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भारतीय संविधान में समता की चेतना का स्रोत भक्तिकाल की कविता में मिलता है – प्रो सदानंद साही

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रोशनी धीरा
वाराणसीः राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसे महानायकों की राजनीति को आचरण से पैदा हुई राजनीति करार देते हुए काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो सदानंद साही का मानना है कि उनके आचरण में भारत के स्वप्न को देख सकते हैं। भक्तिकाल की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान में जो समता की चेतना है उसका स्रोत कहीं कहीं हमें भक्तिकाल की कविता में जरूर मिलता है।

प्रो सदानंद साही ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से बुधवार को ‘भक्तिकाल और भारत का स्वप्न’ विषय पर आयोजित व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए यह विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. सदानंद साही ने कहा कि कभी बीएचयू की गोष्ठी में केदारनाथ सिंह ने एक बात कही थी कि भक्ति कविता में ये जो प्रेम है, उस समय समाज में घृणा का सैलाब भी रहा होगा। उन्होंने बताया कि भक्ति कविता का मूल संदेश है प्रेम। भक्ति कविता माया महाठगिनी को खारिज करते हुए मनुष्य को प्रतिष्ठित करती है। जिसे आज की भाषा में समतामूलक समाज की अवधारणा कहते हैं उसका बीज भक्ति कविता में था। सब में जो रमता है वही राम है। राम एक जगह स्थिर बैठने वाली चेतना नहीं है।

प्रो साही ने ने आगे कहा कि हमारे संविधान में वर्णित समानता का उत्स हमें भक्तिकालीन कविता में मिलता है। उन्होंने बताया कि गोपेश्वर सिंह की आलोचना की एक ताजा पुस्तक आई है, जिसका नाम ‘आलोचक का आत्मावलोकन’ है। यहां आलोचक दूसरों की बखिया उधेड़ते हैं, वे अपना आत्मावलोकन करने के लिए तैयार हैं क्या? आप (शोधार्थी) भी तैयार हैं। उन्होंने कबीर की एक पंक्ति का स्मरण करते हुए, “कबीर ये घर ज्ञान का, खाला का घर नाहिं। सीस उतारे भुईं धरे, तब पैठे घर माहिं” कहा कि हमें पाठ तक, लेखक तक पूर्वाग्रह मुक्त होकर जाना पड़ेगा। किसी विभाग का गौरव वहां के अध्यापकों से नहीं बल्कि वहां के छात्रों और शोधार्थियों से होता है। उन्होंने अपने बात के अंत में कहा कि यदि अपने गद्य को प्रभावशाली, सहज बनाना है तो गांधी की आत्मकथा जरूर पढ़नी चाहिए।

प्रो सदानंद साही ने कहा “भक्तिकाल और भारत का स्वप्न विषय का वितान भी विस्तृत है, सबसे पहले मुझे तुलसीदास की याद आती है, रामचरित मानस का राम वन-गमन प्रसंग। ग्रामीण युवतियां पूछती हैं सीता से कि ‘सांवरे को सखी रावरे को हैं’ राम आगे – आगे चल रहे हैं और सीता पीछे-पीछे। ‘प्रभु पद रेख बीच-बिच सीता, धरत चरन मग चलत सभीता’। सीता जी इस भांति चरण रखते हुए चल रही हैं कि राम के पद चिन्हों पर उनके पद चिन्ह न पड़ जाएं और लखन दाएं-बाएं चरण रख कर चलते हैं।”

प्रो सदानंद साही ने छात्रों का आह्वान करते हुए कहा कि ठीक इसी तरह शोधार्थियों को अपने बड़ों के चरणों की पहचान हो, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा, विजयदेव नारायण साही आदि के चरण चिन्हों का ज्ञान होना चाहिए लेकिन इन्ही चिन्हों पर चरण रखकर चलेंगे तो ये वैसा ही होगा जैसे पीसे हुए आटे को फिर-फिर से पीसना। अपने बड़ों के चरणों पर चरण रखें इसे हमारे भारतीय संस्कृति में अपराध माना जाता है।

भक्तिकाल की कविता की चर्चा करते हुए प्रो सदानंद साही ने आगे कहा कि भक्तिकाल कविता कौशल से लिखी कविता नही है बल्कि आचरण से पैदा हुई कविता है। पूरी दुनिया में ऐसा आंदोलन नहीं दिखाई देगा। इस काल के कवियों के कथनी और करनी में अंतर नहीं है। वह कहते हैं कि नारी माया है तो है, वर्ण व्यवस्था टूटनी चाहिए तो टूटनी चाहिए। ये जो आचरण से पैदा हुई कविता है इसके पीछे कई महानायकों का हाथ है। स्वंतत्रता संग्राम के जो महानायक थे, उन्होंने भी भारत का स्वप्न देखा था। महात्मा गांधी ने कहा था कि उनका जीवन ही उनका संदेश है।

प्रो सदानंद साही ने आगे कहा, “घनानंद ने कहा था, ‘लोग है लागी कवित्त बनावत, मोही तो मेरो कवित्त बनावत।’ कविता कौशल बनाती है न कि कौशल कविता को बनाता है। उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए दुःख प्रकट किया कि आज के छात्रों को कविता के टुकड़े याद रहते हैं। कबीर, तुलसी तक को ठीक से पढ़ा नहीं, पाठ, उद्धरण, नाटकों के संवाद याद नहीं रहते। उन्होंने बताया कि हम अपने समय में मुगले आज़म तक के शेर को याद कर लिया करते थे, उन्होंने ‘सलीम’ का एक शेर प्रस्तुत किया, ‘हमारा दिल आपका हिंदुस्तान नहीं है, जिस पर आप हुकूमत करें’।”

उन्होंने कहा कि इस समय में विद्यार्थियों का पाठ से परिचय कम हुआ है। हम किसी की लिखी आलोचना पढ़कर धारणा विकसित कर लेते हैं, जबकि विद्यार्थियों को चाहिए कि वे मूल पाठ की ओर जाएं। आचार्य द्विवेदी का एक निबंध हैः मनुष्य साहित्य का लक्ष्य है, इसमें आचार्य द्विवेदी प्रकारांतर से भक्ति कविता के ही सारतत्व को प्रस्तुत कर रहे थे। कबीर कहते थे कि यह संसार भेद की पूंछ पकड़े हुए है, आदमी-आदमी का भेद, स्त्री-पुरुष का भेद और शैक्षणिक जगत में कबीर बनाम तुलसी, तुलसी बनाम सूर चला करता है जबकि यहां कबीर अभेद की बात कर रहे हैं।

प्रो साही ने कहा कि भारत का स्वप्न कई पाठों को मिलाकर बनता है। शंभूनाथ की पुस्तक ‘भक्ति आंदोलन उत्तर धार्मिक संदर्भ’ में उल्लिखित है, ‘भारत की भक्ति’ कविता भारत का सतरंगा इंद्रधनुष है, उसे आप एक रंग में नहीं कर सकते। इन विविध रंगों की छवि को निहारने की कला पैदा करना साहित्य के शिक्षक, शोधार्थी का प्रथम कर्त्तव्य है। राजनीति के लिए धर्म वही चीज नहीं है जो तुलसी के लिए है। इस संदर्भ में सबसे अच्छा कार्य भक्ति कविता करती है। गांधीजी ने भी भक्ति कविता का पारायण किया था।

उन्होंने कहा कि गांधी कहते थे कि उनके लिए धर्म आत्मबोध और ज्ञानबोध है। उन्होंने लिखा है कि यद्यपि वह वैष्णव थे। उकी काम वाली बाई रंभा ने उन्हें राम-नाम का मंत्र दिया था। गांधी कहते थे कि उनका राम उनके भीतर का सच है और उनका राम हर जगह है केवल मंदिर में नहीं है। वह ये सत्य और राम एक दूसरे के पर्याय मानते थे। उनके राम आपके भीतर बसने वाले राम हैं। इसके जरिए उन्होंने अपने जीवन में साहस एकत्रित किया, इस साहस के एकत्रीकरण में कवियों की कविताओं की बड़ी भूमिका थी।

गांधी की दांडी यात्रा का जिक्र करते हुए प्रो साही ने कहा कि जब महात्मा गांधी ने 1930 में दांडी यात्रा प्रारंभ की तो उसमें मात्रा 78 लोग थे, लेकिन गांधी के भीतर यह आशा थी कि अगर वह सही हैं तो लोग उके साथ आएंगे और आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि धीरे-धीरे यात्रा में इतनी तादात में लोग जुड़े कि उनके ऊपर धूल उड़कर बैठ गई था ऐसा लगता था कि जैसे माटी के पुतले हों। सामने अनंत क्षितिज था और गांधीजी ने मुठ्ठी में नमक उठाकर उसी दिन साम्राज्यवाद को चुनौती दे दी थी। उसी दिन भारत आजाद हो गया था। रवींद्र नाथ टैगोर का गीत ‘एकला चलो रे’ गांधी की प्रेरणा बना था। यूआर अनंतमूर्ति ने कहा था कि हम तो राजनीति में हैं, जो साहित्य में घटित होता है, देर सबेर राजनीति में भी घटित होता है। राजनीति में बड़े रूपक तभी आएंगे जब साहित्य में बड़े रूपक आएंगे।

उस प्रसंग पर प्रो साही ने आगे कहा कि नंदलाल घोष ने गांधी की दांडी यात्रा पर ‘एकला चलो रे’ का पोस्टर बनाकर प्रचारित किया था। आप सभी ‘नोआखाली’ के दंगे से तो परिचित ही होंगे। मनु गांधी ने अपनी डायरी में लिखा है कि जब हिंदुस्तान और पाकिस्तान आज़ादी का जश्न मना रहे थे, तब नोआखली में जनसंहार हो रहा था, अल्पसंख्यकों को जान-माल की हानि हो रही थी तब गांधी ही थे जो वहां पहुंचे थे, गांधी के पहुंचने पर उनका विरोध हुआ। गांधी के मार्ग में टूटे शीशे बिछा दिए जाते थे, कीचड़ बिछा दिए जाते थे। इस कारण गांधी सुबह 7 बजे से ही यात्रा प्रारंभ कर देते थे। गुजरात के प्रसिद्ध कवि नरसी मेहता का भजन ‘ वैष्णव जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे’ का रूपांतरण गांधी ने ही किया। वैष्णव जन तेने कहिए, सिक्ख जन तेने कहिए, मुस्लिम जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे। सिक्ख वह है जो दूसरों की पीड़ा जानें, मुस्लिम वह है जो दूसरों की पीड़ा जानें। मनू बेन ने लिखा है कि बापू ‘एकला चलो रे’ गीत गाते हुए चल पड़ते थे।

प्रो साही ने कहा, “टैगोर भक्ति कविता के आधुनिक भाष्य थे। इसलिए गांधी को टैगोर इतने प्रिय थे। राजघाट सर्व सेवा संघ से एक किताब छपी हैः गांधी को जैसा विनोबा ने देखा। एक शिष्य को कैसा होना चाहिए ये हमें विनोबा बताते हैं। विनोबा साबरमती आश्रम गए। उनके भीतर भाव जागृत हुआ की बापू, ‘वैष्णव जन तेने कहिए जे पीर पराई जानें रे’ गाते तो हैं लेकिन जीवन में कितना उतारा है यह जानने को उत्सुक हुए। यानी एक शोधार्थी को भी अपने शिक्षकों के आचरण की परीक्षा करनी चाहिए। विनोबा ने पता किया तो पाया कि वह सब बापू के आचरण में है जो नरसी मेहता की कविता में है। इंदिरा गांधी का विवाह सादा सूत काटकर बनाई गई साड़ी पहना कर किया गया था जिसे जवाहर लाल नेहरू ने जेल में काता था। और उनके विषय में यह दुष्प्रचार फैलाया गया था कि उनका सूट पेरिस में धुलता है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की बेटी पटेल के फटे कुर्ते से ब्लाउज बनाकर पहना करती थीं। भक्ति कविता का संबंध तो उस भारत से है जो आचरण से ढलता भारत हो। भक्तिकालीन कवियों रैदास, तुलसी आदि में आपको ये पाखंड नहीं मिलेगा। उन्होंने जो चाहा उसे अपने जीवन में उतारा। रेमंड विलियम कहता है कि जब दुनिया में समाजवाद आ जाएगा, जब भेद नहीं रहेगा, विश्व बंधुत्व आ जाएगा तब कला की ज़रूरत नहीं रहेगी क्योंकि तब मनुष्य ही कला हो जायेगा।”

प्रो साही ने कहा, “अब यह बहुत बड़ा यूटोपिया है। रैदास, गांधी, तुलसी से भी बड़ा यूटोपिया, ऐसा होगा या नहीं यह कहना मुश्किल है। भक्त कवि इस धरती की कला थे। ऐसे कवि समस्त संसार में दुर्लभ हैं। आचरण की कविता मंत्र की भांति आचरण करती है। तो यह है स्वप्न। आधुनिक भारत के सबसे बड़े साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ने वाले गांधी, गांधी के सामने यथार्थ था। राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर जब गांधी पटना पहुंचे, गांधी ने पूछा शौचालय कहां है शुक्ल जी उन्हें राजेंद्र बाबू के घर ले गए, राजेंद्र जी के न होने पर नौकर ने उन्हें अंदर नही जाने दिया। गांधी के इंग्लैंड के मित्र मजलूल हक ने कहा यहीं बैरिस्टरी करो लेकिन गांधी गए। जब गांधी 10 महीने बाद लौटे, नील किसान विद्रोह को चार महीने के अंदर जीत लिया। गांधी ने कलेक्टर को तर्क से हराया और कलेक्टर ने खुद गवर्नर को पत्र लिखा। वकील साहेब, राजेंद्र बाबू ये सभी लोग अपने अपने नौकरों के साथ पहुंचे। गांधी ने अनुभव किया कि जो सामूहिक भोजन नहीं कर सकते वे देश को क्या ही एकता के सूत्र में बांधेंगे।

चंपारण आंदोलन की चर्चा करते हुए प्रो साही ने कहा कि गांधी को भारत की गरीबी का साक्षात्कार पहली बार चंपारण में ही हुआ। जहां एक औरत के पास एक ही साड़ी है जो अंधेरे में नहाती है। तब गांधी को नैतिक पश्चाताप हुआ। उन्हें कबीर का चरखा याद आता है और उन्होंने चरखे को अपना लक्ष्य बना लिया। गांधी ने चरखे का संगीत नाम से यंग इंडिया में एक लेख लिखा, “जब मैं करोड़ों लोगों को बेकाम देखता हूं तो मुझे चरखे की याद आती है। जब मैं सूत काटता हूं तो सूत के धागे में मुझे संगीत का स्वर सुनाई देता है। रवींद्र ने 1915 में कबीर की 100 कविताओं का अनुवाद ‘पोएम्स ऑफ कबीर’ नाम से किया। एवरी नंदन हील ने इसकी भूमिका लिखी। उन्होंने बताया कि कबीर की कविता में उन्हें उद्योग और अध्यात्म का मेल दिखाई देता है। तब ज्ञात होता है जब कबीर चरखे पर बैठते थे तो गाते थे, “झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया, कहां का ताना कहां की बरनी, कौन तार से बीनी रे चदरिया।” इस रूपक को एवरी नंदन हील ने रेखांकित किया था।

