पुस्तक समीक्षा – एक गोंड गांव में जीवन: वेरियर एल्विन

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अजय चन्द्रवंशी

भारतीय जनजातियों पर शोध करने वाले मानवशास्त्रियों में वेरियर एल्विन(1902-64) का विशिष्ट स्थान है।वे काफी लोकप्रिय हुए और कई मामलों में विवादास्पद भी रहें।मुरिया जनजाति पर उनका शोध ‘मुरिया एंड देयर घोटुल’ विश्व स्तर पर चर्चित हुआ।उनकी पद्धति से कुछ लोगों को असहमति भी रही है, खासकर ‘काम’ सम्बन्धो के नियमन के उनके चित्रण को लेकर।बाद में जनजातीय ‘नेशनल पार्क’ के उनकी अवधारणा और उनके वैवाहिक संबंधों को लेकर भी उनकी आलोचना की जाती रही है।मगर जहां तक हमारी जानकारी और समझ है उनकी पद्धति और दृष्टि से किसी को असहमति हो सकती है, लेकिन जनजातियों के प्रति उनका प्रेम और समर्पण निःसन्देह है।वे इंग्लैंड से भारत मुख्यतः मिशनरी कार्य के लिए आए थे, मगर अपने अंतर्द्वंद्वों, गांधी जी के विचार और सान्निध्य, जनजातियों की स्थिति, मिशनरियों के कार्यों के तरीकों को देखकर उनके विचार बदल गए।फिर उन्होंने जनजातियों के बीच रहकर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए काम करने का निश्चय किया;और इसी दौरान अपने विख्यात मानवशास्त्रीय शोध कार्य किए।

‘एक गोंड गांव में जीवन’ Leaves from the jungle,1936 का हिंदी अनुवाद है जिसमे एल्विन के शुरुआती जीवन(1932-35) के अनुभव हैं, जो उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज किए थे। यह डायरी उन्होंने मध्यप्रदेश के अमरकंटक के निकट ‘करंजिया’ गांव में रहते हुए लिखा था। डायरी तिथिवार लिखी गई है, और उसमे ब्यौरे अधिक हैं; रचनात्मक विश्लेषण कम।फिर भी कहीं-कहीं वर्णन में रोचकता है और युवावस्था की अल्हड़ता भी।चूंकि मूल कृति अंग्रेजी में है, इसलिए अनुवाद की अपनी सीमा भी है।एल्विन अभी मध्यभारत के जनजातीय जीवन मे प्रवेश कर रहे थें, उन्हें देख रहे थे, समझ रहे थे। उन्ही के शब्दों में “वस्तुतः हम नृतत्वशास्त्र के बारे में कुछ न जानते थे हमारा लक्ष्य केवल मानववादी था”। पुस्तक में दो भूमिकाएं हैं; प्रथम संस्करण के समय और द्बितीय संस्करण(1956) के समय।द्वितीय संस्करण की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि एल्विन के अनुसार प्रथम संस्करण की भूमिका में उन्होंने ब्रिटिश शासन और चर्च के प्रति अपने दृष्टिकोण को ब्रिटिश शासन होने के कारण पूर्णतः व्यक्त नहीं किया था। इसलिए इस भूमिका में उन्होंने कई बातों का ‘खुलासा’ किया है।

