उसका स्वागत करता हूं। विधायक संजय उपाध्याय और सिद्धिविनायक मंदिर के कोषाध्यक्ष आचार्य पवन त्रिपाठी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

इसके अलावा भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने बतौर मुख्य वक्ता हिंदी और हिंदी पत्रकारिता के सफर की विस्तार से चर्चा की। उनका कहना है कि डिजिटल मीडिया का सूरज कभी नहीं डूबता, इसका कोई भूगोल नहीं है। जो डिजिटल पर है,वह सब कुछ ग्लोबल होने की संभावना से भरा हुआ है। उन्होंने कहा कि सिर्फ 200 वर्षों की यात्रा में जो विकास हिंदी ने किया है, उसका सर्वाधिक श्रेय संचार माध्यमों को है। इतनी तेजी से कोई भाषा नहीं फैली, जबकि देश का प्रभु वर्ग आज भी औपनिवेशिक दासता का शिकार है और ‘अंग्रेजियत’ से भरा हुआ है। मीडिया, मनोरंजन के माध्यमों ने हिंदी के विकास में ऐतिहासिक योगदान दिया है।

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उन्होंने कहा डिजिटल दुनिया में हमारी सभी भारतीय भाषाएं वैश्विक हो चुकी हैं। भारत की सांस्कृतिक, बौध्दिक, आध्यात्मिक संपदा की वाहक बनकर ये भाषाएं हमारी ‘साफ्ट पावर’ की प्रसारक बनीं हैं। दुनिया का भारत के प्रति बदलता नजरिया इसका परिणाम है। पं युगल किशोर शुक्ल द्वारा ‘उदंत मार्तण्ड’ के रूप में रोपा गया हिंदी पत्रकारिता का पौधा आज वटवृक्ष बन गया। उन्होंने कहा हिंदी पत्रकारिता में इस देश के सपने, आकांक्षाएं, आर्तनाद, दुःख, आंदोलन सब व्यक्त हो रहे हैं। उनका कहना था कि हिंदी और भारतीय भाषाएं न्याय और मानवाधिकार की भाषाएं हैं, क्योंकि वे आम आदमी को केंद्र में रखकर काम कर रही हैं।

लेखक और वरिष्ठ पत्रकार यतेंद्र सिंह यादव ने कहा कि पिछले 33 वर्षों की पत्रकरिता में और आज की पत्रकरिता में काफी परिवर्तन हुआ है,इस लिए मैं इस क्षेत्र से अलग होता गया। उन्होंने कहा कि व्यवसायीकरण जमाना है पत्रकार दवाब में काम कर रहा है, जिससे सच्ची पत्रकारिता खत्म होती जा रही है। उन्होंने हिंदी साहित्य का जिक्र किया और कहा कि हिंदी साहित्य के जितने भी विद्वान हैं, उनकी सारी किताबें अब अंग्रेजी साहित्य बनकर आ रही हैं। यादव ने सलाह दिया कि जब तक जरूरी न हो,तब तक अंग्रेजी की भाषा के इस्तेमाल से परहेज करें और ज्यादा से ज्यादा हिंदी का प्रयोग करें।

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प्रो. बृजेश मिश्रा ने कहा, “मैं चिकित्सा के क्षेत्र में कार्य करता हूं,जहां देखता हूं कि ज्यादातर अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल होता है। मेरा ऐसा मानना है कि जहां जो कार्यरत है,उसको वहां की क्षेत्रीय भाषा का ज्ञान होना चाहिए। इसके अलावा उसको अपनी मातृभाषा हिंदी की भी जानकारी होनी चाहिए।” आजतक के प्रबंध संपादक साहिल जोशी ने कहा, “मुझे इस बात का अभिमान है कि हिंदी पत्रकरिता कर रहा हूं। पत्रकरिता की शरुआत मैंने मराठी भाषा से की थी। 2001 में जब मैंने हिंदी की पत्रकरिता शुरू की तो मुझे लगा कि हिंदी बहुत आसान पर ऐसा है नहीं। मराठी मेरी मां है तो हिंदी मेरी मौसी है। उन्होंने कहा कि मुझ पर हिंदी भाषा का अच्छा प्रभाव है, इस बात की मुझे बहुत बड़ी खुशी है। मुंबई हिंदी पत्रकार संघ की ओर आज मुझे सम्मानित किया गया,उसके लिए संघ के प्रति आभार आभार व्यक्त करता हूं।”