प्रो साही ने कहा कि उद्योग और अध्यात्म का मेल गांधी भी चाहते थे और कबीर भी चाहते थे। यह स्वप्न एक और स्वप्न जो, लघु-मध्यम उद्योग का था। इनका विनाश करके प्रकृति का विनाश करने वाले उद्योग का विकास कर रहें हैं। राम मनोहर लोहिया और सच्चिदानंद सिन्हा आदि ने बड़े उद्योगों पर सवाल खड़े किए। पूंजीवाद जिन देशों में आया, वह उपनिवेशों के शोषण से आया। अब भारत किसका शोषण करेगा। तो सिन्हा ने कहा कि यदि भारत पूंजीवाद की राह पकड़ेगा तो आन्तरिक उपनिवेश बढ़ेगा। जैसे नर्मदा घाटी को आंतरिक उपनिवेश, छत्तीसगढ़ को, झारखंड को, बिहार आंतरिक उपनिवेश बना दिया गया। जब भव्य पैमाने पर पूँजीवादी विकास की नीतियाँ बनेंगी तो भेद पैदा होगा, पर्यावरण बर्बाद होगा ही। अध्यात्म होगा तभी तो लोभ कम होगा। वरना पूंजीपतियों के लोभ का कोई ठिकाना है। इस विकास का कोई तर्क नही है। जो पूंजीपति 10 साल पहले 100 वें स्थान पर था आज उसका स्थान छठां है। अपनी विकास नीति पर भी विचार करें जो कुछ लोगों को अमीर बना रही है बाकी को गरीब। भक्ति कविता उद्योग और अध्यात्म, विकास की नीतियों पर भी सोचने को बाध्य करती है। नए भारत का स्वप्न, अब किसी को पछतावा तक नहीं होता कि मात्र 13 फीसदी लोगों के पास इतनी पूंजी है बाकी सारा देश इतने कम पूंजी में चल रहा है। भक्ति कविता इस ओर ध्यान केंद्रित करती है। इसलिए भक्ति कविता आचरण की कविता है। पाश ने भी कहा था, “सबसे भयावह होता है आदमी के स्वप्न का मर जाना।”

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य के प्रोफेसर गोपेश सिंह ने कहा कि भक्तिकाल में जो कविताएं रची गईं वे कवि कौशल से लिखी गई कविताएं नहीं हैं, अपितु आचरण से पैदा हुई कविताएं हैं। कार्यक्रम के मुख्य वक्ता के तौर पर अपने संबोधन में उन्होंने तुलसीदास की एक पंक्ति “प्रभु पद रेख बीच बिच सीता, धरत चरन मग चलत सभीता” का उल्लेख करते हुए कहा कि शोधार्थियों के भी अपने पग की एक अलग पहचान होनी चाहिए। महात्मा गांधी ने भी भक्ति कविता का परायण किया था। उनका भी मानना था कि राजनीति भी इसी तरह के आचरण पर टिकी होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि शोध समवाय के प्रथम वक्ता के तौर पर मुझे हर्ष का अनुभव हो रहा है। पूर्व में हमने भी शोध समवाय नाम से एक संस्था का गठन किया था। इसका उद्देश्य शोधार्थियों को नई दिशा प्रदान करना है।

कार्यक्रम की अगली कड़ी में प्रो अवधेश प्रधान ने अपने वक्तव्य में कहा कि यह विषय आज के समय को देखते हुए बिल्कुल प्रसंगोचित और प्रेरणा से भरा हुआ है। जिस प्रकार से छात्रों के प्रश्न आ रहे थे, ये इस परचर्चा की सफलता का प्रमाण है। हमारे हिंदी साहित्य पर भक्तिकाल का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। मन का संकल्प और संकल्प से निकलने वाली वाणी और कर्म एक ही होनी चाहिए, इसे आचरण की एकता कहते हैं। इस आचरण की एकता को हम भक्तिकाल के कवियों में देख सकते हैं। लक्ष्य महान होने से कविता महान होती है, भक्तिकाल की कविता का लक्ष्य महान था।

गोरखनाथ की रचना ‘कहणी सुहेली, रहणी दुहेली, कहणी, रहणी द्विध थोथी।’ की चर्चा करते हुए प्रो प्रधान ने कहा कि राधाकृष्णन ने संस्कृत की तरह अंग्रेजी को पकड़ लिया था ये लंबे-लंबे वाक्य होते थे। नेहरू की अंग्रेजी 19वीं सदी की थी और गांधी की अंग्रेजी 20वीं सदी की। यूं छोटे-छोटे सुगठित वाक्य, सादगी से भरा हुआ, सरल और सहज। गांधी ने अपनी पूरी परंपरा को उतार लिया। उन्होंने ने कहा कि इस पर कि ‘मैं गांधी कैसे बना’, एक फिल्म बननी चाहिए।” रघुपति राघव राजा राम का मंत्र उन्हें रंभा से मिला। जब उन्होंने रंभा से कहा कि रंभा जब मैं अंधेरे से गुजरता हूं तो मुझे भय लगता है तो रंभा ने कहा था कि राम का नाम लो सारे भय दूर हो जाएंगे। गोर्की के उपन्यास का भिखमंगा जब खड़ा होकर कहता है कि आई एम मैंन’, तब प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि का नायक सूरदास की याद आ जाती है। तब वह मनुष्य की गरिमा, संभावना को उद्बोधित करता है।

प्रो प्रधान ने कहा कि यूरोप में कई प्रतिभाएं हुईं लेकिन वहां का कोई कवि लोक में गाया गया हो ऐसा नहीं मिलेगा। हमारे भारतवर्ष के लगभग हर प्रदेश में संतों के, कवियों के गीत आज भी गाए जाते हैं। इस देश को ऐसी ही वाणी ने बनाया है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में गांधी जी के बारे में लिखा है कि यह आदमी बहुत पिछड़ी बात कहता है लेकिन जनता इतनी तल्लीनता से इसी को सुनती है। जनता को सड़कों पर उतार लाने का माद्दा गांधी ही रखता है। सपना कभी नहीं मरता। उन्होंने कहा कि इस समय सबसे बड़ा मुद्दा है पर्यावरण। धरती थर-थर कांप रही है। इतना विस्तार है गांधी के चिंतन में किसी ने भी इतने प्रश्नों, समस्याओं पर चिंतन नहीं किया जितना गांधी ने किया, इसीलिए गांधी में आपको अंतरविरोध भी बहुत मिलेगा। राजनीति ने हमारी आंखों को चौंधिया दिया है। अकादमिक जगत में राजनीतिकरण, अनुकरण जोरों पर है। रेत के चरण चिन्हों जैसे अपने चरण चिन्ह मत बनाइए। आलोचकों को मटियामेट करके आप बाजी मार ले जाएंगे ये मत सोचिए, सीखना तो उन्हीं से पड़ेगा और कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने बताया कि बंगाल के अकाल पर महादेवी वर्मा ने कई सारे कवियों से लिखने कहा और एक सुंदर कविताओं का संकलन किया। भूमिका में लिखा है,” बंगाल के अकाल में हमारी कलम झुलस नही जाती तो हमें लानत है।” आचरण और राजनीति का सम्मिलन कैसे हो, गांधी और जयप्रकाश नारायण इसके उदाहरण हैं। आज की सभ्यता हर चीज़ को हंसी में उड़ा देने वाली सभ्यता है।

कार्यक्रम का माहौल एकदम से लोकतांत्रिक था, छात्रों को प्रश्न पूछने और टिप्पणी करने का अवसर भी प्रदान किया गया। कार्यक्रम के संचालन का कार्य हिंदी विभाग के शोधार्थी अजीत प्रताप सिंह ने किया और धन्यवाद ज्ञापन वरिष्ठ शोधार्थी प्रशांत राय ने किया। कार्यक्रम में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कई प्रोफेसर और बड़ी संख्या में छात्र और छात्राएं मौजूद थीं।

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निर्मला पुतुल की कविताओं में संवेदना

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डॉ मधुबाला शुक्ला 

इक्कीसवीं सदी विमर्श की सदी रही है। जिसमें प्रमुख रूप से दलित विमर्श, स्त्री विमर्श आदिवासी विमर्श है। वर्तमान युग के हिंदी साहित्य में आदिवासी साहित्य एक विशेष पहचान बनाते हुए नज़र आता है। आदिवासी समुदाय में नए-नए साहित्यकार उभर कर सामने आ रहे हैं। इन साहित्यकारों में निर्मला पुतुल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। निर्मला आदिवासी महिला साहित्य जगत की सशक्त रचनाकार हैं। वह साहित्य लिखने के साथ सामाजिक विकास, मानवाधिकार शिक्षा, आदिवासी महिलाओं के समग्र उत्थान के लिए व्यक्तिगत, सामूहिक एवं संस्थागत स्तर पर सतत सक्रिय हैं। अनेक राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के साथ उनका जुड़ाव रहा है। आदिवासी महिला, शिक्षा और साहित्यिक विषयों से संबंधित सम्मेलनों, आयोजनों, कार्यशालाओं एवं कार्यक्रमों में उन्हें व्याख्याता एवं मुख्य भूमिका के लिए आमंत्रित किया जाता है। अनेक संगठनों व संस्थाओं की संस्थापक, सदस्या, स्वास्थ्य परिचारिका के रूप में ‘संथाल परगना’ के ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से कार्य कर रही हैं। निर्मला अत्यंत भावुक क़िस्म की इंसान हैं। उनकी यह संवेदनशीलता उनके साहित्य में साफ़ झलकती है।

निर्मला पुतुल का जन्म 6 मार्च 1972 में कुरुवा, दुमका झारखंड में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा दुधनी कुरुबा में और स्नातक शिक्षा राजनीति शास्त्र में दुमका से हुआ। निर्मला पुतुल की पहली कविता ‘बिटिया मुर्मू’ 1999 में वागर्थ में प्रकाशित हुई थी। अब तक उनके तीन कविता संग्रह हिंदी भाषा में प्रकाशित हो चुके हैं। ‘अपने घर की तलाश में’ कविता संग्रह 2004 में रमणिका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित हुआ। यह कविता संग्रह द्विभाषी है। इसका अनुवाद अशोक सिंह ने किया। (‘इत्राक ओडाक सेन्देरा रे’ कविता संग्रह का मूल नाम है) इस संग्रह में सम्मिलित सभी कविताओं का मूल स्वर विद्रोह का है।

‘नगाड़े की तरह बजते शब्द’ भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से 2005 में प्रकाशित किया गया। इस कविता संग्रह में कुल 38 कविताएँ शामिल की गई हैं। क्या तुम जानते हो, अपनी ज़मीन तलाशती बेचैनी स्त्री, आदिवासी स्त्रियाँ, बाहामुनी, बिटिया मुर्मु के लिए, आदिवासी लड़कियों के बारे, चुडका सोरे, कुछ मत कहो सजोनी किस्कू, संथाल परगना, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए, पहाड़ी स्त्री, माँ के लिए, ससुराल जाने से पहले उतनी दूर मत ब्याहना बाबा, आदि कविताएँ इस संग्रह में है। कुल मिलाकर इस संग्रह में प्रकाशित कविताएँ आदिवासी स्त्री एवं आदिवासियों की वेदना, पीड़ा, दर्द, टीस, उपेक्षा, अपमान, घुटन, विवशता, विस्थापन साथ ही अपने अस्तित्व की खोज करती आदिवासी स्त्री और उसके भीतर की आक्रांत स्त्री पितृसत्ता को चुनौती देती है। निर्मला की कविताएँ मात्र स्त्री के दर्द की अभिव्यक्ति एवं पुरुष व्यवस्था का विद्रोह नहीं करतीं, बल्कि स्वयं के अस्तित्व की तलाश करती आदिवासी स्त्री, आदिवासी समुदाय का हर एक क्षेत्र में होने वाले शोषण को उजागर करती हुई नज़र आती हैं।

अपने घर में निर्मला पुतुल

‘बेघर सपने’ कविता संग्रह 2014 में आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इस कविता संग्रह में एक फिर से निर्मला ने शोषण और न्याय के सवालों को प्रमुखता से उठाया है। इस संग्रह में कुल 51 कविताएँ हैं। संग्रह की पहली कविता ‘माँ’ है, जो सबसे डरावनी रात में एक माँ की अस्तित्व को हिला देने वाली तस्वीर पेश करती है।

निर्मला पुतुल आदिवासी लेखिकाओं में एक सशक्त एवं सफल रचनाकार के रूप में खड़ी नज़र आती हैं। अपनी इस सफलता, प्रेरणा और शक्ति का श्रेय वह तस्लीमा नसरीन की कविताओं को मानती हैं। उनकी कविताओं से ही प्रेरित होकर निर्मला ने कविताएँ लिखी। निर्मला ने अपनी कविताओं में आदिवासी समुदाय तथा आदिवासी स्त्री की संवेदना को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है। उनकी कविताएँ ज़मीन से जुड़ी हुई हैं। उनकी कविताओं में एक आदिवासी स्त्री की तड़प साफ़ दिखाई देती है। साथ में उपेक्षित आदिवासी जीवन की व्यथाएँ भी वर्णित है। इन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है। आदिवासी समाज की कड़ी मेहनत के बावजूद असोचनीय स्थिति, अंधविश्वास, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरुष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, समाज का दिक्कूओं और व्यावसायिकों द्वारा कठपुतली बनाया जाना आदि स्थितियाँ है जो निर्मला पुतुल की कविताओं के केंद्र में है।

निर्मला पुतुल की कविताएँ आदिवासी जीवन के अनछुए पहलुओं से रूबरू कराती हैं। उनकी काव्य संवेदना में युग परिवेश की यथार्थ आवाज गूंजती है। उन्होंने अपने समय और समाज को उसकी सारी विभीषिकाओं के साथ अनुभव किया है। उनकी काव्य संवेदना अपने समय की सामाजिक व्यवस्था और समस्याओं की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। नागपुरी पत्रिका ‘गौतिया’ के संपादक वीरेंद्र कुमार महतो निर्मला पुतुल की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- “निर्मला पुतुल का एक-एक शब्द दिल पर चोट करता है, हमें सोचने को मजबूर कर देती है, जितनी भी उनकी कविताओं की तारीफ़ की जाए कम होगी।” निर्मला पुतुल ने अपने यथार्थ जीवन अनुभव एवं परिवेश को अपनी लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है। उन्होंने एक संवेदनशील कवयित्री के रूप में अपनी मार्मिक अंतर्दृष्टि और अनुभव संसार के वैविध्य से आदिवासी समाज और स्त्री जीवन को अपनी रचनाओं में समेटने का प्रयास किया है।

अपने दफ़्तर में निर्मला पुतुल

उनकी कविताएँ आदिवासी समाज की पीड़ा, विस्थापन का दर्द, आदिवासी स्त्रियों की दशा का चित्रण करती है तो दूसरी ओर उनकी कविताएँ पाठक के हृदय में छिपी हुई संवेदना को गहराई से प्रभावित करती हुई भी दिखाई देती है। उनकी काव्य संवेदना आदिवासी समुदाय के प्रति अधिक संवेदनशील दिखाई देती है। इस भूमंडलीकरण के कारण सभी देश एक-दूसरे के क़रीब आ रहे हैं परंतु देश का मूलनिवासी आज भी पहाड़ी जंगलों में रहने के लिए मजबूर है। विकास की कोई सड़क उन तक नहीं पहुँच पाती। शिक्षा, बेरोज़गारी, विस्थापन, स्त्री का दर्द, भुखमरी, शराब आदि की समस्या को निर्मला ने अपनी कविताओं में प्रकट किया है। रेखा सेठी निर्मला पुतुल की कविताओं के बारे में कहती हैं- “निर्मला पुतुल का काव्य संसार एक अलग दुनिया खोलता है। वास्तविक और वैचारिक के अंतर को यहाँ शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। अधिकांशतः स्त्री कविता की पहचान पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति की आकांक्षा में रची एवं पढ़ी जाती है किंतु यहाँ आदिवासी समाज का हाशियाकरण, उसे एक अतिरिक्त आयाम देता है। निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आदिवासी समाज के अंतर्विरोध को गिरते हुए यथास्थिति के प्रतिकार के लिए कविता का अभियान छेड़ती हैं।”

निर्मला पुतुल जिस समुदाय से आई है वह संथाल समुदाय वर्तमान युग में भी पुराने रीति-रिवाज़ों में उलझा दिखाई देता है। भूमंडलीकरण की दुनिया किस प्रकार आदिवासी क्षेत्र को नष्ट कर उसकी पहचान बदलती हुई नजर आ रही है। इसका चित्रण कवयित्री निर्मला पुतुल ‘संथाल परगना’ कविता में करती है।
संथाल परगना
अब नहीं रह गया संथाल परगना
बहुत कम बचे रह गए हैं
अपनी भाषा और वेशभूषा में यहाँ लोग
बाज़ार की तरफ़ भागते
सब कुछ गड्डम हो गया है इन दिनों यहाँ
उखड़ गए हैं बड़े-बड़े पुराने पेड़
और कंक्रीट के पसरते जंगल में
खो गई है इसकी पहचान।