एल्विन भारत आने (1927) से पूर्व विद्यार्थी जीवन से भारत के प्रति सहानुभूति रखते थे और चाहते थे कि ‘उनकी जाति’ ने यहां जो नुकसान पंहुचाया है उसकी कुछ भरपाई कर सकें। इस कारण भारत आने पर वे पूना के क्रिश्चियन विचारों पर आधारित ऐसे आश्रम से जुड़े “जिसमे भारतीय और यूरोपीय लोगों को पूर्ण समानता के आदर्श पर सदस्यता देने का प्रावधान था(उन दिनों यह असमान्य था)और जिसका लक्ष्य धर्म-परिवर्तन न होकर विशुद्ध विद्यानुराग था”। एल्विन मानते हैं कि 1928 में साबरमती आश्रम में गांधी जी से मिलने के बाद उनका “जीवन ही बदल गया”। वे गांधी जी के सत्याग्रह, अहिंसा, प्रेम के दर्शन से अभिभूत थे। वे अब गांधी जी और कांग्रेस के करीब आने लगें। गांधी जी भी उनसे पुत्रवत स्नेह करते थे।उनके गांधी और कांग्रेस प्रेम से जाहिर है ब्रिटिश प्रशासकों को असुविधा होने लगी। वे एल्विन की आलोचना करने लगे और उन्हें धर्म की राह से भटका हुआ माना जाने लगा। यहां तक कि 1932 में ही जब वे कुछ समय के लिए इंग्लैंड गए तो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया सेम्युअल होर ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया और उन्हें पासपोर्ट देने से इंकार किया गया। अंततः उन्हें राजनीति में भाग न लेने और सरकार की आलोचना न करने के शर्त पर ही पासपोर्ट दिया गया। चर्च की प्रचलित मान्यताओं से उनकी असहमति बढ़ती जा रही थी और अंततः “मैंने 1936 में इंग्लैंड जाकर आर्क बिशप टेम्पिल की सलाह पर ‘डीड ऑफ़ रेलिकविश्मेन्ट’ पर हस्ताक्षर कर और औपचारिक रूप से अंततः मैंने चर्च ऑफ इंग्लैंड से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया”।

एल्विन ब्रिटिश साम्राज्यवाद और धर्म के सम्बंध को पहचानते थे। लिखा है “मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूं कि चर्च ऑफ इंग्लैंड और ब्रिटिश साम्राज्यवाद में मिलीभगत थी। दोनों की नीति भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति दमनकारी थी। इस कारण इसमें मेरा विश्वास टूट गया। सारी मिशनरी गतिविधि से मुझे ऊब होने लगी”। और भी “चर्च के साथ मेरे झगड़े का मूल कारण यही था: मैंने भारतीयों का धर्म परिवर्तन करने से मना कर दिया था”।

एल्विन के शोध कार्य मे उनके मित्र शामराव हिवाले का महत्वपूर्ण योगदान है:कई किताबों में एल्विन के साथ उनका नाम भी है। इस डायरी में उनका जिक्र बार-बार है क्योंकि करंजिया आश्रम में दोनों साथ-साथ रहें। एल्विन ने भूमिका में भी उनका जिक्र किया है “शामराव का शोलापुर के निकट माधे में जन्म हुआ था और जब यह डायरी शुरू की गई उसकी उम्र तीस बरस थी। मुम्बई के विल्सन हाई स्कूल और कोल्हापुर के राजाराम कालेज में उसने शिक्षा पाई थी।…..1929 में गुजरात जांच के लिए शामराव मेरे साथ था और तब से हम दोनों ने मिलकर कार्य किया।”
शामराव द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने जब गांधी जी इंग्लैंड जा रहें थे, तब उसी जहाज में थे। गांधी जी से प्रभावित होकर वे उन्ही के साथ इंग्लैंड से वापस आ गए और कांग्रेस से जुड़ गए। डायरी में शामराव मुख्यतः चिकित्सक की भूमिका में अधिक दिखाई देते हैं। इस रूप में जनजातियों से उनकी गहरी सहानुभूति दिखती है। प्रारम्भिक चिकित्सा के साथ-साथ वे आश्रम के बच्चों के शिक्षक के रूप में भी अपना योगदान देते दिखाई देते हैं।डायरी में एल्विन के एक अन्य सहयोगी मित्र श्रीकांत का भी जिक्र आता है,मगर उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है।

एल्विन के अनुसार उन्होंने गोंड शब्द पहली बार 1931 में जमनालाल बजाज से सुना था। उन्होंने ही उन्हें सेंट्रल प्रोविंसेस जाकर आदिवासियों के कल्याणार्थ कार्य करने को प्रेरित किया जिसे गांधी जी ने सहमति दी।इस तरह विभिन्न स्थानों की तलाश करते अंततः विशप वुड की सलाह पर उन्होंने ‘करंजिया’ को आश्रम के लिए चुना। इस स्थान के चुनाव का एक और कारण एल्विन के अनुसार “उन्होंने (बिशप) बताया जिन पाँच यूरोपीय लोगों ने वहां जाकर डेरा जमाया उनमे से चार एक बरस के अंदर ही चल बसे। ऐसे ही स्थान की हमे तलाश थी और 28 जनवरी, 1932 में शामराव और मैंने वहां का रुख किया और इसके साथ ही मेरी डायरी भी शुरू हुई।”