नवभारत टाइम्स में लंबी सेवाएं दे चुके वरिष्ठ पत्रकार विमल मिश्रा, विधायक संजय उपाध्याय, सिद्धिविनायक मंदिर ट्रस्ट के आचार्य पवन त्रिपाठी, उद्योगपति ज्ञान प्रकाश सिंह, मुंबई हिंदी पत्रकार संघ के महासचिव विजय सिंह ‘कौशिक’ आदि ने भी हिंदी पत्रकरिता और उसके पत्रकारों की भूमिका पर विस्तृत रूप व्यख्यान किया। कार्यक्रम में ज्ञान प्रकाश सिंह, विमल मिश्र, साहिल जोशी, प्रो. बृजेश मिश्र तथा यतेंद्र सिंह यादव को हिंदी सेवा सम्मान प्रदान किया गया। कार्यक्रम के आयोजक संस्था के अध्यक्ष आदित्य दुबे ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम में विधायक मुरजी पटेल, हिंदी पत्रकार संघ के पदाधिकारी राजकुमार सिंह, सुरेंद्र मिश्र, अखिलेश मिश्र, अशोक शुक्ला और हरिगोविंद विश्वकर्मा समेत शहर के राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता जगत के प्रमुख लोग उपस्थित थे। अभय मिश्र ने कार्यक्रम का संचालन किया।

सऊदी अरब में 73 साल बाद शराब से हटेगा प्रतिबंध…

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परिवर्तन प्रकृति का प्रावधान है। हर इंसान, हर समुदाय और हर धर्म को समय के साथ बदलना पड़ता है। जो लोग नहीं बदल पाते वे पिछड़ जाते हैं। आउटडेटेड हो जाते हैं। अपनी कुछ परंपराओं के चलते इस्लाम भी पूरी दुनिया में हाशिए पर रहा है। लेकिन अब इस्लाम भी रिफॉर्म की ओर बढ़ रहा है। इसकी शुरूआत हो रही सबसे पवित्र इस्लमी मुल्क सऊदी अरब से। सऊदी अरब तेल की निर्भरता से स्वयं को निकालकर पर्यटन और वैश्विक निवेश का हब बनाने की दिशा में काम कर रहा है। इसे ही विजन 2030 नाम दिया गया है।

शरिया कानूनों के सख्त पालन के लिए पूरी दुनिया में मशहूर पाक इस्लामिक देश सऊदी अरब अब अपने इतिहास में पहली बार सार्वजनिक रूप से शराब बिक्री की अनुमति देने की ओर बढ़ रहा है। यह फैसला टूरिज्म को बढ़ावा देने और वर्ल्ड एक्सपो 2030 जैसे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के लिए देश को तैयार करने के उद्देश्य से लिया जा रहा है। 1932 में सऊदी अरब के गठन के साथ ही शराब पर प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन 1952 में इस पर और कठोर कानून बनाए गए थे। हालांकि अब 73 साल बाद, सऊदी अरब के इतिहास में यह एक बड़ा सामाजिक बदलाव माना जा रहा है।

क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) ने सत्ता में आने के बाद देश में कई ऐसे सुधार किए हैं जो सउदी अरब जैसे देश के लिए अकल्पनीय माने जाते थे। उनके शासन में महिलाओं को वाहन चलाने की अनुमति दी गई। सार्वजनिक मनोरंजन जैसे सिनेमा और संगीत कार्यक्रम को बढ़ावा मिल रहा है। अब विदेशी पर्यटकों के लिए वीजा मुहैया करवाने की प्रक्रिया आसान बनाई गई। इसके बाद शराब पर आंशिक छूट देना बड़ा फैसला माना जा रहा है। शराब को लेकर MBS का दृष्टिकोण यह है कि संस्कृति और धार्मिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए वैश्विक सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में बड़ा कदम है।

सऊदी सरकार के प्रस्ताव के अनुसार शुरूआत में शराब सिर्फ़ 600 पर्यटक स्थलों पर मिलेगी। केवल लाइसेंस प्राप्त 5-स्टार होटल, रिसॉर्ट और विदेशी ज़ोन में ही बिक्री होगी। 20 फ़ीसदी से अधिक अल्कोहल वाली ड्रिंक्स पर अब भी प्रतिबंध रहेगा। स्थानीय नागरिकों के लिए अब भी बैन जारी रहेगा। सार्वजनिक स्थानों, दुकानों, या घरों में शराब रखना या पीना अभी भी अपराध होगा। यह नीति सिर्फ गैर-मुस्लिम विदेशी पर्यटकों के लिए है, जो दुबई, बहरीन जैसे प्रतिस्पर्धी देशों की तरह अनुभव पाना चाहते हैं।