ऐतिहासिक संवेदना के संदर्भ में पुतुल कहती हैं कि संथाल विद्रोह इतिहास में प्रसिद्ध है। सिद्धू और कान्हू नाम के दो संथाल भाइयों ने मिलकर अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध विद्रोह किया था। वह विद्रोह कई महीनों तक चला था उन दोनों वीरों को याद करते हुए निर्मला पुतुल इतिहास के पन्नों से ग़ायब होता आदिवासी वीरों के इतिहास की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है।
तुम आज ज़िंदा होते तो
शायद ही ऐसा दुस्साहस करता कोई
सुना नहीं जिन्होंने तुम्हारी वीरता की गाथा
पढ़ा नहीं तुम्हारे इतिहास
वे तीर और तीर के लक्ष्य नहीं जानते
तभी तो इतिहास के पन्नों से
मिटाना चाहते हैं तुम्हारा नामोनिशान
वे कितने नादान है बेईमान
कभी लुच्चा लपट बता-बताकर
छोटा करते रहे तुम्हारा क़द
और तुम्हारे आंदोलन को
देश की आज़ादी न मानकर
एक झूठी कहानी को बताते रहे सच
आदिवासियत के नाम पर।

मुख्यधारा के इतिहास में आदिवासियों का वर्णन ग़लत तरीक़े के साथ किया गया है। कवयित्री अपने समाज के वीरों का प्रस्तुत ग़लत इतिहास बताने वाली संस्कृति के प्रति कड़ा विरोध करती हुई नज़र आती है। राजनीतिक संवेदना के संदर्भ में निर्मला पुतुल की कविताएँ आदिवासी क्षेत्र की मूल समस्या की ओर हमारा ध्यान केंद्रित करती हैं। अपनी कविताओं के माध्यम से मूल सुविधाओं की अपेक्षा वो बहस का मुद्दा बनाना चाहती है। सड़के नहीं हैं, बिजली नहीं है, बच्चे महाजन के पास हैं, महिलाओं को कोसों दूर झरने से पानी ढोकर लाना पड़ता है। इन सवालों को उठाते हुए तथाकथित सभ्य समाज से पूछना चाहती हैं कि क्यों किसी को भी आदिवासी जीवन के यह अभाव लोकतंत्र का केंद्रीय मुद्दा नहीं लगते। राजनीति द्वारा समस्याओं का हल ढूँढ़ने की कोशिश भीतर के खोखलेपन को बेनक़ाब करती है। कुर्सी और सत्ता की राजनीति व्यापक मानव समाज की हित चिंता से बहुत दूर है। आज हम डिजिटल दुनिया की बातें कर रहे हैं वहीं भारत के मूलनिवासी अपनी मूलभूत सुविधाओं से वंचित दिखाई दे रहे हैं। कवयित्री ‘आपके शहर में आपके बीच रहते, आपके लिए’ शीर्षक कविता में कहती हैं-
मैं बात करना चाहती हूँ
अपने उस गाँव की जहाँ आज तक बिजली नहीं पहुँची
सड़के नहीं पहुँची और तो और जहाँ की महिलाएँ
आज भी कोस भर दूर झरनों से पानी ढोकर लाती है
और जिनके बच्चे बगाली के नाम पर
वर्षों से महाजन के पास गिरवी पड़े हैं।

सरकार द्वारा मिलने वाली योजनाएँ भी उन तक नहीं पहुँच पाती। यदा-कदा मिल भी जाए तो उसे पाने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। इसका चित्रण ‘ढेपचा का बाबू’ कविता में किया गया है।
इंदिरा आवास के लिए बहुत
दौड़ भाग की
पंचायत सेवक को मुर्गा भी दिया
प्रधान को भी दिया पचास टका
पर अभी तक कुछ नहीं हुआ
पूरे डेढ़ साल हो गए।

आदिवासी समाज को किस प्रकार विकास के नाम पर मूर्ख बनाएँ इसका चित्रण करते हुए निर्मला पुतुल कहती हैं-
हम चाहते रहे संतुलन
तुम करते रहे असंतुलित
तोड़ते रहे एकता, मिटाते रहे
हमारी पहचान
खदेड़ते रहे हमारे ही जंगलों से हमें
उजाड़ दे रहे विकास के
नाम पर हमारी बस्तियाँ
बसाने के नाम पर ढेलते रहे हाशिए पर।

निर्मला पुतुल की कविताओं में विस्थापन के दर्द की भी अभिव्यक्ति हुई है। वर्तमान युग में आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ा संकट विस्थापन का है। आदिवासियों को जंगल से खदेड़ देने के बाद वह काम के लिए दर-दर भटकते हुए दिखाई देते हैं। दिल्ली, असम आदि क्षेत्रों में जाकर रोज़गार ढूँढते हैं। विस्थापन के कारण आदिवासियों की स्थिति दयनीय हो गई है। विकास के नाम पर उन्हें ठगा जा रहा है। उनके ज़ख़्मों पर केवल दिखावे के लिए मरहम लगाया जाता है। विकास का सपना दिखाकर उन्हें ग़ुमराह किया जाता है। कवयित्री ऐसे विकास के सपनों को नकारती है जो उनके संसाधनों को छीन कर उन्हें अपने ज़मीन, जंगल से बेदख़ल करते हैं। इस तरह के विकास से वह भली-भांति परिचित हैं। वे आदिवासी समाज का विकास के नाम पर होने वाले शोषण का विरोध करती हैं। विकास के नाम पर उनकी बस्तियों को उजाड़ा जाता है। जिसका वर्णन कवयित्री ‘तुम्हारे एहसान लेने से पहले सोचना पड़ेगा हमें’, कविता में कहती हैं-
अगर हमारे विकास का मतलब
हमारी बस्तियों को उजाड़कर कल कारखाने बनानी है।
तालाबों को भोथकर कर राजमार्ग
जंगलों को सफ़ाया कर ऑफ़ीसर्स कॉलोनियाँ बसानी है।
पता है तुम्हारी हर तीसरी बात में
आएगा ज़िक्र विकसित लोगों और उनके देशों का
उनके सामने खड़ा कर बताओगे तुम
कि कितने पिछड़े हैं हम
पर अफ़सोस
तुम कभी नहीं बताओगे कि
किन शर्तों पर हमारा विकास करना चाहते हो तुम।

स्त्री के प्रति संवेदनशीलता के संदर्भ में निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में आदिवासी स्त्री की त्रासदी एवं अस्तित्व की तलाश करती नज़र आती हैं। उनकी कविताओं में स्त्री अपने घर की तलाश करती है, जो स्थान उसका है उसे ढूँढ़ने का प्रयास करती है। सदियों से अपना घर, अपनी ज़मीन तलाशती स्त्री किस प्रकार अपने अस्तित्व को ढूंढ रही है। ‘अपने घर की तलाश’ कविता में वह कहती हैं-
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
दौड़ती- हाँफती- भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी ज़मीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ।

निर्मला पुतुल स्त्री होने की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहती हैं-
एक स्त्री
स्त्री होने की पीड़ा भोगती है
और अगले जन्म में स्त्री जन्म ना लेने
की प्रार्थना ईश्वर से करती है।

निर्मला पुतुल की कविताओं में स्त्रीवादी स्वर दिखाई देता है। पुरुष प्रधान संस्कृति में स्त्री का शोषण किस प्रकार किया जाता है यह उनकी कविताओं में हमें दिखाई देता है। निर्मला पुतुल प्रकृति के प्रति भी बहुत संवेदनशील हैं। उनकी कविताओं में प्रकृति के प्रति गहरी चिंता व्यक्त हुई है उन्होंने जंगलों की अवैध कटाई, सूखते जल स्रोत के प्रति चिंता प्रकट की है। आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर से अधिकार हटाकर उन्हें ज़मीन से, जंगल से बेदख़ल कर दिया गया है परंतु सीधे-साधे आदिवासी इस षड्यंत्र को न पहचान सके। मनुष्य प्रकृति के प्रति इतना क्रूर होता जा रहा है कि ताज़ी हवा, नदियाँ, पहाड़ आदि को हानि पहुँचा रहा है। इसीलिए निर्मला पुतुल समाज और प्रकृति को अभिन्न जैविक इकाई की तरह बचाने का आह्वान करती हैं। आदिवासी समाज धरती को संसाधन की बजाय ‘माँ’ मानकर उसके बचाव और उसके रखरखाव के लिए सदैव तत्पर रहता है। अपनी कविताओं में जंगल के धड़ल्ले से ग़ायब होते पेड़ों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहती हैं-
क्या तुमने कभी सुना है
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से
पेड़ों की चीत्कार?
कुल्हाड़ियों के वार सहते
किसी पेड़ की हिलती टहनियों में
दिखाई पेड़ है तुम्हें
बचाव के लिए पुकारते हज़ारों हज़ार हाथ?

वर्तमान युग भूमंडलीकरण की चकाचौंध की दुनिया में विकास की नई व्याख्यान कर रहा है। तो दूसरी तरफ़ मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर उसे नष्ट कर आने वाली पीढ़ी के लिए एक नया संघर्ष निर्माण कर रहा है। आर्थिक संवेदना को व्यक्त करते हुए ‘बहामुनी’ कविता में निर्मला कहती हैं-
तुम्हारे हाथों बने पत्तल पर भरते हैं पेट हज़ारों
पर हज़ारों पत्तल भर नहीं पाते तुम्हारा पेट।

आज की भूमंडलीकरण के इस दौर में आदिवासी समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती संस्कृति और भाषा को बचाने की है। विस्थापन के कारण रहने का ठिकाना नहीं और काम नहीं। आज प्लास्टिक का ज़माना है। लोग प्लास्टिक की चीज़ें लेने लगे हैं। आदिवासी समाज द्वारा बनाए गए चीज़ें झाड़ू, पत्तल, दोना, दातुन नहीं बिकते हैं। इस कारण आदिवासी समाज की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है।
इधर कामकाज भी नहीं मिलता आजकल
जो मेहनत मजदूरी कर घर चलाऊं
दोना-पत्तल भी नहीं बिकता
और न ही लेता है कोई घर चटाई
झाड़ू, पंखा, दातुन, का भी बाज़ार नहीं रहा अब।

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि निर्मला पुतुल संवेदनशील कवयित्री हैं। उनकी रचनाओं में व्यवस्था के प्रति कड़वाहट एवं आदिवासी स्त्री का संघर्ष दिखाई देता है। अपनी कविताओं में उन्होंने जीवन अनुभव को सहजता से व्यक्त किया है। इन संवेदना में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आदिवासी स्त्री आदि विचार भाव को यथार्थ रूप में स्पष्ट किया है। निर्मला ने इन दुखों को खुद भोगा है और बहुत क़रीब से देखा भी है इसीलिए उनकी कविताएँ सीधे ह्रदय पर चोट करती है।

(डॉ मधुबाला शुक्ला ने हाल ही में ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यासों में व्यक्त साम्प्रदायिकता’ विषय पर अपनी पीएचडी डिग्री पूरी की। लेखन में सक्रिय हैं और इनके लेख और साक्षात्कार विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते हैं।)

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निवेश का अभाव, निवाले का संकट

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सरोज कुमार

निवेश अर्थव्यवस्था का आधार होता है। निवेश के अभाव में अर्थव्यवस्था अर्थहीन हो जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा इसका एक उदाहरण भर है। बाजार में मांग मंद हो चली है। महंगाई, बेरोजगारी का बोझ दर्दनाक हो चुका है। आम आदमी कराह रहा है; और खास लोग तीव्र वृद्धि दर की डफली पीट रहे हैं। आत्ममंथन की गुंजाइश खत्म हो गई है। अर्थव्यवस्था की इस करुण कथा का अंत भले अदृश्य है, लेकिन आभास डरावना है।

आदर्श अर्थव्यवस्था वो, जहां हर हाथ को काम, हर घर कमाई, सबके लिए सम्मानजनक जीवन के साधन और अवसर सुलभ हों। ये सुलभता तभी संभव है, जब उचित निवेश उपलब्ध हो। खुले बाजार वाली अर्थव्यवस्था में निवेश की बड़ी जिम्मेदारी निजी क्षेत्र पर आ जाती है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र विनिवेश की भेंट चढ़ चुका होता है। निजी क्षेत्र तभी निवेश करता है, जब पूंजी की मुनाफे के साथ वापसी का भरोसा हो। भरोसे का वातावरण बनाने की जिम्मेदारी नीतिनियंताओं की होती है। यहीं पर उनके कौशल, उनकी नीति और नीयत की परीक्षा होती है। भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा दशा इस परीक्षा का परिणाम है। परिणाम के पुनरीक्षण से स्थिति कुछ सुधर सकती है, लेकिन हमने पहले ही खुद को पास मान लिया है। फिर सारी कसरत पानी पर लाठी पीटने जैसी हो जाती है।

निवेश आकर्षित करने की जाहिर तौर पर कोशिशें की गई हैं। व्यापार आसान बनाने से लेकर सभी क्षेत्रों को निजी निवेश के लिए खोलने तक, कॉरपोरेट कर घटाने से लेकर आइबीसी जैसा कानून बनाने तक। इन सबके कुछ फायदे भी हुए हैं, लेकिन वह नहीं हुआ जो होना चाहिए था। आज 190 देशों के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांक में 142वें (2014) पायदान से उठ कर 63वें (2022) पायदान पर पहुंच जाने के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था निवेश को मोहताज है। निजी क्षेत्र को भरोसा ही नहीं कि बाजार में छोड़ी जाने वाली पूंजी वापस लौट आएगी। निवेशक सम्मेलन, निवेशक वादे, घोषणाएं सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। एफडीआइ घट रही है, तो घरेलू निजी निवेश भी नीचे आ रहा है। बेशक, इन सबके बाहरी कारण हैं। लेकिन आंतरिक कारण कम नहीं हैं। और, इन आंतरिक कारणों के लिए सीधे तौर पर हमारे अंतःपुर के प्रबंधक जिम्मेदार हैं।

उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग (डीपीआइआइटी) के आंकड़े कहते हैं मौजूदा वित्त वर्ष (2022-23) के प्रथम नौ महीनों (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) 15 फीसद घटकर 36.75 अरब डॉलर रह गया, जो पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि में 43.17 अरब डॉलर था। वित्त वर्ष 2021-22 के दौरान 58.7 अरब डॉलर का एफडीआइ आया, जबकि रिकार्ड 59.6 अरब डॉलर एफडीआइ 2020-21 के दौरान आया था। अबतक का सर्वाधिक 83.57 अरब डॉलर का कुल एफडीआइ वित्त वर्ष 2021-22 में आया था। कुल एफडीआइ में इक्विटी निवेश, निवेश से हुई आय का निवेश और अन्य पूंजी शामिल होते हैं। आइटी क्षेत्र में बूम महामारी के दौर का फलित था। इस क्षेत्र में सर्वाधिक 25 फीसद एफडीआई आया और नौकरियां भी पैदा हुईं। लेकिन समय गुजरने के साथ यह कारवां थम गया। आज यह क्षेत्र छंटनी की छुरी से रक्तरंजित है। एफडीआई में गिरावट से रुपया भी रुहासा हुआ। डॉलर के मुकाबले 80 के स्तर से नीचे लुढ़क गया।

घरेलू निजी निवेश की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। निवेश पर निगरानी रखने वाली संस्था ’प्रोजेक्ट्स टूडे’ का ताजा सर्वेक्षण कहता है, कुल निवेश में घरेलू निजी निवेश की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2022-23 के प्रथम नौ महीनों में घटकर 54.66 फीसद रह गई, जो 2021-22 के प्रथम नौ महीनों में 62.50 फीसद थी। वित्त वर्ष 2021-22 की इसी अवधि में निजी निवेश की कुल 3,585 परियोजनाएं थीं, जो 2022-23 की इसी अवधि के दौरान घटकर 2,787 रह गईं।