प्रथम संस्मरण की भूमिका में एल्विन ने उन चरित्रों के बारे में लिखा है जो आश्रम और आस-पास के गांव के रहे थें, और जिनसे उनका सम्पर्क हुआ। इनमे आदिवासियों के गुनिया ‘पंडा बाबा’ है, नौजवान ‘तूता’ है, ‘फुलमत’ है, ‘गणेश’ है, ‘हैदर अली’ है। इनमे से अधिकांश जनजाति हैं। एल्विन इन चरित्रों के ‘खूबियों’ को उद्घाटित करते हैं, जो जाहिर है तत्कालीन जनजातीय परिवेश संस्कृति के मुताबिक है। उनकी लोक मान्यताएं है, विश्वास-अंधविश्वास है, चिकित्सा है, प्रेम है, झगड़े हैं। मगर इन सबके बीच एक निर्दोषिता है। यहां स्वार्थ नहीं है। यदि ‘चालाकी’ है भी तो सीमित है, महज सामान्य सुविधाओ के लिए। एल्विन इन सबको कौतूहल से देखते हैं। जिन परम्पराओं, संस्कृति पर आगे जाकर उन्होंने विस्तृत रूप से लिखा है अभी उनसे परिचय हो रहा था,उनके कई कर्मकांडो का यहाँ उल्लेख है।मगर इन सबके बीच आदिवासियों के प्रति उनका प्रेम बराबर दिखाई देता है। वे करंजिया आश्रम में उनके लिए स्कूल, हॉस्पिटल खोलते हैं; धीरे-धीरे उसका दायरा आस-पास के गांव में फैलाने का प्रयास करते हैं। कुष्ठ आश्रम खोलते हैं। देश-विदेश से संसाधन जुटाने का प्रयास करते हैं। कई बार बीमार पड़ते हैं, खतरे में पड़ते हैं। शामराव बराबर उनका साथ देते हैं। दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ दिखती है।

डायरी में अमरकंटक का कई बार जिक्र है। यहां का मेला, नर्मदा नदी, कपिल धारा ,साधुओं का जिक्र है। उसी तरह पेंड्रा रेलवे स्टेशन का जिक्र है, क्योकि रेल यात्रा का उस क्षेत्र के लिए वह अंतिम पड़ाव था। फिर वहां से अक्सर पैदल या बैल गाड़ी से जाना पड़ता था।यात्रा में कई तरह की कथनाइयां आती थीं। करंजिया में रहते एल्विन ने कई बार बम्बई-पूना की यात्रा की। तीस के दशक में जंगलों में जंगली पशुओं की भरमार थी इसलिए जगह-जगह बाघ, तेंदुआ,सांप,भालू के दिखाई देने और मनुष्यों पर उनके हमले का जिक्र है।

डायरी में मुख्यतः गोंड, बैगा और अगरिया जनजाति का जिक्र है, जो उस परिवेश में थे। एल्विन ने आगे जाकर उन पर किताबें लिखी। ‘द बैगा’ (1939), ‘अगरिया’ (1942)। इस क्षेत्र की लोक संस्कृति और लोकगीत और लोककथाओं पर भी उन्होंने किताबें लिखी। एल्विन जितने मानवशास्त्री थे, उतने साहित्यिक भी; डायरी में कई जगह अंग्रेजी कविता और पुस्तकों का जिक्र आता है, जिससे उनके साहित्यिक लगाव का पता चलता है।इस तरह यह किताब मानवशास्त्र के विद्यार्थियों के साथ-साथ छ्त्तीसगढ़ के लोक संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए भी उपयोगी और रोचक है।

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