सऊदी अरब शरीयत को मानने वाला देश हैं। वहां शराब पर प्रतिबंध है। यदि कोई शराब का आयात व पीते हुए पकड़ा जाता है तो उसके लिए कठोर सजा देने का कानून है। प्रतिबंध तोड़ने पर आरोपी को कोड़े मारने, देश से निकालने, जुर्माना और कैद की सजा का प्रावधान है। इस कठोर कानून के चलते सऊदी में कोई शराब के सेवन के बारे में सोच भी नहीं सकता है।

सऊदी अरब 2030 में वर्ल्ड एक्सपो और 2034 में फीफा फुटबॉल वर्ल्ड कप की मेज़बानी करने जा रहा है। ऐसे अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में विदेशी पर्यटकों और विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, सऊदी सरकार ने सुधार की दिशा में कदम उठाया है। वर्ल्ड एक्सपो 2030, जो 1 अक्टूबर 2030 से 31 मार्च 2031 तक सऊदी अरब की राजधानी रियाद में होगा। यह एक ऐसा मंच है, जहां दुनिया भर के देश अपनी संस्कृति, तकनीक और विकास को प्रदर्शित करते हैं। शराब पर ढील, इसी वैश्विक मंच की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए की जा रही है।

2024 में रियाद के डिप्लोमैटिक जोन में पहली शराब की दुकान खोली गई थी। ये केवल गैर-मुस्लिम विदेशी राजनयिकों के लिए खोली गई थी। इसके लिए ग्राहकों की पहचान और खरीद मोबाइल ऐप से नियंत्रित किए जाते थे। हालांकि, दुकान में मोबाइल फोन ले जाना प्रतिबंधित था। यह सऊदी की नई नीति का एक नियंत्रित और सीमित प्रयोग था, जिससे पता लगाया गया कि सुधार कैसे लागू किए जा सकते हैं वह भी बिना धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाए।

पेड़ों को बचाने के लिए मुंबई में शवदाह के लिए ‘मोक्षकाष्ठ’ का विकल्प

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मुंबई – देश की आर्थिक राजधानी, जहां गगनचुंबी इमारतों की छांव में ज़िंदगी दौड़ती है, वहीं शहर के अंतिम पड़ाव यानी श्मशानभूमियों में भी एक अनकही कहानी पल रही है। जहां एक ओर शहर ने आधुनिकता की ओर लंबी छलांग लगाई है, वहीं दूसरी ओर परंपराओं की जड़ें आज भी इतनी मजबूत हैं कि उनका भार पर्यावरण भी महसूस करने लगा है। हाल ही में मुंबई महानगरपालिका (BMC) ने शहर की 49 हिंदू श्मशानभूमियों के लिए अगले दो वर्षों में लगभग 3.7 करोड़ किलो लकड़ी खरीदने का फैसला लिया — एक ऐसा निर्णय जिसने न सिर्फ शहर के बजट को झकझोर दिया, बल्कि पर्यावरणविदों की चिंता को भी हवा दी। लकड़ी से होने वाले अंतिम संस्कारों का यह पारंपरिक चलन अब एक आधुनिक संकट में तब्दील होता जा रहा है। जब हर चिता जलती है, तो उसके साथ जलता है पर्यावरण का संतुलन, और उभरती है एक ऐसी बहस जो धार्मिक परंपरा और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के बीच फंसी है। मुंबई के आसमान में उठता धुआं अब सिर्फ किसी की विदाई का प्रतीक नहीं, बल्कि आने वाले भविष्य की चेतावनी भी बन गया है।

लकड़ी दहन से बढ़ रहा प्रदूषण
एक शवदाह के लिए औसतन 350 से 400 किलो लकड़ी की आवश्यकता होती है। इस आधार पर दो वर्षों में कुल 3 करोड़ 70 लाख किलो (3.70 करोड़ किलो) लकड़ी केवल मुंबई में शवदाह के लिए जलायी जाएगी। आईआईटी (IIT) मुंबई के एक सर्वे के अनुसार, शहर में होने वाले कुल प्रदूषण में लकड़ी जलने से 12% तक योगदान होता है — जिसमें परंपरागत श्मशान और बेकरी प्रमुख स्रोत हैं। बंबई हाईकोर्ट ने हाल ही में प्रदूषण नियंत्रण को लेकर मुंबई महानगर पालिका और महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कड़ी फटकार लगाई थी। इसके बाद BMC ने बेकरी और धोबीघाट जैसी जगहों पर लकड़ी के स्थान पर गैस और इलेक्ट्रिक विकल्प अपनाने की सलाह दी है।