सरकार ने अब निजी निवेश को बढ़ावा देने वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में केंद्रीय पूंजीगत निवेश का परिव्यय 37.4 फीसद बढ़ाकर 10 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। पिछले वित्त वर्ष में यह 7.28 लाख करोड़ रुपये था। लेकिन ये पूरी राशि खर्च हो पाएगी, इसकी संभावना कम है। पिछले नौ सालों में चार बार (2014, 2015, 2018, 2020) ऐसा हुआ, जब पूंजीगत निवेश के लिए घोषित पूरी राशि खर्च नहीं हो पाई। मौजूदा वित्त वर्ष में भी कुछ ऐसा ही होने की आशंका है। यदि वित्त वर्ष 2024 के लिए घोषित पूरी राशि खर्च हो भी जाए तो भी महंगाई, बेरोजगारी जैसी अर्थव्यवस्था की बुनियादी बीमारी में राहत नहीं मिलने वाली, क्योंकि पूंजीगत निवेश का बड़ा हिस्सा बड़ी परियोजनाओं पर खर्च होना है। इससे खास किस्म की मांग बढ़ने से खास बड़े कारोबारियों को तो लाभ होगा, लेकिन बेरोजगारों को रोजगार नहीं मिल पाएगा। रोजगार के अभाव में बाजार में मांग की स्थिति और मंद हो सकती है। ऐसे में निजी निवेश के लिए पूंजीगत निवेश में वृद्धि निष्फल हो जाएगी।

मौजूदा परिस्थिति में सार्वजनिक निवेश ऐसी परियोजनाओं में करने की जरूरत है, जो अधिक से अधिक रोजगार पैदा करने वाली हों। लोगों की जेब में पैसे पहुंचेंगे, तभी बाजार में मांग बढ़ेगी और निजी क्षेत्र निवेश को आगे आएगा। अफसोस कि इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हो रही। बेरोजगारी दर लंबे समय से सात फीसद से ऊपर बनी हुई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआइई) के अनुसार, फरवरी 2023 में भी बेरोजगारी दर 7.45 फीसद पर बनी रही। खुदरा महंगाई दर भी 6.44 फीसद दर्ज की गई। बेरोजगारी, महंगाई के समन्वित प्रभाव से मंद पड़ी मांग का परिणाम है कि मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर घटकर 4.4 फीसद रह गई। चौथी तिमाही में इसके और नीचे जाने की आशंका है।

महामारी और यूक्रेन युद्ध जनित बाहरी कारणों से देश का निर्यात नीचे आ रहा है। लेकिन घरेलू मांग में गिरावट के लिए आंतरिक कारण ही जिम्मेदार हैं। और इसकी जवाबदेही नीतिनियंताओं को लेनी ही होगी। जनवरी 2023 में भारत का निर्यात 6.59 फीसद घटा तो आयात 3.63 फीसद घट गया। परिणामस्वरूप, व्यापार घाटा भी घट कर 12 महीने के निचले स्तर 17.75 अरब डॉलर पर आ गया। मौजूदा वित्त वर्ष के प्रथम 10 महीनों (अप्रैल-जनवरी 2023) के दौरान निर्यात ऋण दर भी 39.2 फीसद घट गई। आरबीआइ के आंकड़े बताते हैं 27 जनवरी, 2023 को निर्यात ऋण 14,390 करोड़ रुपये था। जबकि 25 मार्च, 2022 को यह 23,681 करोड़ रुपये था। निर्यात-आयात में गिरावट के फलस्वरूप विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि दर नकारात्मक हो गई। ऐसी परिस्थिति में निजी निवेश की बात, बैल से दूध की उम्मीद करने जैसी है।

भारत 140 करोड़ आबादी के साथ दुनिया का एक सबसे बड़ा बाजार है। यदि घरेलू मांग मजबूत होती तो अर्थव्यवस्था बगैर निर्यात के अर्थवान रह सकती थी। लेकिन हमने नीतियों में घरेलू मांग को महत्व ही नहीं दिया। कमाई न होने से मांग पहले से मंद थी, और महंगाई से निपटने प्रमुख ब्याज दर में की गई वृद्धि से मांग और मंद हो गई। इस पर तुर्रा यह कि घरेलू मांग को प्रोत्साहित करने वाले बचे-खुचे नीतिगत उपकरण भी कमजोर कर दिए गए। आजाद भारत में रोजगार प्रदान करने वाली अबतक की एकमात्र सबसे बड़ी योजना मनरेगा का बजट, मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 89,400 करोड़ रुपये से घटाकर वित्त वर्ष 2023-24 के लिए 60,000 करोड़ रुपये कर दिया गया। ग्रामीण विकास का आवंटन भी मौजूदा वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान 2,43,317 करोड़ रुपये से घटाकर अगले वित्त वर्ष के लिए 2,38,204 करोड़ रुपये कर दिया गया है। मांग में मददगार असंगठित क्षेत्र पहले से विखंडित है। आरबीआइ की रपट के अनुसार, जीडीपी में लगभग 50 फीसद और श्रमशक्ति में लगभग 80 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले असंठित क्षेत्र (विनिर्माण) का जीवीए वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान 16.6 फीसद संकुचित हो गया। इन तमाम चुनौतियों से हमने कोई सबक लिया है, नए बजट के नक्शे में ऐसा कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। लेकिन यह अनदेखी ऐसा आभास अवश्य कराती है कि आगे जो दिखने वाला है, वह देखने लायक तो नहीं ही होगा।

 

(वरिष्ठ पत्रकार सरोज कुमार इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।)

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दादी जानकी – दिव्यत्वाची जेथे प्रचिती तेथे कर माझे जुळती

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मुंगी उडाली आकाशी तिने गिळीले सूर्यासी. संत ज्ञानोबांच्या भगिनी मुक्ताई यांच्या बद्दल हे उद्गार काढले जातात. आमच्या “दादी जानकी “यादेखील अशाच एक मुक्ताई. खऱ्या अर्थाने नभाला गवसणी घालणारी, नव्हे नव्हे, तर याच नभांगणाच्या पार वास करणाऱ्या पार ब्रह्म, विश्ववंदनीय, ज्ञान सूर्याला आपलेसे करणारी, आणि विशेषत्वाने नमूद करावेसे वाटते ते हे की संपूर्ण चराचराला, अखिल मानव जातीला प्रभू प्रेमाच्या सूत्रात बद्ध करणारी एक आगळी वेगळी माय. तेव्हा त्याकाळी १९३७ च्या वेळी केवळ बीज होतं. आज त्याचा वटवृक्ष झालाय. काय केलं या मायने? दुःखितांचे अश्रू पुसले. त्यांना आपलेसे केले .जीवन कसं जगावं त्याबरोबर ते सफल कसं करावं (भौतिक अर्थाने नाही) त्यात अलौकिकता कशी आणावी, केवळ याच भारत भूमध्ये नाही तर विदेशातही या मायने आपली आईची माया अर्थात प्रेम पसरवलं. जापनीज, अमेरिकन, जर्मन ,ऑस्ट्रेलियन, श्रीलंकन कोणीही असो, प्रत्येकालाच ती मनापासून आवडली. तिचं बोलणं म्हणजे प्रत्येकाचे जगणं झालं. अशी आर्तता असायची तिच्या शब्दांत. तितकंच माधुर्य, जिव्हाळा, सप्तरंगी इंद्रधनुषी पण सुद्धा झळकायचं तिच्या वैखरीतून .खऱ्या अर्थाने सरस्वतीच जणू तिच्या जिभेवर वास करायची.

नावाप्रमाणेच सत्यता व समर्पणता यांचा उत्कृष्ट मिलाफ म्हणजे दादीजी. परमात्मा शिव हेच सत्य व त्यात समर्पणाची वृत्ती म्हणजेच दादी जानकी. असावं तर अगदी असं. सत्यम शिवम सुंदरम् असलेल्या, संपूर्ण ब्रह्मांडाला ज्याने निर्मिले त्या जगदीश्वराला, ज्याची लीला अपरंपार आहे त्या लीलाधराच्या गुणांविषयी व कर्तव्या विषयी त्याच्याच मुलांना जागृत करणे हे महानतम कार्य. “आत्मा परमात्मा अलग रहे बहुकाल “अर्थात आपणा सर्वही जिवात्म्यांपासून तो परमपिता परमात्मा खूप काळ दूर राहिला. आणि गीतेच्या वचनाप्रमाणे “यदा यदा ही धर्मस्य “तोच एकमेव त्याच्याबद्दल बोलले जाते त्वमेव माता श्च् पिता त्वमेव असा तो करावनहार प्रभू सृष्टीवर अवतरीत होतो त्याच्याच मुलांच्या कल्याणार्थ, आणि नेमके हेच शाश्वत व चिरंतन असे सत्य दादीने सर्वांना समजावून सांगितले. व अशा दुरावलेल्या माय लेकरांची भेट घडवली. विषय विकारांच्या अर्थात काम क्रोध लोभ मोह आणि अहंकार यांच्या विषवल्लीतून सोडवून अमर संजीवनी देणाऱ्या अमृता घनाशी सर्वांनी एकरूप व्हावं, हाच एक दादीचा निश्चय. आणि म्हणतातच ना निश्चय बुद्धी विजयंन्ति।

वात्सल्य, ममता, दिव्यता, संतुष्टता, अंतर्मुखता, धिरोदात्त पणा या सर्वही दैवी गुणांनी संपन्न असा हा सर्व गुणसंपन्न आत्मा. काही व्यक्ती स्वयंप्रिय असतात तर काही लोकप्रिय व काहीच प्रभुप्रिय. पण तीनही बाबतीत प्रिय असणाऱ्या आमच्या दादीजी हे या पुरुषोत्तम संगम युगातील एक नवलच. परमेश्वराच्या हृदय सिंहासनावर आरुढ झालेलं आगळं वेगळं प्रभुप्रिय फुल.
या मायचा जन्म १९१६ ला हैद्राबाद सिंध प्रांतात झाला. लहानपणापासूनच ईश्वराबद्दल अत्यंत प्रीती .तदनुसारच दादीचं प्रत्येक वर्तन घडत असे. एका जुन्या हिंदी गाण्यात म्हटले आहे-
दुनिया में ऐसा कहां सबका नसीब है।
कोई कोई अपने पिया के करीब है।

खरोखरीच दादी बाबतीत ही विधाने लागू पडतात .ती जमात खरोखरच भाग्यवंतांची जे प्रभूच्या अगदी समीप असतात. वयाच्या २१ व्या वर्षी या मायने स्वतःला प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालयात समर्पित केले कारण हे केवळ एक ईश्वरी कार्य नव्हते तर एक रुद्र ज्ञान यज्ञ होता. यात स्वतःला संपूर्णतः (मन बुद्धी संस्कार) स्वाहा करण्याची दुर्दम्य इच्छाशक्ती त्या कोवळ्या नवथर वयात या माय मध्ये निर्माण व्हावी याचे कारण म्हणजे-
जनसेवेचे बांधून कंकण त्रिभुवन सारे घेई जिंकून
अर्पून अपुले दृढ सिंहासन नित भजतो मानवतेला तोची आवडे देवाला।

तत्कालीन समाज व्यवस्था अशी होती की स्त्रीला पायाखालची दासी समजले जायचे .स्त्रीला असं स्वतःचं वेगळं अस्तित्व नव्हतंच मुळी.देशही पारतंत्र्यात अडकलेला व स्त्री ही संपूर्ण परतंत्र अवस्थेत. लहानपणी पिता, तरुणपणी पती ,वार्धक्यात पुत्राच्या तालावर नाचणारी ती स्त्री होती .केवळ भोगदासी म्हणूनच तिच्याकडे बघितले जायचे .एक शोभेची, करमणूक करणारी बाहुलीच बनली होती ती त्यावेळी. मानवी मनांमध्ये देखील संस्कृतीच्या ऐवजी विकृतीच जास्त जन्म घेऊ लागली होती .अनेक विध अत्याचार जुलुम यांनी त्यावेळी चा समाज भरडून निघत होता. नैतिक अवमूल्यन होऊ लागले होते .समाज अधिकाधिक अध्ःपतित होत चालला होता .अगदी अशाच वेळी त्या बाबुलनाथाचे (अर्थात बाभळासारख्या काटेरी बनू लागलेल्या मन बुद्धीचे सुंदर सुवासिक फुलात रूपांतर करण्यासाठी) करुणाकाराचे तारण हाराचे ,निराकार शिव परमात्म्याचे विश्वकल्याणासाठी सृष्टीवर अवतरण झाले. स्वयं भगवान आपले आकाश सिंहासन सोडून आपल्या लाडक्या लेकरांसाठी पृथ्वीवर येता झाला. आकाश धरित्रीचे महामिलन, तो प्रसंग काय वर्णावा! जीवा शिवाची भेट जो घेईल त्यालाच त्यातला अमृतानुभव मिळेल. असो दादी जानकी याच अमृतानुभवात न्हाऊन निघाली. पाना था सो पा लिया कुछ भी रहा न बाकी. हे ओठातून न येईल तरच नवल! आणि सुरू झाले मग विश्व कल्याणाचे अथांग ईश्वरीय कार्य.
हा राजस्व अश्वमेध यज्ञ आपल्या विजयाचा डंका वाजवत देश विदेशात पोहोचू लागला.
दादी द्वारा झालेल्या लोकोत्तर कार्याविषयी-
१९३७- दादी जानकी ईश्वरीय कार्याशी जोडल्या गेल्या.

१९३७ ते १९५१ – ब्रह्माकुमारीच्या आरोग्य केंद्राच्या प्रमुख म्हणून कार्यरत राहिल्या. ते कार्य करीत असताना ठीक ठिकाणी आरोग्य उपक्रम राबवले. शरीराबद्दल सर्वच जण काळजी करतात. बाहेरील शत्रू आक्रमण करू नये म्हणून आपण स्वतःला खूपच जपतो. पण बाह्य शत्रूंपेक्षाही अंतर्गत शत्रू महाभयानक असतात. त्यांच्यापासून सावध कसे राहावे त्यांच्यावर विजय कसा मिळवावा हे दादीने समर्थरित्या सर्वांना पटवून दिले. त्यासाठी प्रदर्शने भरवली. परिसंवाद आयोजित केले. अगदी पथनाट्य देखील आयोजित केली. केवळ जनजागरण व्हावे यासाठी. आपण कोण आहोत व आपलं त्या जगदीश्वराशी काय नातं आहे, त्या नात्याची महानता व महिमा काय आहे हे देखील दादीने सर्वांना समजावून सांगितले. १९७४ ते आज पावतो विश्वविद्यालयाचा विस्तार म्हणजे १४२ देशात ९००० एवढी सेवा केंद्र यात दादीचा फार मोठा मोलाचा वाटा आहे. १९८३ मध्ये विश्वविद्यालयाच्या उपमुख्य प्रशासिका म्हणून दादींची नियुक्ती केली गेली. ‘दान’ या प्रकाराबद्दल आपण सर्वजण जाणतो .दानवीर म्हणून कर्णही प्रसिद्ध आहेच. परंतु एका वेगळ्या दानाची योजना दादीद्वारे बनवली गेली. आणि हे दान म्हणजे शांती दान होते . शंभर करोड मिनिटांचे शांतीचे दान द्यावे असा उपक्रम आखला गेला त्याला अनुसरून प्रत्येकानी दिवसभरातील थोडा वेळ स्वतःच्या व विश्वाच्या शांतीसाठी दिला. त्यासाठी ब्रह्माकुमारीजला सात UN Peace Messenger Awards मिळाली. संपूर्ण विश्व ची माझे घर या उक्तीप्रमाणे सर्वांप्रती कल्याणाची भावना, आत्मीयतेची भावना यातून विकासाची जोपासना कशी व्हावी, सर्वांचाही सहयोग कसा प्राप्त करावा, किंवा सहयोगाची वृत्ती कशी वृद्धिंगत होईल यासाठी House Of Lords, London येथेही एक कार्यक्रम आयोजित केला गेला. एक आंतरराष्ट्रीय समन्वय कार्यालय (International Co-ordinating Office) व्हावे अशी दादीची इच्छा होती. त्याच अनुषंगाने जागतिक सहकार्याचे घर (Global Co-operative House) याची निर्मिती लंडनला दादीने केली. दादीच्या ९० व्या वाढदिवसाला रॉबिन गिब्ज याने Mother Of Love हे गीत दादीला समर्पित केले. Courage Of Conscience Award नी केंब्रिज येथे दादीला सन्मानित करण्यात आले.

रियो येथे एक शिखर परिषद आयोजित केली गेली होती. तेथे राजकीय नेत्यांना मार्गदर्शन व्हावे, उत्कृष्ट नेतृत्व कसे असावे यासाठी काही धार्मिक व अध्यात्मिक नेत्यांना आमंत्रित केले गेले. तेथेही दादी जानकी यांनी कुशल संघटन कसे असावे त्या संघटनाला दिशा देणाऱ्या नेतृत्वामध्ये कुठले गुण असावेत, त्या गुणांचा सर्वांना व देशाला कसा फायदा होईल याचे विवेचन दादी मार्फत केले. World Congress Of Faith च्या उपाध्यक्षपदी दादीची नेमणूक केली गेली .ऑक्सफर्ड येथे दादीमार्फत ग्लोबल रिट्रीट सेंटर उघडण्यात आले. मॉस्को रशियामधील MAMA या संस्थेच्या सहकार्याने Second International Congress Of Mother दिल्ली येथील ओम शांती रिट्रीट सेंटर येथे आयोजित केली गेली होती, तेथेही आपले शब्द भांडार दादीने सर्वांसमोर प्रस्तुत केले.

UNICEF ला पन्नास वर्षे पूर्ण झाली हे औचित्य साधून एक सोहळा आयोजित केला गेला होता. त्यालाच अनुसरून मुलींच्या जन्माचं सर्वार्थाने कौतुक व्हावं यासाठी एक बौद्धिक प्रवर्ग बनवला गेला त्यात काही स्त्रियांचा अंतर्भाव होता. मुलीला जन्म देण्यात सर्वांना आनंद वाटावा त्याचं महत्त्व सर्वांना पटावं स्त्रीला देखील स्वतःच्या अस्तित्व विषयी कार्यक्षमते विषयी निपुण ते विषयी जाणीव व्हावी व जवळपास विश्वभरातील सर्वही व्यक्तींमध्ये याबद्दल जागरूकता यावी याबद्दल कळकळीने पुढाकार घेऊन या महान मंगल भावनेचं उदात्तीकरण करण्यात दादी अग्रेसर राहिली. सेंन फ्रान्सिस को (USA) येथील State Of World Forum मध्ये प्रमुख वक्ता म्हणून दादीला बोलावण्यात आले. तेथील श्रोत्रु वर्गालाही दादीने भरपूर केले .पुणे कर्वेनगर येथे सद्गुरू परिवार या संस्थेकडून ‘सद्गुरु भूषण’ पुरस्काराने दादीला तिच्या लोकोत्तर कार्याबद्दल गौरविण्यात आले. जागतिक शांति दिनानिमित्त दादीने ओमान येथेही आपली आध्यात्मिक मते आत्मविश्वासाने लोकांसमोर मांडली.शांतीचे महत्त्व सर्वांना विशद केले .शांतीच आत्म्याचा स्वधर्म आहे. आत्म्यात जे सात गुण असतात, त्यातला शांती हा प्रमुख गुण आहे .शांतीधाम हे सर्व आत्म्यांचे निवासस्थान आहे. जर गळ्यात हार घालायचा असेल तर जरूर शांतीचा हार घाला असे दादीने सांगितले. Peace आणि Silence मधील फरक दादीने सर्वांसमोर मांडला. आंतरराष्ट्रीय महिला परिषद जयपूरला झाली, तेथेही दादीला आमंत्रित केले होते. स्वानुभवाचा साराच खजाना अर्थात अनुभवाची ऑथॉरिटी सर्वांसमोर व्यक्त केली. न्यूयॉर्क असो, जेरुसेलम असो, जिनिव्हा असो, सिंगापूर असो, ओमान असो, कराची असो, जपान असो ,अगदी भारतातील कुठलेही राज्य असो, सर्वत्र दादीने आपल्या अमोघ अमूर्त वाणीने आत्म्यांची मने जिंकली व ईश्वराची खरी ओळखही सर्वांना करून दिली. त्याचमुळे पाहतोय ना १४२ देश व ९००० एवढी सेवा केंद्र व त्यात सहभागी असलेला लाखोवधी ईश्वरीय परिवार. म्हणूनच ७५ वर्षे पूर्ण झाल्याच्या निमित्ताने( Platinum Jubilee) ONE GOD,ONE WORLD, ONE FAMILY हा कार्यक्रम देश विदेशात ब्रह्माकुमारीद्वारा साजरा झाला. खूपच छान वाटते ना. हे सर्वही करून कर्तेपणाचा थोडासा ही यत्कांचितही लवलेश नाही. गीतेच्या १८ व्या अध्यायातील श्लोक- नष्टोमोहा स्मृतीर्लब्धाः।दादीसाठी परफेक्ट लागू पडतो. दादीने हे देखील सांगितले की स्व पुरुषार्थासाठी परमात्म्याने तीन मंत्र दिलेले आहेत-
१) मामेकम् शरणं व्रज।( मला एकट्यालाच शरण ये.)
२) मन्मना भव।(तुझ्या मनात माझी स्मृती ठेव.)
३) नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा। अर्थात या पतित विनाशी दुनियेचा मोह सोडलास तरच तुला तुझ्या आदि अनादी आत्मिक स्वरूपाची प्राप्ती होईल. दादीने हे देखील सांगितले, परमात्म्याने हे तीन मंत्र जप करण्याकरता दिलेले नसून-( मंत्राचा अर्थ मनाला तारण्याची ज्याच्यात क्षमता आहे असा तो मंत्र) स्वतःच्या जीवनात खरे उतरवायचे आहेत. अर्थात त्याचा गर्भितार्थ जाणून तदनुसार कर्म करायचे आहे.

आमच्या दादीजीना Most Stable Mind In The World हा UNO द्वारे पुरस्कार बहाल करण्यात आला. आपण IAS बद्दल जाणतोच .ही संस्था खऱ्या अर्थाने WAS अर्थात World Administrative Service करीत आहे. ही एक आध्यात्मिक संस्था असून येथे राजयोग अर्थात भगवंता द्वारा शिकवला जाणारा योग, सर्व योगांचा राजा, म्हणजे सर्वश्रेष्ठ योग शिकवला जातो. याबद्दल असे म्हटले जाते-
राजयोग का राज जो जाने राजाई पद पाये।
राजाओं का बन जाये राजा शिव से प्रीत लगाये।
पवित्रता की योग है खान कोटि कोटि इसमें वरदान।
योग को कर्मौ में लाकर के कर्म सुकर्म बनायें,शिव से प्रीत लगायें।

आमची दादी हे प्रत्यक्षात आपल्या गुणांनी, कर्मांनी, बोलांनी, संकल्पांनी प्रत्ययास आणायची.श्वासोश्वास केवळ शिव आणि शिवच. आपलं ज्ञान आपले तपोबल व आपले योगसमर्थ्य असा दुहेरी नव्हे तर त्रिवेणी संगम असलेल्या दादी जानकी यांनी अखिल मानव जातीची निरंतर सेवा केली .त्यांनी उच्चारलेल्या एकेका वाक्यात पडलेल्याला उठवण्याची क्षमता होती. दादी म्हणायची तुमच्याजवळ या तीन गोळ्या सदोदित असू द्या, -Peace, Patience,Love. तुमचं शारीरिक व मानसिक दोन्ही स्वास्थ्य त्यामुळे उत्तम राहतील.२०२० ला आमच्या दादी १०४ वर्षांच्या होत्या. त्याही वयात तरुणाला लाजवेल असा दुर्दम्य आत्मविश्वास दादींकडे होता. सुप्रसिद्ध युवा नेता स्वामी विवेकानंद यांनी देखील म्हटले होते की मी माझ्या आयुष्यात ८० वर्षांचा युवक व १८ वर्षांचा वृद्ध बघितला आहे. तरुणाची व्याख्या अशी केली जाते- जो हा भवसागर सहजगत्या तरुन जातो व इतरजनांनाही तारून नेतो तो खरा तरुण. याचाच अर्थ असा होतो की ज्याच्या जीवनात उत्कटता, तेजस्विता, तपस्विता, तत्परता या गुणचतुष्ट्यांच दर्शन होतं ,तोच खरा तरुण. तसेच जो आशिष्टः म्हणजे आशावादी ,द्रढिष्ट्ः म्हणजे द्रृढाग्रही व बलिष्ठः अर्थात आत्मबलाने संपूर्ण या तिन्ही गुणांनी युक्त अर्थात गुणत्रयी तरुण असतो. अगदी आमच्या दादींसारखा. तात्पर्य असं की कोणी वयाने वृद्ध होत नाही तर त्याने केलेल्या विचारशक्तीने होतो.

जसे एखादी स्त्री तिच्या पातिव्रत्यामुळे वेगळी भासते, वैज्ञानिकाचे विज्ञान पण त्याच्या कलाकृतीतून दिसते तर तदनुसार राजयोगी व्यक्तीचेही वेगळेपण त्याच्या संस्कार परिवर्तनातून दिसून येते असं आमची दादी म्हणायची. दादीमध्ये कर्तव्यनिष्ठा ,दृढनिश्चय, सत्यता, शिस्त बघायला मिळायची. दादी म्हणायची मेरा तो एक बाप दुसरा न कोई।एक बल एक भरोसा। केवळ परमात्मा! दादी सांगायची, आजची रंगीबेरंगी दुनिया काही मान्यतांमध्ये गुरफटून गेली आहे. धर्माच्या नावावर आपापसात भांडतात ,लढतात व मृत्युमुखी देखील पडतात. म्हणताना म्हणायचं हिंदू-मुस्लीम सिख ईसाई हम सारे भाई भाई। तरीही रंगवतात ना एकमेकांच्या रक्तांनी आपले हात. वास्तवात येथे विश्वविद्यालयात येऊन ही गोष्ट समजते की मी कोण? मला माझा स्वतःचा परिचय तर मिळतोच व परमेश्वराचा देखील .जेव्हा भगवंताने सर्वप्रथम ही सृष्टी रचली तेव्हा ती खरोखरीच सुंदर होती. पण आपण मनुष्य आत्म्यांनी विकारांच्या गर्तेत राहून या सुंदर दुनियेला भकास करून टाकलं .आणि वाढली मग अशांती, अराजकता, अस्थिरता. जीवनात स्थिरता आणणारा, शांती, ज्ञान, सुख ,आनंद, प्रेम, पवित्रता, शक्ती, प्रदान करणारा, नराला नारायण व नारीला लक्ष्मी बनवणारा केवळ भगवंत आहे. म्हणूनच दादी म्हणायची, सदैव एका परमपिता परमात्म्याच्या लव मध्ये लवलीन रहा. कारण जैसा चिंतन वैसा जीवन। शिवाचा अर्थच कल्याणकारी. जेव्हा आपण राजयोगाद्वारे शिवाशी प्रीत जोडू तेव्हा आपणही स्वकल्याणाबरोबर विश्वकल्याणाच्या निर्मितीत सहभागी होऊ. या संगम युगात आपण योगबळ जमा करू शकतो व संस्कारांमध्ये दिव्यता आणू शकतो. ज्याप्रमाणे साप आपली जुनी कात टाकून नवी धारण करतो त्याच प्रकारे आत्मा राजयोगाद्वारे आपले जुने आसुरी स्वभाव संस्कार टाकून नूतन दैवी संस्कार धारण करतो. दादी सांगायची- माझे ध्येय एकच होतं मी सर्वांसमोर एक उदाहरण बनावं. कारण मला घडवणारा, या सर्वोच्च अवस्थेपर्यंत आणून पोहोचवणारा स्वयं भगवंत आहे. सदैव निरीक्षण करा आमच्यात सर्व गुण कुठपर्यंत आलेले आहेत, कोणता छोटासा देखील अवगुण तर राहिला नाही ना असे दादी म्हणायची. सच्चे दिल पर हमेशा साहब राजी होता है। इसीलिए हमेशा ‘सच्चा’ बनो.

वर्तमान समयी ८७ वर्षांपासून संपूर्ण विश्वात ईश्वरी सत्यज्ञानाचा प्रकाश पोहोचवण्याचे कार्य प्रजापिता ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय करत आहे. स्वयं निराकार परमात्मा पित्याने सर्व आत्म्यांच्या कल्याणासाठी स्थापन केलेले हे एकमेव विश्वविद्यालय आहे. शिव परमात्म्याने ज्ञानाचा कलश माता भगिनींच्या मस्तकावर ठेवला आहे. हे विद्यालय सर्वांसाठी खुले आहे वयाची, जाती-धर्माची, पंथसंप्रदायाची अट नाही. तसेच येथे कुठलेही शुल्क आकारले जात नाही. मूल्यधिष्टित समाज घडवण्यात या विश्वविद्यालयाचा अति मोलाचा वाटा आहे. यात आपणांस नररत्नांची खाणच पहावयास मिळेल. अमूल्य हिऱ्याची खरी किंमत ज्यावेळी श्रेष्ठ जवाहिरी आपणास सांगतो तेव्हाच येते. अशाच प्रकारचा अनुभव आपणास या विश्वविद्यालयात आल्यावर येईल. यात शिकवल्या जाणाऱ्या राजयोगात असे कोणते रसायन आहे की जे सहारा वाळवंटातही नंदनवन निर्माण करू शकते? दादी सांगायची हे जर कळावे अशी इच्छा असेल तर जरूर याचा रसास्वाद घ्या. अमृतपान करा. यात आपणास काय मिळणार नाही? जीवनातील जटिल समस्यांची उकल, मानसिक कौटुंबिक शांती ,समृद्ध समाजाचे रहस्य ,आर्थिक विवांचनेतून मुक्ती, सर्व ही बाबतीत अंतर बाह्य शुद्धी याचे समग्र दर्शन आपणास येथे घडेल कारण हे सर्वोत्तम पावन तीर्थस्थान किंवा चैतन्य शिवालय आहे.

शिवाला मुक्तेश्वर असेही म्हणतात. जो आपणा सर्वांना भवबंधनातून सोडवतो तो मुक्तेश्वर ,जो आपणास मुक्ती जीवन मुक्ती प्रदान करतो तो मुक्तेश्वर, जो आपणास गती सद्गतीचे ज्ञान देतो तो मुक्तेश्वर, जो आपणास सर्वही विकर्मांपासून मुक्त करतो तो मुक्तेश्वर ,जो आपणास या लोकात असूनही वैकुंठ रस चाखवतो तो मुक्तेश्वर ,आणि बरं का याच मुक्तेश्वराला आपलं सर्वस्व अर्थात तन-मन धन समर्पित करणारी व त्याच्या सांगितलेल्या श्रीमताचा मेरुदंड अखिल विश्वभरात घेऊन जाणारी आमची अतिप्रिय अशी ही राजयोगिनी मुक्ताई .या मुक्ताईच्या स्मृतिदिना निमित्त आमचे कोटी कोटी प्रणाम.
नुतन रविंद्र बागुल
(ब्रह्माकुमारी गामदेवी)

Shikha Pande’s Painting wins AIFACS Award

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By Saroj Kumar
Shikha Pande, a Lucknow based budding artist, adds a new feather in her hat last Friday as she wone prestigious AIFACS award for her water colour caricature tittle ‘Milan.’ She received a cash prize, medal, and a citation at inaugural ceremony of 18th all India water colour exhibition, organized by All India Fine Arts and Crafts Society (AIFACS) at its gallery in New Delhi.

An alumnus of Lucknow College of Arts and Crafts, where she did BFA and MFA, Shikha own a unique brush of water colour soaked with emotions. She always amazes art lovers by her experiment with colours and threads of emotions running in the contemporary society. Her award-winning caricature ‘Milan’ (union) is an example of her expertise in the genre.

In ‘Milan’, a male partner is standing with backside of his female partner and gripping her eyes with his hands perfecting 100-degree jesture of love, well supported by joyful background of colours.