विद्युत-दाहिनी, गैस शवदाहिनी और अब मोक्षकाष्ठ
मुंबई महानगर पालिका ने अब तक 10 श्मशानों में विद्युत-दाहिनी और 18 स्थानों पर गैस शवदाहिनियाँ स्थापित की हैं। अब 9 अन्य स्थानों पर पर्यावरण-मित्र लकड़ी दहन प्रणाली लगाने की योजना है, जिससे हर शव पर लकड़ी की खपत लगभग 250 किलो कम हो सकती है। फिर भी, लकड़ी की कुल मांग में कोई खास कमी नहीं दिख रही है।

मोक्षकाष्ठ क्या है?
मोक्षकाष्ठ एक पर्यावरण-संवेदनशील विकल्प है, जिसे पारंपरिक लकड़ी के स्थान पर अंतिम संस्कार के लिए उपयोग किया जाता है। इसका उद्देश्य पारंपरिक धार्मिक विधियों को सुरक्षित रखते हुए जंगलों की कटाई रोकना और प्रदूषण को कम करना है। ‘मोक्षकाष्ठ’ शब्द संस्कृत के “मोक्ष” (आत्मा की मुक्ति) और “काष्ठ” (लकड़ी) से बना है, जिसका अर्थ है — वह लकड़ी जो मुक्ति दिलाने में सहायक हो, परंतु प्रकृति को हानि न पहुँचाए। मोक्षकाष्ठ मुख्यतः खेतों में उपलब्ध कृषि अपशिष्टों से तैयार किया जाता है। इसमें सूखे पत्ते, फसल के डंठल (जैसे गन्ने की खोई, मक्के की तुरियाँ), घास, झाड़ियाँ, पराली, कागज़, कपास के डंठल और अन्य जैविक अपशिष्टों को इकट्ठा कर मशीनों द्वारा दबाकर बेलनाकार या ईंट के आकार की ठोस लकड़ियाँ बनाई जाती हैं। ये ईको-फ्रेंडली ईंधन कम धुआँ पैदा करता है, जली हुई राख भी कम होती है और इससे वनों की कटाई पर भी रोक लगती है। इसका उपयोग न केवल अंतिम संस्कार में, बल्कि औद्योगिक और घरेलू ईंधन के रूप में भी हो सकता है।

पर्यावरणविद सयाजी शिंदे का सुझाव
पर्यावरणविद और ‘सह्याद्री देवराई’ संस्था के प्रमुख अभिनेता सयाजी शिंदे ने सुझाव दिया है कि शवदाह के लिए ‘मोक्षकाष्ठ’ को प्राथमिकता दी जाए। उनका कहना है— “भारत में 80% बिजली अब भी कोयला जलाकर बनती है, जिससे गंभीर पर्यावरणीय नुकसान होता है। विद्युत या गैस शवदाहिनी इस कारण पर्यावरण के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं मानी जा सकती। इसके बजाय मोक्षकाष्ठ — जो खेतों के सूखे पत्तों, शाखाओं, झाड़ियों आदि से तैयार किया जाता है — एक श्रेष्ठ विकल्प है।”

सयाजीशिंदे ने बताया कि मोक्षकाष्ठ धार्मिक परंपराओं का पालन करते हुए भी प्रयोग में लाया जा सकता है और यह नवीकरणीय (Renewable) स्रोत है। इसके उपयोग से न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि किसानों को उनके खेतों के अपशिष्ट का मूल्य भी मिलेगा। साथ ही, इससे रोजगार के भी अवसर खुल सकते हैं — मोक्षकाष्ठ बनाने के कारखाने शुरू किए जाएं तो 20,000 लोगों को रोजगार मिल सकता है।

BMC की दीर्घकालीन योजना
मुंबई महानगर पालिका के पर्यावरण विभाग के उपायुक्त राजेश ताम्हाणे ने कहा कि मुंबई की कुल 263 श्मशानभूमियों में से 225 को पर्यावरण अनुकूल बनाने का लक्ष्य रखा गया है। आने वाले वर्षों में विद्युत, सीएनजी और पीएनजी शवदाह विकल्पों को बढ़ावा दिया जाएगा। मुंबई जैसे महानगर में हर दिन दर्जनों शवदाह होते हैं, जिससे लकड़ी की खपत और उससे उत्पन्न प्रदूषण एक गंभीर मुद्दा बन चुका है। पर्यावरणविदों के सुझावों और तकनीकी समाधानों के बीच सामंजस्य बनाकर ही भविष्य में टिकाऊ और संवेदनशील समाधानों की ओर बढ़ा जा सकता है — जहां परंपरा और प्रकृति दोनों की रक्षा हो। (लोकमत से साभार)

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