At a glance you are full of joy to see the scene and sequence of life passes through almost every individual but shock to see blank faces of the couple depicted in the caricature next moment. Just a word you spell out about this creation is ‘erroneous’ but its not in reality.

‘‘Milan’ is a mirror image of present suffocating foggy environment engulfing every nook and corner of the society where nucleus of life is encircled by darkness layered with ills like hatred, bigotry, high inflation, unemployment, poverty, social and economic inequality, and fluid of love and joy is drying out of the hearts,’’ told Shikha.

Really, Joy and sorrow, two sides of a coin can not be seen same time but Shikha did this impossible task possible through her creation ‘Milan.’ Good job Shikha!

(Saroj Kumar is freelance journalist and writing for several publications.)

किशोर बियानी ने पांच लाख लोगों को ढकेला भुखमरी के कगार पर

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छोटे व्यापारियों के बिलों का 2019 से भुगतान नहीं, 200 करोड़ रुपए बकाया

संवाददाता
मुंबई, भारत में मॉडर्न रिटेल के फादर कहे जाने वाले फ्यूचर ग्रुप के मालिक किशोर बियानी की धोखाधड़ी के कारण करीब पांच लाख लोग रोजगार गँवाकर भुखमरी के कगार पर पहुंच चुके हैं। इन लोगों का गुनाह बस इतना था कि वे लोग उन मध्य़म कंपनियों या व्यापारियों के साथ काम करते थे जिन कंपनियों ने फ्यूचर ग्रुप को कपड़े की आपूर्ति की थी।
ये छोटे व्यापार किशोर बियानी के फ्यूचर ग्रुप से जुड़ी कंपनियों के ऑर्डर पर उन्हें कपड़े की आपूर्ति करते रहे हैं, लेकिन बियानी की कंपनियां 2019 से बिलों का भुगतान नहीं कर रही हैं, जिससे कपड़े की आपूर्ति करने वाली कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं। यह भुगतान बढ़ते-बढ़ते 200 करोड़ रुपए तक पहुंच गया और बियानी कान में तेल डाल कर बैठे हैं।

ऑल इंडिया गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एंड वेंडर्स एसोसिएशन (AIGMVA) ने बुधवार को मांग की कि फ्यूचर ग्रुप के मालिक किशोर बियानी को 2019 से लंबित 200 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया चुकाना चाहिए। महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल के लगभग 350 सदस्य वाले संगठन एआईजीएमवीए ने किशोर बियानी को बकाया राशि का भुगतान करने में विफल रहने पर सख़्त कानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी है।

ऑल इंडिया गारमेंट मैन्युफैक्चरर्स एंड वेंडर्स एसोसिएशन के परामर्शदादा और ट्रेड यूनियन ज्वाइंट एक्शन कमेटी (TUJAC) के संयोजक विश्वास उतागी ने एक बयान में कहा है कि उत्पादकों और आपूर्तिकर्ताओं ने 2019-2022 के बीच बियानी की कंपनियों के समूह के ऑर्डर के अनुसार कपड़ों की आपूर्ति की थी।

बकाया तुरंत भुगतान करने की मांग करते हुए श्री उतागी ने कहा, “प्रत्येक निर्माता-विक्रेता का 70 करोड़ रुपए से एक करोड़ रुपये से अधिक तक का बकाया है और ब्याज समेत कुल राशि लगभग 500 करोड़ रुपये हो गई है। हम चाहते हैं कि केंद्र सरकार और सभी संबंधित राज्य सरकारें भी इस मामले में हस्तक्षेप करें और इस बकाया राशि का भुगतान करवाने में मदद करें।”

ठाणे के एक कपड़ा निर्माता ने कहा कि फ्यूचर ग्रुप के आदेशों को पूरा करने के लिए अधिकांश व्यापारियों ने बैंक से ऋण लिया है, लेकिन चूंकि बियानी ने अपने बिलों का भुगतान नहीं किया, इसलिए अब बैंक निर्माताओं और आपूर्तिकर्ताओं को बैंकों ने परेशान करना शुरू कर दिया है और व्यापारियों को ब्लैक लिस्टेड करके आगे ऋण देने से इनकार कर रही हैं।
श्री उतागी ने कहा, “बियानी की धोखेबाजी से एक लाख से अधिक लोग, उनके परिवारों और साथ साथ अन्य स्टाक होल्डर्स प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं और पांच लाख से अधिक लोग बेरोजगारी और भुखमरी के कगार पर पहुंच गए हैं।” उन्होंने कहा कि फ्यूचर ग्रुप को पिछले साल रिलायंस ग्रुप को बेच दिया गया था और इस सौदे में भारतीय अर्थव्यवस्था, खासकर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र के रीढ़ की हड्डी रहे व्यापारियों को अधर में छोड़ दिया गया है।

गुजरात के एक विक्रेता ने कहा कि उनका लाभ मार्जिन बहुत कम होता है, उनके पास कोई अतिरिक्त नकदी भी नहीं है और वे अपने आपूर्तिकर्ताओं, कर्मचारियों, स्थापना लागत, ईएमआई आदि के नियमित भुगतान के साथ नकद-ऋण सुविधा पर ही सरवाइव करते हैं। उन्होंने कहा, “फ्यूचर ग्रुप के कारण, हमारी 100 प्रतिशत कार्यशील पूंजी अवरुद्ध हो गई है, जो हमारे कारोबार को पूरी तरह से पंगु बना रही है, और अब बैंक वाले हमें ऋण का भुगतान न करने की नोटिस भेजकर परेशान कर रहे हैं। कर्ज से मुक्ति पाने के लिए कई सदस्यों ने परिवार का सोना, बचत या यहां तक कि अपने दुकानों या घरों को बेच दिया और अब बेघर हो गए हैं।”

एआईजीएमवीए और टीयूजेएसी ने विभिन्न राज्यों में फ्यूचर ग्रुप के खिलाफ मामले दर्ज करने की भी योजना बनाई है। दोनों संगठनों ने इस बारे में संसद सदस्यों और विधानमंडलों के सदस्यों को पत्र लिखकर अपनी दुर्दशा बताने का फैसला किया है, ताकि किशोर बियानी से पूरे बकाया का भुगतान करने एवं मामले को समाप्त करने के लिए दबाव डालने के लिए सरकार से हस्तक्षेप करने का आग्रह कर सकें।

मन को व्यथित एव आंखों को आर्द्र कर गया ‘टिकटों का संग्रह’

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मुंबई, ‘वार विद द न्यूट्स’ जैसी अमर कृति देने वाले चेक गणराज्य के लेखक, नाटककार एवं आलोचक कारेल चापेक की कहानी ‘टिकटों का संग्रह’ के मंचन में रंगकर्मी दिनकर शर्मा बहुत सहज और सजीव अभिनय किया। उनके असाधारण अभिनय ने सामने बैठे दर्शकों के मन को व्यथित और आंखों को आर्द्र कर दिया। मंचन के बाद देर तक सभागृह में सन्नाटा पसरा रहा।

‘टिकटों का संग्रह’ के मंचन चित्रनगरी संवाद मंच मुंबई के मृणालताई गोरे सभागृह, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव में रविवार की शाम साप्ताहिक आयोजन में हुआ। मशहूर शायर-गीतकार देवमणि पांडेय के संचालन में हुए इस कार्यक्रम में आत्मीय संवाद भी हुए और बौद्धिक तबके के दर्शकों ने शेरो शायरी का भरपूर लुत्फ़ भी उठाया।

कार्यक्रम की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के पूर्व प्रोफेसर डॉ रामबक्ष जाट की किताब ‘मेरी चिताणी’ से हुई। पुस्तक का परिचय देते हुए डॉ राम बक्ष ने अपने गांव चितौड़ी का जो जीवंत परिचय दिया। उन्होंने अपनी किताब का एक अंश पढ़कर सुनाया। उसमें गांव वालों की व्यवहार कुशलता और चतुराई का रोचक विवरण था। कुल मिलाकर इस किताब के ज़रिए राम बक्ष जी ने आत्मीय शैली में कथेतर गद्य का अद्भुत सृजन किया है। उनकी प्रस्तुति शानदार रही जो लोगों को बहुत अच्छी लगी।

इसके बाद कारेल चापेक की कहानी ‘टिकटों का संग्रह’ का मंचन झारखंड से पधारे रंगकर्मी दिनकर शर्मा ने किया। 30 मिनट की इस एकल प्रस्तुति ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। वस्तुतः यह एकल पात्र की कहानी है। निर्मल वर्मा ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। अपने बचपन की एक दुखद घटना की वजह से एक अधेड़ व्यक्ति अपनी पूरी ज़िंदगी गलतफ़हमी में काट देता है।

दरअसल, बचपन से टिकटों के संग्रह करने का शौक़ रखने वाला चंचल और महत्वाकांक्षी बच्चा अपनी इच्छा के विरूद्ध एक ऐसी ज़िंदगी चुन लेता है जिसमें न उत्साह है, न प्रसन्नता और न ही संवेदना। अचानक उस अधेड़ व्यक्ति के जीवन में फिर एक घटना घटती है और वह घटना उसे इस गलतफ़हमी से बाहर निकाल देती है। वह अपना अपराध स्वीकार करने (कॉनफेस) के लिए चर्च जाता है। इस प्रस्तुति में कुछ संवाद ऐसे थे जिन्होंने दर्शकों के मन को भिगो दिया। सबकी आंखें नम हो गईं।

दिल्ली से पधारे मशहूर शायर आदिल रशीद ‘टिकटों का संग्रह’ की अद्भुत प्रस्तुति से अभिभूत हो गए। उन्होंने दिनकर शर्मा की मुक्त कंठ से तारीफ़ की। आदिल ने अपनी कुछ चुनिंदा ग़ज़लों के अलावा एक मार्मिक नज़्म सुना कर श्रोताओं के दिल पर गहरी छाप छोड़ी। शायर नवीन जोशी नवा ने उका परिचय देते हुए उन्हें एक ट्रेंड सेटर शायर बताया था। आदिल ने अपने उस हुनर का भरपूर परिचय दिया। लखनऊ से पधारे शायर वीरेंद्र वत्स और गाज़ियाबाद से पधारे शायर नित्यानंद तुषार ने अपनी ग़ज़लें सुना कर कविता पाठ के सिलसिले को बड़ी ख़ूबसूरती से आगे बढ़ाया।

श्रोताओं से गुफ्तगू करते हुए मशहूर शायरा अभिनेत्री दीप्ति मिश्र ने दिल्ली से मुंबई तक अपनी जीवन यात्रा के कुछ महत्वपूर्ण अनुभव साझा किए। उन्होंने कुछ चुनिंदा ग़ज़लों और नज़्मों के अलावा अपनी लोकप्रिय ग़ज़ल ‘है तो है’ सुनाई और उससे जुड़े कुछ रोचक प्रसंगों की जानकारी दी। दिल्ली में अपने संघर्ष की दास्तान सुनाते हुए दीप्ति मिश्र ने कहा कि अगर स्त्री के भीतर साहस, स्वाभिमान और आत्म सम्मान की भावना है तो वह कामयाबी की मंज़िल तक पहुंच जाती है। कई श्रोताओं ने सवाल किए और दीप्ति मिश्र ने बढ़िया जवाब दिए। कुल मिलाकर उनसे गुफ़्तगू का यह सिलसिला बहुत दिलचस्प और यादगार रहा।

कार्यक्रम में अभिनेत्री असीमा भट्ट, शायर नवीन चतुर्वेदी, शायर अश्वनी मित्तल, प्रदीप गुप्ता, डॉ उषा साहू, डॉ रोशनी किरण, रीमा राय सिंह, पूनम विश्वकर्मा, सविता दत्त, डॉ मधुबाला शुक्ला, नीलांजना किशोर और संगीतकार गायक रवि जैन मौजूद थे। कार्यक्रम के संयोजन में आकाश ठाकुर, गोविंद सिंह राजपूत, विशू और मनोहर जोशी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

#चित्रनगरी_संवाद_मंच_का_सृजन_सम्वाद

स्रिची अंतरदृष्टी बदलणे गरजेचे आहे

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अंतिम समयी शिव प्रभू अवतरले या अवनीवरी।
ज्ञानामृताचा कलश स्थापिला स्रीच्या मंगल शिरी।
जाग जाग तु नारी आणि घे सतीचे वाण।
शिवशक्ती बनुनी करावे विश्वाचे कल्याण।

जसे फुलांमध्ये गुलाबाला महत्व, शिंपल्यामध्ये मोत्याला महत्त्व , नात्यामध्ये बंधू भावाला महत्त्व, तसेच मानवी जीवनात देखील स्त्रीला अनन्यसाधारण महत्त्व आहे. समाजाचे नेत्र व राष्ट्राचे पंख स्त्रीला म्हटले जाते कारण नेत्राद्वारे दिशा गवसते तर पंखांनी उंचच उंच भरारी मारता येते . इष्ट उद्दिष्ट साध्य होते. परमेश्वराची सर्वोत्कृष्ट निर्मिती अर्थात “स्त्री”. वेदांमध्ये स्त्रीला पूज्य व स्तुती योग्य मानले गेले. यक्ष युधिष्ठिराच्या संवादातही जेव्हा यक्ष युधिष्ठिराला विचारतो -भूमी पेक्षा श्रेष्ठ कोण ?तेव्हा त्याचे उत्तरा दाखल युधिष्ठिर म्हणतो माता गुरुतरा भूमे। अर्थात माता भूमी पेक्षाही गौरवास्पद आहे. मनुस्मृति मध्ये २/१४५ देखील सांगितले सहस्त्रांतू पितृन्मात गौरवेणाति। अर्थात मातेचा दर्जा पित्यापेक्षाही हजार पटीने गौरवस्पद आहे. तैत्तिरीय उपनिषदात मातृदेवो भव चा घोष आहे. महात्मा गांधी देखील म्हणायचे जर महिलांनी साथ दिली नसती तर मी भारताला स्वतंत्र करू शकलो नसतो. एवढी जिची महिमा केली जाते त्या स्त्रीच्या वाट्याला आज प्रत्यक्षात काय येते?

अनादि काळापासून स्त्रीला देवीचे स्थान दिले गेले पण काळाच्या ओघात मात्र स्त्री शक्तीचा सन्मान कमी होत गेला. मध्ययुगीन काळानंतर तर स्त्रीला पायाखालची दासी म्हणूनच वागवले गेले. काही अनिष्ट रूढी परंपरांच्या जाळ्यातही तिला अडकवलं गेलं. बालविवाह केशवपन करणे, विधवा पुनर्विवाह बंदी, मुसलमानांमधील पर्दाप्रथा राजपूतांमधील जौहर प्रथा काही ठिकाणी देवदासी म्हणूनही त्यांचे शोषण होत राहायचं खेदाची बाब अशी की आजही काही समाजात या कु प्रथा अजूनही टिकून आहेत शारीरिक दृष्ट्या कमजोर असणारी स्त्री तिच्यावर हात उचलणं म्हणजे काही जणांना त्यात मर्दानगी वाटते. जो स्त्रीवर हात उचलत नाही तो षंढ आहे, स्त्रीचा गुलाम आहे असे समजले जाते. वास्तविक मारणे किंवा हिंसा करणे हे काम तर कसाई किंवा जल्लाद करतात आणि जर का मारणे किंवा हिंसा करणे यात मर्दानगी असेल तर अशा पुरुषांना सोडून जे दुसरे पुरुष आहेत ते पुरुष नाहीत का? त्यांना विचारले जावे बुद्ध, महावीर, गांधी यांनी तर सूक्ष्म हिंसेलाही त्याज्य् मानलं ते पुरुष होते का नाही? स्वतःच घर सोडून पतीची शरण घेणारी आणि अशा शरणा गतीवर हात उचलणं त्यात कोणत्या प्रकारची बहादुरी आहे? बहुतांशी घरात हे दृश्य आजही पाहावयास मिळतं, अगदी उच्चशिक्षित वर्गातही. स्त्रीला अजूनही हुंड्याच्या नावाखाली जिवंत जाळलं जातं.

एक अशी वेळ होती जेव्हा माणसांना जंगली श्वापदांचे भय असायचे. रात्री तर ते झडप घालायचेच पण दिवसादेखील एखाद्या मनुष्याला उचलून घेऊन जायचे. पण आज ना जंगलं राहिली ना जंगली श्वापदं, तरी समाजात भीती का आहे? दुसरं भय वाटायचं आपल्या देशावर आक्रमण करणाऱ्यांचं,ते यायचे देश लुटायचे, लेकी सुनांवर हात टाकायचे. पण आज मात्र तसे राहिले नाही. आपले वीर जवान सिमेवर त्यासाठी सज्ज आहेत. त्यांच्या असण्यामुळे आपण निश्चिंत आहोत. तरी स्त्री मात्र स्वतःला असुरक्षित का समजत आहे? कारण आज दुश्मन जंगलात नाही, सिमे पलीकडे नाही तर गल्ली बोळात खुल्या रस्त्यांवर तथाकथित सभ्य म्ह्णवल्या जाणाऱ्यांमध्ये अस्तनितल्या निखार्‍या सारखा आपले कामांध क्रूर कर्म करतो आहे.
स्त्रीच्या गर्भातून जन्म घेणारा पुरुष आज त्या स्त्रीच्या शरीराकडे भोगदृष्टीने पाहत आहे, स्त्री वर्गासाठी खरोखरच अपमानास्पद गोष्ट आहे. प्रेम या नाजूक भावानेला न समजणारे त्या प्रेमाचा अस्विकार करणाऱ्या मुलीला ॲसिड टाकून जाळू इच्छितात तिला जीवनातून संपवू इच्छितात. प्रेम म्हणजे घेणे नसून देणे असते ही सरळ साधी गोष्ट देखील या नराधमांना माहित नाही. दिल्लीची घटना आठवली तर अंगावर अजूनही शहारे उभे राहतात. क्रूरतेची सर्व सीमा ओलांडली गेली आहे. प्रत्येक दिवसाचे वर्तमानपत्र उघडा, स्री वरील अत्याचाराच्या अनेक घटना वाचावयास मिळतात. आता तर चार-पाच वर्षांच्या छोट्या मुलींना देखील सोडले जात नाही. त्या देखील वासनेच्या शिकार होतात. पोटच्या पोरीवर अत्याचार करणारा बाप पाहिला तर एकच वाटते आता ही दुनिया खरच संपलेली बरी. विकृत मनस्थितीचा केवढा हा कळस! आजच्या उच्चभृ समाजात तर स्रिला एक्सचेंज करणे ही भूषणावह वाटू लागलेय. ज्या पतीबरोबर सप्तपदी चालते त्याच पती परमेश्वरामुळे जीवनातील बिभत्सता ती अनुभवते. कुठेतरी ऑफिसातील बॉसची मनमानी तिला सहन करावी लागते.

२१ व्या शतकाकडे वाटचाल करणारे आम्ही अजूनही वंशवेलीचाच विचार करतोय तर वंश वृद्धी करणाऱ्या स्त्रीचा नाही. त्यामुळे स्त्रीभ्रूणहत्या होताना आजही दिसते. आजचा जमाना इंटरनेटचा .त्यावरही चांगल्या गोष्टी पाहण्याऐवजी अश्लील बघण्यातच आजची तरुण पिढी मग्न झालीय.गर्दीच्या ठिकाणी धक्का मारणारे, बसमध्ये सीटवर बसताना अंगलट करू पाहणारे, बस स्टॉप वर रेल्वे स्टेशनवर उभे असताना लाळ पडण्यासारख्या आषाळभूत नजरेने स्त्रियांकडे बघणारे पुरुष पाहिले की तळपायाची आग मस्तकात जाते. कलि युगाचे अंतिम चरण सुरू झाले आहे.
दुर्योधन हा अजून येथे सत्ता भोगीत आहे .
दु:शासन हा अजून सतीची लज्जा फेडित आहे.

याला कारण काय? आजची फॅशनला महत्व देणारी आधुनिक जीवन पद्धती, सिने क्षेत्र, स्वतंत्रतेच्या नावावर बोकाळलेला स्वैराचार, चमडी दमडी या आणि केवळ याच गोष्टींमध्ये बांधले गेलेले मन, पावित्र्य मांगल्य या संस्कारांचा कुटुंबातील अभाव, सहनशीलतेची कमी, शारीरिक मानसिक आणि बौद्धिक विकासासाठी आवश्यक असलेल्या महान चरित्रांचा पडलेला विसर, विचार व जीवन यांची झालेली फारकत, विचार निर्जीव होणे व जीवन विचार शून्य तेकडे जाणे, नैतिक अध्पतन, देहभान व देह अभिमान यांचे अवास्तव वाढत चाललेले स्तोम त्यामुळे आलेली कामांधता .आज काल तर काही स्वयंसेवी संस्था स्त्रियांवर होणाऱ्या अत्याचाराविरुद्ध आवाज उठवित आहेत. स्त्रियांना मदतीचा हात देण्यासाठी संस्थांची गरज लागावी? त्याच हातावर वर्षानुवर्षे राखी बांधण्याचं पवित्र काम करणारी स्त्री आज काय मिळवतेय?

पण लोकहो टाळी एका हाताने वाजत नाही. जेवढ्या प्रमाणात पुरुष समाज दोषी आहे त्याचप्रमाणे थोड्याबहुत प्रमाणात स्त्री वर्गही दोषी आहे. आज स्त्रियांनी घातलेला पेहराव बघितला तर दुसऱ्या स्त्रियांना डोळे बंद करावेसे वाटू लागतात. सिनेमा याला खरतर सीन की मां अर्थात पापाची जननी म्ह् णणं वावगं ठरणार नाही कारण बऱ्याच अंशी आजची युवा पिढी नट नटींचे अनुकरण करते. गरज नसतानाही मोठ-मोठे होर्डिंग, वृत्तपत्रातील जाहिराती, कादंबरी, मासिकं यातूनही दाखवले जाणारे स्री प्रदर्शन या सर्वांतूनही आपण स्त्रीचा सन्मान करीत आहोत का?

आजचा मानव भोग प्रधान होऊन आपले अमूल्य जीवन पशुतुल्य करत आहे म्हणूनच म्हणावेसे वाटते
विविध भोग चैन आज तुझसि मोहवी
बाह्य डामडौल ढंग तुजसी लोभवी
फसव्या या मृगजळासी दूर सार ना
लाज आज संस्कृतीची तूच राख ना

म्हणून आज भौतिक शिक्षणाबरोबर नैतिक शिक्षण देण्याची ही गरज आहे. गुन्हेगाराला शिक्षा करून त्याचे परिवर्तन होत नाही, बदल हवा असेल तर शिक्षा न देता त्यांच्या स्वभावात, गुणांत बदल घडवून आणणं महत्त्वाचं असतं. सूप्त मन हे एखाद्या बागेसारखं असतं, आपण जर का चांगलं बी पेरलं तर निश्चितच आपली बाग चांगली फुलते .सर्वात महत्त्वाचं म्हणजे सुप्त मन हे जागृत मनापेक्षा खूप सामर्थ्यवान असतं, त्यामुळे तिथं चांगलं बीज पेरायचं का तण माजू द्यायचं हे आपणच ठरवायला हवं. मग जशी वृत्ती असेल तशी दृष्टी तयार होईल व कृती देखील तदनुसार होईल.
सर्वात महत्त्वाचे म्हणजे-
स्रिची अंतरदृष्टी बदलणे गरजेचे आहे. दुर्गणांचा, आसुरी वृत्तीचा संहार करणारं दुर्गेचं रुप, निरंतर पवित्रतेचं दान देणारं गायत्रीचं रुप, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार या विकाररूपी असुरांना समाप्त करणारं, सर्वांना कलंकमुक्त करणारं कालीचं रुप या सर्व रुपांना आठवायचयं आणि तशीच असिम शक्ति स्वत:मध्ये निर्माण करायचीय. स्रि ही शक्तिस्वरुपा.ती जेव्हा शिवाशी जोडली जाते, तेव्हा ती शिवशक्ति होते. कृष्णाने द्रौपदीची वसने पुरवून लाज राखली तशीच आजच्या स्त्रीची लाज राखण्यासाठी शिव परमात्मा देखील आध्यात्मिक ज्ञानाची व राजयोगाची वसने आपल्याला पुरवतायत, गरज आहे ती फक्त शिव परमात्म्याला आणि त्याने दिलेल्या अविनाशी ज्ञानाला ओळखण्याची. याच अविनाशी परमात्म् ज्ञान, दैवी गुण, राजयोगाद्वारा प्राप्त अष्टशक्ती यांनी सर्व मानवमात्रांचे स्वपरिवर्तन आणि त्याचबरोबर विश्व परिवर्तन देखील होते.
रामाची सीता तू गवळण हरीची
झाशीची राणी तू वीज गगनीची
तारक तू रक्षक तू उठ झडकरी
तू दुर्गा तू चंडी उठ पुरंध्री

जेव्हा आध्यात्मिक विचारांचा स्पर्श आपल्या मन बुद्धीला होतो तेव्हा सहजच आपल्यात असणाऱ्या कमतरत, उणीवा, चुका आपल्याला दिसू लागतात, आपण आत्मचिंतन करू लागतो आणि जेव्हा आत्मचिंतनाला सुरुवात होते तेव्हाच परिवर्तनालाही खरी सुरुवात होते. या विषयविकारांच्या दलदलीत आपण मग कमळ बनुन ताठ मानेनं उभं राहू शकतो .देवी देखील कमळात बसलेली दाखवतात .कमळाला पवित्रतेचं प्रतीक मानले जाते. आणि जिथे पवित्रता असते तेथे विकारी वृत्ती टिकू शकत नाही.म्हणूनच असे म्हटले जाते “पवित्रता सुख शांतीची जननी आहे”. स्त्री व पुरुष ही संसाररूपी रथाची दोन चाके आहेत हे आपण जाणतो. तसेच” स्त्री ही क्षणाची पत्नी आणि अनंतकाळाची माता आहे.” हे देखील आपणास ठाऊक आहे.” जिचे हाती पाळण्याची दोरी, ती जगाते उध्दारी” याच नीतीला अनुसरून स्त्रीने विश्वाच्या आधाराची व उद्धाराची जबाबदारी नव्हे हे शिव धनुष्य समर्थपणे उचलायचय व” नर ऐसी करनी करे की नारायण बने और नारी ऐसी करनी करे की लक्ष्मी बने” हे प्रत्यक्षात साकार करण्यासाठी कटिबद्ध व्हायचेय. स्रिच्या महन्मंगल महिमेला निरंतर आठवायचय, “वंदे मातरम्” असे गायन फक्त आणि फक्त स्रिचेच होते,त्या श्रेष्ठ भावनेचा मानसमंदिरात अखंड जागर करायचाय. मग फक्त नऊ दिवस नवरात्रीत देवीची पूजा करण्याची गरज नाही तर अखंडपणे या सर्व देवींची (चैतन्य देवींची)पूजा घडत राहील.

नुतन रविंद्र बागुल
(ब्रह्माकुमारी गामदेवी)

निर्वाचन आयोग ने शिवसेना के संविधान को अलोकतांत्रिक क्यों कहा?

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हरिगोविंद विश्वकर्मा
कभी हिंदू हृदय सम्राट के रूप दुनिया भर में लोकप्रिय बालासाहेब ठाकरे के परिवार और उनके वंशजीय उत्तराधिकारियों के लिए शुक्रवार का दिन बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा। सुबह जहां सुप्रीम कोर्ट ने उद्धव ठाकरे गुट की उस अपील को नकार दिया जिसमें डिप्टी स्पीकर द्वारा हड़बड़ी में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट के 16 विधायकों की सदस्यता को समाप्त करने के मामले को सात सदस्यीय पीठ को सौंपने की मांग की गई थी। वहीं शाम को उद्धव ठाकरे गुट को अब तक का सबसे बड़ा झटका तब लगा जब निर्वाचन आयोग ने शिंदे गुट को असली शिवसेना मानते हुए पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण देने की घोषणा कर दी।

कई लोग शिवसेना नाम और पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को देने के निर्वाचन आयोग के फैसले पर हैरान हो रहे हैं। दरअसल, उन्हें शिवसेना के इतिहास पर नजर डालनी चाहिए। शिवसेना की कार्यशैली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह रही है और यह सर्वविदित है कि आरएसएस गैर-राजनीतिक संगठन है। शिवसेना की स्थापना बाल ठाकरे ने भले ही 19 जून 1966 को कर दिया था, लेकिन निर्वाचन आयोग की नजर में शिवसेना संवैधानिक रूप से राजनीतिक पार्टी नहीं थी। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि शिवसेना न तो कभी लोकतांत्रिक पार्टी रही और न ही उसका संविधान लोकतांत्रिक रहा।

निर्वाचन आयोग ने सबसे पहले 1985 के बीएमसी चुनाव में शिवसेना को धनुष बाण चुनाव चिन्ह आवंटित किया था। उससे पहले चुनाव लड़ने वाले शिवसेना कार्यकर्ता को निर्वाचन आयोग निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में देखता था। बहरहाल शिवसेना संवैधानिक रूप से 14 अक्टूबर 1989 को राजनीतिक पार्टी तब बनी जब निर्वाचन आयोग ने उसे राजनीतिक पार्टी के तौर पर मंज़ूरी दी थी। शिवसेना के गठन के बाद से ही बाल ठाकरे का आदेश ही पार्टी का संविधान हुआ करता था। शिवसेना में बाल ठाकरे का कद इतना विशालकाय हो गया था कि शिवसेना लोकतांत्रिक पार्टी रह ही नहीं सकी।

आरंभ में तो पार्टी को कोई संविधान नहीं था, लेकिन 1999 में निर्वाचन आयोग से सख्त रवैये के बाद देश के सभी राजनीतिक दलों को पार्टी का संविधान बनाना पड़ा और कांग्रेस समेत देश के सभी राजनीतिक दलों को संगठन का चुनाव कराना पड़ा। सोनिया गांधी भी जितेंद्र प्रसाद को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। तब निर्वाचन आयोग के निर्देश पर आनन-फानन में शिवसेना का भी संविधान बनाया गया। कहा जाता है कि बाद में उस संविधान को फिर से पूर्ववत कर दिया गया। इसीलिए निर्वाचन आयोग ने उस संविधान को अलोकतांत्रिक कहा और उसी का हवाला देकर शिवसेना नाम और चुनाव चिन्ह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों वाली एकनाथ शिंदे की शिवसेना को देने का फैसला किया।

दरअसल, निर्वाचन आयोग के बार बार निर्देश के बावजूद शिवसेना का संविधान स्पष्ट नहीं रहा। बाल ठाकरे ने कभी निर्वाचन आयोग को सीरियसली लिया ही नहीं। उन्हें निर्वाचन आयोग के शक्ति का एहसास 28 जुलाई 1999 को तब हुआ, जब आयोग ने शिवसेना विधायक रमेश प्रभु की एक चुनावी सभा में हेट स्पीच देने का आरोप लगाकर बाल ठाकरे को छह साल के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया। बहरहाल, बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे भी शिवसेना को अपने पिता की तरह ही चलाना चाहते थे। लेकिन नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। शिवसेना की कमान संभालने के बाद उद्धव ऐसे ऐसे फैसले लेते रहे जिससे शिवसेना का जनाधार खिसकता रहा।

यह भी गौरतलब बात है कि जब तक बाल ठाकरे जिंदा और राजनीति में सक्रिय रहे तब तक महाराष्ट्र की भगवा गठबंधन में शिवसेना बड़े भाई के किरदार में रही। 1995 में जब भगवा गठबंधन की विजय हुई तो शिवसेना के मनोहर जोशी राज्य के मुख्यमंत्री और भाजपा के गोपीनाथ मुंडे उपमुख्यमंत्री बने, लेकिन 2014 के चुनाव के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना की भूमिका छोटे भाई की हो गई क्योंकि उसे भाजपा के 122 सीटों की तुलना में आधी यानी 63 सीट मिली और उसे मजबूरन मुख्यमंत्री पद भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को देना पड़ा।

बहरहाल, महाराष्ट्र में छोटा भाई बनने का यह अपमान उद्धव ठाकरे बर्दाश्त नहीं कर पाए और बदला लेने के लिए मौके का इंतजार करने लगे। 2019 के चुनाव में जब भाजपा की सीटें 122 से घटकर 106 हुई तो उन्हें बदला लेने का मौका मिल गया और उन्होंने ढाई भाजपा और ढाई साल शिवसेना के मुख्यमंत्री की मांग कर दी। जबकि दोनों दलों ने देवेंद्र फडणवीस को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने के नारे के साथ चुनाव लड़ा था। ढाई साल शिवसेना के लिए मुख्यमंत्री की मांग करते समय उद्धव जानते थे कि भाजपा हाईकमान उनकी मांग नहीं मानेगा। लिहाजा, उद्धव ठाकरे ने उसी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने की आत्मघाती निर्णय लिया जिसकी मुखर आलोचना बाल ठाकर जीवन भर करते रहे।

शिवसैना कार्यकर्ताओं और शिवसेना के विधायको और सांसदों का टेस्ट शुरू से कट्टर और आक्रामक हिंदुत्व का रहा है। ऐसे में वे कांग्रेस और एनसीपी का साथ मन से स्वीकार ही नहीं कर सके। यही वजह है कि पिछले साल उद्धव ठाकरे को जोरदार झटका देते हुए एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के 56 में से 40 विधायकों ने विद्रोह कर दिया और राज्य में भाजपा के साथ सरकार बना ली। इसके बाद उद्धव ठाकरे को एक और झटका तब लगा जब उनके 12 सांसद शिंदे गुट में चले गए। इसीलिए निर्वाचन आयोग के फैसले को उद्धव के लिए तीसरा और सबसे बड़ा झटका माना जा रहा है।

अब शिवसेना के सामने अस्तित्व का संकट है, क्योंकि शिवसेना नाम और पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण एकनाथ शिंदे को मिल चुका है। एक तरह से वह शिवसेना सुप्रीमो बन गए हैं। अब उद्धव के समर्थक भी कहने लगे हैं कि अपने फैसलों के चलते ठाकरे परिवार बाल ठाकरे की विरासत को संभाल नहीं पाया।

महाशिवरात्री महात्म्य

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।।सत्य गीता ज्ञान सांगण्या शिव अवतरले भुवरी।
अति आनंदे करुया आपण महाशिवरात्री साजरी।।

कालचक्र हे अविरतपणे फिरतच असते आपणाजवळ शिल्लक राहतात त्या केवळ गतकाळातील स्मृती. त्या स्मृतींना उजाळा मिळावा म्हणून देखील सण किंवा उत्सव साजरे केले जातात. सुरुवातीचा थोडा काळ तत्संबंधी सद्भावना, श्रद्धा, स्नेह जिवंत असतात. पण जसजसा काळ सरत जातो तस तसा स्नेह व श्रद्धा यांचा कधीकधी अंत होतो व उरतात त्या केवळ परंपरा.आज काल जे सण व उत्सव साजरे केले जातात ते केवळ एक परंपरा म्हणून साजरे केले जातात असे म्हणणे निश्चितच अतिशयोक्तीचे ठरणार नाही. भारत हा संस्कृती प्रधान देश आहे. भारतात जितके सण व उत्सव साजरे केले जातात तितके संपूर्ण जगात सुद्धा साजरे होत नसतील. परंतु कुठलाही सण व उत्सव यामागील आध्यात्मिक रहस्य जर का जाणले गेले तर तो उत्सव साजरा करतानाचा आनंद काही औरच असेल नाही. आता लवकरच येऊ घातलेला तुम्हा आम्हा सर्वांच्या आवडीचा ‘शिवअवतरणोत्सव’ अर्थात महाशिवरात्री याबद्दल आज आपण थोडेसे जाणून घेऊया. स्वयंभू अजन्मा निराकार परमपिता परमात्मा शिवाचा ‘अवतरण उत्सव’ हा महाशिवरात्रीच्या रूपाने साजरा केला जातो. आत्म्यांचा जन्म होतो आणि परमात्म्याचे अवतरण. आत्मा आणि परमात्मा यांच्यात हेच मुख्य अंतर आहे. कर्मबंधनामुळे आत्मा मातेच्या गर्भातून जन्म घेतो आणि जन्ममृत्यूच्या फेऱ्यात येतो परंतु परमात्मा पुनर्जन्माच्या चक्रात येत नाही. परमात्मा शिव स्वयंभू आहे त्याचा कोणी पिता नाही. आपण संपूर्ण आयुष्यभर शिवपूजा करीत आलो व्रतवैकल्ये, जागरण करीत आलो तरीही मनुष्यमात्रांचा पाप, ताप संताप का बरे मिटला नाही? शिवरात्रीचे वास्तविक स्वरूप काय आहे? शिवरात्री खऱ्या अर्थाने कशी साजरी केली गेली पाहिजे? शिवाचा रात्रीशी काय संबंध आहे? इतर देवी देवतांच्या मूर्तीवर फुले फळे मिष्ठाने वगैरे वाहतात पण शिवावर मात्रअकवधोतर्‍याची फुले वाहिली जातात. शिवाने असे कुठले कर्तव्य केले त्याची आठवण म्हणून महाशिवरात्री साजरी केली जाते?

माघ महिना हा वर्षाचा अकरावा महिना, माघ महिन्यात कृष्ण पक्षात येणार्‍या त्रयोदशीला महाशिवरात्र साजरी करतात. म्हणजे अमावस्येच्या दोन दिवस आधी येणारी तिथी खर्‍या अर्थाने कलियुग अज्ञान (ईश्वरा विषयीचे अज्ञान) रुपी रात्र आहे, त्यातील कृष्ण पक्षाची चौदावी रात्र, काळीकभिन्न रात्र, महारात्र. त्याच रात्रीस होतो शिव अवतरणोत्सव. जिथे शिवाला शारीरिक रूपच नाही तेव्हा शिवासाठी दिवस व रात्र यात काय फरक? खऱ्या अर्थाने आपण हे देखील जाणतो शिवाला ‘अमरनाथ’ म्हणजेच अमर आत्म्यांचे पिता किंवा ‘मृत्युंजय’ म्हणतात तरीसुद्धा त्यांचा जन्मोत्सव का बरे साजरा करतात? याचे कारण यदा यदाही धर्मस्य ग्लानिर्भवती भारत। (अ ४ श्लोक ७) या गीतेतील वचनानुसार जेव्हा ही सृष्टी मनोविकारांच्या वशीभूत होऊन अज्ञानअंधकारात बुडालेली असते आणि लोक पतित तसेच दुःखी होऊन अज्ञान निद्रेत झोपलेले असतात, कामक्रोधादि विकारांनी मानव संपूर्णत: अशांत झालेला असतो, धर्माची ग्लानी झाल्यानेमनुष्य धर्मभ्रष्टकर्मभ्रष्टझालेला असतो. थोडक्यात आत्मा पूर्णतः शक्तीहीन झालेला असतो अगदी अशाच वेळी ज्ञानसूर्य परमात्मा शिव अज्ञानरूपी अंधकाराचा विनाश करण्यासाठी हतौत्साही झालेल्या आत्म्यांना ज्ञानाची नवसंजीवनी देण्यासाठी सृष्टीवर अवतरीत होतात. महाशिवरात्रीचा सण हा केवळ दहा-बारा तासांच्या रात्रीशी संबंधित नसून अज्ञान रात्री शी संबंधित आहे. रात्री लोक विकारांच्या वशीभूत होतात, रात्री सामाजिक नैतिक अपराधही खूप होतात. सर्वत्र तमो गुणांचं वातावरण असतं. आणि नेमक्या याच घडीला परमात्मा शिवाचे, या करुणाकाराचे, जगनियंत्याचे, तारण हाराचे परम धामातून सृष्टीवर अवतरण होते व परमात्मा शिव ज्ञानरूपी अमृतव योगरूपी प्रकाशा द्वारा समग्र मनुष्य मात्राला तमो प्रधानते कडून सतो प्रधान स्वरूपात स्थित करवतात. थोडक्यात आसुरी समाजाचे परिवर्तन करून दैवी समाजाची स्थापना करतात. परमात्म्याचे अवतरण प्रत्येक युगात एकदा किंवा अनेकदा होत नाही तर केवळ कलियुगाच्या अंतिम समयी संगम युगात अर्थात कलियुगाचा अंत व सत्ययुग् आदि त्यांच्या संधी काळात दिव्य अवतरण होते. परमात्मा शिव निराकार ज्योतिर्बिंदू स्वरूप असल्याने त्यांचे दिव्य अवतरण एका वृद्ध मानवी शरीरात १९३६ मध्ये झाले असून त्यांच्या मुखाद्वारे परमात्मा शिव सत्य गीता ज्ञान अर्थात मनुष्यमात्रांना अमर कथा सांगत आहेत. या ज्ञानाची धारणा केल्यानेच मनुष्य पाप,ताप,संताप या सर्वांपासून मुक्त होतो. मनुष्य देवता तुल्य बनतो तसेच भारत भूमी स्वर्ग भूमी बनते म्हणूनच यावर्षी देखील आपण परमपिता शिव परमात्म्याच्या दिव्य अवतरणाची ८७वी शिवजयंती मोठ्या आनंदाने व उत्साहाने विश्वभरात साजरी करणार आहोत.

महाशिवरात्री कशी साजरी करावी? सर्वप्रथम महाशिवरात्रीच्या दिवशी भक्तगण व्रत ठेवतात. वास्तविकव्रत ठेवणे हे प्रेमापोटी त्याग करण्याचे प्रतीक आहे. त्यामुळे ‘महाशिवरात्री’ निमित्त आपल्या कमकुवत वृत्तीचा त्याग करून सदैव सर्वांप्रती शुभ व श्रेष्ठ वृत्ती धारण करण्याचे व्रते घ्यावेत्यामुळे कृती देखील आपोआपच शुभ व श्रेष्ठ होईल. कारण कुठलीही चांगली अथवा वाईट गोष्ट ही प्रथम वृत्तित धारण होते व नंतर ती वाणी व कर्मात येते म्हणून श्रेष्ठ वृत्तीचे व्रत धारण करणे हीच खरी ‘महाशिवरात्री’ होय. शिवरात्रीचे पर्व हे शिव परमात्म्यावर बळी चढवण्याचे पर्व समजले जाते. याचेच प्रतीक म्हणून काही ठिकाणी बळी देखील चढवितात. परंतु मन बुद्धी व सर्व संबंधाने शिवावर समर्पित होणे म्हणजे बळी चढणे होय. आपल्यातील सर्वात मोठी कमजोरी म्हणजे देह अभिमानाची. देहभान व देह अभिमान परमात्म्यावर समर्पित करावा. शिवलिंगावर धोतरा वाहतात. ही फुले वाहण्यामागील रहस्य हे आहे की आपल्यातील विषतुल्यविकारांचे दान शिव परमात्म्याला देऊन जीवनात संपूर्ण पवित्रतेचे व्रत धारण करावे. भक्तगण महाशिवरात्रीच्या दिवशी जागरण करतात. वास्तविक कलियुगी अज्ञान रात्रीत ईश्वरी ज्ञानाद्वारे आत्मिक ज्योती सदैव जागृत ठेवणे अर्थात मन बुद्धीने जागृतावस्था आणणे हेच खरे जागरण आहे. शिवाची जितकी म्हणून नावे आहेत ती सर्व त्याच्या कर्तव्याचा परिचय देतात. उदाहरणार्थ ‘पशुपतिनाथ’ हे नाव घ्या. येथे पशु हा शब्द गाय वा इतर एखाद्या पशुचा वाचक नाही तर ‘आत्मा’ या शब्दाचा वाचक आहे. भारत तसेच परदेशात जे शैव मताचे लोक आहेत त्यांच्या मतानुसार आत्म्याला ‘पशु’ म्हटले गेले आहे.’पशु’ चा अर्थ आहे बांधलेला, आणि प्रत्येक आत्मा माया अर्थात काम क्रोधादि मनोविकार तसेच प्रकृतीच्या बंधनात अडकलेला असतो. म्हणूनच त्याला ‘पशु’ म्हटले जाते. शिव परमात्मा स्वतः बंधनापासून सदैव मुक्त आहे व आत्मरूपी पशूंना मायारूपी पाशापासून मुक्त करणारा आहे म्हणूनच त्याचे पशुपतिनाथ, पापकटेश्वर, मुक्तेश्वर, त्रिभुवनेश्वर इत्यादी नावांनी गायन पूजन केले जाते. आता प्रश्न उद्भवतो की शिवाने आत्मा रुपी पशूंना माया पाशातून कधी मुक्त केले की ज्यामुळे त्याचे नाव पशुपतिनाथ किंवा बाबुलनाथ पडले? त्याने मानव मात्रांची दुःखे कधी हरण केली की त्याला हर व दुःखहर्ता म्हटले गेले? अर्थातच जेव्हा अखिल मानव पतित किंवा पापी झालेले असतील, षङरिपुनी वेढलेले असतील, आणि दुराचाराने भारलेले असतील, असा काळ तर कलियुगाचा अंतिम समयच असतो. म्हणूनच कलियुगाच्या अंतिम समयी परमपिता शिव-परमात्मा जगाचे कल्याण करण्याकरिता या सृष्टीवर अवतरतो.

आपल्या भारतात बारा ज्योतिर्लिंगे प्रसिद्ध असून ती पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण आणि मध्य भागात आढळतात. ती भारतवासीयात भावनात्मक एकात्मता देखील उत्पन्न करतात. भारताबाहेरील देशांमध्ये ही अशाच प्रकारच्या शिवप्रतिमा स्थापित झालेल्या आढळतात. त्या शिवप्रतिमेचे देखील मनोभावे गायन व पूजन केले जाते. जपानमध्ये बौद्ध अनुयायी शिवलिंग् समान प्रतिमा ‘चीन किनसेकी’ समोर ठेवून तिच्यावर मन एकाग्र करतात. इंडोनेशियाच्या जावा व सुमात्रा या दोन्ही ठिकाणी शिवाचे गुणगान होत असताना दिसते. इजराइल देशातही एक शिवलिंग ज्याला ‘बेलफेगो’म्हटलेजाते, शपथ घ्यायचा रिवाज तेथील जनमानसात आहे. चीन देशात शिवलिंगाची उपासना ‘होवेडहिपुह” नावाने चिनी लोक करतात. स्कॉटलंडच्या ग्लास गो शहरात देखील शिवलिंग आहे. इजिप्त मध्ये शिवलिंगाची पूजा आईसीस वओसिरिस नावांनी होते. शिवलिंगाला शिऊन म्हटले जाते. इटली देशातील रूस शहरात शिवलिंगास ‘प्रियपस’ म्हटले जाते.ग्रीस मध्ये शिवलिंगाचे फल्लुस हे नाव आजही प्रचलित आहे, फल्लुस या ग्रीक शब्दाचा अर्थ संस्कृतात ‘फलेश’ अर्थात त्वरित फळ देणारा असा होतो. ऑस्ट्रिया तसेच हंगेरीत ‘तंत्रिस्वक’ नामक शिवलिंगाची उपासना केली जाते. मलेशिया, जर्मनी, स्पेन, सिंगापूर, श्रीलंका, वर्मा, मेक्सिको इत्यादी देशातही शिवलिंगाची उपासना केली जाते. येशू ख्रिस्त, गुरुनानक, पैगंबरयांनीही परमात्म्याला ज्योती स्वरूपच मानले आहे. थोडक्यात शिव परमात्म्याच्या प्रतिमेला विश्वातील सर्व धर्मातील लोक परमेश्वर मानतात. शिव परमात्मा विश्ववंदनीय आहे हे आपणास यावरुनप्रत्ययास येते. थोडक्यात महाशिवरात्री हा सण केवळ भारत वासियांचा नसून सर्व विश्व बांधवांचा आहे.

नुतन रव्रिंद्र बागुल
ब्रह्मकुमारी (गामदेवी)

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